Wednesday, December 19, 2012

41. बलात्कार की स्त्रीवादी परिभाषा

अजीब होती है हमारी ज़िंदगी । शांत सुकून देने वाला दिन बीत रहा होता है कि अचानक ऐसा हादसा हो जाता की हम सभी स्तब्ध हो जाते हैं । हर कोई किसी न किसी दुर्घटना के पूर्वानुमान से सदैव आशंकित और आतंकित रहता है । कब कौन-सा वक़्त देखने को मिले कोई नहीं जानता न भविष्यवाणी कर सकता है । कई बार यूँ लगता है जैसे हम सभी किसी भयानक दुर्घटना के इंतज़ार में रहते हैं, और जब तक ऐसा कुछ हो न जाए तब तक उस पर विमर्श और बचाव के उपाय भी नहीं करते हैं । कोई हादसा हो जाए तो अखबार, टी.वी, नेता, आम आदमी सभी में सुगबुगाहट आ जाती है । हादसा खबर का रूप अख्तियार कर जैसे हलचल पैदा कर देता है । किसी भी घटना का राजनीतिकरण उसको बड़ा बनाने के लिए काफी है और उतना ही ज़रूरी घटना पर मीडिया की तीक्ष्ण दृष्टि । छोटी से छोटी घटना मीडिया और नेताओं की मेहरबानी से बड़ी बनती है तो कई बड़ी और संवेदनशील घटनाएँ नज़रंदाज़ किए जाने के कारण दब जाती है । कई बार लगता है जैसे न सिर्फ हमारी ज़िंदगी दूसरों की मेहरबानियों पर टिकी है बल्कि हम अपने अधिकार की रक्षा भी अकेले नहीं कर सकते । सरकार, कानून, पुलिस के होते हुए भी हम असुरक्षित हैं और अपनी सुरक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर ।

रोज़-रोज़ घटने वाली एक शर्मनाक और क्रूर घटना फिर से घटी है । भरोसा एक बार फिर टूटा है इंसानियत पर से । दिल्ली में घटी दिल दहला देने वाली बलात्कार की घटना सिर्फ एक सामान्य दुर्घटना नहीं है बल्कि मनुष्य की हैवानियत और जातीय हिंसा का क्रूरतम उदाहरण है और स्त्री जाति के साथ किया जाने वाला क्रूरतम विश्वासघात । आम जनता, पुलिस, मीडिया, सरकार, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता सभी सदमे और सकते में हैं । कोई सरकार को दोष दे रहा है तो कोई पुलिस को, क्योंकि सुरक्षा देने में दोनों ही नाकाम रही है । कोई औरतों के जीने के तरीके को इस घटना से जोड़ कर देख रहा है तो कोई सांस्कृतिक ह्रास का परिणाम कह रहा है । कारण और कारक जो भी हो ऐसी शर्मनाक और घृणित घटनाएँ रोज़-रोज़ घट रही हैं और हम सभी बेबस हैं । ऐसी हर दुर्घटना न सिर्फ औरत के अस्तित्व पर सवाल है बल्कि समस्त पुरुष वर्ग को कटघरे में खड़ा कर देती है । क्योंकि बलात्कार ऐसा वीभत्स अपराध है जिसे सिर्फ पुरुष ही करता है । 
पुरुष की मानसिक विकृति का ही परिणाम है कि जन्म से ही स्त्री असुरक्षित होती है और पुरुष को संदेह से देखती है । कुछ ख़ास पुरुष की मानसिक कुंठा या मानसिक विकृति या रुग्णता के कारण समस्त पुरुष जाति से घृणा नहीं की जा सकती और न इस अपराध के लिए कसूरवार ठहराया जा सकता है । हर स्त्री किसी न किसी की माँ, बहन, बेटी होती है और हर पुरुष किसी न किसी का पिता, भाई, बेटा; फिर भी ऐसी पाश्विक घटनाएँ घटती है । मनुष्य की अजीब मानसिकता है कि हर बलात्कारी अपनी माँ बहन बेटी की सुरक्षा चाहता है और उसकी माँ बहन बेटी उसको इस अपराध की सज़ा से बरी करवाना चाहती है । 

बलात्कार की शिकार स्त्री तमाम उम्र खुद को दोषी मानती है और हमारा समाज भी । वो एक तरफ शारीरिक और मानसिक यातना की शिकार होती है तो दूसरी तरफ समाज की क्रूर मानसिकता का । समाज उसे घृणा की नज़र से देखता है और उसमें ऐसी कितनी वज़हें तलाशता है जब उस स्त्री का दोष साबित कर सके । समाज की सोच है - पुरुष तो ऐसे होते ही हैं स्त्री को सँभल के रहना चाहिए । अब सँभलना में क्या- क्या करना है और क्या-क्या नहीं, इसे कोई परिभाषित नहीं कर पाता । स्त्री का रहन-सहन, पहनावा, चाल-ढ़ाल सदैव उसके चरित्र के साथ जोड़ कर देखा जाता है । पुरुष की गलती की सज़ा स्त्री भुगतती है । कई बार तो घर का ही अपना कोई सगा बलात्कारी होता है । जिस उम्र में कोई लड़की ये नहीं जानती कि स्त्री पुरुष क्या होता है, ऐसे में अगर बलात्कार की शिकार हो तो फिर दोष किसका? क्या उसका स्त्री होना?

हमारे देश में कानून की लचर प्रणाली अपराधों के बढ़ने में सहूलियत देता है । किसी भी तरह का अपराधी आज कानून से नहीं डरता है । कई सारे अपराधी ऐसे हैं जो सबूत और गवाह के अभाव में बाइज्ज़त बरी हो जाते हैं और पीड़ित को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है । कई बार आजीवन सश्रम कारावास की सज़ा पाया कैदी जेल में शान का जीवन जीता है । जेल में भोजन, वस्त्र तो मिलता है ही बीमार होने पर सरकारी खर्चे पर इलाज भी और घर वालों से मिलते रहने की छूट भी । और अगर जो लाग-भाग वाला अपराधी है तब तो जेल का कमरा उसके लिए साधारण होटल के कमरे की तरह हो जाता है जहाँ टी.वी, फ्रीज, फोन और पसंद का खाना सभी कुछ उपलब्ध हो जाता है ।

बलात्कारी को मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सज़ा देना निश्चित ही कम है क्योंकि मृत्यु तो सारी समस्याओं से निजात पाने का नाम है । बलात्कार जैसे पशुवत व्यवहार के लिए न तो मृत्युदंड पर्याप्त है न आजीवन कारावास । बलात्कारी को क्या सज़ा दी जाए जो ऐसे अपराधी मनोवृति के लोगों पर खौफ़ के कारण अंकुश लगे, ये सोचना और अंजाम देना ज़रूरी है । हमारे देश में फाँसी की सज़ा देकर भी फाँसी देना मुमकिन नहीं होता । न जाने कितने मामले क्षमा याचना के लिए लंबित पड़े रहते हैं । सबसे पहली बात कि जब एक बार अपराध साबित हो गया और फाँसी की सज़ा मिल गई तो उसे क्षमा याचना के लिए आवेदन का अधिकार ही नहीं मिलना चाहिए । और फाँसी भी सार्वजनिक रूप से दी जाए ताकि कोई दूसरा ऐसे अपराध करने के बारे में सोच भी न सके । बलात्कारी को फाँसी देने से ज्यादा उचित होगा कि उसे नपुंसक बना कर सार्वजनिक मैदान में सेल बनाकर फाँसी के दिन की लंबी अवधि तक रखा जाए ताकि हर आम जनता उसे घृणा से देख सके । शारीरिक पीड़ा देने से ज्यादा ज़रूरी है मानसिक यातना देना ताकि तिल-तिल कर उसका मरना सभी देख सके और कोई भी ऐसे अपराध के लिए हिम्मत न कर सके ।  

डर और खौफ़ के साये में तमाम उम्र जीना बहुत कठिन है, पर हर स्त्री ऐसे ही जीती है और उसे जीनी ही होती है । सरकारी शब्दावली में ख़ास जाति में जन्म लेने वाला दलित है जबकि वास्तविक रूप में मनुष्य की सिर्फ एक जाति दलित है, और वो है स्त्री; चाहे किसी भी जाति या मज़हब की हो । दलित और दलित के अधिकारों की बात करने वाले हमारे देश में सभी को इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि आखिर दलित है कौन? क्या औरत से भी बढ़कर कोई दलित है?

