Wednesday, November 16, 2022

100. भागलपुर की जेन्नी (पार्ट- 2)

 
सुनसान राहों पर चलते हुए कोई चीख कानों में पड़े तो जैसे आशंका से मन डर जाता है, ठीक वैसे ही उम्र के इस मोड़ पर सुनसान यादों में कोई चीख-चीखकर मुझे झकझोर रहा है। अब क्या? अब क्या शेष बचा? अब क्या करना है? अब? जाने कितना विकराल-सा लग रहा है यह प्रश्न- ''अब क्या''।  

सोचती हूँ 56 वर्ष कितने अधिक होते हैं, लेकिन इतनी जल्दी मानो पलक झपकते ही ख़र्च हो गए और अब जीवन के हिस्से में साँसों का कर्ज़ बढ़ रहा है। ख़ुश हूँ या निरुद्देश्य जीवन पर नाराज़ हूँ, यह सवाल अक्सर मुझे परेशान करता है। उम्र के इस मोड़ पर पहुँच कर प्रौढ़ होने का गर्व है तो कहीं न कहीं बेहिसाब सपनों के अपूर्ण रह जाने का मलाल भी है। अफ़सोस अब वक़्त ही न बचा। या यूँ कि मुमकिन है वक़्त बचा हो मगर मन न बचा। जीते-जीते इतनी ऊबन हो गई है कि जी करता है कि अगर मुझमें साहस होता तो हिमालय पर चली जाती, तपस्या तो न कर सकूँगी, हाँ ख़ुद के साथ नितान्त अकेले जीवन ख़त्म करती या विलीन हो जाती। 

पीछे मुड़कर देखती हूँ तो लगता है मेरी ज़िन्दगी कई अध्यायों में बँटी है और मैंने क़िस्त-दर-क़िस्त हर उम्र का मूल्य चुकाया है। मेरे जीवन के पहले अध्याय में सुहाना बचपन है जिसमें मम्मी-पापा, दादी, नाना-नानी, मामा-मामी, चाचा-चाची, फुआ-फूफा, मौसा-मौसी, भैया, ढेरों चचेरे-ममेरे-फुफेरे भाई-बहन, रिश्ते-नाते, मेरा कोठियाँ, मेरा यमुना कोठी, मेरा स्कूल, पापा की मृत्यु से पहले का स्वछंद सरल जीवन है। फिर पापा की लम्बी बीमारी और अंततः मृत्यु जैसी स्तब्ध कर देने वाली पीड़ा है। दूसरे अध्याय में 25 वर्ष तक पढ़ाई के साथ दुनिया का दस्तूर समझना और पूरी दुनियादारी सीखना है। फिर भागलपुर दंगा और दंगा के बाद का जीवन और समाज का परिवर्तन तथा अमानवीय मानसिकता व सम्बन्ध है। तीसरे अध्याय में 25 वर्ष की उम्र में हठात मैं प्रौढ़ हो गई, जहाँ न बचपना जीने की छूट न जवानों-सी अल्हड़ता है; वह है विवाह और विवाहोपरांत का कुछ साल है। जिसमें जीवन से समझौते और जीवन को निबाहने की जद्दोजहद है। दुःख के अम्बारों में सुख के कुछ पल भी हैं, जो अब बस यादों तक ही सीमित रह गए हैं। दुःख की काली छाया में सुख के सुर्ख़ बूटों को तराशने और तलाशने की नाकाम कोशिश है। चौथे अध्याय में मेरे बच्चों के वयस्क होने तक का मेरा जीवन है, जिसे शायद मैं कभी किसी से कह न सकूँ, या कह पाने की हिम्मत न जुटा सकूँ। या यूँ कहूँ की प्रौढ़ जीवन से वृद्धावस्था में प्रवेश की कहानी है, जो मेरी आँखों के परदे पर वृत्तचित्र-सा चल रहा है, जिसमें पात्र भी मैं और दर्शक भी मैं। जाने कौन जी गया मेरा जीवन, अब भी समझ नहीं आता। अगर कभी हिम्मत जुटा सकी तो अपने जीवन के सभी अध्यायों को भी लिख डालूँगी।  

ज़िन्दगी तेज़ रफ़्तार आँधी-सी गुज़र गई और उन अन-जिए पलों के ग़ुबार में ढेरों फ़रियाद लिए मैं हाथ मलते हुए अपनी भावनाओं को कागज़ पर उकेरती रही; कोई समझे या न समझे। ऐसा लगता है जैसे मेरी उम्र साल-दर-साल नहीं बढ़ती है बल्कि हर जन्मतिथि पर 10 साल बड़ी हो जाती हूँ। मेरा जीवन जीने के लिए नहीं, अपितु तमाम उम्र अभिनय करते जाने के लिए बना है। कितने पात्रों का अभिनय किया है, पर किसी भी पात्र का चयन मेरे मन के अनुसार नहीं है। जाने कौन है जो पटकथा लिखता है और मुझे वह चरित्र जीने के लिए मज़बूर करता है? मेरा वास्तविक जीवन कहाँ है? क्या हूँ मैं? संत-महात्मा ठीक ही कहते हैं कि जीवन भ्रम है और मृत्यु एकमात्र सत्य। जिस दिन सत्य का दर्शन हुआ; अभिनय से मुक्ति होगी। मेरा अनुभव है कि जिसकी तक़दीर ख़राब होती है बचपन से ही होती है और कभी ठीक नहीं होती; भले बीच बीच में छोटी-छोटी खुशियाँ मानों साँसों को रोके रखने के लिए आती हैं। 

मेरे जन्म के बाद के कुछ साल बहुत सुखद बीते। पापा-मम्मी-दादी के साथ पलते बढ़ते हुए हम दोनों भाई-बहन बड़े हो रहे थे। कुछ साल गाँव में दादी के पास रहकर पढ़ाई की। इससे यह बहुत अच्छा हुआ कि मैं ग्रामीण परिवेश को बहुत अच्छी तरह समझ सकी। मैं उस समाज का हिस्सा बन सकी जहाँ बच्चे गाँव के वातावरण में रहकर पढ़ते भी है और मस्ती भी करते हैं। जहाँ लड़का-लड़की में कोई भेद नहीं होता है; हाँ स्वभावतः उनके कार्य का बँटवारा हो जाता है और कोई किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है। ज़िन्दगी बहुत सहज, सरल और उत्पादक होती है। 

2 साल गाँव में रहकर मैं भागलपुर मम्मी-पापा के पास आ गई। परन्तु भाई गाँव में रहकर ही मैट्रिक पास किया। मेरा भाई पढने में बहुत अच्छा था तो आई0 आई0 टी0 कानपुर और उसके बाद स्कॉलरशिप पर अमेरिका चला गया। 1984 में महिला समाज की तरफ से मुझे मेडिकल की पढ़ाई के लिए रूस जाना था। सब कुछ हो गया, लेकिन बाद में पता चला कि मैंने आर्ट्स से आई0 ए0 किया है तो नामांकन न हो सकेगा। फिर 1988 मेरा भाई मुझे पढने के लिए अमेरिका ले जाना चाहता था, लेकिन मुझे वीजा नहीं मिला क्योंकि मैं वयस्क हो गई थी और लॉ की पढ़ाई पूरी कर चुकी थी। क़िस्मत ने मुझे फिर से मात दी।  

जुलाई 1978 में मेरे पिता का देहान्त  हो गया। पापा की मृत्यु के पश्चात जीवन जैसे अचानक बदला और 12 वर्ष की उम्र में मैं वयस्क हो गई। मम्मी की सभी समस्याएँ बहुत अच्छी तरह समझने लगी। यहाँ तक कि गाँव के हमारे कुछ रिश्तेदार चाहते थे कि मेरी माँ को मेरी दादी घर से निकाल दे और हम भाई-बहन को अपने पास गाँव में ही रख ले। पर मेरी दादी बहुत अच्छी थीं, जिसने ऐसा कहा था उसे बहुत सटीक जवाब दिया उन्होंने। मेरी मम्मी को दादी ने बहुत प्यार दिया, मम्मी ने भी उन्हें माँ की तरह माना। मेरी मम्मी अपना सुख-दुःख दादी से साझा करती थी। दादी का सम्बल मम्मी के लिए बहुत बड़ा सहारा था। सन 2008 में 102 साल की उम्र में दादी का देहान्त हुआ, मम्मी उसके बाद से बहुत अकेली हो गई।  

मेरे स्कूल में तब 9वीं और 10वीं का स्कूल-ड्रेस नीले पाड़ की साड़ी और सफ़ेद ब्लाउज था। ब्लाउज की लम्बाई इतनी हो कि ज़रा-सा भी पेट दिखना नहीं चाहिए। साड़ी पहनकर अपने घर नया बाज़ार से अपने स्कूल घंटाघर चौक तक पैदल जाना बाद में सहज हो गया। साड़ी पहनने से मन में बड़े होने का एहसास भी होने लगा। हाँ यह अलग बात कि कॉलेज जाते ही टी-शर्ट पैंट, सलवार कुर्ता पहनने लगी, साड़ी सिर्फ सरस्वती पूजा में। मेरे समय में 11वीं-12 वीं की पढ़ाई कॉलेज में होती थी, जिसे आई0 ए0 यानि इंटरमीडियट ऑफ़ आर्ट्स कहते थे। बी0 ए0 ऑनर्स सुन्दरवती कॉलेज से किया तथा टी0 एन0 बी0 लॉ कॉलेज से लॉ किया। भागलपुर विश्वविद्यालय से गृह विज्ञान में एम0 ए0 किया। 2005 में भागलपुर विश्वविद्यालय से पी-एच0 डी0 किया।     

