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आनन्द
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रविवार का दिन! अलसाया सा मन! मौसम बहुत सुहावना है। रात ख़ूब बारिश हुई थी और अभी भी हल्की-हल्की फुहारें पड़ रही हैं। हम सुस्ती से उठकर चाय पी ही रहे थे कि अचानक ख़याल आया- क्यों न इस मौसम का आनन्द लेने हम लॉन्ग-ड्राइव पर चलें। लाल रंग की मारुति 800 से निकल पड़े हम, बिना पूर्व कार्यक्रम की रूपरेखा बनाए। कहाँ जाना है नहीं मालूम, पर बतकही करते हुए चले जा रहे हैं। हल्की भूख लगी तो झालमुढ़ी ख़रीदकर काग़ज़ के ठोंगे से निकाल-निकालकर खा लिया। प्यास लगी तो सड़क किनारे किसी चापाकल पर अँजुरी से ठण्डा-ठण्डा पानी पी लिया। चाय की तलब लगी तो किसी चाय की टपरी पर कुल्हड़ में सुड़क-सुड़ककर इलायची वाली चाय पी ली। स्टीरियो पर कोई मधुर गीत बज रहा है और साथ में हम गुनगुना रहे हैं। कभी कोई मज़ाक या कोई मज़ेदार चुटकुला। ज़ोर की भूख लगी तो किसी सस्ते से ढाबे पर रोटी, तरकारी, दही खा लिया। कोई फ़िक्र नहीं कि लोग क्या सोचेंगे, जो मन को भाया वह कर रहे हैं। क्या मस्त दिन और ज़िन्दगी का मज़ा! कितना सुन्दर और सुखद है न! और इसपर बारिश तेज़ हो जाए। अहा! सोने में सुगन्ध!
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बरसात
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पानी
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अब भी याद है बचपन की वह झमाझम बारिश। ख़ूब जीभरकर बारिश में नहाना और पेड़-पौधों को दुलराना। घर के सभी बर्तनों में बारिश का पानी भरकर रखना। छत को ख़ूब रगड़-रगड़कर धोना। छत की नाली को बंदकर एक छोटा तरणताल का रूप देकर उसमें छप-छप कूदना और काग़ज़ की नाव बनाकर उसे तैराना। अँजुरी से पानी उलीच-उलीचकर घर के सभी लोगों को भिगो देना। घंटो कैसे निकल जाते, पता ही नहीं चलता था। सड़क पर लोगों का बारिश से बचने के लिए क्या-क्या जतन करते हुए देखना मन को बहुत भाता था। रिक्शावाला ख़ुद भीगकर सवारी को प्लास्टिक में छुपाए हुए है; लेकिन बारिश है कि अपने बौछारों से प्लास्टिक को उड़ा दे रही है। साइकिल-सवार तेज़ी से भाग रहा है और बग़ल से गुज़रने वाली गाड़ी के छींटे से कीचड़ में सन गया है। छोटे-छोटे बच्चे बारिश में उछल-कूद कर रहे हैं और उनकी माताएँ ग़ुस्सा हो रही हैं कि ज़्यादा भीगने से वे बीमार होंगे। चिड़िया बारिश से छुपने के लिए ओसारे में छुप गई है और चीं-चीं कर अपने साथियों को छिपने के लिए बुला रही है। सब कुछ बहुत सुहावना होता था।
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मज़ा
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मस्ती
