Tuesday, May 23, 2023

104. फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' - मेरे विचार


फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' की समीक्षा या विश्लेषण करना मेरा मक़सद नहीं है, न किसी ख़ास धर्म की आलोचना या विवेचना करना है। कुछ बातें जो इस फ़िल्म को देखकर मेरे मन में उपजी हैं, उनपर चर्चा करना चाहती हूँ।

इस फ़िल्म के पक्ष-विपक्ष में दो खेमा तैयार हो चुका है कि इसे दिखाया जाए या इस पर पाबन्दी लगाई जाए। किसी के सोच पर पाबन्दी तो लगाई नहीं जा सकती, लेकिन फ़िल्म देखकर यह ज़रूर समझा जा सकता है कि इसे बनाने वाले की मानसिकता कैसी है। पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त यह फ़िल्म सामाजिक द्वेष फैलाने की भावना से बनी है। यह फिल्म सभी को देखनी चाहिए और दूषित मानसिकता के सोच से बाहर निकलना चाहिए। 

यह फ़िल्म केरल की युवा लड़कियों के धर्मांतरण और फिर चरमपंथी इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एन्ड सीरिया में शामिल होने की कहानी पर आधारित है। इसकी कहानी 4 लड़कियों के इर्द-गिर्द घूमती है, जिनमें दो हिन्दू, एक मुस्लिम और एक ईसाई धर्म से है। इस फ़िल्म में दावा किया गया है कि हज़ारों लड़कियाँ गायब हुई हैं, जिनको धर्मांतरण कर मुस्लिम बनाया गया और जबरन आई.एस.आई.एस. में भर्ती किया गया है। आई.एस.आई.एस. में लड़कियों को मुख्यतः दो कारण से शामिल किया जाता है- पहला कारण है कट्टरपंथियों द्वारा क्रूर यौन तृप्ति और दूसरा है ज़रूरत पड़ने पर मानव बम के रूप में इस्तेलाम करना। 

जिन वीभत्स दृश्यों को दिखाया गया है, सचमुच दिल दहल जाता है। चाहे वह किसी इंसान की हत्या हो या स्त्री के प्रति क्रूरता या जानवर को काटने का दृश्य। हालाँकि इससे भी ज्यादा हिंसा वाली फ़िल्में बनी हैं, लेकिन वे सभी काल्पनिक हैं, इसलिए मन पर ज़्यादा बोझ नहीं पड़ता। चूँकि यह फ़िल्म सत्य घटना पर आधारित है, इसलिए ऐसे दृश्य देखना सहन नहीं होता। यूँ देखा जाए तो हक़ीक़त में आई.एस.आई.एस. की क्रूरता और अमानवीयता इस फ़िल्म के दिखाए दृश्यों से भी अधिक है।  

फ़िल्म में जिस तरह से युवा शिक्षित लड़कों-लड़कियों का धर्मांतरण कराया जा रहा है, वह बहुत बचकाना लगता है। जिन तर्कों के आधार पर धर्म परिवर्तन दिखाया गया है, वह शिक्षित समाज में तो मुमकिन नहीं; हाँ प्रेम के धोखे से हो सकता है। जन्म से हमें एक संस्कार मिलता है चाहे वह किसी भी धर्म का हो, हम बिना सोच-विचार किए उसी अनुसार व्यवहार करते हैं और उसे ही सही मानते हैं। किसी भी धर्म में जन्म लेना किसी के वश में नहीं, इसलिए किसी दूसरे धर्म का अपमान करना या निन्दा करना जायज़ नहीं। अपनी इच्छा से कोई धर्म परिवर्तन कर ले तो कोई बुराई नहीं लेकिन साजिश के तहत जबरन करना अपराध है। 

नास्तिक होने के लिए हम तर्कपूर्ण, विचारपूर्ण और वैज्ञानिक तरीक़े से चीज़ों को सोचते-समझते हैं फिर एक सोच निर्धारित करते हैं। नास्तिक किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करते, उनका सिर्फ़ एक ही धर्म होता है - मानवता। इस फ़िल्म में कम्युनिस्ट पिता की बेटी बेतुके तर्क को सुनकर न सिर्फ़ धर्म परिवर्तन कर लेती है बल्कि अपने पिता पर थूकती भी है। एक नास्तिक का ऐसा रूप दिखाना दुखद है। किसी भी नास्तिक का ऐसा 'ब्रेन वॉश' कभी भी संभव नहीं है कि कोई  धर्मान्धता में अपने पिता या दूसरे धर्म को इतनी नीचता से देखे या किसी पर थूके।   

कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और राजनीतिक सिद्धांतकार थे। उन्होंने धर्म पर आलोचना करते हुए उसे अफ़ीम की संज्ञा दी है। आज हम देख सकते हैं कि धर्म नाम का यह अफ़ीम किस तरह समाज को गर्त में धकेल रहा है। धर्म के इस अफ़ीम रूप का असर होते हुए हम हर दिन देख रहे हैं। यूँ लगता है मानो जन्म लेते ही प्रथम संस्कार के रूप में धर्म नाम का अफ़ीम चटा दिया जाता है। आजकल छोटे-छोटे बच्चों को भी 'जय श्री राम' और 'अल्लाह हू अकबर' कहते हुए सुना जा सकता है। किसी भी धर्म के हों, ऐसे अफ़ीमची धर्म के नाम पर मरने-मारने को सदैव उतारू रहते हैं और दंगा-फ़साद करते रहते हैं।         

प्रेम में पड़कर धर्म परिवर्तन तो फिर भी समझा जा सकता है लेकिन मूर्खतापूर्ण बातों को सुनकर और मानकर धर्म को बदल लेना संभव नहीं। यूँ प्रेम में पड़कर या विवाह कर धर्म बदलना जायज़ नहीं है। जबरन किसी का धर्म बदल सकते हैं लेकिन जन्म का मानसिक संस्कार कैसे कोई बदल सकता है? डर से भले कोई हिन्दू बने या मुस्लिम बन जाए पर मन से तो वही रहेगा जो वह जन्म से है या बने रहना चाहता है। अपनी इच्छा से कोई किसी भी धर्म को अपना ले तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं, लेकिन जबरन धर्म परिवर्तन करवाना गुनाह है। 

फिल्म 'द केरला स्टोरी' कुटिल मानसिकता के द्वारा मुस्लिम धर्म के ख़िलाफ़ बनाई गई फ़िल्म लगती है। धर्म परिवर्तन किसी भी मज़हब के द्वारा होना ग़लत है। फ़िल्म में जो धर्म परिवर्तन है वह एक साजिश के तहत हो रहा है, एक सामान्य जीवन जीने के लिए नहीं। इस फ़िल्म को बनाने का मकसद धर्म परिवर्तन से ज़्यादा आई.एस.आई.एस. की गतिविधि होनी चाहिए। जिसमें वे मासूम लड़के-लड़कियों को धर्म का अफ़ीम खिलाकर गुमराह कर रहे हैं और अपने ख़ौफ़नाक  इरादे को पूरा कर रहे हैं। इस साजिश में जिस तरह मुस्लिम धर्म के पक्ष में वर्णन है, वह निंदनीय है। 

दुनिया के किसी भी धर्म में कभी भी हिंसा नहीं सिखाई जाती है। ईश्वर, अल्लाह, जीसस या अन्य कोई भी भगवान या भगवान के दूत सदैव प्रेम की बात करते हैं। हाँ, यह सच है कि धर्म को तोड़-मरोड़कर धर्म के ठेकेदार अपने-अपने धर्म को बड़ा और सबसे सही बनाने में दूसरों को नीचा दिखाते हैं और अपने ही धार्मिक ग्रंथों को अपनी मानसिकता के अनुसार उसका वाचन और विश्लेषण करते हैं। अंधभक्त ऐसे ही पाखण्डी धर्मगुरुओं या मुल्लाओं के चंगुल में फंस जाते हैं। गीता, कुरान या बाइबल को सामान्यतः कोई ख़ुद नहीं पढ़ता, बाबाओं, पादरी या मौलवी के द्वारा सुनकर समझता है और उसी के कहे को ब्रह्मवाक्य समझता है। 
 
