Saturday, December 22, 2018

62. नसीर के डर की वज़हें वाज़िब हैं, मैं भी डरी हुई हूँ

न जाने आज बहुत आलस सा लग रहा था। रोज़ की तरह 7 बजे उठकर नियमित क्रमानुसार सारे कार्य करने का मन भी नहीं हुआ। सब छोड़कर एक कप चाय के साथ एक हिन्दी अखबार लेकर पढने बैठी। अखबार में अधिकांशतः नकारात्मक खबरें होती हैं, मगर देश दुनिया की थोड़ी सकारात्मक खबरें भी मिल जाती हैंजैसे कि कुछ नई उम्मीद, कुछ अनोखा ज्ञान, कुछ अजूबे, कुछ शिक्षा, देश दुनिया की प्रगति की कुछ बातें आदि-आदि। 

हत्या, सड़क दुर्घटना, बलात्कार, राहजनी, लूट, एक गर्भवती स्त्री द्वारा पंखे से लटककर आत्महत्या और पंखे से लटके में ही उसके बच्चे का जन्म जो दो घंटे तक मृत माँ के साथ गर्भनाल से लटका रहाओह! सुबह-सुबह ये दिल दहलाने वाली खबरें पर यह तो रोज़ की बात है एक और ख़बर जिस पर दो दिनों से बहुत ज्यादा चर्चा है कि महान कलाकार नसीरुद्दीन शाह ने बुलंदशहर गोकशी काण्ड पर कहा कि ''मुझे देश के हालात पर गुस्सा आता है और अपने बच्चों के लिए डर लगता है'' मुझे याद है एक बार आमिर खान द्वारा असुरक्षा और असहिष्णुता पर दिए गए बयान पर काफी बवाल मचा था, जिसमें वे बताते हैं कि उनकी पत्नी कहती हैं कि उन्हें भारत से बाहर चले जाना चाहिए। 

मुझे इन दोनों के डर का कारण कहीं से भी गलत नहीं लगा वे इस लिए नहीं डरे हुए हैं कि मुसलमान हैं, बल्कि इस लिए डरे हुए हैं कि हमारे देश में अराजकता का वातावरण है मंदिर मस्जिद के मसले में ही हजारों हत्याएँ हो चुकी हैं गाय के नाम पर कितने क़त्ल हो चुके हैं, मॉब लिंचिंग की घटनाएँ आम है, चोरी के शक में बेगुनाहों की हत्या, दहेज़ हत्या, बलात्कार और बलात्कार के बाद हत्या, न सिर्फ बालिकाएँ बल्कि बालकों के साथ भी अप्राकृतिक यौन शोषण, रंगदारी न देने पर हत्या, बेलगाम गाड़ियों या बस ट्रक द्वारा हत्या आदि-आदि. क्या-क्या और कितना गिनाएँ! नए-नए किस्म के अपराध देश में हर तरफ नज़र आने लगे हैं।  
एक दिन मैं कहीं जा रही थी, तो बगल से एक छोटी गाड़ी शायद टाटा इंडिका थी, गुज़री जिसपर कार की तरफ से लिखा हुआ था कि अगर किसी ने मुझे छुआ भी तो जान ले लूँगी अब कोई गाड़ी तो ऐसा न कहेगी, गाड़ी के मालिक की मंशा इससे स्पष्ट होती है दिल्ली में इतनी ज्यादा गाड़ियाँ हैं कि जरा-सा टकरा जाना तो आम बात है यूँ यह भी है कि कोई जानबूझ कर अपनी या दूसरे की गाड़ी का नुकसान नहीं पहुँचाता है, फिर भी दुर्घटना हो जाती है क्या ऐसे में हत्या कर दी जाएगी?
निःसंदेह भरत की स्थिति बेहद चिंताजनक है सबसे ज्यादा अराजकता राजनीतिक पार्टियों के गुंडों द्वारा की जाती है उन्हें किसी का डर नहीं मंदिर और गाय के नाम पर इंसानों की बलि चढ़ाते उन्हें देर नहीं लगती और न दंगा फैलाते देर लगती है गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और बढ़ती जनसंख्या के कारण आज के युवा इन सब के लिए सहज उपलब्ध हो जाते हैं। इन गर्म खूनों को जरा-सी हवा देने की देर है कि लहलहा कर जलते हैं और राख के ढेर की तरह भरभरा कर भस्म होते हैं।  

