Thursday, June 5, 2025

126. युगीन आवश्यकता की परिणति : सन्नाटे के ख़त -दयानन्द जायसवाल

दयानन्द जायसवाल जी और मैं (भागलपुर)
'सन्नाटे के ख़त' डॉ. जेन्नी शबनम (सर्वप्रिय विहार, नई दिल्ली) का अयन प्रकाशन से प्रकाशित यह काव्य-संग्रह युगीन आवश्यकता की परिणति है। इनकी काव्य-सृजन-पीठिका को जितना अधिक खँगाला जाएगा उतना इनकी अनबुझी समस्याएँ पारदर्शी होती चली जाएँगी। इनके साहित्यिक व्यक्तित्व का निर्माण ही उन तमाम परिस्थितियों की देन लगती है, जिनमें परम्पराएँ चरमरा रही हैं। नई-नई आख्याएँ जाग रही हैं। समता, स्नेह, सम्मान की सर्जना के लिए सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों के बदलते परिवेश की नई-नई समस्याओं के नए-नए सन्दर्भ कवयित्री के सामने हैं, तो ऐसे में भावना का बाँध टूटना ही था। अतः कथ्य के साथ-साथ कथ्य के अनुकूल नए-नए व्यंजना के आयाम भी अभिव्यंजित हैं।

सारस्वत साधना में सतत-रत रहनेवाली उत्कृष्ट साहित्य सृजन कर बहुमूल्य कृतियों से साहित्य-समृद्ध करनेवाली सम्मानित रचनाकारों में प्रतिष्ठित कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम की अनेक रचनाएँ देश-विदेश की पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं अनेक साझा-संग्रह में कविता, हाइकु, हाइगा, ताँका, चौका, सेदोका, माहिया, लघुकथा, लेख आदि के अतिरिक्त इनकी मौलिक पुस्तकें 'लम्हों का सफर', 'प्रवासी मन', 'मरजीना', 'नवधा', 'झाँकती खिड़की' के अलावा 'सन्नाटे के ख़त' भी हैं, जिनमें आम जीवन की संवेदना, त्रासद, संकट, सुख-दुःख, बिछुड़न-मिलन आदि विचारों के झंझावात हैं।

साहित्य में जब भी हम जीवन की साधना, अनुभूतियों और मानवीय संवेदनाओं को शब्दों के माध्यम से उकेरने की बात करते हैं, तब काव्य की भूमि सबसे उपजाऊ प्रतीत होती है। ऐसा ही एक सशक्त उदाहरण डॉ. जेन्नी शबनम द्वारा रचित काव्य-संग्रह 'सन्नाटे के ख़त' जो न केवल भावनाओं का दस्तावेज़ है; बल्कि जीवन के विविध रंगों को समेटे एक संवेदनशील यात्रा भी है। 105 कविताओं से सुसज्जित यह संग्रह पाठक को आत्ममंथन, आत्मविश्लेषण और आत्मानुभूति की उस यात्रा पर ले चलता है, जहाँ हर कविता एक दर्पण की तरह सामने खड़ी हो जाती है। संग्रह की कविताएँ केवल शब्दों का संयोजन नहीं है; बल्कि एक एहसास है जो पाठकों के अंतर्मन तक उतर जाता है। कविताएँ न तो जटिल हैं और न ही बनावटी; वे सीधे मन को छूनेवाली हैं। यह संग्रह उन लोगों के लिए एक उपहार है, जो कविता को केवल पढ़ना नहीं; जीना चाहते हैं। इसी संग्रह की एक कविता 'देव' है-
"देव! देव! देव!
तुम कहाँ हो, क्यों चले गए?
एक क्षण को न ठिठके तुम्हारे पाँव
अबोध शिशु पर क्या ममत्व न उमड़ा
क्या इतनी भी सुध नहीं, कैसे रहेगी ये अपूर्ण नारी
कैसे जिएगी, कैसे सहन करेगी संताप
अपनी व्यथा किससे कहेगी
शिशु जब जागेगा, उसके प्रश्नों का क्या उत्तर देगी
वह तो फिर भी बहल जाएगा
अपने निर्जीव खिलौनों में रम जाएगा। 
बताओ न देव!
क्या कमी थी मुझमें
किस धर्म का पालन न किया
स्त्री का हर धर्म निभाया
तुम्हारे वंश को भी बढ़ाया
फिर क्यों देव, यों छोड़ गए
अपनी व्यथा, अपनी पीड़ा किससे कहूँ देव?
बीती हर रात्रि की याद, क्या नाग-सी न डसेगी
जब तुम बिन ये अभागिन तड़पेगी? ..."

वर्तमान समय की व्यवहारिक सच्चाइयों से मुठभेड़ करती कविताओं में शहरी जीवन की कृत्रिमता और गाँवों की आत्मीयता के बीच की खाई बड़े ही मार्मिक अंदाज में 'लौट चलते हैं अपने गाँव' नामक कविता में उकेरा गया है। यह कविता बताती है कि शहरी आधुनिकता की चकाचौंध में भी सूनापन है; लेकिन अपनापन तो गाँव की मिट्टी में ही साँस लेता है-
"मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से। 
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव
अपने घर चलते हैं
जहाँ अजोर होने से पहले
पहरू के जगाते ही हर घर उठ जाता है
चटाई बीनती हुक्का गुड़गुड़ाती
बुढ़िया दादी धूप सेंकती है
गाती बाँधे नन्हकी स्लेट पर पेन्सिल घिसती है। ..."

एक रचनाकार जन-जीवन से संघर्ष करते-करते जब थक जाता है, हार जाता है, तब इस हार के अंतर शब्द ही उसके साँस बन जाते हैं और तब जैसे जीवनानुभूति के नए पर निकल आते हैं और उसके बाद ही जैसे छलाँग लगाते हैं- जीवन से सृष्टि, सृष्टि से ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड में स्व के अस्तित्व की अनुभूति करता है। ऐसी अवस्था में कवयित्री शबनम सबसे ज्यादा भावुक होती हैं और उस भाव चेतना के लिए स्थापित सिद्धांतों का उतना महत्त्व नहीं देतीं, जितना मानवीय निश्छलता का। जीवन संघर्ष उसकी भावुकता को जितना सघन और पैना बनाते हैं उतनी ही प्रबलता से हृदय द्रवित होता है और व्यंजना के संकेत स्वयं अपने अनुरूप शब्द शिल्प लेकर 'अपनों का अजनबी बनना' ऐसी कविता को जन्म देते हैं-
"समीप की दो समानान्तर राहें
कहीं-न-कहीं किसी मोड़ पर मिल जाती हैं
दो अजनबी साथ हों
तो कभी-न-कभी अपने बन जाते हैं। 
जब दो राह
दो अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े फिर?
दो अपने साथ रहकर अजनबी बन जाएँ फिर?
सम्भावनाओं को नष्ट कर नहीं मिलती कोई राह
कठिन नहीं होता, अजनबी का अपना बनना
कठिन होता है, अपनों का अजनबी बनना।  
एक घर में दो अजनबी
नहीं होती महज़ एक पल की घटना
पलभर में अजनबी अपना बन जाता है
लेकिन अपनों का अजनबी बनना, धीमे-धीमे होता है। 
व्यथा की छोटी-छोटी कहानी होती है
पल-पल में दूरी बढ़ती है
बेगानापन पनपता है
फ़िक्र मिट जाती है
कोई चाहत नहीं ठहरती है। 
असम्भव हो जाता है
ऐसे अजनबी को अपना मानना।"

कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम का यह संग्रह 'सन्नाटे के ख़त' शिवत्व की चाहत में अपने ही भीतर एक द्वंद्वात्मक सम्बन्ध जी रहे हैं। शरीर एक बोझ तब लगने लगता है जब आत्मा अपनी अस्मिता के लिए घुटन महसूस करने लगे। यह तथ्य मैं जीवन की पथरीली पगडण्डी पर नंगे पाँव चलने वाले कवयित्री की काल्पनिक राही के सन्दर्भ में कह रहा हूँ, जिसको बार-बार अपनी पहचान के लिए अग्नि परीक्षा से गुज़रना पड़ता है। यदि उसे अपनी आत्मशक्ति और अपने संयम के प्रति अगाध आस्था न होती, तो विजय-यात्रा के अपने पड़ावों पर शब्द आतिथ्य उसके लिए बोझ के अतिरिक्त कुछ न होता। एक तरफ़ 'सन्नाटे के ख़त' में पाए जाने वाले भावनात्मक आक्रोश की प्रबलता का भार है, तो दूसरी तरफ यथार्थग्राही काव्य की चिन्ता, उसके बाद कविता के विशिष्ट हो पाने की दमतोड़ मेहनत। इन शक्तियों की क़दमताल में कवयित्री संयमित-अर्जित निखार से कभी खुलकर हँस नहीं पायी। वह सामाजिक चुनौतियाँ तथा जीवन के कटु क्षणों के ख़त के सन्नाटे का सामना करने में सशक्त- अशक्त होती रही है। कभी अभिजात की ज़ेब से उछलकर फ़कीर की झोली में गिरती है, तो कभी प्रकृति सम्पदा से आसक्त मानवीयकृत होती है और कभी नगर-बोध तो कभी ग्राम-बोध आदि से झूलती हुई नजर आती है। कहने का अभिप्राय है कि ख़त हमेशा अपनी आत्मा की आवाज़ सुनने को भाषाशैली की बाजारों में दूर-दूर भटकता रहा। सन्नाटे के नाम चुप्पी से भरा ख़त पाकर कवयित्री का दार्शनिक मन बार-बार उनके फंदे से फिसलकर लहूलुहान होता हुआ अपनी सर्जनात्मक ज़मीन को और उर्वर-उपजाऊ बनाने का संकल्प दोहराता रहा इस 'अनुबन्ध' कविता के रूप में-
"एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच
कभी साथ-साथ घटित न होना
एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच
कभी साथ-साथ फलित न होना
एक अनुबन्ध है स्वप्न और यथार्थ के बीच
कभी सम्पूर्ण सत्य न होना
एक अनुबन्ध है धरा और गगन के बीच
कभी किसी बिन्दु पर साथ न होना
एक अनुबन्ध है आकांक्षा और जीवन के बीच
कभी सम्पूर्ण प्राप्य न होना
एक अनुबन्ध है मेरे मैं और मेरे बीच
कभी एकात्म न होना।"

