Wednesday, November 16, 2011

31. कल सुनना मुझे

ज़िन्दगी जाने किन किन राहों से गुजरी, कितने चौक चौराहे पर ठिठकी, कभी पगडण्डी कभी कच्ची तो कभी सख्त राह से गुजरी I ज़ेहन में न जाने कितनी यादें हैं जो समय समय पर हँसाती है, रुलाती है तो कभी गुदगुदाती है I उम्र के हर पड़ाव पर जब भी पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो ज़िन्दगी इतनी दूर नज़र आती कि लगता है जैसे वो लड़की मैं नहीं हूँ जिसके अतीत से मेरी यादें जुड़ी है, विशेषकर जन्मदिन की यादें I


भागलपुर के नयाबाजार में हमलोग किराए के जिस मकान में रहते थे वो एक ज़मींदार का बहुत बड़ा मकान है और यमुना कोठी के नाम से प्रसिद्द है I उस मकान की पूरी पहली मंज़िल हमलोगों ने किराए पर लिया था I खूब बड़ा बड़ा 4 छत, 6 कमरे, खूब बड़ा बरामदा I बरामदे में लोहे का पाया था जिसे पकड़कर गोल गोल घूमना मेरा हर दिन का खेल था I उस मकान के नीचे के हिस्से में अलग अलग कई किरायेदार थे I सभी से बहुत आत्मीय सम्बन्ध थे I मुझे अब भी याद है जब मैं दो साल की थी एक किरायेदार की शादी हुई I न जाने कैसे उस उम्र में हुई ये शादी मुझे अच्छी तरह याद है जबकि सभी कहते हैं कि इस उम्र की बातें याद नहीं रहती I जिनकी शादी हुई उनको मैं चाचा कहती थी और उनकी पत्नी मुझे इतनी अच्छी लगती थी कि मैं उनको मम्मी कहने लगी I जब थोड़ी और बड़ी हुई तब उन्हें चाची जी कहने लगी I सरोज चाचा से बड़े वाले भाई को ताऊ जी और उनकी बड़ी बहन को बुआ जी कहती थी I बचपन में मुझे समझ हीं नहीं था कि ये लोग मेरे सगे चाचा चाची या ताऊ बुआ नहीं हैं I स्कूल से घर आते हीं पहले उनके घर जाती थी फिर अपने घर I छुट्टी के दिनों में उनके साथ खूब खेलती थी I मिट्टी का छोटा चूल्हा, खाना बनाने के छोटे छोटे बर्तन, छोटा छोटा छोलनी कलछुल, चकला बेलना तावा चिमटा, छोटा सूप (चावल साफ़ करने के लिए), बाल्टी आदि सभी कुछ मेरे पास था I उन दिनों कोयला और गोयठा (गाय भैंस के गोबर से बना उपला) चूल्हा में जला कर खाना बनाया जाता था I मेरे छोटे चूल्हे में बिंदु चाची ताव (चूल्हा जलाना) देती थीं I फिर छोटे छोटे पतीले में भात (चावल), दाल, तरकारी (सब्जी) या कभी खिचड़ी बनाती थी I बड़ा मज़े का दिन होता था वो I मेरे पिता रोज़ 12 बजे यूनिवर्सिटी जाते थे और मेरी माँ अक्सर कार्य से बाहर रहती थी और मैं बिंदु चाची के साथ खूब खेलती थी I सभी बच्चे उनसे खूब हिले मिले थे I


