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दयानन्द जायसवाल जी और मैं (भागलपुर) |
साझा संसार
अंतस की रिसती भावनाएँ जिन्हें शब्दों द्वारा अभिव्यक्त कर संसार से साझा करती हूँ...
Thursday, June 5, 2025
126. युगीन आवश्यकता की परिणति : सन्नाटे के ख़त -दयानन्द जायसवाल
Sunday, May 25, 2025
125. सन्नाटे के ख़तों की आवाज़ -भीकम सिंह
मेरी छठी पुस्तक 'सन्नाटे के ख़त' की समीक्षा प्रो. डॉ. भीकम सिंह जी ने की है। प्रस्तुत है उनकी लिखी समीक्षा:
सन्नाटे के ख़तों की आवाज़
लम्हों का सफ़र, नवधा, झाँकती
खिड़की के साथ प्रवासी मन (हाइकु-संग्रह) और मरजीना (क्षणिका-संग्रह) को
जोड़कर डॉ. जेन्नी शबनम का यह छठा काव्य-संग्रह (सन्नाटे के ख़त) आया है।
व्हाट्सएप के समय में हम सन्नाटे के ख़तों से गुज़रते हुए अचरज से भर जाते
हैं; क्योंकि इन ख़तों (कविताओं) में समय और समाज का यथार्थ और फैंटेसी अनेक
भंगिमाओं में व्यक्त हुई है, कहीं सपाट कथन के साथ, तो कहीं रूपक के साथ।
यही कारण है कि जेन्नी शबनम की कविताएँ सीधे पाठक मन को कोमलता से छूती
है।
प्रस्तुत पुस्तक की पहली कविता- ‘अनुबन्ध’ यह कविता जीवन में अनेक तरह के अनुबन्धों का काव्यात्मक दस्तावेज़ है, जिनमें जीवन अनुबन्ध की खिड़की के पीछे साथ-साथ गतिमान दिखाई देता है-
एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच
कभी साथ-साथ घटित न होना
एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच। (पृष्ठ संख्या 15)
जेन्नी शबनम की कविताओं को पढ़ने पर वे ज़्यादा स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनका समय से आशय बेहद स्पष्ट और मुखर है-
बेवक़्त खिंचा आता था मन
बेसबब खिल उठता था पल
हर वक़्त हवाओं में तैरते थे
एहसास जो मन में मचलते थे।
अब इन्तिजार है (पृष्ठ संख्या 29)
जो यह होने को एक निजी इन्तिज़ार भी हो सकता है। जिसका अब इन्तिज़ार है और अब नहीं है। बस इसके लिए मन में आए बदलाव महत्त्वपूर्ण हैं। जेन्नी
शबनम अपनी भावनाओं को अनेक चित्रों और वर्णनों से व्याख्यायित करती हैं।
उनकी कविताओं से गुज़रते हुए हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि यहाँ भावनाएँ
घायल हैं; इसलिए ख़ुद पर कविता लिखना मुश्किल है। समय का यथार्थ जेन्नी शबनम की कविताओं में विस्तार के साथ आता रहता है। इसके साथ ही क्षेत्रीय हवा, जो राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ बनाती हैं उस तरफ़ भी जेन्नी शबनम का बराबर ध्यान गया है-
जाने कैसी हवा चल रही है
न ठण्डक देती है, न साँसें देती है
बदन को छूती है
तो जैसे सीने में बरछी-सी चुभती है
अब हवा बदल गई है। (पृष्ठ संख्या 52)
अपने गाँव से जुड़ना, अपनी जड़ों से जुड़ना, अपनी परम्परा से जुड़ना है। शायद इसलिए जेन्नी शबनम का मन उचट जाता है-
मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से।
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव (पृष्ठ संख्या 58)
अपना
गाँव एक केन्द्रीय कथ्य के बतौर इस कविता में है। उसी गाँव में खड़ा किसान
और उससे रिश्ता बरकरार रखती एक मज़दूर के लिए एक अदद रोटी-
सुबह से रात, रोज सबको परोसता
गोल-गोल, प्यारी-प्यारी, नरम-मु लायम रोटी
मिल जाती, काश!
उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। (पृष्ठ संख्या 66)
‘भूमिका’ कविता कोई निजी दुःख कातरता नहीं है। होने को तो यह एक निजी भूमिका है, जैसे कि हर किसी की होती है; लेकिन इस भूमिका के कारण और इसका स्वरूप नितान्त पारिवारिक है। एक संवेदनशील महिला के लिए यह भूमिका असह्य हो जाती है-
अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता, एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए। (पृष्ठ संख्या 70)
और कोई नया रास्ता खुलने की प्रक्रिया में स्थितियाँ प्रतिरोध के बजाय किसी वक़्त के चमत्कार की समर्थक होती चली जाती हैं-
इन सभी को देखता वक़्त, ठठाकर हँसता है
बदलता नहीं कानून
किसी के सपनों की ताबीर के लिए
कोई संशोधन नहीं
बस सज़ा मिलती है
इनाम का कोई प्रावधान नहीं
कुछ नहीं कर सकते तुम
या तो जंग करो या पलायन
सभी मेरे अधीन, बस एक मैं सर्वोच्च हूँ। (पृष्ठ संख्या 73)
और
फिर जेन्नी शबनम की कविताएँ एक बदलाव की उम्मीद में रुमानी ज़िन्दगी का
वर्णन करती हैं। ‘जी उठे इन्सानियत’ कविता में ऐसे प्रभावी चित्र मिलते हैं
और फैंटेसी सीधे-सच्चे रस्तों से भटकाकर अपने जाल में फँसा लेती है।
फैंटेसी की कोई नीति नहीं, कोई दायरा नहीं, यह भावनाओं का आखेट है, जो इसकी जद में आ जाए सभी को सूँघ लेती है-
