जीवन के यथार्थ से जुड़ा एक भावपूर्ण गाना है - ''आईने के सौ टुकड़े करके हमने देखे हैं, एक में भी तन्हा थे सौ में भी अकेले हैं।'' इस गाना के बोल आज बार-बार दोहरा रही हूँ। सचमुच हम कितने अकेले होते हैं, हज़ारों की भीड़ में भी अकेले होते हैं और यह सिर्फ हमारा मन जानता है कि हम कितने अकेले हैं। कोई नहीं जानता कि किसी चेहरे की मुस्कराहट के पीछे कितनी वेदना छुपी हुई होती है। कोई ऐसा दर्द होता है जिसे वह दबाए होता है, क्योंकि वह किसी से कह नहीं पाता। जब सहन की सीमा ख़त्म हो जाती है फिर वह सदा के लिए ख़ामोश हो जाता है। निःसंदेह किसी की मुस्कराहट से उसकी सफलता और सुख का आकलन नहीं कर सकते और न ही भौतिक सुविधा से किसी को सुखी कह सकते हैं।
सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की खबर मन को बहुत बेचैन कर रही है। कई सवाल हैं जो मन को परेशान कर रहे हैं। एक सफल इंसान जिसे भौतिक सुख सुविधाओं की कोई कमी नहीं, आख़िर मन से इतना अकेला क्यों हुआ, जो उसे जीवन को ख़त्म करना जीने से ज्यादा सहज मालूम हुआ। नाम, शोहरत, पैसा और सम्मान के होते हुए ऐसी कौन सी चीज़ की कमी थी उसे? पर कुछ तो ज़रूर है जिसे कोई दूसरा न समझ सकता है न जान सकता है। कितना कठिन रहा होगा वह वक़्त, जब उसने फाँसी के फंदे को गले में डाला होगा। मन से कितना टूटा रहा होगा वह। मृत्यु से पूर्व निश्चित ही वह चाहता होगा कि कोई हो जिसे वह कुछ कह सके। लेकिन चारों तरफ इतना अपना कोई न दिखा होगा जो उसके मन तक पहुँच सके, उसे समझ सके, उसकी मदद कर सके। कोई उसके इतने करीब होता तो यूँ न जाता सुशांत।
युवा सुशांत एक बहुत उम्दा कलाकार था। बिहार का सुशांत बॉलीवुड में एक मुकाम हासिल कर चुका था। उसने काई पो चे, शुद्ध देसी रोमांस, एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी, पी के, केदारनाथ, छिछोरे आदि कई हिट फिल्में की हैं। पिछले साल छिछोरे आई थी जो एक भावनात्मक और सभी उम्र के लोगों के लिए प्रेरक फिल्म थी। कई सारे धारावाहिकों में वह काम कर चुका है। उसे बॉलीवुड में बहुत प्यार मिला। कई सारे पुरस्कार और अवार्ड मिले। निजी जीवन का तो नहीं पता लेकिन फ़िल्मी जीवन में एक सफल अभिनेता था सुशांत।
अक्सर सोचती हूँ कि ज़िन्दगी का कौन-सा पल कब किस मोड़ पर मुड़ जाए, किस दिशा में ले जाए, किस दशा में पहुँचा दे, कोई नहीं जानता। ज़िन्दगी को जितना ही समझने का, जानने का, पकड़ने का प्रयत्न करो उतना ही समझ से और पकड़ से दूर चली जाती है। साहस चाहिए होता है ज़िन्दगी के साथ ताल-मेल बिठाकर साथ चलने का। कितना ही कठिन वक़्त हो अगर एक भी कोई अपना हो तो हर बाधाओं को पार करने की हिम्मत इंसान जुटा लेता है। परन्तु जाने क्यों अब इतना अपना कोई नहीं होता। संवेदनाएँ धीरे-धीरे सिमटते-सिमटते मरती जा रही हैं। हमारे जीवन से अपनापन ख़त्म हो रहा है। हमारे रिश्तों में महज़ औपचारिक-से सम्बन्ध रह गए हैं, जहाँ कोई किसी का हाल पूछ भी ले तो यूँ मानो एहसान किया हो। अब ऐसे में अकेला पड़ गया आदमी क्या करे? शायद इसी लिए कहते हैं कि ज़िन्दगी से ज्यादा आराम मौत में है। जीवन के बाद का सफ़र कौन जाने कैसा होता होगा। लेकिन जैसा भी होता हो, जीवन की समस्याएँ जब अख्तियार से बाहर हो जाती होंगी, तभी कोई इस सुन्दर संसार को अलविदा कहता होगा।
वर्तमान समय में संवादहीनता और संवेदनहीनता एक बहुत बड़ा कारण है जिससे आदमी अकेला महसूस करता है। अपने अकेलेपन से पार जाने के लिए हमें ही सोचना होगा। रिश्ते नाते या दोस्तों में किसी को तो अपना बनना होगा, किसी को तो अपना बनाना होगा जहाँ हम खुल कर संवाद स्थापित कर सकें। अपनी तकलीफ़ बताएँ और तकलीफ़ से उबरने का उपाय कर सकें। कोई क्या सोचेगा, यह सोचकर हम बड़े से बड़े संकट या परेशानी में ख़ामोश ही नहीं रह जाते बल्कि अपनी दशा और मनोस्थिति सबसे छुपाते रहते हैं। कई बार यही चुप्पी काल बन जाती है। संकोच की परिधि से बाहर आकर खुल कर ख़ुद को बताना और जीवन को चुनना होगा। हम जैसे अपनों की परवाह करते हैं वैसे ही हमें अपनी परवाह भी करनी होगी। वरना अहंकार, असंवेदनशीलता और भौतिकता के इस दौर में हर कोई अकेले पड़ता जाएगा और न जाने कितने लोग जीवन से इसी तरह पलायन करते रहेंगे।
बिहार का सुशांत अब सदा के लिए शांत हो गया है। शांति के लिए तुमने जिस पथ को चुना, भले वहाँ पूर्ण शान्ति हो; फिर भी वह उचित नहीं था सुशांत। चाहती हूँ कि तुम जहाँ भी अब हो खुश रहना। अलविदा सुशांत।
- जेन्नी शबनम (14. 6. 2020)
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