
महात्मा गाँधी की पुण्यतिथि है । गाँधी जयंती पहले गुजर चुकी है । गाँधी की प्रतिमाओं और उनकी तस्वीरों को पिछली जयंती के बाद धोने-पोछने का यह पहला अवसर आया है । प्रत्येक वर्ष ऐसा ही होता है । जयंती और पुण्यतिथि के बीच की अवधि में गाँधीजी के साथ कोई नहीं होता है । कड़वी बात तो यह है कि बचे-खुचे गाँधीवादी भी नहीं । गाँधी विचार से जुड़े संस्थानों में एक दिन और उनके नाम, तस्वीर पर माल्यार्पण, उनके भजन का पाठ और बस औपचारिकता ख़त्म ! फिर गाँधी जयंती तक ख़ामोशी ! गाँधी जयंती का इंतज़ार भी अब इसलिए रह गया है कि उस दिन से खादी के वस्त्र पर छूट मिलना शुरू होता है । विगत कुछ वर्षों में खादी फैशन में आ गया है । खादी का चलन अब सिर्फ नेताओं तक सीमित नहीं रह गया है । हाँ, ये जरुर है कि गाँधी टोपी अब कम नजर आती है । खादी के कपड़े बहुत महँगे होते हैं जबकि सिंथेटिक कपड़े की कीमत कम; फिर ऐसे में गरीब आदमी खादी को कैसे इस्तेमाल में लाए? यह सच है कि खादी या गाँधी को आम जीवन से जोड़ना धीरे-धीरे और भी कठिन होता जा रहा है । उनके सिद्धांतों में किसी को विश्वास रहा है या नहीं, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
गाँधी जी के अपने कुछ सिद्धांत थे जो उन्होंने ख़ुद पर प्रयोग कर तय किये थे । सार्वजनिक हित, अहिंसा, सत्य, करुणा, शाकाहार, सादा जीवन इत्यादि कुछ ऐसे विचार और व्यवहार हैं जो अब आम जीवन से दूर होते जा रहे हैं । इनकी सार्थकता तो आज भी उतनी ही है, परन्तु जिस तरह से समाज की सोच बदली है, अब जरुरी है कि गाँधीवाद को परिमार्जित किया जाए । यानि कि गाँधीवाद की व्याख्या नए सन्दर्भों में की जाए । आज देश के नेता गाँधी जी के नाम को और उनके सिद्धांतो को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल में ला रहे हैं । आम जन गाँधी जी की जीवन शैली को न तो जानता है और न ही उनके सरोकारों से सम्बन्ध स्थापित करने की सोचता है, क्योंकि उसे लगता है कि इस राह पर चलकर ख़ुद को बनाए रखना आज मुश्किल है ।

मैं गाँधीवादी विचारधारा के गुण दोष की चर्चा नहीं कर रही, न तो पक्ष विपक्ष की वकालत कर रही हूँ । परन्तु कुछ ऐसे तथ्य हैं जो मैं बचपन से देखती आई हूँ, और चूँकि मेरा जीवन उस माहौल में बीता है तो उन कुछ बातों को बता रही हूँ । मेरे पिता भागलपुर विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान विभाग में प्रोफ़ेसर थे, गाँधीवाद उनके व्याख्यान का मुख्य विषय था । गाँधी-विचार पर ही उन्होंने अपना शोध-कार्य भी किया था । उनके मृत्युपरांत उनकी पुस्तक छपी जिसका नाम 'सर्वोदय आफ गाँधी' (sarvodaya of gandhi) है । मेरे पिता न सिर्फ गाँधीवाद पढ़ाते थे बल्कि जीवन के प्रति दृष्टिकोण गाँधीवादी के साथ ही समाजवादी भी था । इन सबके साथ ही पक्के नास्तिक भी थे । इस माहौल में गुज़रा मेरा बचपन मेरे पिता के विचार से प्रेरित तो हुआ पर जीवन में पूर्णतः उतार पाना मुमकिन न हुआ । अब उन विचारों से असहमति या आपत्ति नहीं परन्तु जिस उम्र में ये सब जीती रही उस समय लगता था कि यह अच्छा नहीं है । यूँ मेरे विचार पर मेरे पिता का पूर्ण प्रभाव पड़ा परन्तु साथ ही मेरे सोच का दायरा भी बढ़ा है । मुझे याद है बचपन में मेरे घर में नियम था कि सबको अपना काम ख़ुद करना है, अपने खुद के खाए हुए बर्तन को ख़ुद ही धोना है । मेरे पिता ख़ुद खादी पहनते थे और मेरी माँ को भी खादी ही पहनना होता था; चाहे कोई भी अवसर हो । हम दोनों भाई बहन के लिए भी स्कूल ड्रेस के अलावा सिर्फ ज़रूरत भर कपड़ा खरीदा जाता था । चाहे कोई राजनीतिक या सामजिक रूप से कितने ही बड़े पद पर हों, लोगों से मिलने का समय तय था; सिर्फ अपने शोधार्थी छात्रों के लिए ही वो हर वक़्त उपलब्ध थे । मेरे पिता का अधिकांश समय पढ़ने-पढ़ाने और सामाजिक-राजनितिक कार्यों में बीतता था । नाते-रिश्ते में अक्सर मेरे पिता के जीने के तरीके पर आलोचना होती थी; क्योंकि वो जो कहते थे जीवन में उतारते थे, और आम धार्मिक ख़यालात के लोगों के लिए यह सब नागवार हुआ करता था । आज पिता नहीं हैं तो मैं सोचती हूँ ''क्या ये जीवन शैली आज की पीढ़ी अपना पायेगी''?