मैं 1986 में समाज कार्य और नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इण्डियन वुमेन से जुड़ने के अलावा राजनीति से भी जुड़ गई। ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के भागलपुर इकाई की वाईस प्रेजिडेंट बनी। मीटिंग, धरना, प्रदर्शन खूब किया। 1989 के दंगा के बाद वह सब भी ख़त्म हो गया। हाँ, बिहार महिला समाज की सदस्य मम्मी के जीवित रहते तक रही। अब अपना वह जीवन सपना-सा ही लगता है। जन्म से ही मैं पापा के चले हुए राह पर चलती रही, उनकी तरह विचार से कम्युनिष्ट हूँ, मन से थोड़ी गाँधीवादी और नास्तिक हूँ। पूजा-पाठ या ईश्वर की किसी भी सत्ता में मेरा विश्वास नहीं। परन्तु त्योहार खूब मज़े से मनाती हूँ। छठ में मोतिहारी अपने मामा-मामी और मम्मी के मामा-मामी के पास हर साल जाती रही। दिवाली, जगमग करता दीपों का त्योहार मेरे मन के संसार को उजियारा से भर देता है। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और नया साल मेरे लिए प्रफुल्लित करने वाला दिन होता है हमेशा।  

10वीं से लेकर एम0 ए0 और लॉ की पढ़ाई मैंने ऐसे की जैसे कोई नर्सरी से लेकर 10 वीं तक पढ़ता है। नर्सरी के बाद पहली कक्षा फिर दूसरी कक्षा फिर तीसरी...। बिना यह सोचे कि आगे क्या करना है। बस पढ़ते जाओ पढ़ते जाओ, पास करते जाओ। अब यूँ महसूस होता है जैसे कितनी कम-अक़्ल थी मैं, भविष्य में क्या करना है, सोच ही नहीं पाई। लॉ करने के बाद बिहार बार काउन्सिल की सदस्यता ले ली। परन्तु ज्यादा काम नहीं कर सकी। क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में तो तूफ़ान आना बाक़ी था, तो रास्ता और मंज़िल दोनों मेरी हाथ की लकीरों से खिसक गया। 
 
1989 के भागलपुर दंगा में मेरा घर प्रभावित हुआ और 22 लोगों की हत्या हुई, तो उस घर में रह पाना मुमकिन न था। एक तरह से यायावर की स्थिति में छः माह गुज़रे। दंगा के कारण एम0 ए0 की परीक्षा देर से हुई। दंगा के उस माहौल में और जिस घर में 22 लोग मारे गए हों, वहाँ रहना और पढ़ाई पर ध्यान लगाना बहुत कठिन हो रहा था। लेकिन समय को इन सभी से मतलब नहीं होता है, ज़िन्दगी को तो वक़्त के साथ चलना होता है। कुछ व्यक्तिगत समस्या के कारण भी मेरी मानसिक स्थिति ठीक न थी। फिर भी एम0 ए0 में यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ, टॉपर से 1 नम्बर कम आया था। बाद में 1995 में BET (बिहार एलिजिबिलिटी टेस्ट फॉर लेक्चरशिप) भी किया लेकिन बिहार छोड़कर पुनः दिल्ली आ गई और एक बार फिर से मेरा मुट्ठी से धरती पिछल गई थी।  

कोलकाता के आनन्द बाज़ार पत्रिका के विख्यात पत्रकार गौर किशोर घोष जिन्हें पत्रकारिता के लिए मैग्सेसे अवार्ड मिला था, वे प्रसिद्ध कहानीकार-उपन्यासकार भी थे और जिनकी कहानी पर 'सगीना महतो' फिल्म बनी है; ने मुझे मेरे हालात से बाहर निकालकर अपने साथ शांतिनिकेतन ले गए। शान्तिनिकेतन की अद्धभुत दुनिया ने मुझे सर-आँखों पर बिठाया। शान्तिनिकेतन की स्मृतियों पर मैंने कई संस्मरण भी लिखे हैं। गौर दा ने मुझे बहुत प्यार दिया और मेरे लिए बहुत फिक्रमंद रहे। शान्तिनिकेतन में बहुत से मित्र बने जिनसे आज भी जुड़ी हुई हूँ। हां, यह ज़रूर है कि शांतिनिकेतन छोड़ने के बाद उसने मुझे मेरे हालात पर छोड़ दिया। मेरी तक़दीर को अभी बहुत खेल दिखाना जो था। शान्तिनिकेतन मुझसे छूट गया और फिर एक बार मैं मझधार में आ गई। 

यूँ लगता है जैसे किसी ने मेरे लिए ही कहा था - ''तक़दीर बनाने वाले, तूने कमी न की, अब किसको क्या मिला ये मुक़द्दर की बात है''. यूँ तो तक़दीर से बहुत मिला, पर इस तरह जैसे यह सब मेरे हिस्से का नहीं किसी और के हिस्से का था, जो रात के अँधियारे में तक़दीर के राह भटक जाने से मुझ तक आ गया था। शेष फिर कभी...।   

- जेन्नी शबनम (16. 11. 2022)
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Wednesday, September 14, 2022

99. राजभाषा नहीं राष्ट्रभाषा हिन्दी

महात्मा बुद्ध के समय पाली लोक भाषा थी और इसकी लिपि ब्राह्मी थी। माना जाता है कि पाली भाषा परिवर्तित होकर प्राकृत भाषा बनी और आगे चलकर प्राकृत भाषा के क्षेत्रीय रूपों से अपभ्रंश भाषाएँ बनी। अपभ्रंश भाषा से ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ, जिसका समय 1000 ई0 माना जाता है। अनुमानतः 13वीं शताब्दी में हिन्दी भाषा में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ हुआ। 1800 ई0 के दशक में हिन्दी राष्ट्रीय भाषा के रूप में उभरने लगी थी। सन 1878 में पहला हिन्दी समाचार पत्र प्रकाशित हुआ था। हिन्दी भाषा की लिपि देवनागरी है, जो ब्राह्मी लिपि पर आधारित है। हिन्दी लिखने के लिए खड़ी बोली को आधार बनाया गया।  

हिन्दी शब्द वास्तव में फारसी भाषा का है, जिसका अर्थ है हिन्द से सम्बन्धित। हिन्दी शब्द की निष्पत्ति सिन्धु-सिन्ध से हुई है। ईरानी भाषा में स को ह बोलते हैं, इसलिए सिन्ध को हिन्द बोला गया और सिन्धी को हिन्दी। सन 1500-1800 के बीच हिन्दी में बहुत परिवर्तन हुए तथा इसमें फारसी, अरबी, तुर्की, पश्तो, पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी और अँगरेज़ी आदि शब्दों का समावेश हुआ। 
  
सितम्बर 14, 1949 को भारत की राजभाषा या आधिकारिक भाषा के रूप में हिन्दी भाषा को स्वीकार किया गया, जिसकी लिपि देवनागरी होगी। हिन्दी के प्रचार-प्रसार और महत्व को बढ़ाने के लिए 1953 ई0 में भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने आधिकारिक तौर पर हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की। हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए विश्व हिन्दी सम्मलेन की शुरुआत हुई और पहला आयोजन जनवरी 10, 1975 को नागपुर में हुआ। इसके बाद सन 2006 से प्रति वर्ष 10 जनवरी को विश्व हिन्दी दिवस मनाया जाता है। वर्ष 1918 में गाँधी जी ने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में हिन्दी को राजभाषा बनाने को कहा था। साल 1881 में बिहार ने सबसे पहले हिन्दी को आधिकारिक राजभाषा बनाया था।  

हिन्दी देश की पहली और विश्व की तीसरी भाषा है जिसे सबसे ज्यादा बोला जाता है। लगभग 70% लोग भारत में हिन्दी बोलते हैं; फिर भी हिन्दी को एक दिवस के रूप में मनाया जाता है। निःसंदेह ब्रिटिश शासन के बाद अँगरेज़ी का बोलबाला हो गया; पर आज़ादी के बाद इसे आधिकारिक भाषा के साथ ही मातृभाषा बना देना चाहिए था। हालाँकि अ-हिन्दी भाषी लोगों को इससे आपत्ति थी। जिस तरह अँगरेज़ी को मुख्य भाषा बना दिया गया उसी तरह हिन्दी को हर प्रान्त को अपनाना चाहिए। 

मेरी दादी हिन्दी लिखना-पढ़ना जानती थीं। वे कैथी लिपि में भी लिखना-पढ़ना जानती थीं। वे बज्जिका भी बोलती थीं। कैथी लिपि का प्रयोग बिहार में 700 साल पहले से लेकर ब्रिटिश काल तक होता रहा है। सरकारी कामकाज और ज़मीन के दस्तावेज़ कैथी लिपि में लिखे जाते थे। शेरशाह ने 1540 ई0 में इस लिपि को अपने कोर्ट में शामिल किया था। सन 1880 के दशक में बिहार के न्यायालयों में आधिकारिक भाषा का दर्ज़ा दिया गया था। अब तो कैथी लिपि पढ़ने-लिखने वालों की संख्या नगण्य होगी। 

कुछ साल पहले मैं एक पत्रिका के कार्यालय गई थी। वहाँ सब-एडिटर के पोस्ट के लिए लिखित परिक्षा हुई, जिसमें अँगरेज़ी से हिन्दी अनुवाद करने को कहा गया। मुझे लगा कि हिन्दी पत्रिका के लिए अँगरेज़ी का ज्ञान आवश्यक क्यों है? लेकिन हमारे देश की सच्चाई यही है कि निजी संस्थानों में आपको नौकरी तभी मिलेगी जब आपको अँगरेज़ी आती हो। अँगरेज़ी माध्यम से पढ़ाई ही किसी कार्य के लिए उपयुक्त माना जाता है। इसी का परिणाम है कि देश का ग़रीब, मज़दूर, किसान, माध्यम वर्ग भी अब अपने बच्चों को अँगरेज़ी मीडियम के स्कूल में पढ़ाता है। छोटी-से-छोटी नौकरी में भी अँगरेज़ी ही चाहिए; भले लिख न सके पर फर्राटेदार बोलना आना चाहिए। अगर अँग्ररेज़ी न आती हो, तो बाहर ही नहीं घर में भी सम्मान नहीं मिलता है। 

मुझे लगता है कि हमारी भाषा और बोली जो भी हो, हमें हिन्दी को अपनी मातृभाषा बनानी ही होगी। दुनिया के सभी देशों की अपनी-अपनी भाषा है, एक भारत है जिसकी अपनी भाषा नहीं, यह बेहद दुखद है। शान से हम हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़ा मनाते हैं। सरकार को चाहिए कि हिन्दी को पूरे देश में प्रथम भाषा के रूप में स्थापित करे। हिन्दी राजकीय नहीं बल्कि राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित किया जाए। शिक्षा का माध्यम हिन्दी हो, सभी नौकरी के लिए हिन्दी लिखना-पढ़ना और फर्राटेदार हिन्दी बोलना अनिवार्य हो। यह सब रातों-रात सम्भव नहीं है; लेकिन योजना और रूपरेखा बनाकर 10-12 साल में इसे अनिवार्य किया जा सकता है। फिर हम हिन्दी दिवस नहीं बल्कि अँगरेज़ी दिवस मनाएँगे और दुनिया में सम्मान पाएँगे।  

