Friday, July 21, 2017

57. ट्यूबलाईट फ्लॉप पर सलमान सुपरहिट


''मैं अपने यकीन से अपने भाई को भी वापस ले आऊँगा।'' वास्तविक जीवन में हमेशा जीतने वाला, कई विवादों में उलझा हुआ, बार-बार प्रेम में पड़ने वाला, लड़कियों का क्रश, तो लड़कों के लिए मसल्स मैन, फिल्म निर्माताओं के लिए पैसा कमाने की मशीन 'सलमान खान' जब ट्यूबलाईट में यह डाॅयलाग बोलता है, वह यकीन उसके चेहरे पर दिखाई देता है फिल्म फ्लॉप हुई है फिर भी तेजी से बढ़ती उम्र के इस हीरो की यह फ़िल्म गौर करने लायक है  

ट्यूबलाईट के रिलीज़ होने से पहले फ़िल्म प्रेमियों में हलचल थी। सलमान की लगभग सभी फिल्में हिट होती है भले ही वे किसी भी भूमिका में हों। अमूमन उनका चरित्र संवेदनशील होता है और अगर मारधाड़ भी कर रहे, तो वह भी कहानी के अनुरूप आवश्यक होता है। उनकी सभी फिल्में दर्शकों के अनुकूल होती है और सपरिवार फिल्म देखी जा सकती है। न तो उनकी फिल्मों में नंगापन होता है न तो फूहड़पन। फिल्म में अगर आइटम सॉन्ग है तो भी वो फूहड़ न लग कर मज़ेदार लगता है।  

ट्यूबलाईट के रिलीज़ होने के दिन फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने से खुद को रोक नहीं पाई। सुबह साढ़े नौ बजे का शो था, तो मुमकिन है इस कारण भीड़ बहुत नहीं थी, हॉल में कुछ सीट खाली भी रह गई।सलमान के स्क्रीन पर आते ही हमेशा की तरह युवा दर्शक ताली भी बजाए और खुश भी हुए। फिल्म क्रिटिक्स को पढ़ने से पता चला कि इस फिल्म को दर्शकों का उतना प्यार नहीं मिला जितना सलमान खान के नाम से मिलता है। मैं कोई कारण नहीं समझ पाई कि इस फिल्म के पसंद न किए जाने के पीछे की वजह क्या है। फिल्म का चित्रांकन, कहानी, पटकथा, लोकेशन, साज-सज्जा सभी बहुत आकर्षक और कहानी के अनुरूप है। कहानी बहुत छोटी है; लेकिन बेहद प्रभावशाली है। मेरे विचार से सलमान खान के सभी फिल्मों में सबसे ऊपर का स्थान मैं इस फिल्म को दूँगी; सलमान की भावनात्मक अदाकारी और मासूमियत के कारण।
  

ट्यूबलाईट एक भोले-भाले बच्चे लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) की कहानी है जो शारीरिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ है लेकिन मंदबुद्धि का है। कोई भी बात वह थोड़ी देर से समझता है और किसी भी चुनौती से घबरा जाता है, इस लिए सभी उसे ट्यूबलाईट कहते हैं। लक्ष्मण अपने भाई भरत (सुहेल खान) के साथ कुमाऊँ की एक शहरनुमा बस्ती जगतपुर में रहता है। वे अनाथ हैं अतः एक बुजुर्ग, जिन्हें वे बन्नी चाचा (ओम पुरी) कहते हैं, उनकी परवरिश करते हैं। कहानी में आज़ादी से पूर्व का भारत दिखाया गया है जब गाँधी जी लक्ष्मण के शहर आते हैं और लक्ष्मण उस समय स्कूल का विद्यार्थी है। गाँधी जी द्वारा कही गई बात वो मन में बैठा लेता है कि ''यकीन रखने से सब कुछ होता है, खुद पर यकीन हो, तो चट्टान भी हिलाई जा सकती है और यह यकीन दिल में होता है।'' लक्ष्मण के यकीन को पहली बार बल तब मिलता है जब शहर में एक जादूगर (शाहरुख़ खान) आता है। जादू दिखाने के दौरान जादूगर लक्ष्मण से एक बोतल को दूर से हिलाने लिए कहता है। दर्शक इस बात पर ट्यूबलाईट कह कर लक्ष्मण का मज़ाक उड़ाते हैं। काफ़ी कोशिश के बाद बोतल हिल जाता है। यूँ यह जादूगर के हाथ की सफाई है; लेकिन जादूगर उससे कहता है कि उसने अपने यकीन की ताकत से बोतल को हिलाया है। इसके बाद लक्ष्मण में आत्म विश्वास जागता है और कुछ भी कर सकने का यकीन उसमें प्रबल हो जाता है। उसकी आँखों में अपनी पहली सफलता पर विश्वास के आँसू आ जाते हैं और वह कहता है कि वह ट्यूबलाईट नहीं है।
  