एक कैनवास कोरा-सा
जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग
पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे
रोप दिए अपनी ख़्वाहिशों के रंग। (पृष्ठ संख्या 86)
और धीरे-धीरे कविता का रूप लेती है। एक तरह से देखा जाए, तो जेन्नी शबनम की तरह हरेक रचनाकार इसकी चपेट में आ जाते हैं, फिर दो ही रास्ते बचते हैं- या तो फैंटेसी के पहले रास्ते पर हम हार जाएँ या हम इसमें फँस जाएँ और फँसते जाएँ-
मन चाहता
भूले-भटके
मेरे लिए तोहफ़ा लिए
काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता। (पृष्ठ संख्या 89)
जेन्नी शबनम इसकी चकाचौंध से उबरने का रास्ता नहीं खोजती; बल्कि
इसकी हिमायती हो जाती है और मगज़ के उस हिस्से को काट देना चाहती है, जहाँ
विचार जन्म लेते हैं। ढूँढ लेती है अलमारी का निचला खाना, जहाँ बचपन बैठा
है रूठा हुआ।
इस फैंटेसी के साथ जेन्नी शबनम की कविताओं में एक चीज और नत्थी है, वह है सरलता! फैंटेसी को समझने और यथार्थ को समझने, उसे अभिव्यंजित करने की पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में है। सरलता यहाँ कविताओं को समझने-समझाने में है, जो जेन्नी शबनम की कविताओं का प्लस पॉइंट है और पाठकों के लिए ज़रूरी है। जेन्नी शबनम इस सरलता को गम्भीरता में भी नहीं छोड़ती; बल्कि उसी के सहारे अपनी कविता की नदी को बढ़ाती है-
नीयत और नियति समझ से परे है
एक झटके में सब बदल देती है
जिन्दगी अवाक्। (पृष्ठ संख्या 98)
जेन्नी
शबनम अपनी एक कविता ‘चाँद की पूरनमासी’ में बात की बात में इस सरलता को
ऐसे पकड़ती है कि आश्चर्य होता है कि इस तरह इतनी आसानी से इतनी गूढ़ बात को
किस तरह कहा जा सकता है-
‘क़िस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर
अपने वजूद में शामिलकर
जाने कितना इतराया करती थी
कितने सपनों को गुनती रहती थी
अब यह सब बीते जीवन का क़िस्सा लगता है।
हर पूरनमासी की रात। (पृष्ठ संख्या 109)
जेन्नी शबनम की रचना प्रक्रिया का यह बेहद सीधा-सच्चा रास्ता है, यहाँ सयानापन कतई नहीं है, अति
सूधौ सनेह को मारग है' घनानन्द के मार्ग की तरह। सच्ची और अच्छी कविता इसी
प्रक्रिया में लिखी जा सकती है। फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए पुरज़ोर कोशिश
करती, अनुभूतियों के सफ़र में कड़वे-कसैले शब्दों की मार झेलती जेन्नी शबनम की कविता बेहिसाब जिजीविषा, ज़िन्दादिली की सूचक है। ''अपनी पीर छुपाकर जीना, मीठा कहकर आँसू पीना'' पूर्ण समर्पण है। मन के किसी कोने में अब भी गूँजती हैं कुछ धुनें, जिन्हें
जेन्नी शबनम ने सपनों में बचाए रखा है। शायद अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की
‘सबसे ख़तरनाक’ कविता आपने पढ़ी होगी; इसलिए अपनी कविताओं में जेन्नी शबनम
सपनों को ज़िन्दा रखती है और उम्मीद करती है-
शायद मिल जाए वापस
जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। (पृष्ठ संख्या 138)
काव्य में द्वंद्वात्मकता को पकड़ना जेन्नी शबनम का कौशल है-
प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक
बदन के घेरों में
या मन के फेरों में?
सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है
या स्वयं का बोध होना प्रेम है। (पृष्ठ संख्या 139)
‘अलगनी’ उस वातावरण के बारे में है, जो हमारे बहुत पास पसरा हुआ है; लेकिन हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं।
सन्नाटे के ख़त (काव्य-संग्रह) में कुल 105 कविताएँ हैं, भाषा शैली की चित्रात्मकता तो इस काव्य संग्रह में सराहनीय है ही, इसका
सबसे सबल पक्ष यह भी है कि इसे बार-बार पढ़ने को मन करता है और भूमिका में
जैसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने कहा है कि पाठक इन ख़तों को पढ़कर
अर्न्तमन में महसूस करेंगे। थोड़े में कहें, तो इन ख़तों की आवाज़ साहित्यिक
जगत् में सुनी जाएगी। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है।
-0-
सन्नाटे के ख़त- डा. जेन्नी शबनम, प्रथम संस्करण- 2024, मूल्य- 425 रु पये, पृष्ठ- 150
प्रकाशकः अयन प्रकाशक, जे-19/139, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059
-भीकम सिंह
दादरी, गौतमबुद्ध नगर
तिथि- 16.5.2025
-0-
- जेन्नी शबनम (25.5.2025)