आज पूरा विश्व आतंकवाद से त्रस्त है । हमारे देश में आतंकवाद, अलगाववाद और कट्टरवादी संगठनों की जड़ें इतनी मज़बूत हो चुकी है कि तमाम कोशिशों के बाद भी इनपर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है । हर इंसान अनहोनी और आतंक के साए में जीवन यापन को विवश है । आतंकवाद, अलगाववाद, कट्टरवाद, सम्प्रदायवाद, जातिवाद आदि कितने ही 'वाद' ने जन्म लेकर हमारे देश की आतंरिक व्यवस्था को ध्वस्त कर दिया है । ऐसे में मुझे लगता है कि आज फिर से 'गाँधीवाद' को अपनाने की ज़रूरत है । गाँधीवादी विचारधारा स्वतंत्रतापूर्व जितनी सार्थक थी, आज भी उतनी ही है, सिर्फ इसे आज के परिवेश के अनुरूप ढ़ाल कर व्यवहार में लाना आवश्यक है । आज सत्य, अहिंसा, प्रेम जैसे शब्द हमारे अंतर्मन में भी शामिल नहीं रह गए हैं । गाँधी जी व्यक्ति के मानसिक और आतंरिक सोच को विकसित कर समूल परिवर्तन के पक्षधर थे । आज के सन्दर्भ में सिर्फ गाँधीवाद सार्थक नहीं होगा जबतक इसमें आधुनिक समाज में प्रचलित गाँधीगिरी को शामिल न किया जाए । मेरे विचार से गाँधीवाद, समाजवाद और साम्यवाद का मिश्रित स्वरुप गाँधीगिरी है । यह कोई मान्य परिभाषा नहीं है बल्कि मेरी अपनी समझ है, जो आज के परिपेक्ष्य में उपयुक्त लगता है ।

किसी व्यक्ति के नकारात्मक विचार में मनोवैज्ञानिक तरीके से सकारात्मक परिवर्तन ही गाँधीगिरी है । 'गाँधीगिरी' शब्द जबरन थोपा या मनवाया गया कोई कार्य-व्यवहार लगता है, परन्तु इसके शब्द स्वरुप पर न जाकर इसे व्यवहार में लाया जाए तो निश्चित ही विश्व की अधिकांश समस्याएँ स्वतः सुलझ जाएँगी । आज लोग अपने दुःख से दुखी नहीं हैं बल्कि दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी हैं । अपराध करना जैसे आज मनोरंजन का साधन बन गया है और जीवन यापन का सरल सुगम रास्ता ! अपराधी को अपने अपराध के लिए शर्मिंदगी भी महसूस नहीं होती है । ऐसे में गाँधीगिरी के द्वारा मनुष्य में चेतना और जागृति उत्पन्न की जाए ताकि समाज में जागरूकता आए, तो क्या गलत है ? जागरूक जनता, प्रशासन, न्यायालय, मनोविश्लेषक, मनोचिकित्सक, पुलिस, नेता आदि एक जुट होकर गाँधीगिरी में भागीदार होंगे तभी विध्वंसकारी शक्तियों पर नियंत्रण एवं निजात संभव है । जैसे देश की आज़ादी में गाँधीवाद सफल रहा वैसे ही गाँधीगिरी के द्वारा इंसान के मन और चेतना की आज़ादी होगी जिससे उसमें एक सही सोच पनपेगा और एक सुनहरे भविष्य को हम देख सकेंगे । फिर पूरा विश्व प्रेम और शान्ति से रह सकेगा ।
- जेन्नी शबनम (29. 1. 2010)
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