Sunday, October 17, 2010

14. ये डिग्रियाँ ये तमगे भला किस काम के






ढ़ेर सारी डिग्रियाँ, प्रशंसा पत्र, कार्य-कुशलता प्रमाण पत्र और अन्य सर्टिफिकेट्स की भरमार! 


 फिर ऐसा क्यों है कि जीवन के हर क्षेत्र में सिर्फ हार मिलती है। क्या ये डिग्रियाँ  महज़ कागज़ का टुकड़ा है, या फिर उस वक़्त की सक्षमता, अध्ययनशीलता और  कार्यकुशलता की निशानी जो अब अक्षमता में बदल चुकी है ऐसा क्यों होता है? बचपन से अब तक की सभी सफलताएँ यूँ अचानक कैसे असफलता में बदल जातीं है? ऐसा कैसे हो जाता है? क्यों हो जाता है? क्यों हर वक़्त उम्मीद की जाती है कि शिक्षित स्त्री से कभी कोई गलती हो ही नहीं सकती? जीवन के हर क्षेत्र में उसके 'परफेक्ट' होने की न सिर्फ उम्मीद बल्कि उसे 'होना ही है' ऐसा माना जाता है कोई चूक नहीं होनी चाहिए, चाहे वह उसके शिक्षा प्राप्ति का विषय रहा हो या नहीं, या फिर उसने उस सम्बन्ध में कभी नहीं जाना हो हर वक़्त हर अपेक्षाओं की हर कसौटी पर खरा उतरने की न सिर्फ उम्मीद बल्कि खरा सोना की तरह 24 कैरेट खरा होने की बाध्यता भी होती है  
 
इससे भली तो वो स्त्रियाँ हैं जिन्होंने कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली हैं। उनका जीवन न तो अवसाद में बीतता है न पति या ससुराल वालों को शिकायत रहती है कि वो कोई भी गैर वाज़िब माँग कर सकती है। इनके मन में भले ही शिकायत हो पर जुबां पर लाने का साहस नहीं करती हैं। इनसे सिर्फ घर चलाने, पति और ससुराल वालों के सत्कार की उम्मीद की जाती है भले ही बात-बात पर ताना सुनती है कि कैसी गँवार से पाला पड़ा है, मुर्ख कोई बात ही नहीं समझती है पति की हमबिस्तर होने के दौरान सोने के कोई जेवर या कोई उपहार माँग ले तो पति भी सोचता है चलो फिर भी ये सस्ते का सौदा है, जेवर या उपहार के बदले में पत्नी और भी अच्छी गुलाम बन के रहेगी वेश्या के पास जाओ तो शायद इससे ज्यादा की माँग कर बैठती और एक-एक पल का हिसाब चुकता करना पड़ता। घर के काम के लिए अगर कामवाली को रखो तो हर काम के लिए अलग-अलग पैसे दो समाज में मुफ़्त में तारीफ़ भी मिल जाती है कि वो कितना अच्छा पति है अपनी गँवार और अनपढ़ पत्नी को कितना मानता है। इधर पत्नी भी खुश, इठलाते हुए अपना तोहफा सबको दिखाती है की एक और जेवर या उपहार पति परमेश्वर ने दिया। साथ ही मन में सोचती है कि उसकी माँग पर ये भी तो हो सकता था जेवर तो दूर की बात दो चार थप्पड़ जड़ देता तो? क्या ये कम नहीं कि हर पर्व त्यौहार पर जब अपनी माँ के लिए साड़ी खरीदता है अपनी पत्नी को भी साड़ी देता है, और कभी कभार की मार भूल जाए तो उसे जलाया तो नहीं गया न, क्या ये कम एहसान है ससुराल वालों का या पति परमेश्वर का। जब भी पति के लिए तीज का व्रत रखो तो पति महोदय के चेहरे की मुस्कान और पत्नी के साथ सुबह-सुबह उठकर उसके खाने के प्रबंध में हिस्सा लेना क्या ये कम बड़ी बात हुई भला साल में ऐसा मौक़ा बार-बार तो आता नहीं जब पूजा के कारण सम्मान मिले, इसलिए इस पक्के फ़ायदे का लाभ उठाने से चूकना भी नहीं चाहिए एक तो नयी साड़ी, उसपर से पति का प्यार। वाह वाह! 