विश्व में लगभग 300 धर्म हैं। भारत में  मुख्यतः हिन्दू, इस्लाम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी इत्यादि धर्म के अनुयायी हैं। जिसे हम धर्म कहते हैं वास्तव में वह सम्प्रदाय है। अपनी-अपनी मान्यताओं और सुविधाओं के अनुसार समय-समय पर अलग-अलग सम्प्रदाय बनते गए। एक को दूसरे से ज़्यादा बेहतर कहना उचित नहीं है। अगर कोई किसी भी सम्प्रदाय से जुड़ाव महसूस नहीं करता है, तो यह उस व्यक्ति का निजी पसन्द है। इससे वह न तो पापी हो जाता है न असामाजिक। ईश्वर की सत्ता को माने या न माने, किसी ख़ास को माने या न माने, व्यक्ति तो वही रहता है। धर्म या सम्प्रदाय को मानना स्वेच्छा से होनी चाहिए। जबरन किसी से न प्रेम किया जा सकता है न नफ़रत। अपने स्वभाव और मत के अनुसार जो सही लगे और जो समाज के नियमों के अधीन हो वही जीवन जीने का उचित और सही मार्ग है। 

मन्दिर-मस्जिद-गिरिजा-गुरुद्वारा में भटकना, मूर्तिपूजा करना या 5 वक़्त का नमाज़ पढ़ना धर्म की परिभषा या परिधि में नहीं आता है। मान्यता, परम्परा, रीति-रिवाज़, प्रथा, चलन, विश्वास इत्यादि का पालन करना एक नियमबद्ध समाज के परिचालन के लिए ज़रूरी है। इन सभी का ग़लत पालन कर दूसरों को कष्ट देना या ख़ुद को उच्च्तर मानना ग़लत है। 

जिस तरह हमारा संविधान बना और फिर समय व ज़रूरत के अनुसार उसमें संशोधन किए जाते हैं, उसी तरह हमारा धर्म होना चाहिए - इंसान का, इंसान के द्वारा, इंसान के लिए। जिसमें इंसान की स्वतंत्रता, समानता और सहृदयता का पालन करना ही धर्म है। समय के बदलाव के साथ मनुष्य के इस धर्म में परिवर्तन होना ज़रूरी है, परन्तु इस धर्म का जो मुख्य तत्व है वह बरकरार रहना चाहिए। 

-जेन्नी शबनम (23.5.2023)
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Thursday, April 20, 2023

103. जीवन के यथार्थ से जुड़ी : मरजीना -दयानन्द जायसवाल

'मरजीना' क्षणिका-संग्रह जेन्नी शबनम, दिल्ली की यह कृति जीवन के यथार्थ से जुड़ी विविध पक्षों को बड़ी खूबसूरती के साथ प्रस्तुत करती है। कवयित्री की यह तीसरी पुस्तक है जो सच्ची और अच्छी भावनाओं का सुंदर दस्तावेज है, जिसमें एक कोमल भाव-भूमि की प्रस्तुति है, अपनी संस्कृति और अतीत के वैभव के लिए अटूट आस्था और विश्वास है तथा एक सकारात्मक दृष्टिकोण है जो आज हाथ से फिसलता जा रहा है। इनका यह काव्य-संग्रह एक दिशा बनाता है कि जहाँ हम जन्मे हैं, जिसकी मिट्टी में पलकर बड़े हुए हैं वह भूमि हमारे लिए सर्वोपरि है।

'मरजीना' शब्द ही अपने आप में बहुत ही अच्छा और खूबसूरत है, जिसे लोग काफी पसंद करते हैं। यह मजबूत व्यक्तित्व को दर्शाता है। यह शब्द अरबी भाषा के "मर्जान" से बना है जिसका अर्थ ही छोटा मोती है। संग्रह का हर मोती कवयित्री ने सागर की गहराई से चुन-चुनकर लाया है। जेन्नी शबनम जी को विद्यालयी जीवन से ही लिखने-पढ़ने तथा सर्जनात्मक कार्यों में अभिरुचि रही है। इनको इनकी माता का आशीर्वाद रहा है, उन्हें भी हिंदी के प्रति काफी रुचि थी।