कवयित्री डॉ. जेन्नी शबनम का अनुभूति-पक्ष जितना सबल है, उसका शिल्प-पक्ष उतना ही सुंदर है। शब्द-योजना, बिम्ब-योजना आदि शिल्प-सौंदर्य कविता को मूल्यवान बनाते हैं। सफलता हेतु मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ हैं।
कवयित्री का संपर्क सूत्र- 9810743437

-दयानन्द जायसवाल 
संस्थापक सह प्रधान सम्पादक, सुसंभाव्य पत्रिका 
भागलपुर 
तिथि- 20.5.2025
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Sunday, May 25, 2025

125. सन्नाटे के ख़तों की आवाज़ -भीकम सिंह

मेरी छठी पुस्तक 'सन्नाटे के ख़त' की समीक्षा प्रो. डॉ. भीकम सिंह जी ने की है। प्रस्तुत है उनकी लिखी समीक्षा: 


सन्नाटे के ख़तों की आवाज़

लम्हों का सफ़रनवधाझाँकती खिड़की के साथ प्रवासी मन (हाइकु-संग्रह) और मरजीना (क्षणिका-संग्रह) को जोड़कर डॉ. जेन्नी शबनम का यह छठा काव्य-संग्रह (सन्नाटे के ख़त) आया है। व्हाट्सएप के समय में हम सन्नाटे के ख़तों से गुज़रते हुए अचरज से भर जाते हैं; क्योंकि इन ख़तों (कविताओं) में समय और समाज का यथार्थ और फैंटेसी अनेक भंगिमाओं में व्यक्त हुई है, कहीं सपाट कथन के साथ, तो कहीं रूपक के साथ। यही कारण है कि जेन्नी शबनम की कविताएँ सीधे पाठक मन को कोमलता से छूती है। 

प्रस्तुत पुस्तक की पहली कविता- ‘अनुबन्ध’ यह कविता जीवन में अनेक तरह के अनुबन्धों का काव्यात्मक दस्तावेज़ हैजिनमें जीवन अनुबन्ध की खिड़की के पीछे साथ-साथ गतिमान दिखाई देता है-

एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच

कभी साथ-साथ घटित न होना

एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच। (पृष्ठ संख्या 15)

जेन्नी शबनम की कविताओं को पढ़ने पर वे ज़्यादा स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनका समय से आशय बेहद स्पष्ट और मुखर है-

बेवक़्त खिंचा आता था मन

बेसबब खिल उठता था पल

हर वक़्त हवाओं में तैरते थे

एहसास जो मन में मचलते थे। 

अब इन्तिजार है (पृष्ठ संख्या 29)

जो यह होने को एक निजी इन्तिज़ार भी हो सकता है। जिसका अब इन्तिज़ार है और अब नहीं है। बस इसके लिए मन में आए बदलाव महत्त्वपूर्ण हैं। जेन्नी शबनम अपनी भावनाओं को अनेक चित्रों और वर्णनों से व्याख्यायित करती हैं। उनकी कविताओं से गुज़रते हुए हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि यहाँ भावनाएँ घायल हैं; इसलिए ख़ुद पर कविता लिखना मुश्किल है। समय का यथार्थ जेन्नी शबनम की कविताओं में विस्तार के साथ आता रहता है। इसके साथ ही क्षेत्रीय हवा, जो राजनैतिकसामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ बनाती हैं उस तरफ़ भी जेन्नी शबनम का बराबर ध्यान गया है-

जाने कैसी हवा चल रही है

न ठण्डक देती हैन साँसें देती है

बदन को छूती है

तो जैसे सीने में बरछी-सी चुभती है

अब हवा बदल गई है। (पृष्ठ संख्या 52)

अपने गाँव से जुड़नाअपनी जड़ों से जुड़नाअपनी परम्परा से जुड़ना है। शायद इसलिए जेन्नी शबनम का मन उचट जाता है-

मन उचट गया है शहर के सूनेपन से

अब डर लगने लगा है

भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से। 

चलो लौट चलते हैं अपने गाँव (पृष्ठ संख्या 58)

अपना गाँव एक केन्द्रीय कथ्य के बतौर इस कविता में है। उसी गाँव में खड़ा किसान और उससे रिश्ता बरकरार रखती एक मज़दूर के लिए एक अदद रोटी-

सुबह से रातरोज सबको परोसता

गोल-गोलप्यारी-प्यारीनरम-मुलायम रोटी

मिल जातीकाश!

उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। (पृष्ठ संख्या 66)

भूमिका’ कविता कोई निजी दुःख कातरता नहीं है। होने को तो यह एक निजी भूमिका हैजैसे कि हर किसी की होती है; लेकिन इस भूमिका के कारण और इसका स्वरूप नितान्त पारिवारिक है। एक संवेदनशील महिला के लिए यह भूमिका असह्य हो जाती है-

अब दो पात्र मुझमें बस गए

एक तन में जीताएक मन में बसता

दो रूप मुझमें उतर गए। (पृष्ठ संख्या 70)

और कोई नया रास्ता खुलने की प्रक्रिया में स्थितियाँ प्रतिरोध के बजाय किसी वक़्त के चमत्कार की समर्थक होती चली जाती हैं-

इन सभी को देखता वक़्तठठाकर हँसता है

बदलता नहीं कानून

किसी के सपनों की ताबीर के लिए

कोई संशोधन नहीं

बस सज़ा मिलती है

इनाम का कोई प्रावधान नहीं

कुछ नहीं कर सकते तुम

या तो जंग करो या पलायन

सभी मेरे अधीनबस एक मैं सर्वोच्च हूँ। (पृष्ठ संख्या 73)

और फिर जेन्नी शबनम की कविताएँ एक बदलाव की उम्मीद में रुमानी ज़िन्दगी का वर्णन करती हैं। ‘जी उठे इन्सानियत’ कविता में ऐसे प्रभावी चित्र मिलते हैं और फैंटेसी सीधे-सच्चे रस्तों से भटकाकर अपने जाल में फँसा लेती है। फैंटेसी की कोई नीति नहींकोई दायरा नहीं, यह भावनाओं का आखेट हैजो इसकी जद में आ जाए सभी को सूँघ लेती है-

एक कैनवास कोरा-सा

जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग

पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे

रोप दिए अपनी ख़्वाहिशों के रंग। (पृष्ठ संख्या 86)

और धीरे-धीरे कविता का रूप लेती है। एक तरह से देखा जाए, तो जेन्नी शबनम की तरह हरेक रचनाकार इसकी चपेट में आ जाते हैंफिर दो ही रास्ते बचते हैं- या तो फैंटेसी के पहले रास्ते पर हम हार जाएँ या हम इसमें फँस जाएँ और फँसते जाएँ-

मन चाहता

भूले-भटके

मेरे लिए तोहफ़ा लिए 

काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता। (पृष्ठ संख्या 89)

जेन्नी शबनम इसकी चकाचौंध से उबरने का रास्ता नहीं खोजती; बल्कि इसकी हिमायती हो जाती है और मगज़ के उस हिस्से को काट देना चाहती है, जहाँ विचार जन्म लेते हैं। ढूँढ लेती है अलमारी का निचला खाना, जहाँ बचपन बैठा है रूठा हुआ।

इस फैंटेसी के साथ जेन्नी शबनम की कविताओं में एक चीज और नत्थी है, वह है सरलता! फैंटेसी को समझने और यथार्थ को समझनेउसे अभिव्यंजित करने की पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में है। सरलता यहाँ कविताओं को समझने-समझाने में हैजो जेन्नी शबनम की कविताओं का प्लस पॉइंट है और पाठकों के लिए ज़रूरी है। जेन्नी शबनम इस सरलता को गम्भीरता में भी नहीं छोड़ती; बल्कि उसी के सहारे अपनी कविता की नदी को बढ़ाती है-

नीयत और नियति समझ से परे है

एक झटके में सब बदल देती है

जिन्दगी अवाक्। (पृष्ठ संख्या 98)

जेन्नी शबनम अपनी एक कविता ‘चाँद की पूरनमासी’ में बात की बात में इस सरलता को ऐसे पकड़ती है कि आश्चर्य होता है कि इस तरह इतनी आसानी से इतनी गूढ़ बात को किस तरह कहा जा सकता है-

‘क़िस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर

अपने वजूद में शामिलकर

जाने कितना इतराया करती थी

कितने सपनों को गुनती रहती थी

अब यह सब बीते जीवन का क़िस्सा लगता है। 

हर पूरनमासी की रात। (पृष्ठ संख्या 109)

जेन्नी शबनम की रचना प्रक्रिया का यह बेहद सीधा-सच्चा रास्ता हैयहाँ सयानापन कतई नहीं हैअति सूधौ सनेह को मारग है' घनानन्द के मार्ग की तरह। सच्ची और अच्छी कविता इसी प्रक्रिया में लिखी जा सकती है। फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए पुरज़ोर कोशिश करतीअनुभूतियों के सफ़र में कड़वे-कसैले शब्दों की मार झेलती जेन्नी शबनम की कविता बेहिसाब जिजीविषा, ज़िन्दादिली की सूचक है। ''अपनी पीर छुपाकर जीनामीठा कहकर आँसू पीना'' पूर्ण समर्पण है। मन के किसी कोने में अब भी गूँजती हैं कुछ धुनेंजिन्हें जेन्नी शबनम ने सपनों में बचाए रखा है। शायद अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की ‘सबसे ख़तरनाक’ कविता आपने पढ़ी होगी; इसलिए अपनी कविताओं में जेन्नी शबनम सपनों को ज़िन्दा रखती है और उम्मीद करती है-

शायद मिल जाए वापस

जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। (पृष्ठ संख्या 138)

काव्य में द्वंद्वात्मकता को पकड़ना जेन्नी शबनम का कौशल है-

प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक

बदन के घेरों में

या मन के फेरों में?

सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है

या स्वयं का बोध होना प्रेम है। (पृष्ठ संख्या 139)

अलगनी’ उस वातावरण के बारे में हैजो हमारे बहुत पास पसरा हुआ है; लेकिन हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं। 

सन्नाटे के ख़त (काव्य-संग्रह) में कुल 105 कविताएँ हैंभाषा शैली की चित्रात्मकता तो इस काव्य संग्रह में सराहनीय है हीइसका सबसे सबल पक्ष यह भी है कि इसे बार-बार पढ़ने को मन करता है और भूमिका में जैसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने कहा है कि पाठक इन ख़तों को पढ़कर अर्न्तमन में महसूस करेंगे। थोड़े में कहें, तो इन ख़तों की आवाज़ साहित्यिक जगत् में सुनी जाएगी। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है।

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सन्नाटे के ख़तडा. जेन्नी शबनमप्रथम संस्करण- 2024, मूल्य- 425 रुपयेपृष्ठ- 150

प्रकाशकः अयन प्रकाशकजे-19/139, राजापुरीउत्तम नगरनई दिल्ली- 110059


-भीकम सिंह 

दादरी, गौतमबुद्ध नगर 

तिथि- 16.5.2025 

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- जेन्नी शबनम (25.5.2025)

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Tuesday, May 6, 2025

124. मेरी दादी


 दादी 
''उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है 
जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है वो खोवत है।''
मेरी दादी उपरोक्त कविता की ये पंक्तियाँ, जिसे वंशीधर शुक्ल ने अवधी भाषा में लिखी है, कहती थीं, जब हम बच्चे उठने में देर करते थे। दादी से मुझे जीवन, दुनियादारी और परम्पराओं की सीख व समझ गीत, दोहे, भजन, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, कहावत, पहेली, कहानी इत्यादि द्वारा मिली। कबीर के दोहे, सूरदास के पद या विद्यापति की पदावली, दादी से ही मैंने सब सुना व जाना। बोधकथा, जातककथा, धर्मग्रंथों की कहानी, शिक्षाप्रद क़िस्से, तोता-मैना की कहानी, गोनू झा की कहानी, सिंहासन बत्तीसी, बैताल पच्चीसी इत्यादि की कहानियाँ दादी हमें सुनाती थीं। रोज़ रात में सोते समय हम दादी से कहते- ''दादी क़िस्सा सुनाओ।'' दादी रामायण या महाभारत का कुछ अंश कहानी की तरह सुनातीं। दादी हमेशा कबीर का यह दोहा कहती थीं- ''साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय, मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए।'' तुलसीदास का एक दोहा भी अक्सर कहती थीं- ''वशीकरण एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।''   
दादी
कितनी बातें, कितनी यादें, कितने क़िस्से हम अपनी स्मृतियों में समेटे होते हैं। जब कोई बात चलती है या याद आती है, तो किताब की तरह जीवन का हर सफ़्हा खुलता चलता है। अतीत को याद करते हुए मन हमेशा बचपन की तरफ़ लौटता है, जहाँ अपने लोगों के साथ जीवन बीता होता है। मेरी दादी मेरे जीवन का अहम हिस्सा रही हैं। खाना पकाती हुई, खेत-खलिहान-बगीचा का अवलोकन करती हुई, ख़ाली पैर भोरे-भोरे तरकारी तोड़कर लाती हुई, अनाज जोखती (तौलना) हुई, अनाज उसनती (उबालना) हुई, ढेंकी में चूड़ा कुटवाती हुई, जाँता में दलिया-दाल दरवाती हुई, मूँज से डलिया बुनती हुई, लालटेन जलाती हुई, घूर (अँगीठी) तापते हुए लोगों से बतियाती हुई, गीत गाती हुई, क़िस्सा सुनाती हुई, मेरे पापा को यादकर रोती हुई, मेरी मम्मी के हर दुःख में हिम्मत बँधाती हुई; न जाने कितने रूपों में दादी याद रहती हैं।  
हम बच्चे 
दादी से जुड़ी इतनी बातें हैं कि याद करूँ तो एक पुस्तक लिख जाए। दादी में मानवता कूट-कूटकर भरी हुई थी। दादी को ग़ुस्सा होते हुए कभी नहीं देखा; परन्तु कुछ ग़लत हो, तो बेबाकी से बोलती थीं। सभी से प्रेम करना, भूखे को खाना खिलाना, दान करना, सभी की फ़िक्र करना, रिश्ते-नाते निभाना, सभी की मदद करना, आदर-सत्कार करना, अपने-पराए का भेद न रखना इत्यादि कितना कुछ गुण दादी में था। वे धार्मिक थीं, उन्हें ईश्वर में आस्था थी; लेकिन वे कभी भी मूर्तिपूजक या पाखण्डी नहीं थीं। दादी बेहद प्रगतिशील सोच की स्त्री थीं। वे ज़्यादा शिक्षा नहीं ले सकीं, मागर ज़रूरत भर पढ़ लेती थीं। वे शिक्षा को बहुत महत्व देती थीं। हिन्दी के अलावा वे कैथी भाषा भी पढ़ती थीं। 
पापा, भइया, मम्मी 
मेरी दादी किशोरी देवी जिनका जन्म वर्ष 1906 में बिहार के शिवहर ज़िला के माली गाँव में हुआ। मेरे दादा सूरज प्रसाद की पहली पत्नी का देहान्त हो चुका था, अतः दादा की दूसरी शादी मेरी दादी से हुई। दादी के चार बच्चे, जिनमें मेरे पापा सबसे बड़े थे, तथा पहली दादी के दो बच्चे मिलाकर दादी छह बच्चों की माँ बनी। दादी शुरू से सभी बच्चों का पालन-पोषण एक समान करती रहीं; लेकिन पापा के बड़े भाई जिन्हें मैं बड़का बाबूजी कहती हूँ, दादी को सदैव सौतेली माँ ही मानते रहे। मेरे दादा दो भाई थे और दोनों के परिवार शिवहर के कोठियाँ गाँव में आस-पास रहते थे। मेरे दादा का संयुक्त परिवार होने के कारण मेरे पिता की शिक्षा में बहुत बाधा आ रही थी; क्योंकि कृषि पर निर्भरता थी। एक बच्चे (मेरे पिता) पर ज़्यादा पैसे ख़र्च हो रहे थे, जिससे घर में कलह होने लगा। अंततः बँटवारा हुआ और दादा-दादी के साथ पापा रह गए। दादी ने मेरे पिता की शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बँटवारे के बाद मेरे छोटे चाचा घराड़ी (पुश्तैनी मकान) में रह गए और मेरे दादा-दादी, बड़का बाबूजी का परिवार और मेरे पापा गाँव के बाहर यानी जहाँ से गाँव शुरू होता है, घर बनाकर रहने लगे। मेरे होश सँभालने के बाद पापा ने अलग घर बनवाया जहाँ दादी रहती थीं; दादा का बहुत पहले देहान्त हो चुका था। पापा-मम्मी भागलपुर में कार्यरत थे, तो दादी ही पापा के ज़मीन की खेती का काम देखती थीं। गाँव का कोई भी कार्य दादी से पूछे बिना पापा नहीं करते थे। माँ-बेटे का इतना अच्छा सम्बन्ध बहुत कम देखने को मिलता है। लगभग हर महीने या दो महीने पर वे भागलपुर आतीं, तो अनाज, दाल, तरकारी, घी इत्यादि लेकर आती थीं। जब भी पापा-मम्मी को कहीं बाहर जाना होता, तो वे हम भाई-बहन के लिए भागलपुर आ जाती थीं।
मम्मी, मैं, भाई, फुफेरा भाई, दादी 
हमारे बचपन में ननिहाल-ददिहाल में बच्चों का पालन पोषण होना आम बात थी। मेरी बीचवाली फुआ का बेटा कुछ साल दादी के पास रहकर अपने घर लौट गया। मेरी सबसे बड़ी फुआ का एक बेटा बचपन से हमारे साथ रहा, जबतक उसकी शादी न हो गई। मेरा एक चचेरा भाई लगभग हमारे साथ ही रहता और रात में अपने घर चला जाता था। चूँकि हमारे घर में बिजली थी, अतः भाई के साथ पढ़ने वाले कुछ बच्चे भी हमारे घर पर पढ़ने आते थे। हम सभी बच्चे एक साथ पढ़ते, फिर वे सभी अपने-अपने घर चले जाते या कभी रात में रुक भी जाते थे। मेरे दोनों भाई गाँव में दादी के पास रहकर मेट्रिक किए; लेकिन मैं दो साल गाँव में पढ़कर भागलपुर आ गई। मेरा फुफेरा भाई भी आगे की पढ़ाई के लिए भागलपुर आ गया और मेरा भाई पटना चला गया। उसके बाद खेत को बटइया पर देकर दादी भागलपुर आ गईं। दादी ने हम सभी की बहुत अच्छी तरह देखभाल की, पढ़ाया और समझदार बनाया। 
