Sunday, March 8, 2020

71. एक बार फिर बीत गया महिलाओं का एक दिन

महिला दिवस के उपलक्ष्य में रंगारंग कार्यक्रम अपने चरम पर था तय समय से ज़्यादा वक़्त हो गया, परन्तु कार्यक्रम पूरा नहीं हो पाया था शाम के 7 बज गए थे, सभी महिलाएँ अब जाने को बेताब हो रही थीं, इसलिए कार्यक्रम को शीघ्र ख़त्म करने का बार-बार आग्रह कर रही थी आयोजक मंडली भी जल्दी-जल्दी सभी कार्यक्रम निपटा रही थी और हर वक़्ता को संक्षिप्त में बोलने का आग्रह कर रही थी कुछ प्रतियोगिता भी रखी गई थी, जिसे शीघ्र निष्कर्ष पर पहुँचाया जा रहा था, ताकि परिणाम घोषित हो सके सभी तबके की महिलाएँ यहाँ आमंत्रित थीं कार्यक्रम पूर्ण होने से पहले ही तक़रीबन आधी महिलाएँ वहाँ से जा चुकी थीं जो मुख्य अतिथि और वक्ता थीं, वे बार-बार मोबाइल पर वक़्त देख रही थीं एक महिला से यह पूछने पर कि अभी तो सिर्फ़ 7 ही बजे हैं, इतनी जल्दी क्या है, उन्होंने कहा ''वे जबतक घर जाकर चाय नहीं बनाएँगी उनके पति चाय नहीं पिएँगे, भले ही कितनी भी देर हो जाए यूँ वे कुछ कहेंगे नहीं कि देर क्यों हुई, लेकिन हमारी परवरिश ऐसी हुई है कि शाम के बाद घर से बाहर रहने की आदत नहीं है कोई कुछ भी न कहे फिर भी मन में एक अपराधबोध होने लगता है'' किसी महिला को रात के खाना की चिंता हो रही है, किसी को उसके बच्चे की चल रही परीक्षा की, किसी को बाज़ार से होली का सामान खरीदना है, किसी को यह डर कि घर में सास-ससुर नाराज़ होंगे किसी महिला का पति लेने पहुँच चुका है, तो उस महिला को मानसिक रूप से दबाव लग रहा कि उसका पति उसके कारण इन्तिज़ार में खड़ा है मुश्किल से 10 महिलाएँ होंगी जो देरी होने के बावजूद बेफ़िक्र होकर कार्यक्रम में भागीदारी कर रही हैं।   

समय की पाबंदी तो निःसंदेह आज की ज़रुरत है, लेकिन यह सिर्फ़ औरतों के लिए ही क्यों? यूँ ढेरों पुरुष हैं जो घर में बहुत योगदान देते हैं और एक समय सीमा के भीतर घर आ जाते हैं घर, बच्चों और पत्नी की जवाबदेही भी बख़ूबी निभाते हैं अगर कभी देर हो तो वे घर पर बता देते हैं कि देर होगी, ऐसे में घर लौटने के बाद पत्नी या बच्चे प्रश्नसूचक दृष्टि से नहीं देखते हैं न उनके देर हो जाने से कोई कार्य रुकता है, न ही देर से आने से पुरुष को कोई ग्लानि होती है पर इसके उलट स्त्रियों के लिए वह सब होता है जो पुरुष के लिए नहीं होता वह अगर देर तक बाहर है तो कहाँ होगी, कौन-कौन वहाँ होंगे, कैसे जाएगी, कैसे लौटेगी, कितने बजे लौटेगी इत्यादि प्रश्नों के बीच घिर जाती है हाँ, यह ज़रूर है कि सुरक्षा के दृष्टिकोण से यह सब जानना लाज़िमी है, परन्तु ये सभी प्रश्न पुरुषों के लिए भी उतने ही ज़रूरी हैं पुरुष भी उतने ही असुरक्षित हैं जितनी स्त्रियाँ इन सबके बावजूद स्त्री-पुरुष के लिए नियमों के अलग-अलग पैमाने तय हो चुके हैं और यह सर्वमान्य है।   

