Sunday, April 21, 2013

44. स्त्रियों के हिस्से में...


सोचते-सोचते जैसे दिमाग शून्य हो जाता है । सदमे में मन ही नहीं आत्मा भी है । मन में मानो सन्नाटा गूँज रहा है । कमजोर और असहाय होने की अनुभूति हर वक़्त डराती है और नाकाम होने का क्षोभ टीस देता है । हताशा से जीवन जीने की शक्ति ख़त्म हो रही है । आत्मबल तो मिट ही चुका है आत्मा रक्षा की कोई गुंजाइश भी नहीं बची है । सारे सपने तितर-बितर होकर किसी अनहोनी की आहाट को सोच घबराए फिरते हैं । मन में आता है चीख-चीख कर कहूँ - ''ऐसी खौफ़नाक दुनिया में पल-पल मरकर जीने से बेहतर है, ऐ आधी दुनिया, एक साथ खुदकुशी कर लो ।'' 

हर दिन बलात्कार की बर्बर घटनाओं को सुन कर 13 वर्षीय लड़की कहती है - ''माँ, चलो किसी और देश में रहने चले जाते हैं । वहाँ कम से कम इतना तो नहीं होगा ।'' माँ खामोश है । कोई जवाब नहीं; ढ़ाढ़स और हौसला बढ़ाते कोई शब्द नहीं, बेटी को बेफिक्र हो जाने के लिए झूठी तसल्ली के कोई बोल नहीं । माँ की आँखें भीग जाती है । एक सम्पूर्ण औरत बन चुकी वह माँ जानती है कि वह खुद ही सुरक्षित नहीं तो बेटी को क्या कहे, उसके डर को कैसे दूर करे, किस देश ले जाए जहाँ उसकी बेटी पूर्णतः सुरक्षित हो । कम से कम इस दुनिया में तो ऐसी कोई जगह नहीं है । बेटी से माँ कहती है - ''खुद ही सँभल कर रहो, बदन को अच्छे से ढँक कर रहो, शाम के बाद घर से बाहर नहीं जाना, दिन में भी अकेले नहीं जाना, कुछ थोड़ा बहुत गलत हो भी जाए तो चुप हो जाना वरना उससे भी बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ेगा, किसी भी पुरुष पर विश्वास नहीं करना चाहे कितना भी अपना हो ।'' लड़की बड़ी हो चुकी है । सवाल उगते हैं - आखिर 80 साल की औरत के साथ बलात्कार क्यों? जन्मजात लड़की के साथ क्यों? 5 साल की लड़की के साथ क्यों? 6 साल...7 साल... किसी भी उम्र की स्त्री के साथ ...क्यों?... क्यों? ...क्यों?

कहाँ जाए कोई भागकर? किस-किस से खुद को बचाए? खुद को कैदखाने में बंद भी कर ले तो कैदखाने के पहरेदारों से कैसे बचे? हर कोई इन सभी से थक चुका है, चाहे वो स्त्री हो या कोई नैतिक पुरुष । सभी पुरुषों की माँ बहन बेटी है, और हर कोई सशंकित और डरा-सहमा हुआ रहता है । दुनिया का ऐसा एक भी कोना नहीं जहाँ स्त्रियाँ पूर्णतः सुरक्षित हों और बेशर्त सम्मान और प्यार पाएँ । हम सभी हर सुबह किसी दर्दनाक घटना के साक्षी बनते हैं और हर शाम खुद को साबूत पा कर ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हैं । हर कोई खुद के बच जाने पर पल भर को राहत महसूस करता है लेकिन दूसरे ही पल फिर से सहम जाता है कि कहीं अब उसकी बारी तो नहीं । खौफ़ के साए में ज़िंदगी जी नहीं जाती बस किसी तरह बसर भर होती है; चाहे वो किसी की भी ज़िन्दगी हो ।  

