Friday, April 23, 2021

87. सुनील मिश्र

स्तब्ध हूँ! अवाक् हूँ! मन को यकीन नहीं हो पा रहा कि सुनील मिश्र जी अब हमारे बीच नहीं हैं। कैसे यकीन करूँ कि एक सप्ताह पूर्व जिनसे आगे के कार्यक्रमों पर चर्चा हुई, यूँ अचानक सब छोड़कर चले गए? उनके व्हाट्सएप स्टेटस में लिखा है ''कोई दुःख मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं, वही हारा जो लड़ा नहीं।'' फिर आप कैसे हार गए सुनील जी? आपको लड़ना था, खूब लड़ना था, हम सब के लिए लड़कर जीतकर आना था। यूँ सफ़र अधूरा छोड़कर नहीं जाना था। आपके अपने, अपने परिवार, अपने मित्र, अपने प्रशंसक, अपने शुभचिंतक, अपने सहकर्मी सबको रुलाकर कल आप चले गए। इस संसार को बहुत ज़रुरत थी आपकी। यूँ अलविदा नहीं कहा जाता सुनील जी।   

जीवन की असफलताओं से जब भी मैं हारती थी, आप मुझे समझाते थे। जीवन में संसारिकता, व्यावहारिकता, सरलता, सहजता, सहृदयता कैसे अपनाएँ, बताते थे। आपके कहे शब्द आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं - ''इतने गहरे होकर विचार करने की उम्र नहीं है। हम सभी जिस समय में रह रहे हैं, अजीब-सा वातावरण है और इसमें जीवन की स्वाभाविकता के साथ जीना अच्छा है। यह ठीक वह समय है जब अपने आसपास से इसकी भी अपेक्षा न करके बल वर्धन करना चाहिए। थोड़ा उपकार वाले भाव में आओ। बाल बच्चे यदि व्यस्त हैं, फ़िक्र करने या जानने का वक़्त नहीं है, अपने संसार में हैं तो उनको खूब शुभकामनाएँ दो। यही हम सबकी नियति है। और उस रिक्ति को अपनी सकारात्मकता के साथ एंटीबायोटिक की तरह विकसित करो। हम तो यही कर रहे हैं। काफी समय से।'' आपकी वैचारिक बुद्धिमता, मानवीयता, गंभीरता और संवेदना सचमुच ऊर्जा देती है मुझे। मेरे लिए आप मित्र भी हैं और प्रेरक वक्ता भी हैं।

चिन्तन में सुनील जी
मेरे जन्मस्थान भागलपुर में गायक किशोर कुमार का ननिहाल है। वहाँ से सम्बंधित जानकारी लेने को सुनील जी बहुत उत्सुक रहते थे। एक बार किशोर कुमार के ननिहाल मैं गई लेकिन कुछ ख़ास जानकारी हासिल न हो सकी थी। 14 अप्रील को फ़ोन पर हम बात कर रहे थे कि कोरोना का प्रभाव ख़त्म हो तो वे किसी मित्र की गाड़ी से आएँगे और नालंदा विश्वविद्यालय देखने जाएँगे। फिर भागलपुर आएँगे और किशोर कुमार के ननिहाल का पूरा व्योरा लेने चलेंगे। मैंने उन्हें कहा कि आप आएँ तो विक्रमशिला विश्वविद्यालय और कर्ण गढ़ भी आपको ले चलेंगे जो भागलपुर के इतिहास की धरोहर है। मेरी माँ 30 जनवरी 2021 को सदा के लिए छोड़कर चली गई। माँ के बारे में उनसे बात हो रही थी, मैं रो पड़ी और वे भी अपनी माँ को याद कर रो पड़े। मेरे लिए उनके अंतिम शब्द थे ''चुप हो जाओ, रोओ नहीं, यही दुनिया है, ऐसे ही जीना होता है, 6 साल हो गए मेरी माँ को गए हुए लेकिन अब भी माँ को यादकर रो पड़ता हूँ, तुम्हारे लिए तो अभी-अभी की घटना है, खुश रहने का प्रयत्न करो और स्वस्थ रहो।''   

