Sunday, March 21, 2021

85. 'प्रवासी मन' विषय-वैविध्य की कृति - 'रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
  
मेरी दूसरी पुस्तक 'प्रवासी मन' (हाइकु-संग्रह) 2021 को अयन प्रकाशन से प्रकाशित हुई और 7 जनवरी को मुझे प्राप्त हुई 10 जनवरी 2021 को विश्व हिन्दी दिवस के अवसर पर 'हिन्दी हाइकु' एवं 'शब्द सृष्टि' के संयुक्त तत्वाधान में गूगल मीट और फेसबुक पर आयोजित पहला ऑनलाइन अन्तर्राष्ट्रीय कवि सम्मलेन हुआ, जिसमें 'प्रवासी मन' का लोकार्पण हुआ मेरी पुस्तक में आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी ने भूमिका लिखी है, जिसे यहाँ प्रेषित कर रही हूँ    

                         'प्रवासी मनविषय-वैविध्य की कृति


प्रकृति और जीव-जगत् एक दूसरे के पूरक हैंएक दूसरे के बिना अधूरे हैं। बाह्य प्रकृति जीव-जगत् को प्रभावित करती है, तो जीव जगत् भी प्रकृति को प्रभावित करता है। तापबरसातकुहासावसन्तपतझरभूकम्पसुनामी प्रकृति के साथ-साथ मानव जीवन में भी किसी न किसी रूप में घटित होते ही हैं। इन सबके बीच रहकर मानव इन सबसे अछूता भी कैसे रह सकता है? अगर कोई यह कहता है कि वह किसी से राग-द्वेष (प्यार और नफ़रत) नहीं रखतावह कभी रोता नहींवह कभी हँसता नहींवह कभी नाराज़ नहीं होतातो समझिए कि या तो वह झूठ बोल रहा है या वह देवता है या संवेदना-शून्य है। हाइकु कविता के लिए भी कोई विषय त्याज्य नहीं माना जा सकताक्योंकि कवि का अपना व्यक्तित्व हैउसके संस्कार हैंउसका मन हैउसके अपने सामाजिक सरोकार हैं। वह इन सबकी उपेक्षा कैसे कर सकता है? डॉ. जेन्नी शबनम जहाँ एक रचनाकार हैंदूसरी ओर वह सामाजिक कार्यों से भी जुड़ी हैं एवं जन समस्याओं से रूबरू भी होती रहती हैंइसीलिए इनका गद्य जितना अच्छा हैउतनी ही गहरी एवं संवेदना-सिंचित इनकी कविताएँ हैं। हाइकु-सर्जन में भी उनकी वही गहराई और मज़बूत पकड़ नज़र आती है। इसका एक कारण दृष्टिगत होता हैइनका जीवन-अनुभव और साहित्य का गहन अध्ययन। अमृता प्रीतम से इनका प्रगाढ़ सामीप्य रहा है। इनके काव्य में कहीं-कहीं उसकी झलक मिल जाती हैफिर भी इनका अपना चिन्तन हैअपनी शैली है।

 

जीवन में शाश्वत सुख जैसा कुछ नहीं होता। मन को जो थोड़ी देर के लिए सुख मिलता हैउसमें भी कहीं न कहीं दुःख की छाया रहती है। जहाँ मिलन या संयोग का आनन्द होता हैउसी में उस सुख के छिन जाने का भय बना रहता है। घनानंद ने कहा भी है- 'अनोखी हिलग दैयाबिछुरे तै मिल्यौ चाहै / मिलेहू पै मारै जारै खरक बिछोह की।' यानी प्रेम भी अनोखा है कि बिछुड़ जाने पर मिलने के लिए व्याकुल होता है और मिलन होने पर बिछोह का खटका लगा रहता है। इसी तरह जेन्नी जी के हाइकु में एक ओर प्रेम हैछले जाने की पीर हैदु:ख की नियति हैतो जीवन का उल्लास भी हैप्रकृति का अनुपम सौन्दर्य भीखेत में अन्न से जाग्रत किसान है, तो दो वक़्त की रोटी के लिए जूझता मज़दूर भी है। हर मौसम का सौन्दर्य हैतो उनका निर्दय रूप भी है।