देश की सामाजिक और राजनैतिक स्थिति ऐसी है कि देश में कहीं कोई ऐसी जगह नहीं जहाँ सुरक्षित और सहज जीवन कोई जी सके फिर ऐसे में कोई आम नागरिक कहे कि उसे अपने बच्चों के लिए डर लगता है, तो उसकी बात पर बवाल खड़ा कर दिया जाता है किसे डर नहीं लगता है? हमारे बच्चे घर से बाहर निकलते हैं तो सारा दिन डर में बीतता है जब तक बच्चे सुरक्षित घर नहीं आ जाते इस डर से गरीब-अमीर सभी फिक्रमंद हैं और ऐसी दुनिया चाहते हैं जहाँ अमन चैन हो।  
आमिर खान की पत्नी हो या नसीरुद्दीन शाह या हम, हम सभी का डर वाज़िब है। देश के हुक्मरान इस हालात को क्यों नज़र अंदाज़ कर रहे हैं, यह अब तक समझ न आया अगर उन लोगों को डर नहीं हैं तो फिर अराजकता के इस वातावरण को ख़त्म हो जाना चाहिए था राम राज्य तो एक दिन में आ जाता है अब तक तो देश में राम राज्य आ जाना चाहिए था।  

- जेन्नी शबनम (22. 12. 2018)  

______________________________________________________________

Saturday, September 8, 2018

61. पहचान


मेरा लेख एक बड़ी पत्रिका में ससम्मान प्रकाशित हुआ। मैंने मुग्ध भाव से पत्रिका के उस लेख के पन्ने पर हाथ फेरा, जैसे कोई माँ अपने नन्हे शिशु को दुलारती है। दो महीने पहले का चित्र मेरी आँखों के सामने घूम गया।   

जैसे ही मैंने अपना कम्प्यूटर खोल पासवर्ड टाइप किया उसने अपना कम्प्यूटर बंद किया और ग़ैर ज़रूरी बातें करनी शुरू कर दीं। मैंने कम्प्यूटर बंद कर दिया और उसकी बातें सुनने लगी कि उसने अपना कम्प्यूटर खोलकर कुछ लिखना शुरू कर दिया और बोलना बंद कर दिया।   

आधा घंटा बीत गया। मुझे लगा बातें ख़त्म हुईं। मैंने फिर कम्प्यूटर खोला और दूसरी पंक्ति लिखना शुरू ही किया कि उसने अपना कम्प्यूटर बंद कर दिया और इस तरह मुझे घूरने लगा, मानो मैं कम्प्यूटर पर अपने ब्वायफ्रेंड से चैट कर रही होऊँ। 

मैंने धीरे से कहा - ''मुझे एक पत्रिका के लिए एक लेख भेजना है।'' 
उसने व्यंग्य-भरी दृष्टि से मेरी तरफ ऐसे देखा मानो मुझ जैसे मंदबुद्धि को लिखना आएगा भला। 

उसने पूछा - ''टॉपिक क्या है?'' 

मैंने बता दिया तो उसने कहा - ''ठीक है, मैं लिख देता हूँ, तुम अपने नाम से भेज दो। यूँ ही कुछ भी लिखा नहीं जाता समझ हो तो ही लिखनी चाहिए।'' 

मैंने कहा - ''जब आप ही लिखेंगे, तो अपने नाम से भेज दीजिए।'' फिर मैंने कम्प्यूटर बंद कर दिया। 

रात्रि में मैंने लेख पूरा करके पत्रिका में भेज दिया था। 

पत्रिका अभी भी मेरी टेबल पर रखी है। क्या करूँ! दिखाऊँ उसे! मन ही मन कहा - ''कोई फ़ायदा नहीं!''

पत्रिका अभी भी मेरी टेबल पर रखी है। जब वह इसे देखेगा तो? ... सोचते ही मेरा आत्मविश्वास और भी बढ़ गया।    

- जेन्नी शबनम (8. 9. 2018)   