जन्मदिन के मौके पर अपने बचपन का बीता हुआ एक जन्मदिन अब भी याद है I ये तो याद नहीं कि उम्र क्या थी मेरी लेकिन लगभग 5-6 साल की रही हूँगी I जन्मदिन पर केक काटने का रिवाज़ नहीं था मेरे घर में और न हीं आज की तरह कोई पार्टी होती थी I चाहे मेरा जन्मदिन हो या मेरे भाई का घर में बहुत बड़ा भोज होता था जिसमें मेरे पिता के भागलपुर विश्वविद्द्यालय में कार्यरत सहकर्मी शिक्षक, कर्मचारी, विभागाध्यक्ष, पिता के मित्र और स्थानीय रिश्तेदार आमंत्रित होते थे I पुलाव, दाल, तरकारी (सब्जी) खीर, दल-पूरी (दाल भरी हुई पूरी) ज़रूर बनती थी I दो फीट चौड़ी खूब लम्बी लम्बी चटाई ज़मीन पर बिछाई जाती थी जिसे पटिया कहते हैं, उस पर पंक्तिबद्ध बैठ कर सभी लोग खाना खाते थे I उपहार लाने की सभी को मनाही होती थी लेकिन कुछ बहुत अपने लोग उपहार ले हीं आते थे I मुझे याद है ताऊ जी (किरायेदार) ने एक खिलौना दिया था जो गोल लोहे का था और तार बाँध कर उसपर उसे चलाते थे I जाने क्यों वो मुझे बड़ा प्रिय था I मेरे भाई के जन्मदिन पर किसी ने घर बनाने का प्लास्टिक का अलग अलग रंग और आकार का ईंट दिया था जिससे घर बनाना भी बड़ा अच्छा लगता था I और अक्सर मैं अपने भाई के साथ घर बनाने का खेल खेलती थी I


पिता के देहांत के बाद भी जन्मदिन मनता रहा लेकिन वो जश्न, धूमधाम और भोज का आयोजन बंद हो गया I मेरे हर जन्मदिन पर मेरी दादी मेरे पापा को याद कर रोती थी, क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद पैसे भी नहीं थे और पापा के समय के सभी अपने भी बेगाने हो गए थे I दादी कहती थी ''बऊआ रहते तो कितना धूमधाम से जन्मदिन मनाते'', मेरी दादी मेरे पापा को बऊआ हीं कहती थी I स्कूल और कॉलेज के दिनों में मेरी किसी से बहुत मित्रता नहीं थी, अतः जन्मदिन पर कोई मेहमान नहीं आते थे I स्कूल के दिनों में बहुत ख़ास कोई सिनेमा दिखाने पापा ले जाते थे I जब कॉलेज गई तो हमारे माकन मालिक की बहन के साथ खूब सिनेमा देखती थी और बाद में सिनेमा देखना मेरा शौक बन गया I जन्मदिन के अवसर पर मम्मी के साथ सिनेमा देखना बाद में एक नियम सा बन गया I दिन में सिनेमा देखती थी और रात के खाना पर मम्मी के स्कूल के कुछ सहकर्मी आ जाते थे I और बस जन्मदिन ख़त्म !


एक जन्मदिन (1986) पर मुझे मेरी एक ज़िद अब तक याद है I हमारे पारिवारिक मित्र डॉ.पवन कुमार अग्रवाल जो भागलपुर मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर और सर्जन थे, मेरे पिता तुल्य थे, एक जन्मदिन पर उन्होंने एक कैसेट उपहारस्वरूप दिया I उन्होंने कहा कि जो भी गाना चाहिए रिकॉर्ड करवा देंगे I ''कितने पास कितने दूर'' फिल्म का एक गाना ''मेरे महबूब शायद आज कुछ नाराज़ हैं मुझसे'' मेरा बहुत प्रिय गाना था, लेकिन उनदिनों ये नहीं मालूम कि ये किस फिल्म का गाना है I कुछ गाना के साथ हीं ये गाना भी मैंने उनसे कहा कि रिकॉर्ड करवा दें I चूकि फिल्म का नाम मालूम नहीं था तो गाना ढूंढ़ पाना कठिन था, और मेरी ज़िद कि वो गाना चाहिए हीं चाहिए I मैं शुरू की जिद्दी I अपने पिता के बाद एक मात्र वही थे जिनसे मैं बहुत सारी ज़िद करती थी और वो पूरा भी करते थे, क्योंकि अपनी बेटी की तरह मानते भी थे मुझे I ख़ैर वो गाना कई दिन के मशक्कत के बाद उनको मिल पाया और मेरी ख़्वाहिश पूरी हुई I


अब भी सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक है. कई जन्मदिन ऐसा आया जब मेरे पति शहर से बाहर थे I बच्चों के स्कूल जाने के बाद मैं अकेली सिनेमा देखने चली जाती थी I अपने लिए अपने पसंद का उपहार ख़ुद खरीदना और ख़ुद को देना अब भी मुझे बहुत पसंद है I


