ज़िन्दगी जाने किन किन राहों से गुजरी, कितने चौक चौराहे पर ठिठकी, कभी पगडण्डी कभी कच्ची तो कभी सख्त राह से गुजरी I ज़ेहन में न जाने कितनी यादें हैं जो समय समय पर हँसाती है, रुलाती है तो कभी गुदगुदाती है I उम्र के हर पड़ाव पर जब भी पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो ज़िन्दगी इतनी दूर नज़र आती कि लगता है जैसे वो लड़की मैं नहीं हूँ जिसके अतीत से मेरी यादें जुड़ी है, विशेषकर जन्मदिन की यादें I
भागलपुर के नयाबाजार में हमलोग किराए के जिस मकान में रहते थे वो एक ज़मींदार का बहुत बड़ा मकान है और यमुना कोठी के नाम से प्रसिद्द है I उस मकान की पूरी पहली मंज़िल हमलोगों ने किराए पर लिया था I खूब बड़ा बड़ा 4 छत, 6 कमरे, खूब बड़ा बरामदा I बरामदे में लोहे का पाया था जिसे पकड़कर गोल गोल घूमना मेरा हर दिन का खेल था I उस मकान के नीचे के हिस्से में अलग अलग कई किरायेदार थे I सभी से बहुत आत्मीय सम्बन्ध थे I मुझे अब भी याद है जब मैं दो साल की थी एक किरायेदार की शादी हुई I न जाने कैसे उस उम्र में हुई ये शादी मुझे अच्छी तरह याद है जबकि सभी कहते हैं कि इस उम्र की बातें याद नहीं रहती I जिनकी शादी हुई उनको मैं चाचा कहती थी और उनकी पत्नी मुझे इतनी अच्छी लगती थी कि मैं उनको मम्मी कहने लगी I जब थोड़ी और बड़ी हुई तब उन्हें चाची जी कहने लगी I सरोज चाचा से बड़े वाले भाई को ताऊ जी और उनकी बड़ी बहन को बुआ जी कहती थी I बचपन में मुझे समझ हीं नहीं था कि ये लोग मेरे सगे चाचा चाची या ताऊ बुआ नहीं हैं I स्कूल से घर आते हीं पहले उनके घर जाती थी फिर अपने घर I छुट्टी के दिनों में उनके साथ खूब खेलती थी I मिट्टी का छोटा चूल्हा, खाना बनाने के छोटे छोटे बर्तन, छोटा छोटा छोलनी कलछुल, चकला बेलना तावा चिमटा, छोटा सूप (चावल साफ़ करने के लिए), बाल्टी आदि सभी कुछ मेरे पास था I उन दिनों कोयला और गोयठा (गाय भैंस के गोबर से बना उपला) चूल्हा में जला कर खाना बनाया जाता था I मेरे छोटे चूल्हे में बिंदु चाची ताव (चूल्हा जलाना) देती थीं I फिर छोटे छोटे पतीले में भात (चावल), दाल, तरकारी (सब्जी) या कभी खिचड़ी बनाती थी I बड़ा मज़े का दिन होता था वो I मेरे पिता रोज़ 12 बजे यूनिवर्सिटी जाते थे और मेरी माँ अक्सर कार्य से बाहर रहती थी और मैं बिंदु चाची के साथ खूब खेलती थी I सभी बच्चे उनसे खूब हिले मिले थे I
जन्मदिन के मौके पर अपने बचपन का बीता हुआ एक जन्मदिन अब भी याद है I ये तो याद नहीं कि उम्र क्या थी मेरी लेकिन लगभग 5-6 साल की रही हूँगी I जन्मदिन पर केक काटने का रिवाज़ नहीं था मेरे घर में और न हीं आज की तरह कोई पार्टी होती थी I चाहे मेरा जन्मदिन हो या मेरे भाई का घर में बहुत बड़ा भोज होता था जिसमें मेरे पिता के भागलपुर विश्वविद्द्यालय में कार्यरत सहकर्मी शिक्षक, कर्मचारी, विभागाध्यक्ष, पिता के मित्र और स्थानीय रिश्तेदार आमंत्रित होते थे I पुलाव, दाल, तरकारी (सब्जी) खीर, दल-पूरी (दाल भरी हुई पूरी) ज़रूर बनती थी I दो फीट चौड़ी खूब लम्बी लम्बी चटाई ज़मीन पर बिछाई जाती