Monday, November 16, 2020

82. अधूरे सपनों की कसक

जून 2019 की बात है, एक दिन हमारी ब्लॉगर मित्र श्रीमती रेखा श्रीवास्तव जी का सन्देश प्राप्त हुआ कि वे कुछ ब्लॉगारों के 'अधूरे सपनों की कसक' शीर्षक से अपने संपादन में एक पुस्तक प्रकाशन की योजना बना रही हैं; अतः मैं भी अपने अधूरे सपनों की कसक पुस्तक के लिए लिख भेजूँ। अपने कुछ अधूरे सपनों को याद करने लगी, जो अक्सर मुझे टीस देते हैं। यूँ सपने तो हज़ारों देखे मैंने, मगर कुछ ऐसी ही तक़दीर रही, मानो नींद में सपना देखा और जागते ही सब टूट गया हो। कुछ सपने ऐसे भी देखी जिनको पूरा करने की दिशा में न कोई कोशिश की न एक कदम भी आगे बढ़ाया। कुछ सपने जिनके लिए कोशिश की, मगर वे अधूरे रह गए। मेरे ये कुछ अधूरे सपने 'अधूरे सपनों की कसक' पुस्तक में शामिल है, जिसे ज्यों का त्यों प्रेषित कर रही हूँ; इस विश्वास के साथ कि कोई भी मुझे यहाँ पढ़ें, वे अपने सपनों को पूरा करने में अवश्य लग जाएँ, अन्यथा उम्र भर टीस रह जाएगी। अगर सपने पूर्ण न हो सकें, तो कम-से-कम यह संतोष तो रहेगा कि हमने कोशिश तो की थी। अन्यथा आत्मविश्वास ख़त्म होने लगता है और जीवन के दुरूह राहों से समय से पहले ही भाग जाने को मन तत्पर रहता है
 अधूरे सपनों की कसक
 
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अपने छूटे   
सब सपने टूटे,   
जीवन बचा   

सपने देखने की उम्र कब आई कब गुजर गई, समझ न सकी। 1978 में जब मैं 12 वर्ष की थी, पिता गुजर गए तब अचानक यूँ बड़ी हो गई, जिसमें सपनों के लिए कोई जगह नहीं बची पिता के गुजर जाने के बाद एक-एक कर मैंने शिक्षा की उच्च डिग्रियाँ हासिल की, और तब भविष्य के लिए कुछ सपने भी सँजोने लगी।   

कैसी पहेली   
ज़िन्दगी हुई अवाक्   
अनसुलझी।   

मेरे पिता यूनिवर्सिटी प्रोफेसर थे बचपन में उनकी ज़िन्दगी को देखकर उनकी तरह ही बनने का सपना देखने लगी; जब मैं कॉलेज में पढती थी 1993 में बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन में राजकीय महिला पॉलिटेकनिक में व्याख्याता के पद के लिए आवेदन किया था। मेरा स्थाई पता तब भी भागलपुर ही था, और उसी पते पर पत्राचार होता था उन दिनों मैं गुवाहाटी में अपने ससुराल में रह रही थी मुझे अपने प्रमाण पत्रों के साथ निश्चित तिथि को बुलाया गया था गुवाहाटी में होने के कारण मैं वक़्त पर पटना न जा सकी क्योंकि मेरा बेटा भी उस समय कुछ माह का ही था कुछ महीने के बाद दोबारा कॉल लेटर आया कि मैं अपने प्रमाण पत्रों के साथ उपस्थित होऊँ मैं जब तक पटना आई तब तक वह तिथि भी बीत गईफिर भी मैंने निवेदन किया कि चूकि मैं भागलपुर में नहीं थी अतः उपरोक्त तिथि पर उपस्थित न हो सकी, इसलिए एक बार पुनः विचार किया जाए संयोग से मेरे आवेदन पर विचार हुआ और मुझे सभी प्रमाण पत्र जमा करने और कॉल लेटर की प्रतीक्षा करने को कहा गया ऐसा दुर्भाग्य रहा कि मुझे उसी दौरान दिल्ली लौट जाना पड़ा और मिली हुई नौकरी मेरे हाथ से निकल गई अब तक इस बात का पछतावा है कि मैं उस समय पटना से बाहर क्यों गई मेरे स्थान पर किसी और को नौकरी मिल गई होगी, इस बात की ख़ुशी है पर अपने सपने के अधूरे रह जाने का मलाल भी बहुत है   