- जेन्नी शबनम (14. 9. 2022)
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Monday, August 15, 2022

98. युवा भारत का अमृत महोत्सव

भारत की स्वतन्त्रता का 75वाँ साल इस वर्ष पूरा हुआ है। यूँ कहें कि साल 2022 देश की आज़ादी के नाम है। आज़ादी के इस अमृत महोत्सव की तैयारी हर तरफ़ बहुत ज़ोर-शोर से हुई। हर जगह ख़ुशहाली का माहौल है। हर एक व्यक्ति अपने-अपने तरीक़े से आज़ादी के इस पर्व को मना रहा है। देश की अधीनता, स्वतन्त्रता-आंदोलन, स्वतन्त्रता सेनानियों का बलिदान, हमारा इतिहास, आज़ादी के बाद देश के विकास में योगदान आदि चलचित्र की भाँति ज़ेहन में चल रहा है। हमारे लिए गर्व की बात है कि अधीनता से मुक्ति के समय के कुछ लोग अब भी हमारे बीच हैं और उनके सुनाए क़िस्से हममें जोश भर देते हैं। आज इस अमृत-महोत्सव पर हर घर तिरंगा फहराने का उत्साह है। 

देश की स्वतन्त्रता के वर्ष की गिनती के अनुसार हमारा देश प्रौढ़ हो चुका है; लेकिन मेरा मानना है कि जबतक देश विकासशील अवस्था में था, तो देश बालक था। अब हम विकसित देश की श्रेणी में आ चुके हैं, तो हमारा देश युवा माना जाएगा। युवा-शक्ति देश की धरोहर है और देश को आगे बढ़ाने की ऊर्जा भी। देश का युवा बने रहना देश के युवाओं पर निर्भर करता है और देश कब तक युवा रहेगा यह हमारे युवाओं की समझ और कर्मठता पर निर्भर है। 

जब हमें आज़ादी मिली, देश बहुत विकट परिस्थितियों से गुज़र रहा था। एक तरफ़ हुकूमत बदल रही थी, देश का विभाजन हो गया था, तो दूसरी तरफ़ दंगा शुरू हो गया। देश की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक स्थितियाँ अस्थिर थीं। जाति, धर्म, शिक्षा, प्रांत, भाषा, बोली आदि कई तरह के मसले से हमारा समाज टूट चुका था। समाज पूर्णतः विभाजित हो चुका था। ऐसे में उस समय पूरे देश को एकजुट कर विकास कार्य करना इतना सहज नहीं था; परन्तु हमारे राजनीतिज्ञों, समाज सेवियों, चिन्तकों, प्रबुद्ध वर्ग तथा युवाओं के कठिन प्रयास से देश की स्थिति बदली और आज हम आज़ादी का जश्न मन रहे हैं हैं।   

हमारे कर्मठ नेताओं, सामजिक कार्यकर्ताओं और विचारकों के सम्मिलित प्रयास से देश की स्थिति में सुधार हुआ और हमारा देश विकासशील देश से विकसित देश की श्रेणी में आ गया। भारत पूरी तरह अब आत्मनिर्भर है। इन संघर्षों और सुधारों में हमारे बुज़ुर्ग नेताओं और समाज सेवियों के अलावा युवा-शक्ति का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। संघर्षशील पूर्वजों और बलिदानियों को विस्मृत न कर उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए कि संघर्ष और विपरीत समय में साहस को कैसे संगठित कर मानसिक सम्बल बनाया जाए और आगे बढ़ा जाए। 

आज़ादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में पहली बार दिल्ली विधान सभा को आम जनता के लिए खोला गया। विधान सभा परिसर में वह फाँसी घर भी है, जहाँ अंगरेज़ों द्वारा स्वतन्त्रता सेनानियों और क्रान्तिकारियों को फाँसी दी जाती थी। फाँसी घर, फाँसी के लिए प्रयुक्त रस्सी, जूते-चप्पल आदि देखकर मन विह्वल हो गया। सोचती हूँ कि उन युवा वीर क्रान्तिकारियों में कितना जोश और जज़्बा रहा होगा, जो देश की स्वतंत्रता के लिए शहीद हो गए। आज़ादी के लिए फाँसी पर चढ़े अज्ञात वीर बलिदानियों को मन से सलाम!   
     
देश की सुरक्षा की मुहिम में हिस्सा लेना हो या बलिदान देना, फ़ौज़ में शामिल होकर देश की सेवा करनी हो या खेत-खलिहान से लेकर राजपथ तक युवाओं की भागीदारी अचम्भित करती है। सत्ता में हों या विपक्ष में, युवाओं के जोश में कहीं कमी नहीं दिखती है। शिक्षा, तकनीक, कला, खेल, राजनीति, व्यवसाय इत्यादि हर क्षेत्र में युवा बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं और देश का नाम स्थापित करते हैं। युवा-शक्ति को अगर सार्थक तरीके से देश के उत्थान में लगाया जाए तो निःसंदेह भारत विश्वगुरु बन सकता है। हालाँकि कुछ राजनीतिक और ग़ैर राजनितिक दल युवा-शक्ति का ग़लत तरीके से उपयोग कर भारत में अशांति और अराजकता फैला रहे हैं, जिसपर अंकुश लगाकर उन्हें सही दिशा देना हर एक भारतवासी का कर्त्तव्य है। 

एक बात जो मेरे ज़ेहन में सदैव रहती है कि दर्द के सभी दंश को झेलते हुए आज़ादी में विस्थापित हुए परिवार ने ख़ुद को कितनी कठिनाई से सँभाला होगा। लोगों ने छोटा-से-छोटा काम कर अपने परिवार की देखभाल की होगी। जो कार्य कभी नहीं किया होगा वक़्त की विवशता ने वह काम भी कराया। मेहनत और हौसला के बल पर कई लोगों ने बाद में समृद्धि हासिल की; लेकिन मंज़िल पाने तक की राह कितनी कठिन रही होगी, इस बात की कल्पना ही हम कर सकते हैं। यह बात क़ाबिले-ग़ौर है कि अगर हममें जज़्बा हो, तो हम किसी भी परिस्थिति में संतुलित रहकर अपनी राह बनाते हैं और एक मुक़ाम हासिल कर सकते हैं। 
 
नवम्बर 2017 में एक दिन मेरे मन में आया कि कुछ सामाजिक कार्य मैं पुनः प्रारम्भ करूँ, क्योंकि छात्र जीवन में सक्रिय राजनीति और सामाजिक कार्य से मैं जुड़ी हुई थी। लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर सब कुछ असम्भव लगने लगा। मन में विचार आया कि किसी ग़ैर सरकारी संस्था से जुड़कर कुछ काम करूँ। कई संस्थाओं का पता चला। दिल्ली के सरिता विहार में एक ग़ैर सरकारी संस्था है जहाँ ई-मेल के द्वारा मेरी बात हुई और उन्होंने आकर उनका केंद्र देखने को कहा। हाँ, मुझे कोई कार्य वहाँ भी न मिला, जो वैतनिक हो, पर आश्वासन मिला कि अगर मेरे लायक कोई कार्य हुआ तो वे सूचित करेंगे। जब मैं वहाँ गई, तो उनके कार्य देखकर दंग रह गई। डोनेशन में मिले पुराने सामान का उपयोग और प्रयोग बहुत सार्थक रूप से किया जाता है। हर छोटे-से-छोटे बेकार सामान से बहुत सुन्दर और उपयोगी सामान तैयार होता है। मुझे बेहद सुखद आश्चर्य हुआ कि जिन चीज़ों को लोग बेकार समझकर फेंक देते हैं उससे न सिर्फ़ उपयोगी सामान बन रहा है, बल्कि देश के जिस हिस्से में ज़रूरत हो वहाँ पहुँचाया भी जा रहा है। 

मैं सोचने लगी कि अगर हमारे सोच का विस्तार हो तो समाज में बहुत से ऐसे कार्य हैं जो किए जा सकते हैं। कोई भी कार्य छोटा या बड़ा नहीं है। बस सूझ-बूझ की ज़रूरत है। न जाने ऐसी कितनी संस्थाएँ हैं, जो युवाओं के द्वारा संचालित हैं, जिससे समाज सेवा का कार्य भी हो रहा है और उससे जुड़े लोगों का जीवन यापन भी। सिलाई केन्द्र, पशुपालन, शिक्षण-प्रशिक्षण का कार्य, लघु उद्योग, अलग-अलग तरह के व्यवसाय आदि में भारत का युवा बहुत बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रहा है। 

टी. वी. पर ख़बर देखी कि एक शिक्षित लड़की चाय का ठेला लगाकर हर दिन सैकड़ों रुपये कमा रही है। विदेश से शिक्षा प्राप्त नौजवान अपने गाँव में रहकर वैज्ञानिक तरीके से जैविक खेती कर रहा है। किसी ने कोचिंग सेन्टर खोलकर न सिर्फ़ शिक्षा का प्रसार किया है; बल्कि बड़ी कमाई करके उच्च वर्ग का जीवन जी रहा है। वेबसाइट के द्वारा मार्केटिंग, फ़ूड डिलीवरी, दवा या घर के सामान की होम डिलीवरी आदि जितने भी कार्य हैं लगभग सभी में युवा कार्य करते हैं। एयरपोर्ट पर युवतियों के द्वारा अलग से टैक्सी चालन की व्यवस्था है। 