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लम्हों का सफ़र, नवधा, झाँकती खिड़की के साथ प्रवासी मन (हाइकु-संग्रह) और मरजीना (क्षणिका-संग्रह) को जोड़कर डॉ. जेन्नी शबनम का यह छठा काव्य-संग्रह (सन्नाटे के ख़त) आया है। व्हाट्सएप के समय में हम सन्नाटे के ख़तों से गुज़रते हुए अचरज से भर जाते हैं; क्योंकि इन ख़तों (कविताओं) में समय और समाज का यथार्थ और फैंटेसी अनेक भंगिमाओं में व्यक्त हुई है, कहीं सपाट कथन के साथ, तो कहीं रूपक के साथ। यही कारण है कि जेन्नी शबनम की कविताएँ सीधे पाठक मन को कोमलता से छूती है।
प्रस्तुत पुस्तक की पहली कविता- ‘अनुबन्ध’ यह कविता जीवन में अनेक तरह के अनुबन्धों का काव्यात्मक दस्तावेज़ है, जिनमें जीवन अनुबन्ध की खिड़की के पीछे साथ-साथ गतिमान दिखाई देता है-
एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच
कभी साथ-साथ घटित न होना
एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच। (पृष्ठ संख्या 15)
जेन्नी शबनम की कविताओं को पढ़ने पर वे ज़्यादा स्पष्ट दिखाई देती हैं। उनका समय से आशय बेहद स्पष्ट और मुखर है-
बेवक़्त खिंचा आता था मन
बेसबब खिल उठता था पल
हर वक़्त हवाओं में तैरते थे
एहसास जो मन में मचलते थे।
अब इन्तिजार है (पृष्ठ संख्या 29)
जो यह होने को एक निजी इन्तिज़ार भी हो सकता है। जिसका अब इन्तिज़ार है और अब नहीं है। बस इसके लिए मन में आए बदलाव महत्त्वपूर्ण हैं। जेन्नी शबनम अपनी भावनाओं को अनेक चित्रों और वर्णनों से व्याख्यायित करती हैं। उनकी कविताओं से गुज़रते हुए हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि यहाँ भावनाएँ घायल हैं; इसलिए ख़ुद पर कविता लिखना मुश्किल है। समय का यथार्थ जेन्नी शबनम की कविताओं में विस्तार के साथ आता रहता है। इसके साथ ही क्षेत्रीय हवा, जो राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ बनाती हैं उस तरफ़ भी जेन्नी शबनम का बराबर ध्यान गया है-
जाने कैसी हवा चल रही है
न ठण्डक देती है, न साँसें देती है
बदन को छूती है
तो जैसे सीने में बरछी-सी चुभती है
अब हवा बदल गई है। (पृष्ठ संख्या 52)
अपने गाँव से जुड़ना, अपनी जड़ों से जुड़ना, अपनी परम्परा से जुड़ना है। शायद इसलिए जेन्नी शबनम का मन उचट जाता है-
मन उचट गया है शहर के सूनेपन से
अब डर लगने लगा है
भीड़ की बस्ती में अपने ठहरेपन से।
चलो लौट चलते हैं अपने गाँव (पृष्ठ संख्या 58)
अपना गाँव एक केन्द्रीय कथ्य के बतौर इस कविता में है। उसी गाँव में खड़ा किसान और उससे रिश्ता बरकरार रखती एक मज़दूर के लिए एक अदद रोटी-
सुबह से रात, रोज सबको परोसता
गोल-गोल, प्यारी-प्यारी, नरम-मु
मिल जाती, काश!
उसे भी कभी खाने को गरम-गरम रोटी। (पृष्ठ संख्या 66)
‘भूमिका’ कविता कोई निजी दुःख कातरता नहीं है। होने को तो यह एक निजी भूमिका है, जैसे कि हर किसी की होती है; लेकिन इस भूमिका के कारण और इसका स्वरूप नितान्त पारिवारिक है। एक संवेदनशील महिला के लिए यह भूमिका असह्य हो जाती है-
अब दो पात्र मुझमें बस गए
एक तन में जीता, एक मन में बसता
दो रूप मुझमें उतर गए। (पृष्ठ संख्या 70)
और कोई नया रास्ता खुलने की प्रक्रिया में स्थितियाँ प्रतिरोध के बजाय किसी वक़्त के चमत्कार की समर्थक होती चली जाती हैं-
इन सभी को देखता वक़्त, ठठाकर हँसता है
बदलता नहीं कानून
किसी के सपनों की ताबीर के लिए
कोई संशोधन नहीं
बस सज़ा मिलती है
इनाम का कोई प्रावधान नहीं
कुछ नहीं कर सकते तुम
या तो जंग करो या पलायन
सभी मेरे अधीन, बस एक मैं सर्वोच्च हूँ। (पृष्ठ संख्या 73)
और फिर जेन्नी शबनम की कविताएँ एक बदलाव की उम्मीद में रुमानी ज़िन्दगी का वर्णन करती हैं। ‘जी उठे इन्सानियत’ कविता में ऐसे प्रभावी चित्र मिलते हैं और फैंटेसी सीधे-सच्चे रस्तों से भटकाकर अपने जाल में फँसा लेती है। फैंटेसी की कोई नीति नहीं, कोई दायरा नहीं, यह भावनाओं का आखेट है, जो इसकी जद में आ जाए सभी को सूँघ लेती है-
एक कैनवास कोरा-सा
जिस पर भरे मैंने अरमानों के रंग
पिरो दिए अपनी कामनाओं के बूटे
रोप दिए अपनी ख़्वाहिशों के रंग। (पृष्ठ संख्या 86)
और धीरे-धीरे कविता का रूप लेती है। एक तरह से देखा जाए, तो जेन्नी शबनम की तरह हरेक रचनाकार इसकी चपेट में आ जाते हैं, फिर दो ही रास्ते बचते हैं- या तो फैंटेसी के पहले रास्ते पर हम हार जाएँ या हम इसमें फँस जाएँ और फँसते जाएँ-
मन चाहता
भूले-भटके
मेरे लिए तोहफ़ा लिए
काश! आज मेरे घर एक सांता आ जाता। (पृष्ठ संख्या 89)
जेन्नी शबनम इसकी चकाचौंध से उबरने का रास्ता नहीं खोजती; बल्कि इसकी हिमायती हो जाती है और मगज़ के उस हिस्से को काट देना चाहती है, जहाँ विचार जन्म लेते हैं। ढूँढ लेती है अलमारी का निचला खाना, जहाँ बचपन बैठा है रूठा हुआ।
