Wednesday, December 19, 2012

41. बलात्कार की स्त्रीवादी परिभाषा

अजीब होती है हमारी ज़िंदगी । शांत सुकून देने वाला दिन बीत रहा होता है कि अचानक ऐसा हादसा हो जाता की हम सभी स्तब्ध हो जाते हैं । हर कोई किसी न किसी दुर्घटना के पूर्वानुमान से सदैव आशंकित और आतंकित रहता है । कब कौन-सा वक़्त देखने को मिले कोई नहीं जानता न भविष्यवाणी कर सकता है । कई बार यूँ लगता है जैसे हम सभी किसी भयानक दुर्घटना के इंतज़ार में रहते हैं, और जब तक ऐसा कुछ हो न जाए तब तक उस पर विमर्श और बचाव के उपाय भी नहीं करते हैं । कोई हादसा हो जाए तो अखबार, टी.वी, नेता, आम आदमी सभी में सुगबुगाहट आ जाती है । हादसा खबर का रूप अख्तियार कर जैसे हलचल पैदा कर देता है । किसी भी घटना का राजनीतिकरण उसको बड़ा बनाने के लिए काफी है और उतना ही ज़रूरी घटना पर मीडिया की तीक्ष्ण दृष्टि । छोटी से छोटी घटना मीडिया और नेताओं की मेहरबानी से बड़ी बनती है तो कई बड़ी और संवेदनशील घटनाएँ नज़रंदाज़ किए जाने के कारण दब जाती है । कई बार लगता है जैसे न सिर्फ हमारी ज़िंदगी दूसरों की मेहरबानियों पर टिकी है बल्कि हम अपने अधिकार की रक्षा भी अकेले नहीं कर सकते । सरकार, कानून, पुलिस के होते हुए भी हम असुरक्षित हैं और अपनी सुरक्षा के लिए दूसरों पर निर्भर ।

रोज़-रोज़ घटने वाली एक शर्मनाक और क्रूर घटना फिर से घटी है । भरोसा एक बार फिर टूटा है इंसानियत पर से । दिल्ली में घटी दिल दहला देने वाली बलात्कार की घटना सिर्फ एक सामान्य दुर्घटना नहीं है बल्कि मनुष्य की हैवानियत और जातीय हिंसा का क्रूरतम उदाहरण है और स्त्री जाति के साथ किया जाने वाला क्रूरतम विश्वासघात । आम जनता, पुलिस, मीडिया, सरकार, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता सभी सदमे और सकते में हैं । कोई सरकार को दोष दे रहा है तो कोई पुलिस को, क्योंकि सुरक्षा देने में दोनों ही नाकाम रही है । कोई औरतों के जीने के तरीके को इस घटना से जोड़ कर देख रहा है तो कोई सांस्कृतिक ह्रास का परिणाम कह रहा है । कारण और कारक जो भी हो ऐसी शर्मनाक और घृणित घटनाएँ रोज़-रोज़ घट रही हैं और हम सभी बेबस हैं । ऐसी हर दुर्घटना न सिर्फ औरत के अस्तित्व पर सवाल है बल्कि समस्त पुरुष वर्ग को कटघरे में खड़ा कर देती है । क्योंकि बलात्कार ऐसा वीभत्स अपराध है जिसे सिर्फ पुरुष ही करता है । 
पुरुष की मानसिक विकृति का ही परिणाम है कि जन्म से ही स्त्री असुरक्षित होती है और पुरुष को संदेह से देखती है । कुछ ख़ास पुरुष की मानसिक कुंठा या मानसिक विकृति या रुग्णता के कारण समस्त पुरुष जाति से घृणा नहीं की जा सकती और न इस अपराध के लिए कसूरवार ठहराया जा सकता है । हर स्त्री किसी न किसी की माँ, बहन, बेटी होती है और हर पुरुष किसी न किसी का पिता, भाई, बेटा; फिर भी ऐसी पाश्विक घटनाएँ घटती है । मनुष्य की अजीब मानसिकता है कि हर बलात्कारी अपनी माँ बहन बेटी की सुरक्षा चाहता है और उसकी माँ बहन बेटी उसको इस अपराध की सज़ा से बरी करवाना चाहती है । 