अरे निरक्षर होने का बहुत फ़ायदा है एक तो मलाल नहीं रहता कि इतना पढ़ लिख कर क्या किए, क्या यही चुल्हा-चौका! अब चुल्हा-चौका को क्या पता कि काम करने वाली स्त्री शिक्षित है कि अशिक्षित? चुल्हा तो हर हाल में जलेगा और चौका है तो खाना पकेगा ही, घर के लोग शिक्षा देख कर भूख़ पर नियंत्रण थोड़े न रखेंगे अब भला भूख़ का भी शिक्षा से क्या सम्बन्ध? खाना स्वादिष्ट होना चाहिए बस, भले विटामिन को पानी में धोकर बहा दिया जाए या कि प्रोटीन को चुल्हा पर जला दिया जाए पति को पौष्टिक खाना नहीं बल्कि थाली में कई प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन और पत्नी का गर्व से मुस्कुराता चेहरा दिखना चाहिए बस। भले इससे पति महोदय हाथी से टक्कर लेने लगे और शरीर में रोग को न्योता देने लगे आजकल घर में एक काम वाली ज़रुर होती है क्योंकि अब ये आम मध्यम वर्ग का ज़रूरी हिस्सा है अन्यथा लोग सोचेंगे कि निम्न वर्ग का घर है, भले ही घर में कई लोग हों काम करने के लिए

तो बस इनके फायदे देखिए काम वाली ने सारा घर और रसोई साफ़ कर दिया, कपड़े भी साफ़ कर दिए एक कप चाय और दो पावरोटी दे दो तो सब्जी भी कटवा लो और आँटा भी गूँथवा लो अब कपड़ा तो आयरन करने वाले को दे दिया क्योंकि साहब को कड़क आयरन चाहिए, साथ में बच्चों का कपड़ा भी क्योंकि स्कूल में साफ़ और अच्छा आयरन किया हुआ  ड्रेस चाहिए तो इन सब काम से छुटकारा अब पत्नी पढ़ी लिखी नहीं तो पैसे के हिसाब-किताब से मुक्ति न बाज़ार हाट करना है, न किसी सामान के ख़त्म होने या पैसा के कम होने की चिंता करनी है पति महोदय को जब समय मिले सामान खरीद कर लाएँगे बस लिस्ट लिखवा देना है न उधो का लेना न माधो का देना कोई चिक-चिक नहीं कि तुम ज्यादा खर्च करती हो बस फिर क्या, सुबह फटाफट नाश्ता, टिफिन और बच्चे को तैयार कर देना है फिर निश्चिन्त होकर चाहे तो सो जाओ या टी.वी देखो। बच्चे दिन में आएँगे तो वक़्त पर जाकर उनको ले आना है और खाना खिला दिया, फिर कोई काम नहीं। सारा दिन पड़ोसी से गप्पे करो या फिर अपनी सहेली से, कौन पूछता है। बच्चों को पढ़ाने से भी छुटकारा, अनपढ़ माँ कैसे पढ़ा पाएगी बच्चे को? बच्चे भी मज़े में कि माँ को क्या पता कि वे क्या पढ़ रहे हैं, कंप्यूटर पर पढ़ रहे हैं या मस्ती कर रहे हैं शाम को पति के आते ही सजकर पत्नी तैयार और मुस्कुराती हुई सामने हाज़िर ऑफिस में मूड खराब हो तो बेवज़ह दो चार झाड़ पड़ भी गया तो क्या शाम को गरम पकौड़े और चाय के बाद सब गुस्सा ख़त्म आजकल तो और भी अच्छा है, बच्चो ने ज़िद की कि बाहर का खाना खायेंगे, तो फिर कभी-कभी खाना पकाने से भी आराम सास ससुर बुज़ुर्ग हुए तो 8-10 साल के बाद तो वैसे भी चिल्लाना कम कर देते हैं। उन्हें तो बस उनके पसंद का खाना चाहिए और बेटा जब ऑफिस से आए तो बहु के पास नहीं जाना चाहिए इतना होता रहे तो किस बात का झगड़ा, सब मामला अपने आप निबट और निबह जाता है कि बेटा अब भी बदला नहीं, आज भी ऑफिस से आकार पहले उन्हें मिलता है फिर घर में जाता है बहु से मिलने कभी कभार बेटा से कह कर बहु को 2-4 गाली गलौज सुनवा दो और पूरे रोब दाब में रहो, फिर तो बहु जीवन भर सेवा करेगी ही मुफ़्त में और बहु रानी भी ''जी माँ'' ''जी पापा'' कह कर अपने पति को खुश करती रहती है, भले ही मन में सास ससुर से नाराज़गी हो काम करने का मन न हो तो ढ़ेरों बहाना है तवियत खराब होने का। सिर में खूब सारा तेल चुपड़ कर चुपचाप पति के सामने शाम को जाएगी और चाय के साथ सुखा बिस्किट दे दिया पति समझ गए कि श्रीमती जी की तवियत ठीक नहीं फिर आह ओह करते हुए बिस्तर पर लेट गई आज तो पति का झाड़ भी न मिलेगा और काम से फुर्सत सो अलग खाना बनाने के समय ये उठेंगी और आह आह करते हुए रसोई में प्रवेश करेंगी ताकि पति जी सुन लें कि अब वो चौका में जा रही है पति कहेंगे कि छोड़ दो आज खाना बाहर से मँगवा लेते हैं तुम्हारी तवियत ठीक नहीं। और ये मारा तीर निशाने पर ''नहीं-नहीं दवा ले लिया है, ठीक हो जाएगी तवियत, काहे को पैसा बर्बाद करना, बस 10 मिनट में खाना बन जाएगा, तब तक आप टी.वी. देखिए न''। बढ़िया निशाना लगा, पति महोदय उठकर आएँगे बच्चों के पास बच्चे भी होशियार वक़्त फ़ायदा उठाते हुए ''पापा आज बाहर से खाना मँगाओ न रोज़-रोज़ घर का खाना खाकर बोर हो गए हैं और मम्मी बीमार भी तो है।'' क्या मारा, एक तीर कई निशाना, काम से आराम भी और बाहर का खाना बिना कहे आ गया। और सब पर धाक भी जम गया कि घर के प्रति हम कितने जिम्मेवार हैं, देखो हम तो खाना बना ही रहे थे आप ही लोग बाहर से मँगवाए न 