1962 में भारत-चीन के युद्ध की पृष्ठभूमि पर फिल्म की कहानी आगे बढ़ती है। भरत का चयन युद्ध में सैनिक के रूप में हो जाता है परन्तु लक्ष्मण का नॉक-नी (knock knee) के कारण चयन नहीं हो पाता है। लक्ष्मण का खुद पर से यकीन न टूटे इस लिए भरत उससे कहता है कि उसे जगतपुर का कप्तान बनाया गया है जिसका काम है इलाके की हर खबर रखना और जानकारी देना। युद्ध छिड़ चुका है और भरत जंग में शामिल होने चला जाता है। एक चीनी बच्चा अपनी माँ के साथ जगतपुर में रहने के लिए आता है। लक्ष्मण सबको सचेत करने के लिए बताता है कि चीनी आ गए हैं। फिर उसे पता चलता है कि उस चीनी स्त्री के परदादा चीन से आकार भारत में बस गए थे, अतः वे भी सबकी तरह भारतीय हैं। पर बस्ती के लोग माँ-बेटे को परेशान करते हैं और लक्ष्मण उन्हें बचाता है; क्योंकि वह उस बच्चे से प्यार करने लगता है। गाँधी जी की कही हुई बात पर उसे यकीन है कि ''अगर दिल में ज़रा भी नफरत रहेगी, तो तुम्हारे यकीन को खा जाएगी''। 

युद्ध के दौरान भरत की मृत्यु की सूचना आती है; लेकिन लक्ष्मण को यकीन है कि युद्ध ख़त्म होगा और भाई लौटेगा। लक्ष्मण कहता है ''मैं अपने यकीन से अपने भाई को भी वापस ले आऊँगा''। बन्नी चाचा से वह पूछता है कि और यकीन उसे कहाँ मिलेगा; क्योंकि भाई को लाने के लिए उसे बहुत यकीन चाहिए। बन्नी चाचा जानते हैं कि यकीन से कोई चमत्कार नहीं होता है। फिर भी मासूम लक्ष्मण का हौसला बढ़ाने के लिए कहते हैं ''गाँधी जी के कदमों पर चलो यकीन आएगा''। गाँधी जी के आदर्शों की फ़ेहरिस्त बना कर बन्नी चाचा उसे देते हैं, ताकि उसका खुद पर यकीन और बढ़ जाए। इसी बीच एक संयोग होता है। लक्ष्मण पूरे यकीन से चट्टान को खिसकाने की कोशिश करता है; क्योंकि गाँधी जी की बात को वह सच मानता है और उसे यकीन है कि वह चट्टान को खिसका देगा। उसके इस कोशिश के दौरान भूकंप आ जाता है और ज़मीन चट्टान सब काँपने लगता है। बस्ती वाले भी यकीन करने लगते हैं कि लक्ष्मण अपने यकीन से चट्टान को खिसका दिया है। किसी ग़लतफ़हमी के कारण भरत की मृत्यु की गलत सूचना आ गई थी। अब भरत वापस लौटता है। लक्ष्मण को पूर्ण विश्वास है कि उसके यकीन के कारण ही उसका भाई वापस लौटा है। 

आज जो परिस्थितियाँ हैं उसके सन्दर्भ में भी यह फिल्म प्रासंगिक है। भरत-चीन युद्ध के दौरान जिस तरह से सभी चीनी को संदेह की दृष्टि से देखा जाता था अब वही स्थिति पुनः बन गई है। कोई भी जो यहाँ जन्म लिया है वह भारतीय है उस पर संदेह नहीं करना चाहिए, चाहे वह किसी भी धर्म का हो। एक तरह से इस फिल्म का सन्देश यह भी है।  

हमारा समाज किसी फिल्म में क्या देखना चाहता है; इस विषय पर बहुत गंभीर सोच और बहस की ज़रूरत है। फिल्म का हीरो कभी हार नहीं माने, दस-दस गुंडों से अकेले भीड़ जाए, तो दर्शक सीटी बजाते हैं। अगर वही हीरो विवश या असहाय दिखता है, तो आज का दर्शक उसे अस्वीकार कर देता है। भले ही हीरो के उस किरदार में भावुकता और संवेदनाएँ भरी हुई हों या उस फिल्म की कहानी की माँग हो। आज के दर्शक हीरोइज्म में यकीन करते हैं और शारीरिक रूप से दबंग हीरो को देखने की चाह रखते हैं। मुमकिन है बजरंगी भाई जान की तरह इस फिल्म में भी सलमान चीन की सरहद को पार कर जाते या फिर चीनियों से युद्ध करके भाई को छुड़ा कर ले आते, तो शायद यह भी हिट फिल्मों में शुमार हो जाती।  