भावनाओं की दृष्टि से 'मरजीना' की काव्यधारा जब विभिन्न तटों का स्पर्श करती हुई बहती है, तो रास्ते में जो ठहराव मिलते हैं वो इन खण्डों में विभक्त हैं- 'रिश्ते', 'स्टैचू बोल दे', 'जी चाहता है', 'अंतर्मन', 'सवाल', 'स्वाद/बेस्वाद', 'इश्क़', 'कहानी', 'समय-चक्र', 'सच', 'घात', 'बेइख़्तियार', 'औरत', 'साथी', 'तुम', 'समय' और 'चिंतन'।
इनकी पहली क्षणिका 'मरजीना' से है-
"मन का सागर दिन-ब-दिन और गहरा होता जा रहा
दिल की सीपियों में क़ैद मरजीना बाहर आने को बेकल
मैंने बिखेर दिया उन्हें कायनात के बरक़ पर"।
हिंदी साहित्य में क्षणिकाएँ भी बेहद प्रचलित हैं। क्षण की अनुभूति को शब्दों में पिरोकर साहित्यिक रचना ही क्षणिका होती है, अर्थात मन में उपजे गहन विचार को कम शब्दों में इस प्रकार बाँधना कि कलम से निकले हुए शब्द सीधे पाठक के हृदय में उतर जाए। इसे हम छोटी कविता भी कह सकते हैं। जीवन अनुभव जितना विराट और वैविध्य होगा क्षणिकाएँ उतनी ही अधिक प्रभावी होगी।
कवयित्री बड़ी सरलता से क्षणिका का सहारा लेती हुई समाज को सन्देश दे रही है जो जीवन के व्यावहारिक पक्ष से सम्बंधित सिद्धांत, नीति अथवा अनुभवसिद्ध तथ्य की पुष्टि करते हैं। इससे जीवन की सच्ची परिस्थितियों का मार्मिक अनुभव व्यक्त होता है-
"ख़ौफ़ के साये में ज़िन्दगी को तलाशती हूँ
ढेरों सवाल हैं पर जबाव नहीं
हर पल हर लम्हा एक इम्तिहान से गुज़रती हूँ
कमबख़्त, ये ज़िन्दगी मौक़ा नहीं देती।"
जीवन अनुभवों की गहराइयों में उतरकर कविता रचती कवयित्री में संक्षिप्तिकरण की अद्भुत क्षमता है। नारी जीवन की अनेक विडंबनाओं, आशाओं, निराशाओं, मन के भावचित्रों, अनुभूतियों, कल्पनाओं और यथार्थों का जो वर्णन मानवीय सम्बन्धों के माध्यम से व्यक्त की हैं, इस प्रकार है-
"स्त्री की डायरी उसका सच नहीं बाँचती
स्त्री की डायरी में उसका सच अलिखित छपा होता है
इसे वही पढ़ सकता है, जिसे वह चाहेगी
भले ही दुनिया अपने मन माफ़िक़
उसकी डायरी में हर्फ़ अंकित कर ले।"
x x x x
"रिश्तों की कशमकश में ज़ेहन उलझा है
उम्र और रिश्तों के इतने बरस बीते
मगर आधा भी नहीं समझा है
फ़क़त एक नाते के वास्ते
कितने-कितने फ़रेब सहे
घुट-घुटकर जीने से बेहतर है
तोड़ दें नाम के वह सभी नाते
जो मुझे बिल्कुल समझ नहीं आते।"
इन पंक्तियों में एक गहन अनुभूति पीड़ा व संवेदना निहित है तथा रिश्तों की विसंगतियों और मजबूरियों में निजी जीवन की आहुति दे दी जाती है। इसमें आंतरिक सन्त्रास, अंतर्द्वंद्व और घुटन की अभिव्यक्ति है जो सामाजिक जीवन के प्रति विद्रोह को स्पष्ट करता है। हमारा जीवन एक अनबुझ पहेली है। इसमें कई तरह के सवाल हैं जो अनेक अर्थों को प्रतिपादित करता है। जीवन समाप्त हो जाता है, पर सवाल रह जाते हैं-
"सवालों का सिलसिला
तमाम उम्र पीछा करता रहा
इनमें उलझकर मन लहूलुहान हुआ
पाँव भी छिले चलते-चलते,
आख़िरी साँस ही आख़िरी सवाल होंगे।"