थी जिसे पटिया कहते हैं, उस पर पंक्तिबद्ध बैठ कर सभी लोग खाना खाते थे I उपहार लाने की सभी को मनाही होती थी लेकिन कुछ बहुत अपने लोग उपहार ले हीं आते थे I मुझे याद है ताऊ जी (किरायेदार) ने एक खिलौना दिया था जो गोल लोहे का था और तार बाँध कर उसपर उसे चलाते थे I जाने क्यों वो मुझे बड़ा प्रिय था I मेरे भाई के जन्मदिन पर किसी ने घर बनाने का प्लास्टिक का अलग अलग रंग और आकार का ईंट दिया था जिससे घर बनाना भी बड़ा अच्छा लगता था I और अक्सर मैं अपने भाई के साथ घर बनाने का खेल खेलती थी I
पिता के देहांत के बाद भी जन्मदिन मनता रहा लेकिन वो जश्न, धूमधाम और भोज का आयोजन बंद हो गया I मेरे हर जन्मदिन पर मेरी दादी मेरे पापा को याद कर रोती थी, क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद पैसे भी नहीं थे और पापा के समय के सभी अपने भी बेगाने हो गए थे I दादी कहती थी ''बऊआ रहते तो कितना धूमधाम से जन्मदिन मनाते'', मेरी दादी मेरे पापा को बऊआ हीं कहती थी I स्कूल और कॉलेज के दिनों में मेरी किसी से बहुत मित्रता नहीं थी, अतः जन्मदिन पर कोई मेहमान नहीं आते थे I स्कूल के दिनों में बहुत ख़ास कोई सिनेमा दिखाने पापा ले जाते थे I जब कॉलेज गई तो हमारे माकन मालिक की बहन के साथ खूब सिनेमा देखती थी और बाद में सिनेमा देखना मेरा शौक बन गया I जन्मदिन के अवसर पर मम्मी के साथ सिनेमा देखना बाद में एक नियम सा बन गया I दिन में सिनेमा देखती थी और रात के खाना पर मम्मी के स्कूल के कुछ सहकर्मी आ जाते थे I और बस जन्मदिन ख़त्म !
एक जन्मदिन (1986) पर मुझे मेरी एक ज़िद अब तक याद है I हमारे पारिवारिक मित्र डॉ.पवन कुमार अग्रवाल जो भागलपुर मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर और सर्जन थे, मेरे पिता तुल्य थे, एक जन्मदिन पर उन्होंने एक कैसेट उपहारस्वरूप दिया I उन्होंने कहा कि जो भी गाना चाहिए रिकॉर्ड करवा देंगे I ''कितने पास कितने दूर'' फिल्म का एक गाना ''मेरे महबूब शायद आज कुछ नाराज़ हैं मुझसे'' मेरा बहुत प्रिय गाना था, लेकिन उनदिनों ये नहीं मालूम कि ये किस फिल्म का गाना है I कुछ गाना के साथ हीं ये गाना भी मैंने उनसे कहा कि रिकॉर्ड करवा दें I चूकि फिल्म का नाम मालूम नहीं था तो गाना ढूंढ़ पाना कठिन था, और मेरी ज़िद कि वो गाना चाहिए हीं चाहिए I मैं शुरू की जिद्दी I अपने पिता के बाद एक मात्र वही थे जिनसे मैं बहुत सारी ज़िद करती थी और वो पूरा भी करते थे, क्योंकि अपनी बेटी की तरह मानते भी थे मुझे I ख़ैर वो गाना कई दिन के मशक्कत के बाद उनको मिल पाया और मेरी ख़्वाहिश पूरी हुई I
अब भी सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक है. कई जन्मदिन ऐसा आया जब मेरे पति शहर से बाहर थे I बच्चों के स्कूल जाने के बाद मैं अकेली सिनेमा देखने चली जाती थी I अपने लिए अपने पसंद का उपहार ख़ुद खरीदना और ख़ुद को देना अब भी मुझे बहुत पसंद है I
