Tuesday, May 23, 2023

104. फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' - मेरे विचार


फ़िल्म 'द केरला स्टोरी' की समीक्षा या विश्लेषण करना मेरा मक़सद नहीं है, न किसी ख़ास धर्म की आलोचना या विवेचना करना है। कुछ बातें जो इस फ़िल्म को देखकर मेरे मन में उपजी हैं, उनपर चर्चा करना चाहती हूँ।

इस फ़िल्म के पक्ष-विपक्ष में दो खेमा तैयार हो चुका है कि इसे दिखाया जाए या इस पर पाबन्दी लगाई जाए। किसी के सोच पर पाबन्दी तो लगाई नहीं जा सकती, लेकिन फ़िल्म देखकर यह ज़रूर समझा जा सकता है कि इसे बनाने वाले की मानसिकता कैसी है। पूर्वाग्रह और दुराग्रह से ग्रस्त यह फ़िल्म सामाजिक द्वेष फैलाने की भावना से बनी है। यह फिल्म सभी को देखनी चाहिए और दूषित मानसिकता के सोच से बाहर निकलना चाहिए। 

यह फ़िल्म केरल की युवा लड़कियों के धर्मांतरण और फिर चरमपंथी इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक़ एन्ड सीरिया में शामिल होने की कहानी पर आधारित है। इसकी कहानी 4 लड़कियों के इर्द-गिर्द घूमती है, जिनमें दो हिन्दू, एक मुस्लिम और एक ईसाई धर्म से है। इस फ़िल्म में दावा किया गया है कि हज़ारों लड़कियाँ गायब हुई हैं, जिनको धर्मांतरण कर मुस्लिम बनाया गया और जबरन आई.एस.आई.एस. में भर्ती किया गया है। आई.एस.आई.एस. में लड़कियों को मुख्यतः दो कारण से शामिल किया जाता है- पहला कारण है कट्टरपंथियों द्वारा क्रूर यौन तृप्ति और दूसरा है ज़रूरत पड़ने पर मानव बम के रूप में इस्तेलाम करना। 

जिन वीभत्स दृश्यों को दिखाया गया है, सचमुच दिल दहल जाता है। चाहे वह किसी इंसान की हत्या हो या स्त्री के प्रति क्रूरता या जानवर को काटने का दृश्य। हालाँकि इससे भी ज्यादा हिंसा वाली फ़िल्में बनी हैं, लेकिन वे सभी काल्पनिक हैं, इसलिए मन पर ज़्यादा बोझ नहीं पड़ता। चूँकि यह फ़िल्म सत्य घटना पर आधारित है, इसलिए ऐसे दृश्य देखना सहन नहीं होता। यूँ देखा जाए तो हक़ीक़त में आई.एस.आई.एस. की क्रूरता और अमानवीयता इस फ़िल्म के दिखाए दृश्यों से भी अधिक है।  

फ़िल्म में जिस तरह से युवा शिक्षित लड़कों-लड़कियों का धर्मांतरण कराया जा रहा है, वह बहुत बचकाना लगता है। जिन तर्कों के आधार पर धर्म परिवर्तन दिखाया गया है, वह शिक्षित समाज में तो मुमकिन नहीं; हाँ प्रेम के धोखे से हो सकता है। जन्म से हमें एक संस्कार मिलता है चाहे वह किसी भी धर्म का हो, हम बिना सोच-विचार किए उसी अनुसार व्यवहार करते हैं और उसे ही सही मानते हैं। किसी भी धर्म में जन्म लेना किसी के वश में नहीं, इसलिए किसी दूसरे धर्म का अपमान करना या निन्दा करना जायज़ नहीं। अपनी इच्छा से कोई धर्म परिवर्तन कर ले तो कोई बुराई नहीं लेकिन साजिश के तहत जबरन करना अपराध है। 

नास्तिक होने के लिए हम तर्कपूर्ण, विचारपूर्ण और वैज्ञानिक तरीक़े से चीज़ों को सोचते-समझते हैं फिर एक सोच निर्धारित करते हैं। नास्तिक किसी भी धर्म में विश्वास नहीं करते, उनका सिर्फ़ एक ही धर्म होता है - मानवता। इस फ़िल्म में कम्युनिस्ट पिता की बेटी बेतुके तर्क को सुनकर न सिर्फ़ धर्म परिवर्तन कर लेती है बल्कि अपने पिता पर थूकती भी है। एक नास्तिक का ऐसा रूप दिखाना दुखद है। किसी भी नास्तिक का ऐसा 'ब्रेन वॉश' कभी भी संभव नहीं है कि कोई  धर्मान्धता में अपने पिता या दूसरे धर्म को इतनी नीचता से देखे या किसी पर थूके।   

कार्ल मार्क्स एक जर्मन दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और राजनीतिक सिद्धांतकार थे। उन्होंने धर्म पर आलोचना करते हुए उसे अफ़ीम की संज्ञा दी है। आज हम देख सकते हैं कि धर्म नाम का यह अफ़ीम किस तरह समाज को गर्त में धकेल रहा है। धर्म के इस अफ़ीम रूप का असर होते हुए हम हर दिन देख रहे हैं। यूँ लगता है मानो जन्म लेते ही प्रथम संस्कार के रूप में धर्म नाम का अफ़ीम चटा दिया जाता है। आजकल छोटे-छोटे बच्चों को भी 'जय श्री राम' और 'अल्लाह हू अकबर' कहते हुए सुना जा सकता है। किसी भी धर्म के हों, ऐसे अफ़ीमची धर्म के नाम पर मरने-मारने को सदैव उतारू रहते हैं और दंगा-फ़साद करते रहते हैं।         

प्रेम में पड़कर धर्म परिवर्तन तो फिर भी समझा जा सकता है लेकिन मूर्खतापूर्ण बातों को सुनकर और मानकर धर्म को बदल लेना संभव नहीं। यूँ प्रेम में पड़कर या विवाह कर धर्म बदलना जायज़ नहीं है। जबरन किसी का धर्म बदल सकते हैं लेकिन जन्म का मानसिक संस्कार कैसे कोई बदल सकता है? डर से भले कोई हिन्दू बने या मुस्लिम बन जाए पर मन से तो वही रहेगा जो वह जन्म से है या बने रहना चाहता है। अपनी इच्छा से कोई किसी भी धर्म को अपना ले तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं, लेकिन जबरन धर्म परिवर्तन करवाना गुनाह है। 

फिल्म 'द केरला स्टोरी' कुटिल मानसिकता के द्वारा मुस्लिम धर्म के ख़िलाफ़ बनाई गई फ़िल्म लगती है। धर्म परिवर्तन किसी भी मज़हब के द्वारा होना ग़लत है। फ़िल्म में जो धर्म परिवर्तन है वह एक साजिश के तहत हो रहा है, एक सामान्य जीवन जीने के लिए नहीं। इस फ़िल्म को बनाने का मकसद धर्म परिवर्तन से ज़्यादा आई.एस.आई.एस. की गतिविधि होनी चाहिए। जिसमें वे मासूम लड़के-लड़कियों को धर्म का अफ़ीम खिलाकर गुमराह कर रहे हैं और अपने ख़ौफ़नाक  इरादे को पूरा कर रहे हैं। इस साजिश में जिस तरह मुस्लिम धर्म के पक्ष में वर्णन है, वह निंदनीय है। 

दुनिया के किसी भी धर्म में कभी भी हिंसा नहीं सिखाई जाती है। ईश्वर, अल्लाह, जीसस या अन्य कोई भी भगवान या भगवान के दूत सदैव प्रेम की बात करते हैं। हाँ, यह सच है कि धर्म को तोड़-मरोड़कर धर्म के ठेकेदार अपने-अपने धर्म को बड़ा और सबसे सही बनाने में दूसरों को नीचा दिखाते हैं और अपने ही धार्मिक ग्रंथों को अपनी मानसिकता के अनुसार उसका वाचन और विश्लेषण करते हैं। अंधभक्त ऐसे ही पाखण्डी धर्मगुरुओं या मुल्लाओं के चंगुल में फंस जाते हैं। गीता, कुरान या बाइबल को सामान्यतः कोई ख़ुद नहीं पढ़ता, बाबाओं, पादरी या मौलवी के द्वारा सुनकर समझता है और उसी के कहे को ब्रह्मवाक्य समझता है। 
 