बलात्कार की शिकार स्त्री तमाम उम्र खुद को दोषी मानती है और हमारा समाज भी । वो एक तरफ शारीरिक और मानसिक यातना की शिकार होती है तो दूसरी तरफ समाज की क्रूर मानसिकता का । समाज उसे घृणा की नज़र से देखता है और उसमें ऐसी कितनी वज़हें तलाशता है जब उस स्त्री का दोष साबित कर सके । समाज की सोच है - पुरुष तो ऐसे होते ही हैं स्त्री को सँभल के रहना चाहिए । अब सँभलना में क्या- क्या करना है और क्या-क्या नहीं, इसे कोई परिभाषित नहीं कर पाता । स्त्री का रहन-सहन, पहनावा, चाल-ढ़ाल सदैव उसके चरित्र के साथ जोड़ कर देखा जाता है । पुरुष की गलती की सज़ा स्त्री भुगतती है । कई बार तो घर का ही अपना कोई सगा बलात्कारी होता है । जिस उम्र में कोई लड़की ये नहीं जानती कि स्त्री पुरुष क्या होता है, ऐसे में अगर बलात्कार की शिकार हो तो फिर दोष किसका? क्या उसका स्त्री होना?

हमारे देश में कानून की लचर प्रणाली अपराधों के बढ़ने में सहूलियत देता है । किसी भी तरह का अपराधी आज कानून से नहीं डरता है । कई सारे अपराधी ऐसे हैं जो सबूत और गवाह के अभाव में बाइज्ज़त बरी हो जाते हैं और पीड़ित को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है । कई बार आजीवन सश्रम कारावास की सज़ा पाया कैदी जेल में शान का जीवन जीता है । जेल में भोजन, वस्त्र तो मिलता है ही बीमार होने पर सरकारी खर्चे पर इलाज भी और घर वालों से मिलते रहने की छूट भी । और अगर जो लाग-भाग वाला अपराधी है तब तो जेल का कमरा उसके लिए साधारण होटल के कमरे की तरह हो जाता है जहाँ टी.वी, फ्रीज, फोन और पसंद का खाना सभी कुछ उपलब्ध हो जाता है ।

बलात्कारी को मृत्युदंड या आजीवन कारावास की सज़ा देना निश्चित ही कम है क्योंकि मृत्यु तो सारी समस्याओं से निजात पाने का नाम है । बलात्कार जैसे पशुवत व्यवहार के लिए न तो मृत्युदंड पर्याप्त है न आजीवन कारावास । बलात्कारी को क्या सज़ा दी जाए जो ऐसे अपराधी मनोवृति के लोगों पर खौफ़ के कारण अंकुश लगे, ये सोचना और अंजाम देना ज़रूरी है । हमारे देश में फाँसी की सज़ा देकर भी फाँसी देना मुमकिन नहीं होता । न जाने कितने मामले क्षमा याचना के लिए लंबित पड़े रहते हैं । सबसे पहली बात कि जब एक बार अपराध साबित हो गया और फाँसी की सज़ा मिल गई तो उसे क्षमा याचना के लिए आवेदन का अधिकार ही नहीं मिलना चाहिए । और फाँसी भी सार्वजनिक रूप से दी जाए ताकि कोई दूसरा ऐसे अपराध करने के बारे में सोच भी न सके । बलात्कारी को फाँसी देने से ज्यादा उचित होगा कि उसे नपुंसक बना कर सार्वजनिक मैदान में सेल बनाकर फाँसी के दिन की लंबी अवधि तक रखा जाए ताकि हर आम जनता उसे घृणा से देख सके । शारीरिक पीड़ा देने से ज्यादा ज़रूरी है मानसिक यातना देना ताकि तिल-तिल कर उसका मरना सभी देख सके और कोई भी ऐसे अपराध के लिए हिम्मत न कर सके ।  