बचपन में मुझे भी हर जन्मदिन में और बड़े होने का उत्साह होता था जैसे अब मेरे बच्चों को होता है I लेकिन अब... ज़िन्दगी का सफ़र जारी है जन्मदिन आता है चला जाता है I पार्टी होती है, कभी घर पर कभी बाहर I आज यहाँ भागलपुर में हूँ I रात की पार्टी की तैयारी चल रही है I संगीत की धुन सुनायी पड़ रही है I काफी सारे लोग आने वाले हैं I मेरी बेटी ख़ुशी ने सुबह से धमाल मचाया हुआ है I बेटा सिद्धांत दिल्ली में है, कॉलेज खुले हैं वो आ नहीं सकता I पति ने खूब सारी तैयारी कर रखी है I काफी सारे लोगों ने फ़ोन पर बधाई दिया I मेरे भाई भाभी जो इन दिनों हिन्दुस्तान से बाहर हैं का फ़ोन आया I मेरी माँ का फ़ोन आया, बोलते बोलते रोने लगी क्योंकि वो भागलपुर में नहीं है I इन सबके बावजूद न जाने क्यों मन भारी सा है I जानती हूँ पार्टी है हंसना चहकना है, यूँ पार्टी खूब एन्जॉय भी करती हूँ I लेकिन न जाने क्यों बचपन मेरा पीछा नहीं छोड़ता I क्यों बार बार मन वहीं भाग जाता है जहां की वापसी का रास्ता बंद हो जाता है I बचपन की खीर पूरी और भोज याद आ रहा है I अब तो जन्मदिन मनाना औपचारिकता सा लगता है I कुछ फ़ोन कुछ सन्देश बधाई के और जवाब शुक्रिया...
- जेन्नी शबनम (16. 11. 2011)
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भागलपुर के नयाबाजार में हमलोग किराए के जिस मकान में रहते थे वो एक ज़मींदार का बहुत बड़ा मकान है और यमुना कोठी के नाम से प्रसिद्द है I उस मकान की पूरी पहली मंज़िल हमलोगों ने किराए पर लिया था I खूब बड़ा बड़ा 4 छत, 6 कमरे, खूब बड़ा बरामदा I बरामदे में लोहे का पाया था जिसे पकड़कर गोल गोल घूमना मेरा हर दिन का खेल था I उस मकान के नीचे के हिस्से में अलग अलग कई किरायेदार थे I सभी से बहुत आत्मीय सम्बन्ध थे I मुझे अब भी याद है जब मैं दो साल की थी एक किरायेदार की शादी हुई I न जाने कैसे उस उम्र में हुई ये शादी मुझे अच्छी तरह याद है जबकि सभी कहते हैं कि इस उम्र की बातें याद नहीं रहती I जिनकी शादी हुई उनको मैं चाचा कहती थी और उनकी पत्नी मुझे इतनी अच्छी लगती थी कि मैं उनको मम्मी कहने लगी I जब थोड़ी और बड़ी हुई तब उन्हें चाची जी कहने लगी I सरोज चाचा से बड़े वाले भाई को ताऊ जी और उनकी बड़ी बहन को बुआ जी कहती थी I बचपन में मुझे समझ हीं नहीं था कि ये लोग मेरे सगे चाचा चाची या ताऊ बुआ नहीं हैं I स्कूल से घर आते हीं पहले उनके घर जाती थी फिर अपने घर I छुट्टी के दिनों में उनके साथ खूब खेलती थी I मिट्टी का छोटा चूल्हा, खाना बनाने के छोटे छोटे बर्तन, छोटा छोटा छोलनी कलछुल, चकला बेलना तावा चिमटा, छोटा सूप (चावल साफ़ करने के लिए), बाल्टी आदि सभी कुछ मेरे पास था I उन दिनों कोयला और गोयठा (गाय भैंस के गोबर से बना उपला) चूल्हा में जला कर खाना बनाया जाता था I मेरे छोटे चूल्हे में बिंदु चाची ताव (चूल्हा जलाना) देती थीं I फिर छोटे छोटे पतीले में भात (चावल), दाल, तरकारी (सब्जी) या कभी खिचड़ी बनाती थी I बड़ा मज़े का दिन होता था वो I मेरे पिता रोज़ 12 बजे यूनिवर्सिटी जाते थे और मेरी माँ अक्सर कार्य से बाहर रहती थी और मैं बिंदु चाची के साथ खूब खेलती थी I सभी बच्चे उनसे खूब हिले मिले थे I