विश्व में लगभग 300 धर्म हैं। भारत में  मुख्यतः हिन्दू, इस्लाम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी इत्यादि धर्म के अनुयायी हैं। जिसे हम धर्म कहते हैं वास्तव में वह सम्प्रदाय है। अपनी-अपनी मान्यताओं और सुविधाओं के अनुसार समय-समय पर अलग-अलग सम्प्रदाय बनते गए। एक को दूसरे से ज़्यादा बेहतर कहना उचित नहीं है। अगर कोई किसी भी सम्प्रदाय से जुड़ाव महसूस नहीं करता है, तो यह उस व्यक्ति का निजी पसन्द है। इससे वह न तो पापी हो जाता है न असामाजिक। ईश्वर की सत्ता को माने या न माने, किसी ख़ास को माने या न माने, व्यक्ति तो वही रहता है। धर्म या सम्प्रदाय को मानना स्वेच्छा से होनी चाहिए। जबरन किसी से न प्रेम किया जा सकता है न नफ़रत। अपने स्वभाव और मत के अनुसार जो सही लगे और जो समाज के नियमों के अधीन हो वही जीवन जीने का उचित और सही मार्ग है। 

मन्दिर-मस्जिद-गिरिजा-गुरुद्वारा में भटकना, मूर्तिपूजा करना या 5 वक़्त का नमाज़ पढ़ना धर्म की परिभषा या परिधि में नहीं आता है। मान्यता, परम्परा, रीति-रिवाज़, प्रथा, चलन, विश्वास इत्यादि का पालन करना एक नियमबद्ध समाज के परिचालन के लिए ज़रूरी है। इन सभी का ग़लत पालन कर दूसरों को कष्ट देना या ख़ुद को उच्च्तर मानना ग़लत है। 

जिस तरह हमारा संविधान बना और फिर समय व ज़रूरत के अनुसार उसमें संशोधन किए जाते हैं, उसी तरह हमारा धर्म होना चाहिए - इंसान का, इंसान के द्वारा, इंसान के लिए। जिसमें इंसान की स्वतंत्रता, समानता और सहृदयता का पालन करना ही धर्म है। समय के बदलाव के साथ मनुष्य के इस धर्म में परिवर्तन होना ज़रूरी है, परन्तु इस धर्म का जो मुख्य तत्व है वह बरकरार रहना चाहिए। 

-जेन्नी शबनम (23.5.2023)
___________________

Thursday, April 20, 2023

103. जीवन के यथार्थ से जुड़ी : मरजीना -दयानन्द जायसवाल

'मरजीना' क्षणिका-संग्रह जेन्नी शबनम, दिल्ली की यह कृति जीवन के यथार्थ से जुड़ी विविध पक्षों को बड़ी खूबसूरती के साथ प्रस्तुत करती है। कवयित्री की यह तीसरी पुस्तक है जो सच्ची और अच्छी भावनाओं का सुंदर दस्तावेज है, जिसमें एक कोमल भाव-भूमि की प्रस्तुति है, अपनी संस्कृति और अतीत के वैभव के लिए अटूट आस्था और विश्वास है तथा एक सकारात्मक दृष्टिकोण है जो आज हाथ से फिसलता जा रहा है। इनका यह काव्य-संग्रह एक दिशा बनाता है कि जहाँ हम जन्मे हैं, जिसकी मिट्टी में पलकर बड़े हुए हैं वह भूमि हमारे लिए सर्वोपरि है।

'मरजीना' शब्द ही अपने आप में बहुत ही अच्छा और खूबसूरत है, जिसे लोग काफी पसंद करते हैं। यह मजबूत व्यक्तित्व को दर्शाता है। यह शब्द अरबी भाषा के "मर्जान" से बना है जिसका अर्थ ही छोटा मोती है। संग्रह का हर मोती कवयित्री ने सागर की गहराई से चुन-चुनकर लाया है। जेन्नी शबनम जी को विद्यालयी जीवन से ही लिखने-पढ़ने तथा सर्जनात्मक कार्यों में अभिरुचि रही है। इनको इनकी माता का आशीर्वाद रहा है, उन्हें भी हिंदी के प्रति काफी रुचि थी।

भावनाओं की दृष्टि से 'मरजीना' की काव्यधारा जब विभिन्न तटों का स्पर्श करती हुई बहती है, तो रास्ते में जो ठहराव मिलते हैं वो इन खण्डों में विभक्त हैं- 'रिश्ते', 'स्टैचू बोल दे', 'जी चाहता है', 'अंतर्मन', 'सवाल', 'स्वाद/बेस्वाद', 'इश्क़', 'कहानी', 'समय-चक्र', 'सच', 'घात', 'बेइख़्तियार', 'औरत', 'साथी', 'तुम', 'समय' और 'चिंतन'।
इनकी पहली क्षणिका 'मरजीना' से है-
"मन का सागर दिन-ब-दिन और गहरा होता जा रहा
दिल की सीपियों में क़ैद मरजीना बाहर आने को बेकल
मैंने बिखेर दिया उन्हें कायनात के बरक़ पर"।
हिंदी साहित्य में क्षणिकाएँ भी बेहद प्रचलित हैं। क्षण की अनुभूति को शब्दों में पिरोकर साहित्यिक रचना ही क्षणिका होती है, अर्थात मन में उपजे गहन विचार को कम शब्दों में इस प्रकार बाँधना कि कलम से निकले हुए शब्द सीधे पाठक के हृदय में उतर जाए। इसे हम छोटी कविता भी कह सकते हैं। जीवन अनुभव जितना विराट और वैविध्य होगा क्षणिकाएँ उतनी ही अधिक प्रभावी होगी।
कवयित्री बड़ी सरलता से क्षणिका का सहारा लेती हुई समाज को सन्देश दे रही है जो जीवन के व्यावहारिक पक्ष से सम्बंधित सिद्धांत, नीति अथवा अनुभवसिद्ध तथ्य की पुष्टि करते हैं। इससे जीवन की सच्ची परिस्थितियों का मार्मिक अनुभव व्यक्त होता है-
"ख़ौफ़ के साये में ज़िन्दगी को तलाशती हूँ
ढेरों सवाल हैं पर जबाव नहीं
हर पल हर लम्हा एक इम्तिहान से गुज़रती हूँ
कमबख़्त, ये ज़िन्दगी मौक़ा नहीं देती।"
जीवन अनुभवों की गहराइयों में उतरकर कविता रचती कवयित्री में संक्षिप्तिकरण की अद्भुत क्षमता है। नारी जीवन की अनेक विडंबनाओं, आशाओं, निराशाओं, मन के भावचित्रों, अनुभूतियों, कल्पनाओं और यथार्थों का जो वर्णन मानवीय सम्बन्धों के माध्यम से व्यक्त की हैं, इस प्रकार है-
"स्त्री की डायरी उसका सच नहीं बाँचती
स्त्री की डायरी में उसका सच अलिखित छपा होता है
इसे वही पढ़ सकता है, जिसे वह चाहेगी
भले ही दुनिया अपने मन माफ़िक़
उसकी डायरी में हर्फ़ अंकित कर ले।"
x x x x
"रिश्तों की कशमकश में ज़ेहन उलझा है
उम्र और रिश्तों के इतने बरस बीते
मगर आधा भी नहीं समझा है
फ़क़त एक नाते के वास्ते
कितने-कितने फ़रेब सहे
घुट-घुटकर जीने से बेहतर है
तोड़ दें नाम के वह सभी नाते
जो मुझे बिल्कुल समझ नहीं आते।"
इन पंक्तियों में एक गहन अनुभूति पीड़ा व संवेदना निहित है तथा रिश्तों की विसंगतियों और मजबूरियों में निजी जीवन की आहुति दे दी जाती है। इसमें आंतरिक सन्त्रास, अंतर्द्वंद्व और घुटन की अभिव्यक्ति है जो सामाजिक जीवन के प्रति विद्रोह को स्पष्ट करता है। हमारा जीवन एक अनबुझ पहेली है। इसमें कई तरह के सवाल हैं जो अनेक अर्थों को प्रतिपादित करता है। जीवन समाप्त हो जाता है, पर सवाल रह जाते हैं-
"सवालों का सिलसिला
तमाम उम्र पीछा करता रहा
इनमें उलझकर मन लहूलुहान हुआ
पाँव भी छिले चलते-चलते,
आख़िरी साँस ही आख़िरी सवाल होंगे।"