तो बात अब सीधी-सी है कि शिक्षित स्त्री भली कि अशिक्षित? दोनों के अपने-अपने फ़ायदे और नुकसान अब ज़रा बेचारी शिक्षित स्त्री का मशीनी इंसान बनना देखिए

शिक्षित स्त्री से हर काम में अपेक्षा होती है कि वो उसे सही-सही निपटाए। कभी गुस्सा न हो, पति या ससुराल वाले दो चार बात सुना भी दें तो क्या वो तो पढ़ी लिखी समझदार है, उसे सहन शक्ति रखनी चाहिए अब चूल्हा चौका और घर का काम तो छूटता नहीं चाहे शिक्षित हो या अशिक्षित इस पर अधिकार और एक छत्र राज़ करने का वरदान ईश्वर ने तो सिर्फ स्त्रियों को ही दिया है, तो भला पुरुष का प्रवेश कैसे हो? अब आजकल के कुछ नए युवा समझते नहीं, बस बीबी का हाथ बँटाने पहुँच जाते हैं चौका में। फिर देखो घर का कोहराम, अगर घर में सास ननद हो इस कोहराम से तो भला है कि चौका को मंदिर की तरह दूर से ही प्रणाम कर लें ऐसे घर के पति महाराज। अब बीवी शिक्षित है तो उम्मीद यही होती कि वो कमा कर भी लाए, खाना भी पकाए, बच्चों को भी पढ़ाए, आस पड़ोस से अच्छा सम्बन्ध भी रखे सास, ससुर और उनके रिश्तेदारों तथा पति के मित्रों से प्रेम तथा शालीनता से पेश आए; भले वो लोग दुर्व्यवहार करें या कटाक्ष करें शिक्षित कन्या तो इसी लिए लाये हैं न कि उसमें सहन शक्ति हो, वरना क्या कमी पड़ी थी लड़की की एक-एक पैसा सोच समझ कर खर्च करे, बच्चे बीमार पड़े तो उसका ही दोष कि उसे बच्चे को सँभालना नहीं आता है खाना में कई पकवान न हो तो पति का गुस्सा दो चार दिन पर निकलता ही है दो-चार चांटा न पड़े तो दो चार अपशब्द ही सही, पर पति का अधिकार है सुनाना और पत्नी का कर्तव्य है सुनना