जन्मदिन के मौके पर अपने बचपन का बीता हुआ एक जन्मदिन अब भी याद है I ये तो याद नहीं कि उम्र क्या थी मेरी लेकिन लगभग 5-6 साल की रही हूँगी I जन्मदिन पर केक काटने का रिवाज़ नहीं था मेरे घर में और न हीं आज की तरह कोई पार्टी होती थी I चाहे मेरा जन्मदिन हो या मेरे भाई का घर में बहुत बड़ा भोज होता था जिसमें मेरे पिता के भागलपुर विश्वविद्द्यालय में कार्यरत सहकर्मी शिक्षक, कर्मचारी, विभागाध्यक्ष, पिता के मित्र और स्थानीय रिश्तेदार आमंत्रित होते थे I पुलाव, दाल, तरकारी (सब्जी) खीर, दल-पूरी (दाल भरी हुई पूरी) ज़रूर बनती थी I दो फीट चौड़ी खूब लम्बी लम्बी चटाई ज़मीन पर बिछाई जाती थी जिसे पटिया कहते हैं, उस पर पंक्तिबद्ध बैठ कर सभी लोग खाना खाते थे I उपहार लाने की सभी को मनाही होती थी लेकिन कुछ बहुत अपने लोग उपहार ले हीं आते थे I मुझे याद है ताऊ जी (किरायेदार) ने एक खिलौना दिया था जो गोल लोहे का था और तार बाँध कर उसपर उसे चलाते थे I जाने क्यों वो मुझे बड़ा प्रिय था I मेरे भाई के जन्मदिन पर किसी ने घर बनाने का प्लास्टिक का अलग अलग रंग और आकार का ईंट दिया था जिससे घर बनाना भी बड़ा अच्छा लगता था I और अक्सर मैं अपने भाई के साथ घर बनाने का खेल खेलती थी I
पिता के देहांत के बाद भी जन्मदिन मनता रहा लेकिन वो जश्न, धूमधाम और भोज का आयोजन बंद हो गया I मेरे हर जन्मदिन पर मेरी दादी मेरे पापा को याद कर रोती थी, क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद पैसे भी नहीं थे और पापा के समय के सभी अपने भी बेगाने हो गए थे I दादी कहती थी ''बऊआ रहते तो कितना धूमधाम से जन्मदिन मनाते'', मेरी दादी मेरे पापा को बऊआ हीं कहती थी I स्कूल और कॉलेज के दिनों में मेरी किसी से बहुत मित्रता नहीं थी, अतः जन्मदिन पर कोई मेहमान नहीं आते थे I स्कूल के दिनों में बहुत ख़ास कोई सिनेमा दिखाने पापा ले जाते थे I जब कॉलेज गई तो हमारे माकन मालिक की बहन के साथ खूब सिनेमा देखती थी और बाद में सिनेमा देखना मेरा शौक बन गया I जन्मदिन के अवसर पर मम्मी के साथ सिनेमा देखना बाद में एक नियम सा बन गया I दिन में सिनेमा देखती थी और रात के खाना पर मम्मी के स्कूल के कुछ सहकर्मी आ जाते थे I और बस जन्मदिन ख़त्म !
एक जन्मदिन (1986) पर मुझे मेरी एक ज़िद अब तक याद है I हमारे पारिवारिक मित्र डॉ.पवन कुमार अग्रवाल जो भागलपुर मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर और सर्जन थे, मेरे पिता तुल्य थे, एक जन्मदिन पर उन्होंने एक कैसेट उपहारस्वरूप दिया I उन्होंने कहा कि जो भी गाना चाहिए रिकॉर्ड करवा देंगे I ''कितने पास कितने दूर'' फिल्म का एक गाना ''मेरे महबूब शायद आज कुछ नाराज़ हैं मुझसे'' मेरा बहुत प्रिय गाना था, लेकिन उनदिनों ये नहीं मालूम कि ये किस फिल्म का गाना है I कुछ गाना के साथ हीं ये गाना भी मैंने उनसे कहा कि रिकॉर्ड करवा दें I चूकि फिल्म का नाम मालूम नहीं था तो गाना ढूंढ़ पाना कठिन था, और मेरी ज़िद कि वो गाना चाहिए हीं चाहिए I मैं शुरू की जिद्दी I अपने पिता के बाद एक मात्र वही थे जिनसे मैं बहुत सारी ज़िद करती थी और वो पूरा भी करते थे, क्योंकि अपनी बेटी की तरह मानते भी थे मुझे I ख़ैर वो गाना कई दिन के मशक्कत के बाद उनको मिल पाया और मेरी ख़्वाहिश पूरी हुई I