डर और खौफ़ के साये में तमाम उम्र जीना बहुत कठिन है, पर हर स्त्री ऐसे ही जीती है और उसे जीनी ही होती है । सरकारी शब्दावली में ख़ास जाति में जन्म लेने वाला दलित है जबकि वास्तविक रूप में मनुष्य की सिर्फ एक जाति दलित है, और वो है स्त्री; चाहे किसी भी जाति या मज़हब की हो । दलित और दलित के अधिकारों की बात करने वाले हमारे देश में सभी को इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए कि आखिर दलित है कौन? क्या औरत से भी बढ़कर कोई दलित है?

- जेन्नी शबनम (दिसंबर 18, 2012)

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Wednesday, December 12, 2012

40. समय की सीधी समझ

समय में न जाने कौन सा पहिया लगा होता है कि वो पलक झपकते कई वर्ष घूम आता है, और कई बार ऐसा भी कि धकेलते रहो धकेलते रहो पर सब कुछ स्थिर...तटस्थ... समय का पहिया शायद हमारे मन के द्वारा संचालित होता है । सबका अपना-अपना मन और अपना-अपना समय... कभी उड़न्तु घोड़ा तो कभी अड़ियल मगरमच्छ... मन होता ही ऐसा है कि कई युग एक साथ फलांग जाए तो कभी कई सदियों-सा एक-एक दिन जीए. समय यायावर... जाने कहाँ-कहाँ भटकता फिरता है, और हम उसके पीछे भागते-भागते थक जाते हैं । समय के साथ कदमताल मिलाना चाह कर भी कई बार मुमकिन नहीं होता, तो कई बार समय खुद ब खुद अपना कदम हमारे कदम के साथ साध लेता है । सुना तो है कि समय पर किसी का जोर नहीं पर कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे समय भी हमारे साथ दोहरी चाल चलता है ।

यूँ महसूस होता है जैसे समय का पहिया सिर्फ औरतों के लिए ही चलता है और अपनी रफ़्तार मनमाफिक बदलता है । कई बार ऐसा घूमता है कि स्तब्ध कर जाता है । होनी-अनहोनी, आशंकाएँ, दुविधा... जाने क्यों सबसे ज्यादा स्त्रियों के ही हिस्से में । न समय साथ देता है न ज़माना । फिर भी स्त्रियाँ अपने पल्लू में अपने लिए समय को बाँधे रखती है और अपने हिसाब से अपनी रफ़्तार तेज-धीमी करती रहती है । हालांकि स्त्री के साथ समय नहीं होता पर साथ होने के भ्रम को बनाये रखने के ढ़ेर सारे तजवीज होते हैं । प्रेम, ममता, त्याग, स्थिरता, संकोच, समर्पण, सेवा भावना आदि ऐसे हथियार हैं जो स्त्री के स्त्री होने के रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट है और इससे ही वार कर अक्सर उसे कमजोर बनाया जाता है ।

जन्म के पहले से ही औरत के यायावरी की कहानी शुरू होती है और पिता, पति, पुत्र के घर से होते हुए औरत अंततः परलोक को अपना स्थाई निवास मानने लगती है । औरत की ज़िंदगी सदैव मेहरबानियों पर टिकी होती है । अपनी खुशी के लिए गैरों की खुशामद में सारी ज़िंदगी बीताती है । अगर किसी घर में पुत्र-पुत्री की परवरिश सामान होती है तो आगे चलकर उस लड़की की ज़िंदगी ज्यादा दुखद हो जाती है । उस लड़की को समाज रूपी समय समझा देता है कि औरत का समय अलग होता है और पुरुष का अलग । औरत को अपने समय के हिसाब से चलना ही चाहिए. वरना समय का कुचक्र औरत का सबकुछ छीन लेता है । हमारी परम्पराएँ और रूढियाँ सदैव पुरुष के पक्ष और हित में स्थापित की गईं, भले इसका कितना ही बड़ा खामियाजा स्त्री को पूरी ज़िंदगी चुकानी पड़ती हो ।
  