ताकती रही   
जी गया कोई और   
ज़िन्दगी मेरी। 
 
1995 में 'बिहार एलिजिबिलिटी टेस्ट फॉर लेक्चरशीप' (B E T) की लिखित परिक्षा मैंने पास की इंटरव्यू से पहले पता चला कि बिना पैसे दिए इंटरव्यू में सफल नहीं हो सकते हैं मैंने अपने विचार के विरुद्ध और वक़्त के अनुसार पचास हज़ार रुपये का प्रबंध किया. चूँकि उनदिनों हमारी आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब थी इस लिए यह नौकरी मुझे हर हाल में चाहिए थी तथा मेरे पसंद का कार्य भी था लेकिन ऐसा कोई व्यक्ति मुझे न मिल सका जो पैसे लेकर नौकरी दिला पाने की गारंटी देता मुझे यह डर भी था कि यदि पैसे भी चले गए और नौकरी भी न मिली तो उधार के पैसे कैसे वापस लौटाऊँगी यूँ मेरी माँ और भाई से लिए पैसे मुझे नहीं लौटाने थे लेकिन ससुराल पक्ष के एक रिश्तेदार से लिए पैसे मुझे लौटाने ही होते। अंततः घूस के लिए मैंने पैसे नहीं दिए इंटरव्यू दिया और मैं सफल रही कुल 15 सीट के लिए वैकेन्सी थी और मुझे 12 वाँ स्थान मिला था मैं बहुत खुश थी कि बिना घूस दिए मेरा चयन हो गया और मैं अपने सपने को पूरा कर पाई बाद में पता चला कि सिर्फ 11 लोगों को ही लिया गया और शेष 4 सीट को वैकेंट छोड़ दिया गया मुमकिन है पैसे नहीं देने के कारण हुआ हो या फिर राजनितिक हस्तक्षेप के कारण मेरे सपने टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर गए जब-जब 'बी. ई. टी'  (B E T) का प्रमाणपत्र और पोलिटेक्निक का कॉल लेटर देखती हूँ तो मन के किसी कोने में ऐसा कुछ दरकता है जिसकी आवाज़ कोई नहीं सुनता लेकिन वह कसक मुझे चैन से सोने नहीं देती है।   

ओ मेरे बाबा !   
तुम हो गए स्वप्न   
छोड़ जो गए |

यूँ तो मेरी ज़िन्दगी में बहुत सारी कमियाँ रह गईं जिनकी टीस मन से कभी गई नहीं पिता की मृत्यु के बाद उनके मृत शरीर का अंतिम दर्शन, उनका अंतिम स्पर्श नहीं कर पाई, यह कसक आजीवन रहेगी जीवन में एक बहुत बड़ा पछतावा यह भी है कि समय-समय पर मैंने ठोस कदम क्यों न उठाया वक़्त के साथ कुछ सपने ऐसे थे जिसे मैं पाना चाहती थी परन्तु उम्र बढ़ने के साथ-साथ मेरे जीवन में हार और खुद को खोने का सिलसिला शुरू हो गया। आज जब पाती हूँ कि जीवन में सब तरफ से हार चुकी हूँ और असफलता से घिर चुकी हूँ तो अपनी हर मात और कसक मुझे चैन से सोने नहीं देती है पिता नास्तिक थे मैं भी हूँ पर अब किस्मत जैसी चीज में खुद को खोने और खोजने लगी हूँ। नदी के प्रवाह में कभी बह न सकी, अपनी पीड़ा किसी से कह न सकी।

रिसता लहू   
चाक-चाक ज़िन्दगी   
चुपचाप मैं।

- जेन्नी शबनम (29. 6. 2019)

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Thursday, November 5, 2020

81. राम चन्द्र वर्मा 'साहिल' जी द्वारा 'लम्हों का सफ़र' की समीक्षा

 