अब भी सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक है. कई जन्मदिन ऐसा आया जब मेरे पति शहर से बाहर थे I बच्चों के स्कूल जाने के बाद मैं अकेली सिनेमा देखने चली जाती थी I अपने लिए अपने पसंद का उपहार ख़ुद खरीदना और ख़ुद को देना अब भी मुझे बहुत पसंद है I
बचपन में मुझे भी हर जन्मदिन में और बड़े होने का उत्साह होता था जैसे अब मेरे बच्चों को होता है I लेकिन अब... ज़िन्दगी का सफ़र जारी है जन्मदिन आता है चला जाता है I पार्टी होती है, कभी घर पर कभी बाहर I आज यहाँ भागलपुर में हूँ I रात की पार्टी की तैयारी चल रही है I संगीत की धुन सुनायी पड़ रही है I काफी सारे लोग आने वाले हैं I मेरी बेटी ख़ुशी ने सुबह से धमाल मचाया हुआ है I बेटा सिद्धांत दिल्ली में है, कॉलेज खुले हैं वो आ नहीं सकता I पति ने खूब सारी तैयारी कर रखी है I काफी सारे लोगों ने फ़ोन पर बधाई दिया I मेरे भाई भाभी जो इन दिनों हिन्दुस्तान से बाहर हैं का फ़ोन आया I मेरी माँ का फ़ोन आया, बोलते बोलते रोने लगी क्योंकि वो भागलपुर में नहीं है I इन सबके बावजूद न जाने क्यों मन भारी सा है I जानती हूँ पार्टी है हंसना चहकना है, यूँ पार्टी खूब एन्जॉय भी करती हूँ I लेकिन न जाने क्यों बचपन मेरा पीछा नहीं छोड़ता I क्यों बार बार मन वहीं भाग जाता है जहां की वापसी का रास्ता बंद हो जाता है I बचपन की खीर पूरी और भोज याद आ रहा है I अब तो जन्मदिन मनाना औपचारिकता सा लगता है I कुछ फ़ोन कुछ सन्देश बधाई के और जवाब शुक्रिया...
- जेन्नी शबनम (16. 11. 2011)
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21 comments:
जनम दिन के असीस दे तानी. आज हमार मन करता के हम जेन्नी के जीनी बुलाईं.
तs जीनी जी ! हर अस्थिती मंs परसन्न रहीं,सबके प्रिय पात्र बनीं आ जिनगी के आनंदमय बना दीं. ब्राह्मण के इहे तोहफा स्वीकार करीं जा.
बचपन का दिन जइसन दिन जिनगी मंs फेर ना आवेला. उमर बढे के संगे संग फूल जइसन कुम्हला जाला .........फूल नियन कोमलता के जगह फल आ बीज के आधिपत्य हो जाला. अल्हड़ कोमलता से गंभीरता के कठोरता के तरफ जिनगी के रुख हो जाला.... इहे जिनगी के सार हे.
पहिला स्टेंज़ा पढ़लीं तs लागल के कविता पढ़तानी .....बालपन के स्मृति के भूमिका आकर्षक बा.
बाकी हमार हिस्सा के दल्पूरी आ खीर बचा के रखिहs .............भागलपुर आइब तs खाइब ज़रूर, छोड़ब ना ....
'कल सुनना मुझे' में आपके रचे बचपन के बहुरंगी चित्र देखकर मन बहुत दूर पीछे चला गया। आपने गद्य भी कविता जैसा ही लिखा है । बस पढ़ते जाओ और साथ-साथ अपने जीवन को भी खँगालते जाओ । हम जो छोड़ आए हैं वह सचमुच बहुत कीमती था, खूबसूरत था । पुन: हार्दिक शुभकामनाएँ !!
RAAT KEE PARTY MEIN APNE PARIWAR
SMET MAIN BHEE SHIRQAT KARNE AAOONGA . NAHIN AA SAKAA TO KRIPYA
YE GEET BHAJWAA DIJIYE - TUM JIYO
HAZAARON SAAL .