- जेन्नी शबनम (दिसंबर 18, 2012)

******************************************************************

Wednesday, December 12, 2012

40. समय की सीधी समझ

समय में न जाने कौन सा पहिया लगा होता है कि वो पलक झपकते कई वर्ष घूम आता है, और कई बार ऐसा भी कि धकेलते रहो धकेलते रहो पर सब कुछ स्थिर...तटस्थ... समय का पहिया शायद हमारे मन के द्वारा संचालित होता है । सबका अपना-अपना मन और अपना-अपना समय... कभी उड़न्तु घोड़ा तो कभी अड़ियल मगरमच्छ... मन होता ही ऐसा है कि कई युग एक साथ फलांग जाए तो कभी कई सदियों-सा एक-एक दिन जीए. समय यायावर... जाने कहाँ-कहाँ भटकता फिरता है, और हम उसके पीछे भागते-भागते थक जाते हैं । समय के साथ कदमताल मिलाना चाह कर भी कई बार मुमकिन नहीं होता, तो कई बार समय खुद ब खुद अपना कदम हमारे कदम के साथ साध लेता है । सुना तो है कि समय पर किसी का जोर नहीं पर कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे समय भी हमारे साथ दोहरी चाल चलता है ।

यूँ महसूस होता है जैसे समय का पहिया सिर्फ औरतों के लिए ही चलता है और अपनी रफ़्तार मनमाफिक बदलता है । कई बार ऐसा घूमता है कि स्तब्ध कर जाता है । होनी-अनहोनी, आशंकाएँ, दुविधा... जाने क्यों सबसे ज्यादा स्त्रियों के ही हिस्से में । न समय साथ देता है न ज़माना । फिर भी स्त्रियाँ अपने पल्लू में अपने लिए समय को बाँधे रखती है और अपने हिसाब से अपनी रफ़्तार तेज-धीमी करती रहती है । हालांकि स्त्री के साथ समय नहीं होता पर साथ होने के भ्रम को बनाये रखने के ढ़ेर सारे तजवीज होते हैं । प्रेम, ममता, त्याग, स्थिरता, संकोच, समर्पण, सेवा भावना आदि ऐसे हथियार हैं जो स्त्री के स्त्री होने के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट है और इससे ही वार कर अक्सर उसे कमजोर बनाया जाता है ।

जन्म के पहले से ही औरत के यायावरी की कहानी शुरू होती है और पिता, पति, पुत्र के घर से होते हुए औरत अंततः परलोक को अपना स्थाई निवास मानने लगती है । औरत की ज़िंदगी सदैव मेहरबानियों पर टिकी होती है । अपनी खुशी के लिए गैरों की खुशामद में सारी ज़िंदगी बीताती है । अगर किसी घर में पुत्र-पुत्री की परवरिश सामान होती है तो आगे चलकर उस लड़की की ज़िंदगी ज्यादा दुखद हो जाती है । उस लड़की को समाज रूपी समय समझा देता है कि औरत का समय अलग होता है और पुरुष का अलग । औरत को अपने समय के हिसाब से चलना ही चाहिए. वरना समय का कुचक्र औरत का सबकुछ छीन लेता है । हमारी परम्पराएँ और रूढियाँ सदैव पुरुष के पक्ष और हित में स्थापित की गईं, भले इसका कितना ही बड़ा खामियाजा स्त्री को पूरी ज़िंदगी चुकानी पड़ती हो ।
  
हमारी संस्कृति हमारे जीवन को राह दिखाती है तो हमारे संस्कार राह पर चलने के तरीके । हमारी संस्कृति और संस्कार बनाने और पोषित करने वाले भी तो हमारे जैसे ही लोग रहे होंगे । सामयिक वक्त के हिसाब से स्थापित मूल्यों और आदर्शों को परम्परा के नाम पर हमपर थोप दिया गया, भले ही वो आज के समय के हिसाब से अतार्किक और असंगत क्यों न हो । औरतों के लिए स्पष्तः कर्तव्य निर्धारित कर दिए गए और पाप-पुण्य की कसौटी पर सारे कार्य बाँट दिए गए । एक लक्ष्मण रेखा जन्म से ही खींच दिया गया जिसे पार करना निषिद्ध है । निर्देशित मर्यादा का पालन करना ही होगा, अगर न किया तो पाप की सजा ऐसी कि मृत्यु दंड से भी पूरी न हो ।

धीरे-धीरे समय ने ज़रा सी ज़हमत की और औरत के हक में ज़रा सा बोलना शुरू किया । फिर भी समय अपनी ताकत दिखाता रहा और पुरुष को कुरेद-कुरेद कर स्त्री के विरुद्ध सुलगाता रहा  स्त्री को उसका अपना शरीर एक श्राप के रूप में मिला और साथ ही पूंजी के रूप में भी, जिसका इस्तेमाल पुरुष करता रहा अपने फायदे के लिए, और कभी-कभी स्त्री भी अपने फायदे और मजबूरी में । स्त्री अपने शरीर की सुरक्षा में जीवन भर जुटी रहती है, क्योंकि उसका बदन अगर किसी गैर ने छू भी लिया तो पापी कहलाएगी  स्त्री की कोख से स्त्री का जन्म लेना भी समाज को सह्य नहीं । और जहाँ स्त्री को स्त्री-जन्म का अधिकार मिला तो ऐसे जैसे बहुत बड़ा एहसान किया गया हो । एहसानों तले दबी औरत किस-किस के एहसान से दबती रही कौन जाने । दोनों हथेलियों से समय और समाज के आगे गुहार लगाती औरत अंततः खाली मुट्ठी को ही भरा हुआ समझ मुट्ठी बाँध लेती है और मुट्ठी में सुख सहेजे रहने का भ्रम खुद को और समय को देती है । 

समय को भी शायद श्राप है अबूझ बने रहने का और किसी के भी काबू में न आने का । परन्तु सबसे बड़ा कार्य जो समय ने पुरुष के पक्ष में किया वो था पुरुष को पुरुष का बदन देना । वैसे तो हर युग में स्त्री-पुरुष को एक दूसरे का पूरक माना गया चाहे शरीर के रूप में हो या मन के । शिव-पार्वती, राम-सीता हों या राधा-कृष्ण, एक दूसरे के पूरक माने गए । लेकिन आम पुरुष और स्त्री एक दूसरे के पूरक न बन सके । अगर कोई बनाना चाहे तो बनने नहीं दिया जाता । बहुत सारे निषेध हैं जिसका पालन अनिवार्य है और माना जाता है कि पुरुष का पुरुषत्व स्त्री के बराबरी से कम हो जाता है । स्त्री पर अपना आधिपत्य बनाए रखना पुरुषोचित गुण है भले इसके लिए स्त्री का शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाए । बस एक ही अवसर है जब स्त्री को सम्मान मिलता है और वो है धार्मिक क्रिया कलाप ।

समय कभी-कभी बेरहम मज़ाक भी करता है और औरत को औरत बने रहने का सबूत देना पड़ता है । औरत को अपनी समस्त मर्यादाओं का पालन बिना सवाल उठाए करना होता है और आजीवन अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए पुरुषों की कृपा पर निर्भर रहना होता है । वो कृपा चाहे एक पिता दिखाए या पति या पुत्र । सामाजिक सोच ऐसी बन चुकी है कि पुरुष अपनी सफलता का श्रेय खुद को देता है और विफलता का दोष स्त्री को । एक ही स्त्री किसी पुरुष के लिए नरक का द्वार है तो किसी के लिए स्वर्ग का । अब ये समय की टेढ़ी नज़र है या समय का कतरा हुआ पर, कौन जाने ।

समय कभी-कभी खुद को बड़ा असमंजस में पाता है कि आखिर किसका साथ दे और कैसे दे । जब किसी औरत ने औरत के हक की बात की तो उसे ऐसे फेमिनिस्ट कहा जाता है जैसे कि वो अछूत हो और गाली की हकदार हो । अगर कोई पुरुष स्त्री के अधिकार के लिए आवाज़ उठाए या बराबरी की बात करे तो उसे जोरू का गुलाम या फिर नामर्द कहा जाता है । आजकल जब समय ने अपनी एक आँख खोली और थोड़ा जागरूक हुआ तो औरत के हक की बात करना फैशन बन गया । औरत को समान शिक्षा, स्वास्थय, भोजन आदि का अधिकार देना और इसका ढ़ोल पीटना सम्मान पाने का एक नया तरीका इजाद हुआ और संवेदनशील होने का प्रमाण बन गया । सब समय की कृपा है ।

समय के पहिया में पंख लग गया और बदलाव के इस युग में क्रांतियाँ फुर्र से उड़ गई । मेरे अपने देखे और जाने 45 साल में कुछ नहीं बदला । उन दिनों भी औरत औरत थी और आज भी औरत औरत है, जैसी सतयुग में रही होगी । समय तो अपने आँख कान बंद कर लेता है, जब उसके पास जवाब नहीं होते । लेकिन औरत अपने सवालों से पीछा कैसे छुडाए, किससे पूछे अपनी त्रासदी का सबब और किससे करे वेदना भरे सवाल । समय वाचाल है । औरत हार-हार जाती है फिर उठ कर अपने जीवन का औचित्य तलाशती है । औरत अपना औचित्यहीन जीवन कभी प्रेम में कभी पूजा में तो कभी त्याग में व्यतीत करती है और एक-एक पल गिनती रहती है जब उसका अपना स्थाई घर वो जा सकेगी और इस इंतज़ार में जीवन काटती है । लम्पट समय मुस्कुराता है और पुरुष के सम्मान में स्त्री के लिए मर्सिया गाता है ।

समय दौड़ता-भागता उड़ता-नाचता गिरता-पड़ता अपना खेल खेलता है । जीवन इसी में चलता है, कभी समय के साथ कभी समय के पीछे । समय के आगे तो कोई चल न सका । समय तो समय है, लिंग भेद से परे भी और लिंग भेद करता हुआ, सदियों का इतिहास खुद में समेटे पल-पल इतिहास बनाता हुआ । आज यूँ लगता है जैसे समय ने अपने कदम की रफ़्तार को संयमित कर लिया है । सभी के लिए समय ने अपने कदम के लय को सुगम बना लिया है । क्योंकि आज की तारीख बहुत रोचक और दुर्लभ है, 12.12.12 का अद्भुत संयोग है । समय स्थिर होकर सब नज़ारा देख रहा है । आज के जश्न में शामिल समय इस अद्भुत तिथि के आवभगत के लिए खुद को पिछली सदी से ही तैयार कर चुका है । अगली सदी में एक नए इतिहास के साथ जब आज का समय आज को याद करेगा, तब तक शायद समय भी चेत जाए और सबके लिए एक-सा सुखद और आनंददायक रहे...!