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ऐसा दिन भी होता था कभी, जब हम बेफ़िक्र होते थे। न कोई डर, न किसी से रंजिश। जीवन बस जीवन - चहकना, महकना और खिलखिलाना। धीरे-धीरे समय को तेज़ी का रोग लग गया। अब वह ठहरता ही नहीं; न अपने लिए, न किसी अपनों के लिए। समय के पीछे हम सभी बेतहाशा भाग रहे हैं। यह सब बेसबब नहीं; लेकिन वक़्त की कसौटी ने ऐसे ही परखने का मन बना लिया है। हम भाग रहे हैं, बस भाग रहे हैं। न समय ठहरता है, न मन, न मानव। ठहर गए, तो हार गए। भले इसके लिए सुकून को तिलांजली दे दी गई। बस एक ही धुन कि सबसे आगे हम। आख़िर कब तक? जब समझ आया कि जीवनभर हम भागते रहे, ख़ुद को ख़र्च करते रहे और हाथ आया तो बस मलाल। तब सोचते, काश! थोड़ा थमकर थोड़ा जीकर जीवन का लुत्फ़ उठाए होते।
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पड़ाव
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सफ़र
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ज़िन्दगी
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उत्सव
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अक्सर सोचती हूँ कितना छोटा और सीमित होता है जीवन। सभी को काल कवलित होना ही है। फिर क्यों है इतना त्राहिमाम्? जन्म के बाद से ही ख़ुद को साबित करने के लिए भेड़चाल में घुसना पड़ता है। कैसे सबसे आगे आया जाए। कितनी सुख-सुविधा जुटाई जाए। राह चलें, तो दस लोग बोले कि देखो वह कोई ख़ास जा रहा है। अमीरी दिखाने के लिए बड़ी और महँगी गाड़ियाँ, विशाल कोठी, ब्रांडेड कम्पनी के वस्त्र, ज़बरदस्ती का रुआब। विशिष्ठ वर्ग का दिखने और उस जीवन-स्तर को बनाए रखने में आदमी सामान्य जीवन जी नहीं पाता है। धीरे-धीरे मनुष्य इतना दम्भी होता जा रहा है कि जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियों का आनन्द नहीं ले पाता है। आदमी ने ख़ुशी और आनन्द को तवज्जोह न देकर शोहरत-दौलत को दिया। ख़ूब कमाया और शान से लुटाया। पर अंत समय में सब कुछ हाथ से फिसल जाता है। परहेज़ी-खाना, नियमित रूटीन, दवा, डॉक्टर और घरवालों पर बोझ। जिनके लिए जीवनभर कमाया और जीवन गँवाया, वे भी अब दूर भागते हैं। यही जीवन का वर्तमान परिदृश्य और यही जीवन का सत्य!
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जीवन की अन्तिम यात्रा - बनारस
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आज चारों तरफ़ कोहराम मचा है। आपाधापी के इस माहौल में हर आदमी दूसरे को गिराकर ख़ुद ऊपर उठना चाहता है। ईर्ष्या-द्वेष ने हर आदमी के मन में घर बसा लिया है। सभी एक दूसरे को सन्देह से देखते हैं। ज़रा-ज़रा-सी बात पर आपा खो देते हैं। दूसरों के विचारों को सम्मान देना तो अब ऐसा लगता है जैसे यह हमारी परम्परा का हिस्सा ही नहीं रह गया है। स्त्री और बच्चे बहुत ज़्यादा असुरक्षित हो चुके हैं। आज हर लोग डरे हुए हैं कि कब हमारे साथ क्या हो जाए। छोटी-छोटी बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं। ऐसी-ऐसी हिंसक घटनाएँ हो रही हैं कि मन विचलित हो जाता है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हम सभी ख़ुद को बेबस महसूस करते हैं। कैसे इन सबसे नजात पाया जाए?