साहित्य में प्रेम का विषय हमेशा प्रासंगिक रहा है। यह सबसे शुद्ध और सबसे खूबसूरत एहसास है जिसे प्राचीन काल से गाया जाता रहा है। इसकी अनुभूति से हमारा अनुभव रूपांतरित होता है और प्रत्येक वस्तु में दिव्यता तथा आध्यात्मिकता का आविर्भाव होता है। प्रेम स्वयं में व्यापक, विराट व शक्तिशाली अनुभूति है। इसके जागृत होते ही आत्मा की तत्काल अनुभूति हो जाती है। प्रेम की अनुभूति जाग्रत होने से पहले सबकुछ निर्जीव, आनंदरहित व जड़ है। किंतु इसके जागृत होते ही सबकुछ प्रफुल्लित, दिव्य, चैतन्य और आलोकमय हो जाता है। इसलिए कवयित्री कहती है-
"अल्लाह ! एक दुआ क़बूल करो
क़यामत से पहले इतनी मोहलत दे देना
दम टूटे उससे पहले
इश्क़ का एक लम्हा दे देना।"
संग्रह की अन्य कविताएँ भी विविध भाव व्यक्त करतीं हैं। भावनाओं के अलावा भी काव्य सृजन के मामले में भी उत्कृष्ट हैं, भाषा में प्रवाह है तथा शिल्प-सौंदर्य है। कवयित्री को हार्दिक
बधाई

-दयानन्द जायसवाल (18.10.2022)
प्रकाशक- अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली
मो- 9716927587
कवयित्री जेन्नी शबनम- 9810743437
__________________________________

Sunday, March 5, 2023

102. नवधा : ख़ुद को बचा पाने का संघर्ष - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

तसलीमा नसरीन जी के साथ मैं 

'नवधा' मेरा चौथा काव्य-संग्रह है तथा 'झाँकती खिड़की' पाँचवाँ, जिसका लोकार्पण अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला, नई दिल्ली में दिनांक 4 मार्च 2023 को हुआ। नवधा की भूमिका आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी ने लिखी है। प्रस्तुत है उनकी लिखी संक्षिप्त भूमिका:   



प्रवाह के आगे आने वाली शिलाओं पर उछलते-कूदतेफलाँगतेघाटियों में गाते-टकराते नदी बहती जाती है। जीवन इसी नदी का नाम है, जो सुख-दुःख के दो किनारों के बीच बहती है। जब ये अनुभूतियाँ शब्दों में उतरती हैंतो साहित्य का रूप ले लेती हैं। डॉ. जेन्नी शबनम का बृहद् काव्य-संग्रह ‘नवधा’ जीवन की उसी यात्रा में नव द्वारों के माध्यम से प्रस्तुत की गई व्याख्या है।

  

यह काव्य-संग्रह एक स्त्री के उस संघर्ष की कथा हैजो अपने वजूद की तलाश में हैजो सिर्फ़ एक स्त्री बनकर जीना चाहती है। ये अनुभूतियाँ: 1. हाइकु, 2. हाइगा, 3. ताँका, 4. सेदोका, 5. चोका, 6. माहिया, 7. अनुबन्ध, 8. क्षणिकाएँ और 9. मुक्तावलि खण्डों में काव्य की विभिन्न शैलियों में अभिव्यक्त हुई हैं। जेन्नी शबनम का रचना-संसार किसी बाध्यता का नहींबल्कि अनुभूति के गहन उद्वेलन का काव्य है। काव्य की भारतीय और  जापानी शैलियों पर आपका पूरा अधिकार है।


हाइकु जैसी आकारगत छोटी-सी विधा में अपने जीवन के अनुभूत सत्य- प्रेम को ‘साँकल’ कहा हैवह भी अदृश्य-

प्रेम बन्धन / न रस्सी न साँकल / पर अटूट 

लेकिन जो मनोरोगी होगा, वह इस प्रेम को कभी नहीं समझेगा, ख़ुद भी रोएगा और दूसरों को भी आजीवन रुलाता रहेगा-

मन का रोगी भेद न समझता रोता-रुलाता।   

जीवन के विभिन्न रंगों की छटा हाइकु-खण्ड में दिखाई देती है। कोई डूब जाएतो नदी निरपराध होने पर भी व्यथित हो जाती है-

डूबा जो कोई / निरपराध नदी फूटके रोई।   


हाइगा तो है ही चित्र और काव्य का संयोग। सूरज के झाँकने का एक बिम्ब देखिए-

सूरज झाँका / सागर की आँखों में रूप सुहाना। 

क्षितिज पर बादल और सागर का एकाकार होनागहन प्रेम का प्रतीक होने के साथ मानवीकरण की उत्कृष्ट प्रस्तुति है-

क्षितिज पर / बादल व सागर / आलिंगन में।

पाँव चूमने। लहरें दौड़ी आईं मैं सकुचाई। 


ताँका के माध्यम से आप शब्द की शक्ति का प्रभाव इंगित करती हैं। सरलसहज शब्दावली यदि अभिव्यक्ति की विशेषता हैतो उत्तेजना में कही बात एक लकीर छोड़ जाती है। कवयित्री कहती है-

सरल शब्द सहज अभिव्यक्ति भाव गम्भीर, / उत्तेजित भाषण खरोंच की लकीर। 

शब्दों के शूल कर देते छलनी कोमल मन, / निरर्थक जतन अपने होते दूर। 


सेदोका 5-7-7 के कतौता की दो अधूरी कविताओं की पूर्णता का नाम है। दो कतौता मिलकर एक सेदोका बनाते हैं। अगस्त 2012 के अलसाई चाँदनी’ सम्पादित सेदोका-संग्रह से जेन्नी शबनम जी ने तब भी और आज भी इस शैली की गरिमा बढ़ाई है। एक उदाहरण-

 दिल बेज़ार रो-रोकर पूछता- / क्यों बनी ये दुनिया? / ऐसी दुनिया- जहाँ नहीं अपना / रोज़ तोड़े सपना। 


चोका 5-7… अन्त में 7-7 के क्रम में विषम पंक्तियों की कविता है। जेन्नी जी की इन कविताओं में जीवन को गुदगुदाते-रुलाते सभी पलों का मार्मिक चित्र मिलता है। सुहाने पलनया घोसलाअतीत के जो पन्नेवक़्त की मर्ज़ी ये सभी चोका भाव-वैविध्य के कारण आकर्षित करते हैं।   


माहिया गेय छन्द हैजिसमें द्विकल (या 1+1=2) की सावधानी और 12-10-12 की मात्राओं का संयोजन करने पर इसकी गेयता खण्डित नहीं होती। ये माहिया मन को गुदगुदा जाते हैं-

तुम सब कुछ जीवन में मिल न सकूँ फिर भी रहते मेरे मन में।   

हर बाट छलावा है चलना ही होगा पग-पग पर लावा है।


अनुबन्ध’ खण्ड की ये पंक्तियाँ गहरा प्रभाव छोड़ती हैं- 

''ज़ख़्म गहरा देते हो हर मुलाक़ात के बाद और फिर भी मिलने की गुज़ारिश करते हो।''


क्षणिकाओं मेंऔरतपिछली रोटीस्वाद चख लियामेरा घरस्टैचू बोल देमुक्तावलि की कविताओं में- परवरिशदड़बा और तकरार हृदयस्पर्शी हैं। इनमें जीवन-संघर्ष और अन्तर्द्वन्द्व को सफलतापूर्व अभिव्यक्त किया है।


जेन्नी जी का यह संग्रह पाठकों को उद्वेलित करेगातो रससिक्त भी करेगाऐसी आशा है।

 

14.01.2023                                             -रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

___________________________________________________ 

 







- जेन्नी शबनम (4. 3. 2023)
*****************************************************

Monday, January 30, 2023

101. मम्मी (दूसरी पुण्यतिथि)

मम्मी को गुज़रे हुए आज 2 साल हो गए हैं। मम्मी अब यादें बन गईं हैं, पर अब भी लगता है जैसे वे कहीं गईं हैं और लौटकर आ जाएँगी। जानती हूँ वे अब कभी नहीं आएँगी। मेरा मानना है कि मृत्यु के बाद सब ख़त्म। न कोई ऐसी दुनिया होती है जहाँ मृतक रहते हैं, न कोई मरकर तारा बनता है, न पुनर्जन्म होता है, न ही कोई आत्मा-परमात्मा हमें देखता है। हाँ, यह सच है कि अगर पुनर्जन्म या आत्मा-परमात्मा पर विश्वास किया जाए तो ख़ुद को सन्तोष और ढाढ़स मिलता है कि हमारा अपना और हमारा भगवान् हमारे साथ है। पर, कमबख़्त मेरा दिमाग वैसा बना ही नहीं जो इन विश्वासों और आस्थाओं पर यक़ीन करे।  