- जेन्नी शबनम (12.12.12)

___________________________________________________________

Monday, November 12, 2012

39. तिथियों की तिकड़म

आज एक ग़ज़ल बार-बार गुनगुनाने को मन कर रहा है "एक ब्राह्मण ने कहा है कि साल अच्छा है !" ज्योतिषियों के अनुसार आज की तिथि यानि 10.11.12 अंक के बढ़ते क्रम के अनुसार होने के कारण बहुत शुभ है। उनके अनुसार यह दिन उनके लिए ज्यादा सौभाग्यशाली है जिनका जन्म आज हुआ है या आज होगा। यह तिथि इस सदी की ऐसी तिथि है जो दुबारा नहीं आयेगी। हाँ, ये सच है कि कोई ख़ास तिथि हमारे जीवन में ख़ास महत्व रखती है। यूँ तो हर बीता लम्हा दुबारा नहीं आता पर हर लम्हा ख़ास होते हुए भी ख़ास नहीं होता। आम दिनों सा हर दिन बीत जाता है। लेकिन ख़ास तारीख का हमें इंतज़ार रहता है। और इन ख़ास तारीख पर देश ही नहीं दुनिया के तमाम ज्योतिष अपनी अपनी भविष्यवाणी करते हैं। शुभ क्या-क्या है और क्या-क्या हो सकता है, ये तो कोई नहीं जानता लेकिन शुभ-अशुभ जानना हर कोई चाहता है। शुभ-दिन शुभ-घड़ी शुभ-तिथि शुभ-साल शुभ शुभ शुभ ... ! 

हर कोई अपने लिए शुभ चाहता है और दूसरों को शुभ का सन्देश देता है। लेकिन शुभ-अशुभ की ठीक-ठीक व्याख्या न कोई ज्योतिष कर पाता है न कोई इंसान निर्धारित कर पाता है। एक ही घड़ी-नक्षत्र में जन्म लिए हुए दो व्यक्ति का जीवन दो दिशा में चला जाता है। कोई सुख सुविधा से परिपूर्ण जीवन पाता है तो कोई आजीवन कष्ट में जीवन यापन करता है। कोई बिना लड़े दुनिया जीत लेता है तो कोई जीवटता से लड़ते हुए न सिर्फ जंग हारता है बल्कि जीवन भी हार जाता है। किसी की पूरी ज़िंदगी कांटो भरी राह पर चलते हुए गुजरती है तो किसी की राहों में सिर्फ फूल ही फूल बिछे होते हैं। तमाम जद्दोजहद के बाद भी किसी का जीवन बिना जीए ही ख़त्म हो जाता है तो कोई जीवन ख़त्म करने के सारे उपाय करके भी जीवन ढ़ोता रहता है। किसी के जीवन में सिर्फ अन्धेरा ही अन्धेरा होता है तो कोई अंधेरों में खुद को ही जला कर रोशनी करना सीख जाता है। आखिर ऐसी तकदीर कैसे? किसने  बनाई? अगर तकदीर बदल सकती है तो फिर ऐसी तकदीर मिली ही क्यों? बहुत सारे क्यों, लेकिन इस क्यों का निवारण भी है अगर ज्योतिष के पास जाएँ।

ज्योतिषियों ने कहा कि पिछले जन्म के पाप-पुण्य इस जन्म की तकदीर का निर्धारण करते हैं। किसी का जन्म संपन्न परिवार में होगा या विपन्न, कौन किस जाति में जन्म लेगा, किसका जीवन आनंददायक होगा और कौन आजीवन कष्ट भोगेगा, इन सबका कारण पिछले जन्म का किया गया हमारा कार्य है। मृत्यु के बाद कौन स्वर्ग में जाएगा कौन नरक में इसका निर्धारण इस जन्म का हमारा कार्य करेगा। अगर हमारे तकदीर में कोई कमी है तो उसके निवारण का उपाय भी इन ज्योतिषियों ने कर रखा है। हमारी कुण्डली में यह निर्धारित होता है कि कौन सा ग्रह हमपर क्या असर डालेगा और क्या करने से किसी ख़ास ग्रह के प्रकोप से बचा जा सकता है। अगर जीवन में अकस्मात् कोई घटना घट जाए जो बुरी हो या फिर कोई बुरी घटना न घटे इसके लिए एक नहीं कई उपाय हैं। जैसे अलग अलग मर्ज़ के लिए अलग अलग डॉक्टर वैसे ही अलग अलग मर्ज़ के लिए अलग अलग उपाय। 

अक्सर सुना है कि ये बुरा वक़्त और ये अच्छा वक़्त। अब बुरा में क्या क्या होगा ये कैसे पता चले। जीवन सहजता-सरलता से चलता रहे तो अच्छा वक़्त और जीवन में ज़रा भी बाधा या विघ्न आये तो बुरा वक़्त। कभी भी कोई ज्योतिष स्पष्टतः यह नहीं बताता कि अच्छा या खराब में क्या-क्या शामिल किया जाए। कई बार जीवन में ऐसे क्षण आते हैं जब लगता कि जीवन बस अब यहीं ख़त्म ... लेकिन वही कारण किसी दुसरे के लिए महत्वपूर्ण नहीं होते, और उनके हिसाब से ये जीवन के अंत की वज़ह नहीं हो सकते। कई बार बिलकुल सामान्य सी लगने वाली घटना किसी का जीवन पूरी तरह से बदल देती है तो वही घटना किसी के लिए अर्थहीन होती है। कोई अनहोनी किसी का सम्पूर्ण जीवन बदल देती है तो कई बार कोई अनहोनी किसी को उसके राह से डिगा नहीं पाती। 

मुमकिन है हमारी संवेदनाएँ इन सब के लिए जिम्मेवार हो। मगर ज्योतिष? क्या किसी मनुष्य में इतनी ताकत है कि वो भविष्य के बारे में बता सके? किसी अंगूठी में इतनी क्षमता है कि ईश्वर द्वारा लिखी हुई तकदीर को हमारी इच्छा और कामना के अनुरूप बदल सके? क्या कोई तिथि शुभ-अशुभ होती है? अगर होती है तो इसकी जानकारी रखने वाला क्यों नहीं स्पष्ट रूप से बता देता कि क्या-क्या शुभ होगा और क्या-क्या अशुभ। अगर अशुभ होने के संकेत मिले तो उसे शुभ में बदलने के उपाय समय रहते ही कर लिया जाए तो फिर इस पृथ्वी पर कोई असंतुष्ट न रहेगा। मुमकिन है ऐसा इसलिए नहीं करते होंगे की अगर सभी सुखमय हो जाएँ तो दुखी मन कहाँ से आए जिनको राहत देने के लिए इन भविष्यवक्ताओं के बाज़ार कायम रहे। स्वार्थ की पूर्ती के लिए अगर इन पर भरोसा कर एक आध अंगूठी पहन ली जाए तो इसमें बुरा क्या है। ऐसी सोच ... घोर अनर्थ ... आखिर ये भी तो जीविका के साधन हैं और जीवन यापन का सभी को अधिकार है। भला इसमें गलत क्या है? अब कोई ज्योतिष तो किसी के पीछे नहीं पड़ता कि भई अपना भविष्य जान लो। लोग अपनी इच्छा से आते हैं ताकि जीवन सँवार सकें, अब इसमें बेचारे ज्योतिषियों का क्या दोष?

यूँ अब भविष्यवाणी पर ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं रहा। समय के साथ सब कुछ बदल गया है। जो भी चाहे ज्योतिष शास्त्र पढ़ कर इस पेशा को अपना सकता है और धन अर्जित कर सकता है। बस इतना कोई बता दे आज के दिन क्या-क्या अच्छा होगा और आने वाली कौन सी ख़ास तिथि क्या-क्या ख़ास खुशियाँ देंगी। इस सदी के इस अनोखे दिन में दुनिया में क्या-क्या ख़ास होने वाला है बस ये जानने का इंतज़ार है। वैसे भी आज का दिन अच्छा है तो भई शुभ-शुभ बोलो। अब ब्राह्मण ने कहा है तो मान लेते हैं कि आज का दिन शुभ है। आज का दिन शुभ हो !