सुनील मिश्र जी से मेरा परिचय फेसबुक पर हुआ था। मैं उन दिनों अंतर्जाल पर नई थी। सुनील जी का फ्रेंड रिक्वेस्ट आया। मैंने देखा कि वे फिल्म क्रिटिक है, तो तुरंत उन्हें जोड़ लिया। यूँ भी फिल्म देखना मेरा पसंदीदा कार्य है। सुनील जी के नियमित कॉलम अखबारों में आते रहते थे और फिल्म की समीक्षा भी। किसी भी नए फिल्म की उनके द्वारा लिखी समीक्षा पढ़कर मैं फिल्म देखने का अपना मन बनाती थी, सलमान की फिल्में छोड़कर (सलमान खान की हर फिल्म देखती हूँ)। 
सिनेमा पर सर्वोत्तम लेखन के लिए अवार्ड लेते सुनील जी
सुनील जी से जब आत्मीयता बढ़ी, तब जाना कि वे वरिष्ठ फिल्म समीक्षक ही नहीं बल्कि लेखक, नाटककार, कवि, कला मर्मज्ञ, वरिष्ठ पत्रकार और मध्यप्रदेश के कला संस्कृति विभाग में अधिकारी हैं। उनके नाटकों का मंचन समय-समय पर होता रहता है, जिसका विडियो मैंने देखा। सन 2006 में सुनील जी ने अमिताभ बच्चन पर पुस्तक लिखी 'अजेय महानायक'। मई 2018 में सुनील जी को सिनेमा पर सर्वोत्तम लेखन के लिए 65 वाँ नेशनल अवार्ड मिला है। 
अमिताभ बच्चन जी का पत्र सुनील जी के नाम
फिल्म और कला से जुड़े सभी क्षेत्र के लोगों के साथ वृहत संपर्क रहा है उनका। मुझे याद है, सलीम साहब और हेलेन के साथ उनकी तस्वीर देखकर मैंने कहा कि आप मुझे सलमान खान से मिलवा दीजिएगा। वे हँस पड़े और कहे कि यह तो मुश्किल काम है पर कोशिश करेंगे; सलमान सचमुच दिल का बहुत अच्छा इंसान है। 
सलीम साहब और हेलेन जी के साथ सुनील जी
फिल्मों पर उनसे खूब बातें होती थीं। धर्मेन्द्र के वे बहुत बड़े प्रशंसक हैं और इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने फेसबुक पर धर्म छवि के नाम से प्रोफाइल बनाया है।
धर्मेन्द्र पापाजी को उनके जन्मदिन पर बधाई देते सुनील जी
सुनील जी से घनिष्टता बढ़ने के बाद उनके बहुमुखी व्यक्तित्व के हर पहलू को देखा मैंने। वे इतने सहज और सामान्य रहते थे कि शुरू में मुझे पता ही नही चलता था कि वे कितने बड़े विद्वान् और संस्कृतिकर्मी हैं। वे अपने प्रशंसनीय कार्य की चर्चा नहीं करते थे। उनके बारे में या उनके लिखे को कहीं पढ़ा तब पूछने पर वे बताते थे। फिल्म ही नहीं बल्कि कला और साहित्य के हर क्षेत्र पर उनकी पकड़ बहुत मज़बूत है। उनकी हिन्दी इतनी अच्छी है कि मैं अक्सर कहती थी - आपके पास इतना बड़ा शब्द-भण्डार कहाँ से आता है? उनकी कविताओं में भाव, बिम्ब और प्रतीकों का इतना सुन्दर समावेश होता है कि मैं चकित हो जाती हूँ। 

