Monday, November 16, 2015

54. यमुना कोठी की जेन्नी (पहला भाग)


यमुना कोठी की जेन्नी 
(पहला भाग)

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यादों के बक्से में रेत-से सपने हैं जो उड़-उड़ कर अदृश्य हो जाते हैं और फिर भस्म होता है मेरा मैं, जो भाप की तरह शनै-शनै मुझे पिघलाता रहा है। न जाने खोने पाने का यह कैसा सिलसिला है जो साँसों की तरह अनवरत मेरे साथ चलता है। टुकड़ों में मिला प्रेम और खुद के ख़िलाफ़ मेरी अपनी शिकायतों की गठरी मेरे पास रहती है जो मुझे संबल देती रही है। रिश्तों की एक लम्बी फेहरिस्त है मेरे पास जिसमें अपने पराये का भेद मेरे समझ से परे है। ज़ेहन में अनकहे किस्सों का एक पिटारा है जो किसी के सुने जाने की प्रतीक्षा में रह-रह कर मन के दरवाज़े पर आ खड़ा होता है।

सोचती हूँ कैसे तय किया मैंने ज़िन्दगी का इतना लंबा सफ़र, एक-एक पल गिनते-गिनते जीते-जीते पूरे पचास साल। कभी-कभी यूँ महसूस होता मानो 50 वर्ष नहीं 50 युग जी आयी हूँ। जब कभी अतीत की ओर देखती हूँ तो लगता है जैसे मैंने जिस बचपन को जिया वो कोई सच्चाई नहीं बल्कि एक फिल्म की कहानी है जिसमें मैंने अभिनय किया था।

जन्म के बाद 2-3 साल तक की ज़िन्दगी ऐसी होती है जिसके किस्से हम खूब मनोयोग से दूसरों से सुनते हैं। इसके बाद शुरू होता है एक-एक दिन का अलग-अलग किस्सा जो मष्तिष्क के किसी हिस्से में दबा छुपा रहता है। अब जब फुरसत के पल आए हैं तो बात-बात पर अतीत के पन्नों को खोल कर मैं उस दुनिया में पहुँचना चाहती हूँ जहाँ से ज़िन्दगी की शुरुआत हुई थी।

उम्र के बारह साल ज़िन्दगी से कब निकल गए पता ही न चला। पढ़ना, खेलना, खाना, गाना सुनना, घूमना इत्यादि आम बच्चों-सा ही था। पर थोड़ी अलग तरह से हम लोगों की परवरिश हुई। चूँकि मेरे पिता गाँधीवादी और नास्तिक थे तो घर का माहौल भी वैसा ही रहा। ऐसे में गाँधी के विचारों को मैं भी आत्मसात करती चली गई। हमलोग भागलपुर के नया बाज़ार में यमुना कोठी में रहते थे। उन दिनों इस कोठी का अहाता बहुत बड़ा था। हमारे अलावा कई सारे किरायेदार यहाँ रहते थे। मोहल्ले के ढ़ेरों बच्चे इकत्रित होकर इसी अहाते में खेलने आते थे। सबसे ज्यादा पसंद का एक खेल था जिसमें हम दीवार पर पेंसिल से लकीर बना कर खेलते थे। एक्खट-दुक्खट, पिट्टो, नुक्का चोरी, कोना कोनी कौन कोना, ओक्का बोक्का, घुघुआ रानी कितना पानी, आलकी पालकी जय कन्हैया लाल की आदि खेलते थे। टेनी क्वेट, कैरम, बैडमिंटन, ब्लॉक, लूडो भी खेलते थे।

बचपन में भैया और मेरे बीच में मम्मी सोती थी और हम दोनों मम्मी से कहते थे कि वो मेरी तरफ देखे। ऐसे में मम्मी भी क्या करती भला? वो बिल्कुल सीधे सोती थी ताकि किसी एक की तरफ न देखे। मैं हर वक़्त मम्मी से चिपकी रहती थी। स्कूल जाने में बहुत रोती थी और हर रोज़ मम्मी को साथ जाना होता था। मम्मी के साथ खाना, मम्मी के साथ सोना, मम्मी के बिना फोटो तक नहीं खिंचवाती थी। हम दोनों भाई बहन हाथ पकड़ कर स्कूल जाते और लौटने में भी हाथ पकड़ कर ही आते थे। भाई एक साल बड़ा था और खूब चंचल था पर मैं बहुत शांत थी। धीमे-धीमे चलना, धीरे से बोलना, गंभीरता से रहना। खेल में भी झगड़ा पसंद नहीं था। अगर कोई बात पसंद नहीं तो बोलना बंद कर देती थी। 

