Friday, December 17, 2010

15. लुप्त होते लोकगीत

हमारी लोक-संस्कृति हमेशा से हमारी परम्पराओं के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होती रही है कुछ दशक पूर्व तक आम भारतीय इसकी क़ीमत भी समझते थे और इसको संजोकर रखने का तरीक़ा भी जानते थे लेकिन आज ये चोटिल है, आर्थिक उदारवाद से उपजे सांस्कृतिक संक्रमण ने सब कुछ जैसे ध्वस्त कर दिया है हम नक़ल करने में माहिर हो चुके हैं, वहीं अपनी स्वस्थ परम्परा का निर्वहन करने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं आश्चर्य की बात है कि हर व्यक्ति यही कहता है कि हमारी संस्कृति नष्ट हो गई है, उसे बचाना है, पाश्चात्य संस्कृति ने इसे ख़त्म कर दिया हैलेकिन शायद लोक-परम्पराओं के इस पराभव में वे ख़ुद शामिल हैं कौन है जो हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है? हमारी ही संस्कृति क्यों प्रभावित हो रही है, दूसरे देशों की क्यों नहीं? आज भी दुनिया के तमाम देश अपनी लोक-परम्पराओं को जतन से संजोकर रखे हैं दोष हर कोई दे रहा, लेकिन इसके बचाव में कोई क़दम नहीं, बस दोष देकर कर्त्तव्य की इतिश्री 
  
लोक-संस्कृति के जिस हिस्से ने सर्वाधिक संक्रमण झेला है, वह है लोकगीत आज लोकगीत गाँव, टोलों, कस्बों से ग़ायब हो रहे हैं कान तरस जाते हैं नानी-दादी से सुने लोकगीतों को दोबारा सुनने के लिए। 
 
हमारे यहाँ हर त्योहार और परम्परा के अनुरूप लोकगीत रहे हैं और आज भी ग्रामीण और छोटे शहरी क्षेत्रों में रहने वाले बड़े-बुज़ुर्गों में इनकी अहमियत बनी हुई है विवाह के अवसर पर राम-सीता और शिव-पार्वती के विवाह-गीत के साथ ही हर विधि के लिए अलग-अलग गीत, शिशु जन्म पर सोहर, बिरहा, कजरी, सामा-चकवा, तीज, भाई दूज, होली पर होरी, छठ पर्व पर छठी मइया के गीत, रोपाई-बिनाई के गीत, धान कूटने के गीत, गंगा स्नान के गीत आदि सुनने को मिलते थे जीवन से जुड़े हर शुभ अवसर, महत्वपूर्ण अवसर के साथ ही रोज़मर्रा के कार्य के लिए भी लोकगीत रचे गए हैं  
 
एक प्यारे से गीत के बोल याद आ रहे हैं, जो अपने गाँव में बचपन में सुनी हूँ…
चूए ओठ से पानी ललन सुखदायी
पुआ के बड़ाई अपन फुआ से कहिय
ललन सुखदायी,
चूए ओठ से पानी ललन सुखदायी
कचौड़ी के बड़ाई अपन भउजी से कहिय
ललन सुखदायी…
खाना पर बना यह गीत मुझे बड़ा मज़ा आता था सुनने में इसमें सभी नातों और भोजन को जोड़कर गाते हैं, जिसमें दूल्हा अपने ससुराल आया हुआ है और उसे कहा जा रहा कि यहाँ जो कुछ भी स्वागत में खाने को मिला है वह सभी इतना स्वादिष्ट है कि अपने घर जाकर अपने सभी नातों से यहाँ के खाने की बड़ाई करना।  
 
