आरक्षण के मुद्दे पर देश के हर प्रांत में उबाल है। आरक्षण के समर्थन और विरोध दोनों पर ही चर्चा नए विवादों को जन्म देती है। सभी को आरक्षण चाहिए। इससे मतलब नहीं कि वास्तविक रूप से कोई ख़ास जाति आरक्षण की हकदार है। मतलब बस इतना है कि सभी जातियाँ खुद को आरक्षण की श्रेणी में लाकर वांछित फायदा उठाना चाहती हैं। समय आ गया है कि अब इस मुद्दे पर एक नई बहस छेड़ी जाए। हमें निष्पक्ष रूप से इसपर अपना विचार बनना होगा। ये आरक्षण किसके लिए है और किसके विरूद्ध है? क्या जातिगत आधार पर आरक्षण उचित है? कितनी जातियों को इसमें शामिल किया जाए? क्या वास्तविक रूप से उन्हें फायदा हो रहा है जो ज़रूरतमंद हैं? आरक्षण का आधार सामजिक क्यों? आरक्षण का आधार एकमात्र आर्थिक क्यों नहीं? आरक्षण सहूलियत नहीं बल्कि दया है जिसे किसी ख़ास जाति को दी जा रही है। किसी ख़ास जाति में जन्म लेने पर क्या दया की जानी चाहिए?
यह न तो उचित है और न तर्कपूर्ण कि किसी ख़ास जाति या धर्म को मानने वाले को आरक्षण मिलना चाहिए। चाहे वो शिक्षा हो या किसी पद के लिए या किसी स्पर्धा वाली शिक्षा या नौकरी में। आश्चर्य है कि खुद को पिछड़ा साबित करने की होड़ लग गई है। निश्चित ही आरक्षण के नाम पर हमारे युवाओं को बहकाया जा रहा है और उनको गलत दिशा देकर राजनितिक पार्टियाँ अपना-अपना लाभ पोषित कर रही हैं।
आरक्षण ने काबिलियत को परे धकेल कर जातिगत दुर्भावना को बढ़ाया है। आरक्षण का दंश देश का हर नागरिक झेल रहा है। आरक्षण से कोई फायदा अब तक न दिखा है और न दिखेगा। आरक्षण का लालच दिखा युवाओं का मतिभ्रम कर आवश्यक मुद्दे पर से ध्यान को भटकाया जा रहा है। युवाओं को धर्म और जाति का अफ़ीम खिला-खिला कर देश के बिगड़ते हुए सामाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक दशाओं से विमुख किया जा रहा है। देश कई तरह के बाह्य और आतंरिक संकट से गुजर रहा है, ऐसे में आरक्षण देकर कुछ ख़ास जातियों को फ़ायदा पहुँचाने के एवज में संकट को और भी बढ़ावा दिया जा रहा है। लड़ता और मरता तो आम युवा ही है और हानि जैसे भी हो हमारे ही देश की होती है।
आरक्षण जाति भेद की दुर्भावना पैदा करने का बहुत बड़ा कारण है। किसी ख़ास जाति को आरक्षण मिलने के कारण वह जगह मिल जाता है जो कोई दूसरा ज्यादा उपुयक्त होकर भी गँवा देता है।आरक्षण प्राप्त लोगों का आरक्षण मिलने के बाद कहीं से भी बौधिक बढ़ोतरी के प्रमाण मुझे देखने को नहीं मिले। उसी तरह आरक्षण से मुक्त जो भी जातियाँ हैं वो जन्म के कारण विशिष्ट गुणों वाली हों या वे सभी धनाढ्य हो यह भी नहीं देखा है। धर्म और जाति का बौद्धिकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता और न ही आरक्षण देकर किसी में बौद्धिकता और काबिलियत पैदा की जा सकती है। कहीं न कहीं मन का विभाजन आरक्षण के बाद ही शुरू हुआ।
जिस तरह से अधिकांश जातियाँ आरक्षण पाने के लिए लालायित हैं ऐसा लगता है कि आने वाले समय में गिनती की दो-चार जातियाँ ही बचेंगी जो आरक्षण से बाहर सामान्य श्रेणी में रह जायेंगी।आरक्षण श्रेणी की बहुत सी जातियाँ ऐसी हैं जो धनवान हैं। ऐसी बहुत सी जातियाँ हैं जो कहने को तो उच्च कूल की हैं लेकिन खाने-खाने को मोहताज़ हैं। ऐसे में विचारणीय है कि किसे आरक्षण की आवश्यकता है?
प्रतिस्पर्धा के युग में आरक्षण हर जाति के लिए रोग बन गया है। योग्यता का मूल्यांकन आरक्षण से होना स्वाभाविक-सा लगता है। आज अल्पज्ञान और अल्पबुद्धि का बोलबाला होता जा रहा है। ज्ञान और बुद्धि पर आरक्षण भारी पड़ रहा है और इसका ख़ामियाजा आरक्षित श्रेणियों की जातियों को भी उठाना पड़ रहा है। अगर किसी का उसकी अपनी योग्यता से स्पर्धा में चयन होता है फिर भी लोगों कि निगाहों में वो तिरस्कार पाता है और यही माना जाता है कि आरक्षण के कारण वह उतीर्ण हुआ है। उसकी अपनी योग्यता आरक्षण की बलि चढ़ जाती है। आज जब हम किसी डॉ के पास ईलाज के लिए जाते हैं तो मन में यह आशंका रहती है कि कहीं यह आरक्षण से आया हुआ तो नहीं है। ऐसे में उस डॉ की योग्यता पर अपनी ज़िन्दगी दाँव पर लगी दिखती है। मुमकिन है कि आरक्षित श्रेणी का वह डॉक्टर सचमुच प्रतिभाशाली हो मगर आरक्षण की सुविधा से अनुपयुक्त का चयन उपयुक्त को भी कटघरे में खड़ा कर दे रहा है। इस आरक्षण ने मन में संदेह पैदा कर दिया है और हम एक दूसरे को शक और असम्मान से देखने लगे हैं।
अगर आरक्षण देना ही है तो उसे आर्थिक आधार पर दिया जाए चाहे वो किसी भी जाति धर्म या सम्प्रदाय का क्यों न हो, और वह भी सिर्फ विद्यालय स्तर की शिक्षा तक। ताकि स्पष्टतः प्रतिभा की पहचान हो सके और उपयुक्त पात्र ही उपयुक्त स्थान ग्रहण करे। समान अवसर, सुविधा और वातवरण मिलने पर ही हर नागरिक समान हो पाएगा। देश के हर नागरिक के लिए समान क़ानून, समान न्याय, समान शिक्षा, समान सुविधा और समान कर्त्तव्य का होना आवश्यक है। एक मात्र आर्थिक आधार ही आरक्षण का उचित आधार है और होना चाहिए।

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