अहाते में एक झा परिवार था। उनके तीन बेटा अरविन्द, रविन्द और गोविन्द तथा एक बेटी विभा थी, जो शायद मेरी पहली दोस्त रही होगी। एक बार खेलने में मैंने एक ईंट फेंका जो जाकर उसके सिर पर लग गया। मैं बहुत डर गई, लेकिन मुझे किसी ने नहीं डांटा। हम दोनों साथ ही झाडू की सींक पर स्वेटर बुनना सीखे। बाद में उसके पिता की बदली हो गई और वे लोग चले गए। फिर आज तक नहीं पता कि वो कहाँ है, उसे कुछ याद भी है या नहीं। अहाते में एक अग्रवाल परिवार था जिनके यहाँ ब्याह कर नयी बहु आयी थी। उन्हें मैं बिन्दु चाचीजी कहती थी और वो मुझे बहुत अच्छी लगती थी। उनके साथ हम कुछ बच्चे छोटे चूल्हे पर छोटे-छोटे बर्तन में खाना बनाते थे, गुड्डा-गुड़िया बनाते और खेलते थे।

मेरी एक मौसी भागलपुर शहर में ही रहती थी। उनके तीन बच्चे थे। अक्सर उनके घर हमलोग जाते और खूब खेलते थे। मौसा उच्च सरकारी पद पर थे तो हर सिनेमा हॉल में पास मिलता था। उन दिनों पिक्चर पैलेस एक हॉल था जिसके बॉक्स में कुछ कुर्सी और बिस्तर लगा हुआ था। कुछ फिल्में देखने हमें भी ले जाया जाता था और हम बच्चे बिस्तर पर बैठ कर सिनेमा देखते थे। 

मेरे पिता के एक मित्र थे प्रोफ़ेसर करुणाकर झा। उनको दो बेटे और चार बेटियाँ थी। तीसरे नंबर वाली नीलू मेरी दोस्त थी। वे लोग उन दिनों बूढ़ानाथ में रहते थे। हमलोग अक्सर एक दूसरे के घर गंगा के किनारे बने रास्ते से होकर जाते थे। घाट किनारे लोहे का रेलिंग बना था जिसपर हम लोग अवश्य झुला झूलते फिर आगे जाते थे। 

आदमपुर में छोटी सी. एम. एस. स्कूल से भैया और मैंने पढ़ाई की। फिर मैं 6 माह मोक्षदा स्कूल में पढ़ी। छुट्टियों में हम गाँव गए तो बाढ़ में फँस गए। फिर पापा ने हमलोगों को गाँव में ही दादी के पास छोड़ दिया। मेरे घर के सामने कभी पापा द्वारा ही खुलवाया हुआ प्राइमरी स्कूल था, उसमें मैं पढ़ने जाने लगी। वहाँ सभी बच्चे चट्टी (बोरा) बिछा कर बैठ कर पढ़ते थे और बेंच पर शिक्षक बैठते थे। मुझे खास सुविधा दी गई, और मास्टर साहब ने मुझे बेंच के दूसरी तरफ बैठाने का बंदोबस्त किया। वहाँ सिर्फ दो हो शिक्षक थे, नाम तो मुझे याद नहीं लेकिन एक शिक्षक को सभी बकुलवा मास्टर कहते थे, क्योंकि उनकी गर्दन लम्बी थी बगुला जैसी। यहाँ कुछ ही दिन पढ़ाई की उसके बाद मेरे पिता के बड़े भाई जिन्हें हम बड़का बाबूजी कहते थे, पास के गाँव सुन्दरपुर में प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे, उनके साथ उनके स्कूल जाने लगी। वहाँ से परीक्षा पास कर 7 वीं में शिवहर मिडिल स्कूल में पढ़ने गई। मेरे क्लास में मुझे लेकर सिर्फ तीन लडकी थी. कालिंदी,    और मैं. छठी कक्षा में सिर्फ दो लड़की पढ़ती थी। दोनों क्लास में किसी का भी गेम पीरियड होता तो हम पाँचों को छुट्टी मिल जाती थी ताकि हम सभी एक साथ खेल सकें। हमलोग सबसे ज्यादा कैरम खेलते थे। मेरे क्लास में एक लड़का था उमेश मंडल जो यह गाना बहुत अच्छा गाता था - ''कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों''। मेरा भाई महुवरिया हाई स्कूल, शिवहर में पढ़ता था, मेरी 7वीं की परिक्षा का सेंटर वहीं पड़ा था। इसके बाद पापा मुझे भागलपुर ले आए लेकिन भाई को गाँव में ही पढ़ने को छोड़ दिए।  