एक और गीत है जिसे भाई दूज के अवसर पर गाते हैं इसमें पहले तो बहनें अपने भाई को श्राप देकर मार देती हैं फिर जीभ में काँटा चुभाकर स्वयं को कष्ट देती हैं कि इसी मुँह से भाई को श्राप दिया और फिर भाई की लम्बी आयु के लिए आशीष देती हैं...
जीय जीय (भाई का नाम) भइया लाख बरीस
(बहन का नाम लेकर) बहिनी देलीन आसीस हे…
मुझे याद है गाँव में आस-पास की सभी औरतें इकठ्ठी हो जाती थीं और सभी मिलकर एक-एककर अपने अपने भाइयों के लिए गाती थीं मैं तो कभी यह की नहीं, लेकिन मेरे बदले मेरे भाई के लिए मेरी मइया (बड़ी चाची) शुरू से करती थीं अब तो सब विस्मृत हो चुका है, मेरे ज़ेहन से भी और शायद इस लोकगीत को गाने वाले लोगों की पीढ़ी के ज़ेहन से भी
पारम्परिक लोकगीत न सिर्फ़ अपनी पहचान खो रहा है; बल्कि मौजूदा पीढ़ी इसके सौंदर्य को भी भूल रही है हर प्रथा, परम्परा और रीति-रिवाज के अनुसार लोकगीत होता है और उस अवसर पर गाया जाने वाला गीत न सिर्फ़ महिलाओं को बल्कि पुरुष को भी हर्षित और रोमांचित करता रहा है लेकिन जिस तरह किसी त्योहार या प्रथा का पारम्परिक स्वरूप बिगड़ चुका है, उसी तरह लोकगीत कहकर बेचे जाने वाले नए उत्पादों में न तो लोकरंग नज़र आता है न गीत जहाँ सिर्फ़ लोकगीत होते थे, अब उनकी जगह फ़िल्मी धुन पर बने अश्लील गीत ले चुके हैं अब सरस्वती पूजा हो या दुर्गा पूजा, पंडाल में सिर्फ़ फ़िल्मी गीत ही बजते हैं होली पर गाया जाने वाला होरी तो अब सिर्फ़ देहातों तक सिमट चुका है गाँव में भी रोपनी या कटनी के समय अब गीत नहीं गूँजते सोहर, विरही, झूमर, आदि महज़ टी.वी. चैनल के क्षेत्रीय कार्यक्रम में दिखता है विवाह हो, शिशु जन्म हो या कोई अन्य ख़ुशी का अवसर, फ़िल्मी गीत और डी.जे. का हल्ला गूँजता है यहाँ तक कि छठ पूजा, जो बिहार का सबसे बड़ा पर्व माना जाता, उसमें भी लाउड-स्पीकर पर फ़िल्मी गाना बजता है यों औरतें अब भी छठी मइया का पारम्परिक गीत गातीं हैं अब तो आलम ये है कि भजन भी अब किसी प्रचलित फ़िल्मी गाना की धुन पर लिखा जाने लगा है किसी के पास इतना समय नहीं कि सम्मिलित होकर लोकगीत गाएँ विवाह भी जैसे निपटाने की बात हो गई है पूजा-पाठ हो या कोई त्योहार, करते आ रहे हैं इसलिए करना है जिसका जितना बड़ा पंडाल, जितना ज़्यादा ख़र्च वह सबसे प्रसिद्ध लोकगीतों का वक़्त अब टी.वी. ने ले लिया है गाँव-गाँव में टी.वी. पहुँच चुका है; भले ही कम समय के लिए बिजली रहे पर जितनी देर रहे लोग एक साथ होकर भी साथ नहीं होते, उनकी सोच पर टी.वी. हावी रहता है कुछ आदिवासी क्षेत्र को छोड़ दें तो कहीं भी हमारी पुरानी परम्परा नहीं बची है, न पारम्परिक लोकगीत अब अगर जो बात की जाए कि कोई लोकगीत सुनाओ, तो बस भोजपुरी अश्लील गाना सुना दिया जाता है, जैसे यह लोकगीत का पर्याय बन चुका हो
नहीं मालूम लोकगीत का पुनरागमन होगा कि नहीं, लेकिन पूर्वी भारत में लोकगीतों का लुप्त होना इस सदी का सबसे बड़ा सांस्कृतिक क्षय है; क्योंकि परिवार और समाज की टूटन कहीं-न-कहीं इससे प्रभावित हैगाँव से पलायन, शहरीकरण और औद्योगीकरण इस सांस्कृतिक ह्रास का बहुत बड़ा कारण है हम किसी संस्कृति को दोष नहीं दे सकते कि उसके प्रभाव से हमारी संस्कृति नष्ट हुई है; बल्कि हम स्वयं इन सबको छोड़ रहे हैं और ज़िन्दगी को जीने के लिए नहीं, बल्कि प्रतिस्पर्धा में झोंक रहे हैं पारम्परिक लोकगीत गाने वाले अब बहुत कम लोग बचे हैं और आज की पीढ़ी सीखना भी नहीं चाहती है ऐसे में लोकगीत का भविष्य क्या होगा? क्या यों ही अपनी पहचान खोकर कहीं किसी कोने में पड़े-पड़े अपने ही लिए गाए शोक-गीत?
 