सारे सवाल बेमानी । जवाब बेमानी । सांत्वना के शब्द बेमानी । हर रिश्ते बेमानी । शिक्षा, धर्म, गुरु, कानून, पुलिस, परिवार सभी नाकाम । जैसे शाश्वत सत्य है कि स्त्री का बदन उसका अभिशाप है; वैसे ही शाश्वत सत्य है कि पुरुष की मानसिकता बदल नहीं सकती है । कामुक प्रवृति न रिश्ता देखती है न उम्र न जात-पात न धर्म न शिक्षा न प्रांत । स्त्री देह और उस देह के साथ अपनी क्षमता भर हिंसक क्रूरता; ऐसे दरिंदों की यही आत्मिक राक्षसी भूख है । ऐसे मनुष्य को पशु कहना भी अपमान है क्योंकि कोई भी पशु सिर्फ शारीरिक भूख मिटाने या वासना के वशीभूत ऐसा नहीं करता । पशुओं के लिए यह जैविक क्रिया है जो ख़ास समय में ही होता है । मनुष्यों की तरह कामुकता उनका स्वभाव नहीं और न ही अपनी जाति से अलग वे रति क्रिया करते हैं । मनुष्य के वहशीपना को रोग की संज्ञा देकर उसका इलाज़ करना मुनासिब नहीं है । क्योंकि ऐसे लोग कभी भी सुधरते नहीं है अतः वे क्षमा व दया के पात्र नहीं हो सकते । क़ानून और पुलिस तो यूँ भी ऐसो के लिए मज़ाक की ही तरह है । अपराधी अगर पहुँच वाला है तो फिक्र ही क्या, और अगर निर्धन है तो जेल की रोटी खाने में बुराई ही क्या ।  

निश्चित ही मीडिया की चौकसी ने इन दिनों बलात्कार की घटनाओं को दब जाने से रोका है, परन्तु कई बार मीडिया के कारण भी ऐसे हादसे दबा दिए जाते हैं और बड़े-बड़े अपराधी खुले आम घूमते हैं । सरकार, सरकारी तंत्र, मीडिया और क़ानून के पास ऐसी शक्ति है कि अगर चाहे तो एक दिन के अन्दर तमाम अपराधों पर काबू पा ले । लेकिन सभी के अपने-अपने हिसाब अपने-अपने उसूल । जनता असंतुष्ट और डरी रहे तभी तो उन पर शासन भी संभव है । बलात्कार जैसे घृणित अपराध का भी राजनीतिकरण हो जाता है । सभी विपक्षी राजनैतिक पार्टियों को जैसे सरकार को कटघरे में लाने का एक और मौक़ा मिल जाता है ।सत्ता परिवर्तन, तात्कालीन प्रधानमन्त्री या गृहमंत्री के इस्तीफ़ा से क्या ऐसे अपराध और अपराधियों पर अंकुश संभव है? हम किसी ख़ास पार्टी पर आरोप लगा कर अपने अपराधों से मुक्त नहीं हो सकते ।   

प्रशासन, पुलिस, कानून हमारी सुरक्षा के लिए है लेकिन अपराधी भी तो हममे से ही कोई न कोई है; हम इस बात से इंकार नहीं कर सकते । अपराध भी हम करते हैं और उससे बचने के लिए भ्रष्टाचार को बढ़ावा भी हम ही देते हैं । हम ही सरकार बनाते हैं और हम ही सरकार पर आरोप लगाते हैं । हम ही कानून बनाते हैं और हम ही कानून तोड़ते हैं । हम में से ही कोई किसी की माँ बहन बेटी के साथ बलात्कार करता है और अपनी माँ बहन बेटी की हिफाज़त में जान भी गँवा देता है । आखिर कौन है ये अपराधी? जिसकी न कोई जाति है न धर्म । इसके पास इस अपराध को करने का कोई औपचारिक प्रशिक्षण भी नहीं होता और निश्चित ही इनके घरवाले ऐसे अपराध करने पर शाबासी नहीं देते हैं । क़ानून और पुलिस की धीमी गति और निष्क्रियता, क़ानून का डर न होना और सज़ा का कम होना ऐसे  अहम् कारण हैं जो ऐसे अपराध को रोक नहीं पाते हैं ।     

कुछ अपराध ऐसे होते हैं जिनकी सज़ा कभी भी मृत्यु से कम हो ही नहीं सकती तथा 'जैसे को तैसा' का भी दंड नहीं दिया जा सकता; बलात्कार ऐसा ही अपराध है । इस जुर्म की सरल सज़ा और मृत्यु से कम सज़ा देना अपने आप में गुनाह है । ऐसे अपराधी किसी भी तबके के हों, आरोप साबित होते ही बीच चौराहे पर फाँसी दे दी जानी चाहिए । कोई दुसरे ऐसी मनोवृति वाले अपराधी कम से कम डर के कारण तो ऐसा न करेंगे । न्यायप्रणाली और पुलिस को संवेदनशील, निष्पक्ष और जागरूक तो होना ही होगा । अन्यथा ऐसे अपराध कभी न रुकेंगे । 

- जेन्नी शबनम (21. 4. 2013)

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