____________________________________________________   


Wednesday, July 18, 2018

60. आज भी तुमसे शिकायत है

पापा 
पापा, तुमसे ढ़ेरों शिकायत है मैं बहुत गुस्सा हूँ, बहुत बहुत गुस्सा हूँ तुमसे। मैं रूसी (रूठी) हुई हूँ। अगर तुम मिले तो तुमसे बात भी नहीं करूँगी। पापा, तुमको याद है, मैं अक्सर रूस (रूठ) जाती थी और तुम मुझे मनाते थे इतनी भी क्या जल्दी थी तुमको? कम से कम मुझे आत्मनिर्भर तो बना दिए होते जाने से पहले देखो, मैं कुछ न कर सकी, हर दिन बस उम्र को धकेल रही हूँ क्यों उस समय में छोड़ गए तुम जब हमें तुम्हारी सबसे ज्यादा ज़रुरत थी न समझने का मौक़ा दिए न सँभलने का, बस चल दिए तुम  
पापा-मम्मी 
समय किसी की पकड़ में नहीं आया है कभी समय छलाँग लगा कर भागता है और हम धीरे-धीरे अपने कदमों पर चलते रहते हैं कि अचानक एक दिन पता चलता है, अरे! कितना वक़्त गुजर गया, और हम सभी चौंक जाते हैं आज से 40 साल पहले आज ही के दिन मेरे पापा इस संसार से हमेशा के लिए हम लोग को छोड़ कर चले गए थे हम सभी ज़िन्दगी को और ज़िन्दगी हम सभी को स्तब्ध होकर देखती रह गई थी न हमारे पास कहने को कुछ शेष था न ज़िन्दगी के पास कौन किससे क्या कहे? कौन किसे सांत्वना दे? 
मम्मी, भैया और मैं 
मेरे दादा तो मेरे जन्म से पूर्व ही गुजर चुके थे मेरी दादी लगभग 70 वर्ष की थी, जब उनके सबसे प्रिय पुत्र यानी मेरे पापा का निधन हुआ पापा की मृत्यु के समय मेरी माँ लगभग 32 वर्ष, मेरा भाई 13 वर्ष और मैं 12 वर्ष की थी हममे से कोई भी इस लायक नहीं था कि इस दुखद समय में एक दूसरे को सांत्वना दे सके फिर धीरे-धीरे हम चारों की ज़िन्दगी पापा के बिना चल पड़ी, या यूँ कहें कि हमने चलना सीख लिया हम सभी बहुत बार लड़खड़ाए, गिरे, संभले, और फिर चलते रहे यह हम लोगों की खुशनसीबी है कि हमारे सगे-सम्बन्धी, मम्मी-पापा के मित्र, मम्मी-पापा के सहकर्मी और पापा के छात्र सदैव हमलोगों के साथ रहे और आज भी हैं।
कहते हैं कि वक़्त ही घाव भी देता है और वक़्त ही मरहम भी लगाता है

वक़्त से मिला घाव यूँ तो ऊपर-ऊपर भर गया, पर मन की पीड़ा टीस बन गई हमारे लिए हम सभी को कदम-कदम पर पापा की ज़रूरत और कमी महसूस होती रही मेरे पापा स्त्री को स्वावलंबी बनाने के पक्षधर थे, तो उन्होंने अपने जीवन में ही मेरी माँ को हर तरह से सक्षम बना दिया था उन दिनों मेरी माँ इंटर स्कूल में शिक्षिका थी और सन 1988 में प्राचार्या बनी मेरे पापा की कामना थी कि मेरा भाई बड़ा होकर विदेश में पढ़ाई करेऔर यह सुखद संयोग ही रहा कि मेरे भाई ने आई. आई. टी. कानपुर से पढ़ाई की और आगे की पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप पर अमेरिका चला गया मैंने एम. ए, एल. एल. बी और पी एच. डी कर अपनी शिक्षा पूर्ण की; यूँ यह अलग बात कि अलग-अलग कई तरह के कार्य मैंने किए परन्तु कोई भी कार्य सुनियोजित और नियमित रूप से नहीं कर सकी जिससे कि मैं आत्मनिर्भर बन पाती अंततः मैं हर क्षेत्र में असफल रही मेरे पापा जीवित होते तो निःसंदेह उन्हें मेरे लिए दुःख होता  

लगभग 2 वर्ष पापा की बीमारी चली थी इन दो वर्षों में पापा ने प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा अपना इलाज कराया और अंततः सुधार नहीं होने पर आयुर्वेद की दवा खाते रहेएलोपैथ पद्धति पर उन्हें विश्वास न था अंततः जब बीमारी बहुत बढ़ गई तब दिल्ली में एम्स में एक माह तक भर्ती रहे जहाँ डॉक्टर ने शायद ठीक न हो सकने की बात कही थी वे भागलपुर लौट आए और उनके अधीन जितने छात्र पी एच. डी कर रहे थे उनका काम उन्होंने शीघ्र पूरा कराया अपनी बीमारी की चर्चा वे किसी से नहीं करते थे अतः उनकी बीमारी की स्थिति का सही अंदाज़ा किसी को नहीं था लीवर सिरोसिस इतना ज्यादा बढ़ चुका था कि अंत में वे कौमा में चले गए और लगभग 10 दिन अस्पताल में रहने के बाद सदा के लिए हमें छोड़ गए  
एक पुस्तक जिसमें पापा की चर्चा है 