- जेनी शबनम (10.11.12)

_____________________________________________________________

Thursday, June 21, 2012

38. क्योंकि वह ताजमहल नहीं था...

साइनबोर्ड 
एक बार फिर रोई अमृता, फूट-फूटकर रोई। इमरोज़ के कुर्ते को दोनों हाथों से पकड़कर झिंझोड़कर पूछा- ''क्यों नहीं बचाए मेरा घर? क्यों नहीं लड़ सके तुम मेरे लिए?'' ''बोलो इमा, क्यों नहीं रोका तुमने उन लोगों को, जो मेरी ख़्वाहिशों को उजाड़ रहे थे, हमारे प्रेम के महल को ध्वस्त कर रहे थे? हर एक कोने में मैं जीवित थी तुम्हारे साथ, क्यों छीन लेने दिया मेरा संसार?'' 
इमरोज़ 
इमरोज़ निःशब्द! इमरोज़ बेबस! ख़ामोशी से अपनी माझा को रोते हुए देखते रहे। आँखें भीग गईं, फिर तड़पकर कहा- ''माझा, मैं क्या करता, मेरा हक़ तो सिर्फ़ तुम पर था न, उस घर पर नहीं। मैं कैसे रोकता उन्हें?'' ''माझा! मैं घर को बचा नहीं सका, मैं किसके पास जाकर गिड़गिड़ाता? जिन लोगों ने तुमको इतना सम्मान दिया, पुरस्कृत किया, उनलोगों में से कोई भी तुम्हारे धरोहर को बचाने नहीं आया।'' ''माझा! उस घर को मैं अपने सीने में समेट लाया हूँ। हमारे घर के ऊपर बने विशाल बहुमंजिली इमारत में वे ईंटें दफ़न हैं जिन्हें तुमने जोड़ा था और मैंने रंगों से सजाया था।'' ''ये देखो माझा, हमारी वह तस्वीर ले आया, जब पहली बार तुम मेरे लिए रोटी सेंक रही थी, तुम्हें कितना अच्छा लगता था मेरे लिए खाना बनाना। ये देखो वह कप भी मैं ले आया हूँ, जिसमें हर रात मैं तुमको चाय देता हूँ; रात में तुम अब भी लिखते समय चाय पीना चाहती हो न। वह देखो उस तस्वीर में तुम कितनी सुन्दर लग रही हो, जब पहली बार हम मिले थे। वह देखो, हमारे घर का नेम-प्लेट 'अमृता इमरोज़, के-25', और देखो वह तस्वीर जिसे बनाने में मुझे 5 साल लगे थे, जिसे तुम्हारे कहने पर मैंने बनाया था 'वुमेन विद माइंड'।'' ''माझा, मैं अपनी तकलीफ़ किसे दिखाऊँ? मेरी लाचारी तुम समझती हो न! तुम तो चली गई, मुझे अकेला छोड़ गई। सभी आते हैं और मुझमें तुमको ढूँढते हैं, पर मैं तुमको कहाँ ढूँढूँ?'' ''माझा, मेरा मन बस अब तुम्हारा घर है, क्योंकि अब तुम सीधे मेरे पास आती हो, पहले तो तुम जीवन के हर खट्टे-मीठे अनुभव के बाद मुझ तक आई थी। तुम्हारी यादें और मैं अब मेरा घर है।''     
बिक्री के बाद मकान तोड़ कर बन रहा मकान  
किसी जीवित घर का मिटाया जाना विधि का विधान नहीं न नियति का क्रूर मज़ाक है; बल्कि मनुष्य के असंवेदनशील होने का प्रमाण है। उस घर का बाशिंदा कितना तड़पा होगा, जब उससे वह घर छीन लिया गया होगा जिसमें उसकी प्रियतमा की हर निशानी मौज़ूद है और ये सब अतीत की कथा नहीं बल्कि उसका वर्तमान जीवन है। कितना रोया होगा वह। कितना पुकारा होगा वह अपनी प्रियतमा को, जिसने अकेला छोड़ दिया यादों के सहारे जीने के लिए; पर उसने सदैव उसे अपने साथ महसूस किया है, उसे सोचा नही बल्कि उसके साथ जी रहा है। कितनी बेबस हुई होगी उस औरत की आत्मा जब उसके सपनों का घर टूट रहा होगा और उसका हमसफ़र उसकी निशानियों को चुन-चुनकर समेट रहा होगा। तोड़ दिया गया प्रेम का मन्दिर। फफक पड़ी होंगी दीवार की एक-एक ईंटें। चूर हो गया किसी औरत की ख़्वाहिशों का संसार। कैसे दिल न पिघला होगा उसका, जिसने इस पवित्र घर को नष्ट कर दिया। क्या ज़रा भी नहीं सोचा कि अमृता की आत्मा यहाँ बसती है? अमृता को उसके ही घर से बेदखल कर दिया गया और उसकी निशानियों को सदा के लिए मिटा दिया गया। 
कुछ यादें - अमृता इमरोज़ 
हौज़ ख़ास के मकान नंबर के-25 के गेट में घुसते ही सामने खड़ी मारुती कार, जिसे अमृता-इमरोज़ ने साझा खरीदा था, अब कभी नहीं दिखेगी। घंटी बजाने पर कुर्ता-पायजामा और स्पोर्ट्स शू पहने ज़ीने से उतरकर दरवाज़ा खोलते हर्षित इमरोज़, जो बहुत ख़ुश होकर पहली मंजिल पर ले जाते और सामने लगी खाने की मेज़-कुर्सी पर बिठाते हुए कहते हैं- ''देखो वहाँ अमृता अभी सो रही है'' फिर साथ लगी उस रसोई में ख़ुद चाय बनाते हैं, जिस रसोई में न जाने कितनी बार अमृता ने रोटी पकाई होगी; अब कभी न दिखेगी। रसोई में रखी काँच की छोटी-छोटी शीशियाँ भी उस वक़्त की गवाह हैं, जब अमृता रसोई में अपने हाथों से कुछ पकाती थी और इमरोज़ उसे निहारते थे। अमृता का वह कमरा जहाँ अमृता ने कितनी रचनाएँ गढ़ी हैं, जहाँ इमरोज़ की गोद में अन्तिम साँस ली है; अब कभी नहीं दिखेगा। कैनवस पर चित्रित अमृता-इमरोज़ की साझी ज़िन्दगी का इन्द्रधनुषी रंग जो उस घर के हर हिस्से में दमकता था, अब कभी नहीं दिखेगा। सफ़ेद फूल जो अमृता को बहुत पसन्द है, इमरोज़ हर दिन लाकर सामने की मेज़ पर सजा देते थे; अब उस मेज़ की जगह बदल चुकी है। अमृता की रूह शायद अब भी उस जगह भटक रही होगी; मेज़, फूल और फूलदान को तलाश रही होगी। छत के पास अब भी पंछी आते होंगे कि शायद इमरोज़ आ जाएँ और दाना-पानी दे जाएँ, पर अब जब छत ही नहीं रहा तो पखेरू दर्द भरे स्वर में पुकार कर लौट जाते होंगे। 
साहिर - अमृता 
अमृता का जीवन, अमृता का प्रेम, अमृता की रचनाएँ, अमृता के बच्चों की किलकारियाँ, अमृता के हमसफ़र की जुम्बिश, चाय की प्याली, कैनवस पर इमरोज़ का जीवन- अमृता, रसोईघर में चाय बनाता इमरोज़, रोटी सेंकती अमृता, बच्चों को स्कूटर पर स्कूल छोड़ता इमरोज़, हर शाम पंछियों को दाना पानी देता इमरोज़। पूरी दुनिया में अपनी रचनाओं के द्वारा सम्मानित अमृता जो अपने बिस्तर पर लाचार पड़ी है, वृद्ध अशक्त अमृता का सहारा बनता इमरोज़, हर एक तस्वीर जिसमें अमृता है का विस्तृत विवरण देता इमरोज़, अमृता और अमृता का साझा-संसार जो उसके मन में सिमट गया है; इमरोज़ जो बिना थके कई बार नीचे दरवाज़ा खोलने तो कभी छत पर पौधों में पानी डालने तो कभी सबसे ऊपर की छत पर पंछियों का कलरव देखने आता जाता रहता है। इमरोज़ के माथे पर न शिकन न शिकायत, बदन में इतनी स्फूर्ति मानो अमृता ने अपनी सारी शक्ति सहेज कर रखी हो और विदा होते वक्त अन्तिम आलिंगन में सौंप दिया हो और चुपके से कहा हो ''मेरे इमा, मैं इस शरीर को छोड़कर जा रही हूँ, मैं तुम्हें फिर मिलूँगी, तुम कभी थकना नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूँ, पग-पग पर, पल-पल में, वक़्त के उस आख़िरी छोर तक जब तक तुम इस शरीर में हो, सामने वाले कमरे में बैठी मैं हर रात तुम्हारे लिए गीत रचूँगी और जिसे तुम अपने हाथों से नज़्म का रूप दोगे। मैं तुम्हारी माझा, तुम्हारे लिए सदैव वर्तमान हूँ, यूँ भी तुम इमरोज़ हो, जिसका अर्थ है आज; तुम मेरे आज हो, मेरी ख़्वाहिशों को तुम पालना, हमारे इस घर में मैं हर जगह मौजूद रहूँगी, तुम जीवन का जश्न जारी रखना, तुम्हारे कैनवस पर और तुम्हारी नज़्मों में मैं रहूँगी, मैं तुम्हें फिर मिलूँगी।'' 
मुश्किलों से जूझती अमृता का 'अमृता प्रीतम' बनना इतना सहज नहीं हुआ होगा। पति से अलग हुई एक आम औरत जिसके दो छोटे बच्चे, सरल नहीं रहा होगा जीवन। टूटी हारी 40 वर्षीया अमृता को इमरोज़ का साथ और फिर समाज की मान्यताओं और प्रतिमानों से जूझना बेहद कठिन हुआ होगा। रेडियो स्टेशन में कामकर घर चलाती अमृता ने कैसे-कैसे दिन देखे होंगें, ये तो बस वह जानती है या इमरोज़। अमृता का सम्पूर्ण अस्तित्व जो उस एक घर में बना, पसरा, फिर सिमटा, कितनी क्रूरता से मिटा दिया गया। इमरोज़ के लिए नहीं, तो कम-से-कम उस औरत के लिए जिसकी हर ख़्वाहिशें और ज़िन्दगी यहाँ मौजूद थी, पर तो रहम किया होता। प्रेम की दुहाई देने वाले और अमृता-इमरोज़ के प्रेम की मिसाल देने वाले कहाँ गए? क्या जीवन के बाद ऐसे ही भुला दिया जाता है उसकी हस्ती को जिसने समाज को एक नयी सोच और दिशा दी, जिसने स्त्री होने के अपराधबोध से ग्रस्त होना नहीं सीखा और स्त्री को गौरव प्रदान किया, पुरुष को सिर्फ़ एक मर्द नहीं बल्कि एक इंसान और सच्चा साथी के रूप में समझा।   
नए घर का एक कोना 
अब कहाँ ढूँढूँ उस घर को? प्रेम के उस मन्दिर को? वह घर टूट चुका है और बहुमंजिली इमारत में तब्दील हो चुका है। अमृता बहुत रो रही थी और अपने इमरोज़ को समझा रही थी- ''वह सिर्फ़ एक मकान नहीं था इमा, हमारा प्रेम और संसार बसता था वहाँ। मेरे अपनों ने मुझे मेरे ही घर से बेदखल कर दिया। हाँ इमा, जानती हूँ तुम्हारी बेबसी, मेरे घर के कानूनी हक़दार तुम नहीं हो न! दुनिया के रिवाज से तुम मेरे कोई नहीं, ये बस मैं जानती हूँ कि तुम मेरे सब कुछ हो, जानती हूँ तुम यहाँ मुझे छोड़कर जाना नहीं चाहे होगे पर कानून... उफ़!''
शीशा में इमरोज़ और मैं 
इमरोज़ से पूछने पर कि उस घर को क्यों बेच दिया गया, वे कहते हैं ''जीवन में 'क्यों' कभी नहीं पूछना, हर क्यों का जवाब भी नहीं होता, जो होता है ठीक ही होता है।'' ''अगर अमृता होती तो उनको कैसा लगता?'' पूछने पर बहुत संजीदगी से मुस्कुराते हुए कहते हैं- ''अगर अमृता होती तो वह घर बिकता ही नहीं।'' ''ये घर भी बहुत बड़ा है और बच्चों को जो पसन्द मुझे भी पसन्द, अपने बच्चों के साथ ही मुझे रहना है।'' 
विस्तार से बताते इमरोज़ और मैं 
इमरोज़ के साथ अमृता अब नए घर में आ चुकी है। अमृता के परिवार के साथ दूसरे मकान में शिफ्ट करते समय इमरोज़ ने अमृता की हर निशानी को अपने साथ लाया है और पुराने मकान की तरह यहाँ भी सजा दिया है। हर कमरे में अमृता, हर जगह अमृता। चाहे उनके पेंटिंग करने का कमरा हो या उनका शयन कक्ष, गैलरी, भोजन कक्ष, या फिर अन्य कमरा। अमृता को देखना या महसूस करना हो तो हमें के-25 या एन-13 नहीं बल्कि इमरोज़ से मिलना होगा। इमरोज़ के साथ अमृता हर जगह है चाहे वे जहाँ भी रहें। 
इमरोज़ और मैं 
- जेन्नी शबनम (जून 21, 2012)  