घर की स्थिति में और सुधार लाना हो या फिर स्त्री अगर कैरियर कॉनशस हुई तो ऐसे में उसका नौकरी करना लाजिमी है उम्मीद भी की जाती है कि पढ़ी लिखी लड़की घर लाई किस लिए गई, जब कमा कर घर में और पैसा न लाए जब नौकरी के लिए बाहर जाती है तो न सिर्फ पति बल्कि सास ससुर और ननद देवर भी शक से देखेंगे कि कहीं चक्कर तो नहीं चला रही है बाहर बात-बात पर ये शब्द कान में दे दिया जाएगा कि पता नहीं नौकरी करती है या गुलछर्रे उड़ाती है, इतना सज कर क्यों जाती है। थक कर वो आए तो कोई एक कप चाय भी न पूछे उसके आने से पहले सभी लोग चाय पी लेंगे ताकि उसके लिए न बनाना पड़े अब वो अकेले के लिए तो बनाएगी नहीं, सबसे पूछेगी ''आप लोग चाय पिएंगे'', सभी कहेंगे ''हमने तो पी लिया अब अगर तुम पूछ रही हो तो पी लेंगे'', जैसे कि चाय पीकर वे सभी उसपर एहसान करेंगे अगर कामवाली न आए तो चौका में सारा दिन का बर्तन ज्यों का त्यों पड़ा हुआ होगा जबकि काम वाली 4 बजे आती है, लेकिन तब से सास ननद किसी को समय नहीं कि बर्तन धो ले, और जब बहु रानी चाय पीकर बर्तन धोने जाएगी तो वो कहेंगी ''हम तो इंतज़ार कर रहे थे कि कामवाली शायद देर से आये, बस अब धोने ही जा रहे थे बर्तन, कि तुम दोनों आ गई'' पति भी खुश कि अहा माँ को कितनी चिंता है बहु की अब बहु तो पढ़ी लिखी, उसे संस्कारी भी तो बनना है। शिष्टाचार भी तो बहु के लिए ही तय होता है न सास ननद से बर्तन धुलवाए? भले थक कर और काम कर-कर के पीठ और कमर का दर्द आजीवन मोल ले ले 

सभी काम से निपट कर सोने जाओ तो बिस्तर पर पति को पत्नी नहीं बल्कि कोई नवयौवना चाहिए जो न सिर्फ उत्तेजित करे बल्कि पूर्ण काम-संतुष्टि दे जैसा कि पांच सितारा होटल की मँहगी कॉल गर्ल देती हों अगर वैसी संतुष्टि न मिले तो ये सुनिए ''अरे काम और नौकरी तो दोनों करके आए हैं, तुमने घर में दो-चार बर्तन क्या धो लिए और 4  रोटी क्या बना ली कि इतनी थक गई, क्या रोज़ रात में होटल में सोने जाऊँ?'' अब इसका क्या जवाब दे भला एक कथित शिक्षित नारी जो पति की नज़र में बेकार है। नहीं मालूम क्यों नहीं समझ पाती ये शिक्षित स्त्रियाँ कि नारी का जन्म सिर्फ भोगने के लिए हुआ है, उसे अपने मन और ज़रूरत को समझाने का हक नहीं मिला 