गाँव का जीवन बड़ा ही सरल था। न भय न फिक्र। गुल्ली डंडा, पिट्टो, बैडमिन्टन, कबड्डी, लूडो, साँप-सीढ़ी आदि खूब खेलते थे। यहाँ लड़का लड़की का कोई भेद नहीं था। बड़का बाबूजी के दोनों बेटे अवधेश भैया और मिथिलेश, हम करीब-करीब साथ ही रहते थे; यूँ हमारा घर अलग-अलग था। मेरी सबसे बड़ी फुआ का एक बेटा कृष्ण बिहारी भैया जिसे मैंने नाम दिया था अमिया भैया, हमारे साथ ही रहता था। मेरी सबसे छोटी फुआ अक्सर गाँव आती तो महीनों रहती थी। उनके तीन बेटी और दो बेटे थे। उनकी बीच वाली बेटी बेबी दीदी से हम सबसे ज्यादा नज़दीक थे, दोस्त की तरह। भैया के हमउम्र दोस्त भी हमारे घर ही पढ़ने के लिए आ जाते थे क्योंकि हमारे घर में बिजली थी। हम सभी मिलकर साथ पढ़ते और खेलते थे। 

जो हमारे खेती का काम करता था उसमें एक का नाम था छकौड़ी महरा। उसकी पत्नी कहती कि पति का नाम नहीं लेना चाहिए। हमलोग ज़िद करते कि नाम बोलो, तो वो कहती कि छौ गो कौड़ी, और हम लोग ठहाके लगाते। एक और था लक्षण महतो। वह कभी-कभी किसी-किसी शब्द को बोलने में हकलाता था। एक दिन मेरी दादी से कहा - स स स सतुआ बा (सत्तू है)? तब से हमलोग उसे बार-बार ऐसा कहने के लिए कहते थे। हमारे एक पड़ोसी थे सियाराम महतो, जिनको हमलोग सियाराम चा कहते थे। वे थोड़ा पढ़े लिखे थे। उनको अंग्रेजी भाषा और ग्रामर की समझ थी। वे कुछ शब्द बोलते और उसका स्पेलिंग पूछते। एक शब्द था लेफ्टिनेंट जिसका स्पेलिंग अलग होता है और हिज्जा अलग। वे अक्सर सभी से यह शब्द ज़रूर पूछते। गाँव में एक थे परीक्षण गिरी। हम लोग उन्हें महन जी (महंत जी) कहते थे। वे जब भी दिखते हम लोग कहते ''गोड़ लागी ले महन जी'', तो वो कहते ''खूब खुस रह बऊआ, जुग-जुग जीअ''। एक थे बनारस पांड़े, जो हमारे यहाँ अक्सर आते और मेरी दादी उनसे पूजा पाठ करवाती और दान दक्षिणा देती थी। यूँ मेरे पापा पूजा-पाठ के ख़िलाफ़ थे लेकिन उन्हें कुछ देने से दादी को कभी नहीं रोकते थे। गाँव में एक वृद्ध स्त्री थी जिसका पति पुत्र कोई नहीं था, नितांत अकेली थी। उसे सभी लोग सनमुखिया कहते थे, मुमकिन है सही नाम सूर्यमुखी हो, वो मेरे घर का काम करती थी। वो साइकिल को बाईसिकिल कहती थी। हम कहते कि साइकिल बोलो तो कहती कि ''साइकिल बोलने नहीं आता है बाईसिकिल बोलने आता है''। हमलोग खूब हँसते क्योंकि वो साइकिल बोलती भी थी। मैंने उसे ही देखकर सिलबट्टे पर हल्दी पीसना सीखा था। गाँव में एक खूब तेज़ और होशियार स्त्री थी जिसे उसके बेटे के नाम के कारण सभी लोग 'बिसनथवा मतारी' (विश्वनाथ की माँ) बुलाते थे। वो रोज़ मेरे घर आती और कभी किस्सा तो कभी गाना सुनाती। कई ऐसे लोग हैं जो ज़ेहन में आज भी स्थापित हैं, भले किसी से मिलना नहीं होता है।      
   
