Friday, March 8, 2019

64. तावीज़

3 x 6 के बिस्तर पर लेटी धीमी गति से चलते पंखे को देख निशा सोच रही है कि ऐसे ही चक्कर काटती रही वह तमाम उम्र, कभी बच्चों के पीछे कभी जिम्मेदारियों के पीछे। पर अब क्या करे? इस उम्र में कहाँ जाए? सारी डिग्रियाँ धरी रह गईं। वह कुछ न कर सकी। अब कौन देगा नौकरी ? रोज़ अख़बार में विज्ञापन देखती है, पर इस उम्र की स्त्री के लिए तो सारे रास्ते बंद हो चुके हैं। 

यूँ घर में कोई कमी नहीं, परन्तु अपना भी तो कुछ नहीं है निशा का। निर्भरता का चुनाव उसने खुद ही तो किया था। बच्चे या नौकरी? और हर बार वह बच्चों को ही अहमियत देती आयी थी। प्रेमल ने कभी कहा नहीं कि वह नौकरी न करे, परन्तु कभी सहयोग भी तो न दिया। चाहे बच्चों के स्कूल जाना हो या बच्चों की बीमारी हो। घर में एक बल्ब बदलना हो चाहे घर के लिए कोई खरीददारी हो। एक-एक कर सारी जवाबदेही निशा ने अपने हिस्से में ले ली और साथ ही पहन ली चुप रहने की कोई तावीज़। हमेशा चहकने वाली निशा अब चुप रहती है। धीरे-धीरे उसका अवसाद बढ़ता गया और अवसाद से उबरने के लिए नींद की गोलियों की खुराक भी। 

न जाने प्रेमल कभी खुश क्यों नहीं होता? क्या चाहता है वह? वह हर रोज़ निशा को ताने देता है कि वह हर क्षेत्र में असफल है, संस्कारहीनता के कारण न घर ठीक से सँभाल सकी न बच्चों को संस्कार दिया और न ही कभी उसके मनोकूल बन पाई है। वह हमेशा कहता है कि अधूरे परिवार की लड़की से कभी विवाह नहीं करनी चाहिए। ऐसी लड़की परिवार की अहमियत नहीं समझती है। पर निशा क्या करे? जानता तो था प्रेमल कि निशा के पापा बचपन में ही गुजर चुके हैं। 

निशा समझ ही नहीं पाती कि घर और बच्चों को सँवारने में उससे कहाँ कमी रह गई? बच्चे अपने पसंद का जीवन चाहते हैं। बच्चों को भी पिता का आज्ञाकारी नहीं बना पाई। बच्चे अपनी-अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त हैं, उन्हें भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उनकी माँ की मनोदशा क्या है; जिसने अपनी पूरी ज़िन्दगी उनपर खर्च कर दिया। घर, समाज, ज़िन्दगी सभी में निशा असफल हो गई है। वह धीरे-धीरे खुद को जिम्मेदार मानने लगी है और अपराधबोध से घिर गई है। 7 x 9 के कमरे में 3 x 6 का बिस्तर एकमात्र निशा का घर है जहाँ वह अपने साथ अकेली ज़िन्दगी जीती है। कभी वह सपने सजाती है तो कभी पलायन के रास्ते ढूँढती है।     

कहीं कोई उपाय नहीं दिखता, क्या करे? जिस मकान को घर बनाने में निशा ने अपने जीवन की परवाह न की वह घर उसका अपना कभी था ही नहीं। न जाने कितनी बार बेदखल की गई है, पर हर बार बेशर्मी से वह वहीं टिकी रहती है। चुप की तावीज़ अब भी निशा ने पहन रखी है। किससे कहे अपनी बात? अब कहाँ जाए इस उम्र में? 

एक ही राह बची है जिससे मुक्ति संभव है, यह पंखा। हाँ-हाँ यही उत्तम है। यूँ भी उसके होने न होने से किसे फ़र्क पड़ने वाला है। पर? ओह ! बच्चों को लोग ताना देंगे कि उनकी माँ ने ख़ुदकुशी कर ली, जाने क्या कारण था, कहीं चरित्रहीन... शायद इसीलिए पति अक्सर उसे घर से निकालने की धमकी देता था। जिन बच्चों के लिए जीती आई उनके लिए अपमानों का अम्बार कैसे छोड़ सकती है। नहीं-नहीं यह गलत होगा ! कर्तव्यों से बँधी वह आज फिर नींद की गोलियों की ज्यादा ख़ुराक लेकर सो गई। कल सुबह का स्वागत मुस्कुराते हुए जो करना है।   

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2019)   

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