इस फैंटेसी के साथ जेन्नी शबनम की कविताओं में एक चीज और नत्थी है, वह है सरलता! फैंटेसी को समझने और यथार्थ को समझने, उसे अभिव्यंजित करने की पूरी प्रक्रिया के केन्द्र में है। सरलता यहाँ कविताओं को समझने-समझाने में है, जो जेन्नी शबनम की कविताओं का प्लस पॉइंट है और पाठकों के लिए ज़रूरी है। जेन्नी शबनम इस सरलता को गम्भीरता में भी नहीं छोड़ती; बल्कि उसी के सहारे अपनी कविता की नदी को बढ़ाती है-
नीयत और नियति समझ से परे है
एक झटके में सब बदल देती है
जिन्दगी अवाक्। (पृष्ठ संख्या 98)
जेन्नी शबनम अपनी एक कविता ‘चाँद की पूरनमासी’ में बात की बात में इस सरलता को ऐसे पकड़ती है कि आश्चर्य होता है कि इस तरह इतनी आसानी से इतनी गूढ़ बात को किस तरह कहा जा सकता है-
‘क़िस्से-कहानियों से तुम्हें निकालकर
अपने वजूद में शामिलकर
जाने कितना इतराया करती थी
कितने सपनों को गुनती रहती थी
अब यह सब बीते जीवन का क़िस्सा लगता है।
हर पूरनमासी की रात। (पृष्ठ संख्या 109)
जेन्नी शबनम की रचना प्रक्रिया का यह बेहद सीधा-सच्चा रास्ता है, यहाँ सयानापन कतई नहीं है, अति सूधौ सनेह को मारग है' घनानन्द के मार्ग की तरह। सच्ची और अच्छी कविता इसी प्रक्रिया में लिखी जा सकती है। फिर-फिर उगने और उड़ने के लिए पुरज़ोर कोशिश करती, अनुभूतियों के सफ़र में कड़वे-कसैले शब्दों की मार झेलती जेन्नी शबनम की कविता बेहिसाब जिजीविषा, ज़िन्दादिली की सूचक है। ''अपनी पीर छुपाकर जीना, मीठा कहकर आँसू पीना'' पूर्ण समर्पण है। मन के किसी कोने में अब भी गूँजती हैं कुछ धुनें, जिन्हें जेन्नी शबनम ने सपनों में बचाए रखा है। शायद अवतार सिंह संधू ‘पाश’ की ‘सबसे ख़तरनाक’ कविता आपने पढ़ी होगी; इसलिए अपनी कविताओं में जेन्नी शबनम सपनों को ज़िन्दा रखती है और उम्मीद करती है-
शायद मिल जाए वापस
जो जाने-अनजाने बन्द मुट्ठी से फिसल गया। (पृष्ठ संख्या 138)
काव्य में द्वंद्वात्मकता को पकड़ना जेन्नी शबनम का कौशल है-
प्रेम की पराकाष्ठा कहाँ तक
बदन के घेरों में
या मन के फेरों में?
सुध-बुध बिसरा देना प्रेम है
या स्वयं का बोध होना प्रेम है। (पृष्ठ संख्या 139)
‘अलगनी’ उस वातावरण के बारे में है, जो हमारे बहुत पास पसरा हुआ है; लेकिन हम उस पर ध्यान नहीं देते हैं।
सन्नाटे के ख़त (काव्य-संग्रह) में कुल 105 कविताएँ हैं, भाषा शैली की चित्रात्मकता तो इस काव्य संग्रह में सराहनीय है ही, इसका सबसे सबल पक्ष यह भी है कि इसे बार-बार पढ़ने को मन करता है और भूमिका में जैसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने कहा है कि पाठक इन ख़तों को पढ़कर अर्न्तमन में महसूस करेंगे। थोड़े में कहें, तो इन ख़तों की आवाज़ साहित्यिक जगत् में सुनी जाएगी। पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है।
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सन्नाटे के ख़त- डा. जेन्नी शबनम, प्रथम संस्करण- 2024, मूल्य- 425 रु
प्रकाशकः अयन प्रकाशक, जे-19/139, राजापुरी,
-भीकम सिंह
दादरी, गौतमबुद्ध नगर
तिथि- 16.5.2025
-0-
- जेन्नी शबनम (25.5.2025)
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Tuesday, May 6, 2025
124. मेरी दादी
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हम बच्चे |
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मम्मी, मैं, भाई, फुफेरा भाई, दादी |
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मैं, मम्मी, भइया, प्रो. गोरा |
मम्मी |
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पापा |
Saturday, March 8, 2025
123. महिला साहित्यकारों की समस्याएँ
साहित्यकार होना बहुत बड़ी उपलब्धि है, विशेषकर महिलाओं के लिए; क्योंकि महिला साहित्यकार सिर्फ़ साहित्यकार नहीं होती, उससे पहले वह एक स्त्री होती है। स्त्री जिसके लिए समाज में ढेरों नियम व क़ायदे बनाए गए हैं, जिनका पालन करते हुए अपने को साहित्य की दुनिया में समावेश करना बेहद कठिन होता है। फिर भी आज महिला साहित्यकारों की बहुत बड़ी संख्या है और समाज में उनकी पहचान भी है। एक आम स्त्री की जो समस्या है, वह तो महिला साहित्यकारों के लिए भी है, साथ-ही-साथ साहित्य की दुनिया में स्वयं को स्थापित करने के लिए अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है; चाहे यह समस्या घर से शुरू हो या समाज द्वारा दी जाए। सबसे ज़्यादा उन महिला साहित्यकारों को समस्या होती है, जिनकी पहचान साहित्यकार के रूप में नहीं बन पाई है। उन्हें न घर में साहित्यकार माना जाता है, न समाज में पहचान होती है।