ट्यूबलाईट का फिल्मांकन, तो बेजोड़ है ही कलाकारों का अभिनय भी बहुत उम्दा है। सुहेल खान ने अपनी भूमिका बखूबी निभाई है। सलमान खान के चेहरे पर इतनी मासूमियत और सौम्यता है कि किसी का भी दिल जीत ले। भावुकता और भोलापन सलमान के अभिनय में कहीं से भी जबरन नहीं लगता बल्कि सहज लगता है। सुहेल खान पहली बार इस फ़िल्म में मुझे अच्छे लगे हैं। सलमान और सुहेल असल ज़िन्दगी में भी भाई हैं, शायद इस कारण भी भाइयों के आपसी रिश्तों का दृश्य बहुत जानदार और भावुक बन गया है। शाहरुख खान ने अपनी छोटी-सी भूमिका में अच्छा प्रभाव छोड़ा है। ओम पुरी, तो यूँ भी एक उम्दा अभिनेता हैं, चाहे जिस भी चरित्र में वह हों। चीनी माँ-बेटे का किरदार भी दोनों कलाकारों ने बहुत अच्छा निभाया है।
  

आजकल बहुत अच्छी और प्रेरक कहानियों पर फिल्में बन रही हैं और उसे दर्शकों से सराहना भी मिल रही है। साथ ही मारधाड़ की फिल्में भी खूब नाम कमा रही है। इसलिए दर्शकों की नब्ज़ को पहचानना कई बार फिल्म निर्माता के लिए कठिन होता है। बहरहाल ट्यूबलाईट भले ही बॉक्स ऑफिस पर असफल कहलाए या सलमान के हिट फिल्मों में इसका नाम शामिल न हो, भले ही सफलता की दौड़ में सलमान खान एक बार हार गए हों, लेकिन सलमान के अभिनय के लिए निश्चित ही यह फिल्म याद रखी जाएगी।     

- जेन्नी शबनम (17. 7. 2017)

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Saturday, July 1, 2017

56. बन्दूक-बन्दूक का खेल

नक्सलवाद और मजहबी आतंकवाद में सबसे बड़ा बुनियादी फ़र्क उनकी मंशा और कार्यकलाप में है। आतंकवादी संगठन हिंसा के द्वारा आतंक फैला कर सभी देशों की सरकार पर अपना वर्चस्व बनाये रखना चाहते हैंइनकी मांग न तो सत्ता के लिए है न बुनियादी जरूरतों के लिए है नौजवानों को गुमराह कर विश्व में एक ही मज़हब का वर्चस्व स्थापित करना इनका उद्देश्य है मजहबी आतंकवाद ने धीरे-धीरे पूरी दुनिया को अपने कब्जे में ले लिया है। नक्सलवाद इन आतंकी संगठनों से बिल्कुल विपरीत बुनियादी मांगों के लिए अस्तित्व में आया लेकिन आज नक्सलवाद का रूप क्रूरता के सभी हदों को पार कर चुका है इनकी मांग निःसंदेह जायज़ है पर तरीका अत्यंत क्रूरतम साम्यवादी सोच का ज़रा भी अंश नहीं इनमें। लाल झंडा उठा लेने से या लाल सलाम और कॉमरेड कह देने से इन्हें साम्यवादी नहीं कह सकते

दाँव पेंच हो या सत्ता की मज़बूरी, आज देश के हालात पर नियंत्रण सरकार के बूते से बाहर होती जा रही है। आम मध्यमवर्गीय जनता किसी तरह जीवन जी रही है। लेकिन खास आदमी डरा रहता है, उसे सरकारी तंत्र के साथ भी चलना है और हिंसक गतिविधियों से भी ख़ुद को बचाना है। निम्न वर्ग की जनता के पास कोई चारा नहीं है।मुख्य धारा से अलग कटे हुए आदिवासी प्रदेश के लोग अब इंसान नहीं रहे, एक ऐसे यांत्रिक मानव बन चुके हैं जिनके शरीर से चेतना निकाल कर बन्दूक जकड़ दी गई है, जिसका नियंत्रण उन कुछ गिने हुए लोगों के हाथ में है जो किसी नक्सलवादी सरगना या नेताओं के हाथ में है, जब जहाँ चाहे इस्तेमाल में ले आते हैं। सच्चाई यह है कि ये बेजुबान पेट की भूख़ के लिए ज़िन्दगी दाँव पर लगा बैठे हैं।
बन्दूक लेकर बन्दूक से लड़ाई हो तो सिर्फ बन्दूक नहीं ख़त्म होता, दोनों में से कोई एक मरता है, और जो मरता है वह भी हमारा ही कोई अपना है, चाहे वो सैनिक हो या नक्सलवादी। आज जब सैनिक मारे जाते हैं तो पूरा देश सुरक्षा-तंत्र की खामियाँ ढूँढता है। परन्तु हर दिन हजारों आदिवासी कभी भूख़ से मरते हैं, कभी नक्सली कह कर फ़र्जी मुठभेड़ में मार दिए जाते हैं, संदिग्ध नक्सली कह कर कितने असहाय और निरपराध जेल में बंद कर दिए जाते हैं।