आज स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में गुरुग्राम के एक वृद्धाश्रम में ध्वजारोहण में सम्मिलित होने का अवसर मिला। बहुत ख़ुशी हुई, जब वहाँ रहने वाले एक बुज़ुर्ग ने ध्वजारोहण किया। वहाँ कार्यरत सभी सहयोगी युवा हैं और बहुत मन से बुज़ुर्गों की सेवा करते हैं। वहाँ एक बुज़ुर्ग से बात हुई, जो पाकिस्तान के एक संभ्रांत परिवार से थे। तीन वर्ष की उम्र में इन्हें पाकिस्तान छोड़कर आना पड़ा। उनके पिता साथ न आकर बाद में आने वाले थे। वहाँ उन्हें सुरक्षित रखने वाले दूसरे सम्प्रदाय के व्यक्ति और उनके पिता को पाकिस्तान के ही लोगों ने हत्या कर दी। किसी भी देश के विस्थापित परिवार का दर्द सुनकर मन सहम जाता है। हत्या करने वाले युवा संवेदनहीन होते हैं। मैं अक्सर सोचती हूँ कि युवाओं का मानवीय और संवेदनशील होना आवश्यक है, जिससे उनका दृष्टिकोण बदले, ताकि कभी भी दंगा या अपराध न हो। इसके लिए युवाओं के मानसिक विकास और सोच को सकारात्मक दिशा देना होगा।   

मुझे याद है जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी, तब डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, सरकारी अधिकारी का पेशा अपनाने पर ज़ोर दिया जाता था। जो पढ़ाई में ज़ियादा अच्छा हो, उनसे उम्मीद रहती थी कि वे यू. पी. एस. सी. या राज्य प्रशासन या बैंक अधिकारी के पद पर ज़रूर पहुँचेंगे। धीरे-धीरे समय के बदलने और वैश्वीकरण के बाद अन्य पेशा पर भी ध्यान गया। अब तो युवाओं द्वारा ऐसे-ऐसे कार्य हो रहे हैं, जिससे पैसा और शोहरत दोनों मिल रहा है। लोगों के सोचने का नज़रिया काफ़ी बदल गया है। अब हर काम को इज़्ज़त के रूप में देखा जा रहा है।  

आज जब देश अपने युवावस्था में है, देश के युवाओं से उम्मीद बहुत बढ़ गई है। समाज के सरोकार से जुड़कर समय, शक्ति और संसाधनों का सही उपयोग कर देश को समृद्ध, सक्षम एवं शक्तिशाली बनाए रखने के लिए युवा-शक्ति को चिन्तनशील और कर्तव्यपरायण बनना होगा। तभी देश का वर्तमान और भविष्य जो युवा-शक्ति के हाथ में है, सुरक्षित रहेगा और विश्व के माथे पर भारत चाँद-सा चमकता रहेगा। 
 
- जेन्नी शबनम (15. 8. 2022)
(स्वतन्त्रता दिवस की 75वीं वर्षगाँठ) 
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Tuesday, July 19, 2022

97. मरजीना का लोकार्पण

जुलाई 18, 2022 को संध्या 6 बजे 'पृथ्वी ललित कला एवं सांस्कृतिक केंद्र', सफ़दरजंग एन्क्लेव, नई दिल्ली में 'मरजीना' (क्षणिका-संग्रह) जो मेरी तीसरी पुस्तक है, का लोकार्पण हुआ। 
आज का दिन मेरे लिए ख़ास महत्व रखता है। 44 वर्ष पूर्व आज के दिन मेरे पिता इस संसार से विदा हुए थे। मेरे पिता की पुस्तक 'Sarvodaya of Gandhi' के नवीन संस्करण का लोकार्पण जुलाई 18, 2014 में हुआ था। मरजीना का लोकार्पण जनवरी 7, 2022 को होना था, क्योंकि मेरी पहली दोनों पुस्तकों का लोकार्पण इस तिथि को ही हुआ; लेकिन पुस्तक मेला स्थगित हो जाने के कारण हर काम अधूरा रह गया। मेरी इच्छा हुई कि मरजीना जिसे मैंने अपनी माँ को समर्पित किया है, पिता की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि के रूप में लोकार्पित हो। 
मेरी पुस्तकें 'लम्हों का सफ़र' से लेकर 'प्रवासी मन' और 'मरजीना' तक की यात्रा में कई लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं। आदरणीय श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु', सुश्री संगीता गुप्ता, श्री आदिल रशीद एवं प्रोफ़ेसर डॉ0 राजीव रंजन गिरि के हाथों पुस्तक का लोकार्पण हुआ। इस अवसर पर वक्ता के रूप में आप सभी ने बहुमूल्य वक्तव्य दिए; आप सभी का हार्दिक आभार। संगीता गुप्ता दी का हृदय से आभार; जिन्होंने अपनी आर्ट गैलरी में  लोकार्पण का सफल आयोजन किया और मुझे अपनी बात कहने और क्षणिकाएँ सुनाने का अवसर दिया।   
लोकार्पण के अवसर पर श्री बी0 के0 वर्मा 'शैदी', श्रीमती वीरबाला काम्बोज, श्री अवधेश कुमार सिंह, सुश्री अर्चना अग्निहोत्री, श्री राजेश कुमार श्रीवास्तव एवं श्रीमती मधुप्रिया, श्रीमती अनुपमा त्रिपाठी, सुश्री सुनीता अग्रवाल, श्रीमती संजु तनेजा एवं श्री राजीव तनेजा, श्रीमती अपराजिता शुभ्रा, डॉ0 आरती स्मित, श्री अनिल कुमार एवं श्रीमती अनिता कुमार, श्री मुकेश कुमार सिन्हा, डॉ0 उदयन कुमा झा, श्री मनोज कुमार सिंह, श्री हिमांशु भगत, श्री संजीव कुमार सिन्हा, सुश्री माधुरी शर्मा, श्री संकल्प शर्मा, श्री अनुभव मित्तल एवं श्रीमती प्रियंका, सुश्री मनस्विनी गुप्ता, श्री बिष्णु भारद्वाज, श्री कैलाश शर्मा भारद्वाज एवं श्री मनीष कुमार सिन्हा ने उपस्थित होकर मेरा उत्साहवर्धन किया। जिनके नाम छूट रहे हैं, उनसे मैं माफ़ी चाहूँगी। आप सभी ने इस आयोजन को सफल बनाया, वक़्त दिया और मुझे शुभकामनाएँ दीं; आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया।  
जब इस क्षणिका-संग्रह के लिए नाम सोच रही थी तो श्री आवेश तिवारी ने नाम सुझाया - मरजीना। मुझे इसका अर्थ मालूम नहीं था, सिवा इसके कि 'अलीबाबा चालीस चोर' कहानी की मुख्य पात्र मरजीना है। इसका अर्थ उन्होंने बाद में बताया, जो मेरी इस पुस्तक के लिए बहुत सटीक नाम है। 'मरजीना' शब्द अरबी भाषा के मर्जान से उत्पन्न है जिसका अँगरेज़ी अर्थ है लिटिल पर्ल अर्थात् छोटा मोती। मोती, सोना, कोरल, रूबी को मरजीना कहते हैं। 
 
यूँ तो नन्हे-नन्हे मोती सागर में पाए जाते हैं; लेकिन मेरा मन किसी सागर से कम तो नहीं! मेरी रचनाओं का सर्जन मेरे मन के सागर की अतल गहराइयों में होता है। अपने अनुभव और अनुभूतियों के छोटे-छोटे मोती इस पुस्तक में बिखेर दी हूँ, ताकि मेरे एहसास मरजीना की तरह चमकते, दमकते, लुढ़कते, फिसलते व पिरोते हुए सभी के मन तक पहुँचे तथा इसे महसूस करते हुए मेरे हिस्से का संसार, जो मेरा सरमाया है, दुनिया देखे। 
आज पुस्तक प्रेमियों को अपनी 'मरजीना सौंप रही हूँ, इस विश्वास के साथ कि मेरी लेखनी के सफ़र के हमराही बनकर आप मेरा मार्गदर्शन करेंगे, मेरी कमियाँ बताएँगे और मेरे साथ मेरी अनुभूतियों के सफ़र पर चलेंगे।
आप सभी का एक बार फिर से दिल से धन्यवाद और आभार!
- जेन्नी शबनम (18. 7. 2022)
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Sunday, July 3, 2022

96. लम्हा-लम्हा एहसास - अनुपमा त्रिपाठी 'सुकृति'


डॉ. जेन्नी शबनम की पुस्तक 'लम्हों का सफ़र' पढ़ रही हूँ। लम्हों के सफ़र में लम्हा-लम्हा एहसास पिरोये हैं। अपनी ही दुनिया में रहने वाली कवयित्री के मन में कसक है, जो इस दुनिया से ताल-मेल नहीं बैठा पाती हैं। बहुत रूहानी एहसास से परिपूर्ण कविताएँ हैं। गहन हृदयस्पर्शी भाव हैं। प्रेम की मिठास को ज़िन्दगी का अव्वल दर्जा दिया गया है। दार्शनिक एहसास के मोतियों से रचनाएँ पिरोई गई हैं। किसी और से जुड़कर उसके दुःख को इतनी सहृदयता से महसूस करना एक सशक्त कवि ही कर सकता है। पीड़ा को, दर्द को, छटपटाहट को शब्द मिले हैं। ज़मीनी हक़ीक़त से जुड़ी तथा जीवन की जद्दोजहद प्रस्तुत करती हुई कविताएँ हैं। सभी कविताओं को सात भाग में विभाजित किया है: 
1.जा तुझे इश्क़ हो 2.अपनी कहूँ 3. रिश्तों का कैनवास 4. आधा आसमान 5. साझे सरोकार 6. ज़िन्दगी से कहा-सुनी 7. चिन्तन 

रिश्तों के कैनवास में उन्होंने अनेक कविताएँ अपनी माँ, पिता, बेटा और बेटी को समर्पित कर लिखी हैं। 

आइए उनकी कुछ कविताओं से आपका परिचय करवाऊँ। 

'पलाश के बीज \ गुलमोहर के फूल' में बहुत रूमानी एहसास हैं। बीते हुए दिनों को याद कर एक टीस-सी उठती प्रतीत होती है:

याद है तुम्हें 
उस रोज़ चलते-चलते
राह के अंतिम छोर तक
पहुँच गए थे हम
सामने एक पुराना-सा मकान
जहाँ पलाश के पेड़
और उसके ख़ूब सारे, लाल-लाल बीज
मुठ्ठी में बटोरकर हम ले आए थे
धागे में पिरोकर, मैंने गले का हार बनाया
बीज के ज़ेवर को पहन, दमक उठी थी मैं
और तुम बस मुझे देखते रहे
मेरे चेहरे की खिलावट में, कोई स्वप्न देखने लगे
कितने खिल उठे थे न हम! 