अब पढ़ी लिखी माँ है तो यह जवाबदेही भी है कि बच्चों को वो ही पढ़ाए, बच्चों की सभी ज़रूरतें पूरी करे, बच्चों का मनोविज्ञान समझे घर में कोई कितना भी कुछ कह दे अपनी छवि ऐसी बनाये रखनी है ताकि बच्चों पर ऐसा असर न हो कि उसकी माँ पढ़ी लिखी होकर भी ज़ाहिल है आखिर माँ ही तो बच्चों की प्रथम शिक्षिका है और घर प्रथम पाठशाला तो घर को मर्यादा में रखने की जवाबदेही भी उसी स्त्री की हुई। अब नौकरी करती है तो पाई-पाई का हिसाब जोड़ेगी ही, कोई भी फ़ालतू खर्च हुआ तो जुबां खोल दी लो अब आ गई आफ़त ''इतनी हिम्मत जो पति से पैसे का हिसाब किया, अरे मर्द है कमाता है, क्या वो अपने बाप के घर से लेकर आई है जो उसने पूछने की हिम्मत की?'' अब पैसा जितना है काम वाली तो रखना मुश्किल है तो भाई मेहनत तो करनी ही पड़ेगी कभी बीमार पड़ जाओ तो और भी बड़ा कोहराम घर में अब तनख्वाह कटेंगे सो अलग, काम न हो पाने से सारा दिन सबका ताना सुनना होगा सो अलग, पति महोदय अगर बाहर से खाना लेकर आ गए तो सीधा इल्ज़ाम कि वो बीवी का गुलाम हो गया ओह हो! किसी में कोई चारा नहीं बीमारी में भी घर से बाहर रहना ही भला पर दिन भर पति की जासूस आँखें पीछा कहाँ छोड़ती है बीमारी में भी नौकरी पर चल दी मैडम, बात पक्की है कि कोई चक्कर चला रही है घर में घुसते ही सबकी नज़रें एक्स-रे की तरह। अब किसके बात का कौन जवाब और कहाँ से हो जवाब

क्या करें क्या न करें बड़ी मुश्किल हाय। पढ़ लिख कर नौकरी करो तो अलग समस्या, पढ़ी लिखी न हो तो रोज़ ताने कि कैसी अनपढ़ से पाला पड़ा। एक उपाय है बचपन से लेकर शादी तक पढ़ाई ऐसी पढ़ो कि बस वक़्त गुज़रे और जब नौकरी खोजो तो तुरंत मिल जाए। न माँ बाप का नुकसान हो न अनपढ़ का लेबल लगे और शादी भी फटाफट हो जाए। बस शादी होते ही पति को गिरफ्त में करना है और पति को लेकर दूसरे शहर ट्रांसफर सबसे पहली सीख कि झूठ और बहाना के लिए कोई नई वेब साईट खोजो, जिससे ऐसी एक्टिंग करो कि बेचारा पति क्या महेश भट्ट और राजश्री प्रोडक्शन वाले भी धोखा खा जाएँ। तो बस काम हो गया। नौकरी भी पक्की, पैसा भी कमाओ, ऐश-मौज-मस्ती सब बाहर और घर में घुसते ही आह... ओह... आउच... पति दौड़ेगा... ''क्या हुआ जानू''?... 


- जेन्नी शबनम (16. 10. 2010)

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Tuesday, October 12, 2010

13. अम्मा की बिटिया









आज दिनांक 10.10.10 है| मुझे याद भी न रहा आज का ये दिन, जाने कैसे भूल गई, जबकि मेरी बेटी और बेटा अक्सर याद दिलाते रहते थे| जानती हूँ कि आज का ये दिन दोबारा नहीं आएगा मेरे जीवन में| वैसे सच कहा जाए तो कोई भी पल जो गुज़र जाता है दोबारा नहीं आता| फिर भी कोई एक ख़ास तारीख़, कोई ख़ास बात यादों का हिस्सा बन जाती है| आज ही मैं एक कविता लिखी 'जीवन के बाद रूह का सफ़र' और जब तिथि देखी तो कहा अरे वाह... मेरी एक निशानी... आज के दिन के लिए| जब भी इस कविता को पढूँगी ये दिन 10.10.10 भी दिखेगा और यह भी याद रहेगा कि आज ख़ुशी यहाँ नहीं है| ख़ुशी मेरी बेटी, जो आजकल मुझसे दूर है, अपने पिता के साथ भागलपुर में खुशियाँ बाँट रही है|