मम्मी जब तक जीवित रहीं, तब तक ही वे हमारे लिए थीं। अब उनका काम, सोच और निशानियाँ शेष हैं जो हमारे साथ है। मम्मी के कपड़े, बैग, चश्मा, चप्पल, छड़ी इत्यादि भागलपुर में मम्मी के अपने मेहनत से बनवाए घर में रखा है। घर आज भी वैसे ही फूलों से खिला हुआ है जैसा मम्मी छोड़ गई थी। मम्मी का अन्तिम फ़ोन अब मेरे पास है जिसे छूकर मम्मी के छुअन का एहसास कर लेती हूँ। मम्मी का फ़ोन नम्बर, जिसे अब मैं इस्तेमाल करती हूँ, को अब भी मम्मी के नाम से ही रखा है। मम्मी के उस फ़ोन से अपने दूसरे नम्बर पर कॉल करती हूँ या कोई सन्देश भेजती हूँ, तो लगता है जैसे मम्मी ने किया है। क्षणिक ही सही, पर मेरे लिए जीवित हो जाती हैं मम्मी। 

मैं जानती हूँ मम्मी के कार्य के कारण उनका बहुत विस्तृत सम्पर्क और समाज था। सभी लोग अब भी उन्हें याद करते हैं। परन्तु यह भी सच है समय के साथ सभी लोग धीरे-धीरे उन्हें भूलने लगेंगे। शायद मुझे और मेरे भाई को ही सिर्फ याद रह जाएँगी मम्मी। जिस तरह मेरे पापा का मम्मी से भी बड़ा विस्तृत समाज था, परन्तु अब लोग भूल गए हैं। पापा के कुछ बहुत नज़दीकी मित्र व छात्र ही उन्हें यादों में रखे हुए हैं। उसी तरह मम्मी भी भुला दी जाएगी। बस कुछ ही लोगों की यादों में जीवित रह जाएगी। 

मम्मी की मृत्यु के बाद सारे संस्कार किये गए थे। पिछले साल वार्षिक श्राद्ध हुआ था। इस साल जब श्राद्ध होना था, तो कुछ लोगों ने कहा कि 'गया' में जाकर मम्मी-पापा के लिए पिण्डदान कर दिया जाए। एक बार बरखी (वार्षिक श्राद्ध) हो गया अब ज़रूरी नहीं है। गया में भी हो जाए पिण्डदान, क्या फ़र्क पड़ता है। पर मेरे लिए मम्मी का वार्षिक श्राद्ध करना न मज़बूरी है न धार्मिक भावना। हर साल वार्षिक श्राद्ध होगा, जिसमें पूजा नहीं भोज होगा। साल में एक बार अपने लोग एकत्रित होंगे, मम्मी-पापा और दादी की यादों को जिएँगे। मम्मी के पसन्द का भोजन करेंगे।    

एक दिन मैं सोच रही थी कि सच में ऐसी कोई दुनिया होती जहाँ मृत्यु के बाद लोग रहने चले जाते; तब तो सच में बहुत अच्छा होता। मम्मी को वहाँ पूरा परिवार मिल जाता। मेरे दादा-दादी, नाना-नानी, मौसा-मौसी, फुआ-फूफा, बड़का बाबूजी-मइया, चाचा-चाची, मामा, पापा और अन्य ढेरों अपने जो छोड़ गए; मम्मी सबसे मिलती। क्या मस्ती भरा समय होता। महात्मा गाँधी भी वहाँ मिलते, जिनके आदर्श पर पापा-मम्मी चलते रहे। जब गाँधी जो को मम्मी बताएँगी कि भागलपुर में 'गाँधी पीस फाउण्डेशन' की स्थापना पापा ने की और मम्मी ने उसे चलाया, तो बापू कितने खुश होंगे। यूँ भी बापू की पुण्यतिथि पर मम्मी भी इस संसार से विदा हुईं। काश! ऐसा होता। 

जानती हूँ, ज़िन्दगी उस तरह नहीं मिलती जैसी चाहत होती है। एक दिन किसी ने कहा था, ''अकेली तुम ही नहीं हो जिसका बाप मरा है।'' हालाँकि मम्मी उस समय जीवित थीं, पर उनको यह न बताया कि किसने ऐसा कहा है। पर वे मेरी सारी तकलीफ़ बिना मेरे कहे भी समझती थीं। हाँ, जानती हूँ कि इस संसार में मुझसे ज़्यादा बहुत लोग दुःखी हैं, पर मेरा दुःख इससे कम नहीं होता बल्कि उनका दुःख भी मुझे पीड़ा पहुँचाता है। क्या करूँ, अपने स्वभाव से लाचार हूँ। 

कई बार सोचती हूँ कि शायद मैं ज़रुरत से ज़्यादा भावुक या संवेदनशील हूँ। छोटी-छोटी बातें चुभ जाती हैं, तो माता-पिता का गुज़र जाना कितनी पीड़ा देगी। पिता बचपन में चले गए, माँ दो साल पहले चली गईं; दुःखी होना लाज़िमी है, पर इतना भी नहीं जितना मुझे होता है। पर क्या करूँ? एक मम्मी ही थीं जो अपना कष्ट भूलकर मेरे लिए चिन्तित रहती थीं। वे जब भी मुझसे मेरी तबीयत या समस्या पूछतीं मैं नहीं बताती थी। मैं सोचती थी कि वे शारीरिक रूप से बहुत ज़्यादा अस्वस्थ हैं, ऐसे में अपनी समस्या क्यों बताना। पर अब मम्मी न रहीं तो सोचती हूँ कि अब कोई नहीं जो मुझसे पूछेगा- ''तुम कैसी हो, शूगर कितना है, यह मत खाओ, वह मत खाओ...''। अब कोई नहीं जो मेरा सम्बल बने और कहे कि ''मैं हूँ न, तुम चिन्ता न करो।''  

मम्मी 
*** 
जीवन का दस्तूर   
सबको निभाना होता है   
मरने तक जीना होता है।   
तुम जीवन जीती रही   
संघर्षों से विचलित होती रही   
बच्चों के भविष्य के सपने   
तुम्हारे हर दर्द पर विजयी होते रहे   
पाई-पाई जोड़कर   
हर सपनों को पालती रही   
व्यंग्यबाण से खुदे हर ज़ख़्म पर   
बच्चों की खुशियों के मलहम लगाती रही।   
जब आराम का समय आया   
संघर्षों से विराम का समय आया   
तुम्हारे सपनों को किसी की नज़र लग गई   
तुम्हारी ज़िन्दगी एक बार फिर बिखर गई   
तुम रोती रही, सिसकती रही   
अपनी क़िस्मत को कोसती रही।   
अपनी संतान की वेदना से   
तुम्हारा मन छिलता रहा   
उन ज़ख़्मों से तुम्हारा तन-मन भरता रहा   
अशक्त तन पर हजारों टन की पीड़ा   
घायल मन पर लाखों टन की व्यथा   
सह न सकी यह बोझ   
अंततः तुम हार गई   
संसार से विदा हो गई   
सभी दुःख से मुक्त हो गई।   
पापा तो बचपन में गुज़र चुके थे   
अब मम्मी भी चली गई   
मुझे अनाथ कर गई   
अब किससे कहूँ कुछ भी   
कहाँ जाऊँ मैं?   
तुम थी तो एक कोई घर था   
जिसे कह सकती थी अपना   
जब चाहे आ सकती थी   
चाहे तो जीवन बिता सकती थी   
कोई न कहता-   
निकल जाओ   
इस घर से बाहर जाओ   
तुम्हारी कमाई का नहीं है   
यह घर तुम्हारा नहीं है।   
मेरी हारी ज़िन्दगी को एक भरोसा था   
मेरी मम्मी है न   
पर अब?   
तुमसे यह तन, तुम-सा यह तन   
अब तुम्हारी तरह हार रहा है   
मेरा जीवन अब मुझसे भाग रहा है।   
तुम्हारा घर अब भी मेरा है   
तुम्हारा दिया अब भी एक ओसारा है   
पर तुम नहीं हो, कहीं कोई नहीं है   
तुम्हारी बेटी का अब कुछ नहीं है   
वह सदा के लिए कंगाल हो गई है।
-0-