पितृसत्तात्मक परिवेश में स्त्रियों की महत्वाकांक्षाएँ अक्सर ढह जाती हैं, बहुत कम स्त्रियाँ हैं, जो विषम परिस्थितियों में ख़ुद को स्थापित करने का साहस कर पाती हैं। घर-परिवार का बन्धन ऐसा होता है, जहाँ अक्सर स्त्रियों को अपनी योग्यता, अपने शौक़ और ख़ूबियों की तिलांजलि देनी पड़ती है। कई सारे सुअवसर आते हैं; लेकिन मज़बूरियाँ हौसला डिगा देती हैं। हमारी सामाजिक अवधारणा के अनुसार स्त्रियों का दायित्व सर्वप्रथम उसका परिवार है, उसके बाद ही स्वयं के प्रति कोई दायित्व है। इस अवधारणा को स्त्री के मन में इस तरह रोप दिया गया है कि इसके बाहर जाने का साहस बहुत कम स्त्रियाँ कर पाती हैं। हमारे समाज का वैचारिक दिवालियापन स्त्री को आगे बढ़ने से क़दम-क़दम पर रोकता है। स्त्री बेबाकी से कुछ कह नहीं पाती। स्त्री अगर साहित्यकार है, तब तो राहें और भी दुश्वार हैं। स्त्रियाँ अगर अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी, तो उपेक्षाओं का सिलसिला शुरू हो जाता है।
काफ़ी साल पहले की एक घटना मुझे अब भी याद है। एक सुबह मेरी एक मित्र, जो सामान्य गृहिणी हैं और शौक़ से थोड़ा-बहुत लिखती हैं; मेरे घर आईं और ख़ूब रोती रहीं। जब थोड़ी शांत हुईं, तो बताया कि किसी रविवार के दिन उन्हें एक काव्य-गोष्ठी में जाना था। उन्होंने अपने पति को बता दिया था कि 11 बजे कुछ मित्र के साथ वे काव्य-गोष्ठी में जाएँगी। रविवार की सुबह से ही उनके पति पुरानी बातें याद कर-करके लड़ते रहे। वे रोती रहीं और घड़ी देखती रहीं। नियत समय पर उनके अन्य मित्र उन्हें लेने सपरिवार आ गए। उनके पति यह जानने के बाद भी कि अतिथि आ चुके हैं, लड़ाई बन्द नहीं कर रहे थे। आधे घंटे तक वे सभी इन्तिज़ार करते रहे और लड़ाई थी कि ख़त्म ही नहीं हो रही थी। रो-रोकर उनका चेहरा सूज गया था, ऐसे में वे कैसे सबके सामने जाएँगी और कैसे कवि-गोष्ठी में जाएँगी, समझ नहीं पा रही थीं। फिर वे चेहरा धोकर, काजल लगाकर, चश्मा पहनकर और जबरन मुस्कान ओढ़कर गईं और उन लोगों से क्षमा के साथ आग्रह किया कि जबतक वे लोग चाय पिएँ, वे 10 मिनट में तैयार हो जाएँगी। हालाँकि वे लोग उनके चेहरे और आधे घंटे तक बाहर न आने के कारण समझ गए थे कि परिस्थिति सामान्य नहीं है। बाद में उन लोगों ने उन्हें कहा भी कि क्षमा की ज़रूरत नहीं है, हम लोग समझ गए थे कि कुछ और बात है; इसलिए आपको देर हो रही है। अंततः वे गोष्ठी में गईं; लेकिन अपनी कविता तक पढ़ न सकीं, क्योंकि मन सहज हो नहीं पा रहा था। वे मुझसे कहने लगी कि अब मैं लिखना बन्द कर दूँगी और न किसी गोष्ठी में जाऊँगी। मैंने उन्हें समझाया कि लेखनी उनकी पहचान है; अतः ऐसा न करें, लेखन जारी रखें। अब तो वे लिखती हैं और ख़ूब लिखती हैं।
एक घटना मेरे साथ हुई, जिससे आज भी मेरा मन क्षुब्ध हो जाता है। पुस्तक मेले में जाने की पूरी तैयारी एक दिन पहले ही मैंने कर रखी थी और घर में भी सभी को बता दिया था कि एक साझा-संकलन का विमोचन होना है, जिसमें मेरी भी रचनाएँ हैं। सुबह अपना सारा काम, जो मेरे लिए ज़रूरी होता है, कर लिया और 12 बजे घर से निकलने के लिए तैयार हो ही रही थी कि कुछ रिश्तेदार घर पर आ गए। उन्होंने पहले से बताया भी नहीं था कि वे लोग आने वाले हैं, तो मैं उन्हें आज न आने के लिए कह सकती थी। मन-ही-मन बहुत ग़ुस्सा आया; लेकिन मेहमान का स्वागत तो मुस्कान से ही करना होता है। मेहमाननवाज़ी के नाम चढ़ गया मेरा सारा उत्साह। यों पुस्तक बाद में मुझे मिल गई; लेकिन पुस्तक मेले में जाना और विमोचन में साहित्यकार मित्रों से मिलना एक अलग ही सुख देता है।
ऐसी कितनी ही घटनाएँ व समस्याएँ हैं, जिन्हें मैं देखती आ रही हूँ। प्रतिष्ठित साहित्यकार के लिए शायद समस्याएँ कम होती होंगी; लेकिन उन महिला साहित्यकारों के लिए समस्याएँ बहुत ज़्यादा हैं, जो अभी पहचान बना नहीं पाई हैं। उनके लिए अपना कोई समय नहीं होता, जब वे लिख-पढ़ सकें। एक महिला की ज़िम्मेदारी सबसे पहले उसका घर और परिवार है। परिवार के सभी सदस्यों के समय के अनुसार ही कोई स्त्री अपने लिए समय निकाल पाती है। अगर कामकाजी स्त्री है, तब तो परिवार, नौकरी और अपने शौक़ का संतुलन बना पाना बड़ा ही कठिन हो जाता है। ऐसे में अगर पति या परिवार सहयोगी हुआ, तब तो फिर भी स्त्री थोड़ा वक़्त कभी-कभी अपने लिए निकाल लेती है। समस्या तब ज़्यादा होती है, जब स्त्री का पति उसके साहित्यकार रूप को सम्मान नहीं देता है। मेरी एक मित्र को उसका पति कहता है कि उसे समाज में उसके अच्छा लिखने के कारण सम्मान नहीं मिलता है; बल्कि उसके पति के पद और पैसे के कारण उसे सम्मान मिलता है। उसके आत्मविश्वास और आत्मसम्मान को घर में ही चोट पहुँचाई जाती है। अब ऐसे में स्त्री क्या सोचे, क्या करे? घर में अपना सम्मान बचाए रखे या समाज में पहचान बनाए? हालाँकि ऐसी परिस्थितियों में कई बार स्त्री अंगार रूप में फट पड़ती है और यही अंगार उसकी लेखनी को और उसे पहचान भी दिला देता है।