पापा का लेटर हेड 

पापा द्वारा हस्तलिखित 

पापा द्वारा हस्तलिखित 

























मेरे पापा को घुमना, गाना सुनना और फोटो खींच कर खुद साफ़ करने का शौक़ था. मम्मी के साथ पूरे देश का वे भ्रमण कर चुके थे, और हर जगह की तस्वीर सिर्फ मेरी माँ की थी मम्मी की तस्वीर को बड़ा करा कर फ्रेम करा कर पूरे घर के दीवारों में लगवाए थे। वे शिक्षा, राजनीति और सामजिक कार्यों से अंतिम समय तक जुड़े रहे जब तक होश में रहे  
थीसिस 


बैग 

जरनल 

पापा के पी एच. डी का खबर पेपर में 

























पापा के गुजर जाने के बाद मैं हर जगह पापा की निशानी तलाशती रहीपरन्तु एक भी तस्वीर उनकी नहीं है जिसमें वे हमलोगों के साथ हों यूँ पापा की निशानी के तौर पर मेरी माँ, मेरा भाई और मेरे अलावा उनके उपयोग में लाया गया कुछ ही सामान बचा है मसलन एक बैग जिसे लेकर वे यूनिवर्सिटी जाते थे, उनकी एक डायरी, उनके कुछ जर्नल, एक दो कपड़े, घड़ी आदि।  
पापा का शर्ट 

पापा का शर्ट 

पापा का पैंट 

पापा की घड़ी 


















पापा का बैग 
पापा की एक डायरी 
















मेरी दादी की मृत्यु 102 वर्ष की आयु में सन 2008 में हुई दादी जब तक जीवित रही एक दिन ऐसा न गुजरा जब वो पापा को याद कर न रोती होपापा के जाने के बाद मेरी माँ के लिए मेरी दादी बहुत बड़ा संबल रहीसमय ने इतना सख्त रूप दिखाया कि अगर मेरी दादी न होती तो मम्मी का क्या हाल होता पता नहीं भाई ने काफी बड़ा ओहदा पाया लेकिन पिता के न होने के कारण शुरू में उसे भी में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था
दादी 
हम सभी पापा को याद कर एक-एक दिन गुजारते रहे बहुत सारे अच्छे दिन आए बहुत सारे बुरे दिन बीते हर दिन आँखें रोती रही जब भी पापा के न होने के कारण जीवन में हम सभी को पीड़ा मिली बिना बाप की बेटी होने के कारण मैं अपमानित और प्रताड़ित भी हुई हूँ मेरा मनोबल हर एक दिन के साथ कम होता जा रहा है मेरा मन अब  शिकायतों की पोटली लिए पापा का इंतज़ार कर रहा है, मानों मैं अब भी 12 साल की लड़की हूँ और पापा आकर सब ठीक कर देंगे     
विश्वविद्यालय का सोफा जिसपर खाली पीरियड में पापा सोते थे 

राजनीति शास्त्र विभाग का क्लास रूम 

पापा की पुनर्प्रकाशित पुस्तक  

पुस्तक का बैक कवर 



















कई बार सोचती हूँ कि काश कुछ ऐसा होता कि मेरी परेशानियों का हल मेरे पापा सपने में आकर कर जाते या फिर कहीं किसी मोड़ पर कोई ऐसा मिल जाता जो पापा का पुनर्जन्म होता जानती हूँ यह सब काल्पनिकता है लेकिन मन है कि अब भी हर जगह पापा को ढूँढता है यूँ अब खुद मेरी आधी उम्र बीत गई है, पर अब भी अक्सर मैं छोटी बच्ची की तरह एकांत में पापा के लिए रोती रहती हूँ पापा, मुझे आज भी तुमसे ढ़ेरों शिकायत है ताउम्र शिकायत रहेगी पापा ! 

