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पापा |
पापा, तुमसे ढ़ेरों शिकायत है। मैं बहुत गुस्सा हूँ, बहुत बहुत गुस्सा हूँ तुमसे। मैं रूसी (रूठी) हुई हूँ। अगर तुम मिले तो तुमसे बात भी नहीं करूँगी। पापा, तुमको याद है, मैं अक्सर रूस (रूठ) जाती थी और तुम मुझे मनाते थे। इतनी भी क्या जल्दी थी तुमको? कम से कम मुझे आत्मनिर्भर तो बना दिए होते जाने से पहले। देखो, मैं कुछ न कर सकी, हर दिन बस उम्र को धकेल रही हूँ। क्यों उस समय में छोड़ गए तुम जब हमें तुम्हारी सबसे ज्यादा ज़रुरत थी। न समझने का मौक़ा दिए न सँभलने का, बस चल दिए तुम।
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पापा-मम्मी |
समय किसी की पकड़ में नहीं आया है कभी। समय छलाँग लगा कर भागता है और हम धीरे-धीरे अपने कदमों पर चलते रहते हैं कि अचानक एक दिन पता चलता है, अरे! कितना वक़्त गुजर गया, और हम सभी चौंक जाते हैं। आज से 40 साल पहले आज ही के दिन मेरे पापा इस संसार से हमेशा के लिए हम लोग को छोड़ कर चले गए थे। हम सभी ज़िन्दगी को और ज़िन्दगी हम सभी को स्तब्ध होकर देखती रह गई थी। न हमारे पास कहने को कुछ शेष था न ज़िन्दगी के पास। कौन किससे क्या कहे? कौन किसे सांत्वना दे?
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मम्मी, भैया और मैं |
मेरे दादा तो मेरे जन्म से पूर्व ही गुजर चुके थे। मेरी दादी लगभग 70 वर्ष की थी, जब उनके सबसे प्रिय पुत्र यानी मेरे पापा का निधन हुआ। पापा की मृत्यु के समय मेरी माँ लगभग 32 वर्ष, मेरा भाई 13 वर्ष और मैं 12 वर्ष की थी। हममे से कोई भी इस लायक नहीं था कि इस दुखद समय में एक दूसरे को सांत्वना दे सके। फिर धीरे-धीरे हम चारों की ज़िन्दगी पापा के बिना चल पड़ी, या यूँ कहें कि हमने चलना सीख लिया। हम सभी बहुत बार लड़खड़ाए, गिरे, संभले, और फिर चलते रहे। यह हम लोगों की खुशनसीबी है कि हमारे सगे-सम्बन्धी, मम्मी-पापा के मित्र, मम्मी-पापा के सहकर्मी और पापा के छात्र सदैव हमलोगों के साथ रहे और आज भी हैं।
कहते हैं कि वक़्त ही घाव भी देता है और वक़्त ही मरहम भी लगाता है।
वक़्त से मिला घाव यूँ तो ऊपर-ऊपर भर गया, पर मन की पीड़ा टीस बन गई हमारे लिए। हम सभी को कदम-कदम पर पापा की ज़रूरत और कमी महसूस होती रही। मेरे पापा स्त्री को स्वावलंबी बनाने के पक्षधर थे, तो उन्होंने अपने जीवन में ही मेरी माँ को हर तरह से सक्षम बना दिया था। उन दिनों मेरी माँ इंटर स्कूल में शिक्षिका थी और सन 1988 में प्राचार्या बनी। मेरे पापा की कामना थी कि मेरा भाई बड़ा होकर विदेश में पढ़ाई करे।और यह सुखद संयोग ही रहा कि मेरे भाई ने आई. आई. टी. कानपुर से पढ़ाई की और आगे की पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप पर अमेरिका चला गया। मैंने एम. ए, एल. एल. बी और पी एच. डी कर अपनी शिक्षा पूर्ण की; यूँ यह अलग बात कि अलग-अलग कई तरह के कार्य मैंने किए परन्तु कोई भी कार्य सुनियोजित और नियमित रूप से नहीं कर सकी जिससे कि मैं आत्मनिर्भर बन पाती। अंततः मैं हर क्षेत्र में असफल रही। मेरे पापा जीवित होते तो निःसंदेह उन्हें मेरे लिए दुःख होता।
लगभग 2 वर्ष पापा की बीमारी चली थी। इन दो वर्षों में पापा ने प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा अपना इलाज कराया और अंततः सुधार नहीं होने पर आयुर्वेद की दवा खाते रहे।एलोपैथ पद्धति पर उन्हें विश्वास न था। अंततः जब बीमारी बहुत बढ़ गई तब दिल्ली में एम्स में एक माह तक भर्ती रहे जहाँ डॉक्टर ने शायद ठीक न हो सकने की बात कही थी। वे भागलपुर लौट आए और उनके अधीन जितने छात्र पी एच. डी कर रहे थे उनका काम उन्होंने शीघ्र पूरा कराया। अपनी बीमारी की चर्चा वे किसी से नहीं करते थे। अतः उनकी बीमारी की स्थिति का सही अंदाज़ा किसी को नहीं था। लीवर सिरोसिस इतना ज्यादा बढ़ चुका था कि अंत में वे कौमा में चले गए और लगभग 10 दिन अस्पताल में रहने के बाद सदा के लिए हमें छोड़ गए।