साहित्य में प्रेम का विषय हमेशा प्रासंगिक रहा है। यह सबसे शुद्ध और सबसे खूबसूरत एहसास है जिसे प्राचीन काल से गाया जाता रहा है। इसकी अनुभूति से हमारा अनुभव रूपांतरित होता है और प्रत्येक वस्तु में दिव्यता तथा आध्यात्मिकता का आविर्भाव होता है। प्रेम स्वयं में व्यापक, विराट व शक्तिशाली अनुभूति है। इसके जागृत होते ही आत्मा की तत्काल अनुभूति हो जाती है। प्रेम की अनुभूति जाग्रत होने से पहले सबकुछ निर्जीव, आनंदरहित व जड़ है। किंतु इसके जागृत होते ही सबकुछ प्रफुल्लित, दिव्य, चैतन्य और आलोकमय हो जाता है। इसलिए कवयित्री कहती है-
"अल्लाह ! एक दुआ क़बूल करो
क़यामत से पहले इतनी मोहलत दे देना
दम टूटे उससे पहले
इश्क़ का एक लम्हा दे देना।"
संग्रह की अन्य कविताएँ भी विविध भाव व्यक्त करतीं हैं। भावनाओं के अलावा भी काव्य सृजन के मामले में भी उत्कृष्ट हैं, भाषा में प्रवाह है तथा शिल्प-सौंदर्य है। कवयित्री को हार्दिक
बधाई

-दयानन्द जायसवाल (18.10.2022)
प्रकाशक- अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली
मो- 9716927587
कवयित्री जेन्नी शबनम- 9810743437
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Sunday, March 5, 2023

102. नवधा : ख़ुद को बचा पाने का संघर्ष - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

तसलीमा नसरीन जी के साथ मैं 

'नवधा' मेरा चौथा काव्य-संग्रह है तथा 'झाँकती खिड़की' पाँचवाँ, जिसका लोकार्पण अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला, नई दिल्ली में दिनांक 4 मार्च 2023 को हुआ। नवधा की भूमिका आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी ने लिखी है। प्रस्तुत है उनकी लिखी संक्षिप्त भूमिका:   



प्रवाह के आगे आने वाली शिलाओं पर उछलते-कूदतेफलाँगतेघाटियों में गाते-टकराते नदी बहती जाती है। जीवन इसी नदी का नाम है, जो सुख-दुःख के दो किनारों के बीच बहती है। जब ये अनुभूतियाँ शब्दों में उतरती हैंतो साहित्य का रूप ले लेती हैं। डॉ. जेन्नी शबनम का बृहद् काव्य-संग्रह ‘नवधा’ जीवन की उसी यात्रा में नव द्वारों के माध्यम से प्रस्तुत की गई व्याख्या है।

  

यह काव्य-संग्रह एक स्त्री के उस संघर्ष की कथा हैजो अपने वजूद की तलाश में हैजो सिर्फ़ एक स्त्री बनकर जीना चाहती है। ये अनुभूतियाँ: 1. हाइकु, 2. हाइगा, 3. ताँका, 4. सेदोका, 5. चोका, 6. माहिया, 7. अनुबन्ध, 8. क्षणिकाएँ और 9. मुक्तावलि खण्डों में काव्य की विभिन्न शैलियों में अभिव्यक्त हुई हैं। जेन्नी शबनम का रचना-संसार किसी बाध्यता का नहींबल्कि अनुभूति के गहन उद्वेलन का काव्य है। काव्य की भारतीय और  जापानी शैलियों पर आपका पूरा अधिकार है।


हाइकु जैसी आकारगत छोटी-सी विधा में अपने जीवन के अनुभूत सत्य- प्रेम को ‘साँकल’ कहा हैवह भी अदृश्य-

प्रेम बन्धन / न रस्सी न साँकल / पर अटूट 

लेकिन जो मनोरोगी होगा, वह इस प्रेम को कभी नहीं समझेगा, ख़ुद भी रोएगा और दूसरों को भी आजीवन रुलाता रहेगा-

मन का रोगी भेद न समझता रोता-रुलाता।   

जीवन के विभिन्न रंगों की छटा हाइकु-खण्ड में दिखाई देती है। कोई डूब जाएतो नदी निरपराध होने पर भी व्यथित हो जाती है-

डूबा जो कोई / निरपराध नदी फूटके रोई।   


हाइगा तो है ही चित्र और काव्य का संयोग। सूरज के झाँकने का एक बिम्ब देखिए-

सूरज झाँका / सागर की आँखों में रूप सुहाना। 

क्षितिज पर बादल और सागर का एकाकार होनागहन प्रेम का प्रतीक होने के साथ मानवीकरण की उत्कृष्ट प्रस्तुति है-