अब क्यों नहीं चलते
फिर से किसी राह पर
बस यूँ ही, साथ चलते हुए
उस राह के अंत तक
जहाँ गुलमोहर के पेड़ों की क़तारें हैं
लाल- गुलाबी फूलों से सजी राह पर
यूँ ही बस...!

फिर वापस लौट आऊँगी
यूँ ही ख़ाली हाथ
एक पत्ता भी नहीं
लाऊँगी अपने साथ!

कवयित्री का प्रकृति प्रेम स्पष्ट झलक रहा है। सिर्फ़ यादें समेट कर लाना कवयित्री की इस भावना को उजागर करता है कि उनकी सोच भौतिकतावादी नहीं है। प्रकृति तथा कविता से प्रेम उनकी कविता 'तुम शामिल हो' में भी परिलक्षित होता है, जब वे कहती हैं:

तुम शामिल हो
मेरी ज़िन्दगी की
कविता में...

कभी बयार बनकर
...
कभी ठण्ड की गुनगुनी धूप बनकर
...
कभी धरा बनकर
...
कभी सपना बनकर
... 
कभी भय बनकर
...
जो हमेशा मेरे मन में पलता है
...
तुम शामिल हो मेरे सफ़र के हर लम्हों में
मेरे हमसफ़र बनकर
कभी मुझमे मैं बनकर
कभी मेरी कविता बनकर !

बहुत सुंदरता से जेन्नी जी ने प्रकृति प्रेम को दर्शाया है और उतने ही साफ़गोई से अपने अंदर के भय का भी उल्लेख किया है जो प्रायः सभी में होता है। ऐसी रचनाएँ हैं जिन्हें बार-बार पढ़ने का मन करता है। अब यह रचना पढ़िए 'तुम्हारा इंतज़ार है':

मेरा शहर अब मुझे आवाज़ नहीं देता
नहीं पूछता मेरा हाल
नहीं जानना चाहता
मेरी अनुपस्थिति की वजह
वक़्त के साथ शहर भी
संवेदनहीन हो गया है
या फिर नयी जमात से फ़ुर्सत नहीं
कि पुराने साथी को याद करे
कभी तो कहे कि आ जाओ
''तुम्हारा इंतज़ार है"!
प्रायः नए के आगे हम पुराना भूल जाते हैं, इसी हक़ीक़त को बड़ी ही ख़ूबसूरती से बयाँ किया है।

जीवन की जद्दोजहद और मन पर छाई भ्रान्ति को बहुत सुंदरता से व्यक्त किया है कविता 'अपनी अपनी धुरी' में। हमारे जीवन की गति सम नहीं है। इसी से उत्पन्न होती वर्जनाएँ हैं, भय है, भविष्य कैसा होगा। नियति पर विश्वास रखते हुए वे कर्म प्रधान प्रतीत होती हैं। यह कविता ये सन्देश देती है कि भय के आगे ही जीत है।  कर्म करने से ही हम भय पर काबू पा सकते हैं। 

'मैं और मछली' में वो लिखती हैं:

जल-बिन मछली की तड़प
मेरी तड़प क्योंकर बन गई? 
...
उसकी और मेरी तक़दीर एक है
फ़र्क महज़ ज़ुबान और बेज़ुबान का है। 
वो एक बार कुछ पल तड़प कर दम तोड़ती है
मेरे अंतस् में हर पल हज़ारों बार दम टूटता है
हर रोज़ हज़ारों मछली मेरे सीने में घुट कर मरती है। 
बड़ा बेरहम है, ख़ुदा तू
मेरी न सही, उसकी फितरत तो बदल दे!

मछली की इस वेदना को कितने शिद्दत से महसूस किया है आपने, जितनी तारीफ़ की जाये कम है। किसी से जुड़कर उसके सोच से जुड़ना कवयित्री का दार्शनिक सोच परिलक्षित करता है। 

ऐसी ही कितनी रचनाएँ हैं जिनमें व्यथा को अद्भुत प्रवाह मिला है। 

हिन्द युग्म से प्रकाशित की गई ये पुस्तक अमेज़ॉन पर उपलब्ध है। 


आशा है आप भी इन रचनाओं का रसास्वादन ज़रूर लेंगे। धन्यवाद!

- अनुपमा त्रिपाठी 'सुकृति' 

1. 7. 2022
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Wednesday, April 27, 2022

95. भावनाओं को आलोड़ित करता : लम्हों का सफ़र - डॉ. शिवजी श्रीवास्तव

आदरणीय शिवजी श्रीवास्तव द्वारा मेरी पुस्तक 'लम्हों का सफ़र' की समीक्षा:

भावनाओं को आलोड़ित करता - लम्हों का सफ़र


- डॉ. शिवजी श्रीवास्तव


समीक्ष्य कृति- लम्हों का सफ़र
कवयित्री- डॉ. जेन्नी शबनम
पृष्ठ संख्या- 112
संस्करण- प्रथम 2020
मूल्य- ₹120/-
प्रकाशक- हिन्द युग्म ब्लू, सी-31, सेक्टर 20, नोएडा(उ.प्र.)- 201301