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एक पुस्तक जिसमें पापा की चर्चा है |
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पापा का लेटर हेड |
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पापा द्वारा हस्तलिखित |
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पापा द्वारा हस्तलिखित |
मेरे पापा को घुमना, गाना सुनना और फोटो खींच कर खुद साफ़ करने का शौक़ था. मम्मी के साथ पूरे देश का वे भ्रमण कर चुके थे, और हर जगह की तस्वीर सिर्फ मेरी माँ की थी। मम्मी की तस्वीर को बड़ा करा कर फ्रेम करा कर पूरे घर के दीवारों में लगवाए थे। वे शिक्षा, राजनीति और सामजिक कार्यों से अंतिम समय तक जुड़े रहे जब तक होश में रहे।
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थीसिस |
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बैग |
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जरनल |
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पापा के पी एच. डी का खबर पेपर में |
पापा के गुजर जाने के बाद मैं हर जगह पापा की निशानी तलाशती रही।परन्तु एक भी तस्वीर उनकी नहीं है जिसमें वे हमलोगों के साथ हों। यूँ पापा की निशानी के तौर पर मेरी माँ, मेरा भाई और मेरे अलावा उनके उपयोग में लाया गया कुछ ही सामान बचा है। मसलन एक बैग जिसे लेकर वे यूनिवर्सिटी जाते थे, उनकी एक डायरी, उनके कुछ जर्नल, एक दो कपड़े, घड़ी आदि।
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पापा का शर्ट |
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पापा का शर्ट |
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पापा का पैंट |
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पापा की घड़ी |
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पापा का बैग |
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पापा की एक डायरी |
मेरी दादी की मृत्यु 102 वर्ष की आयु में सन 2008 में हुई। दादी जब तक जीवित रही एक दिन ऐसा न गुजरा जब वो पापा को याद कर न रोती हो।पापा के जाने के बाद मेरी माँ के लिए मेरी दादी बहुत बड़ा संबल रही।समय ने इतना सख्त रूप दिखाया कि अगर मेरी दादी न होती तो मम्मी का क्या हाल होता पता नहीं। भाई ने काफी बड़ा ओहदा पाया लेकिन पिता के न होने के कारण शुरू में उसे भी में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था।
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दादी |
हम सभी पापा को याद कर एक-एक दिन गुजारते रहे। बहुत सारे अच्छे दिन आए बहुत सारे बुरे दिन बीते। हर दिन आँखें रोती रही जब भी पापा के न होने के कारण जीवन में हम सभी को पीड़ा मिली। बिना बाप की बेटी होने के कारण मैं अपमानित और प्रताड़ित भी हुई हूँ। मेरा मनोबल हर एक दिन के साथ कम होता जा रहा है। मेरा मन अब शिकायतों की पोटली लिए पापा का इंतज़ार कर रहा है, मानों मैं अब भी 12 साल की लड़की हूँ और पापा आकर सब ठीक कर देंगे।
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विश्वविद्यालय का सोफा जिसपर खाली पीरियड में पापा सोते थे |
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राजनीति शास्त्र विभाग का क्लास रूम |
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पापा की पुनर्प्रकाशित पुस्तक |
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पुस्तक का बैक कवर |
कई बार सोचती हूँ कि काश कुछ ऐसा होता कि मेरी परेशानियों का हल मेरे पापा सपने में आकर कर जाते। या फिर कहीं किसी मोड़ पर कोई ऐसा मिल जाता जो पापा का पुनर्जन्म होता। जानती हूँ यह सब काल्पनिकता है लेकिन मन है कि अब भी हर जगह पापा को ढूँढता है। यूँ अब खुद मेरी आधी उम्र बीत गई है, पर अब भी अक्सर मैं छोटी बच्ची की तरह एकांत में पापा के लिए रोती रहती हूँ। पापा, मुझे आज भी तुमसे ढ़ेरों शिकायत है। ताउम्र शिकायत रहेगी पापा !
- जेन्नी शबनम (18. 7. 2018)
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