मैं गाँव में जब तक रही या फिर जब भी गाँव जाती तो पापा के साथ दिन भर मज़दूरों के बीच ही रहती थी। उनके पनपियाई (खाना) के लिए मेरे यहाँ से जो भी खाना आता हम भी वही खाते थे। पेड़ से अमरुद तोड़ना, खेत से साग तोड़ना, सब्जी तोड़ना, फल तोड़ना, आदि दादी के साथ करती थी। मुझे मडुआ की रोटी बहुत पसंद थी, अक्सर सियाराम चाची मेरे लिए बना कर ले आती थी। हमारे घर से काफी दूर गाँव के अंत में मेरे छोटे चाचा रहते थे। वहीं हमारा पुराना घरारी था। यहीं मेरे पापा के अन्य चचेरे भाई रहते थे और सभी के घर हमलोग अक्सर आना जाना करते थे।

1977 में मैं भागलपुर आ गई। मेरे लिए दुनिया काफी बदली हुई थी। फिर से नए स्कूल में जाना। मेरा नामांकन घंटाघर स्थित मिशन स्कूल (क्राइस्ट चर्च गर्ल्स हाई स्कूल) में हुआ। इस साल से नई शिक्षा नीति लागू हुई थी। इस कारण मुझे पुनः 7 वीं में नामांकन लेना पड़ा जिसे उस समय 7 th new कहा जाता था। मेरे स्कूल की प्राचार्या मिस सरकार थी जिनसे हम छात्रा क्या शिक्षकगण भी ससम्मान डरते थे। 7 वीं में मेरी क्लास टीचर शीला किस्कु रपाज थी जो मुझे बहुत अच्छी लगती थी। गाँव से लौटने के बाद मैं पहले से और ज्यादा शांत हो गई थी। उन दिनों ही मेरे पिता की बीमारी की शुरुआत हो रही थी। 

प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा इलाज के लिए हाजीपुर में कम्युनिष्ट पार्टी के श्री किशोरी प्रसन्न सिन्हा जिन्हें सभी किशोरी भाई कहते थे, जो काफी वृद्ध और सम्मानीय सदस्य थे, के घर हमलोग एक महीना रहे। फिर पापा ने आयुर्वेद के द्वारा अपनी बीमारी का ईलाज करवाया। लेकिन बीमारी बढ़ती जा रही थी। सभी के बहुत मना करने पर भी वे विश्वविद्यालय जाना नहीं छोड़ रहे थे। और अंततः 1978 में उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु क्या है मुझे तबतक नहीं पता था। पापा के श्राद्ध में यूँ लग रहा था मानो कोई पार्टी चल रही हो। पूजा-पाठ, भोज, और लोगों की बातें। यह सब जब खत्म हुआ तब लगा कि अरे पापा तो नहीं हैं अब क्या होगा। पर हम सभी धीरे-धीरे उनके बिना जीने के आदी हो गए।

यमुना कोठी के जिस हिस्से में हमलोग रहते थे उसका आधा हिस्सा अब बिक चुका है। चूँकि इसके मकान मालिक रतन सहाय हमारे दूर के रिश्तेदार हैं अतः इनके परिवार से सारे संपर्क यथावत हैं। अपनी यादों को दोहराने के लिए हम अक्सर वहाँ जाते रहते हैं। मकान के अन्दर आने के लिए लोहे का एक बड़ा-सा गेट था, जिसपर अक्सर हमलोग झुला झूलते थे। मकान का कुछ और हिस्सा बिक जाने से वह गेट भी अब न रहा। मकान में बाहर की तरफ एक बरामदा था जिसपर शतरंज के डिजाईन का फ्लोर बना था। इसपर हमलोग कोना कोनी कौन कोना का खेल खेलते थे।    