 

मन को प्रवासी कहा है। वह भी ऐसा प्रवासी, जिसका कोई घर ही नहीं। वह लौटे भी, तो कहाँ जाए। जाए भी कैसेरास्ता काँटों-भरापाँव ज़ख़्मी हो गएअब कहाँ जाया जाए। एकान्त को तोड़ने के लिए गौरैया से भी मनुहार की है कि वह चीं-चीं बोले तो चुप्पी टूटे। ज़िन्दगी का आनन्द तो दूर रहाउल्टे वह हवन हो गईजिसका धुआँ बादलों तक जा पहुँचा-

पाँव है ज़ख़्मी / राह में फैले काँटे / मैं जाऊँ कहाँ! - 4

लौटता कहाँ / मेरा प्रवासी मन / कोई न घर! -1

मेरी गौरैया / चीं चीं-चीं चीं बोल री, / मन है सूना! - 1000

हवन हुई / बादलों तक गई / ज़िन्दगी धुँआ! - 316

 

प्रकृति का आलम्बन रूप में यदि उसके स्वरूप का चित्रांकन किया गया है, तो उसका लाक्षणिक और प्रतीक रूप भी मौजूद है। 'बगियाके अभिधेय और लाक्षणिक दोनों रूप मौजूद हैं-

गगरी खाली / सूख गई धरती / प्यासी तड़पूँ! - 26

झुलस गई / धधकती धूप में / मेरी बगिया! - 28

 

प्रकृति का मोहक सौन्दर्य भी हैजिसमें फसलों के हँसने काफूलों का बच्चों की तरह गलबहियाँ डालकर बैठने का मोहक मानवीकरण भी है। हँसता हुआ गगन है, तो बेपरवाह धूप भी है। अम्बर से बादल नहीं बरसा; बल्कि अम्बर उस बच्चे की तरह रोया हैजिसका किसी ने खिलौना छीन लिया हो। जेन्नी शबनम की यह नूतन कल्पना नन्हे-से हाइकु को चार चाँद लागा देती है। कम से कम शब्दों में उकेरे गए ये चित्र मनमोहक हैं-

फूल यूँ खिले, / गलबहियाँ डाले / बैठे हों बच्चे! - 1019

फसलें हँसी, / ज्यों धरा ने पहने / ढेरों गहने! - 1022

गगन हँसा / बेपरवाह धूप / साँझ से हारी! - 951

अम्बर रोया, / ज्यों बच्चे से छिना / प्यारा खिलौना! -1020

 

प्रकृति का चेतावनी देना वाला वह रूप भी हैजिसे मानव ने अपने स्वार्थ से नष्ट कर दिया है। कैकेयी की तरह रूठना जैसे पौराणिक उपमानों का सार्थक प्रयोग विषय को और भी प्रभावी बना देता है। धूल और धुएँ से धरती की बेदम साँसें पूरी मानवता के लिए बहुत बड़ी चेतावनी हैं। हरियाली के लिए पर्यावरण की हरी ओढ़नी का सार्थक प्रयोग किया गया है। उस ओढ़नी को छीनने पर प्रकृति की नग्नताप्रकारान्तर से जीवन के लिए ख़तरे का संकेत हैतो अनावृष्टि का चित्र देखिए- खेतों का ठिठकना, 'बरसो मेघहाथ जोड़कर पुकारना, कितनी व्याकुलता से भरा हुआ है!