          'लम्हों का सफ़र' ये शीर्षक ही ध्यान आकृष्ट करता है। एक क्षण की अवधि अत्यन्त स्वल्प होती है, उसमें कितने क़दम चला जा सकता है? किन्तु जीवन मे कुछ लम्हे ऐसे भी आते हैं जो भाव-जगत् को आलोड़ित करते हुए दीर्घ यात्रा पर ले जाते हैं। डॉ. जेन्नी शबनम की काव्य-कृति 'लम्हों का सफ़र' ऐसे ही संवेदनशील अनुभव-यात्रा को कविता में अभिव्यक्त करती हुई कृति है। सात शीर्षकों में विभक्त इस पुस्तक का हर शीर्षक जीवन का एक यादगार लम्हा है, एक-एक लम्हे की अपनी कई कहानियाँ है, कहीं दर्द है, कहीं प्रेम है, कहीं नारी-नियति के चित्र हैं, कहीं उलाहने हैं, कहीं दायित्व-बोध है तो कहीं घनीभूत करुणा की चरमावस्था है। कवयित्री ने विविध अनुभूतियों को बड़े सलीके से कविता में पिरोया है। 
          संग्रह के प्रथम खण्ड- 'जा तुझे इश्क़ हो' के अन्तर्गत सात कविताएँ हैं। ये सातों कविताएँ प्रेम की घनी अनुभूति की, प्रेम करने की, प्रेम टूटने की और प्रेम में होने की कविताएँ हैं। 'प्रेम करने' में और 'प्रेम में होने' में बड़ा फ़र्क है। जो प्रेम में होता उसका समग्र व्यक्तित्व प्रेममय होता है, इमरोज़ इसका उदाहरण हैं। जेन्नी जी अमृता-इमरोज़ के सम्पर्क में बहुत रही हैं। वे जानती हैं कि प्रेम करना सरल है पर प्रेम में होना कठिन है, लोग प्रेम तो करते हैं पर प्रेम में नहीं होते। इमरोज़ प्रेम में थे, पर हर प्रेम करने वाला इमरोज़ नहीं बन सकता - इसी भाव भूमि पर लिखी कविता 'क्या बन सकोगे एक इमरोज़' में वे कहती हैं- ''ये उनका फ़लसफ़ा था / एक समर्पित पुरुष / जिसे स्त्री का प्रेमी भी पसंद है / इसलिए कि वो प्रेम में है।'' इसी खण्ड की कविता 'जा तुझे इश्क़ हो' में भाषा की व्यंजना चमत्कृत करती है, शायद ही कभी किसी ने किसी को ये शाप दिया होगा ''जा तुझे इश्क़ हो''। वस्तुतः जो प्रेम के मार्ग से नहीं गुज़रे, वे आँसुओं का मूल्य नही जानते, दूसरों की पीड़ा की अनुभूति उन्हें नहीं होती, तो उन्हें यही शाप दिया जा सकता है- ''जा तुझे इश्क हो।'' 
          संग्रह का दूसरा खण्ड है-  'अपनी कहूँ', इसमें पन्द्रह कविताएँ हैं। इस खण्ड में कवयित्री ने अपनी उन अनुभूतियों / पीड़ाओं को अभिव्यक्ति दी है जो निजी होते हुए भी प्रत्येक संवेदनशील मन की हैं। ये कविताएँ 'स्व' से 'पर' तक की अनुभूतियों को समाहित किए हैं, यथा 'मैं भी इंसान हूँ' कविता में हर नारी के मन की पीड़ा देखी जा सकती है- ''मैं एक शब्द नहीं, एहसास हूँ,अरमान हूँ / साँसें भरती हाड़-मांस की, मैं भी जीवित इंसान हूँ।'' 
          जेन्नी जी ने बहुत कम वय में अपने पिता को खोया है, ये पीड़ा उनकी नितांत निजी है, पर ज्यों ही ये पीड़ा- 'बाबा, आओ देखो! तुम्हारी बिटिया रोती है' कविता में व्यक्त होती है, यह हर उस व्यक्ति की पीड़ा बन जाती है, जिसने अल्प वयस में अपने पिता को खोया है। इस खण्ड में प्रबल अतीत-मोह है, बड़ी होती हुई स्त्री बार-बार अतीत में लौटती है और वहाँ से स्मृतियों के कुछ पुष्प ले आती है। समाज मे लड़कियों को अभी भी अपनी इच्छा से जीने की आज़ादी नहीं है, इसीलिए ज्यों-ज्यों लड़की बड़ी होती है, उसका मन अतीत में भागता है। 'जाने कहाँ गई वो लड़की' में इसी दर्द को देखा जा सकता है- ''जाने कहाँ गई, वो मानिनी मतवाली / शायद शहर के पत्थरों में चुन दी गई / उछलती-कूदती वो लड़की''। 'वो अमरूद का पेड़', 'उन्हीं दिनों की तरह', 'ये कैसी निशानी है', 'इकन्नी-दुअन्नी और मैं चलन में नहीं', 'ये बस मेरा मन है', 'उम्र कटी अब बीता सफ़र' ऐसी ही कविताएँ हैं जिनमे कवयित्री का मन अतीत के भाव-जगत् में डूबता-उतराता रहता है। वर्तमान की त्रासद स्थितियों में अतीत और अधिक लुभाता है, पर कभी-कभी मन विद्रोही भी हो जाता है। 'कभी न मानूँ' में ये विद्रोही स्वर देखा जा सकता है- ''जी चाहता है, विद्रोह कर दूँ / अबकी जो रूठूँ,कभी न मानूँ।" 
          तीसरे खण्ड 'रिश्तों का कैनवास' में सात कविताएँ हैं, सातों कविताएँ नितांत निजी रिश्तों के इर्द गिर्द बुनी गई हैं, पर ये कविताएँ निजी होते हुए भी सभी को आंदोलित करती हैं। 'उनकी निशानी' सहेज कर रखी गई पिता की पुरानी चीज़ों की कविता है। इसमे बड़ी ख़ूबसूरती से पिता को याद किया गया है- "उस काले बैग में / उनके सुनहरे सपने हैं / उनके मिज़ाज हैं / उनकी बुद्धिमत्ता है / उनके बोए हुए फूल हैं / जो अब बोन्जाई बन गए।'' पिता के न रहने पर माँ की वेदना को 'माँ की अन्तःपीड़ा' में व्यक्त किया गया है। अपने पुत्र के 18वें, 20वें एवं 25वें जन्मदिन पर उपहार स्वरूप लिखी गईं क्रमशः तीन कविताएँ हैं- 'विजयी हो पुत्र', 'उठो अभिमन्यु' और 'परवरिश'। इन कविताओं में कोरी भावाकुता या स्नेह नहीं है, अपित कुछ उपदेश हैं, शिक्षाएँ हैं जो किसी भी युवा के जीवन-रण में संघर्ष के लिए अनिवार्य हैं। प्रत्येक युवा को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होती है, इस तथ्य को वे विजयी हो पुत्र में पुत्र को बतला रही हैं- ''तुम पांडव नहीं / जो कोई कृष्ण आएगा सारथी बनकर / और युद्ध मे विजय दिलाएगा।'' 'उठो अभिमन्यु' में भी वे यही बल नैतिक उपदेशों के साथ प्रदान कर रही हैं- ''क़दम-क़दम पर एक चक्रव्यूह है / और क्षण-क्षण अनवरत युद्ध है... जाओ अभिमन्यु / धर्म-युद्ध प्रारंभ करो / बिना प्रयास हारना हमारे कुल की रीत नहीं / और पीठ पर वार धर्म-युद्ध नहीं।'' अपनी किशोरी पुत्री को उसके 13वें जन्मदिन में भी वे 'क्रांति-बीज बन जाना' कविता में यही प्रबोध देती हैं कि ''सिर्फ़ अपने दम पर / सपनों को पंख लगाकर / हर हार को जीत में बदल देना / तुम क्रांति-बीज बन जाना।'' वहीं पुत्री के 18वें जन्मदिन पर 'धरातल' कविता में वे उसे यथार्थ के धरातल पर चलने का परामर्श देती हैं- ''जान लो / सपने और जीवन / यथार्थ के धरातल पर ही / सफल होते हैं।'' स्पष्ट है ये कविताएँ नितांत निजी होकर भी हर युवा के लिए ज़रूरी परामर्श की भाँति हैं। 
          चौथे खण्ड- 'आधा आसमान' में दस कविताएँ हैं। शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इस खण्ड में  समाज में स्त्री की स्थिति, पीड़ा, द्वंद्वों और वेदनाओं को स्वर मिले हैं। ये कविताएँ गम्भीर प्रश्न भी उपस्थित करती हैं। 'मैं स्त्री हूँ' कविता बहुत तीखेपन से इस बात को कहती है- ''मैं स्त्री हूँ / इस बात की शिनाख़्त, हर उस बात से होती है / जिसमें स्त्री बस स्त्री होती है / जिसे जैसे चाहे इस्तेमाल में लाया जा सके।'' 'फ़ॉर्मूला' कविता भी इसी पीड़ा को व्यक्त करती है- ''पुरुष के जीवन का गणित और विज्ञान / सीधा और सहज है / जिसका एक निर्धारित फ़ॉर्मूला है / मगर स्त्रियों के जीवन का गणित और विज्ञान / बिलकुल उलट है... उनके आँसुओं के ढेरों विज्ञान हैं / उनकी मुस्कुराहटों के ढेरों गणित हैं।'' इस खण्ड की सभी कविताओं में नारी जीवन का पीड़ाजन्य आक्रोश प्रभावी रूप में व्यक्त हुआ है। 'झाँकती खिड़की', 'मर्द ने कहा', 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' इत्यादि नारी नियति और समाज के दुहरे मानदंडों की कविताएँ हैं। किताबों और हक़ीकत में नारी जीवन में अंतर को 'फूल कुमारी उदास है' कविता में देखा जा सकता है- ''कहानी में, फूल कुमारी उदास होती है /और फिर उसकी हँसी लौट आती है / सच की दुनिया में / फूल कुमारी की उदासी / आज भी क़ायम है।'' ''सच है, कहानी सिर्फ़ पढ़ने के लिए होती है / जीवन मे नहीं उतरती।'' 
          अगले खण्ड 'साझे सरोकार' में नौ कविताएँ हैं। इन कविताओं में सामाजिक विषमताओं और मूल्यहीनता की चिंताएँ हैं। 'शासक' कविता शोषण और शोषक के चरित्र को सामने लाती है- ''इतनी क्रूरता, कैसे उपजती है तुममें / कैसे रच देते हो, इतनी आसानी से चक्रव्यूह / जहाँ तिलमिलाती हैं, विवशताएँ / और गूँजता है अट्टहास।'' 'अब जो बचा है' में नैतिक मूल्यों के ह्रास की चिंता है- 'नैतिकता, जाने किस सदी की बात थी / जिसने शायद किसी पीर के मज़ार पर / दम तोड़ दिया था।'' वर्तमान के प्रति आक्रोश और विद्रोह भी कई कविताओं में देखा जा सकता है, 'आजादी', 'संगतराश', 'नन्ही भिखारिन', 'घर' और 'मालिक की किरपा' ऐसी ही कविताएँ हैं। 
          'भागलपुर दंगा (24.10.1989)' कवयित्री के जीवन में आए भयानक दुःस्वप्न की तरह है। उसकी भयावहता को भी उन्होंने इस कविता में व्यक्त किया है- "कैसे भूल जाऊँ, वो थर्राती-काँपती हवा, जो बहती रही / हर कोने से चीख और ख़ौफ़ से दिन-रात काँपती रही / बेटा-भैया-चाचा सारे रिश्ते, जो बनते पीढ़ियों से पड़ोसी / अपनों से कैसा डर, थे बेख़ौफ़, और क़त्ल ही गई ज़िंदगी।'' इसी वेदना को 'हवा ख़ून-ख़ून कहती है' कविता में भी देखा जा सकता है- 'हवा अब बदल गई है / लाल लहू से खेलती है / बिखेरती है इंसानी बदन का लहू गाँव शहर में / और छिड़क देती है मंदिर-मस्जिद की दीवारों पर / फिर आयतें और श्लोक सुनाती है।'' 
          संग्रह के छठवें खण्ड 'जिंदगी से कहा-सुनी' में दस कविताएँ तथा अंतिम सातवें खण्ड 'चिंतन' में आठ कविताएँ हैं। इन दोनो खण्डों की कविताएँ कहीं दार्शनिक भाव-बोध के प्रश्नों के उत्तर तलाशने की चेष्टा करती हैं तो कभी वैराग्य भाव और कभी अवसाद ग्रस्त होते मन के द्वंद्व को चित्रित करती हैं। गूढ़ विषयों के चयन और जटिल मनःस्थितियों के चित्रण के कारण इन कविताओं में उलझाव अधिक है सहजता कम, यथा 'मैं' कविता में व्यक्त ये दार्शनिक चिंतन- ''जीवन मैं, मृत्यु भी मैं / इस पार मैं, उस पार भी मैं / प्रेम मैं, द्वेष भी मैं / ईश की संतान मैं, ईश्वर भी मैं /आत्मा मैं, परमात्मा भी मैं / मैं, मैं, सिर्फ़ मैं / सर्वत्र मैं।'' कुछ कविताओं के तो शीर्षक भी जटिल हैं, यथा- 'देह, अग्नि और आत्मा...जाने कौन चिरायु', 'हँसी, ख़ुशी और ज़िंदगी बेकार है पड़ी', 'अज्ञात शून्यता', 'रिश्तों का लिबास सहेजना होगा' इत्यादि। वस्तुतः इन दो खण्डों की कविताएँ संग्रह की अन्य कविताओं से अलग धरातल की हैं, जो एक विशेष बौद्धिक वर्ग के लिए हैं। 
          समग्रतः भाव-जगत् को झंकृत करते इस उत्कृष्ट संग्रह के लिए जेन्नी जी को बधाई देते हुए 'लम्हों का सफ़र' कविता के एक अंश से ही अपनी बात को विराम देता हूँ- 'हम सब हारे हुए मुसाफ़िर / न एक दूसरे को ढाढ़स देते हैं / न किसी की राह के काँटे बीनते हैं / सब के पाँव के छाले / आपस मे मूक संवाद करते हैं / अपने-अपने लम्हों के सफ़र पर निकले हम / वक़्त को हाज़िर नाज़िर मानकर / अपने हर लम्हे को यहाँ दफ़न करते हैं / चलो अब अपना सफ़र शुरू करते हैं।''
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Mob: 9557518552
date: 19. 8. 2021 
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Tuesday, March 8, 2022