बचपन में मुझे भी हर जन्मदिन में और बड़े होने का उत्साह होता था जैसे अब मेरे बच्चों को होता है I लेकिन अब... ज़िन्दगी का सफ़र जारी है जन्मदिन आता है चला जाता है I पार्टी होती है, कभी घर पर कभी बाहर I आज यहाँ भागलपुर में हूँ I रात की पार्टी की तैयारी चल रही है I संगीत की धुन सुनायी पड़ रही है I काफी सारे लोग आने वाले हैं I मेरी बेटी ख़ुशी ने सुबह से धमाल मचाया हुआ है I बेटा सिद्धांत दिल्ली में है, कॉलेज खुले हैं वो आ नहीं सकता I पति ने खूब सारी तैयारी कर रखी है I काफी सारे लोगों ने फ़ोन पर बधाई दिया I मेरे भाई भाभी जो इन दिनों हिन्दुस्तान से बाहर हैं का फ़ोन आया I मेरी माँ का फ़ोन आया, बोलते बोलते रोने लगी क्योंकि वो भागलपुर में नहीं है I इन सबके बावजूद न जाने क्यों मन भारी सा है I जानती हूँ पार्टी है हंसना चहकना है, यूँ पार्टी खूब एन्जॉय भी करती हूँ I लेकिन न जाने क्यों बचपन मेरा पीछा नहीं छोड़ता I क्यों बार बार मन वहीं भाग जाता है जहां की वापसी का रास्ता बंद हो जाता है I बचपन की खीर पूरी और भोज याद आ रहा है I अब तो जन्मदिन मनाना औपचारिकता सा लगता है I कुछ फ़ोन कुछ सन्देश बधाई के और जवाब शुक्रिया...


- जेन्नी शबनम (16. 11. 2011)


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Friday, November 11, 2011

30. तारीखों का तसव्वुर (11. 11. 11)

11. 11. 11 तारीख का पूरी दुनिया में हो रहा बेसब्री से इंतज़ार अब ख़त्म हुआ I यूँ इस तरह की कोई भी तिथि जब भी आती है जीवन में एक अलग सा उत्साह नज़र आता है I ऐसी ख़ास तिथियों को पढ़ना, बोलना और याद करना सहज लगता है I दिन, महीना और साल के अंक तो वही रहते हैं 1 से 30/31, 1 से 12 और 1 से 100 सिर्फ सन (ईस्वी) बदलता है I हर एक पल एक बार गुजरने के बाद जैसे वापस नहीं आता वैसे हीं एक बार आई हुई कोई भी तिथि कभी दोबारा नहीं आती और बहुत ख़ास होती है I इस तरह की तिथि जब भी आती है कुछ ख़ास होने का एहसास होता हीं है I साल में एक बार हीं ऐसा दिन आता है जब दिन महीना और साल का अंक एक हीं हो I पर ये भी सिर्फ 12 तक हीं होना है I और पूरी एक सदी के बाद फिर से ऐसी तिथि दोहराई जाएगी, लेकिन सदी का अंक बदल जाएगा I मुझे याद है बचपन में भी जब ऐसी कोई तिथि आती थी तो मन में एक अजीब सा उमंग आ जाता था I अक्सर सोचती थी कि अब ये तिथि दोबारा नहीं आएगी I

कोई ख़ास तिथि और कोई ख़ास दिन को हम सभी ख़ुद हीं अपने अपने हिसाब से महत्वपूर्ण बना लेते हैं I अपने नाम के लकी नंबर के हिसाब से बहुत सारे महत्वपूर्ण कार्य किये जाते हैं, जैसा कि ज्योतिषियों का परामर्श होता है, या फिर कुछ ख़ास दिन निर्धारित किये जाते हैं कि कब कोई शुभ कार्य किया जाए कब नहीं किया जाए I कुछ ख़ास रंगों का प्रयोग वर्जित कर दिया जाता है तो कुछ ख़ास रंग दिन के हिसाब से तय किया जाता है I परन्तु ये सभी व्यक्तिगत सोच और आस्था के साथ चलती है I इसे सिर्फ अंध विश्वास नहीं कह सकते बल्कि कार्य की सफलता की उत्तम संभावना के लिए किया गया एक प्रयास भी कह सकते हैं  I कई बार ऐसा होता है कि मान्यताएं और विश्वास हममें आत्मविश्वास पैदा करती हैं भले कार्य फलीभूत न हो, फिर भी एक संतुष्टि रहती है कि हर संभव प्रयास किया गया I तिथियों का महत्व इस लिए और भी ज्यादा होता है कि हर एक पल हमारा अपना इतिहास बन जाता है I इस लिए ख़ास तिथि को किया गया ख़ास कार्य हमारे जीवन में यादगार बन जाए बस इतनी सी बात है I