- जेन्नी शबनम (18. 7. 2018)

_________________________________________________


Thursday, March 8, 2018

59. औरत की आज़ादी का मतलब


'हमें चाहिए आज़ादी', 'हम लेकर रहेंगे आज़ादी', किसे नहीं चाहिए आज़ादी? हम सभी को चाहिए आज़ादी सोचने की आज़ादी, बोलने की आज़ादी, विचार की आज़ादी, प्रथाओं से आज़ादी, परम्पराओं से आज़ादी, मान्यताओं से आज़ादी, काम में आज़ादी, हँसने की आज़ादी, रोने की आज़ादी, प्रेम करने के आज़ादी, जीने की आज़ादी...स्त्री के तौर पर जन्म लेने की आज़ादी  

कभी-कभी मेरे दिमाग़ की नसें कुलबुलाती हैं, ढ़ेरों विचार छलाँग मारते हैं, जेहन में अजीब-अजीब से ख़याल आते हैं, साँसें घुटती है, लफ़्ज़ों की पाबंदी उफ़ान मारती है अघोषित नियमों की पहरेदारी में अस्तित्व मिट रहा है सपने मर रहे हैं, आक्रोश उन्माद और अवसाद एक साथ घेरे हुए है। कभी-कभी सोचती हूँ कहीं ये पागलपन तो नहीं; पर यह सब बाह्य नहीं अंतस में व्याप्त है निःसंदेह चेतनाशून्य हो जाने का मन होता है अवचेतन मन पर जो भी प्रभाव हो पर व्यक्त रूप से प्रभाव नहीं पड़ने देना होगा हर हाल में हमें स्वयं पर नियंत्रण रखना ही होगा हमारी मान्यताएँ और मर्यादा इसकी अनुमति नहीं देती है  

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत के 109 साल हो रहे हैं। हर साल स्त्रियों की उपलब्धि और सम्मान के लिए दुनिया भर में न सिर्फ महिलाएँ बल्कि पुरुष भी इस दिन को मनाते हैं। परन्तु यह दिन महज़ अब एक ऐसा दिन बन कर रह गया है जब सरकारी और गैर सरकारी संगठन स्त्रियों के पक्ष में कुछ बातें कहेंगे, कुछ नई योजनायें बनाई जाएँगी, विचार विमर्श होंगे और फिर 'दुनिया की महिलाएँ एक हों' के उद्घोष के साथ 8 मार्च के दिन की समाप्ति हो जाएगी। फिर वही आम दिन की तरह कहीं किसी स्त्री का बलात्कार, किसी का दहेज़ उत्पीड़न, किसी का जबरन विवाह, कहीं कन्या भ्रूण हत्या, कहीं एसिड से जलाया जाएगा तो कहीं परम्परा के नाम पर बलि चढ़ेगी।  

महिला दिवस मनाने का अब मेरा मन नहीं होता है। न उल्लास होता है न उमंग। सब कुछ यांत्रिक-सा लगने लगा है। टी वी और अखबार द्वारा महिला दिवस के आयोजन को देखकर मुझे यूँ महसूस होता है जैसे हम स्त्रियों का मखौल उड़ाया जा रहा है। बड़े-बड़े बैनर और पोस्टर जहाँ स्त्रियों की शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए जैसे बीज मंत्र लिख दिया गया हो। प्रचार पढ़ो और देखो फिर मान लो कि स्त्रियों की स्थिति सुधर गई हैबाजारीकरण का स्पष्ट असर दिखता है इस दिन कपड़े, आभूषण इत्यादि पर छूट! तरह तरह के प्रलोभन! न कुछ बदला है न बदलेगा! ढाक के वही तीन पात!  

सही मायने में अब तक स्त्रियों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है; भले ही हम स्त्री सशक्तीकरण की कितनी भी बातें करें। स्त्री शिक्षा और उसके अस्तित्व को बचाने के लिए ढेरों सरकारी योजनाएँ बनी। सरकारी और गैर सरकारी संगठन के तमाम दावों के बावज़ूद स्त्रियों की स्थिति सोचनीय बनी हुई है। हालात बदतर होते जा रहे हैं। महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार की परियोजनाएँ फाइलों में ही खुलती और बंद होती हैं। ग्रामीण और निम्न वर्गीय महिलाओं की स्थिति में महज़ इतना ही सुधार हुआ है कि उनके हाथों में झाड़ू और हँसुआ के साथ ही मोबाइल भी आ गया है। निःसंदेह मोबाइल को प्रगति का पैमाना नहीं माना जा सकता है।   