-जेन्नी शबनम (17.12.2010)
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9 comments:

मुकेश कुमार सिन्हा said...

Di...chhhat puja ka ye geet yaad hai "chhatti maiya ja hatin deshwa........."

ya fir deewali pe ghar pe laxmi ghar darida bahar karna....:)

abhi likhte samay bhi ek alag se khusboo aa rahi hai....kash ham apne bachcho ko ye sab de paayen....


aapne bahut sahi kaha

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना said...

शबनम जी ! आपने एक अत्यंत संवेदनशील विषय की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास किया है .....पिछले कई वर्षों से मैं इस विषय पर गंभीरता से विचार करता रहा हूँ ...कुछ लोक गीत लिखने का प्रयास भी किया .....अभी मंच पर पढ़ने का साहस नहीं कर सका ....पता नहीं लोग क्या सोचें ? पर अब जबकि आपने ऐलान कर ही दिया है कि मेरे इस पागलपन में आप भी हमारे साथ हैं ..... तो अब मैं हिम्मत करके मंच पर भी पढूंगा. आपकी इस प्रेरणा के लिए बहुत-बहुत आभार.

अरुणेश मिश्र said...

अति प्रशंसनीय ।

rasaayan said...

Bahin ji...
Bahut khoobsoorti se aapne is disha par prakash dala.....kaun uttardayi hai...Ham swayam hi ?....
Pashchim hamse abhi bhi seekh raha hai aur ham bhoolte ja rahe hain, saath hi anawashyak seekh ke rahe hain hain....
kash sanskriti aur purane reeti riwaz bachane main main TV/Radio aur swayam samaj ka yogdan aawashyak hai.....Padhna zaroori hai.....
dhanyavad...

shikha varshney said...

बिलकुल ठीक कह रही हैं आप .ये लोकगीत सिर्फ गीत ही नहीं होते थे इनमें पूरी जिंदगी बयान होती थी.ये खतम हो गए तो उत्सवों से जिंदगी ही चली गई.

Anonymous said...

बेहद क्षोभजनक परिस्थितियाँ

"यायावर" said...

सादर नमस्कार!
"लुप्त होते लोकगीत" को मैं यायावरी पत्रिका में प्रकाशित करने के लिए आपकी आज्ञा चाहता हूँ| संस्कृति और सभ्यता के मूल में बसी यह परम्परा मानव समाज की धरोहर है| यह धरोहर ही हमारा परिचय है, आपके इस लेख को पढ़कर ऐसा लगा कि विस्मृत होती इन परम्पराओं को हमें अपने भविष्य की पीढ़ियों के लिए सहेजना अतिआवश्यक कर्तव्य है|

sanjiv verma 'salil' said...

upyogi lekh ise apne blog divyanarmada par punarprastut kar raha hoon.

Anonymous said...

Yes