महात्मा गाँधी जी की 75वीं पुण्यतिथि और मम्मी की दूसरी पुण्यतिथि पर तुम दोनों को मेरा प्रणाम।

- जेन्नी शबनम (30. 1. 2023)
(मम्मी की दूसरी पुण्यतिथि पर)
_______________________
    

Wednesday, November 16, 2022

100. भागलपुर की जेन्नी (पार्ट- 2)

 
सुनसान राहों पर चलते हुए कोई चीख कानों में पड़े तो जैसे आशंका से मन डर जाता है, ठीक वैसे ही उम्र के इस मोड़ पर सुनसान यादों में कोई चीख-चीखकर मुझे झकझोर रहा है। अब क्या? अब क्या शेष बचा? अब क्या करना है? अब? जाने कितना विकराल-सा लग रहा है यह प्रश्न- ''अब क्या''।  

सोचती हूँ 56 वर्ष कितने अधिक होते हैं, लेकिन इतनी जल्दी मानो पलक झपकते ही ख़र्च हो गए और अब जीवन के हिस्से में साँसों का कर्ज़ बढ़ रहा है। ख़ुश हूँ या निरुद्देश्य जीवन पर नाराज़ हूँ, यह सवाल अक्सर मुझे परेशान करता है। उम्र के इस मोड़ पर पहुँच कर प्रौढ़ होने का गर्व है तो कहीं न कहीं बेहिसाब सपनों के अपूर्ण रह जाने का मलाल भी है। अफ़सोस अब वक़्त ही न बचा। या यूँ कि मुमकिन है वक़्त बचा हो मगर मन न बचा। जीते-जीते इतनी ऊबन हो गई है कि जी करता है कि अगर मुझमें साहस होता तो हिमालय पर चली जाती, तपस्या तो न कर सकूँगी, हाँ ख़ुद के साथ नितान्त अकेले जीवन ख़त्म करती या विलीन हो जाती। 

पीछे मुड़कर देखती हूँ तो लगता है मेरी ज़िन्दगी कई अध्यायों में बँटी है और मैंने क़िस्त-दर-क़िस्त हर उम्र का मूल्य चुकाया है। मेरे जीवन के पहले अध्याय में सुहाना बचपन है जिसमें मम्मी-पापा, दादी, नाना-नानी, मामा-मामी, चाचा-चाची, फुआ-फूफा, मौसा-मौसी, भैया, ढेरों चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाई-बहन, रिश्ते-नाते, मेरा कोठियाँ, मेरा यमुना कोठी, मेरा स्कूल, पापा की मृत्यु से पहले का स्वछंद सरल जीवन है। फिर पापा की लम्बी बीमारी और अंततः मृत्यु जैसी स्तब्ध कर देने वाली पीड़ा है। दूसरे अध्याय में 25 वर्ष तक पढ़ाई के साथ दुनिया का दस्तूर समझना और पूरी दुनियादारी सीखना है। फिर भागलपुर दंगा और दंगा के बाद का जीवन और समाज का परिवर्तन तथा अमानवीय मानसिकता व सम्बन्ध है। तीसरे अध्याय में 25 वर्ष की उम्र में हठात मैं प्रौढ़ हो गई, जहाँ न बचपना जीने की छूट न जवानों-सी अल्हड़ता है; वह है विवाह और विवाहोपरांत का कुछ साल है। जिसमें जीवन से समझौते और जीवन को निबाहने की जद्दोजहद है। दुःख के अम्बारों में सुख के कुछ पल भी हैं, जो अब बस यादों तक ही सीमित रह गए हैं। दुःख की काली छाया में सुख के सुर्ख़ बूटों को तराशने और तलाशने की नाकाम कोशिश है। चौथे अध्याय में मेरे बच्चों के वयस्क होने तक का मेरा जीवन है, जिसे शायद मैं कभी किसी से कह न सकूँ, या कह पाने की हिम्मत न जुटा सकूँ। या यूँ कहूँ की प्रौढ़ जीवन से वृद्धावस्था में प्रवेश की कहानी है, जो मेरी आँखों के परदे पर वृत्तचित्र-सा चल रहा है, जिसमें पात्र भी मैं और दर्शक भी मैं। जाने कौन जी गया मेरा जीवन, अब भी समझ नहीं आता। अगर कभी हिम्मत जुटा सकी तो अपने जीवन के सभी अध्यायों को भी लिख डालूँगी।  

ज़िन्दगी तेज़ रफ़्तार आँधी-सी गुज़र गई और उन अन-जिए पलों के ग़ुबार में ढेरों फ़रियाद लिए मैं हाथ मलते हुए अपनी भावनाओं को कागज़ पर उकेरती रही; कोई समझे या न समझे। ऐसा लगता है जैसे मेरी उम्र साल-दर-साल नहीं बढ़ती है बल्कि हर जन्मतिथि पर 10 साल बड़ी हो जाती हूँ। मेरा जीवन जीने के लिए नहीं, अपितु तमाम उम्र अभिनय करते जाने के लिए बना है। कितने पात्रों का अभिनय किया है, पर किसी भी पात्र का चयन मेरे मन के अनुसार नहीं है। जाने कौन है जो पटकथा लिखता है और मुझे वह चरित्र जीने के लिए मज़बूर करता है? मेरा वास्तविक जीवन कहाँ है? क्या हूँ मैं? संत-महात्मा ठीक ही कहते हैं कि जीवन भ्रम है और मृत्यु एकमात्र सत्य। जिस दिन सत्य का दर्शन हुआ; अभिनय से मुक्ति होगी। मेरा अनुभव है कि जिसकी तक़दीर ख़राब होती है बचपन से ही होती है और कभी ठीक नहीं होती; भले बीच बीच में छोटी-छोटी खुशियाँ मानों साँसों को रोके रखने के लिए आती हैं। 

मेरे जन्म के बाद के कुछ साल बहुत सुखद बीते। पापा-मम्मी-दादी के साथ पलते बढ़ते हुए हम दोनों भाई-बहन बड़े हो रहे थे। कुछ साल गाँव में दादी के पास रहकर पढ़ाई की। इससे यह बहुत अच्छा हुआ कि मैं ग्रामीण परिवेश को बहुत अच्छी तरह समझ सकी। मैं उस समाज का हिस्सा बन सकी जहाँ बच्चे गाँव के वातावरण में रहकर पढ़ते भी है और मस्ती भी करते हैं। जहाँ लड़का-लड़की में कोई भेद नहीं होता है; हाँ स्वभावतः उनके कार्य का बँटवारा हो जाता है और कोई किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है। ज़िन्दगी बहुत सहज, सरल और उत्पादक होती है। 

2 साल गाँव में रहकर मैं भागलपुर मम्मी-पापा के पास आ गई। परन्तु भाई गाँव में रहकर ही मैट्रिक पास किया। मेरा भाई पढने में बहुत अच्छा था तो आई0 आई0 टी0 कानपुर और उसके बाद स्कॉलरशिप पर अमेरिका चला गया। 1984 में महिला समाज की तरफ से मुझे मेडिकल की पढ़ाई के लिए रूस जाना था। सब कुछ हो गया, लेकिन बाद में पता चला कि मैंने आर्ट्स से आई0 ए0 किया है तो नामांकन न हो सकेगा। फिर 1988 मेरा भाई मुझे पढने के लिए अमेरिका ले जाना चाहता था, लेकिन मुझे वीजा नहीं मिला क्योंकि मैं वयस्क हो गई थी और लॉ की पढ़ाई पूरी कर चुकी थी। क़िस्मत ने मुझे फिर से मात दी।  

जुलाई 1978 में मेरे पिता का देहान्त  हो गया। पापा की मृत्यु के पश्चात जीवन जैसे अचानक बदला और 12 वर्ष की उम्र में मैं वयस्क हो गई। मम्मी की सभी समस्याएँ बहुत अच्छी तरह समझने लगी। यहाँ तक कि गाँव के हमारे कुछ रिश्तेदार चाहते थे कि मेरी माँ को मेरी दादी घर से निकाल दे और हम भाई-बहन को अपने पास गाँव में ही रख ले। पर मेरी दादी बहुत अच्छी थीं, जिसने ऐसा कहा था उसे बहुत सटीक जवाब दिया उन्होंने। मेरी मम्मी को दादी ने बहुत प्यार दिया, मम्मी ने भी उन्हें माँ की तरह माना। मेरी मम्मी अपना सुख-दुःख दादी से साझा करती थी। दादी का सम्बल मम्मी के लिए बहुत बड़ा सहारा था। सन 2008 में 102 साल की उम्र में दादी का देहान्त हुआ, मम्मी उसके बाद से बहुत अकेली हो गई।  