हमारी संस्कृति हमारे जीवन को राह दिखाती है तो हमारे संस्कार राह पर चलने के तरीके । हमारी संस्कृति और संस्कार बनाने और पोषित करने वाले भी तो हमारे जैसे ही लोग रहे होंगे । सामयिक वक्त के हिसाब से स्थापित मूल्यों और आदर्शों को परम्परा के नाम पर हमपर थोप दिया गया, भले ही वो आज के समय के हिसाब से अतार्किक और असंगत क्यों न हो । औरतों के लिए स्पष्तः कर्तव्य निर्धारित कर दिए गए और पाप-पुण्य की कसौटी पर सारे कार्य बाँट दिए गए । एक लक्ष्मण रेखा जन्म से ही खींच दिया गया जिसे पार करना निषिद्ध है । निर्देशित मर्यादा का पालन करना ही होगा, अगर न किया तो पाप की सजा ऐसी कि मृत्यु दंड से भी पूरी न हो ।

धीरे-धीरे समय ने ज़रा सी ज़हमत की और औरत के हक में ज़रा सा बोलना शुरू किया । फिर भी समय अपनी ताकत दिखाता रहा और पुरुष को कुरेद-कुरेद कर स्त्री के विरुद्ध सुलगाता रहा  स्त्री को उसका अपना शरीर एक श्राप के रूप में मिला और साथ ही पूंजी के रूप में भी, जिसका इस्तेमाल पुरुष करता रहा अपने फायदे के लिए, और कभी-कभी स्त्री भी अपने फायदे और मजबूरी में । स्त्री अपने शरीर की सुरक्षा में जीवन भर जुटी रहती है, क्योंकि उसका बदन अगर किसी गैर ने छू भी लिया तो पापी कहलाएगी  स्त्री की कोख से स्त्री का जन्म लेना भी समाज को सह्य नहीं । और जहाँ स्त्री को स्त्री-जन्म का अधिकार मिला तो ऐसे जैसे बहुत बड़ा एहसान किया गया हो । एहसानों तले दबी औरत किस-किस के एहसान से दबती रही कौन जाने । दोनों हथेलियों से समय और समाज के आगे गुहार लगाती औरत अंततः खाली मुट्ठी को ही भरा हुआ समझ मुट्ठी बाँध लेती है और मुट्ठी में सुख सहेजे रहने का भ्रम खुद को और समय को देती है । 

समय को भी शायद श्राप है अबूझ बने रहने का और किसी के भी काबू में न आने का । परन्तु सबसे बड़ा कार्य जो समय ने पुरुष के पक्ष में किया वो था पुरुष को पुरुष का बदन देना । वैसे तो हर युग में स्त्री-पुरुष को एक दूसरे का पूरक माना गया चाहे शरीर के रूप में हो या मन के । शिव-पार्वती, राम-सीता हों या राधा-कृष्ण, एक दूसरे के पूरक माने गए । लेकिन आम पुरुष और स्त्री एक दूसरे के पूरक न बन सके । अगर कोई बनाना चाहे तो बनने नहीं दिया जाता । बहुत सारे निषेध हैं जिसका पालन अनिवार्य है और माना जाता है कि पुरुष का पुरुषत्व स्त्री के बराबरी से कम हो जाता है । स्त्री पर अपना आधिपत्य बनाए रखना पुरुषोचित गुण है भले इसके लिए स्त्री का शारीरिक और मानसिक शोषण किया जाए । बस एक ही अवसर है जब स्त्री को सम्मान मिलता है और वो है धार्मिक क्रिया कलाप ।