महिला साहित्यकारों की एक बहुत बड़ी समस्या यह भी है, जब किसी साहित्यिक गोष्ठी का आयोजन दूसरे शहर में हो रहा हो। पिता या पति अगर सहयोगी विचार के हैं, तो वे जाने की इजाज़त दे देते हैं या फिर वे स्वयं साथ जाते हैं; लेकिन अगर संकीर्ण विचार के हुए तो बहुत मुश्किल होता है, दूसरे शहर में जाकर अपनी पहचान को बनाए रखना। यों कई मित्रों को जानती हूँ, जिनके पिता और पति न सिर्फ़ साथ जाते हैं; बल्कि ऐसे आयोजनों में जाने के लिए प्रेरित भी करते हैं। संकीर्ण परिवेश में रह रही स्त्रियों को तो अकेले कहीं भी जाने की इजाज़त नही मिलती। या तो परिवार का कोई पुरुष उसे पहुँचा आए या कोई महिला मित्र के साथ वह जाए। ऐसे में बहुत सारी स्त्रियों ने सामाजिक दायरे में ख़ुद को क़ैद कर लिया। किसी तरह कुछ गोष्ठियों में उपस्थित हो पाईं तो ठीक है; अन्यथा कोई-न-कोई बहाना बनाकर अपनी परिस्थिति से समझौता कर लिया। अगर किसी तरह एक-दो किताबें प्रकाशित हो गईं, तो बस इतने से ही संतोष करना पड़ा कि चलो क़िस्मत में इतना भी हो पाया; अन्यथा यह भी असंभव ही था।
महिला साहित्यकारों की एक मानसिक पीड़ा जो मैं महसूस करती हूँ कि अगर कोई पति-पत्नी दोनों ही लेखक हैं, तो अधिकतर पति अपनी पत्नी को कमतर आँकता है; भले ही वह स्त्री कितना ही अच्छा लिखती हो। ऐसे में स्त्री का मनोबल टूटने लगता है। उसे एहसास होने लगता है कि जब उसका पति ही कहता है कि वह अच्छा नहीं लिखती, तो निश्चित ही वह बकवास लिखती है, कूड़ा लिखती है। ऐसे में धीरे-धीरे या तो लिखना बन्द कर देती है या फिर लिखती भी है, तो किसी को नहीं दिखाती। कोई दोस्त-मित्र या बच्चे जब एहसास दिलाते हैं कि वह तो एक लेखिका थी, लिखना क्यों बन्द किया; तब उसे एहसास होता है कि वह तो बेवज़ह ख़ुद को बन्द कर बैठी थी, ख़ुद को घर की परिधि में समेट ली थी और तब पुरुष की चालाकी उसे समझ आती है और वह फिर से साहित्य कि दुनिया में प्रवेश करती है। हाँ! यह ज़रूर है कि जो मानसिक पीड़ा से वह गुज़री थी, जो समय उसने गँवाया था, यह सब उसे दुःख देता है, पर जीवन का यह सत्य उसे नई ऊँचाइयों की ओर ले भी जाता है।
आज सामाजिक नेटवर्क हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है। एक तरफ़ जहाँ इससे हम समाज, देश, परदेश से जुड़ जाते हैं, तो वहीं कई बार इसका बहुत बड़ा नुक़सान भी उठाना पड़ता है। सभी की हर एक गतिविधि की ख़बर सभी को मिलती रहती है। महिला साहित्यकारों को एक तरफ़ तो नेटवर्क के कारण बहुत बड़ा मंच मिलता है और बड़े पैमाने पर सराहना मिलती है, तो वहीं कुछ लोगों की नज़र में उसकी सफलता खटकने भी लगती है। कुछ लोग नेटवर्क पर अमर्यादित टिप्पणियाँ करने लगते हैं। यदि कोई महिला साहित्यकार बोल्ड महिला है और काफ़ी साहसिक विषयों पर लिखती है या उन विषयों पर लिखती है, जिन्हें परदे के अन्दर रहना समाज द्वारा जाएज़ माना जाता है, तब तो सामान्य स्त्री-पुरुष उसके पीछे ऐसे पड़ जाते हैं जैसे कि वह कोई गुनाह कर रही हो। उसको और उसके चरित्र को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। हाँ! अब यह ख़ुशी की बात है कि ऐसी बहुत सारी महिला साहित्यकार हैं, जो बेझिझक और बेख़ौफ़ इन विषयों पर लिख रही हैं और दूसरों द्वारा निर्धारित लक्ष्मण रेखाओं एवं बन्दिशों को तोड़ रही हैं। यों ऐसी साहित्यकार बहुत कम हैं, पर जितनी भी हैं, अंततः उन्होंने सम्मान अर्जित किया है और लोग उन्हें सम्मान देने लगे हैं; भले ही यहाँ तक पहुँचने में ढेरों बाधाएँ और कठिनाइयाँ आईं। एक मुक़ाम हासिल कर लेने के बाद वही लोग जो कभी असंवेदनशील थे, अब सम्मान देने लगते हैं।