मैं, मम्मी, भइया, प्रो. गोरा 
मेरी दादी विचार से धार्मिक स्त्री थीं। किसी भी सुख या दुःख में दादी हमेशा रामचरितमानस की यह चौपाई कहतीं- ''होइहि सोइ जो राम रचि राखा।'' वे किसी ग़लत के सामने डटकर खड़ी हो जाती थीं, चाहे वह कोई भी क्यों न हो। पापा कम्युनिस्ट, नास्तिक और गांधीवादी थे। हमारे घर में हर जाति-धर्म के लोगों का स्वागत-सत्कार होता था। पापा की मृत्यु के बाद बड़का बाबूजी के घर अगर कोई ऐसा मेहमान आ गया जो कम्युनिस्ट पार्टी या निम्न जाति का हो, तो उनके खाने के लिए मेरे घर से थाली जाती थी; क्योंकि कम्युनिस्ट  धर्म और छुआछूत नहीं मानते हैं। वर्ष 1989 में जब भागलपुर दंगा हुआ और हमारे घर में लगभग 100 लोग छुपे थे, तो उन सभी का खाना दादी ही बनाती रहीं। दादी ने कभी छुआछूत नहीं माना। शायद पापा के प्रभाव के कारण वे जाति-धर्म से ऊपर उठ गई थीं, या वैचारिक रूप से शुरू से वैसी ही रही होंगी।
बुढ़िया दादी, भइया, मैं, दादी 
मेरी दादी जब बहुत छोटी थीं तब उनके पिता का देहान्त हो गया। मेरी दादी की माँ अक्सर आतीं, जिन्हें हमलोग बुढ़िया दादी कहते थे। उन दिनों विधवा स्त्रियों को सफ़ेद साड़ी पहनना और सिर के बाल मुँड़वाने (अनिवार्य नहीं) की परम्परा थी। बुढ़िया दादी को मैंने सदैव सफ़ेद साड़ी और बिना बाल के सिर में देखा। वे बहुत धार्मिक महिला थीं, कपाल पर चन्दन-टीका और गले में तुलसी का माला पहनती थीं। वे अक्सर अयोध्या में जाकर महीनों रहतीं। जब भी अपने गाँव से आतीं, तो स्वयं का बनाया पेड़ा, मूढ़ी, लाई इत्यादि लाती थीं। हमलोग उनके आने का हमेशा इन्तिज़ार करते थे; क्योंकि उनका बनाया पेड़ा बहुत स्वादिष्ट होता था और वे कहानी सुनाती थीं। वे काफ़ी बूढ़ी थीं, झुककर लाठी लेकर चलतीं, पर अत्यंत फुर्तीली और तेज़ क़दमों से चलती थीं। उनका देहान्त 108 वर्ष की उम्र में 14.1.1979 को दादी के पास हुआ।  
बुढ़िया दादी, दादी, भाई, मैं 
मेरे दादा का देहान्त वर्ष 1963 में हुआ। तब मैं और मेरे भाई का जन्म नहीं हुआ था। जब से हमने होश सँभाला दादी को पाड़ वाली सफ़ेद साड़ी में देखा। अपने लिए साया-ब्लाउज भी वे स्वयं हाथ से सिलकर पहनती थीं। हमारे यहाँ कपास की खेती होती थी, तो दादी कपास से रूई निकालकर तकिया बनाती और उसका खोल भी स्वयं सिलती थीं। वे खाना बहुत स्वादिष्ट बनाती थीं। घर के अधिकतर कार्य वे स्वयं करती थीं। छुट्टियों में जब भी पापा गाँव जाते तो कुछ-न-कुछ काम करवाते, जिसके लिए 10-15 मज़दूर आते थे। इन सभी का पनपिआई (दोपहर का खाना) दादी बनाती थीं। सहयोग के लिए एक स्त्री भी होती थी। गाँव-समाज का कार्य पापा ने इतना कराया, पर अपने जीवन में गाँव का मकान पूरा नहीं बनवा सके। बाद में मैंने और मम्मी ने मुज़फ़्फ़रपुर जाकर मकान बनाने के लिए सभी सामानों की ख़रीददारी की। गाँव की एक स्त्री, जो मम्मी को बहुत सहयोग करती थी, सारा सामान ट्रक से लेकर गाँव आई। दादी अपने सामने पूरा घर बनवाई। जब मकान बन गया तो दादी से कहतीं- ''दुल्हिन तोहरे मेहनत से ई घर बनलई ह। बउआ के सपना तू पूरा कर देलू।'' (तुम्हारे मेहनत से यह मकान बना है। तुमने बउआ (मेरे पापा) का सपना पूरा कर दिया) फिर दादी पापा की याद में रोने लगती थीं। मम्मी कहतीं कि आपका साथ नहीं होता, तो हम यह सब नहीं कर पाते।  
गाँव का हमारा घर 
दादी बहुत कर्मठ और साहसी स्त्री थीं। मेरे पापा-मम्मी के लिए वे हर वक़्त खड़ी रहीं, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो। मेरे पापा का देहान्त 18.7.1978 में हुआ। उसके बाद मेरी मम्मी को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। दादी मेरी मम्मी को हिम्मत और हौसला देती रहीं। इस कारण मम्मी की ज़िन्दगी थोड़ी सुगम रही। दादी को पापा दीदी कहते थे और मम्मी माए कहती थीं। पापा को दादी बउआ कहकर पुकारती थीं और मम्मी को दुल्हिन। पापा के देहान्त के बाद भी मम्मी को दुल्हिन ही कहती रहीं। शाम को मम्मी कार्य करने के बाद घर लौटतीं तो थक जाती थीं। वे बिछावन पर लेटतीं, तो दादी आकर उनके पैर की तरफ़ बैठ जातीं और धीरे-धीरे पाँव दबाने लगतीं। मम्मी को बहुत अटपटा लगता कि सास होकर पाँव दबाए। दादी कहती कि तुम पुतोह न होकर बेटी होती तो पैर दबाते न! फिर मम्मी दिन भर का हाल और घटनाएँ दादी को सुनातीं। सास-बहू का इतना अच्छा सम्बन्ध मैंने आजतक नहीं देखा। 
दादी, मैं, मम्मी 
मैं जब समझदार हुई तो मम्मी को ज़बरदस्ती रंगीन साड़ी पहनाती और मम्मी दादी को। हालाँकि दादी कहती कि आदत है इसलिए रंगीन पहनना अच्छा नहीं लगता है। काफी हलके प्रिंट की साड़ी मम्मी जबरदस्ती पहनाती थीं। लेकिन हाथ में चूड़ी कभी नहीं पहनी। होली में जब मैं रंग लगा देती तो ग़ुस्सा होतीं, पर मैं कहाँ मानने वाली। फिर दादी हँसकर कहती- ''देख न दुल्हिन, जेन्नी हमरा रंग लगा देलई।'' (देखो न, जेन्नी ने मुझे रंग लगा दिया) मम्मी कहतीं- ''की होतई माए। हमरो त लगा देलई ह। रंग लगैला से कथी होतई।'' (क्या होगा माँ। मुझे भी लगा दी है। रंग लगाने से क्या होगा) हालाँकि मम्मी ख़ुद अपने को रंग नहीं लगाने देती थीं। मेरे नाना जब भी आते, तो दादी और नाना अपने-अपने पोते की बड़ाई करते रहते। नाना बहुत पूजा करते थे, पर दादी नहीं करती थीं। वे कहतीं- ''न पाप करीले, न पुन ला मरीले'' (न पाप करना है न पुण्य के लिए मरना है)। वे दोनों आपस में धार्मिक चर्चा करते रहते थे। उनका ख़ूब नोक-झोंक भी होता और हमलोग ख़ूब हँसते थे। 
    
बचपन का एक मज़ेदार क़िस्सा याद आता है। जब मैं छोटी थी तो मुझे अपनी दादी बहुत लम्बी-चौड़ी-विशाल दिखती थीं; वे मोटी थीं, शायद इसलिए। एक बार पापा ने सभी के बाल कटवाने के लिए नाई को बुलाया। वैसे मेरी मम्मी ही मेरा बाल काटती थीं; साधना कट का ख़ूब चलन था उस ज़माने में। पापा ने कहा कि जब नाई आया है, तो मेरा बाल भी काट देगा। नाई से बाल कटवाने के डर से मैं पलंग के नीचे छुप गई। मेरी खोज होने लगी। इतने में दादी गाँव से आईं और उसी पलंग के पास खड़ी हुईं। दादी का मोटा-बड़ा पैर देखकर मैं डर से चिल्लाने लगी और पकड़ी गई। दादी-पापा-मम्मी खूब हँसे। जब मैं बड़ी हुई, तो सोचती कि दादी की लम्बाई तो मुझसे कम है, फिर मुझे दादी इतनी विशाल क्यों लगती थी। अब समझ में आता है कि छोटे बच्चों को उनसे बड़ा कोई भी चीज़ विशाल दिखता है। 