समय कभी-कभी बेरहम मज़ाक भी करता है और औरत को औरत बने रहने का सबूत देना पड़ता है । औरत को अपनी समस्त मर्यादाओं का पालन बिना सवाल उठाए करना होता है और आजीवन अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए पुरुषों की कृपा पर निर्भर रहना होता है । वो कृपा चाहे एक पिता दिखाए या पति या पुत्र । सामाजिक सोच ऐसी बन चुकी है कि पुरुष अपनी सफलता का श्रेय खुद को देता है और विफलता का दोष स्त्री को । एक ही स्त्री किसी पुरुष के लिए नरक का द्वार है तो किसी के लिए स्वर्ग का । अब ये समय की टेढ़ी नज़र है या समय का कतरा हुआ पर, कौन जाने ।

समय कभी-कभी खुद को बड़ा असमंजस में पाता है कि आखिर किसका साथ दे और कैसे दे । जब किसी औरत ने औरत के हक की बात की तो उसे ऐसे फेमिनिस्ट कहा जाता है जैसे कि वो अछूत हो और गाली की हकदार हो । अगर कोई पुरुष स्त्री के अधिकार के लिए आवाज़ उठाए या बराबरी की बात करे तो उसे जोरू का गुलाम या फिर नामर्द कहा जाता है । आजकल जब समय ने अपनी एक आँख खोली और थोड़ा जागरूक हुआ तो औरत के हक की बात करना फैशन बन गया । औरत को समान शिक्षा, स्वास्थय, भोजन आदि का अधिकार देना और इसका ढ़ोल पीटना सम्मान पाने का एक नया तरीका इजाद हुआ और संवेदनशील होने का प्रमाण बन गया । सब समय की कृपा है ।

समय के पहिया में पंख लग गया और बदलाव के इस युग में क्रांतियाँ फुर्र से उड़ गई । मेरे अपने देखे और जाने 45 साल में कुछ नहीं बदला । उन दिनों भी औरत औरत थी और आज भी औरत औरत है, जैसी सतयुग में रही होगी । समय तो अपने आँख कान बंद कर लेता है, जब उसके पास जवाब नहीं होते । लेकिन औरत अपने सवालों से पीछा कैसे छुडाए, किससे पूछे अपनी त्रासदी का सबब और किससे करे वेदना भरे सवाल । समय वाचाल है । औरत हार-हार जाती है फिर उठ कर अपने जीवन का औचित्य तलाशती है । औरत अपना औचित्यहीन जीवन कभी प्रेम में कभी पूजा में तो कभी त्याग में व्यतीत करती है और एक-एक पल गिनती रहती है जब उसका अपना स्थाई घर वो जा सकेगी और इस इंतज़ार में जीवन काटती है । लम्पट समय मुस्कुराता है और पुरुष के सम्मान में स्त्री के लिए मर्सिया गाता है ।

समय दौड़ता-भागता उड़ता-नाचता गिरता-पड़ता अपना खेल खेलता है । जीवन इसी में चलता है, कभी समय के साथ कभी समय के पीछे । समय के आगे तो कोई चल न सका । समय तो समय है, लिंग भेद से परे भी और लिंग भेद करता हुआ, सदियों का इतिहास खुद में समेटे पल-पल इतिहास बनाता हुआ । आज यूँ लगता है जैसे समय ने अपने कदम की रफ़्तार को संयमित कर लिया है । सभी के लिए समय ने अपने कदम के लय को सुगम बना लिया है । क्योंकि आज की तारीख बहुत रोचक और दुर्लभ है, 12.12.12 का अद्भुत संयोग है । समय स्थिर होकर सब नज़ारा देख रहा है । आज के जश्न में शामिल समय इस अद्भुत तिथि के आवभगत के लिए खुद को पिछली सदी से ही तैयार कर चुका है । अगली सदी में एक नए इतिहास के साथ जब आज का समय आज को याद करेगा, तब तक शायद समय भी चेत जाए और सबके लिए एक-सा सुखद और आनंददायक रहे...!

- जेन्नी शबनम (12.12.12)

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