ठिठके खेत / कर जोड़ पुकारें / बरसो मेघ! - 53

रूठा है सूर्य / कैकेयी-साजा बैठा / कोप-भवन! - 1025

धूल व धुआँ / थकी हारी प्रकृति / बेदम साँसें! - 928

हरी ओढ़नी / भौतिकता ने छीनी / प्रकृति नग्न! - 935

 

प्रकृति की भयावह स्थिति का चित्रण करते हुए जीव-जगत् की विवशताजलाभाव में कण्ठ सूखनापेड़ और पक्षियों का लिपटकर रोना बहुत कारुणिक है। प्रकृति के ऐसे भावचित्र साहित्य में दुर्लभ ही हैं। ऐसे दृश्य को आठ शब्दों के 17 वर्ण में समेटना बड़ी शब्द-साधना है।

कंठ सूखता / नदी-पोखर सूखे / क्या करे जीव? - 757

पेड़ व पक्षी / प्यास से तड़पते / लिपट रोते! - 758

 

प्रेम प्राणिमात्र की अबुझ प्यास है। गोपालदास नीरज ने एक गीत में कहा है- 'प्यार अगर न थामता पथ में / उँगली इस बीमार उम्र की / हर पीड़ा वेश्या बन जाती / हर आँसू आवारा होता।' उसी प्रेम को कवयित्री ने विभिन्न भाव-संवेदनाओं के साथ प्रस्तुत किया है। कहीं वह प्रेम अग्नि है, जो ऊँच-नीच का भेद नहीं करता। कहीं वह ऐसा बन्धन है, जो बिना किसी रज्जु या शृंखला के अटूट हैकहीं वह चिड़िया की तरह बावरा है, जो ग़ैरों में भी अपनापन तलाशता है-

प्रेम की अग्नि / ऊँच-नीच न देखे / मन में जले! - 143

प्रेम बंधन / न रस्सी न साँकल / पर अटूट! - 145

बावरी चिड़ी / ग़ैरों में वह ढूँढती / अपनापन! - 163

 

प्रेम की एकनिष्ठता में सूर्य और सूर्यमुखी का सम्बन्ध हैतो कभी नैनों की झील में उतरने का अमन्त्रण हैकहीं उन स्वप्न को छुपाने वाले नैनों का सौन्दर्य हैजो झील की तरह गहरे हैं। जिनमें उतरकर ही प्रेम की थाह पाई जा सकती है।

मैं सूर्यमुखी / तुम्हें ही निहारती / तुम सूरज! - 851

गहरी झील / आँखों में है बसती / उतरो ज़रा! - 890

स्वप्न छिपाती / कितनी है गहरी / नैनों की झील! - 899

 

उसे जब उसका प्रेमास्पद मिल जाता हैतो उसका अनुरागउसका आगमन गुलमोहर बनकर खिल जाता है-

तुम्हारी छवि / जैसे दोपहरी में / गुलमोहर! - 219

उनका आना / जैसे मन में खिला / गुलमोहर! - 217

 

वियोग की स्थिति होने पर उस मन में सन्नाटा पसर जाता हैचुप्पी भी सन्नाटे के नाम ख़त भेजने लगती है। मन में जो प्राणप्रिय बसा था, वह था तो आकाश की तरह व्यापक तोलेकिन उसकी पहुँच से दूर है-

कोई न आया / पसरा है सन्नाटा / मन अकेला! - 234

ख़त है आया / सन्नाटे के नाम से, / चुप्पी ने भेजा! - 238

मेरा आकाश / मुझसे बड़ी दूर / है मग़रूर! - 619

 

जब व्यक्ति की वेदना सीमाएँ लाँघ जाती हैतो मौन ही फिर एकमात्र उपाय रह जाता है। भरपूर दु:ख सहने पर भी कभी उसका अन्त नहीं होता। वह बेहया अतिथि की तरह आता तो अचानक हैलेकिन फिर जाने का नाम नहीं लेता-

मेरी वेदना / सर टिकाए पड़ी / मौन की छाती! - 852

दुःख की रोटी / भरपेट है खाई / फिर भी बची! - 859

दुःख अतिथि / जाने की नहीं तिथि / बड़ा बेहया! - 860

 

जीवन बड़ा विकट है। ज़माने की बुरी नज़रें अस्तित्व को न जाने कब ध्वस्त कर दें। ख़ुद को गँवाने पर भी कुछ मिल जाएसम्भव नहीं। जीवन बीत जाता है। हमारे सामने ही हमारे सुखों कोसुख-साधनों को कोई और हड़प लेता है-