सब कुछ छूट गया पर फिर भी कुछ धुँधला सा याद आता है और ये धुँधलका आज के व्यस्त माहौल में एक झीनी सी चादर सा फैल जाता है...सचमुच जब बचपन बीत रहा होता है तब हम जान ही नहीं पाते कि यह छूट रहा है और एक बार अचानक लगता है कि जैसे हमारा कोई बहुत अपना बड़ा सा हिस्सा कहीं हमसे छूट गया है जो कभी वापस नहीं आ सकता...कसक और अधिक गहरी होती है जब हम उस आँगन, चौके, कमरे, चबूतरे, अम्मा, धूल-मिट्टी और उससे जुड़ी यादों को खोजते हैं और उससे अपने बिताये हुए बचपन को छूना चाहते हैं लेकिन ढूँढने पर पता चलता है कि वे सारी गलियाँ चौराहे विकास की राह चढ़ गए...आँगन के जिस कोने में बैठ कर कभी हम स्कूल की परीक्षा की बेमन से तैयारी किया करते थे या अमरूद के जिस पेड़ पर चढ़ कभी दुनिया फ़तह करने की प्लानिंग किया करते थे वे सब सीमेंट, कंक्रीट और बलुआई विकास के आगे ख़त्म हो गए....
सुंदर संस्मरण!
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं...!
लेकिन न जाने क्यों बचपन मेरा पीछा नहीं छोड़ता. क्यों बार बार मन वहीं भाग जाता है जहां की वापसी का रास्ता बंद हो जाता है..........सच कहा आपने ये मन हमें वहीं ले जाता है जहां जाना मुमकिन नही. आपका आलेख पढकर मेरा मन भी बचपन की यादों मे खो गया.
जेन्नी जी, इस ब्लॉग का लिंक देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आपका.
आपकी भावपूर्ण ,रोचक धाराप्रवाह प्रस्तुति
मन को छूती है.आपके मार्मिक संस्मरण
पढकर बहुत ही अच्छा लगा.मन के समंदर
में अनगिनित याद और भाव संगृहीत हैं.जिन
भावों और यादों पर आप बार बार ध्यान दें
तो वे ही साकार से हो उठते हैं.आपने मेरी
पोस्ट 'ऐसी वाणी बोलिए'पढ़ी और उस पर
जो मेरा उत्साह बढ़ाने वाली सुन्दर टिपण्णी
की उसके लिए बहुत बहुत आभार आपका.
समय मिले तो मेरी पोस्ट 'मन ही मुक्ति
का द्वार है'भी पढियेगा. मुझे आशा है कि
वह भी आपको अवश्य पसंद आएगी.यह पोस्ट
मैंने फरवरी,२०११ में लिखी थी.मेरे ब्लॉग पर जब आप फरवरी की पोस्ट क्लिक करेंगीं तो यह निकल आएगी.मुझे अभी पोस्ट का लिंक देना नही आता है.सीख कर लिंक देने की भी कोशिश करूँगा.
बड़ा आत्मीय लगा ई संस्मरण। दाल-पूरी, भात, दाल, तरकारी और सूप ... अहा! मन कर रहा है घर भाग कर पहुंच जाऊं।
जन्म दिन की बधाई और शुभ कामनाएं। देर से ही सही।
दल-पूरी हमको भी बहुते बढ़िया लगता है, साथ में खीर हो तो मज़ा चार गुना बढ़ जाता है।
जन्म दिवस पर आपको बहुत बहुत हार्दिक
शुभकामनाएँ.
दिल से दुआ और कामना करता हूँ कि आप सदा प्रसन्न रहें और अपने सुन्दर सार्थक लेखन से ब्लॉग जगत को सदा ही जगमगाती रहें.
जेन्नी जी बचपन की यादें तो कभी पीछा नहीं छोड़तीं ..पर खुश रहने का कारण आपने स्वं ही दे दिया है
"अपने लिए अपने पसंद का उपहार ख़ुद खरीदना और ख़ुद को देना अब भी मुझे बहुत पसंद है"
अब बताइए इससे अच्छा और क्या होगा :) तो बताइए जरा इस बार क्या गिफ्ट लिया खुद के लिए :).
आप कितनी भाग्यशाली हैं इतना प्यार करने वाले पति और बच्चे हैं आपके पास. खुशियाँ बांटने से खुशियाँ दूनी हो जाती हैं न .
आपको जन्म दिन की ढेरों बधाइयां
कभी भागलपुर आना हुआ तो आपके साथ फिल्म देखने जरुर जायेंगे :)
एन्जॉय एंड बी हैप्पी ....
yaad naa jaye biite dino kii ...?jake na aaye jo din dil kyun bulaye
vo din bahut hasiin the ..yakinan kuch khali pan sa lagta hai aaj bhi
अब भी सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक है
ye शौक to hamara bhi nahi gaya abhi tak
...