मुझे याद है ऐसी हीं एक ख़ास तिथि 1. 1. 2000 और उससे पहले का वक़्त I मेरे लिए भी यह मिलेनियम साल ख़ास महत्व रखता था I उस साल मिलेनियम बेबी की चाह ने देश के सभी अस्पतालों में जैसे सैलाब ला दिया था I सभी अस्पताल, नर्सिंग होम और डॉक्टर पहले से बुक हो चुके थे I जिन बच्चों का जन्म 1. 1. 2000 से 10 दिन आगे पीछे होना था सभी माता पिता चाहते थे कि उनके बच्चे का जन्म उसी दिन हो I मुझे याद है मैंने अपनी डॉक्टर से कहा कि मैं भी 1 जनवरी को हीं अपने बच्चे को जन्म देना चाहती हूँ, जबकि उसका जन्म का दिन 6 या 7 तारीख निर्धारित था I डॉक्टर ने कहा कि कई सारे कम्प्लिकेशंस मेरे साथ हैं अतः ये रिस्क होगा I मेरी बेटी मिलेनियम बेबी बने हीं ये तो कहना मुश्किल था क्योंकि उस दिन करोड़ों बच्चे जन्म लेने वाले थे I

31 दिसंबर 1999 की रात एक ख़ास यादगार रात थी क्योंकि हम दूसरी सदी में प्रवेश करने वाले थे I एक अनोखा उत्साह पूरी दुनिया में व्याप्त था I हमें भी दो सदी में अपनी उपस्थिति का एहसास बड़ा अच्छा लग रहा था I बसंत विहार का एक होटल जो उन दिनों बसंत कॉन्टिनेंटल कहलाता था में बहुत बड़ा आयोजन होना था I मैं भी अपने परिवार के साथ वहाँ गई I भीड़ इतनी कि ख़ुद को संभालना मुश्किल, और मेरे गर्भ का अंतिम सप्ताह I कई लोगों ने मना किया, मैंने कहा कि जो होगा देखेंगे, कुछ हुआ तो हॉस्पिटल चल देंगे I भीड़ में सभी एक दूसरे से अलग हो गए, मेरे साथ सिर्फ मेरी माँ रह गयी I उन दिनों मेरे पास फ़ोन भी नहीं था और न पैसा लेकर चले थे I किसी तरह भीड़ में घुसकर रात का खाना खाया क्योंकि मधुमेह के कारण खाना खाना अतिआवश्यक था I एक भी कार्यक्रम नहीं देख सकी, क्योंकि वहाँ तक भीड़ में पहुंचना किसी दुर्घटना का शिकार होना था I अंत में किसी सज्जन से फ़ोन मांग कर अपने पति को फ़ोन किया और फिर हम घर वापस आये I थकावट के कारण 1. 1. 2000 को मुझे अस्पताल जाना पड़ा I डॉक्टर ने कहा कि अगर इतनी हीं इच्छा है तो आज भी डेलिवरी की जा सकती है लेकिन अगर 7 को हो तो बेहतर है I सब कुछ ठीक ठाक था अतः मिलेनियम साल के पहले दिन की इच्छा को त्याग कर निर्धारित 7 जनवरी को हीं बेटी का जन्म हुआ I

आज का दिन 11. 11. 11 यूँ तो अब 100 साल के बाद आएगा पर आज का दिन बाज़ार के लिए बहुत अच्छा साबित हो रहा है I ज्योतिषियों ने भी कहा है कि आज के दिन गाड़ी-ज़मीन-मकान का क्रय, बच्चे का जन्म, कोई महत्वपूर्ण कार्य आदि शुभ है I  सुना है कि अदाकारा एश्वर्या रॉय के बच्चे का जन्म आज हीं होगा I आज क्या क्या ख़ास होता है देखते हैं I अक्सर सोचती हूँ कि प्रकृति का नियम है सबकुछ अपने तय वक़्त पर होना I सभी तारीख और दिन अपने तय वक़्त पर आयेगा हीं और ये भी मानना चाहिए कि जब जो होता है अच्छे के लिए हीं होता है I आज कि तिथि 11. 11. 11 के लिए सभी को शुभकामनाएं, सभी के लिए आज का दिन ख़ास हो !