घूरती रही / ललचाई नज़रें, / शर्म से गड़ी! - 177

कुछ न पाया / ख़ुद को भी गँवाया / लाँछन पाया! - 178

ताकती रही / जी गया कोई और / ज़िन्दगी मेरी! - 298

 

बुढ़ापा सारे अभाव का नाम है। कोई उसकी व्यथा सुनने वाला नहींअपने सगे भी साथ छोड़ जाते हैं। जो परदेस चले जाते हैंवे भी धीरे-धीरे सारे सम्बन्ध समेट लेते हैं। इसी तरह बेसहारा जीवन अवसान की ओर बढ़ता रहता है। जेन्नी जी ने बुढ़ापे का बहुत मार्मिक चित्रण किया है-

वृद्ध की कथा / कोई न सुने व्यथा / घर है भरा! - 865

बुढ़ापा खोट / अपने भी भागते / कोई न ओट! - 875

वृद्ध की आस / शायद कोई आए / टूटती साँस! - 876

वृद्ध की लाठी / बस गया विदेश / भूला वो  माटी! - 882

 

बहन और बेटी के सम्बन्धों की प्रगाढ़ता को अपने हाइकु में मधुर स्वर दिया है-

छूटा है देस / चली है परदेस / गौरैया बेटी! - 1012

ये धागे कच्चे / जोड़ते रिश्ते पक्के / होते ये सच्चे! - 290

 

यादों को लेकर जो कसक हैउसे न लौटने की हिदायत ही दे डाली-

तुम भी भूलो, / मत लौटना यादें, / हमें जो भूले! - 1032

 

     वैचारिक पक्ष को देखें तो एक महत्त्वपूर्ण बात कवयित्री ने कही हैजिसको व्यापक अर्थ और परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। मानव ही मन्दिर की मूर्त्ति को बनाता-तराशता है; लेकिन वही मनुष्यउस मन्दिर की व्यवस्था द्वारा बुरा क़रार दे दिया जाता है-

हमसे जन्मी / मंदिर की प्रतिमा, / हम ही बुरे! - 1052

 

      अगर भाषा की बात करें तो कवयित्री भाषा–प्रयोग में बहुत सजग हैं। हाइकु को हाइकु में परिभाषित करते हुए उसका जीवन से साम्य प्रस्तुत किया है-

हाइकु ऐसे / चंद लफ़्ज़ों में पूर्ण / ज़िन्दगी जैसे! - 172 

 

भाषा में क्षेत्रीय शब्दों का प्रयोग हाइकु को और अधिक सशक्त बना देता है। राह अगोरे (बाट देखनाप्रतीक्षा करना)सरेह (खेत)बनिहारी (खेतों में काम करना)असोरा (ओसारादालान)पथार (सुखाने के लिए फैलाया गया अनाज) जैसे सार्थक और उपयुक्त शब्दों के प्रयोग हाइकु को और अधिक सशक्त बना देते हैं-

राह अगोरे / भइया नहीं आए / राखी का दिन! - 39

हुआ विहान, / बैल का जोड़ा बोला- / सरेह चलो! - 457

भोर की वेला / बनिहारी को चला / खेत का साथी! - 562

असोरा ताके / कब लौटे गृहस्थ / थक हार के! - 566

भोज है सजा / पथार है पसरा / गौरैया ख़ुश! - 1008

 

डॉ जेन्नी शबनम के हाइकु का फलक बहुत विस्तृत है। यहाँ संक्षेप में कुछ विशेषताएँ बताने का प्रयास किया है। विषय-वैविध्य इनके हाइकु की शक्ति भी हैविशेषता भी। इस शताब्दी के लगभग पूरे दशक में आपकी लेखनी चलती रही है। मुझे विश्वास है कि 'प्रवासी मनसंग्रह इस दशक के महत्त्वपूर्ण संग्रहों में से एक सिद्ध होगा।

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काम्बोज भैया और मैं

-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

23 नवम्बर 2020

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- डॉ. जेन्नी शबनम (21.3.21)

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20 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर समीक्षा।
बधाई हो।

मंजूषा मन said...