यूँ मैं हर दिन को कोई न कोई खास दिन ही मानती हूँ, और चाहती हूँ कि हर दिन खुशहाल बीते| पर इधर कुछ दिनों से अस्वस्थ हूँ, चलने और लिखने में भी परेशानी हो रही है| फिर भी कोशिश करती रहती हूँ कि लिखना जारी रखूँ, वरना और भी उदासी छा जाएगी| एक तो तवियत की वज़ह से दुखी हूँ और उस पर मेरी बेटी ख़ुशी अपने पापा के साथ भागलपुर चली गई, क्योंकि कॉमन वेल्थ गेम्स के लिए उसका स्कूल बंद है| उसे भागलपुर में ज्यादा मज़ा भी आता है क्योंकि वहाँ पूरी आज़ादी है, बेफिक्र होकर खेलती रहती है अपने मित्रों के साथ| 

मेरे बेटे अभिज्ञान की 'ए' लेवल (12 वीं) की बोर्ड परीक्षा 13 अक्टूबर से शुरू हो रही है, इसलिए मैं नहीं जा सकती थी इन छुट्टियों में| तो बस मैं और मेरा बेटा घर में अकेले हैं| वो अपने कमरे में बंद रहता है, कभी परीक्षा के लिए पढ़ता है, कभी किन्डल ( ई.बुक) पर कोई ई किताब पढ़ता है, कभी गिटार बजाता है, कभी पी.एस.पी पर कोई गेम खेलता है या फिर कंप्यूटर में व्यस्त रहता है और बीच-बीच में आकर अपना चेहरा दिखा देता है और मेरा हाल पूछ लेता है| 

जिस दिन मेरी बेटी भागलपुर गई उसी दिन कॉमन वेल्थ गेम्स के शुरुआत का समारोह था| यूँ चलने में मुझे बहुत परेशानी थी, बावज़ूद अपने पति से कह कर पास का प्रबंध कराया| पास भी मिल गया| मैंने कह दिया था अपने पति से कि चाहे पास का प्रबंध करो या टिकट का, पर मुझे जाना ही है देखने| क्योंकि अपने पाँव को लेकर मैं बहुत परेशान थी और लगा कि शायद अब कभी ऐसा समारोह देख पाऊँगी या नहीं, पता नहीं मेरे हाँथ पाँव का क्या हो, इसलिए इस मौका को गँवाना नहीं है| पर 2 घंटे खड़ा रहना मेरे लिए और भी बड़ी मुसीबत बन गया| ख़ैर रुक-रुक कर धीरे-धीरे मैं और मेरा बेटा वहाँ तक पहुँचे और समारोह ख़त्म होने तक जी भर कर आनंद लिए और अपने बड़े से कैमरे से खूब सारी तस्वीर लिए|

दूसरे दिन घर में जैसे सन्नाटा पसरा हो| कहीं कोई आवाज़ नहीं कोई चहल-पहल नहीं| मेरी बेटी स्कूल से आते ही खाना-खाना और और टी.वी देखना एक साथ शुरू करती है| सी.आई.डी उसका सबसे प्रिय सीरियल है और जब तक मैं मना न करूँ वो देखती ही रहती है| वो चुप होकर भी घर में रहे तो लगता कि घर भरा हुआ है| 

आज तक कभी ऐसा न हुआ कि वो मुझसे अलग कहीं दूर गई हो| जब वो 4 साल की थी तब से ही मैं उसे छोड़ कर भागलपुर जाती रही हूँ| भागलपुर में काफ़ी काम रहता था उन दिनों| जब मैं जाती थी छोड़कर तो मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि उसे कैसा लग रहा होगा| शुरू में रोती थी बाद में उसके एक चाचा उसे घुमाने ले जाते और एक डेरी मिल्क जिसे वो काकू कहती थी, उसको दे देते और वो काकू पाकर मगन| थोड़ी बड़ी हुई तो ख़ुद कहती कि जाओ तुम और वो चाचा-चाची के साथ काफ़ी खुश रहती थी| अब तो उसे ज़्यादा फ़िक्र नहीं कि मैं कहाँ हूँ, अगर शहर से बाहर भी हूँ तो उसे कोई मुश्किल नहीं| अगर यहाँ हूँ तो स्कूल से आने के बाद बस इतना कि मैं घर में होनी चाहिए और वो टी.वी में मस्त|