क्षितिज पर / बादल व सागर / आलिंगन में।

पाँव चूमने। लहरें दौड़ी आईं मैं सकुचाई। 


ताँका के माध्यम से आप शब्द की शक्ति का प्रभाव इंगित करती हैं। सरलसहज शब्दावली यदि अभिव्यक्ति की विशेषता हैतो उत्तेजना में कही बात एक लकीर छोड़ जाती है। कवयित्री कहती है-

सरल शब्द सहज अभिव्यक्ति भाव गम्भीर, / उत्तेजित भाषण खरोंच की लकीर। 

शब्दों के शूल कर देते छलनी कोमल मन, / निरर्थक जतन अपने होते दूर। 


सेदोका 5-7-7 के कतौता की दो अधूरी कविताओं की पूर्णता का नाम है। दो कतौता मिलकर एक सेदोका बनाते हैं। अगस्त 2012 के अलसाई चाँदनी’ सम्पादित सेदोका-संग्रह से जेन्नी शबनम जी ने तब भी और आज भी इस शैली की गरिमा बढ़ाई है। एक उदाहरण-

 दिल बेज़ार रो-रोकर पूछता- / क्यों बनी ये दुनिया? / ऐसी दुनिया- जहाँ नहीं अपना / रोज़ तोड़े सपना। 


चोका 5-7… अन्त में 7-7 के क्रम में विषम पंक्तियों की कविता है। जेन्नी जी की इन कविताओं में जीवन को गुदगुदाते-रुलाते सभी पलों का मार्मिक चित्र मिलता है। सुहाने पलनया घोसलाअतीत के जो पन्नेवक़्त की मर्ज़ी ये सभी चोका भाव-वैविध्य के कारण आकर्षित करते हैं।   


माहिया गेय छन्द हैजिसमें द्विकल (या 1+1=2) की सावधानी और 12-10-12 की मात्राओं का संयोजन करने पर इसकी गेयता खण्डित नहीं होती। ये माहिया मन को गुदगुदा जाते हैं-

तुम सब कुछ जीवन में मिल न सकूँ फिर भी रहते मेरे मन में।   

हर बाट छलावा है चलना ही होगा पग-पग पर लावा है।


अनुबन्ध’ खण्ड की ये पंक्तियाँ गहरा प्रभाव छोड़ती हैं- 

''ज़ख़्म गहरा देते हो हर मुलाक़ात के बाद और फिर भी मिलने की गुज़ारिश करते हो।''


क्षणिकाओं मेंऔरतपिछली रोटीस्वाद चख लियामेरा घरस्टैचू बोल देमुक्तावलि की कविताओं में- परवरिशदड़बा और तकरार हृदयस्पर्शी हैं। इनमें जीवन-संघर्ष और अन्तर्द्वन्द्व को सफलतापूर्व अभिव्यक्त किया है।


जेन्नी जी का यह संग्रह पाठकों को उद्वेलित करेगातो रससिक्त भी करेगाऐसी आशा है।

 

14.01.2023                                             -रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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- जेन्नी शबनम (4. 3. 2023)
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Monday, January 30, 2023

101. मम्मी (दूसरी पुण्यतिथि)

मम्मी को गुज़रे हुए आज 2 साल हो गए हैं। मम्मी अब यादें बन गईं हैं, पर अब भी लगता है जैसे वे कहीं गईं हैं और लौटकर आ जाएँगी। जानती हूँ वे अब कभी नहीं आएँगी। मेरा मानना है कि मृत्यु के बाद सब ख़त्म। न कोई ऐसी दुनिया होती है जहाँ मृतक रहते हैं, न कोई मरकर तारा बनता है, न पुनर्जन्म होता है, न ही कोई आत्मा-परमात्मा हमें देखता है। हाँ, यह सच है कि अगर पुनर्जन्म या आत्मा-परमात्मा पर विश्वास किया जाए तो ख़ुद को सन्तोष और ढाढ़स मिलता है कि हमारा अपना और हमारा भगवान् हमारे साथ है। पर, कमबख़्त मेरा दिमाग वैसा बना ही नहीं जो इन विश्वासों और आस्थाओं पर यक़ीन करे।  