आदरणीय राम चन्द्र वर्मा 'साहिल' जी जो विख्यात कवि एवं ग़ज़लकार हैं तथा महानगर टेलीफ़ोन निगम लिमिटेड से अवकाश प्राप्त अधिकारी हैं, ने मेरी पुस्तक 'लम्हों का सफ़र' की बहुत सुन्दर और सार्थक समीक्षा की है। उन्होंने एक नहीं दो बार मेरी पुस्तक को पढ़ा है, इसका कारण वे ख़ुद बता रहे हैं। मैं हृदय तल से कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने मेरी रचनाओं को तथा मुझे इतना मान दिया है। साहिल जी का स्नेह और आशीष सदा यूँ ही मुझे मिलता रहे यही कामना है। साहिल जी को आभार के साथ, उनके द्वारा की गई समीक्षा प्रस्तुत कर रही हूँ।  
 - जेन्नी शबनम 
'लम्हों का सफ़र' की समीक्षा 
- राम चन्द्र वर्मा 'साहिल' 

देर-आयद, दुरुस्त-आयद - इस लोकोक्ति का अर्थ प्रायः यह लिया जाता है कि देर से तो आए, चलो आए तो सही। परन्तु मैं मज़ाक के तौर पर इसका अर्थ ऐसे करता हूँ कि जो भी देर से आया या जो कार्य देर से किया गया, वही दुरुस्त है। ऐसा इसलिए भी कह रहा हूँ कि जिस कविता-संग्रह (लम्हों का सफ़र) का मैं यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ, डॉ. जेन्नी शबनम का यह संग्रह मुझे बहुत समय पहले मिला था। पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इसके विषय में मुझे जो भी लिखना था शायद मैं लिख कर शबनम जी के पास भेज चुका हूँ। परन्तु यह मेरी चूक थी, ऐसा हुआ नहीं था; यह बहुत बाद में मुझे आभास हुआ। इस चूक के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ। 
इस संग्रह की प्रायः सभी रचनाएँ मैं पढ़ चुका था। अब क्योंकि समय बहुत बीत गया, रचनाएँ फिर से पढ़ीं। हर रचना के अवलोकन पर ऐसा लगा जैसे किसी अलग ही दुनिया में पहुँच गया हूँ। हर रचना अपने आप में अनूठी तथा अपने अन्दर बहुत कुछ समेटे हुए लगी। कुछ रचनाओं का उल्लेख बहुत ही आवश्यक लग रहा है, जैसे - 
पहली कविता 'जा तुझे इश्क़ हो', इसका शीर्षक ही ऐसा दिया गया है जो कुछ सोचने पर विवश कर देता है। जैसे यह प्यार में बहुत गहरी चोट खाए किसी प्रेमी के दिल से निकली आह हो। और जो कुछ उसने भुगता है वह चाहता है कि सामने वाला भी इसे भुगते। इसकी ये पंक्तियाँ देखिए - 
''तुम्हें आँसू नहीं पसंद / चाहे मेरी आँखों के हों / या किसी और के / चाहते हो हँसती ही रहूँ / भले ही वेदना से मन भरा हो / ... कैसे इतने सहज होते हो / फ़िक्रमंद भी हो और / बिंदास हँसते भी रहते हो।''

'पगडंडी और आकाश', इसके भी अंश देखिएगा -
''पगडंडी पर तुम चल न सकोगे / उस पर पाँव-पाँव चलना होता है / और तुमने सिर्फ़ उड़ना जाना है।...
हथेली पर आसमान को उतारना / तुम अपनी माटी को जान लेना / और मैं उस माटी से बसा लूँगी एक नयी दुनिया / जहाँ पगडंडी और आकाश / कहीं दूर जाकर मिल जाते हों।''

'बाबा आओ देखो! तुम्हारी बिटिया रोती है', इस रचना में बिटिया की अंतर्वेदना को स्वयं महसूस कीजिए - 
''क्यों चले गए, तुम छोड़ के बाबा / देखो बाप बिन बेटी, कैसे जीती है / बूँद आँसू न बहे, तुमने इतने जतन से पाले थे / देखो आज अपनी बिटिया को, अपने आँसू पीती है।''

'वो अमरूद का पेड़', जहाँ लेखिका कदाचित स्वयं को खोज रही है -
''वह लड़की, खो गई है कहीं / बचपन भी गुम हो गया था कभी / उम्र से बहुत पहले, वक़्त ने उसे / बड़ा बना दिया था कभी / कहीं कोई निशानी नहीं उसकी / अब कहाँ ढूँढूँ उस नन्ही लड़की को?''