सामजिक मूल्यों के ह्रास का असर स्त्री के शारीरिक शोषण के रूप में और भी विकराल रूप में उभर कर सामने आया है। शारीरिक अत्याचार दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। मेरा अनुमान है कि 99% महिलाएँ कभी न कभी अवश्य ही शारीरिक शोषण का शिकार हुई हैं। चाहे वो बचपन में हो या उम्र के किसी भी पड़ाव पर। घर, स्कूल, कॉलेज, कार्यालय, स्पताल, बाज़ार, सड़क, बस, ट्रेन, मंदिर, कहीं भी स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। शोषण करने वाला कोई भी पुरुष हो सकता है। उसका अपना सगा, रिश्तेदार, पति, पिता, दोस्त, पड़ोसी, परिचित, अपरिचित, सहकर्मी, सहयात्री, शिक्षक, धर्मगुरु इत्यादि।       

परतंत्रता को आजीवन झेलना स्त्री के जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है स्त्री को त्याग और ममता की देवी कहकर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाया जाता है ताकि वह सहनशील बनी रहकर अत्याचार सहन करती रहे और अगर न कर पाए तो आत्मग्लानि में जिए कि स्त्री के लिए निर्धारित मर्यादा का पालन वह नहीं कर पाई यह एक तरह की साजिश है जो रची गई है स्त्री के ख़िलाफ़ स्त्री को अपेक्षित कर्तव्यों के पालन के लिए मानसिक रूप से विवश किया जाता है स्त्रियाँ अपना कर्तव्य निभाते-निभाते और मर्यादाओं का पालन करते-करते दम तोड़ देती हैं, लेकिन आजीवन मनचाहा जीवन नहीं जी पाती हैं  

समाज का निर्माण कदापि मुमकिन नहीं अगर स्त्री को समाज से विलग या वंचित कर दिया जाएइसका तात्पर्य यह नहीं कि पुरुष की अहमियत नहीं है या पुरुष के ख़िलाफ़ कोई साजिश है परन्तु पुरुष के वर्चस्व का ख़ामियाज़ा न सिर्फ स्त्री भुगतती है बल्कि पूरा समाज भुगतता है मानवता धीरे-धीरे मर रही है असंतोष, आक्रोश और संवेदनशून्यता की स्थिति बढ़ती जा रही है कौन किससे सवाल करे? कौन उन बातों का जवाब दे जिसे हर कोई सोच रहा है? भरोसा करने का कारण नहीं दिखता, क्योंकि कहीं न कहीं हर स्त्री ने चोट खाई है परिपेक्ष्य में चाहे कुछ भी हो परन्तु संदेह के घेरे में सदैव स्त्री ही आती है और आरोपित भी वही होती है अपनी घुटन, छटपटाहट, पीड़ा, भय, अपमान आदि किससे बाँटे? वह नहीं समझा सकती किसी को कि वह सब अनुचित है जिससे किसी स्त्री को तौला और परखा जाता है  
ऐसा नहीं कि सदैव स्त्रियाँ ही सही होती हैं और हर पुरुष गलत अक्सर मैंने देखा है कि जहाँ पुरुष कमज़ोर है या स्त्री के सामने झुक जाता है वहाँ स्त्रियाँ इसका फ़ायदा उठाती हैं; वैसे ही जैसे स्त्री की कमजोरी का फ़ायदा पुरुष उठाता है स्त्रियों के अधिकार की रक्षा के लिए बहुत सारे कानून बने हैं और इन कानूनों का नाज़ायज़  फ़ायदा ऐसी स्त्रियाँ उठाती हैं मेरे विचार से ऐसी महिलाएँ मानसिक रूप से कुंठा की शिकार हैं। अमूमन जब किसी को पावर (शक्ति) मिल जाता है तो वह अभिमानी और निरंकुश हो जाता है इसी कारण कुछ महिलाएँ जिन्हें पावर मिल जाता है वे पुरुषों को प्रताड़ित करने लगती हैं अधिकांशतः पति और अधीनस्थ कर्मचारी महिलाओं द्वारा प्रताड़ित किए जाते हैं इसलिए मेरे विचार से मुद्दा स्त्री पुरुष का नहीं बल्कि शक्ति और सामर्थ्य का है  
आखिर क्यों नहीं स्त्री-पुरुष एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हैं और एक दूसरे को बराबर समझते हैं ताकि कोई किसी से न कमतर हो न कोई किसी के अधीन रहे ऐसे में हर दिन महिला दिवस होगा और हर दिन पुरुष दिवस भी मनाया जाएगा।  

- जेन्नी शबनम (8. 3. 2018)
(अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस)


____________________________________________________________