वर्ष 1984 में पहली बार दादी बहुत ज़्यादा बीमार हुईं। उन्हें मधुमेह और गठिया हो गया। परन्तु अपने खानपान पर नियंत्रण कर वे स्वयं को स्वस्थ रखती थीं। आँखों के मोतियाबिन्द के ऑपरेशन के बाद वे छोटे अक्षरों वाली किताबें फिर से पढ़ने लगीं। उनकी देखने-सुनने की क्षमता और याददाश्त ज़रा भी कम नहीं हुई। चलने में थोड़ी परेशानी थी; परन्तु अपने सभी काम स्वयं करती थीं। यदि कुछ ख़ास खाना बनवाना हो, तो रसोईघर में कुर्सी पर बैठकर खाना बनवाती थीं। उस उम्र में उनका पढ़ना, गीत गाना, कहानी सुनाना जारी था। दादी जब भाई के पास रहने चली गईं, तो अधिकतर समय धर्मग्रंथ पढ़ने में बिताती थी। भाई सुबह हड़बड़ी में ऑफिस जाने लगता, तो कहता कि देर हो रही है, नहीं खाएँगे। दादी केला छीलकर कहती- ''बउआ एक कौर खा लो, ज़रा-सा खा लो।'' भइया ग़ुस्साते हुए बोलता- ''रोज़ तुम हमको ऐसे ही केला खिला देती हो।'' जिस तरह दादी मेरे पापा को बउआ और मम्मी को दुल्हिन कहकर सम्बोधित करती थीं, भइया और भाभी को भी बउआ और दुल्हिन ही कहती थीं। भइया में तो जैसे प्राण बसता था दादी का और भइया का प्राण दादी में। मेरा भाई अमेरिका से लौटते ही दादी को अपने साथ मुम्बई फिर बैंगलोर ले गया। जब भी दादी बीमार होतीं, तो मम्मी छुट्टी लेकर महीनों वहाँ रहती थीं।    

जब भी मैं दादी से मिलने जाती, तो उन बूढ़ी हथेलियों से मेरे पाँव दबाने लगतीं। मैं कहती- ''दादी तुम ख़ुद बीमार हो और मेरा पैर दबाती हो।'' दादी हँसती और कहती- ''अब देह में ताक़त कहाँ है, पैर दबता थोड़े होगा।'' मुझे महसूस होता था कि दादी के लिए मैं बच्ची ही थी। मेरा बेटा जब हुआ था, तब दादी मेरे ससुराल आई थीं और दिनभर बेटा के पास रहती थीं। मेरी बेटी का अन्नप्राशन दादी द्वारा खीर खिलाकर हुआ। दादी से मिलने मैं कभी-कभी मुम्बई और बैंगलोर जाती, तो बातों का लम्बा सिलसिला चलता था। सभी परिचितों का हाल समाचार लेतीं और बतातीं। अपनी लम्बी उम्र के लिए रोती- ''जाने हम कब मरेंगे, सब लोग (बेटा दोनों) तो चला गया।'' मैं बोलती- ''दादी, सोचो तुम कितनी भाग्यशाली हो। अपनी पोती (मेरी चचेरी बहन) के पोता को देख ली। ख़ुश होकर रहो, मरना तो सबको है ही एक-न-एक दिन, जब तक हो दोनों पोती (भाई की बेटियाँ) के साथ खेलो, उनको गीत सुनाओ, क़िस्सा सुनाओ जैसे हमलोग को सुनाती थी।'' दादी हँसकर कहती- ''अब उतना याद नहीं रहता है।'' मैं किसी कहानी का कुछ हिस्सा बोलती और कहती कि पूरी कहानी याद नहीं है, तो दादी पूरी कहानी सुना देतीं। वे कभी कुछ नहीं भूलीं। मेरे दोनों बच्चों से जब भी मिलीं, कहानी सुनातीं। मेरे बच्चों को उनकी नरम मुलायम झुर्रियाँ छूने में बड़ा मज़ा आता था। वे कहते- ''बड़ी नानी आपका स्किन कितना सॉफ्ट है।'' दादी हँसती थीं।    

मेरे पापा और मेरे छोटे चाचा का देहान्त हो चुका था। दादी हमेशा कहतीं कि बेटा दोनों मर गए और हम ज़िन्दा हैं, भगवान् हमको क्यों नहीं बुलाते हैं। इससे जुड़ा एक मज़ेदार वाक़या हुआ। शायद वर्ष 2002 की बात है। उन दिनों दादी पटना में रह रही थीं। दीवाली की छुट्टी थी, तो मम्मी भी थीं। भैया के कॉलेज के एक दोस्त अमीरुल हसन आए हुए थे। मेरी मम्मी व दादी को वे मम्मी व दादी ही मानते और बुलाते थे। मैं भी उनको शुरू से भइया बोलती और राखी बाँधती या भेजती थी। मुज़फ़्फ़रपुर के पास एक कॉलेज में वे प्रोफेसर थे; इनका देहान्त हुए लगभग 10 वर्ष हो गए हैं। दादी ने एक दिन सपना देखा कि दादा आए हैं, तो दादी पूछ रही हैं कि वे कब मारेंगी। दादा छह बोले और दादी का सपना टूट गया। दादी ने सभी को सपना बताया। दीवाली या उसके आस-पास छह तारीख़ थी। दादी ने कहा कि छह तारीख़ को हम मरेंगे। उस दिन सुबह उठकर दादी ने नई सफ़ेद साड़ी पहनी। भगवान् का नाम लिया, कुछ भजन गाई, अपने पास मम्मी और अमीरुल भैया को बैठाकर रखी कि आज किसी समय वे मरेंगी। दादी इन्तिज़ार करती रहीं और बार-बार कहती रहीं कि दादा अपने साथ ले जाएँगे। पूरा दिन बीत गया, रात के 12 बज गए। दूसरे दिन दादी ख़ूब हँसी और ख़ूब रोई कि भगवान् उनको क्यों नहीं ले जाते। अंततः दादी का सपना सच हुआ, भले कई सालों बाद। दादी का देहान्त 6.5.2008 में 102 साल की उम्र में हुआ। जाने इस संसार का सत्य क्या है, आख़िर दादी छह तारीख को ही इस संसार से विदा हुई। आज दादी के प्राणान्त के 17 वर्ष हो गए हैं। आज भी दादी के शरीर का अन्तिम स्पर्श याद है, बिल्कुल ठण्डा; उस अनुभव को बताने के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास। दादी-पापा-मम्मी की तस्वीर अपने कमरे में लगाई हूँ, बिल्कुल सामने। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जब इन तीनों को मैं याद न करूँ। 

दादी का अन्तिम संस्कार भाई ने किया; लेकिन मुख में अग्नि देने का साहस उसे नहीं हुआ। मैंने और भइया ने एक साथ मुखाग्नि दी। हालाँकि लोगों ने कहा कि स्त्री मुखाग्नि नहीं देती है; लेकिन भइया अकेले देने को तैयार नहीं था। दादी को मुखाग्नि देना और जलते हुए देखना मेरे जीवन का सबसे कष्टदायक समय था। जिसने बचपन से पाल-पोसकर बड़ा किया उसे ही जला रहे और जलते हुए देख रहे हैं। हालाँकि पापा को भी ऐसे ही जलाया गया था; परन्तु उनकी मृत्यु के बाद या उनका दाह-संस्कार मैंने नहीं देखा। मम्मी का देहान्त हुआ तो मैंने बिजली से जलाने के लिए कहा; क्योंकि दादी को अग्नि में चार-पाँच घंटे तक धीरे-धीरे जलते देखना मेरे लिए असह्य था।  
मम्मी 
दादी अपनी मृत्यु से छह माह पूर्व से अस्वस्थ रहने लगीं और बाद में बहुत ज़्यादा बीमार हो गईं। वे चलने में असमर्थ और दूसरों पर आश्रित हो गईं। अन्तिम तीन माह पहले दादी को अपने पास भागलपुर मम्मी ले आईं; क्योंकि मम्मी के लिए लम्बी छुट्टी लेना सम्भव नहीं था। मृत्यु से एक सप्ताह पूर्व उनकी याददाश्त थोड़ी कमज़ोर हो गई और कुछ देर के लिए किसी को पहचान नहीं पाती थीं। मैं गई तो दादी को लगा कि मेरी छोटी फुआ आई हैं। उन्होंने कहा- ''शशि, तू आ गेले।'' (शशि, तुम आ गई) फिर कुछ मिनट बाद बोलीं- ''ओ जेन्नी हो, हमको लगा की शशि आई है।'' शायद अन्तिम समय में दादी को अपनी बेटी को देखने की चाह रही होगी। गाँव में दादी जब तक रही मेरी छोटी फुआ महीनों-महीनों आकर रहती थीं; सबसे छोटी थीं इसलिए दादी की दुलारी थीं।  
पापा 
आज के समय में जब देखती हूँ कि बच्चों का अपने दादा-दादी या नाना-नानी से औपचारिक सम्बन्ध है, तो मुझे बेहद आश्चर्य होता है। मेरी दादी से मम्मी की तरह ही मेरा अनौपचारिक सम्बन्ध था। वर्ष 1984 में बीमार होने से पहले तक दादी का मेरे सिर में तेल लगाना और बाल धोना जारी था; क्योंकि मेरे बाल लम्बे थे। जब मैं गाँव में थी, तभी मेरा मासिक चक्र शुरू हुआ। उस ज़माने में लड़कियों को यह सब मालूम नहीं होता था। दादी-मम्मी ने मुझे समझाया और बताया। गाँव में साड़ी और अन्य कपड़ों का पैड बनाकर इस्तेमाल करना होता था और बाद में धोकर-सुखाकर दुबारा इस्तेमाल करना होता था। जब तक मैं गाँव में रही, रोज़ मेरा पैड दादी ही धोती रहीं। मेरी दादी ने मेरे लिए जो किया, मालूम नहीं अब की नानी-दादी ये सब करती हैं या नहीं। खाने की थाली में अगर कुछ खाना कभी मुझसे, भइया से या मम्मी से छूट जाए, तो दादी झट से वह खाना ले लेती थी। वे कहतीं कि खाना बर्बाद नहीं करना चाहिए; हालाँकि मम्मी को बहुत संकोच होता रहा; लेकिन दादी के लिए मम्मी बहू नहीं बेटी थी। जब तक पापा थे, तो किसी को किसी का जूठा खाने नहीं देते थे। बचपन से हम सभी को आदत डाली गई थी कि अपने-अपने प्लेट (प्लेट के पीछे हम सभी का नाम लिखा था) में खाना खाकर प्लेट धोकर रखना है।  
दादी 
पापा, दादी और मम्मी चले गए। पापा के हमउम्र सभी रिश्तेदारों (अपने एवं चचेरे सभी चाचा-चाची, फुआ-फूफा) का देहान्त हो गया। अब मेरी पीढ़ी सबसे बड़ी पीढ़ी है, जिनमें कई लोग गुज़र चुके हैं। मेरे गाँव में आज भी दादी को लोग बहुत श्रद्धा से याद करते हैं। पापा को उनके सिद्धांतों के लिए और मम्मी को उनकी सहृदयता और शिक्षा के लिए याद करते हैं। सभी कहते हैं कि दादी बहुत पुण्यात्मा, दयालु और प्रेरक विचारों वाली स्त्री थीं। गाँव वालों की इच्छा से दादा, दादी, पापा और मम्मी की संगमरमर की मूर्ति गाँव के घर में लग रही है।  