बाएँ किनारे सुनील जी, बीच में 3 बहुरुपिया, दाएँ किनारे मैं
5 - 7 अक्टूबर 2018 को इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली में बहुरुपिया फेस्टिवल हुआ था। वहाँ 6 अक्टूबर को मैं सुनील जी से मिलने गई। यह मेरा पहला और आख़िरी मिलना हुआ उनसे। बहुत सारे बहुरूपियों से मेरा परिचय कराया उन्होंने। मेरे लिए यह अद्भुत अनुभव था। मैंने पहली बार बहुरूपियों का जीवन, उनकी कर्मठता, उनकी कला, उनकी परेशानियों को जाना।   
बाएँ किनारे सुनील जी, बीच में दो बहुरुपिया, दाएँ किनारे मैं
सुनील जी कला के कर्मयोगी थे। उनकी पारखी नज़रें कला को गंभीरता से देखती थीं फिर उनकी कलम चलती थी। कभी-कभी मैं उनसे कहती थी कि आप इतने बड़े-बड़े लोगों को जानते हैं, मुझ जैसे साधारण दोस्तों को कैसे याद रखते हैं? वे हँसकर कहते कि वे सभी औपचारिक और कार्य का हिस्सा हैं। कुछ ही ऐसे हैं जिनसे व्यक्तिगत जुड़ाव है। अब उसमें चाहे कोई बड़ी हस्ती हो या तुम जैसी सहज मित्र, सब मुझे याद है और साथ हैं। उनकी कार्यक्षमता, कार्यकुशलता, कर्मठता, विद्वता, लेखनी सबसे मैं अक्सर हैरान होती रहती थी। अकूत ज्ञान का भण्डार और विलक्षण प्रतिभा थी उनमें।   
सुनील जी द्वारा लिखी पुस्तक
2017 की बात है। फेसबुक पर उनकी कविताएँ कम दिख रही थीं। मैंने पूछा कि कविताएँ नहीं दिख रहीं, तो उन्होंने बताया कि इंस्टाग्राम पर पोस्ट है। इंस्टाग्राम डाउनलोड करना और उसके फीचर्स भी उन्होंने बताए मुझे। कोरोना काल में हम सभी का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। आशंका और भय का वातावरण था। ऐसे में सुनील जी ने 16 अप्रैल 2020 को ग़ज़ल सिंगर जाज़िम शर्मा जी के साथ पहला लाइव संवाद किया। मैं फेसबुक और इंस्टाग्राम पर कोशिश करती रही कि देखूँ पर तकनीक का अल्प ज्ञान होने के कारण समझ ही नहीं आया कि लाइव कहाँ हो रहा है। सुनील जी से बात हुई तो उन्होंने कहा कि क्यों न ऐसे लाइव को रोज़ किया जाए और हमारे बात करते-करते ही कार्यक्रम का नाम बातों बातों में रख दिया उन्होंने।   

23 अप्रैल 2020 को 'इंस्टा - बातों बातों में' के लाइव की पहली कड़ी प्रस्तुत हुई जिसमें उन्होंने सर्वेश अस्थाना जी (विख्यात हास्य व्यंग्य कवि) को संवाद के लिए आमंत्रित किया। मैं पहली दर्शक-श्रोता थी, क्योंकि इस बार मैं अच्छी तरह समझकर इंस्टाग्राम खोल कर बैठी थी। बहुत रोचक कार्यक्रम हुआ। पहले दिन कम लोग थे, परन्तु हम सभी का परिचय उन्होंने सर्वेश जी से करवाया। बहुत सफल कार्यक्रम रहा और सुनील जी बहुत प्रसन्न थे। फिर यह कार्यक्रम हमारे कोरोना-काल का हिस्सा बन गया। निर्धारित समय पर रोज़ अलग-अलग विख्यात हस्ती के साथ संवाद का यह कार्यक्रम चलता रहा। 
31 जुलाई को 100 वीं कड़ी हुई, जिसमें निर्देशक-अभिनेता सतीश कौशिक दोबारा आमंत्रित थे। सुनील जी इस दिन बहुत प्रसन्न थे और बोले कि वे सोचे ही नहीं थे कि बात करते-करते 'बातों बातों में' कार्यक्रम बन जाएगा और इतना सफल होगा। सुविधा के अनुसार कार्यक्रम का दिन और समय बदलता रहा लेकिन यह सिलसिला चलता रहा। इसी बीच इरफ़ान खान, सुशांत सिंह राजपूत, ऋषि कपूर, बासू चटर्जी, जगदीप की मृत्यु हुई। इसपर अलग से ट्रिब्यूट के लिए कार्यक्रम रखा उन्होंने।
14 अप्रैल 2021 को 'इंस्टा - बातों बातों में' की 175 वीं कड़ी थी. पिछले दो माह से मैं नेट से दूर थी, क्योंकि मेरी माँ का देहांत हुआ था
। 14 अप्रैल को न जाने क्या हुआ कि सुनील जी से काफी लम्बी बातें हुईं, भागलपुर आने का कार्यक्रम बना और फिर शाम को लाइव देखा मैंने। 14 अप्रैल तथा 175 वीं कड़ी अंतिम कड़ी बन गई सुनील जी और हमारे बीच की। 22 अप्रैल 2021 को  रात्रि 8 बजे वे हम सबको छोड़कर चले गए, जहाँ से अब वे कभी न आएँगे न मुझे कुछ ज्ञान की बात बताएँगे। आपसे दुनियादारी बहुत सीखा मैंने, आपको कभी भूल नहीं पाएँगे। आपको श्रधांजलि अर्पित करते हुए प्रणाम करती हूँ