शिक्षा, स्वास्थ्य, पहनावा, रहन-सहन इत्यादि हर पहलू पर ध्यान दें तो पता चलता है कि हमारा समाज स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अलग-अलग मापदंड रखता है और दोरंग नीति अपनाता है। स्त्रियों को उसके विरासत में स्त्री होना सिखाया जाता है और उनसे तय नियमों पर खरा उतरने की अपेक्षा की जाती है वहीं पुरुषों के लिए बिल्कुल अलग दृष्टिकोण है। शिक्षित समाज में पुरुष से बस इतनी ही अपेक्षा की जाती है कि वह शिक्षा प्राप्त कर एक अच्छी नौकरी पा ले। अशिक्षित समाज में परिवार के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी उठाना पुरुष के लिए वांछित होता है, बाक़ी कुछ भी आवश्यक नहीं है। परन्तु स्त्रियों के लिए चाहे वह शिक्षित समाज हो या अशिक्षित, स्त्रियोचित गुण के साथ उन सारी जवाबदेहियों का पालन करना आवश्यक है जिसे समाज ने उनके लिए निर्धारित किए हैं। अजीब बात तो यह है कि कोई भी व्यक्ति इस बात की पुष्टि नहीं करता कि ऐसे नियम समाज में स्थापित हैंस्त्रियों की यह कसौटी पत्नी और माँ, बहु और बेटी में अन्तर कर देती है जो क़ायदे किसी की पत्नी के लिए मानने आवश्यक हैं, वे उस पुरुष की माँ, बहन, बेटी के लिए ज़रूरी नहीं होते हैं रिश्तों के साथ सारे समीकरण बदल जाते हैं ऐसे में स्त्री गहन पीड़ा और अकुलाहट से भर जाती है कि ऐसा क्यों है? जो बातें किसी स्त्री के लिए वाजिब हैं, पुरुष के लिए ज़रूरी क्यों नहीं?  समाज या कानून में ऐसे कोई नियम या क़ायदे नहीं बनाए गए हैं, किन्तु व्यावाहारिक रूप से यही मान्य है; सत्य भी।   

जीवन का समीकरण आख़िर कैसे तय किया जाए? किन नियमों के तहत जीवन को ढाला जाए ताकि समय के साथ क़दमताल मिलाया जा सके? हम स्त्री व पुरुष की बराबरी की बात करते हैं, लेकिन यह तब तक संभव नहीं है जब तक स्त्री व पुरुष को बुनियादी रूप से बराबर न माना जाए। सामजिक संरचना, सामाजिक दृष्टिकोण, प्रथाएँ, परम्पराएँ आदि हमारी सोच को इस तरह प्रभावित करती हैं कि हम कब इन नियमों को मानने लग जाते हैं, पता ही नहीं चलता है। यों वह सारे नियम जो एक स्त्री के लिए मान्य है, यदि पुरुष भी पालन करने लग जाएँ, तो निःसंदेह समाज में समानता आ जाएगी जो ग़लत नियम या परम्पराएँ स्थापित हो चुकी हैं, उन्हें स्त्री-पुरुष को मिलकर ध्वस्त करना चाहिए जो तरीक़े या नियम पुरुष के लिए गैरज़रूरी है वह स्त्री के लिए भी गैरवाजिब होने चाहिए। 

बहरहाल जीवन प्रवाहमान है, असंतुलन बना हुआ है, स्त्री-विमर्श की चर्चा हर जगह होती ही रहती है, कहीं स्त्री तो कहीं पुरुष प्रताड़ित होते रहते हैं,  स्त्रियों की समस्याएँ विकराल और वीभत्स रूप से सामने आ रही हैं; इन सभी विषयों पर पूरे समाज को जागरूक होकर सोचने और निर्णय पर पहुँचने की ज़रुरत है। शायद तभी मुमकिन है कि समाज में स्त्री व पुरुष बराबर हों और एक दूसरे का सम्मान कर पाएँ।   

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2020)
(अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस)
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