******************************

Friday, June 8, 2012

37. विकलांगों का गाँव

''न चल सकते हैं, न सो सकते हैं, न बैठ सकते हैं, कैसे जीवन काटें?'' कहते कहते आँसू भर आते हैं गीता देवी की आँखों में । मेरे पास कोई जवाब नहीं, क्या दूँ इस सवाल का जवाब? मैं पूछती हूँ ''कब से आप बीमार हैं?'' 50 वर्षीया शान्ति देवी जो विकलांग हो चुकी है रो-रो कर बताती है ''जब से सरकार ने चापाकल गाड़ा है जहर पी-पी के हमारा ई हाल हुआ है ।'' वे अपने दोनों पाँव को दिखलाती है जिसकी हड्डियां टेढ़ी हो चुकी है । उन्होंने कहा ''जब तक चापाकल नहीं गाड़ा गया था तब तक पानी का बहुत दिक्कत था । लेकिन अब लगता है कि ये चापाकल ही हमारा जान ले लेगा तो हम कभी इसका पानी नहीं पीते ।'' खटिया पर बैठे हुए वो अपने घर का चापाकल दिखाती है और फिर इशारा करती है उन डब्बों की ओर जिसमें पानी भर कर रखा हुआ है । वो कहती है कि सरकार थोड़ा-बहुत पानी का इंतजाम की है वहीं से पानी ला कर रखते हैं, बाकी काम तो इसी जहर वाले पानी से करना पड़ता है ।''
45 वर्षीया गीता देवी जिसका पूरा बदन ही सुख गया है और दोनों हाथ पाँव की हड्डियां टेढ़ी होकर अकड गई है, खुद से कुछ भी नहीं कर सकती । अपना व्यक्तिगत काम करने में भी असमर्थ है । उसकी बीमारी के कारण उसे देख कर लगता है जैसे वो 60 साल की हो । उससे पूछने पर कि ये बीमारी कब से है ऐसे देखती है मानो उसके कान भी सुन्न पड़ चुके हैं और जुबां भी खामोश, बस बेचारगी से चुपचाप देखती है । उसका पति बताता है कि करीब दो तीन साल पहले बीमार हुई और धीरे धीरे पूरा देह सुख के अकड़ गया । वो बताता है कि वही ज़हर जो पूरे गाँव को एक-एक करके खा रहा है उसी से ऐसा हाल हुआ है ।
मेरे विद्यालय के प्रधानाध्यापक श्री राकेश सिंह और हिन्दी की शिक्षिका श्री मति अलका सिंह के साथ मैं भागलपुर शहर से करीब 15 किलोमीटर दूर जगदीशपुर प्रखंड के कोलाखुर्द गाँव में पहुँची । राकेश सिंह के एक मित्र जो भागलपुर में फिजियोथेरेपिस्ट हैं और वहाँ मरीजों को देखने जाते हैं, भी साथ थे । गाँव में घुसते हीं 20-25 लोग इकट्ठे हो गए । सभी का अपना-अपना दर्द, कुछ बदन की पीड़ा कुछ मन की पीड़ा । ग्रामीणों ने बताया कि तकरीबन 2000 की आबादी वाले इस गाँव में लगभग 100 व्यक्ति पूर्णतः या अंशतः विकलांग हो चुके है । कितने बड़े-बड़े नेता आए कितने पेपरों में छपा । देश में कई जगहों पर यहाँ का पानी टेस्ट हुआ और सभी रिपोर्ट में आर्सनिक और फ्लोराइड होने की पुष्टि हुई । फिर भी कोई कुछ नहीं करता । अब भी ज़हर वाला पानी पी रहे हैं सभी । फ्लोराइड और आर्सनिक के कारण लगभग सभी को जोड़ में दर्द और हड्डी की समस्या है । रीढ़ की हड्डी धनुष की तरह मुड़ गई है । कई लोगों ने गाँव को छोड़ दिया है । ग्रामीणों ने बताया कि यहाँ कोई अपनी बेटी नहीं देना चाहता, न यहाँ की बेटी से कोई जल्दी ब्याह करना चाहता है ।  अपना खेत होते हुए भी कई लोग खेती छोड़ कर पंजाब गुजरात दिल्ली पलायन कर चुके हैं लेकिन कमाई इतनी कम है कि घर वालों को ले नहीं जा सकते, जो कुछ भी कमाते हैं परिवार वालों की बीमारी पर खर्च हो जाता है । छोटे-छोटे बच्चों का पाँव टेढ़ा हो गया है और सीधे चल नहीं पाते हैं । सरकार योजना तो बनाती है लेकिन कितने लोगों को अपाहिज बनाने के बाद कुछ करेगी क्या पता ।
कोलाखुर्द गाँव जहाँ अधिकाँश राजपूत हैं और सबके पास खेत है, परन्तु सिंचाई के अभाव में खेत-खलिहान बंजर पड़े हुए हैं । सभी घरों में एक न एक व्यक्ति ज़रूर है जिसे आर्सनिक और फ्लोराइड के दुष्प्रभाव ने मरीज़ बना दिया है । तकरीबन 30 वर्षों से यहाँ ये समस्या है । लोक स्वास्थय अभियंत्रण विभाग ने यहाँ पर स्वच्छ पानी के लिए मिनी प्लांट बिठाया है जिसमें कोई ख़ास दवा डाली जाती है, जिससे पानी शुद्ध होता है । लेकिन ये जो दवा है उसकी कीमत लाखों में है और सरकार द्वारा नियुक्त ठीकेदार अपनी मनमानी करता है और समय पर दवा नहीं डालता है, जिसके कारण ये पानी भी ज़हरीला है । जिन-जिन चापाकलों के पानी में आर्सनिक या फ्लोराइड की मात्रा ज्यादा है उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिए गए हैं और पानी के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है । परन्तु सभी लोग इन चापाकलों के पानी का उपयोग कर रहे हैं, क्योंकि मिनी प्लांट समुचित पानी देने में असमर्थ है । लाल निशान वाले एक चापाकल से एक चुल्लू पानी मैंने भी पी कर देखा कि पीने में ये कैसा लगता है । स्वाद में सामान्य पानी जैसा ही रंगहीन गंधहीन । लेकिन ऐसे रसायन का समिश्रण जिससे इंसान की जिन्दगी में तकलीफ और दर्द का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है और मृत्युपर्यन्त रहता है ।   
इस गाँव से एक किलोमीटर की दूरी पर नारायणपुर कोलाखुर्द गाँव है जहाँ एक कुआँ है जिसके पानी में न तो फ्लोराइड है न आर्सनिक । सरकार ने एक योजना बनायी है जिसके तहत इस कुआँ के पास एक बड़ा कुआँ खोद कर पाईप लाइन द्वारा घर-घर पानी की आपूर्ति जायेगी । लेकिन सरकारी योजनाओं की तरह ये योजना भी फाइलों में दबी पड़ी है । यहाँ के लोगों के द्वारा बार-बार मांग करने पर सरकार ने तीन महीने के अंदर योजना के कार्यान्वयन की बात कही थी लेकिन तीन महीने गुजर चुके हैं । ग्रामीणों की स्थिति और भी विकट होती जा रही है । 