मेरे स्कूल में तब 9वीं और 10वीं का स्कूल-ड्रेस नीले पाड़ की साड़ी और सफ़ेद ब्लाउज था। ब्लाउज की लम्बाई इतनी हो कि ज़रा-सा भी पेट दिखना नहीं चाहिए। साड़ी पहनकर अपने घर नया बाज़ार से अपने स्कूल घंटाघर चौक तक पैदल जाना बाद में सहज हो गया। साड़ी पहनने से मन में बड़े होने का एहसास भी होने लगा। हाँ यह अलग बात कि कॉलेज जाते ही टी-शर्ट पैंट, सलवार कुर्ता पहनने लगी, साड़ी सिर्फ सरस्वती पूजा में। मेरे समय में 11वीं-12 वीं की पढ़ाई कॉलेज में होती थी, जिसे आई0 ए0 यानि इंटरमीडियट ऑफ़ आर्ट्स कहते थे। बी0 ए0 ऑनर्स सुन्दरवती कॉलेज से किया तथा टी0 एन0 बी0 लॉ कॉलेज से लॉ किया। भागलपुर विश्वविद्यालय से गृह विज्ञान में एम0 ए0 किया। 2005 में भागलपुर विश्वविद्यालय से पी-एच0 डी0 किया।     

मैं 1986 में समाज कार्य और नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इण्डियन वुमेन से जुड़ने के अलावा राजनीति से भी जुड़ गई। ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के भागलपुर इकाई की वाईस प्रेजिडेंट बनी। मीटिंग, धरना, प्रदर्शन खूब किया। 1989 के दंगा के बाद वह सब भी ख़त्म हो गया। हाँ, बिहार महिला समाज की सदस्य मम्मी के जीवित रहते तक रही। अब अपना वह जीवन सपना-सा ही लगता है। जन्म से ही मैं पापा के चले हुए राह पर चलती रही, उनकी तरह विचार से कम्युनिष्ट हूँ, मन से थोड़ी गाँधीवादी और नास्तिक हूँ। पूजा-पाठ या ईश्वर की किसी भी सत्ता में मेरा विश्वास नहीं। परन्तु त्योहार खूब मज़े से मनाती हूँ। छठ में मोतिहारी अपने मामा-मामी और मम्मी के मामा-मामी के पास हर साल जाती रही। दिवाली, जगमग करता दीपों का त्योहार मेरे मन के संसार को उजियारा से भर देता है। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और नया साल मेरे लिए प्रफुल्लित करने वाला दिन होता है हमेशा।  

10वीं से लेकर एम0 ए0 और लॉ की पढ़ाई मैंने ऐसे की जैसे कोई नर्सरी से लेकर 10 वीं तक पढ़ता है। नर्सरी के बाद पहली कक्षा फिर दूसरी कक्षा फिर तीसरी...। बिना यह सोचे कि आगे क्या करना है। बस पढ़ते जाओ पढ़ते जाओ, पास करते जाओ। अब यूँ महसूस होता है जैसे कितनी कम-अक़्ल थी मैं, भविष्य में क्या करना है, सोच ही नहीं पाई। लॉ करने के बाद बिहार बार काउन्सिल की सदस्यता ले ली। परन्तु ज्यादा काम नहीं कर सकी। क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में तो तूफ़ान आना बाक़ी था, तो रास्ता और मंज़िल दोनों मेरी हाथ की लकीरों से खिसक गया। 
 
1989 के भागलपुर दंगा में मेरा घर प्रभावित हुआ और 22 लोगों की हत्या हुई, तो उस घर में रह पाना मुमकिन न था। एक तरह से यायावर की स्थिति में छः माह गुज़रे। दंगा के कारण एम0 ए0 की परीक्षा देर से हुई। दंगा के उस माहौल में और जिस घर में 22 लोग मारे गए हों, वहाँ रहना और पढ़ाई पर ध्यान लगाना बहुत कठिन हो रहा था। लेकिन समय को इन सभी से मतलब नहीं होता है, ज़िन्दगी को तो वक़्त के साथ चलना होता है। कुछ व्यक्तिगत समस्या के कारण भी मेरी मानसिक स्थिति ठीक न थी। फिर भी एम0 ए0 में यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ, टॉपर से 1 नम्बर कम आया था। बाद में 1995 में BET (बिहार एलिजिबिलिटी टेस्ट फॉर लेक्चरशिप) भी किया लेकिन बिहार छोड़कर पुनः दिल्ली आ गई और एक बार फिर से मेरा मुट्ठी से धरती पिछल गई थी।  

कोलकाता के आनन्द बाज़ार पत्रिका के विख्यात पत्रकार गौर किशोर घोष जिन्हें पत्रकारिता के लिए मैग्सेसे अवार्ड मिला था, वे प्रसिद्ध कहानीकार-उपन्यासकार भी थे और जिनकी कहानी पर 'सगीना महतो' फिल्म बनी है; ने मुझे मेरे हालात से बाहर निकालकर अपने साथ शांतिनिकेतन ले गए। शान्तिनिकेतन की अद्धभुत दुनिया ने मुझे सर-आँखों पर बिठाया। शान्तिनिकेतन की स्मृतियों पर मैंने कई संस्मरण भी लिखे हैं। गौर दा ने मुझे बहुत प्यार दिया और मेरे लिए बहुत फिक्रमंद रहे। शान्तिनिकेतन में बहुत से मित्र बने जिनसे आज भी जुड़ी हुई हूँ। हां, यह ज़रूर है कि शांतिनिकेतन छोड़ने के बाद उसने मुझे मेरे हालात पर छोड़ दिया। मेरी तक़दीर को अभी बहुत खेल दिखाना जो था। शान्तिनिकेतन मुझसे छूट गया और फिर एक बार मैं मझधार में आ गई। 

यूँ लगता है जैसे किसी ने मेरे लिए ही कहा था - ''तक़दीर बनाने वाले, तूने कमी न की, अब किसको क्या मिला ये मुक़द्दर की बात है''. यूँ तो तक़दीर से बहुत मिला, पर इस तरह जैसे यह सब मेरे हिस्से का नहीं किसी और के हिस्से का था, जो रात के अँधियारे में तक़दीर के राह भटक जाने से मुझ तक आ गया था। शेष फिर कभी...।   

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2022)
_______________________

 

Wednesday, September 14, 2022

99. राजभाषा नहीं राष्ट्रभाषा हिन्दी

महात्मा बुद्ध के समय पाली लोक भाषा थी और इसकी लिपि ब्राह्मी थी। माना जाता है कि पाली भाषा परिवर्तित होकर प्राकृत भाषा बनी और आगे चलकर प्राकृत भाषा के क्षेत्रीय रूपों से अपभ्रंश भाषाएँ बनी। अपभ्रंश भाषा से ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ, जिसका समय 1000 ई0 माना जाता है। अनुमानतः 13वीं शताब्दी में हिन्दी भाषा में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ हुआ। 1800 ई0 के दशक में हिन्दी राष्ट्रीय भाषा के रूप में उभरने लगी थी। सन 1878 में पहला हिन्दी समाचार पत्र प्रकाशित हुआ था। हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है, जो ब्राह्मी लिपि पर आधारित है। हिन्दी लिखने के लिए खड़ी बोली को आधार बनाया गया।  

हिन्दी शब्द वास्तव में फारसी भाषा का है, जिसका अर्थ है हिन्द से सम्बन्धित। हिन्दी शब्द की निष्पत्ति सिन्धु-सिन्ध से हुई है। ईरानी भाषा में स को ह बोलते हैं, इसलिए सिन्ध को हिन्द बोला गया और सिन्धी को हिन्दी। सन 1500-1800 के बीच हिन्दी में बहुत परिवर्तन हुए तथा इसमें फारसी, अरबी, तुर्की, पश्तो, पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी और अँगरेज़ी आदि शब्दों का समावेश हुआ। 
  