सुनील जी अपनी आवाज़, अपनी लेखनी, अपनी विद्वता, अपनी सहृदयता के साथ हमारे दिलों में सदा जिएँगे। सुनील जी की एक कविता :
 
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कोई कविता सृजित हो रही होगी
- जेन्नी शबनम (23. 4. 2021)
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Wednesday, April 7, 2021

86. श्री रमेश कुमार सोनी जी द्वारा 'लम्हों का सफ़र' की समीक्षा

लम्हों का सफ़र (कविता-संग्रह) डॉ. जेन्नी शबनम

प्रकाशक : हिन्द-युग्म ब्लू, नोएडा, सन - 2020

मूल्य - 120/-रु., पृष्ठ - 112, ISBN NO. : 978-93-87464-73-5

भूमिका-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु एवं संगीता गुप्ता

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शब्दों में सिमटे हुए लम्हों के सफ़र -

                आपके इस जीवन में यथार्थ की धरातल पर भोगे हुए अच्छे-बुरे पलों की पड़ताल करती कविताओं का यह एक गुलदस्ता है जिसमें एक संवेदनशील स्त्री के बनते-बिखरते अरमानों का शब्दांकन है ये कविताएँ अपने वक़्त की जुगाली करती हुई वर्तमान की धरातल पर उसका डिसेक्शन करती हैं और विचारों की हाँडी में इसे पकाकर परोस देती हैं कविताएँ यूँ तो ख़ामोशी की पड़ताल करती हैं लेकिन इसकी आगोश में अब चीखक्रंदन और आन्दोलनों के स्वर भी शामिल हुए हैं 

                आपका यह प्रथम काव्य-संग्रह इन सात भागों में विभाजित है - जा तुझे इश्क होअपनी कहूँरिश्तों का कैनवासआधा आसमानसाझे सरोकारजिंदगी से कहा-सुनी और चिंतन इसे आपने अपने पूज्य माताजी एवं पिताजी को सादर समर्पित किया है इस संग्रह का केन्द्रीय भाव - ‘स्त्रियों की आवाज़ को बुलंद करना है यह संग्रह उनके भोगते हुए वर्तमान और भूतकाल की पीड़ा से ऊपर उठकर एक स्वर्णिम भविष्य रचना चाहती है   

                इस जीवन में कोई किसी की जिंदगी नहीं जी सकता लेकिन वह ज़रूर चाहता है कि अगला व्यक्ति उसकी तरह व्यवहार करे, उसके इशारे पर उठे-बैठे और हँसे-रोए, जो संभव ही नहीं, ख़ासकर किसी युगल के जीवन में स्त्रियों के लिए तो बिलकुल भी नहीं इनका जीवन पुरुषों के मुक़ाबले काफ़ी सुकोमल और चिन्तनमना होता हैकविता के द्वारा इस दर्द को सहने हेतु एक श्राप देने की कोशिश आपने की है, वह भी बड़ी अजीब है कि ''जा तुझे इश्क हो।'' 