भागलपुर का ये जगदीशपुर प्रखंड कतरनी चावल के उत्पादन के लिए समूचे देश में प्रसिद्द है । लेकिन इसका कोलाखुर्द गाँव न अनाज उपजाता है न कोई सब्जी, क्योंकि सिंचाई भी तो इसी पानी से होगी । सिर्फ वर्षा के पानी पर निर्भर होकर खेती संभव नहीं होती है । जिनको भी संभव हो सका गाँव छोड़ कर चले गए । परन्तु जो बिल्कुल असमर्थ हैं चाहे शारीरिक रूप से या आर्थिक रूप से, धीरे-धीरे खुद को खत्म कर रहे हैं । अधिकांश मरीज़ तो ऐसे हो चुके हैं जिनका इलाज संभव भी नहीं है । न उठ सकते न हिल सकते न स्वयं दैनिक क्रियाकलाप कर सकते, खामोशी से मृत्यु का इंतज़ार कर रहे हैं ।
गाँव से ही लगा हुआ मध्य विद्यालय है जिसमें 145 बच्चे और 4 शिक्षक हैं । कितने बच्चों को विकलांगता है, ये पूछने पर शिक्षकों ने अनभिज्ञता जताई । 5 बच्चे तो वहीं सामने दिख गए जिनके पाँव की हड्डी टेढ़ी हो गई थी । स्कूल परिसर में हीं मध्याह्न भोजन बनता है और बच्चों को खिलाया जाता है । भात (चावल ) और दाल फ्राई बना था जिसमें दाल कम और पीला पानी ज्यादा था । खाना बनाने वाली हमें देख कर डर गई कि कहीं सरकार की तरफ से कोई जाँच पड़ताल तो नहीं । राकेश सिंह ने वहाँ की भाषा (अंगिका) में उसे समझाया कि डरो नहीं हम लोग सरकार के यहाँ से नहीं आए हैं, बस घूमने आए हैं । बहुत कहने पर भी वो खाना दिखाने से डरती रही, फिर वहीं का एक छात्र ढक्कन खोल कर खाना दिखाया । मेनू के हिसाब से खाना तो है लेकिन मात्रा की कमी और पोषकता को कोई नहीं देखता । बीच-बीच में इसका भी अकस्मात अवलोकन और परीक्षण आवश्यक है ।
कोलाखुर्द का दर्द पिघल-पिघल कर पूरे देश के अखबार की ख़बरों का हिस्सा बनता है, लेकिन किसी इंसान के दिल को नहीं झकझोरता न तो सरकार की व्यवस्था पर सवाल उठाता है । यहाँ स्वास्थय केंद्र भी नहीं है । भागलपुर जाकर ईलाज कराना इनके लिए मुमकिन नहीं क्योंकि आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं कि रोज़गार छोड़ कर अपने घर वालों का अच्छा ईलाज करा सकें । सरकार ने उन चापाकलों पर लाल निशान लगा दिया है जिसका पानी दूषित है । प्लांट में समुचित पानी नहीं आता है जिससे कि पूरे गाँव को पानी मिल सके; यूँ प्लांट भी दवा के अभाव में अशुद्ध पानी ही दे रहा है । ग्रामीणों के पास दो विकल्प हैं, या तो ज़हर पी-पी कर धीरे-धीरे पीड़ा से मरें या गाँव छोड़ दें । एक और विकल्प है जिससे कोलाखुर्द को बचाया जा सकता है और वो है - सामूहिक आंदोलन, जिसके लिए समस्त ग्रामीण को एकजुट होकर हिम्मत दिखानी है । फिर शुद्ध पानी सप्लाई की ठंडी योजना फ़ाइल से निकल कोलाखुर्द तक पहुँच जायेगी और एक गाँव मिटने से बच जाएगा । कई बार अधिकार न मिले तो छीनना पड़ता है और शुद्ध पानी पाने का हक हमारा कानून हमें देता है ।
एक सवाल जो मेरे ज़ेहन में आया और मैं पूछने से खुद को रोक न सकी कि अगर अब जब सभी जान चुके हैं कि पानी ज़हरीला है तो महज एक किलो मीटर दूर जहाँ शुद्ध पानी है, से कम से कम पीने का पानी तो हर घर में लाया जा सकता है, जबतक कि सरकार योजना पर अमल नहीं करती है । यूँ भी सरकार द्वारा चापाकल गड़वाने से पहले यहाँ के ग्रामीण उसी कुआँ से पानी लाते थे । जिन्दगी दांव पर लगा सकते लेकिन थोड़ा अधिक मेहनत नहीं कर सकते हैं । सरकार तो अपनी ही रफ़्तार से चलती है लेकिन हमें अपनी रफ़्तार तो बढ़ानी और बदलनी चाहिए ।

जेन्नी शबनम (जून 8, 2012)

*************************************************************************************************

Monday, May 14, 2012

36. मुझे नहीं जीना ऐसी दुनिया में (व्यथा-कथा)


रात के लगभग 8 बजे थे । प्राइवेट नर्सिंग होम में एक महिला को इमरजेंसी में भर्ती कराया गया और उसका अल्ट्रासाउंड हो रहा था । औरत लगातार दर्द से रो रही थी और बीच बीच में अंग्रेजी में डॉक्टर से कुछ-कुछ पूछ रही थी । डॉक्टर ने कान में आला लगा कर बच्चे की धड़कन सुनने की कोशिश की । तभी भ्रूण ने चिल्ला कर कहा ''डॉक्टर, मुझे मार डालो, मैं इस दुनिया में नहीं आना चाहती, मेरी ह्त्या कर दो ।'' डॉक्टर ने कहा ''ऐसा क्यों कह रही हो अब तो तुम 3 महीने की हो चुकी हो'', अब ये सब मुमकिन नहीं और ऐसा क्यों करूँ मैं?'' भ्रूण ने बेहद कातर स्वर में कहा ''डॉक्टर, आप नहीं जानती मेरी माँ की स्थिति, मुझे बचाने के लिए वो कितनी पीड़ा सह रही है, जबकि वो तो जानती भी नहीं थी कि मैं कन्या भ्रूण हूँ ।'' डॉक्टर भी हत्प्रभ! क्योंकि वो औरत न तो गरीब परिवार की दिख रही न अशिक्षित, धड़ाधड़ अंग्रेजी में मेडिकल टर्म के शब्द बोल रही थी और किसी तरह बच्चे को बचा लेने के लिए अनुरोध कर रही थी । डॉक्टर समझ नहीं पा रही थी कि एक शिक्षित संपन्न माँ की कन्या-भ्रूण क्यों दुनिया में आना नहीं चाहती है? 