सितम्बर 14, 1949 को भारत की राजभाषा या आधिकारिक भाषा के रूप में हिन्दी भाषा को स्वीकार किया गया, जिसकी लिपि देवनागरी होगी। हिन्दी के प्रचार-प्रसार और महत्व को बढ़ाने के लिए 1953 ई0 में भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने आधिकारिक तौर पर हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की। हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए विश्व हिन्दी सम्मलेन की शुरुआत हुई और पहला आयोजन जनवरी 10, 1975 को नागपुर में हुआ। इसके बाद सन 2006 से प्रति वर्ष 10 जनवरी को विश्व हिन्दी दिवस मनाया जाता है। वर्ष 1918 में गाँधी जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी को राजभाषा बनाने को कहा था। साल 1881 में बिहार ने सबसे पहले हिन्दी को आधिकारिक राजभाषा बनाया था।  

हिन्दी देश की पहली और विश्व की तीसरी भाषा है जिसे सबसे ज्यादा बोला जाता है। लगभग 70% लोग भारत में हिन्दी बोलते हैं; फिर भी हिन्दी को एक दिवस के रूप में मनाया जाता है। निःसंदेह ब्रिटिश शासन के बाद अँगरेज़ी का बोलबाला हो गया; पर आज़ादी के बाद इसे आधिकारिक भाषा के साथ ही मातृभाषा बना देना चाहिए था। हालाँकि अ-हिन्दी भाषी लोगों को इससे आपत्ति थी। जिस तरह अँगरेज़ी को मुख्य भाषा बना दिया गया उसी तरह हिन्दी को हर प्रान्त को अपनाना चाहिए। 

मेरी दादी हिन्दी लिखना-पढ़ना जानती थीं। वे कैथी लिपि में भी लिखना-पढ़ना जानती थीं। वे बज्जिका भी बोलती थीं। कैथी लिपि का प्रयोग बिहार में 700 साल पहले से लेकर ब्रिटिश काल तक होता रहा है। सरकारी कामकाज और ज़मीन के दस्तावेज़ कैथी लिपि में लिखे जाते थे। शेरशाह ने 1540 ई0 में इस लिपि को अपने कोर्ट में शामिल किया था। सन 1880 के दशक में बिहार के न्यायालयों में आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा दिया गया था। अब तो कैथी लिपि पढ़ने-लिखने वालों की संख्या नगण्य होगी। 

कुछ साल पहले मैं एक पत्रिका के कार्यालय गई थी। वहाँ सब-एडिटर के पोस्ट के लिए लिखित परिक्षा हुई, जिसमें अँगरेज़ी से हिन्दी अनुवाद करने को कहा गया। मुझे लगा कि हिन्दी पत्रिका के लिए अँगरेज़ी का ज्ञान आवश्यक क्यों है? लेकिन हमारे देश की सच्चाई यही है कि निजी संस्थानों में आपको नौकरी तभी मिलेगी जब आपको अँगरेज़ी आती हो। अँगरेज़ी माध्यम से पढ़ाई ही किसी कार्य के लिए उपयुक्त माना जाता है। इसी का परिणाम है कि देश का ग़रीब, मज़दूर, किसान, माध्यम वर्ग भी अब अपने बच्चों को अँगरेज़ी मीडियम के स्कूल में पढ़ाता है। छोटी-से-छोटी नौकरी में भी अँगरेज़ी ही चाहिए; भले लिख न सके पर फर्राटेदार बोलना आना चाहिए। अगर अँग्ररेज़ी न आती हो, तो बाहर ही नहीं घर में भी सम्मान नहीं मिलता है। 

मुझे लगता है कि हमारी भाषा और बोली जो भी हो, हमें हिन्दी को अपनी मातृभाषा बनानी ही होगी। दुनिया के सभी देशों की अपनी-अपनी भाषा है, एक भारत है जिसकी अपनी भाषा नहीं, यह बेहद दुखद है। शान से हम हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़ा मनाते हैं। सरकार को चाहिए कि हिन्दी को पूरे देश में प्रथम भाषा के रूप में स्थापित करे। हिन्दी राजकीय नहीं बल्कि राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित किया जाए। शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो, सभी नौकरी के लिए हिन्दी लिखना-पढ़ना और फर्राटेदार हिन्दी बोलना अनिवार्य हो। यह सब रातों-रात सम्भव नहीं है; लेकिन योजना और रूपरेखा बनाकर 10-12 साल में इसे अनिवार्य किया जा सकता है। फिर हम हिन्दी दिवस नहीं बल्कि अँगरेज़ी दिवस मनाएँगे और दुनिया में सम्मान पाएँगे।  

- जेन्नी शबनम (14. 9. 2022)
____________________     

Monday, August 15, 2022

98. युवा भारत का अमृत महोत्सव

भारत की स्वतन्त्रता का 75वाँ साल इस वर्ष पूरा हुआ है। यूँ कहें कि साल 2022 देश की आज़ादी के नाम है। आज़ादी के इस अमृत महोत्सव की तैयारी हर तरफ़ बहुत ज़ोर-शोर से हुई। हर जगह ख़ुशहाली का माहौल है। हर एक व्यक्ति अपने-अपने तरीक़े से आज़ादी के इस पर्व को मना रहा है। देश की अधीनता, स्वतन्त्रता-आंदोलन, स्वतन्त्रता सेनानियों का बलिदान, हमारा इतिहास, आज़ादी के बाद देश के विकास में योगदान आदि चलचित्र की भाँति ज़ेहन में चल रहा है। हमारे लिए गर्व की बात है कि अधीनता से मुक्ति के समय के कुछ लोग अब भी हमारे बीच हैं और उनके सुनाए क़िस्से हममें जोश भर देते हैं। आज इस अमृत-महोत्सव पर हर घर तिरंगा फहराने का उत्साह है। 

देश की स्वतन्त्रता के वर्ष की गिनती के अनुसार हमारा देश प्रौढ़ हो चुका है; लेकिन मेरा मानना है कि जबतक देश विकासशील अवस्था में था, तो देश बालक था। अब हम विकसित देश की श्रेणी में आ चुके हैं, तो हमारा देश युवा माना जाएगा। युवा-शक्ति देश की धरोहर है और देश को आगे बढ़ाने की ऊर्जा भी। देश का युवा बने रहना देश के युवाओं पर निर्भर करता है और देश कब तक युवा रहेगा यह हमारे युवाओं की समझ और कर्मठता पर निर्भर है। 

जब हमें आज़ादी मिली, देश बहुत विकट परिस्थितियों से गुज़र रहा था। एक तरफ़ हुकूमत बदल रही थी, देश का विभाजन हो गया था, तो दूसरी तरफ़ दंगा शुरू हो गया। देश की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक स्थितियाँ अस्थिर थीं। जाति, धर्म, शिक्षा, प्रांत, भाषा, बोली आदि कई तरह के मसले से हमारा समाज टूट चुका था। समाज पूर्णतः विभाजित हो चुका था। ऐसे में उस समय पूरे देश को एकजुट कर विकास कार्य करना इतना सहज नहीं था; परन्तु हमारे राजनीतिज्ञों, समाज सेवियों, चिन्तकों, प्रबुद्ध वर्ग तथा युवाओं के कठिन प्रयास से देश की स्थिति बदली और आज हम आज़ादी का जश्न मन रहे हैं हैं।   

हमारे कर्मठ नेताओं, सामजिक कार्यकर्ताओं और विचारकों के सम्मिलित प्रयास से देश की स्थिति में सुधार हुआ और हमारा देश विकासशील देश से विकसित देश की श्रेणी में आ गया। भारत पूरी तरह अब आत्मनिर्भर है। इन संघर्षों और सुधारों में हमारे बुज़ुर्ग नेताओं और समाज सेवियों के अलावा युवा-शक्ति का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। संघर्षशील पूर्वजों और बलिदानियों को विस्मृत न कर उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए कि संघर्ष और विपरीत समय में साहस को कैसे संगठित कर मानसिक सम्बल बनाया जाए और आगे बढ़ा जाए। 

आज़ादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में पहली बार दिल्ली विधान सभा को आम जनता के लिए खोला गया। विधान सभा परिसर में वह फाँसी घर भी है, जहाँ अंगरेज़ों द्वारा स्वतन्त्रता सेनानियों और क्रान्तिकारियों को फाँसी दी जाती थी। फाँसी घर, फाँसी के लिए प्रयुक्त रस्सी, जूते-चप्पल आदि देखकर मन विह्वल हो गया। सोचती हूँ कि उन युवा वीर क्रान्तिकारियों में कितना जोश और जज़्बा रहा होगा, जो देश की स्वतंत्रता के लिए शहीद हो गए। आज़ादी के लिए फाँसी पर चढ़े अज्ञात वीर बलिदानियों को मन से सलाम!   
     