दादा 
हम सभी को इसी तरह जीना और मरना है। लेकिन किसी अपने का मरना और उसका जलाया जाना, असहनीय होता है। मैंने अपनी बेटी से कह रखा है कि मेरा पूरा देह दान किया हुआ है, अतः मृत्यु के बाद हॉस्पिटल को सूचना देना। मेरा जो भी अंग काम करेगा, वे ले लेंगे। बचे हुए देह को भागलपुर में बिजली से जलाना, जहाँ मेरे पापा, दादी, मम्मी को जलाया गया। हालाँकि मुझे नहीं मालूम कि मुझे जैसी अनुभूति होती है, वह किसी को होगी या नहीं, फिर भी अपनी बात कह दिया है। सोचती हूँ कि यदि आत्मा जैसी चीज़ हुई, तो शायद उसी जगह पर जलाई जाऊँ तो पापा, दादी, मम्मी की आत्मा से मुलाक़ात होगी, बात होगी। फिर से दादी की कहानी और गीत सुनूँगी। दादी सभी का समाचार पूछेगीं। मेरी मृत्यु होने से रोएँगी; लेकिन मुझे पापा-मम्मी से मिलकर होने वाली ख़ुशी पर मेरे लिए ज़रूर ख़ुश होंगी। दादी! मेरी दादी! प्यारी दादी!
-जेन्नी शबनम (6.5.2025)
दादी की 17वीं पुण्यतिथि)
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Saturday, March 8, 2025

123. महिला साहित्यकारों की समस्याएँ

साहित्यकार होना बहुत बड़ी उपलब्धि है, विशेषकर महिलाओं के लिएक्योंकि महिला साहित्यकार सिर्फ़ साहित्यकार नहीं होती, उससे पहले वह एक स्त्री होती है। स्त्री जिसके लिए समाज में ढेरों नियम व क़ायदे बनाए गए हैंजिनका पालन करते हुए अपने को साहित्य की दुनिया में समावेश करना बेहद कठिन होता है। फिर भी आज महिला साहित्यकारों की बहुत बड़ी संख्या है और समाज में उनकी पहचान भी है। एक आम स्त्री की जो समस्या है, वह तो महिला साहित्यकारों के लिए भी है, साथ-ही-साथ साहित्य की दुनिया में स्वयं को स्थापित करने के लिए अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता हैचाहे यह समस्या घर से शुरू हो या समाज द्वारा दी जाए। सबसे ज़्यादा उन महिला साहित्यकारों को समस्या होती है, जिनकी पहचान साहित्यकार के रूप में नहीं बन पाई है। उन्हें न घर में साहित्यकार  माना जाता है, न समाज में पहचान होती है। 


पितृसत्तात्मक परिवेश में स्त्रियों की महत्वाकांक्षाएँ अक्सर ढह जाती हैंबहुत कम स्त्रियाँ हैं, जो विषम परिस्थितियों में ख़ुद को स्थापित करने का साहस कर पाती हैं। घर-परिवार का बन्धन ऐसा होता हैजहाँ अक्सर स्त्रियों को अपनी योग्यताअपने शौक़ और ख़ूबियों की तिलांजलि देनी पड़ती है। कई सारे सुअवसर आते हैं; लेकिन मज़बूरियाँ हौसला डिगा देती हैं। हमारी सामाजिक अवधारणा के अनुसार स्त्रियों का दायित्व सर्वप्रथम उसका परिवार हैउसके बाद ही स्वयं के प्रति कोई दायित्व है। इस अवधारणा को स्त्री के मन में इस तरह रोप दिया गया है कि इसके बाहर जाने का साहस बहुत कम स्त्रियाँ कर पाती हैं। हमारे समाज का वैचारिक दिवालियापन स्त्री को आगे बढ़ने से क़दम-क़दम पर रोकता है। स्त्री बेबाकी से कुछ कह नहीं पाती। स्त्री अगर साहित्यकार है, तब तो राहें और भी दुश्वार हैं। स्त्रियाँ अगर अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी, तो उपेक्षाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है। 


काफ़ी साल पहले की एक घटना मुझे अब भी याद है। एक सुबह मेरी एक मित्रजो सामान्य गृहिणी हैं और शौक़ से थोड़ा-बहुत लिखती हैंमेरे घर आईं और ख़ूब रोती रहीं। जब थोड़ी शांत हुईं, तो बताया कि किसी रविवार के दिन उन्हें एक काव्य-गोष्ठी में जाना था। उन्होंने अपने पति को बता दिया था कि 11 बजे कुछ मित्र के साथ वे काव्य-गोष्ठी में जाएँगी। रविवार की सुबह से ही उनके पति पुरानी बातें याद कर-करके लड़ते रहे। वे रोती रहीं और घड़ी देखती रहीं। नियत समय पर उनके अन्य मित्र उन्हें लेने सपरिवार आ गए। उनके पति यह जानने के बाद भी कि अतिथि आ चुके हैंलड़ाई बन्द नहीं कर रहे थे। आधे घंटे तक वे सभी इन्तिज़ार करते रहे और लड़ाई थी कि ख़त्म ही नहीं हो रही थी। रो-रोकर उनका चेहरा सूज गया थाऐसे में वे कैसे सबके सामने जाएँगी और कैसे कवि-गोष्ठी में जाएँगीसमझ नहीं पा रही थीं। फिर वे चेहरा धोकरकाजल लगाकर, चश्मा पहनकर और जबरन मुस्कान ओढ़कर गईं और उन लोगों से क्षमा के साथ आग्रह किया कि जबतक वे लोग चाय पिएँवे 10 मिनट में तैयार हो जाएँगी। हालाँकि वे लोग उनके चेहरे और आधे घंटे तक बाहर न आने के कारण समझ गए थे कि परिस्थिति सामान्य नहीं है। बाद में उन लोगों ने उन्हें कहा भी कि क्षमा की ज़रूरत नहीं हैहम लोग समझ गए थे कि कुछ और बात है; इसलिए आपको देर हो रही है। अंततः वे गोष्ठी में गईं; लेकिन अपनी कविता तक पढ़ न सकींक्योंकि मन सहज हो नहीं पा रहा था। वे मुझसे कहने लगी कि अब मैं लिखना बन्द कर दूँगी और न किसी गोष्ठी में जाऊँगी। मैंने उन्हें समझाया कि लेखनी उनकी पहचान हैअतः ऐसा न करेंलेखन जारी रखें। अब तो वे लिखती हैं और ख़ूब लिखती हैं। 


एक घटना मेरे साथ हुईजिससे आज भी मेरा मन क्षुब्ध हो जाता है। पुस्तक मेले में जाने की पूरी तैयारी एक दिन पहले ही मैंने कर रखी थी और घर में भी सभी को बता दिया था कि एक साझा-संकलन का विमोचन होना है, जिसमें मेरी भी रचनाएँ हैं। सुबह अपना सारा काम, जो मेरे लिए ज़रूरी होता हैकर लिया और 12 बजे घर से निकलने के लिए तैयार हो ही रही थी कि कुछ रिश्तेदार घर पर आ गए। उन्होंने पहले से बताया भी नहीं था कि वे लोग आने वाले हैंतो मैं उन्हें आज न आने के लिए कह सकती थी। मन-ही-मन बहुत ग़ुस्सा आयालेकिन मेहमान का स्वागत तो मुस्कान से ही करना होता है। मेहमाननवाज़ी के नाम चढ़ गया मेरा सारा उत्साह। यों पुस्तक बाद में मुझे मिल गई; लेकिन पुस्तक मेले में जाना और विमोचन में साहित्यकार मित्रों से मिलना एक अलग ही सुख देता है। 