94. आधी दुनिया की पूरी बातें

भारत कोकिला सरोजिनी नायडू ने 24 दिसम्बर 1914 को श्री गोपाल कृष्ण गोखले को एक पत्र लिखा था। पत्र में लिखा ''... ऐसा लगता है कि हमें भारत को उसकी बीमारी से मुक्त करने से पहले पुरुषों की एक नयी नस्ल की आवश्यकता है। हम मकसद को लेकर अधिक प्रतिबद्धता, भाषण में अधिक साहस और कार्रवाई में अधिक ईमानदारी चाहते हैं। हम ऐसे पुरुष चाहते हैं जो इस देश से प्यार करते हों और अपने भाइयों-बहनों की सेवा और सहायता के लिए इच्छुक रहते हैं। वे नहीं जो कपट और स्वार्थ से देश के पतन में और बढ़ावा दे रहे हैं। मैं आपको कैसे बताऊँ कि मुझे दिखावा और पूर्वाग्रहों से कितनी सख़्त नफ़रत है। इसी तरह साम्प्रदायिक संकीर्णता, दृष्टि और उद्देश्य की प्रांतीय सीमाओं से भी मुझे सख़्त नफरत है। मानव निर्मित विभाजनों और मतभेदों के सभी अभिमानी परिष्कार मुझे थका चुके हैं।" 
 
इस पत्र को पढ़कर एक बात मेरे ज़ेहन में आती है कि उन दिनों क्रांतिकारियों और आज़ादी के लिए प्रतिबद्ध लोगों को छोड़कर कुछ ऐसे पुरुष भी थे जो कुटिल और बेईमान थे, जिनकी मानसिकता समाज के विरुद्ध थी। सरोजनी नायडू का पुरुष की नयी नस्ल की बात कहना पुरुष के सोच, मासिकता और कायरता को दर्शाता है। निःसंदेह अगर ऐसा न होता तो किसी भी सदी में कभी भी देश ग़ुलाम न हुआ होता; चाहे मुग़ल शासकों की ग़ुलामी हो या अँगरेज़ों की। कठिन संघर्षों के बाद अब हमारा देश भगौलिक रूप से आज़ाद है, लेकिन मानसिक ग़ुलामी से आज़ादी की हर सम्भावना अब धूमिल पड़ती दिखती है। इसके लिए दोषी कोई ख़ास समाज, सम्प्रदाय, जाति, धर्म नहीं, बल्कि सदियों से रोपित व पोषित हमारी मानसिकता है। 
 
एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है, 'ज़र, ज़मीन, जोरू ज़ोर की, नहीं तो किसी और की'। आख़िर ऐसा क्या बदलाव हुआ जो ऐसी लोकोक्ति बनी, हमें इसपर विचार करना चाहिए। ज़र यानी संपत्ति और ज़मीन से स्त्री की समानता क्यों? एक ही समानता है कि ताक़त के बल पर इन तीनों पर आधिपत्य जमाया जा सकता है। ग़ुलाम भारत में स्त्रियाँ संपत्ति की तरह देखी जाती थीं। अगर किसी राज्य या रियासत को अपने अधीन करना है तो युद्ध में जीत के बाद संपत्ति के साथ ही स्त्रियों पर भी अधिकार कर लिया जाता था। कई वीरांगनाओं ने अधीनता स्वीकार न कर जंग किया और मृत्यु को गले लगाया, कुछ स्त्रियों ने जौहर कर आत्मदाह किया तो कुछ ने पति के साथ सती हो जाना स्वीकार किया। ग़ुलामी से पहले भी स्त्रियों पर अत्याचार हुए हैं क्योंकि स्त्री की शारीरिक शक्ति पुरुष से कम है, और इसका फ़ायदा हर युग में पुरुषों ने उठाया है। अहल्या की कहानी से यह बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। बेहद अफ़सोसनाक है कि अपराधी पुरुष हैं और सज़ा स्त्रियाँ पाती हैं। आज के वक़्त में इस पर गहन विमर्श और बदलाव की
ज़रुरत है।
 
मम्मी (2017)
मम्मी के साथ एक मंच पर मैं
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
आज के समय में ज़्यादातर प्रगतिशील होने का ढोंग ही होता है, क्योंकि मानसिक रूप से आज भी सदियों पुरानी रूढ़ियों और परम्पराओं के प्रभाव से हम उबर नहीं सके हैं। कहीं न कहीं हमारा सोच एक ऐसे जाल में उलझा हुआ है जो रूढ़ियों, परम्पराओं, प्रथाओं, चलन, रिवाज इत्यादि के द्वारा सदियों पहले बुना गया था। निश्चित ही उस समय की यह ज़रुरत रही होगी, क्योंकि हर कार्य के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है। समय के उस दौर में जो आवश्यक रहा होगा, वह भी विकास प्रक्रिया के अनुसार सोच के बदलाव से ही संभव हुआ होगा; अन्यथा आज भी पाषाण युग में मानव सभ्यता जी रही होती। 

हमारे सोच को मानसिक ग़ुलामी ने इस-क़दर जकड़ रखा है कि समय के साथ हुए परिवर्तन के बावजूद देखने का नज़रिया रूढ़िवादी और ढकोसलावादी ही है, विशेषकर स्त्रियों के लिए। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ पुरुष का सोच ऐसा है, बल्कि स्त्रियाँ स्वयं मानसिक ग़ुलामी की शिकार हैं; ग़लत रूढ़ियों को बढ़ावा देती हैं, परम्पराओं और प्रथाओं के नाम पर। ऐसा कहना ग़लत होगा कि सिर्फ़ अशिक्षित समाज की स्त्रियाँ रूढ़ियों का पालन करती हैं, बल्कि शिक्षित समाज की स्त्रियाँ ज़्यादा रूढ़िवादी हैं। 

अशिक्षित समाज की स्त्रियाँ अगर रूढ़िवादी हैं तो उसी अनुरूप कार्य-व्यवहार करती हैं, किन्तु अधिकतर शिक्षित समाज की स्त्रियाँ दोहरे व्यवहार के साथ जीती हैं। स्वयं को आधुनिक दिखाने के लिए पहनावा और रहन-सहन में भले ही आधुनिकता अपना लें, लेकिन रूढ़ियाँ उनके दिमाग को जकड़े हुए हैं। जिन रूढ़ियों की अभी के समय और समाज में न ज़रुरत है न औचित्य, उससे वे ख़ुद को अलग नहीं कर पाती हैं। जितनी कुरीतियाँ व कुप्रथाएँ हैं उनके पक्ष में उनके पास ढेरों तर्क हैं, जो बेबुनियाद, अतार्किक, मूढ़ और फ़िज़ूल हैं। अधिकांशतः रूढ़ियों के पक्ष के सारे तर्क और व्यवहार, धर्म और मान्यता से जोड़कर ही किए जाते हैं। 

अगर हम सनातन धर्म के अनुसार देखें, तो यह सत्यापित होता है कि वेद, पुराण, ग्रंथ, इत्यादि के अनुसार उस युग या काल की स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी, वे आज़ाद थीं, उनके अपने सोच-व्यवहार थे, उनका रहन-सहन और पहनावा उनके अपने अनुसार था। सतयुग और त्रेतायुग में स्त्री का अपना एक अलग सम्मानीय स्थान था। द्वापरयुग से स्त्रियों की स्थिति निम्न होती गई और मध्यकाल आते-आते स्त्री पूरी तरह से पुरुष की ग़ुलाम बन गई। 

उपनिषद काल में पुरुषों के साथ स्त्रियों को भी शिक्षित किया जाता था। लव-कुश के साथ आत्रेयी पढ़ती थी; यानी उस युग में भी सहशिक्षा थी। दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, काली, पार्वती, सीता, उर्मिला, कौशल्या, कैकेयी, कुंती, द्रौपदी, गांधारी, राधा, रुक्मिणी, अदिति,शची, गार्गी, मैत्रेयी, घोषा, अपाला, आदि सभी अपने-अपने विचारों, कर्तव्यों और कार्यों के लिए स्मरणीय मानी गई हैं। अगर इन युगों को हम काल्पनिक भी माने, तो ऐसी कल्पना करने वालों ने स्त्रियों के लिए बहुत मज़बूत चरित्र का निर्माण किया है। इसके लेखन-काल के समय स्त्रियों की दशा क्या थी, यह भी पता चलता है। अगर हम कलयुग में देखें तो हमारे इतिहास में ऐसी अनेक विदुषी और वीरांगना स्त्रियों की गाथा मिलती है जो पुरुष से ज़रा भी कम न थीं। 

हर युग में स्त्रियों का अपना अस्तित्व था। शक्ति, शिक्षा, सम्पदा के लिए देवी को ही आराध्य माना गया। किसी भी युग में न सिन्दूर की प्रथा थी, न अपने शरीर को लेकर लज्जा की कोई बात, न गहना-ज़ेवर पर स्त्रियों का एकछत्र अधिकार, न कन्या-वध, न दहेज़ ह्त्या, न पर्दा प्रथा, न नाम परिवर्तन। निःसंदेह मुग़ल शासन के समय इन कुप्रथाओं की शुरुआत हुई, क्योंकि उस समय की यही माँग थी। उस काल में सिन्दूर, घूँघट, बाल-विवाह इत्यादि का चलन स्त्रियों की सुरक्षा के कारण शुरू हुआ, जो बाद में प्रथा और परम्परा का रूप ले लिया। 

अब जब भारत आज़ाद है, तब इन कुप्रथाओं को ढोने का कोई सटीक तर्क नहीं मिलता, सिवा इसके कि समाज द्वारा यह स्त्रियों के लिए नैतिक माना गया है। इन कुप्रथाओं से स्त्री के चरित्र और नैतिकता को आँकना न सिर्फ ग़लत है बल्कि अनैतिक भी है। ऐसा नहीं कि स्त्रियों का अपना कोई सोच नहीं है, लेकिन ज़्यादातर ऐसा देखने में आता है कि पुरुष के सोच से प्रभावित होकर ही स्त्रियाँ अपने जीवन की दिशा निर्धारित करती हैं। सिर्फ़ धार्मिक कार्य करते समय स्त्री को पूरा सम्मान मिलता है। 