देश की सुरक्षा की मुहिम में हिस्सा लेना हो या बलिदान देना, फ़ौज़ में शामिल होकर देश की सेवा करनी हो या खेत-खलिहान से लेकर राजपथ तक युवाओं की भागीदारी अचम्भित करती है। सत्ता में हों या विपक्ष में, युवाओं के जोश में कहीं कमी नहीं दिखती है। शिक्षा, तकनीक, कला, खेल, राजनीति, व्यवसाय इत्यादि हर क्षेत्र में युवा बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं और देश का नाम स्थापित करते हैं। युवा-शक्ति को अगर सार्थक तरीके से देश के उत्थान में लगाया जाए तो निःसंदेह भारत विश्वगुरु बन सकता है। हालाँकि कुछ राजनीतिक और ग़ैर राजनितिक दल युवा-शक्ति का ग़लत तरीके से उपयोग कर भारत में अशांति और अराजकता फैला रहे हैं, जिसपर अंकुश लगाकर उन्हें सही दिशा देना हर एक भारतवासी का कर्त्तव्य है। 

एक बात जो मेरे ज़ेहन में सदैव रहती है कि दर्द के सभी दंश को झेलते हुए आज़ादी में विस्थापित हुए परिवार ने ख़ुद को कितनी कठिनाई से सँभाला होगा। लोगों ने छोटा-से-छोटा काम कर अपने परिवार की देखभाल की होगी। जो कार्य कभी नहीं किया होगा वक़्त की विवशता ने वह काम भी कराया। मेहनत और हौसला के बल पर कई लोगों ने बाद में समृद्धि हासिल की; लेकिन मंज़िल पाने तक की राह कितनी कठिन रही होगी, इस बात की कल्पना ही हम कर सकते हैं। यह बात क़ाबिले-ग़ौर है कि अगर हममें जज़्बा हो, तो हम किसी भी परिस्थिति में संतुलित रहकर अपनी राह बनाते हैं और एक मुक़ाम हासिल कर सकते हैं। 
 
नवम्बर 2017 में एक दिन मेरे मन में आया कि कुछ सामाजिक कार्य मैं पुनः प्रारम्भ करूँ, क्योंकि छात्र जीवन में सक्रिय राजनीति और सामाजिक कार्य से मैं जुड़ी हुई थी। लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर सब कुछ असम्भव लगने लगा। मन में विचार आया कि किसी ग़ैर सरकारी संस्था से जुड़कर कुछ काम करूँ। कई संस्थाओं का पता चला। दिल्ली के सरिता विहार में एक ग़ैर सरकारी संस्था है जहाँ ई-मेल के द्वारा मेरी बात हुई और उन्होंने आकर उनका केंद्र देखने को कहा। हाँ, मुझे कोई कार्य वहाँ भी न मिला, जो वैतनिक हो, पर आश्वासन मिला कि अगर मेरे लायक कोई कार्य हुआ तो वे सूचित करेंगे। जब मैं वहाँ गई, तो उनके कार्य देखकर दंग रह गई। डोनेशन में मिले पुराने सामान का उपयोग और प्रयोग बहुत सार्थक रूप से किया जाता है। हर छोटे-से-छोटे बेकार सामान से बहुत सुन्दर और उपयोगी सामान तैयार होता है। मुझे बेहद सुखद आश्चर्य हुआ कि जिन चीज़ों को लोग बेकार समझकर फेंक देते हैं उससे न सिर्फ़ उपयोगी सामान बन रहा है, बल्कि देश के जिस हिस्से में ज़रूरत हो वहाँ पहुँचाया भी जा रहा है। 

मैं सोचने लगी कि अगर हमारे सोच का विस्तार हो तो समाज में बहुत से ऐसे कार्य हैं जो किए जा सकते हैं। कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं है। बस सूझ-बूझ की ज़रूरत है। न जाने ऐसी कितनी संस्थाएँ हैं, जो युवाओं के द्वारा संचालित हैं, जिससे समाज सेवा का कार्य भी हो रहा है और उससे जुड़े लोगों का जीवन यापन भी। सिलाई केन्द्र, पशुपालन, शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य, लघु उद्योग, अलग-अलग तरह के व्यवसाय आदि में भारत का युवा बहुत बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है। 

टी. वी. पर ख़बर देखी कि एक शिक्षित लड़की चाय का ठेला लगाकर हर दिन सैकड़ों रुपये कमा रही है। विदेश से शिक्षा प्राप्त नौजवान अपने गाँव में रहकर वैज्ञानिक तरीके से जैविक खेती कर रहा है। किसी ने कोचिंग सेन्टर खोलकर न सिर्फ़ शिक्षा का प्रसार किया है; बल्कि बड़ी कमाई करके उच्च वर्ग का जीवन जी रहा है। वेबसाइट के द्वारा मार्केटिंग, फ़ूड डिलीवरी, दवा या घर के सामान की होम डिलीवरी आदि जितने भी कार्य हैं लगभग सभी में युवा कार्य करते हैं। एयरपोर्ट पर युवतियों के द्वारा अलग से टैक्सी चालन की व्यवस्था है। 

आज स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में गुरुग्राम के एक वृद्धाश्रम में ध्वजारोहण में सम्मिलित होने का अवसर मिला। बहुत ख़ुशी हुई, जब वहाँ रहने वाले एक बुज़ुर्ग ने ध्वजारोहण किया। वहाँ कार्यरत सभी सहयोगी युवा हैं और बहुत मन से बुज़ुर्गों की सेवा करते हैं। वहाँ एक बुज़ुर्ग से बात हुई, जो पाकिस्तान के एक संभ्रांत परिवार से थे। तीन वर्ष की उम्र में इन्हें पाकिस्तान छोड़कर आना पड़ा। उनके पिता साथ न आकर बाद में आने वाले थे। वहाँ उन्हें सुरक्षित रखने वाले दूसरे सम्प्रदाय के व्यक्ति और उनके पिता को पाकिस्तान के ही लोगों ने हत्या कर दी। किसी भी देश के विस्थापित परिवार का दर्द सुनकर मन सहम जाता है। हत्या करने वाले युवा संवेदनहीन होते हैं। मैं अक्सर सोचती हूँ कि युवाओं का मानवीय और संवेदनशील होना आवश्यक है, जिससे उनका दृष्टिकोण बदले, ताकि कभी भी दंगा या अपराध न हो। इसके लिए युवाओं के मानसिक विकास और सोच को सकारात्मक दिशा देना होगा।   

मुझे याद है जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी, तब डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, सरकारी अधिकारी का पेशा अपनाने पर ज़ोर दिया जाता था। जो पढ़ाई में ज़ियादा अच्छा हो, उनसे उम्मीद रहती थी कि वे यू. पी. एस. सी. या राज्य प्रशासन या बैंक अधिकारी के पद पर ज़रूर पहुँचेंगे। धीरे-धीरे समय के बदलने और वैश्वीकरण के बाद अन्य पेशा पर भी ध्यान गया। अब तो युवाओं द्वारा ऐसे-ऐसे कार्य हो रहे हैं, जिससे पैसा और शोहरत दोनों मिल रहा है। लोगों के सोचने का नज़रिया काफ़ी बदल गया है। अब हर काम को इज़्ज़त के रूप में देखा जा रहा है।  

आज जब देश अपने युवावस्था में है, देश के युवाओं से उम्मीद बहुत बढ़ गई है। समाज के सरोकार से जुड़कर समय, शक्ति और संसाधनों का सही उपयोग कर देश को समृद्ध, सक्षम एवं शक्तिशाली बनाए रखने के लिए युवा-शक्ति को चिन्तनशील और कर्तव्यपरायण बनना होगा। तभी देश का वर्तमान और भविष्य जो युवा-शक्ति के हाथ में है, सुरक्षित रहेगा और विश्व के माथे पर भारत चाँद-सा चमकता रहेगा। 
 
- जेन्नी शबनम (15. 8. 2022)
(स्वतन्त्रता दिवस की 75वीं वर्षगाँठ) 
___________________________