मम्मी जब तक जीवित रहीं, तब तक ही वे हमारे लिए थीं। अब उनका काम, सोच और निशानियाँ शेष हैं जो हमारे साथ है। मम्मी के कपड़े, बैग, चश्मा, चप्पल, छड़ी इत्यादि भागलपुर में मम्मी के अपने मेहनत से बनवाए घर में रखा है। घर आज भी वैसे ही फूलों से खिला हुआ है जैसा मम्मी छोड़ गई थी। मम्मी का अन्तिम फ़ोन अब मेरे पास है जिसे छूकर मम्मी के छुअन का एहसास कर लेती हूँ। मम्मी का फ़ोन नम्बर, जिसे अब मैं इस्तेमाल करती हूँ, को अब भी मम्मी के नाम से ही रखा है। मम्मी के उस फ़ोन से अपने दूसरे नम्बर पर कॉल करती हूँ या कोई सन्देश भेजती हूँ, तो लगता है जैसे मम्मी ने किया है। क्षणिक ही सही, पर मेरे लिए जीवित हो जाती हैं मम्मी। 

मैं जानती हूँ मम्मी के कार्य के कारण उनका बहुत विस्तृत सम्पर्क और समाज था। सभी लोग अब भी उन्हें याद करते हैं। परन्तु यह भी सच है समय के साथ सभी लोग धीरे-धीरे उन्हें भूलने लगेंगे। शायद मुझे और मेरे भाई को ही सिर्फ याद रह जाएँगी मम्मी। जिस तरह मेरे पापा का मम्मी से भी बड़ा विस्तृत समाज था, परन्तु अब लोग भूल गए हैं। पापा के कुछ बहुत नज़दीकी मित्र व छात्र ही उन्हें यादों में रखे हुए हैं। उसी तरह मम्मी भी भुला दी जाएगी। बस कुछ ही लोगों की यादों में जीवित रह जाएगी। 

मम्मी की मृत्यु के बाद सारे संस्कार किये गए थे। पिछले साल वार्षिक श्राद्ध हुआ था। इस साल जब श्राद्ध होना था, तो कुछ लोगों ने कहा कि 'गया' में जाकर मम्मी-पापा के लिए पिण्डदान कर दिया जाए। एक बार बरखी (वार्षिक श्राद्ध) हो गया अब ज़रूरी नहीं है। गया में भी हो जाए पिण्डदान, क्या फ़र्क पड़ता है। पर मेरे लिए मम्मी का वार्षिक श्राद्ध करना न मज़बूरी है न धार्मिक भावना। हर साल वार्षिक श्राद्ध होगा, जिसमें पूजा नहीं भोज होगा। साल में एक बार अपने लोग एकत्रित होंगे, मम्मी-पापा और दादी की यादों को जिएँगे। मम्मी के पसन्द का भोजन करेंगे।    

एक दिन मैं सोच रही थी कि सच में ऐसी कोई दुनिया होती जहाँ मृत्यु के बाद लोग रहने चले जाते; तब तो सच में बहुत अच्छा होता। मम्मी को वहाँ पूरा परिवार मिल जाता। मेरे दादा-दादी, नाना-नानी, मौसा-मौसी, फुआ-फूफा, बड़का बाबूजी-मइया, चाचा-चाची, मामा, पापा और अन्य ढेरों अपने जो छोड़ गए; मम्मी सबसे मिलती। क्या मस्ती भरा समय होता। महात्मा गाँधी भी वहाँ मिलते, जिनके आदर्श पर पापा-मम्मी चलते रहे। जब गाँधी जो को मम्मी बताएँगी कि भागलपुर में 'गाँधी पीस फाउण्डेशन' की स्थापना पापा ने की और मम्मी ने उसे चलाया, तो बापू कितने खुश होंगे। यूँ भी बापू की पुण्यतिथि पर मम्मी भी इस संसार से विदा हुईं। काश! ऐसा होता। 