आज जब बुर्क़ा-हिजाब-नक़ाब को लेकर विवाद देख रही हूँ तो सचमुच बेहद आश्चर्य हो रहा है। बुर्क़ा या पर्दा से आज़ादी मिल रही है और स्त्रियाँ ख़ुद इसकी ग़ुलाम रहने को बेकरार हैं। मुस्लिम स्त्रियों के शरीर का ढाँचा अन्य स्त्रियों से अलग तो नहीं, जिसे सबसे छुपाना ज़रूरी है? बिना नकाब या बुर्क़ा के अगर कोई देख ले तो कौन सा क़हर टूट पडेगा? कोई भी स्त्री हो, सभी ख़ूबसूरत होती हैं, नक़ाब में क्यों छुपाना अपना चेहरा? जिन पुरुषों को स्त्री का चेहरा देखकर ही कामुकता आती हो, तो वैसे पुरुषों से क्या डरना, उनको कानून के हवाले कर देना चाहिए न कि ख़ुद को पर्दा में छुपा लेना चाहिए। 

सम्प्रदायों के सैद्धांतिक मत-भिन्नता के विवाद ने फिर से हद को पार किया है, और इस बार स्त्रियों के पहनावा को मुद्दा बनाया गया है। इस विवाद में अब एक नया अध्याय शुरू हुआ है हिजाब-नक़ाब-बुर्क़ा का। मुझे याद है जब मैं छोटी थी तब मुहर्रम के समय ईरान से कुछ स्त्री-पुरुष मस्जिद में आते थे। वे क्यों आते थे, यह अब तक मुझे मालूम नहीं। जानने की जिज्ञासा भी न हुई कभी। बस इतना याद है कि जो भी बुर्क़ा में होती थी हम उसे ईरानी कहते थे। उन दिनों भारतीय स्त्रियाँ बुर्क़े में ज़्यादा नहीं दिखती थीं। मेरे कॉलेज की कुछ शिक्षक और छात्राओं को बुर्क़ा पहनकर आते देखा, लेकिन वे कॉलेज पहुँचकर उतार देती थीं। मैं सोचती थी कि चूँकि वे सुन्दर हैं इसलिए उनके घर से उनपर बुर्क़ा पहनने का दबाव होगा। एक फ़ायदा यह भी है कि छेड़खानी से वे बच जाएँगी। हमारे ज़माने में भी छेड़खानी होती थी, लेकिन अभी से ज़रा कम। मुझे नहीं लगता कि कोई भी लड़की इस छेड़खानी का शिकार होने से बच पाई होगी। अगर घर के बाहर बच गई तो घर में भी पुरुष होते हैं, चाहे रिश्ता कोई भी हो। 

मैं हमेशा सोचती थी की छोटी-छोटी लड़कियों को उनके घर से बुर्क़ा से आज़ाद होने नहीं दिया जाता है। मैं मन में बहुत दुखी रहती थी उनको देखकर। लेकिन अभी जो हिजाब-विवाद हो रहा है, इसे देखकर उन छात्राओं के लिए दुःख हो रहा है, जो अपना वस्त्र दूसरे के मन से धारण करती हैं। वे अपनी ज़िन्दगी का कोई भी निर्णय क्या कभी ख़ुद ले पाएँगी? आख़िर ऐसी ग़ुलामी उन्हें स्वीकार क्यों है? अब जब मौक़ा है, ज़रा-सा हिम्मत जुटातीं और ख़ुद ही नक़ाब से बाहर आ जातीं। पर अब तो राजनीति के हाथों का खेल ख़ुद को बना चुकी हैं। अब खेलो बुर्क़ा-बुर्क़ा, सिन्दूर-बिन्दी; और तमाशा देखेगा आज का तथाकथित धार्मिक समाज। 

संविधान हमें अपने पसंद के कपड़े पहनने से नहीं रोक सकता है। परन्तु हिजाब बनाम सिन्दूर-चूड़ी विवाद का कोई औचित्य समझ नहीं आता। जो बुर्क़ा शौक से पहनती हैं, पहनें; लेकिन स्कूल कॉलेज या किसी भी व्यवसाय में अगर ड्रेस कोड है तो उसका तो पालन करना ही होगा। अब इसका तो यही अर्थ हुआ कि कोई बुर्क़ा या घूँघट में रहती है तो स्कूल-कॉलेज में पढ़ने जाए तब भी वह घूँघट-बुर्क़ा में रहे। जिसे ऐसे रहना है वह घर में ही बैठें, शिक्षा की क्या ज़रुरत है। बुर्क़ा और घूँघट में न कोई सुविधापूर्ण तरीक़े से चल सकती है, न खेल सकती है, न कोई नौकरी कर सकती है। बस बच्चा पैदा करने का काम ही है, जो वे कर सकती हैं। पुलिस, आर्मी, नर्स, वकील आदि नौकरी उनके लिए संभव नहीं, क्योंकि बुर्क़ा पहनकर तो यह सब मुमकिन नहीं। बुर्क़ा खुद को छुपाने का बेहतरीन विकल्प है, परन्तु आज के समय के अनुसार जायज़ नहीं। न ही सिन्दूर, बिंदी या चूड़ी ही जायज़ है। जिसे जो शौक हो इस्तेमाल में लाएँ। यह सभी शृंगार प्रसाधन है, जिसे सुन्दर दिखने के लिए उपयोग में लाया जाता है। हिजाब से सिन्दूर-चूड़ी की तुलना अर्थहीन है। 

मैं भागलपुर के एक सरकारी गर्ल्स स्कूल जिसका प्रबंधन मिशनरी द्वारा किया जाता था, में पढ़ती थी। हमारे स्कूल में कक्षा 8 तक सभी को सफ़ेद शर्ट, नीला स्कर्ट, नीला फीता, काला जूता पहनना होता था। 9वीं और 10वीं कक्षा से सभी को सफ़ेद ब्लाऊज और नीले पाड़ की सफ़ेद साड़ी पहनना अनिवार्य था। ब्लाऊज की लम्बाई इतनी हो कि पेट न दिखे। सप्ताह में हमलोगों के नाख़ून देखे जाते थे कि किसी के नाख़ून बड़े तो नहीं, नेलपॉलिश या मेँहदी तो न लगाया, हाथ में चूड़ी या कड़ा तो न पहना। स्कूल सरकारी था लेकिन मिशनरी का प्रबंधन था। हमारी प्राचार्य मिस सरकार का बहुत सख़्त अनुशासन था। स्कूल के किसी भी नियम में ज़रा-सी भी ढील वे बर्दाश्त नहीं करती थीं। हर दिन पहला एक क्लास बाइबल का होता था, जिसमें हम सभी का जाना अनिवार्य था। उस स्कूल में जिस भी धर्म की छात्रा हो, उसे यह सब नियम मानना ही होता था। अगर किसी को शर्ट-स्कर्ट से समस्या है तो वह उस स्कूल में जाए जहाँ सलवार कमीज़ पहनावा हो। हर संस्थान के अपने नियम होते हैं, और नामांकन के बाद वहाँ के नियमों का पालन करना बाध्यता है और यही उचित भी है। संस्थान के नियम से अगर आप सहमत नहीं हैं तो आप वहाँ न जाएँ। 

मैं सोचती हूँ, ख़ूब सारे सौंदर्य सामग्री का इस्तेमाल कर बुर्क़ा पहन लिया तो क्या फ़ायदा? हिजाब में कम-से-कम चेहरा तो दिखता है, पर फ़ैशन के अनुरूप वस्त्र धारण करने का क्या फायदा? बुर्क़ा बिरादरी से बाहर निकल हिजाब को तिलांजलि देकर एक आम स्त्री का जीवन जीना ख़ुद स्त्रियों को अच्छा लगना चाहिए। इसके लिए दुनिया की सभी स्त्रियों को एक साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा। क्यों पुरुषों की ग़ुलामी सही जाए? क्यों ख़ुद को नक़ाब में रखें? दुनिया का कोई भी पुरुष बुर्क़ा या नक़ाब नहीं पहनता, तो स्त्रियाँ क्यों पहनें? अपने पसंद के अनुरूप परिधान धारण करना हमारी स्वतंत्रता है और यह स्वतंत्रता भारत में रहने वाले सभी लोगों के लिए है। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि संस्थान के नियम के विरुद्ध जाएँ।  

जहाँ तक मुझे लगता है कि मन की कट्टरता ने हिजाब बुर्क़ा या घूँघट को अपनाए रखने के लिए विवश किया हुआ है। इस विवाद में पुरुष पड़े हैं, और वह भी बुर्क़ा के पक्ष-विपक्ष में, यह समझ से परे है; क्योंकि यह मसला स्त्रियों का है। बुर्क़ा के विरोध में बोलना ज़रूरी है न कि बदले में भगवा चादर लेना। मुझे तो यह निहायत मूर्खता वाली बात लगती है। यह समय है जब पुरुषों को आगे बढ़कर इन कुप्रथाओं के ख़िलाफ़ स्त्रियों का साथ देना चाहिए। 

यह सही है कि लीक से हटकर जिन स्त्रियों ने जीना शुरू किया उन्हें समाज का तिरस्कार और आक्षेप सहना पड़ता है। फिर भी यह ज़्यादा सही है बनिस्पत रूढ़ियों से जकड़े हुए कठपुतली की तरह दूसरों के इशारे पर जीवन जीते जाएँ। मेरे विचार से पुरुष-वर्ग को आगे आना होगा, अपने घर की स्त्रियों को बुर्क़ा या घूँघट से बाहर आने की हिचक को तोड़ने के लिए। एक तरफ़ जब हम वैश्वीकरण की बात करते हैं, विकास की बात करते हैं, दूसरे ग्रह पर जाने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ धर्म-जाति के लफड़े के बाद अब व्यक्तिगत पहनावा पर राजनीति कर रहे हैं। आशचर्यचकित हूँ, बुर्क़ा या हिजाब के पक्ष में स्त्रियाँ कैसे हैं? प्रगति और विकास की बात कोई क्या करेगा, जब किसी का सोच पहनावे में उलझ जाए।   

महिला दिवस पर मेरी तो यही कामना और शुभकामना है कि पूरी दुनिया की स्त्री ख़ुद के मन से जीवन जीएँ, अपने पसंद के अनुसार नैतिक रूप से जो सही हो वह करें। मैं तो चाहती हूँ कि ''दुनिया की महिलाएँ एक हों'' की जगह अब यह कहा जाए- ''दुनिया के इंसानों एक हों!''
महिला दिवस पर मम्मी
- जेन्नी शबनम (8. 3. 2022)
(अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस)
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