ऐसी कितनी ही घटनाएँ व समस्याएँ हैं, जिन्हें मैं देखती आ रही हूँ। प्रतिष्ठित साहित्यकार के लिए शायद समस्याएँ कम होती होंगी; लेकिन उन महिला साहित्यकारों के लिए समस्याएँ बहुत ज़्यादा हैं, जो अभी पहचान बना नहीं पाई हैं। उनके लिए अपना कोई समय नहीं होता, जब वे लिख-पढ़ सकें। एक महिला की ज़िम्मेदारी सबसे पहले उसका घर और परिवार है। परिवार के सभी सदस्यों के समय के अनुसार ही कोई स्त्री अपने लिए समय निकाल पाती है। अगर कामकाजी स्त्री है, तब तो परिवारनौकरी और अपने शौक़ का संतुलन बना पाना बड़ा ही कठिन हो जाता है। ऐसे में अगर पति या परिवार सहयोगी हुआतब तो फिर भी स्त्री थोड़ा वक़्त कभी-कभी अपने लिए निकाल लेती है। समस्या तब ज़्यादा होती हैजब स्त्री का पति उसके साहित्यकार रूप को सम्मान नहीं देता है। मेरी एक मित्र को उसका पति कहता है कि उसे समाज में उसके अच्छा लिखने के कारण सम्मान नहीं मिलता है; बल्कि उसके पति के पद और पैसे के कारण उसे सम्मान मिलता है। उसके आत्मविश्वास और आत्मसम्मान को घर में ही चोट पहुँचाई जाती है। अब ऐसे में स्त्री क्या सोचे, क्या करेघर में अपना सम्मान बचाए रखे या समाज में पहचान बनाएहालाँकि ऐसी परिस्थितियों में कई बार स्त्री अंगार रूप में फट पड़ती है और यही अंगार उसकी लेखनी को और उसे पहचान भी दिला देता है। 


महिला साहित्यकारों की एक बहुत बड़ी समस्या यह भी है, जब किसी साहित्यिक गोष्ठी का आयोजन दूसरे शहर में हो रहा हो। पिता या पति अगर सहयोगी विचार के हैं, तो वे जाने की इजाज़त दे देते हैं या फिर वे स्वयं साथ जाते हैं; लेकिन अगर संकीर्ण विचार के हुए तो बहुत मुश्किल होता है, दूसरे शहर में जाकर अपनी पहचान को बनाए रखना। यों कई मित्रों को जानती हूँ, जिनके पिता और पति न सिर्फ़ साथ जाते हैं; बल्कि ऐसे आयोजनों में जाने के लिए प्रेरित भी करते हैं। संकीर्ण परिवेश में रह रही स्त्रियों को तो अकेले कहीं भी जाने की इजाज़त नही मिलती। या तो परिवार का कोई पुरुष उसे पहुँचा आए या कोई महिला मित्र के साथ वह जाए। ऐसे में बहुत सारी स्त्रियों ने सामाजिक दायरे में ख़ुद को क़ैद कर लिया। किसी तरह कुछ गोष्ठियों में उपस्थित हो पाईं तो ठीक हैअन्यथा कोई-न-कोई बहाना बनाकर अपनी परिस्थिति से समझौता कर लिया। अगर किसी तरह एक-दो किताबें प्रकाशित हो गईं, तो बस इतने से ही संतोष करना पड़ा कि चलो क़िस्मत में इतना भी हो पायाअन्यथा यह भी असंभव ही था। 


महिला साहित्यकारों की एक मानसिक पीड़ा जो मैं महसूस करती हूँ कि अगर कोई पति-पत्नी दोनों ही लेखक हैंतो अधिकतर पति अपनी पत्नी को कमतर आँकता हैभले ही वह स्त्री कितना ही अच्छा लिखती हो। ऐसे में स्त्री का मनोबल टूटने लगता है। उसे एहसास होने लगता है कि जब उसका पति ही कहता है कि वह अच्छा नहीं लिखतीतो निश्चित ही वह बकवास लिखती हैकूड़ा लिखती है। ऐसे में धीरे-धीरे या तो लिखना बन्द कर देती है या फिर लिखती भी है, तो किसी को नहीं दिखाती। कोई दोस्त-मित्र या बच्चे जब एहसास दिलाते हैं कि वह तो एक लेखिका थीलिखना क्यों बन्द कियातब उसे एहसास होता है कि वह तो बेवज़ह ख़ुद को बन्द कर बैठी थी, ख़ुद को घर की परिधि में समेट ली थी और तब पुरुष की चालाकी उसे समझ आती है और वह फिर से साहित्य कि दुनिया में प्रवेश करती है। हाँ! यह ज़रूर है कि जो मानसिक पीड़ा से वह गुज़री थीजो समय उसने गँवाया थायह सब उसे दुःख देता हैपर जीवन का यह सत्य उसे नई ऊँचाइयों की ओर ले भी जाता है। 


आज सामाजिक नेटवर्क हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है। एक तरफ़ जहाँ इससे हम समाज, देश, परदेश से जुड़ जाते हैंतो वहीं कई बार इसका बहुत बड़ा नुक़सान भी उठाना पड़ता है। सभी की हर एक गतिविधि की ख़बर सभी को मिलती रहती है। महिला साहित्यकारों को एक तरफ़ तो नेटवर्क के कारण बहुत बड़ा मंच मिलता है और बड़े पैमाने पर सराहना मिलती है, तो वहीं कुछ लोगों की नज़र में उसकी सफलता खटकने भी लगती है। कुछ लोग नेटवर्क पर अमर्यादित टिप्पणियाँ करने लगते हैं। यदि कोई महिला साहित्यकार बोल्ड महिला है और काफ़ी साहसिक विषयों पर लिखती है या उन विषयों पर लिखती हैजिन्हें परदे के अन्दर रहना समाज द्वारा जाएज़ माना जाता हैतब तो सामान्य स्त्री-पुरुष उसके पीछे ऐसे पड़ जाते हैं जैसे कि वह कोई गुनाह कर रही हो। उसको और उसके चरित्र को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। हाँ! अब यह ख़ुशी की बात है कि ऐसी बहुत सारी महिला साहित्यकार हैं, जो बेझिझक और बेख़ौफ़ इन विषयों पर लिख रही हैं और दूसरों  द्वारा निर्धारित लक्ष्मण रेखाओं एवं बन्दिशों को तोड़ रही हैं। यों ऐसी साहित्यकार बहुत कम हैंपर जितनी भी हैंअंततः उन्होंने सम्मान अर्जित किया है और लोग उन्हें सम्मान देने लगे हैं; भले ही यहाँ तक पहुँचने में ढेरों बाधाएँ और कठिनाइयाँ आईं। एक मुक़ाम हासिल कर लेने के बाद वही लोग जो कभी असंवेदनशील थे, अब सम्मान देने लगते हैं। 


अनगिनत अग्निपरीक्षाओं का सामना अक्सर महिला साहित्यकारों को करना पड़ता है। स्त्री के व्यक्तिव का आकलन अक्सर उसकी लेखनी के आधार पर लोग करने लगते हैं। कविता-कहानी में सत्य के साथ ही काल्पनिकता का भी समावेश होता हैफिर भी लोग कविता-कहानी के भाव को उस स्त्री की अपनी संवेदना बताते हैं। अगर विषय प्रेम हो, तो लोग कहेंगे कि वह स्त्री किसी के प्रेम में हैअगर वेदना लिख रही, तो यह माना जाता है कि उस स्त्री के स्वयं के जीवन की वेदना है। जिस भी भाव की लेखनी होगी, उस भाव को स्त्री के व्यक्तिगत जीवन से जोड़कर लोग देखते हैं। ऐसे में स्त्री सोचती है कि क्या लिखे, जो लोग कोई अनुमान न लगाएँ। अगर कोई आकर्षक व्यक्तित्व की महिला हैतो उसकी लेखनी से ज़्यादा उसकी सुन्दरता उसके लेखनी का मापदण्ड बन जाता हैयह बहुत दु:खद और आपत्तिजनक है। यों लोगों की सोच में काफ़ी सकारात्मक बदलाव आए हैंमहिला साहित्यकारों को अब पुरुषों के बराबर माना जाने लगा है; फिर भी समयाभाव और सामाजिक परिवेश महिला साहित्यकारों को पुरुष साहित्यकारों के साथ बराबरी पर रहने नहीं देता है। 


महिला साहित्यकारों में सबसे ज़्यादा मैं जिनसे प्रभावित हुई हूँ वे हैं अमृता प्रीतम। अमृता जी से मिलने का सौभाग्य मुझे मिला, परन्तु उस अवस्था में जब वे जीवन के अन्तिम पड़ाव पर थीं। वहीं इमरोज़ जी से मेरा मिलना हुआ और उनसे ही मैंने अमृता जी को एक स्त्री के रूप में देखा। अमृता जी का अमृता प्रीतम तक पहुँचना इतना सरल नहीं था। उस समाज में अमृता जी ने ख़ुद को स्थापित कियाजब स्त्री को घर की चहारदीवारी में क़ैद रहना होता था और अपनी विडम्बनाओं के साथ जीना पड़ता था। अमृता जी की बहुत आलोचना हुईबहुत परेशानियों का सामना कियामगर अमृता जी अंततः अमृता प्रीतम बनी। निःसंदेह अमृता जी हमारी और बहुतों की प्रेरणा हैंफिर भी उनकी तरह हिम्मत और हौसला सभी के बस की बात नहीं। अमृता जी का व्यक्तित्व एवं लेखनी हम स्त्रियों के लिए मील का पत्थर है। 