नया बाज़ार के ठीक चौराहे पर बंगाली बाबू का दूकान होता था जहाँ से हम कॉपी पेंसिल और टॉफ़ी खरीदते थे, विशेषकर पॉपिंस मुझे बहुत पसंद था। नया बाज़ार चौक पर नाई का वह दूकान बंद हो चुका है जहाँ मेरे पापा बाल कटवाते थे। चौराहे पर मिठाई की एक दूकान थी जहाँ से हम खूब छाली वाली दही और पेड़ा खरीदते थे, अब उसका जगह बदल गया है। यहीं पर एक मिल था जहाँ हम आटा पिसवाने आते थे। यहीं पर पंसारी का दूकान है जहाँ से सामान खरीदते थे। चौक पर ही निजाम टेलर है जिसके यहाँ अब भी मैं कपड़ा सिलवाती हूँ। निजाम टेलर मास्टर तो अब नहीं रहे उनके बेटे अब सिलाई का काम करते हैं। चौक और मेरे घर के सामने का मस्ज़िद अब भी है जहाँ सुबह शाम अजान हुआ करता था। शारदा टाकिज़ एक बहुत भव्य सिनेमा हॉल खुला था जो अब बंद हो चुका है। इसके मालिक महादेव सिंह जो निःसंतान थे, की मृत्यु के बाद यह विवाद में चला गया। यहाँ हमलोग खूब सिनेमा देखते थे। पिक्चर पैलेस भी बंद हो चुका है। एक अजन्ता टाकिज और दीप प्रभा है जहाँ हाल फिलहाल भी सिनेमा देखा है मैंने। नाथनगर में जवाहर टाकीज है जहाँ अपने पापा के साथ हम अंतिम फिल्म 'मेरे गरीब नवाज़' देखे थे.

वेराइटी चौक पर बीच में एक मंदिर है जिससे वहाँ चौराहा बनता है। यहीं पर आदर्श जलपान है, जहाँ गुलाब जामुन खाने मैं अक्सर जाती थी। नज़दीक ही आनंद जलपान था जहाँ का डोसा बहुत पसंद था मुझे, पर अब वह बंद हो चूका है। वेराइटी चौक पर लस्सी वाला और कुल्फी वाला है, जब भी हम बाज़ार जाते तो लस्सी या कुल्फी खाते थे। ख़लीफाबाग चौक पर चित्रशाला स्टूडियो है जो अब आधुनिक हो गया है। हमलोग फोटो यहीं साफ़ करवाते थे। यहीं भारती भवन, किशोर पुस्तक भण्डार आदि है जहाँ से किताबें खरीदते थे। यहाँ पर मैं झालमुढ़ी, भूँजा, मूँगफली, गुपचुप (गोलगप्पे) आदि ठेले वाले से खरीद कर खाती थी और अब भी कभी-कभी खाती हूँ।    

नया बाज़ार चौक पर हमारे पारिवारिक मित्र डॉ पवन कुमार अग्रवाल का क्लिनिक 'गरीब नवाज़' है जो अब छोटा सा अस्पताल का रूप ले चुका है। डॉ अग्रवाल शुरू से मुझे बेटी की तरह मानते थे। 1986 में जब मेरे अपेंडिक्स का ऑपरेशन उन्होंने किया तब ऑपरेशन से पहले मेरी बहुत सारी ज़िद थी जिसे उन्होंने पूरा किया फिर मैं ऑपरेशन के लिए राज़ी हुई थी। उनके साथ मैं अपनी समस्याओं पर विचार-विमर्श करती थी। 2008 में उनका देहांत हो गया। अब उनका दोनों डॉक्टर पुत्र अच्छी तरह क्लिनिक सँभालता है। मेरी माँ के सहकर्मी हैं मुस्तफा अयुब जो रामसर में रहते हैं। इनकी पत्नी राशिदा आंटी शुरू से मुझे बहुत मानती रहीं। हर सुख दुःख में इनलोगों का बहुत सहयोग मिला। मम्मी की एक मित्र उषा मौसी हैं जो गाना गाती थी ''ज़रा नज़रों से कह दो जी निशाना चूक न जाए'', जिसे तब भी मैं उनसे सुनती थी अब भी सुनती हूँ। 