अनगिनत अग्निपरीक्षाओं का सामना अक्सर महिला साहित्यकारों को करना पड़ता है। स्त्री के व्यक्तिव का आकलन अक्सर उसकी लेखनी के आधार पर लोग करने लगते हैं। कविता-कहानी में सत्य के साथ ही काल्पनिकता का भी समावेश होता है, फिर भी लोग कविता-कहानी के भाव को उस स्त्री की अपनी संवेदना बताते हैं। अगर विषय प्रेम हो, तो लोग कहेंगे कि वह स्त्री किसी के प्रेम में है, अगर वेदना लिख रही, तो यह माना जाता है कि उस स्त्री के स्वयं के जीवन की वेदना है। जिस भी भाव की लेखनी होगी, उस भाव को स्त्री के व्यक्तिगत जीवन से जोड़कर लोग देखते हैं। ऐसे में स्त्री सोचती है कि क्या लिखे, जो लोग कोई अनुमान न लगाएँ। अगर कोई आकर्षक व्यक्तित्व की महिला है, तो उसकी लेखनी से ज़्यादा उसकी सुन्दरता उसके लेखनी का मापदण्ड बन जाता है; यह बहुत दु:खद और आपत्तिजनक है। यों लोगों की सोच में काफ़ी सकारात्मक बदलाव आए हैं, महिला साहित्यकारों को अब पुरुषों के बराबर माना जाने लगा है; फिर भी समयाभाव और सामाजिक परिवेश महिला साहित्यकारों को पुरुष साहित्यकारों के साथ बराबरी पर रहने नहीं देता है।
महिला साहित्यकारों में सबसे ज़्यादा मैं जिनसे प्रभावित हुई हूँ वे हैं अमृता प्रीतम। अमृता जी से मिलने का सौभाग्य मुझे मिला, परन्तु उस अवस्था में जब वे जीवन के अन्तिम पड़ाव पर थीं। वहीं इमरोज़ जी से मेरा मिलना हुआ और उनसे ही मैंने अमृता जी को एक स्त्री के रूप में देखा। अमृता जी का अमृता प्रीतम तक पहुँचना इतना सरल नहीं था। उस समाज में अमृता जी ने ख़ुद को स्थापित किया, जब स्त्री को घर की चहारदीवारी में क़ैद रहना होता था और अपनी विडम्बनाओं के साथ जीना पड़ता था। अमृता जी की बहुत आलोचना हुई, बहुत परेशानियों का सामना किया; मगर अमृता जी अंततः अमृता प्रीतम बनी। निःसंदेह अमृता जी हमारी और बहुतों की प्रेरणा हैं; फिर भी उनकी तरह हिम्मत और हौसला सभी के बस की बात नहीं। अमृता जी का व्यक्तित्व एवं लेखनी हम स्त्रियों के लिए मील का पत्थर है।
कई मित्रों को जानती हूँ, जो बहुत अच्छा लिखती हैं; लेकिन कभी किसी को नहीं बताती हैं, डायरी के पन्नों में सबसे छुपाकर रखती हैं। यों मैं भी कॉलेज के दिनों से लिखती थी, पर कभी किसी को बताया नहीं। अमृता प्रीतम को पढ़ने से पहले शिवानी को बहुत पढ़ती थी। एक बार अमृता जी का उपन्यास 'मोती, सागर और सीपियाँ' पढ़ने को मिला। उस उपन्यास के बाद तो जैसे अमृता जी को पढ़ने का चस्का मुझे लग गया। ढेरों किताबें ख़रीदी और पढ़ी। एक दिन पता लगा कि वे मेरे घर के नज़दीक ही हौज़ ख़ास में रहती हैं, तो मिलने के लिए कई बार फ़ोन किया; लेकिन मुलाक़ात नहीं हो पा रही थी; क्योंकि वे बीमार चल रही थीं। मैं भी अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहती थी। अमृता जी की मृत्यु से कुछ ही दिन पहले की बात है, एक दिन फिर फ़ोन किया, तो संयोग से इमरोज़ जी ने कहा कि आ जाओ मिलने। अमृता जी इतनी बीमार थीं कि देखकर मुझे रुलाई आ गई। अमृता जी को एक बार एक कॉन्फ्रेंस में देखा था। गज़ब का व्यक्तित्व था उनका और आज इस स्थिति में। इमरोज़ जी से काफ़ी बातें हुईं। उनको जब मैंने बताया कि मैं लिखती हूँ; लेकिन कभी किसी को न बताया न सुनाया। उन्होंने कहा कि तुम अपनी कविता लेकर आओ किसी दिन। मैं अपनी डायरी लेकर उनके घर गई, तो उन्होंने कहा कि वे हिन्दी पढ़ नहीं सकते, तो मैं पढ़कर कुछ सुनाऊँ उन्हें। मैंने पाँच-छह कविताएँ पढ़कर सुनाईं। वे बहुत ख़ुश हुए। मुझे बहुत झिझक हो रही थी; लेकिन इमरोज़ जी के सामने मैं अपनी कविता पढ़कर सुना रही थी, यही मेरे लिए बहुत था। उन्होंने कहा कि अपनी किताब छपवाओ। मैंने बताया कि बहुत झिझक होती है किसी को बताने में कि मैं कविता लिखती हूँ, पता नहीं मैं जो लिखती हूँ, वह कैसा है, छपने के लायक है भी कि नहीं। इमरोज़ जी ने मुस्कुराकर देखा और कहा- ''तुम जो भी लिखती हो, सोचो कि सबसे अच्छा लिखती हो, कौन क्या सोचता है इसकी परवाह मत करो।'' जब भी उनसे मिलती, वे पूछते कि किताब दी छपने के लिए और हर बार मैं कहती कि नहीं। एक दिन दोपहर में उनका फ़ोन आया कि यह नम्बर नोट करो और इससे बात करो, पैसे तो ज़रूर ज़्यादा लेता है; लेकिन किताब अच्छी छापता है। इमरोज़ जी के इतना प्रोत्साहित करने पर यह ज़रूर हुआ कि मेरी रचनाएँ सार्वजनिक होने लगीं। बहुत सारे साझा-संकलन में मेरी रचनाएँ छपने लगे और मेरी हिचक भी दूर हुई। मैं यह मानती हूँ कि इमरोज़ जी से मेरी मुलाक़ात ने मुझे हौसला दिया कि मैं जो भी लिखूँ , उस पर गर्व करूँ और सार्वजनिक करूँ। मैं जानती हूँ ऐसी ढेरों स्त्रियाँ हैं, जो बहुत अच्छा लिखती हैं; लेकिन उन्हें कोई प्रेरणा देने वाला नहीं है, क्योंकि उन्हें कोई इमरोज़ नहीं मिला।