हत्या करना, सरकारी संपत्ति को नष्ट करना, आतंक फैलाना, बस जैसे इतना ही मुद्दा रह गया है इन नक्सलियों का। आखिर क्यों ये मुख्य मुद्दा से दूर होकर सिर्फ हिंसा पर उतर आये हैं। आदिवासी क्षेत्रों से फैलते हुए सभी राज्यों में नक्सली अपना विस्तार कर रहे हैं। सरकारी शास्त्र को लूट कर अपनी शक्ति मज़बूत कर रहे हैं। आख़िर ये जंग किसके खिलाफ़ है? देश भी अपना सैनिक भी अपने, नक्सली भी इसी देश के वासी। क्या सरकार ग्रीन हंट के द्वारा नक्सली आन्दोलन ख़त्म कर पाएगी? सैनिकों को युद्ध का प्रशिक्षण दिया जाएगा, ताकि नक्सलियों से लड़ें। क्या आदिवासियों की बुनियादी ज़रूरत नक्सलियों की मृत्यु का पर्याय है?

नक्सलियों की क्रूरता और हिंसा को कोई भी देशवासी उचित नहीं कह रहा है। परन्तु सोच कई खेमों में बँट चुकी है। नक्सली के दिशा परिवर्तन या आदिवासी के उत्थान की बात जो कहता है उसे लाल झंडे के अन्दर मान लिया जाता है। लाल झंडा क्रान्ति की बात कहता है, न कि ख़ूनी-क्रान्ति का पक्षधर है या रहा है।

नक्सलवाद कोई एक दिन की उपज नहीं है, वर्षों की असंतुष्टि का प्रतिफल है जो हिंसा का क्रूरतम और आत्मघाती रूप ले चुका हैनक्सलबाड़ी में जब यह शुरू हुआ, उस समय हथियार और हिंसा की लड़ाई नहीं थी, बल्कि अधिकार की लड़ाई थी। धीरे-धीरे स्थिति और भी बदतर होती गई। किसी भी नक्सली क्षेत्र की बात करें तो वहाँ बुनियादी ज़रूरत भी पूरी नहीं होती है। सहनशक्ति तब तक रहती है जब इंसान ख़ुद भूखा रह जाए लेकिन उसका बच्चा कम से कम भर पेट खाना खा ले।और जब बच्चा भूख़ से दम तोड़ता है तो हथियार के अलावा उन्हें कुछ नहीं सूझता। क्रूरतम अपराध भले है लेकिन दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ तो हो जाता है। अब भी वक़्त है, उनकी ज़रूरत पूरी की जाए और उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा जाए तथा हर तरह का विकास हो। फिर कोई क्यों किसी की जान लेगा या देगा।

आख़िर क्या वजह है कि ये नक्सलवादी आदिवासी इलाकों में ही पनपते और जड़ जमाते हैं? आज़ादी के इतने सालों के बाद भी और राज्य के बँटवारे के बाद भी आख़िरकर छत्तीसगढ़, ओड़िसा और झारखंड में विकास क्यों नहीं हुआ? विकास गर हुआ भी तो आदिवासी इससे वंचित क्यों हैं? नक्सलवाद को जायज़ कोई नहीं कहता है जैसे अन्य अपराध है वैसे ही यह भी अपराध है गरीब आदिवासियों के लिए नक्सली बनना भी एक मज़बूरी है नक्सली न बनें तो नक्सली मार देंगे, बन गए तो पुलिस से मारे जाएँगे ज़िन्दगी तो दोनों हाल में दाँव पर लगी हुई है। आम आदमी कभी सरकार को या कभी नक्सली को दोषी कह कर पल्ला झाड़ लेता है, क्योंकि इस हिंसक लड़ाई में न तो नेता मरता है न कोई ख़ास आदमी यह तय है कि नक्सलियों की बुनियादी ज़रूरत जब पूरी होगी तब ही उनमें प्रजातंत्र में विश्वास जागेगा और तभी इस ख़ूनी क्रान्ति का खात्मा संभव है। 

- जेन्नी शबनम (1. 7. 2017)

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