जाने क्यों बार-बार यही सोच रही हूँ कि वो होती तो ये करती वो करती, हम सिनेमा जाते आज, या फिर वो मेरे पसंद का कुछ खाने को बना कर लाती| कभी शाहरुख़ खान या सलमान खान अगर दिख जाए टी.वी में तो दौड़ कर आकर टी.वी खोल देती कि जल्दी देखो तुम्हारा फेवरिट हीरो| वो जानती है कि मैं कभी टी.वी. नहीं देखती लेकिन अगर वो दोनों हों तो ज़रुर देखती हूँ| 

भागलपुर उसके दादा दादी भी साथ गए हैं और नानी तो वहीं रहती है| कभी नानी के घर तो कभी अपने घर घूम रही है| मेरे पति काफी बड़े पैमाने पर दुर्गा पूजा करते  हैं तो खूब धूम मचा है वहाँ| उसे फ़ोन करूँ तो जल्दी से बात करके भागेगी, जैसे कि क्या न छूट रहा हो| सोचती हूँ अच्छा है वो मुझ जैसी नहीं बन रही| अभी से अपना अलग व्यक्तित्व और अपना एक अलग स्थान चाहती है|

एक बेटी का घर में होना कितना ज़रूरी है, अब समझ में आ रहा है| मेरी माँ मेरी शादी से पहले कहती थी कि जब तुम्हारी शादी हो जाएगी तो घर कौन देखेगा, कौन रोज़ सुबह स्कूल जाने से पहले मेरी साड़ी के प्लीट ठीक करेगा| आज मैं भी सोच रही हूँ कि एक-एक कर वो मेरी तरह घर की जवाबदेही लेने लगी है| मैं तो फिर भी 12 साल के बाद यह सब करने लगी थी और वो तो 8 साल से ही जैसे मेरी माँ बन गई है| कहेगी ये पहनो वो पहनो, तरह-तरह के सामान लाएगी| अभी 3 दिन के लिए स्कूल से घुमने के लिए जयपुर गई थी तो मेरे लिए वहाँ की प्रसिद्ध लाह की चूड़ी लाई|

जानती हूँ वो भी एक दिन इसी तरह से इस घर से चली जाएगी, जैसे एक दिन मैं अपना घर छोड़ आई थी| मैं भी उसी तरह से उदास होऊँगी जैसे मेरी माँ रहती थी| मैं जिस तरह व्यस्त हूँ अपने घर और काम में, एक दिन वो भी हो जाएगी| और जैसे मेरी माँ को आदत हो गई मेरे बिना रहने की, मुझे भी हो जाएगी| अपना बचपन याद आता है मुझे| एक गाना है ''बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले'', मेरे पापा अक्सर ये गाना सुनते और रो देते थे, मेरी माँ से कहते थे कि जेन्नी भी एक दिन चली जाएगी इस घर से| अब जब भी मैं ये गाना सुनती हूँ तो समझ आता है कि मेरे पापा और मम्मी को कैसा महसूस होता होगा मुझे सोचकर|

अपनी बेटी के बारे में सोचकर आँखें भर जाती हैं, मेरी भी और उसके पापा की भी, जब भी यह गाना हम सुनते हैं... 


बाबा की रानी हूँ
आँखों का पानी हूँ,
बह जाना है जिसे
दो पल कहानी हूँ!
अम्मा की बिटिया हूँ
आँगन की मिटिया हूँ,
टुक-टुक निहारे जो
परदेस चिठिया हूँ!


पर अभी जानती हूँ वो पूजा के बाद आएगी, मेरा घर फिर चहकेगा| घर भी जैसे उदास हो गया है ख़ुशी के जाने से| बेटियाँ सच में रौनक होती हैं किसी भी घर की| मेरी बेटी का तो घर का नाम भी ख़ुशी है, तो जहाँ जाती है ख़ुशी भी अपने साथ लिए जाती है| अब जल्दी पूजा ख़त्म हो और वो वापस आए, यही इंतज़ार है|


- जेन्नी शबनम (10. 10. 10)


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