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दुःख व आँसू
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जहाँ तक मैं सोचती हूँ कि मनुष्य की मनोवृत्ति को सुधारा जाएगा, तभी उसकी प्रवृत्ति सुधरेगी और समाज में समुचित बदलाव हो सकता है। इस बदलाव की शुरुआत निःसन्देह घर और स्कूल से ही सम्भव है। हालाँकि इस दिशा में स्वयंसेवी संस्थाएँ एवं समाज-सुधारक प्रयासरत हैं। फिर भी हम असफल हो रहे हैं और समाज में नफ़रत का वातवरण बढ़ता जा रहा है। हर माता-पिता और स्कूल अपने बच्चों को प्रेम व सम्मान देने का बीजारोपण बचपन से करें, तो मुमकिन है कि बदलाव को एक नई दिशा मिलेगी। हर माता-पिता निःसंकोच मनोविश्लेषक से मिलकर बच्चे की मनोवृत्ति का पता करें और उनके निर्देशों का पालन करें। हर सरकारी अस्पतालों में मनोविश्लेषण का विभाग होना चाहिए; जैसे बच्चों का टीकाकरण अनिवार्य होता है, वैसे ही यह भी अनिवार्य होना चाहिए।
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उमंग
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उत्साह
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प्रकृति द्वारा प्रदत्त और हमारे द्वारा सृजित समस्त वस्तुएँ प्रकृति की अक्षुण्ण सम्पदा हैं। सूर्य, हवा, पानी, जंगल, ज़मीन, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और भी बहुत कुछ हमें प्रकृति ने दिया है। प्रकृति ने जीभरकर हमें दिया है; लेकिन हम हैं कि प्रकृति और जीवन का अपमान करते हैं। जबकि जीवन कितना ख़ूबसूरत है। अलौकिक है। खुश रहना, आनन्दित रहना, दूसरों को सुख देना हमारी आन्तरिक सम्पत्ति है। यह ऐसी सम्पदा है, जिसे हम छू नही सकते, बल्कि एहसास कर सकते हैं। सबसे बड़ी ख़ूबी जो हम मानव को प्रकृति ने दी है, वह है हमारा मस्तिष्क एवं सोचने, समझने और महसूस करने की शक्ति। तो क्यों नहीं हम प्रकृति के इस तोहफ़े का आनन्द उठाएँ? जब जागो तभी सवेरा। उठो और निकल पड़ो प्रेम पाने और प्रेम लुटाने, ख़ुशियाँ बटोरने और ख़ुशियाँ पसारने। इंसानी जीवन बहुत नेमत से मिलता है, इसे बहुत सोच-समझकर आनन्द के साथ ख़र्च करना चाहिए; ताकि अंत समय में हम ख़ाली हाथ न रहें, बल्कि प्रेम और आनन्द की पुड़िया हमारी मुट्ठी में बंद हो, जब हमारी आँखें बंद हों।
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प्रफुल्लित
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- जेन्नी शबनम (1.8.2019)
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13 comments:
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-08-2019) को "हरेला का त्यौहार" (चर्चा अंक- 3416) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
बहुत सुंदर और सार्थक लेख और संस्मरण। सुंदर भाव आध्यात्मिक सोच के साथ ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-08-2019) को "मेरा वजूद ही मेरी पहचान है" (चर्चा अंक- 3419) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत अच्छा और मन से लिख अहै आपने. बधाई!
All in One in Article .... nice keep it up!
प्रिय बहन जेन्नी शबनम जी
आपके इस लेख को पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. आपने अपने लेख के द्वारा बहुत ही गहरे सवालों को उकेरा है.वाकई आज आदमी भागदौड़ भरी जिंदगी में दो-छण जीवन की खुशियों को भी जगह देकर आनंदित हो पाता?
इतने सुन्दर लेख को पढवाने के लिये,धन्यवाद.
अशोक आंद्रे
बहुत बढ़िया लिखा , ढेर सारी यादें और जीवन के हर पहलू को देखते हुए गहनता से वर्णन करना , सब कुछ बहुत अच्छा लगा ।
आनन्दमय क्षणों का खूबसूरत वर्णन! पहले पैराग्राफ ने तो मन ललचा दिया। ये सुखद क्षण बड़े भाग्य से मिलते हैं। हार्दिक शुभकामनाएँ!
प्रभात बेला में ख़ुशियों और प्रेम का संदेश देता यह आलेख सूखे मन को सरस कर गया।बहुत सुंदर सटीक बात कही है जेन्नी जी, आज बाहरी दिखावे और आगे बढने की होड़ ने मनुष्य को संवेदनहीन बना दिया औरों के लिए तो है ही, अपने लिए भी है। बंधी बधाई जिंदगी, प्रकृति से दूर नीरस जीवन जिए जा रहा है।
सही संदेश देता सार्थक आलेख जेन्नी जी।बधाई
छोटे-छोटे सुखों का आनन्द ,इतना सहज जैसे साँसों का आना-जाना ,इससे दूर होकर जीवन में अस्वाभाविकता ही बढ़ती है .पर इसके लिये मन चाहिये -निर्द्वंद्व और कुण्ठा रहित.सबके लिये आसान नहीं.
बहुत ही सुन्दर पोस्ट |
सामान्य
बहुत ही मनभावन और सुंदर
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