अति सुंदर समीक्षा

हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं

Anita Manda said...

संग्रह पढा। बहुत सुंदर भूमिका। आपकी हाइकु यात्रा अनोखी है। बधाई।

Krishna said...

जेन्नी जी को उनके खूबसूरत हाइकु संग्रह और आ. भाई कम्बोज जी को संग्रह की अद्भुत समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई।

शिवजी श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर समीक्षा

जितेन्द्र माथुर said...

पुस्तक की एक बहुत अच्छी झलक प्रदान कर दी है इस पोस्ट ने । निश्चय ही इसका प्रकाशन हर्ष का विषय है । हार्दिक बधाई आपको ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत बधाई

Sudershan Ratnakar said...

बेहतरीन समीक्षा। बहुत सुंदर विश्लेषण से पता चलता है कि संग्रह वास्तव में बेहतरीन होगा। आप दोनों को हार्दिक बधाई।

प्रियंका गुप्ता said...

आदरणीय काम्बोज जी ने बहुत सार्थक विवेचना की है, इस आलेख के लिए उनको बधाई और संग्रह के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएँ

Hindi Kavita said...

आप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।

डॉ. जेन्नी शबनम said...



Blogger डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर समीक्षा।
बधाई हो।

March 22, 2021 at 3:27 PM Delete
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आभार रूपचन्द्र शास्त्री जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...


Blogger मंजूषा मन said...

अति सुंदर समीक्षा

हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं

March 23, 2021 at 6:37 AM Delete
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धन्यवाद मंजूषा जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger Anita Manda said...

संग्रह पढा। बहुत सुंदर भूमिका। आपकी हाइकु यात्रा अनोखी है। बधाई।

March 23, 2021 at 9:50 AM Delete
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धन्यवाद अनिता जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger Krishna said...

जेन्नी जी को उनके खूबसूरत हाइकु संग्रह और आ. भाई कम्बोज जी को संग्रह की अद्भुत समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई।

March 24, 2021 at 6:11 AM Delete
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आपका बहुत बहुत आभार कृष्णा जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger शिवजी श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर समीक्षा

March 24, 2021 at 7:57 AM Delete
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आपका बहुत आभार शिवजी श्रीवास्तव जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger जितेन्द्र माथुर said...

पुस्तक की एक बहुत अच्छी झलक प्रदान कर दी है इस पोस्ट ने । निश्चय ही इसका प्रकाशन हर्ष का विषय है । हार्दिक बधाई आपको ।

March 24, 2021 at 11:11 AM Delete
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बहुत बहुत धन्यवाद जितेन्द्र जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बहुत बधाई

March 24, 2021 at 12:30 PM Delete
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आपका आभार संगीता जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger Sudershan Ratnakar said...

बेहतरीन समीक्षा। बहुत सुंदर विश्लेषण से पता चलता है कि संग्रह वास्तव में बेहतरीन होगा। आप दोनों को हार्दिक बधाई।

March 24, 2021 at 10:42 PM Delete
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आपका बहुत आभार आदरणीय रत्नाकर जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger प्रियंका गुप्ता said...

आदरणीय काम्बोज जी ने बहुत सार्थक विवेचना की है, इस आलेख के लिए उनको बधाई और संग्रह के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएँ

April 1, 2021 at 2:33 PM Delete
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बहुत बहुत धन्यवाद प्रियंका जी.

डॉ. जेन्नी शबनम said...

Blogger Admin said...

आप की पोस्ट बहुत अच्छी है आप अपनी रचना यहाँ भी प्राकाशित कर सकते हैं, व महान रचनाकरो की प्रसिद्ध रचना पढ सकते हैं।

April 18, 2021 at 7:38 PM Delete
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जी शुक्रिया.