साहित्य की दुनिया में इतनी ज़्यादा मेहनत और होड़ है कि ख़ुद को इस रेस में बनाए रखने के लिए सदैव तत्परता और चतुराई दिखाना होता है। कितना भी अच्छा आप लिखते हों, अगर प्रशंसक नहीं और पहचान नहीं, तो कोई पूछेगा नहीं। सदैव स्वयं और अपने लेखन को साबित करते रहना होता है; अगर आप प्रतिष्ठित साहित्यकार नहीं हैं तो। वाहवाही और शाबाशी की दुनिया है यह, जितनी ज़्यादा लाइक मिलेंगे, उसे उतना ही सफल रचनाकार मान लिया जाता है। यहाँ तो यों है जैसे लेन-देन का मामला। आप मुझे प्रोत्साहित करें, हम आपको; भले ही लेखनी का स्तर कैसा भी हो। महिला साहित्यकारों के साथ यह बहुत बड़ी दुविधा है कि समयाभाव और घरेलू ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए साहित्यिक संसार में स्वयं को कैसे तत्पर और सामयिक रखा जाए। फिर भी तमाम कोशिशों के बाद कुछ ही महिला साहित्यकार एक ख़ास मुक़ाम हासिल कर पाती हैं; बशर्ते कि परिवार उनके इस कार्य को महत्त्व और सहयोग दे। ब्लॉग या अन्य माध्यमों पर लगातार जाना और सभी को पढ़ना तथा स्वयं लिखना, यह अपने आप में पूर्ण कार्य है, किन्तु इस कार्य में कोई मानदेय नहीं। अतः मुख्य कार्य के रूप में यह कर पाना एक आम स्त्री के लिए मुमकिन नहीं होता है, भले ही वह कामकाजी स्त्री न होकर गृहिणी हो।
महिला साहित्यकारों के लिए साहित्य का डगर बहुत सरल नहीं है। यहाँ पर भी गुटबन्दी बहुत ज़्यादा है। अपना काम निकालकर दूसरे को गिरा देना एक आम भावना है, जिससे यह जगह अछूता नहीं। हालाँकि यह सब महिला-पुरुष दोनों के साथ होता है। फिर भी महिलाएँ इससे ज़्यादा पीड़ित होती हैं; क्योंकि सीमित समय में साहित्य के लिए ख़ुद को समर्पित करती हैं और ऐसे में किसी गुटबन्दी की शिकार हो जाएँ, किसी की दुर्भावना का शिकार हो जाएँ, तो ऐसे में वह घर से भी बात सुनती है और जगहँसाई होती है सो अलग। हालाँकि अब ऐसी समस्या कम हो रही है; लेकिन अब भी यह हो रहा है और इससे महिलाएँ बहुत आहत होती हैं। लिखना छोड़ देती हैं। आत्मविश्वास अगर बचा भी है तो किस-किस के सामने अपना दुखड़ा रोएँ। न घर में कोई परवाह करता है, न समाज में स्वीकृत हैं। अगर प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं, तो भी गुटबन्दी की शिकार होते हुए भी वे इससे ख़ुद को बाहर कर लेती हैं; क्योंकि उन्हें अब तक यह गुर आ चुका होता है। लोग प्रतिष्ठित साहित्यकारों के आगे-पीछे करते ही रहते हैं।
महिला साहित्यकारों की एक अहम समस्या है कि बहुत मेहनत से वह अपने घर और परिवार की ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए कुछ लिखती हैं और बदले में न तो पारिश्रमिक मिलता है, न प्रोत्साहन। लेखनी तो एक कला है और जिसे यह आता है वह पारिश्रमिक का इन्तिज़ार नहीं करती है; बल्कि लेखन जारी रखती है, भले ही समाज उसका सम्मान दे, न दे। कुछ पत्रिकाएँ पारिश्रमिक भी देती हैं, परन्तु सभी जगह से नहीं मिलता है। कई बार बस छप जाए, यही बहुत बड़ी संतुष्टि होती है। हिन्दी साहित्यकारों के लिए समस्याएँ और भी ज़्यादा हैं।
प्रकाशकों का मनमाना और अव्यावहारिक रवैया महिला साहित्यकारों को क्षुब्ध कर देता है। कई सारे प्रकाशक हैं, जो बहुत पैसे लेते हैं एक छोटी-सी पुस्तक छापने के लिए, जबकि वे काफ़ी कमाते हैं उस पुस्तक से। लेखक के शारीरिक और मानसिक मेहनत के बाद भी उसे ही पैसे ख़र्च कर किताब छपवानी होती है। अगर आप बड़े साहित्यकार हैं, चाहे स्त्री हों या पुरुष, तब तो प्रकाशक मुँहमाँगी क़ीमत देकर आपकी किताब छापते हैं। पुस्तक प्रकाशन ऐसा व्यवसाय बन गया है, जिसमें घाटे का सौदा कभी होता ही नहीं। बस लेखक ही नुक़सान में रहता है। प्रकाशकों का एकाधिकार है इस क्षेत्र में और वे इसका फ़ायदा उठाते हैं। पैसे ख़र्च करना साथ ही भागदौड़ करना, हर महिला के लिए सम्भव नहीं होता है। और ऐसी साहित्यकारों की पुस्तकें उनके अपने रफ़ कॉपी में ही काल्पनिक रूप से जीती हैं। निःसंदेह प्रकाशकों को इस सन्दर्भ में सहयोगी रवैया अपनाना चाहिए, ताकि महिला साहित्यकार अपनी पुस्तक छपवा सकें।
महिला साहित्यकार एक आम स्त्री है, जो अपनी भावनाओं और संवेदनाओं को जो इसी समाज से उसे मिलता है, दुनिया के सामने लाती है। साहित्य हर युग की दशा और दिशा बताता है। महिला साहित्यकार की लेखनी में समाज का वह कोना होता है, जहाँ किसी की निगाह नहीं पहुँचती है। पुरुषवादी सोच अमूमन स्त्री साहित्यकारों को पुरुष का विरोधी मान लेते हैं; लेकिन यह कहीं से भी न सत्य है न वाज़िब। महिला साहित्यकार अपने जीवन में हारे या जीते, लेकिन जो भी वह लिखती है, उसके जीवन की सोच और अनुभूतियों का सच होता है, भले ही वह काल्पनिक हो। निःसंदेह महिला साहित्यकारों को साहित्यकार का सम्मानित दर्जा जिस दिन मिल पाएगा, हमारा समाज ज़्यादा संवेदनशीलता से समस्याओं को समझ सकेगा।
-जेन्नी शबनम (14.8.2019)
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