"रोज़-रोज़ क्या बात करनी है, हर दिन वही
बात- खाना खाया, क्या खाया, दूध पी लिया करो, फल खा लिया करो, टाइम से
वापस आ जाया करो।" आवाज में झुंझलाहट थी और फ़ोन कट गया।
वह हतप्रभ रह गई। इसमें ग़ुस्सा होने की
क्या बात थी। आख़िर माँ हूँ, फ़िक्र तो होती है न। हो सकता है पढ़ाई का बोझ ज़्यादा होगा। मन ही मन में बोलकर ख़ुद को सांत्वना देती हुई रंजू रजाई में
सिर घुसाकर अपने आँसुओं को छुपाने लगी। यूँ उससे पूछता भी कौन कि आँखें
भरी हुई क्यों है, किसने कब क्यों मन को दुखाया है। सब अपनी-अपनी ज़िन्दगी में मस्त हैं।
दूसरे दिन फ़ोन न आया। मन में बेचैनी हो
रही थी। दो बार तो फ़ोन पर नम्बर डायल भी किया, फिर कल वाली बात याद आ गई और
रंजू ने फ़ोन रख दिया। सारा दिन मन में अजीब-अजीब-से ख़याल आते रहे। दो दिन
बाद फ़ोन की घंटी बजी। पहली ही घंटी पर फ़ोन उठा लिया। उधर से आवाज़ आई "माँ,
तुमको खाना के अलावा कोई बात नहीं रहता है करने को। हमेशा खाना की बात
क्यों करती हो? तुम्हारे कहने से तो फल-दूध नहीं खा लेंगे। जब जो मन करेगा
वही खाएँगे। जब काम हो जाएगा लौटेंगे। तुम बेवजह परेशान रहती हो। सच में
तुम बूढ़ी हो गई हो। बेवजह दख़ल देती हो। ख़ाली रहती हो, जाओ दोस्तों से मिलो,
घर से बाहर निकलो। सिनेमा देखो बाज़ार जाओ।"
रंजू को कुछ भी कहते न बन रहा था। फिर भी कहा- "अच्छा चलो, खाना नहीं पूछेंगे। पढ़ाई कैसी चल रही है? तवियत ठीक है न?"
"ओह माँ, हम पढ़ने ही तो आए हैं। हमको पता है कि पढ़ना है। और जब तबीयत ख़राब होगी हम बता देंगे न।"
रंजू समझ गई कि अब बात करने को कुछ नहीं
बचा है। उसने कहा "ठीक है, फ़ोन रखती हूँ। अपना ख़याल रखना।" उधर से जवाब का
इंतज़ार न कर फोन काट दिया रंजू ने। सच है, आज के समय के साथ वह चल न सकी
थी। शायद यही आज के समय का जेनरेशन गैप है। यूँ जेनरेशन गैप तो हर जेनरेशन
में होता है परन्तु उसके ज़माने में जिसे फ़िक्र कहते थे आज के ज़माने में
दख़लअंदाजी कहते हैं। फ़िक्र व जेनरेशन गैप भी समझ गई है अब वह।
- जेन्नी शबनम (2. 4. 2019)
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