Sunday, March 8, 2015

51. जीना है तो मरना सीखो

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''काम किए बिना पेट नहीं भरता है मलकिनी । इस घर के सब आदमी का पेट नहीं कोठी है, कितना भी भरो भरता ही नहीं है । एगो अपना पेट त पलता नहीं है उस पर से बुढवा-बुढ़िया अमर होके आया है, काम काज त कौनो करता नहीं ऊपर से मेरे मरद को बोल के रोज़ महाभारत करवाता है । इतना भी नहीं होता कि बइठे-बइठे बचवो सबको देखे । एगो ऊ (पति) अभागा है, उसका त देह का आग ठन्डे नहीं होता है, हरामी रोज़ रात को पी के जाने कहाँ-कहाँ से मुँह मार के आता है और मेरा देह नोचता है । साले-साले 4 गो छौंड़ी (बेटी) हो गई, फेर दूगो छौंड़ा (बेटा) । सबसे छोटका को दुसरकी (दूसरे नंबर की बेटी) सँभालती है, बड़की (बड़ी बेटी) दू चार घर में काम कर आती है त तनिका आराम मिल जाता है । न त सब मिल के हमहीं को नोच के खा जाएगा ।'' 

''अभी दुइएगो त छौंड़ा (बेटा) है, उहो देबी माता से केतना माँगने पर । अभी फेर 7 वाँ महीना चढ़ गया है, गोसाईं से बोले कि दू गो और पूत दे दे, चार गो बेटा रहे त दोसरा कौनो से उधार कन्धा माँगना त नहीं पड़ेगा । एगो (एक) नहीं पूछेगा त दूसरा त पूछेगा । कुछो कर के त अपन बाल बच्चा के पालिए लेगा और हम दोनों का बुढ़ापा भी पार लगिए जाएगा ।'' 

''बाकी ई राँड़ सब का होगा नहीं मालूम । ई करमजली सब, केतनो उपाय किए मनता माँगे लेकिन करम में इहे लिखल था । आज का जमाना त मालूमे है आपको मलकिनी, लड़की जात का कौन ठिकाना, कब उसका इज्जत उसका अपना बापे भाई लूट ले कौन जानता है । कइसहूँ बच बचा के बियाह कर दिए त कौन जाने बसेगी कि नहीं, उसका मरद छोड़ के दोसर कर लेगा त फेर हमरे मत्थे पर । अभागिन सब जनम लेते मर काहे नहीं गई ।''

''रोज सुनती हैं न मलकिनी, टीभीयो में देखबे करती हैं कि कैसे इज्जत लूट के संढवा (सांड) जैसा छुटल घूमता है कमीना सब । कहियो बेटा-बेटी बराबर नहीं हो सकता है । ऊ हरामी सब का भरोसा नहीं, अपने ही माँ बहिन बेटी का शिकार करता होगा । तइयो आग नहीं बुझता होगा तब दोसर जनानी (स्त्री) पर हमला करता है । सरकार में दम होता त ई मादर...(गाली) सब को पकड़ के उसका अंगे काट देता । जो बुरा नज़र से देखे उसका आँखे फोड़ देना चाहिए । पर ई सब का दम नहीं है कौनो में । औरत आ गरीब दोनों का एके हाल है मलकिनी । कहूँ कौनो सुनवाई नहीं, न इहाँ न भगवाने के ऊहाँ ।''

यह सब सुनकर किसी आम स्त्री की मानसिक दशा का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है । यह पीड़ा न सिर्फ हमारे समाज के गरीब, अशिक्षित और निम्न मध्यमवर्गीय औरत की पीड़ा है जिसे साल दर साल बच्चा जन्म देने की मशीन बनाया जाता है या फिर जिसका उपयोग हर रात उस गोश्त की तरह किया जाता है जिसे हर रोज़ पकने के बाद भी ताज़ा रहना होता है बल्कि हर उस औरत की पीड़ा है जिसने इस पृथ्वी पर जन्म लिया है । जाति, धर्म, प्रांत या प्रदेश ने इस पीड़ा का अबतक बँटवारा नहीं किया है । स्त्री का स्त्री होना ही अभिशाप है और यही यंत्रणा का कारण भी ।