       ...ग़ैरों के दर्द को महसूस करना और बात है / दर्द को जीना और बात / एक बार तुम भी जी लो, मेरी जिंदगी / जी चाहता है / तुम्हें शाप दे ही दूँ - / ''जा तुझे इश्क हो।'' 

              जीवन की गाड़ी के दोनों पहिए गर साथ चलें तो गृहस्थी बेहतर चलती है, लेकिन यदि एक की राह में पगडंडी हो और एक की राह में आकाश हो तो ये पंक्तियाँ सहज ही जन्म लेती हैं -

      ...अबकी जो आओतो मैं तुमसे सीख लूँगी / ख़ुद को जलाकर भाप बनना / और बिना पंख आसमान में उड़ना / अबकी जो आओ / एक दूसरे का हुनर सीख लेंगे / मेरी पगडंडी तुम्हारा आसमान / दोनों को मुट्ठी में भर लेंगे / तुम मुझसे सीख लेना... / मैं सीख लूँगी... 

            जब कोई अपनी बातों की गठरी किसी अपने या साहित्य के आँचल में खोलती है, तो उसकी अपनी आपबीती कुछ यूँ प्रकट हो ही जाती है -

      ...दर्द में आँसू निकलते हैंकाटो तो रक्त बहता है / ठोकर लगे तो पीड़ा होती हैदग़ा मिले तो दिल तड़पता है / ...मेरे जज़्बात मुझसे अब रिहाई माँगते हैं / ... / हाँ, मैं सिर्फ़ एक शब्द नहीं / साँसे भारती हाड़-मांस की / मैं भी जीवित इंसान हूँ   

               कुछ देर और ठहर जाने पर पता चलता है कि गाँव की खुशबू साथ लिए वो नन्ही लड़की शहर चली गई, जहाँ शायद वह पत्थरों में चुन दी गई आज भी इन कविताओं में कवयित्री के अतीत के अंतहीन दर्द को महसूस किया जा सकता है, विशेषकर जब उसे 'बेचारी' शब्द का संबोधन सुनने को मिलता है तब यह दर्द फफोले की तरह सीने में अकसर उभर आता है इसी दौर में वह पुकार उठती है एक छोटी बच्ची बनकर, अपने बाबा को यह कहते हुए कि - ''बाबा आओ देखो! तुम्हारी बिटिया रोती है।'' इसी बिटिया की सभी चाहतें उसके गुल्लक में बंद हैं;  बरसों से सोचती थी कि इनसे वह अपने सपने खरीदेगी, लेकिन यह मुमकिन नही हो पाया और वह लिख पड़ी -

      ...गुल्लक और पैसेमेरे सपनों की यादें हैं... / चलन से मैं भी उठ गई और ये पैसे भी मेरे... / एक ही चुनरी में बँधे सब साथ जीते हैं... / ...मेरे पैसेमेरे सपनेगुल्लक के टुकड़े और मैं

            रिश्तों को सँभालने का ज़्यादा दायित्व चाहे-अनचाहे स्त्रियों पर थोप दिया जाता है। इसी परम्परा को निभाते हुए जेन्नी जी अपने पिताजी और माताजी की यादों की निशानियाँ सहेजती हैं और अपने पुत्र के लिए लिखती हैं -         

     ''...अपनी तमाम संवेदनाएँ तुममें भर दूँ /...तुम जीवन युद्ध में डटे रहोगे / जो तुम्हें किसी के विरुद्ध नहीं / बल्कि स्वयं को स्थापित करने के लिए करना है...'' और अपनी पुत्री के लिए लिखती हैं - ...सिर्फ़ अपने दम पर / सपनों को पंख लगाकर / हर हार को जीत में बदल देना / तुम क्रांति-बीज बन जाना!'' तथा ''...दूसरों... / ताकि धरातल पर, जीवन की सुगंध फैले / और तुम्हारा जीवन परिपूर्ण हो / जान लो / सपने और जीवन / यथार्थ के धरातल पर ही / सफल होते हैं।''