जानती हूँ, ज़िन्दगी उस तरह नहीं मिलती जैसी चाहत होती है। एक दिन किसी ने कहा था, ''अकेली तुम ही नहीं हो जिसका बाप मरा है।'' हालाँकि मम्मी उस समय जीवित थीं, पर उनको यह न बताया कि किसने ऐसा कहा है। पर वे मेरी सारी तकलीफ़ बिना मेरे कहे भी समझती थीं। हाँ, जानती हूँ कि इस संसार में मुझसे ज़्यादा बहुत लोग दुःखी हैं, पर मेरा दुःख इससे कम नहीं होता बल्कि उनका दुःख भी मुझे पीड़ा पहुँचाता है। क्या करूँ, अपने स्वभाव से लाचार हूँ। 

कई बार सोचती हूँ कि शायद मैं ज़रुरत से ज़्यादा भावुक या संवेदनशील हूँ। छोटी-छोटी बातें चुभ जाती हैं, तो माता-पिता का गुज़र जाना कितनी पीड़ा देगी। पिता बचपन में चले गए, माँ दो साल पहले चली गईं; दुःखी होना लाज़िमी है, पर इतना भी नहीं जितना मुझे होता है। पर क्या करूँ? एक मम्मी ही थीं जो अपना कष्ट भूलकर मेरे लिए चिन्तित रहती थीं। वे जब भी मुझसे मेरी तबीयत या समस्या पूछतीं मैं नहीं बताती थी। मैं सोचती थी कि वे शारीरिक रूप से बहुत ज़्यादा अस्वस्थ हैं, ऐसे में अपनी समस्या क्यों बताना। पर अब मम्मी न रहीं तो सोचती हूँ कि अब कोई नहीं जो मुझसे पूछेगा- ''तुम कैसी हो, शूगर कितना है, यह मत खाओ, वह मत खाओ...''। अब कोई नहीं जो मेरा सम्बल बने और कहे कि ''मैं हूँ न, तुम चिन्ता न करो।''  

मम्मी 
*** 
जीवन का दस्तूर   
सबको निभाना होता है   
मरने तक जीना होता है।   
तुम जीवन जीती रही   
संघर्षों से विचलित होती रही   
बच्चों के भविष्य के सपने   
तुम्हारे हर दर्द पर विजयी होते रहे   
पाई-पाई जोड़कर   
हर सपनों को पालती रही   
व्यंग्यबाण से खुदे हर ज़ख़्म पर   
बच्चों की खुशियों के मलहम लगाती रही।   
जब आराम का समय आया   
संघर्षों से विराम का समय आया   
तुम्हारे सपनों को किसी की नज़र लग गई   
तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार फिर बिखर गई   
तुम रोती रही, सिसकती रही   
अपनी क़िस्मत को कोसती रही।   
अपनी संतान की वेदना से   
तुम्हारा मन छिलता रहा   
उन ज़ख़्मों से तुम्हारा तन-मन भरता रहा   
अशक्त तन पर हजारों टन की पीड़ा   
घायल मन पर लाखों टन की व्यथा   
सह न सकी यह बोझ   
अंततः तुम हार गई   
संसार से विदा हो गई   
सभी दुःख से मुक्त हो गई।   
पापा तो बचपन में गुज़र चुके थे   
अब मम्मी भी चली गई   
मुझे अनाथ कर गई   
अब किससे कहूँ कुछ भी   
कहाँ जाऊँ मैं?   
तुम थी तो एक कोई घर था   
जिसे कह सकती थी अपना   
जब चाहे आ सकती थी   
चाहे तो जीवन बिता सकती थी   
कोई न कहता-   
निकल जाओ   
इस घर से बाहर जाओ   
तुम्हारी कमाई का नहीं है   
यह घर तुम्हारा नहीं है।   
मेरी हारी ज़िन्दगी को एक भरोसा था   
मेरी मम्मी है न   
पर अब?   
तुमसे यह तन, तुम-सा यह तन   
अब तुम्हारी तरह हार रहा है   
मेरा जीवन अब मुझसे भाग रहा है।   
तुम्हारा घर अब भी मेरा है   
तुम्हारा दिया अब भी एक ओसारा है   
पर तुम नहीं हो, कहीं कोई नहीं है   
तुम्हारी बेटी का अब कुछ नहीं है   
वह सदा के लिए कंगाल हो गई है।
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महात्मा गाँधी जी की 75वीं पुण्यतिथि और मम्मी की दूसरी पुण्यतिथि पर तुम दोनों को मेरा प्रणाम।

- जेन्नी शबनम (30. 1. 2023)
(मम्मी की दूसरी पुण्यतिथि पर)
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