इन उत्तरों ने कई सारे सवालों को जन्म दिया है, जो नए नहीं हैं लेकिन हमारी चेतना को कुरेदते ज़रूर हैं । काम के बोझ तले दबी औरत उस पति का कैसे आदर कर सकती है जो सिर्फ अपनी मर्जी से उसका भक्षण करता है । उस स्त्री को अपनी बेमन औलादों (लड़की) से प्रेम नहीं, ऐसा नहीं है, लेकिन उनके भविष्य की दुश्चिंता ने अपनी ही संतानों के प्रति क्रूर बना दिया है । उसे पुत्र इस लिए प्रिय है क्योंकि पुत्र न सिर्फ उसके बुढापे का सहारा होगा बल्कि मृत्यु के बाद पुत्र के काँधे पर अंतिम यात्रा सौभाग्य सूचक है । लड़कों के साथ वैसी कोई अनहोनी नहीं होगी जो लड़कियों के साथ कभी भी हो सकती है । लड़की भले ही कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करे फिर भी उसे वह सम्मान नहीं मिलता जो लड़का को मिलता है । 

यहाँ सबसे अहम् सवाल यह है कि उपार्जन में संलग्न होते हुए भी लड़की क्यों दुत्कारी जा रही है । जवाब भी यहीं पर है कि लड़की की ज़िन्दगी उसकी अपनी कभी नहीं है । सुरक्षा के तमाम उपाय के बावजूद जन्मजात कन्या तक का बलात्कार हो जाता है । इज्ज़त लुट जाने के बाद ब्याह की समस्या आती है, सुरक्षित ब्याह हो जाने के बाद पति पर अति निर्भरता और भविष्य की अनिश्चितता कि वो उसे रखेगा या निकाल देगा । दहेज़, परस्त्री सम्बन्ध, बीमारी, बार-बार गर्भवती होना आदि ऐसी बातें हैं जिसका दोषी पुरुष है लेकिन सज़ा स्त्री भुगतती है । अपमान, ठोकर, उपेक्षा, शारीरिक और मानसिक यंत्रणा स्त्री को जन्म के साथ ही जैसे उपहार में मिलता है ।

शिक्षा की प्रगति ने मनुष्य की सोच में कितना बदलाव लाया है इस बात का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है जब तथाकथित शिक्षित उच्च पदस्थ लोग बलात्कार के लिए स्त्री को, उसके पहनावे को, उसके चाल चलन को या फिर उसकी नियति को दोष देते हैं । हमारे प्रांत की तरफ बेटों की माएँ बड़े गर्व से कहती हैं ''हमारा घोड़ा (बेटा) छुटल दौड़ेगा, अपनी घोड़ी (लड़की) को सँभालो ।'' 

पुरुष चंगुल से स्त्री की आज़ादी मुमकिन नहीं दिखती । जिधर निगाह जाती है उधर हर लड़की की माएँ डरी सहमी दिखती हैं । हर लड़की का पिता डरा सहमा भी रहता है और क्रूर जेलर भी बना रहता है । कड़ी पाबन्दियों के बीच लड़कियाँ घुट-घुट के जीने को विवश रहती हैं । यूँ बराबरी का दावा करने वाले माता-पिता भी लड़की को उतनी आज़ादी नहीं देते जितना लड़के को देते हैं । हालाँकि इसके लिए उनकी मानसिकता नहीं बल्कि समाज दोषी है । एक अनजाना-सा खौफ़ हर वक़्त घेरे रहता है कि कहीं अबकी बार कोई अनहोनी या आफत उसके घर न आ जाए । 

समाज में चारों तरफ नज़र दौड़ाने के बाद इन समस्याओं के समाधान का न तो कोई रास्ता नज़र आता है न ही कोई विकल्प । कभी सोचती हूँ कुछ ऐसा किया जाए कि जन्म लेते ही सारी लड़कियों के दिमाग से सोचने समझने और दर्द सहने की क्षमता ख़त्म हो जाए । फिर वो ज़िंदा लाश बन जाएँगी, उसे जितना भोगो, जितना तड़पाओ, जितना नोचो खसोटो उफ़ नहीं करेंगी । बच्चे पैदा करेंगी, जैसे कहा जाएगा वैसे सारा काम करेंगी । न हक़ की कोई बात होगी न आज़ादी के लिए सुगबुगाहट, रोबोट बन कर पुरुष के उपयोग और उपभोग के लिए सदैव उपलब्ध रहेंगी । 

मनाव के दानव बन जाने का परिणाम है कि दुनिया से कई प्रजातियाँ मिट गईं हैं और अब शायद स्त्री की बारी है । सचमुच स्त्री मानव नहीं है बल्कि एक अलग प्रजाति है जिसका नष्ट होना पुरुषों और परम्पराओं के कारण तय है । कभी-कभी मन चाहता है कि दुनिया से स्त्री नामक प्रजाति का नाम मिट जाए और विज्ञान के चमत्कार से पुरुष ही स्त्री का सभी काम करे ।

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2015)

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