- जेन्नी शबनम 11. 11. 11

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Tuesday, November 1, 2011

29. 'बोल' के बोल

''मारना ज़ुर्म है तो पैदा करना क्यों नहीं?'' ''नाजायज़ बच्चा पैदा करना गुनाह है तो जायज़ बच्चों की लम्बी कतार जिसकी परवरिश नहीं कर सकते गुनाह क्यों नहीं है?'' ये सवाल ऐसे हैं जिससे दुनिया के किसी भी मुल्क़ का विवेकशील इंसान जो ज़रा भी इंसानियत से इत्तेफ़ाक़ रखता है के ज़ेहन में कौंध सकता है अगर नहीं कौंधता तो शर्मनाक है, इंसानियत के लिए भी, इंसानी कौम के लिए भी और मुल्क़ के लिए भी पाकिस्तानी फिल्म 'बोल' की नायिका जिसे हत्या के आरोप में फाँसी की सज़ा होती है, की आख़िरी ख़्वाहिश के मुताबिक़ मीडिया वालों के सामने फाँसी से पहले कुछ कहना चाहती है, जबकि उसने किसी भी न्यायालय में अपनी ज़ुबान नहीं खोली और अपना गुनाह कबूल किया है वो ये सवाल सिर्फ़ अपने देश के राष्ट्रपति से नहीं कर रही, बल्कि आम अवाम से कर रही है आख़िर क्यों सम्मान के नाम पर बेटियों को अनपढ़ रखा जाए और जानवरों-सी ज़िन्दगी जीने के लिए विवश किया जाए? ''जब औरत के सामने मर्द लाजवाब (निरुत्तर) हो जाता है तो हाथ उठाता है'', ये सिर्फ 'बोल' की नायिका का कथन ही नहीं बल्कि हर मर्द की आदत है अपनी शक्ति दिखा कर स्त्री को अधीन में रखना पूरी दुनिया की औरतों की नियति है और पुरुष का व्यभिचार! आख़िर कब तक सहन करे?


पुत्र मोह में बेटियाँ ज्यादा हो तो उसे जानवरों-सी ज़िन्दगी जीने पर विवश होना पड़ता है पुत्र अगर मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग हो तो भी उसे स्वीकार किया जाता है लेकिन पुत्र अगर पुरुष न होकर स्त्री का गुण ले ले तो न सिर्फ समाज से बल्कि घर में भी तिरस्कृत होता है 'बोल' की नायिका का भाई जिसमें स्त्री के गुण हैं, पिता द्वारा सदैव तिरस्कृत रहता है। यहाँ तक कि पिता उसे देखना भी बर्दाश्त नहीं करता है, अतः माँ और बहनों का वह लाडला पिता के सामने कभी नहीं आता है समाज का एक कुरूप चरित्र है कि वैसे पुरुष को भी पुरुष से ही बचना होता है, क्योंकि मौक़ा पाकर उसे भी हवस का शिकार बना लिया जाता है नायिका के भाई का बलात्कार होता है, और फिर नायिका के सामने ही उसका पिता अपने पुत्र की ह्त्या कर देता है समाज में किन्नर या हिजड़ों को सम्मान नहीं मिलता, जबकि किसी का भी स्त्री, पुरुष या हिजड़ा होना प्रकृति द्वारा प्रदत्त गुण है नायिका प्रतिशोध में कुछ नहीं कर पाती; क्योंकि उसकी माँ का वह खाबिन्द है, सिर्फ अपने पिता से नफ़रत करती है
एक तरफ पिता इसलिए शादी कर रहा है, ताकि अपने बेटे के क़त्ल को छुपाने के लिए रिश्वत के पैसे का इंतजाम कर सके और बदले में उसे इसलिए शादी करनी है;  क्योंकि बेटियाँ पैदा करने में उसे महारत हासिल है जिस दिन सबसे छुपकर एक कोठे वाली से बाप शादी करता है उसी दिन उसकी दूसरे नंबर की बेटी अपनी माँ और बहनों के सहयोग से अपने प्रेमी जो कि उसकी जाति से अलग जाति का है से शादी करती है जब शाम को बाप घर आता है तो बड़ी बेटी (नायिका) जो अपने पति के घर से निष्कासित होकर मायके में रहती है, बताती है कि उसने बहन का विवाह करा दिया; क्योंकि वह नहीं चाहती कि उसकी बहन की ज़िन्दगी भी उसके जैसी हो बाप जो ख़ुद गुनाहगार है और दूसरी शादी करके आता है बड़ी बेटी और बीवी को मारता है कि उसने छोटी बेटी का विवाह दूसरी जाति में क्यों कराया। बड़ी बेटी से नफ़रत करता पिता अब छोटी बेटी से भी नफ़रत करता है यूँ वो अपनी सभी बेटियों से नफ़रत करता है और अपनी बीवी से भी