भ्रूण ने बताया कि जब उसकी माँ को पहली बार ये पता चला कि वो पेट से है तो खुश होकर अपने पति को बताने गई । दो झन्नाटेदार चांटा गाल पर । माँ सहम गई । उसका पति चिल्लाने लगा कि बच्चा पैदा करने किसने बोला, उसने बच्चा पैदा करने के लिए शादी नहीं की है । उसे रोज उसका बदन चाहिए न कि बच्चा । बहुत रोई माँ । दूसरे दिन जब ऑफिस गई तो सभी ने पूछा अरे फिर से ये क्या हो गया तुमको, गाल पर चोट के निशान । माँ ने बताया कि वो फिर से बाथरूम में फिसल गई, बहुत स्लीपरी है न बाथरूम । कई बार चोट के नीले निशान तथा हाथ और चेहरे पर खरोंच भी देखा था सभी ने, पर हर बार माँ यही कहती कि कभी सीढ़ी से गिर गई तो कभी रास्ते पर हड़बड़ी में चलते हुए गिर गई तो कभी पड़ोस के शिशु ने नाखून से नोच दिया । वो कैसे कहती कि उसका पति जिससे उसने प्रेम विवाह किया है हर रात उसमें शैतान उतर आता है । 

दूसरे दिन शाम को माँ के ऑफिस से लौटने के बाद उसका पति उसे डॉक्टर के पास ले गया और लिंग जाँच कराया तो पता चला कि कन्या है । रात को उसके पति ने जबरन शराब पिलाई और उसमें नींद की 8-10 गोलियाँ डाल दी । रात में तवियत बिगड़ने पर किसी डॉक्टर के पास ले गया और हमल गिरवा दिया । सुबह जब उसकी नींद खुली वो समझ गई कि उसका बच्चा नहीं रहा । फिर वही नियम, घर का काम काज फिर ऑफिस और फिर वही रात जिसमें उसे खरीदी हुई वेश्या बन जाना होता है, जिसका फ़र्ज़ ग्राहक जैसा चाहे उसे खुश करना है ।

इस बार जब गर्भ रह गया तो माँ ने किसी को नहीं बताया । किसी तरह 3 महीना गुजर गया । जिसमें से एक महीना वो अपने सास ससुर के पास रही क्योंकि सास अस्वस्थ थी, और अच्छी परिचारिका होने के कारण पति ने उसे वहाँ भेज दिया था । सास को पता चल गया कि वो पेट से है । खुशी में खूब लड्डू बांटे और पोता ही जनने की धमकी दे डाली । बेटे को बताया तो बेटा खुश हुआ और पत्नी को उलाहना दिया कि तुमने मुझे क्यों नहीं बताया । माँ सोची कि शायद इस बार सब ठीक हो गया है । सास भी वारिस का मुँह देखने साथ ही यहाँ आ गई थी । आज शाम को पति बोला कि चलो डॉक्टर को दिखा लो और जो भी सावधानी चाहिए वो पता कर लो । माँ चली गई डॉक्टर के पास । फिर उसके पति ने डॉक्टर से पता कर लिया कि गर्भ में इस बार भी कन्या है । घर आकर माँ को बहुत मारा और पेट के बल धक्का दे दिया । सास खड़ी होकर तमाशा देखती रही । तभी उसके पति का एक दोस्त घर आया, उसने देखा कि माँ नीचे पड़ी कराह रही है और रक्त बह रहा है । दोस्त को देखते ही उसका पति बोला कि माँ सीढ़ी से गिर गई है और फिर झट से माँ को उठाया और गाड़ी में लेकर यहाँ आया ।

भ्रूण ने कहा ''मैं कन्या हूँ न, तो इतने से मार से मैं खत्म नहीं हो पाई, दोस्त अंकल के कारण मैं बच गई । लेकिन दूसरे के भरोसे कितने दिन मैं बचूंगी, और बच भी गई तो माँ तो रोज ऐसे ही पिटेगी, नहीं सह पाती हूँ ये सब देख कर ।'' डॉक्टर ने भ्रूण को बहुत समझाया कि 3 महीने की तुम हो चुकी हो और ऐसा करना पाप है और अपराध भी । भ्रूण ने कहा कि आप नहीं कर सकती पर दूसरे डॉक्टर तो यह करते ही हैं । किसी डॉक्टर ने ही तो बताया था कि माँ के पेट में कन्या है और तभी तो माँ के साथ इतना क्रूर बर्ताव हुआ है । माँ को जब उसका पति मार रहा था तो बोला ''अगर पैदा ही करना है तो लड़का पैदा करो, मेरा वंश तो चलेगा । लड़की की रखवाली हर वक्त कौन करेगा, कहीं रेप वेप हो गया तो किसको मुँह दिखाएँगे, लड़की पैदा करके क्या दहेज में अपनी सब संपत्ति किसी गैर को दे दूँ?'' 

''डॉक्टर, आप ही बताइए क्या ऐसे घर में मेरा जन्म लेना मुनासिब है? अगर इन सब के बाद बच गई तो जन्म के बाद जाने क्या हो? जाने कब कौन हवस का शिकार बना ले । हर वक्त बदन के अंदर झांकती नज़रों से कहाँ बच पाऊँगी । इन सबसे गुजरते हुए बड़े होने पर अगर कोई मन को भा जाए तो क्या पता कि मुझे इसकी क्या सजा मिले, मुमकिन है हम दोनों को मौत के घाट उतार दिया जाए । ये भी संभव है कि किसी के इसरार पर इनकार करूँ तो तेज़ाब से जला कर मुझे सदा के लिए विकृत कर दे । अगर इन सब हादसों से बच जाऊँ और विवाह की बात हो तो दहेज की जुगाड़ में माँ बाप के अवसाद की वजह बनूँगी और फिर मेरा मन भी कुंठाग्रस्त हो जाएगा । अगर ये भी सही सलामत निपट जाए तो क्या मालूम और-और दहेज के लिए जला दी जाऊँ या फिर चरित्रहीन बताकर निष्काषित कर दी जाऊँ या फिर मुझे आत्महत्या करने के लिए विवश होना पड़े । ये भी मुमकिन है कि किसी की धूर्तता से मैं भी माँ-सी बन जाऊँ, जिसे इस आरोप में बार बार प्रताड़ित किया जाए कि पेट से क्यों हुई या फिर पेट में कन्या भ्रूण क्यों?'' 

''डॉक्टर, मुझे नहीं जीना ऐसी दुनिया में, मुझे नहीं बनाना अपनी माँ की तरह और न चाहती हूँ ऐसी खौफनाक जिंदगी जिसमें हर पल अपने अस्तित्व को बचाने के लिए वार और आघात सहूँ । लोगों के तिरस्कार और घृणा की पात्र बनूँ । भ्रूण से लेकर जन्म होने और उसके बाद मृत्यु तक तमाम उम्र खौफ के साये में जियूँ । अपने जीवन के वास्ते दूसरों की मेहरबानी के लिए याचना करती रहूँ और एक-एक दिन ये सोचकर व्यतीत करूँ कि चलो आज तो सुरक्षित रही । जानती हूँ मुझे मार ही दिया जाना है, चाहे तुम मारो या दुसरी डॉक्टर । माँ के साथ मैं भी हर वक्त डरी होती हूँ कि कब क़त्ल कर दी जाऊँ । पल-पल मृत्यु की प्रतीक्षा बहुत खौफ़नाक होती है । मैं नहीं आना चाहती ऐसे घृणित और डरावने संसार में ।'' 

''डॉक्टर, तुम ही सोचो दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती को पूजने वाले भी अपने लिए कन्या नहीं चाहते । ये माना जाता है कि बिना ईश्वर-कृपा कुछ नहीं होता, फिर तो ईश्वर की इच्छा से ही कन्या भ्रूण भी माँ के गर्भ में आती है न । पर अब लगता है कि शायद ईश्वर के हाथ में जीवन मृत्यु नहीं, डॉक्टर चाहे तो परखनली द्वारा भ्रूण को जन्म दे दे और जब चाहे किसी को मृत्यु । मैं जन्म नहीं लेना चाहती डॉक्टर, मुझे मार दो ।''

जिस डॉक्टर ने पाप-पुण्य और कानून की बात सुनाकर क़त्ल करने से मना कर दिया था उसी ने पैसे से पाप को पुण्य में बदल दिया ।  डॉक्टर ने कसाई का रूप धारण किया और माँ के बदन से भ्रूण को निकाल दिया । एक चीख और फिर निःस्तब्धता । मानवता फिर से हारी और पुरुष जीत गया ।

- जेन्नी शबनम (मार्च 8, 2006) 

__________________________________________________

Thursday, March 8, 2012

35. आधी दुनिया अधूरे ख्वाब...