'इकन्नी-दुअन्नी और मैं चलन में नहीं', इस रचना में समय का बदलता रूप और उससे उपजी मानव-विवशताओं को शबनम जी ने किस प्रकार उकेरा है -
''वो गुल्लक फोड़ दी / जिसमें एक पैसे दो पैसे, मैं भरती थी / तीन पैसे और पाँच पैसे भी थे, थोड़े उसमें / सोचती थी ख़ूब सारे सपने खरीदूँगी इससे / इत्ते ढेर सारे पैसों में तो, ढेरों सपने मिल जाएँगे /...
अब क्या करूँ इन पैसों का?''

'उठो अभिमन्यु', इस कविता में कवयित्री ने अभिमन्यु के वीर-गति  प्राप्त हो जाने पर गर्भवती अभिमन्यु-पत्नी 'उत्तरा' गर्भ में पल रहे शिशु को कैसी उत्साहवर्द्धक प्रेरणा दे रही है, इसका मार्मिक वर्णन इस पद्यांश में देखिए - 
''क्यों चाहते हो, सम्पूर्ण ज्ञान गर्भ में पा जाओ / क्या देखा नहीं, अर्जुन-सुभद्रा के अभिमन्यु का हश्र / छः द्वार तो भेद लिए, लेकिन अंतिम सातवाँ/  वही मृत्यु का कारण बना / या फिर सुभद्रा की लापरवाह नींद / नहीं-नहीं, मैं कोई ज्ञान नहीं दूँगी / न किसी से सुनकर, तुम्हें बताऊँगी / तुम चक्रव्यूह रचना सीखो / स्वयं ही भेदना और निकलना सीख जाओगे।''

'नन्ही भिखारिन' में शबनम जी का संवेदनशील हृदय नन्ही भिखारिन से बात करते कैसे पीड़ा से रिसता है, देखिए - 
यह उसका दर्द है / पर मेरे बदन में क्यों रिसता है? / या ख़ुदा! नन्ही-सी जान, कौन सा गुनाह था उसका? / शब्दों में ख़ामोशी, आँखों में याचना, पर शर्म नहीं / हर एक के सामने, हाथ पसारती।''

'हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी बेकार है पड़ी', ज़िन्दगी का क्या चित्रण किया गया है इस रचना में; कुछ पंक्तियाँ देखते चलें - 
हँसी बेकार पड़ी है, यूँ ही एक कोने में कहीं / ख़ुशी ग़मगीन रखी है, ज़ीने में कहीं / ज़िन्दगी गुमसुम खड़ी है, अँगने में कहीं / अपने इस्तेमाल की आस लगाए / ठिठके सहमे से हैं सभी।'' 

इसी प्रकार कई चुनिन्दा कविताएँ हैं जिन्होंने मुझे उद्वेलित किया है। मैं चाहता तो हूँ सभी का थोड़ा-थोड़ा उल्लेख करना, परन्तु डर है कि कहीं ऐसा किया तो मेरी बात बहुत ही लम्बी हो जाएगी जोकि उचित नहीं होगी। हक़ तो शबनम जी का बनता है कि मैं ऐसा करूँ, परन्तु नहीं। मुझे लगता है, विद्वान लेखकों ने भी, जिन्होंने इस पुस्तक की भूमिका लिखी है; इसी तरह न चाहते हुए भी आगे लिखने से अपने हाथ खींच लिए होंगे और उन्हें भी ऐसे ही अफ़सोस हुआ होगा जैसा मुझे हो रहा है। 

अंत में डॉ. शबनम जी की दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हुए अपनी बात को, न चाहते हुए भी, यहीं समेटता हूँ।

राम चन्द्र वर्मा 'साहिल'
131 - न्यू सूर्य किरण अपार्टमेंट्स
दिल्ली - 110092
मोबाइल  - 9968414848 
तिथि - 2. 11. 2020 
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