नायिका के पिता की दूसरी बीवी जो वेश्या है, एक बेटी की माँ बनती है और  वो छुपकर बच्ची को पिता के घर पहुँचा देती है; क्योंकि उसे भी वेश्या बना दिया जाएगा और कोई भी माँ अपनी बच्ची को वेश्या के रूप में सहन नहीं कर सकती पहली बीवी और बेटियाँ अवाक् है बाप की इस घिनौने हरकत पर पर उस बच्ची का क्या दोष, सभी उसे अपना लेती है वेश्यालय चलाने वाला बच्ची के गम होने पर बाप को ढूँढने आता है, और तब तक बाप उस बच्ची की हत्या करने जाता है, क्योंकि वो हत्या कर देना पसंद करेगा, लेकिन अपनी बेटी का वेश्या होना नहीं। बच्ची की हत्या होने से नायिका बचा लेती है, लेकिन बदले में बाप को मार देती है, अगर नहीं मारती तो उस मासूम बच्ची को भी उसका ख़ूनी और क्रूर बाप मार देता अचानक हुए ऐसे आघात से नायिका स्तब्ध है, और ख़ुद को गुनहगार मान समर्पण कर देती है
फाँसी से पहले जब नायिका अपने परिवार से मिलती है तो कहती है ''उतार फेंको बुर्का'' और बहनों के सिर से बुर्का खींच कर फेंक देती है जिस वक़्त मीडिया के सामने नायिका अपने गुनाह और ज़िन्दगी की कहानी सुनाती है, सभी का मन द्रवित हो जाता है एक स्त्री पत्रकार नायिका को अपने बाप के क़त्ल के लिए गुनहगार नहीं मानती और हर संभव कोशिश करती है कि किसी तरह नायिका की सज़ा माफ़ हो जाए लेकिन सरकारी महकमे की चाटुकारिता और असंवेदनशीलता के कारण राष्ट्रपति तक बात नहीं पहुँच पाती और नायिका को फाँसी हो जाती है


नायिका के सभी सवाल अपनी जगह तटस्थ हैं जवाब की अपेक्षा हर पुरुष से, समाज से, धर्म के नुमाइंदे से और सत्ता वर्ग से है। ये सवाल पाकिस्तान की उस नायिका के चरित्र से निकल दुनिया की सभी स्त्रियों के ज़ेहन और ज़िन्दगी में दाखिल होता है कि आख़िर कब तक स्त्रियाँ यूँ ज़िन्दगी जिएँगी? पुरुष के दंभ और औरत को उसकी औकात बताने वाला पुरुष कब अपनी औकात समझेगा? आख़िर कब तक स्त्रियाँ गुलाम रहेंगी? चाहे वो बुर्का की गुलामी हो या फिर पुरुष की गुलामी या फिर धर्म के नाम पर किया जाने वाला जुल्म हो बोल की नायिका का सवाल दुनिया की हर औरत का सवाल है


- जेन्नी शबनम (अक्टूबर 28, 2011)


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