          वाक़ई इस दौर में माताओं के ही हिस्से में रह गया है कि वे अपनी संतानों को सुसंस्कारित बनाएँ; पुरुष प्रधान इस  युग की यही एक बड़ी विडम्बना है कि वे स्वयं इस ओर से पूर्णतः ग़ैरजिम्मेदार रहते हैं। यद्यपि रिश्तों के संधान के बारे में यह कहा जाता है कि - ये त्याग की मज़बूत धरातल पर टिके होते हैं और स्वार्थ की मामूली आँधी में भरभराकर टूट जाते हैं।

                वर्तमान दौर का सबसे बड़ा स्लोगन है - ''बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ''। हमें इसकी ज़रुरत इसलिए पड़ी क्योंकि हमने तमाम स्त्रियों को भोग्या समझा और कन्या के लालन-पालन को सबसे बड़ा सिरदर्द; फलतः एक नई समस्या हमारे समक्ष खड़ी हुई - कन्या भ्रूण हत्या, तथा जन्म हुआ एक पैशाचिक कृत्यों वाले समय का ऐसे दौर में हमारी आधी आबादी आज हमारे समक्ष स्वतंत्रता के लिए आंदोलित और मुखरित हुई जो स्वाभाविक ही है। ऐसी ही साथियों के लिए जेन्नी जी लिखती हैं एक आंदोलित कविता - ‘मैं स्त्री हूँ। आपने वाजिब सवाल उठाया है कि आख़िर क्यों अलग है स्त्रियों और पुरुषों के गणित, विज्ञान और उनके जीवन का फार्मूला? इसे समझने के लिए दोनों को एक जैसा होना ही होगा - बहुत सुन्दर पंक्तियाँ। आपने 'झाँकती खिड़की' कविता के ज़रिए किसी लड़की की इच्छाओं को व्यक्त किया है -

            ''...कौन पूछता हैखिड़की की चाह / अनचाहा-सा कोई / धड़धड़ाता हुआ पल्ला ठेल देता है / खिड़की बाहर झाँकना बंद कर देती है / आस मर जाती है / बाहर एक लम्बी सड़क है / जहाँ आवागमन है जिंदगी है / परखिड़की झाँकने की सज़ा पाती है / अब न वह बाहर झाँकती है / न उम्र के आईने को ताकती है।''

          अपनी कविताओं में आप स्त्रियों के पक्ष में वज़नदार तरीके से पक्षधरता को निभाते हुए लिखती हैं -

                 ''...घर भी अजनबीऔर वो मर्द भी / नहीं है औरत के लिएकोई कोना / जहाँ सुकून सेरो भी सके।'' 

             ''... /ओ पापी कपूतों की अम्मा! / तेरे बेटे की आँखों में जब हवस दिखा था /क्यों न फोड़ दी थी उसकी आँखें...।''

               इस समय हमें ज़रुरत है एक साझे सरोकार की, जब हम यह कहने से नहीं हिचकें कि ''मेरा भी जाता हैमुझे भी लेना-देना है, ये मेरे परिवार से है।'' इस युग में हम सिर्फ़ शासक होकर ज़िंदा नहीं रह सकते और न ही ये मान सकते कि -

         ''... / शासक होना ईश्वर का वरदान है / शोषित होना ईश्वर का शाप!''

          ''... / ओ संगतराश! / कुछ ऐसे भी बुत बनाओ / जो आग उगल सके / पानी को मुट्ठी में समेट ले / हवा का रुख़ मोड़ दे / ... / गढ़ दो, आज की दुनिया के लिए / कुछ इंसानी बुत!''

               आपने भागलपुर के दंगों की आँखों देखी लिखी है; जहाँ इंसानों को आपने हैवान बनते देखा है, जहाँ आपने रिश्तों को खून से लहूलुहान देखा है और इतनी विभीषिका के बीच आपने अपने आपके भीतर की मनुष्यता को बचाए रखा है ,ये सबसे बड़ी बात है। इस तरह के तीन वाक़यों से मैं भी गुज़रा हूँ, तो समझ सकता हूँ कि इस दौर में कैसे  ज़िंदा रहा जाता है। वाक़ई जब हमें दूसरों के दर्द का अहसास होता है तभी हम सही मायने में इंसान हैं, वर्ना यहाँ ज़िंदा तो घूमती-फिरती लाशें भी हैं। ‘मालिक की किरपा’ कविता ग़रीबी में पलते अंधविश्वास पर करारी चोट है।