कई मित्रों को जानती हूँजो बहुत अच्छा लिखती हैंलेकिन कभी किसी को नहीं बताती हैंडायरी के पन्नों में सबसे छुपाकर रखती हैं। यों मैं भी कॉलेज के दिनों से लिखती थीपर कभी किसी को बताया नहीं। अमृता प्रीतम को पढ़ने से पहले शिवानी को बहुत पढ़ती थी। एक बार अमृता जी का उपन्यास 'मोतीसागर और सीपियाँपढ़ने को मिला। उस उपन्यास के बाद तो जैसे अमृता जी को पढ़ने का चस्का मुझे लग गया। ढेरों किताबें ख़रीदी और पढ़ी। एक दिन पता लगा कि वे मेरे घर के नज़दीक ही हौज़ ख़ास में रहती हैंतो मिलने के लिए कई बार फ़ोन कियालेकिन मुलाक़ात नहीं हो पा रही थी; क्योंकि वे बीमार चल रही थीं। मैं भी अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहती थी। अमृता जी की मृत्यु से कुछ ही दिन पहले की बात हैएक दिन फिर फ़ोन कियातो संयोग से इमरोज़ जी ने कहा कि आ जाओ मिलने। अमृता जी इतनी बीमार थीं कि देखकर मुझे रुलाई आ गई। अमृता जी को एक बार एक कॉन्फ्रेंस में देखा था। गज़ब का व्यक्तित्व था उनका और आज इस स्थिति में। इमरोज़ जी से काफ़ी बातें हुईं। उनको जब मैंने बताया कि मैं लिखती हूँलेकिन कभी किसी को न बताया न सुनाया। उन्होंने कहा कि तुम अपनी कविता लेकर आओ किसी दिन। मैं अपनी डायरी लेकर उनके घर गईतो उन्होंने कहा कि वे हिन्दी पढ़ नहीं सकतेतो मैं पढ़कर कुछ सुनाऊँ उन्हें। मैंने पाँच-छह कविताएँ पढ़कर सुनाईं। वे बहुत ख़ुश हुए। मुझे बहुत झिझक हो रही थी; लेकिन इमरोज़ जी के सामने मैं अपनी कविता पढ़कर सुना रही थी, यही मेरे लिए बहुत था। उन्होंने कहा कि अपनी किताब छपवाओ। मैंने बताया कि बहुत झिझक होती है किसी को बताने में कि मैं कविता लिखती हूँपता नहीं मैं जो लिखती हूँवह कैसा हैछपने के लायक है भी कि नहीं। इमरोज़ जी ने मुस्कुराकर देखा और कहा- ''तुम जो भी लिखती हो, सोचो कि सबसे अच्छा लिखती होकौन क्या सोचता है इसकी परवाह मत करो।'' जब भी उनसे मिलतीवे पूछते कि किताब दी छपने के लिए और हर बार मैं कहती कि नहीं। एक दिन दोपहर में उनका फ़ोन आया कि यह नम्बर नोट करो और इससे बात करोपैसे तो ज़रूर ज़्यादा लेता है; लेकिन किताब अच्छी छापता है। इमरोज़ जी के इतना प्रोत्साहित करने पर यह ज़रूर हुआ कि मेरी रचनाएँ सार्वजनिक होने लगीं। बहुत सारे साझा-संकलन में मेरी रचनाएँ छपने लगे और मेरी हिचक भी दूर हुई। मैं यह मानती हूँ कि इमरोज़ जी से मेरी मुलाक़ात ने मुझे हौसला दिया कि मैं जो भी लिखूँ उस पर गर्व करूँ और सार्वजनिक करूँ। मैं जानती हूँ ऐसी ढेरों स्त्रियाँ हैंजो बहुत अच्छा लिखती हैंलेकिन उन्हें कोई प्रेरणा देने वाला नहीं हैक्योंकि उन्हें कोई इमरोज़ नहीं मिला। 


साहित्य की दुनिया में इतनी ज़्यादा मेहनत और होड़ है कि ख़ुद को इस रेस में बनाए रखने के लिए सदैव तत्परता और चतुराई दिखाना होता है। कितना भी अच्छा आप लिखते हों, अगर प्रशंसक नहीं और पहचान नहींतो कोई पूछेगा नहीं। सदैव स्वयं और अपने लेखन को साबित करते रहना होता हैअगर आप प्रतिष्ठित साहित्यकार नहीं हैं तो। वाहवाही और शाबाशी की दुनिया है यह, जितनी ज़्यादा लाइक मिलेंगे, उसे उतना ही सफल रचनाकार मान लिया जाता है। यहाँ तो यों है जैसे लेन-देन का मामला। आप मुझे प्रोत्साहित करें, हम आपको; भले ही लेखनी का स्तर कैसा भी हो। महिला साहित्यकारों के साथ यह बहुत बड़ी दुविधा है कि समयाभाव और घरेलू ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए साहित्यिक संसार में स्वयं को कैसे तत्पर और सामयिक रखा जाए। फिर भी तमाम कोशिशों के बाद कुछ ही महिला साहित्यकार एक ख़ास मुक़ाम हासिल कर पाती हैंबशर्ते कि परिवार उनके इस कार्य को महत्त्व और सहयोग दे। ब्लॉग या अन्य माध्यमों पर लगातार जाना और सभी को पढ़ना तथा स्वयं लिखनायह अपने आप में पूर्ण कार्य हैकिन्तु इस कार्य में कोई मानदेय नहीं। अतः मुख्य कार्य के रूप में यह कर पाना एक आम स्त्री के लिए मुमकिन नहीं होता हैभले ही वह कामकाजी स्त्री न होकर गृहिणी हो। 


महिला साहित्यकारों के लिए साहित्य का डगर बहुत सरल नहीं है। यहाँ पर भी गुटबन्दी बहुत ज़्यादा है। अपना काम निकालकर दूसरे को गिरा देना एक आम भावना है, जिससे यह जगह अछूता नहीं। हालाँकि यह सब महिला-पुरुष दोनों के साथ होता है। फिर भी महिलाएँ इससे ज़्यादा पीड़ित होती हैं; क्योंकि सीमित समय में साहित्य के लिए ख़ुद को समर्पित करती हैं और ऐसे में किसी गुटबन्दी की शिकार हो जाएँकिसी की दुर्भावना का शिकार हो जाएँतो ऐसे में वह घर से भी बात सुनती है और जगहँसाई होती है सो अलग। हालाँकि अब ऐसी समस्या कम हो रही है; लेकिन अब भी यह हो रहा है और इससे महिलाएँ बहुत आहत होती हैं। लिखना छोड़ देती हैं। आत्मविश्वास अगर बचा भी है तो किस-किस के सामने अपना दुखड़ा रोएँ। न घर में कोई परवाह करता है, न समाज में स्वीकृत हैं। अगर प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं, तो भी गुटबन्दी की शिकार होते हुए भी वे इससे ख़ुद को बाहर कर लेती हैंक्योंकि उन्हें अब तक यह गुर आ चुका होता है। लोग प्रतिष्ठित साहित्यकारों के आगे-पीछे करते ही रहते हैं। 


महिला साहित्यकारों की एक अहम समस्या है कि बहुत मेहनत से वह अपने घर और परिवार की ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए कुछ लिखती हैं और बदले में न तो पारिश्रमिक मिलता हैन प्रोत्साहन। लेखनी तो एक कला है और जिसे यह आता है वह पारिश्रमिक का इन्तिज़ार नहीं करती है; बल्कि लेखन जारी रखती हैभले ही समाज उसका सम्मान दे, न दे। कुछ पत्रिकाएँ पारिश्रमिक भी देती हैं, परन्तु सभी जगह से नहीं मिलता है। कई बार बस छप जाए, यही बहुत बड़ी संतुष्टि होती है। हिन्दी साहित्यकारों के लिए समस्याएँ और भी ज़्यादा हैं। 


प्रकाशकों का मनमाना और अव्यावहारिक रवैया महिला साहित्यकारों को क्षुब्ध कर देता है। कई सारे प्रकाशक हैं, जो बहुत पैसे लेते हैं एक छोटी-सी पुस्तक छापने के लिएजबकि वे काफ़ी कमाते हैं उस पुस्तक से। लेखक के शारीरिक और मानसिक मेहनत के बाद भी उसे ही पैसे ख़र्च कर किताब छपवानी होती है। अगर आप बड़े साहित्यकार हैंचाहे स्त्री हों या पुरुषतब तो प्रकाशक मुँहमाँगी क़ीमत देकर आपकी किताब छापते हैं। पुस्तक प्रकाशन ऐसा व्यवसाय बन गया हैजिसमें घाटे का सौदा कभी होता ही नहीं। बस लेखक ही नुक़सान में रहता है। प्रकाशकों का एकाधिकार है इस क्षेत्र में और वे इसका फ़ायदा उठाते हैं। पैसे ख़र्च करना साथ ही भागदौड़ करना, हर महिला के लिए सम्भव नहीं होता है। और ऐसी साहित्यकारों की पुस्तकें उनके अपने रफ़ कॉपी में ही काल्पनिक रूप से जीती हैं। निःसंदेह प्रकाशकों को इस सन्दर्भ में सहयोगी रवैया अपनाना चाहिए, ताकि महिला साहित्यकार अपनी पुस्तक छपवा सकें। 


महिला साहित्यकार एक आम स्त्री है, जो अपनी भावनाओं और संवेदनाओं को जो इसी समाज से उसे मिलता हैदुनिया के सामने लाती है। साहित्य हर युग की दशा और दिशा बताता है। महिला साहित्यकार की लेखनी में समाज का वह कोना होता है, जहाँ किसी की निगाह नहीं पहुँचती है। पुरुषवादी सोच अमूमन स्त्री साहित्यकारों को पुरुष का विरोधी मान लेते हैंलेकिन यह कहीं से भी न सत्य है न वाज़िब। महिला साहित्यकार अपने जीवन में हारे या जीते, लेकिन जो भी वह लिखती है, उसके जीवन की सोच और अनुभूतियों का सच होता हैभले ही वह काल्पनिक हो। निःसंदेह महिला साहित्यकारों को साहित्यकार का सम्मानित दर्जा जिस दिन मिल पाएगाहमारा समाज ज़्यादा संवेदनशीलता से समस्याओं को समझ सकेगा। 


-जेन्नी शबनम (14.8.2019)

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