शायद 21 वीं सदी का सबसे बड़ा आश्चर्य है कि विकास के तमाम आयामों को प्राप्त करने और सामाजिक-पारिवारिक व्यवस्था को निरंतर मज़बूत बनाए रखने की सफल कोशिशों के बावजूद स्त्री-विमर्श ज़िंदा है । ये न सिर्फ किताबों, कहानियों, कविताओं तक ही सीमित है बल्कि हर पढ़े लिखे और अनपढ़ नागरिकों के मन में पुरजोर ढंग से चल रहा है । आज जब हम महिलाओं के पिछड़ेपन की बात करते हैं तो इसका सबसे बड़ा कारण मातृसत्तात्मक समाज का ख़त्म होना और पितृसत्तात्मक समाज का उदय होना ही दिखाई पड़ता है । जैसे-जैसे समाज पुरुष-प्रधान बनता गया स्त्री हमेशा के लिए पुरुष-वर्ग की 'सर्वहारा' बनती गई । एक-एक कर स्त्री के सारे अधिकार पुरुष को मिलते गए और स्त्री गुलाम बनती गई । सत्ता के हस्तांतरण ने स्त्री की अस्मिता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। धीरे-धीरे स्त्री संपत्ति बनती गई जिसका स्वामी उसका निकट सम्बन्धी होने लगा । पुरुष की सुविधा, विलासिता और स्वेच्छाचारिता के लिए स्त्री उपभोग की वस्तु बन गई । जब पूंजीवाद और साम्राज्यवाद तेजी से विकसित हो रहे थे तब औद्योगीकरण का प्रभाव बढ़ने लगा । महिलाओं का आर्थिक, शारीरिक और मानसिक रूप से शोषण बढ़ता जा रहा था । पूंजीवाद के कारण आर्थिक स्थिति पर प्रभाव पड़ा और फिर घर संभालने के साथ ही मज़दूरी करने का दोहरा बोझ स्त्री पर पड़ा । स्त्रियाँ रोज़गार के लिए घर से बाहर निकलने लगी और कारखानों, लघु उद्योगों में काम करने लगी । एक तरफ घर की जिम्मेवारियां, दूसरी तरफ मालिकों- महाजनों का कहर । सामान्य अधिकारों से वंचित ये स्त्रियाँ टूट रही थी और ख़ुद को स्थापित करने के लिए एकजुट हो रही थी । उन्हें कारखानों में समान काम के लिए पुरुष से कम वेतन मिलता था, काम के घंटे अधिक थे, प्रसव-काल में अलग से कोई सुविधा नहीं दी जाती थी । स्त्रियों के सवाल भी एक और दास्तान भी एक । धीरे-धीरे महिलाएँ अपनी अस्मिता और अपने अधिकार के लिए सचेत और संगठित होने लगी । चिंगारी सुलगने लगी । महिलाओं द्वारा अपने अधिकार के लिए उठाये गए आवाज़ को कुचल दिया जा रहा था । स्थिति असह्य और विस्फोटक होती गई और महिलाओं का संघर्ष क्रान्ति का रूप लेने लगा । 
महिलाओं के शोषण पर 19 वीं शताब्दी के अंत से ही सवाल उठने शुरू हुए और 20 वीं शताब्दी के शुरुआत में एक आन्दोलन का रूप ले लिया । समाजवादी और कम्युनिस्ट आन्दोलन ने सबसे पहले महिलाओं के मुद्दे को अपने कार्यक्रम में व्यापक रूप से शामिल किया । जर्मनी में 1890 में समाजवादी महिला आन्दोलन की शुरुआत हुई जिसमें काम के घंटों में कमी, पुरुषों के बराबर मजदूरी, बाल मजदूरी का उन्मूलन, महिलाओं को मत देने का अधिकार आदि मुद्दों को शामिल किया गया । 1908 में न्यूयार्क के कपड़ा-मिल मजदूर महिलाओं ने अपने काम के घंटे में कमी, बेहतर वेतन और वोट के अधिकार के लिए विशाल प्रदर्शन किया । 28 फरवरी 1909 में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ अमेरिका द्वारा पहली बार 'नेशनल वुमेन डे' मनाया गया तब तक दुनिया भर में स्त्री चेतना का संघर्ष निर्णायक दौर में पहुँच चुका था । तत्पश्चात 1910 में डेनमार्क के कोपेनहेगन में महिलाओं के एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला दिवस मनाने का निर्णय लिया गया और 1911 में पहली बार 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस' मनाया गया । इस दिन ऑस्ट्रिया, जर्मनी, डेनमार्क, स्विट्जरलैंड में लाखों की तादाद में महिलाओं रैली निकाली और प्रदर्शन किया । प्रथम विश्व युद्ध के दौरान शान्ति स्थापित करने के लिए महिलाओं ने इस दिन महिला दिवस मनाया । संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1977 में सरकारी तौर पर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को मान्यता प्रदान कर प्रस्ताव पारित किया कि विश्व के समस्त देश इस दिन को महिलाओं के अधिकार के लिए समर्पित करे और महिला दिवस मनाये ।
महिलाओं के अधिकारों के लिए किया जाने वाला संघर्ष पूर्णतः सफल नहीं हो पाया । अपितु बहुत सारे अधिकार प्रदान किये गए और स्थिति में काफ़ी बड़ा परिवर्तन आया । सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक रूप से स्त्री को पुरुष के बराबर अधिकार मिले । वेतन, वोट, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि में स्त्री को बराबर की भागीदारी मिली । क़ानून द्वारा महिलाओं की सुरक्षा और अधिकार के लिए क़ानून में कई सुधार और संशोधन किये गए । हर क्षेत्र में महिलाओं के लिए समान अवसर निश्चित किये गए । गौरतलब है कि महिलाओं के संघर्ष आन्दोलन को पश्चिमी देशों में जितनी मान्यता और सफलता मिली अन्य जगहों में नहीं ।
महिलाओं के संघर्ष की गाथा जितनी पुरानी है उतनी ही बेमानी लगती है क़ानून से प्राप्त अधिकारों के साथ महिला की ज़िन्दगी । कागज़ पर तो सारे अधिकार मिल गए लेकिन वास्तविक रूप में स्थिति आज भी शोचनीय है । हमारे देश में आज भी स्त्रियाँ दोयम दर्जे की ज़िन्दगी जीने को विवश हैं । स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में आज भी स्त्रियाँ पुरुष के मुकाबले बहुत पीछे हैं । बाल विवाह, अशिक्षा, दोहरी मानसिकता, दहेज, बलात्कार आदि समस्या दिन ब दिन विकराल रूप लेती जा रही है । भ्रूण ह्त्या, दहेज ह्त्या, अंध विश्वास के कारण प्रताड़ना और ह्त्या, ऑनर किलिंग आदि घटनाएं बढ़ती जा रही हैं । बड़े-बड़े महानगरों के अपवाद को छोड़ दें तो सम्पूर्ण देश की महिलाओं की हालत आज भी एक जैसी त्रासद है ।
आज महिला आन्दोलन को महिला आरक्षण तक सीमित किया जा रहा है और शासक की इस चाल को समझते हुए भी महिला दिवस मना कर संतोष कर लिया जाता है । हर साल की तरह हर साल महिला दिवस मनाया जाता है । कुछ औपचारिक कार्यक्रम, भाषण, व्याख्यान, स्त्री सशक्तीकरण के कुछ उदाहरण पर संतुष्टि, आरक्षण का मुद्दा और फिर 'महिला दिवस' एक साल तक के लिए समाप्त ।
स्त्री सशक्तीकरण और स्त्रियों के अधिकार की लड़ाई महज महिला दिवस मना लेने से कतई संभव नहीं है । जब तक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन नहीं होगा महिलाओं की स्थिति यथावत् रहेगी । ये तय है कि महिलाओं को सम्पूर्ण आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक अधिकार समाजवाद से ही संभव है । इसके सिवा और कोई विकल्प नहीं जिससे महिलाओं की स्थिति पर गंभीरता से विचार किया जाए और सिर्फ क़ानून बना कर सरकार द्वारा कर्तव्य की इतिश्री न समझी जाए । जितने भी स्त्री उत्थान के लिए क़ानून बने सभी विफल हुए या फिर उस क़ानून की आड़ में सदैव मनमानी की गई, चाहे स्त्री के द्वारा हो या पुरुष के द्वारा । क़ानून असफल हो गए, नियम  ध्वस्त हो गए । आज स्त्री जिस कुंठा में जी रही है उससे निःसंदेह समाज में अस्थिरता आएगी ही । स्त्री को प्रारब्ध से मिले असंगति का निवारण न सरकार कर पाती है न समाज न तथाकथित ईश्वर ।
- जेन्नी शबनम (मार्च 8, 2012)

******************************************************