            कोई भी साहित्यकार के पास ये एक बड़ी पूँजी होती है कि वे अपने वक़्त और ज़िंदगी की आँखों में आँखें डालकर बात कर सके, साथ ही अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कह सके।

            ''... / सब के पाँव के छाले / आपस में मूक संवाद करते हैं /अपने-अपनेलम्हों के सफ़र पर निकले हम / वक़्त को हाज़िर नाज़िर मानकर / अपने हर लम्हे को यहाँ दफ़न करते हैं / चलो अब अपना सफ़र शुरू करते हैं।''

                वाक़ई ज़िंदगी एक बेशब्द किताब की तरह है,  जहाँ शब्द हमारे ज़ुबाँ से झरते हैं, यही हमारा पासवर्ड भी है; यूँ ही कोई आकर हमें कुरेदकर हमारी इस किताब को मुफ़्त में नहीं पढ़ सकता। इस ज़िंदगी में हमें अपने लिबास सहेजते हुए कहना ही होगा - ‘कहो ज़िंदगी और लिखना ही होगा रोज़ एक ख़त अपने ही नाम का, क्योंकि चारों ओर काला जादू पसरा हुआ है -

         ''... / मैंने किसी काकुछ भी तो न छीनान बिगाड़ा / फिर मेरे जीवन मेंरेगिस्तान कहाँ से पनप जाता है / कैसे आँखों में, आँसू की जगहरक्त-धार बहने लगती है / कौन पलट देता हैमेरी क़िस्मत / कौन है, जो काला जादू करता है?''

             वर्तमान युग में जीवन के लिए चिन्तन एक ज़रुरी पक्ष है, जिसमें हम अपने खोए-पाए का हिसाब रखते हैं कि कब हमें कितना हँसना-हँसाना है और कब हमें रोना है, हमारे जीवन की धुरी क्या है? प्रेम का रंग क्या है? मेरी आत्मा उसकी आत्मा से अलग कैसे है? इन्हीं सब प्रश्नों के इर्द-गिर्द हमारी ज़िंदगी किसी चकरघिन्नी की तरह घूमते रहती है ऐसे ही हालातों में ये शब्द गढ़े जाते हैं -

     ''हँसी बेकार पड़ी हैयूँ ही कोने में कहीं / ख़ुशी ग़मगीन रखी है, ज़ीने में कहीं / ज़िंदगी गुमसुम खड़ी हैअँगने में कहीं / अपने इस्तेमाल की आस लगाए ठिठके सहमे से हैं सभी...''   

मैं वाली इस दुनिया में हम कहाँ समझ पाते हैं कि -

           ''... / हर पल मेरे बदन में हज़ारों मछलियाँ / ऐसे ही जनमती और मरती हैं / उसकी और मेरी तक़दीर एक है / फ़र्क महज़ ज़ुबान और बेज़ुबान का है / ...''

                 आपकी कविता ज़िंदगी की खुरदरी सतह पर संवेदनाओं का गीत है, अपने आसपास के सामजिक सरोकारों की पड़ताल हैदबी ज़ुबान से बोले जाने वाले प्रश्नों को खुलेपन से कहने का साहस रखती है इन कविताओं में एक स्त्री का स्वाभिमान बोलता है कि कैसी-कैसी परिस्थितियों के साथ उसे दो-चार होना होता है, जो उसके और समाज के लिए विचारणीय बिंदु है आपके शब्द जीवंत होकर सीधे ही पाठकों को खदबदाने का साहस रखते हैं और ये अपने लम्हों के मुनीम भी हैं

            अच्छी रचनाओं के इस पठनीय संग्रह के लिए आपको बधाई एवं शुभकामनाएँ!


होली - 2021

 

रमेश कुमार सोनी

कबीर नगर, रायपुर 

छत्तीसगढ़ - 492099

संपर्क - 7049355476 / 9424220209

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