स्कूल के बाद सुन्दरवती कॉलेज से ऑनर्स तक की पढ़ाई हुई। रोज़ जोगसर, शंकर टाकीज चौक, मानिक सरकार चौक, आदमपुर आदि से होते हुए खंजरपुर स्थित सुन्दरवती कॉलेज जाती थी। ऑनर्स में कुछ माह हॉस्टल में रही थी। लेकिन एक भी रूम मेट से दोबारा मिलना न हुआ टी. एन. बी. लॉ कॉलेज जो तिलकामाँझी में है, वहाँ लॉ क्लास के लिए जाती थी कॉलेज के बाद एम. ए. के लिए सराय होते हुए यूनिवर्सिटी जाती थी। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी अक्सर पैदल ही जाया करती थी। तब न ज्यादा गर्मी लगती थी न ठंड। बी. ए. तक मैं बहुत अंतर्मुखी थी। बस काम से काम, न गप्पे लड़ाना पसंद न बेवज़ह घूमना। स्कूल की सहपाठियों में नीलिमा, मृदुला, बिन्दु आदि से मिलना हुआ। कॉलेज की दोस्तों में पूनम और रेणुका से मिलती रही हूँ। यूनिवर्सिटी की किसी भी दोस्त से अब संपर्क नहीं रहा।           

ढेरों यादें और किस्से हैं, जिन्हें कभी भूलता नहीं मन। इतना ज़रूर है कि भागलपुर कभी छूटा नहीं। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी जाने का रास्ता जैसे अब भी अपना-सा लगता है। यह सब छूट कर भी नहीं छूटता मुझसे। शहर जाना भले न होता हो पर ज़िन्दगी जहाँ से शुरू हुई वहीं पर अटक गई है। 

नन्हा बचपन रूठा बैठा है...    

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अलमारी के निचले खाने में  
मेरा बचपन छुपा बैठा है  
मुझसे डरकर  
मुझसे ही रूठा बैठा है  
पहली कॉपी पर पहली लकीर  
पहली कक्षा की पहली तस्वीर  
छोटे-छोटे कंकड़ पत्थर  
सब हैं लिपटे साथ यूँ दुबके  
ज्यों डिब्बे में बंद ख़ज़ाना  
लूट न ले कोई पहचाना  
जैसे कोई सपना टूटा बिखरा है  
मेरा बचपन मुझसे हारा बैठा है,  
अलमारी के निचले खाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।     

ख़ुद को जान सकी न अबतक
ख़ुद को पहचान सकी न अबतक  
जब भी देखा ग़ैरों की नज़रों से
सब कुछ देखा और परखा भी
अपना आप कब गुम हुआ  
इसका न कभी गुमान हुआ  
खुद को खो कर खुद को भूल कर   
पल-पल मिटने का आभास हुआ  
पर मन के अन्दर मेरा बचपन  
मेरी राह अगोरे बैठा है,  
अलमारी के निचले खाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।   

देकर शुभकामनाएँ मुझको  
मेरा बचपन कहता है आज  
अरमानों के पंख लगा  
वो चाहे उड़ जाए आज  
जो-जो छूटा मुझसे अब तक  
जो-जो बिछुड़ा दे कर ग़म  
सब बिसूर कर  
हर दर्द को धकेल कर  
जा पहुँचूँ उम्र के उस पल पर  
जब रह गया था वो नितांत अकेला  
सबसे डरकर सबसे छुपकर  
अलमारी के खाने में मेरा बचपन  
मुझसे आस लगाए बैठा है,  
आलमारी के निचले खाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।  

बोला बचपन चुप-चुप मुझसे  
अब तो कर दो आज़ाद मुझको  
गुमसुम-गुमसुम जीवन बीता  
ठिठक-ठिठक बचपन गुज़रा  
शेष बचा है अब कुछ भी क्या  
सोच विचार अब करना क्या  
अंत से पहले बचपन जी लो  
अब तो ज़रा मनमानी कर लो  
मेरा बचपन ज़िद किए बैठा है,  
आलमारी के निचले खाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।   

आज़ादी की चाह भले है  
फिर से जीने की माँग भले है  
पर कैसे मुमकिन आज़ादी मेरी  
जब तुझपर है इतनी पहरेदारी  
तू ही तेरे बीते दिन है  
तू ही तो अलमारी है  
जिसके निचले खाने में  
सदियों से मैं छुपा बैठा हूँ  
तुझसे दब के तेरे ही अन्दर  
कैसे-कैसे टूटा हूँ  
कैसे-कैसे बिखरा हूँ  
मैं ही तेरा बचपन हूँ  
और मैं ही तुझसे रूठा हूँ  
हर पल तेरे संग जीया पर  
मैं ही तुझसे छूटा हूँ,  
अलमारी के निचले खाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।  

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2015)  
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