कौशलेन्द्र said...
जनम दिन के असीस दे तानी. आज हमार मन करता के हम जेन्नी के जीनी बुलाईं.
तs जीनी जी ! हर अस्थिती मंs परसन्न रहीं,सबके प्रिय पात्र बनीं आ जिनगी के आनंदमय बना दीं. ब्राह्मण के इहे तोहफा स्वीकार करीं जा.
बचपन का दिन जइसन दिन जिनगी मंs फेर ना आवेला. उमर बढे के संगे संग फूल जइसन कुम्हला जाला .........फूल नियन कोमलता के जगह फल आ बीज के आधिपत्य हो जाला. अल्हड़ कोमलता से गंभीरता के कठोरता के तरफ जिनगी के रुख हो जाला.... इहे जिनगी के सार हे.
पहिला स्टेंज़ा पढ़लीं तs लागल के कविता पढ़तानी .....बालपन के स्मृति के भूमिका आकर्षक बा.
बाकी हमार हिस्सा के दल्पूरी आ खीर बचा के रखिहs .............भागलपुर आइब तs खाइब ज़रूर, छोड़ब ना ....
November 16, 2011 8:33 PM
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कौसलेंदर जी,
राउर असीस के हम स्वीकार करस तानी. हमर नाम जीनी भी हमरा बहुत बढिया लागल. राउर सन्देश आ जिनगी के सार वास्ते बहुत धन्यावद. जिनगी दोबारा न मिली ई बात हमेसा याद रहs ले आ सबके याद रखे के चाहि, एह से सबके जेतना होए खुस रहे के चाहि, और हमहू खुस रहिले. फूल फल आ बीज बनल त जिनगी के नियम बा, तइयो एक पड़ाव से दोसरा पड़ाव पर जाए में तब जब जिनगी कोमलता से कठोरता में जाए त मन तनी रंज होइए जाला. बीतल जिनगी कहियो कहियो बहुत याद आबs ले, तब अउर जब वैसन कौनो दिन आबs ले. जब मन अउर सुविधा होए तब भागलपुर जरूर आएब, खीर-दलपूरी तैयार मिली. राउर स्नेह अउर आसीस के लिए हिरदय से आभार...
काम्बोज भाई,
बीता वक़्त यूँ हीं याद आ जाता है जब कोई ख़ास वक़्त हो या उस जैसा हीं कोई ख़ास अवसर हो. बचपन का दिन यूँ तो सुहावना होता है पर तब नहीं लगता क्योंकि जीवन एक गति से चलता रहता है. काफी दिनों बाद अचानक जब लगता है कि ज़िन्दगी में मुश्किलें बढ़ गयी तो लगता है कि बचपन का वो समय क्या था. ये सबकी ज़िन्दगी में होता है. आपका स्नेह और आशीष यूँ हीं मिलता रहे, धन्यवाद.
प्राण साहब,
मेरे जन्मदिन की पार्टी में तो आप आये नहीं, अतः ये गाना सभी ने गया...''तुम जियो हज़ारो साल साल के दिन हो...''. अगले साल की पार्टी में ज़रूर आइयेगा. शुभकामना के लिए ह्रदय से शुक्रिया.
प्रज्ञा जी,
जाने ज़िन्दगी का ये शाश्वत नियम क्यों है कि बीता वक़्त दोबारा नहीं आता. शायद शाश्वत तभी है. फिर भी जी चाहता है एक बार फिर से वो सभी वक़्त दोबारा जीये जो खुशनुमा थे. सामान्य गति से चलती ज़िन्दगी में जब उम्र ढलती है तब अचानक एक झटका लगता है कि अरे अब सब ख़त्म हो रहा, क्या क्या छुट रहा, क्या क्या बाकी रह गया, कितना कुछ था जो हम कर न पाए. उसके पहले तो बड़ा होना कितना अच्छा लगता था. ये सभी दशाएं ऐसी है जो सभी कि ज़िन्दगी में आती है. पीछे छुटा सब कुछ कसक देता है, पर वक़्त को कौन रोक पाया है बीतना है बीत हीं जाता है. घर, आँगन, गली, चौक, स्कूल, बगीचा, वो सब कुछ जो बीते जीवन से जुड़ा था, मन में बस याद बन कर रह जाता है. यही ज़िन्दगी है...
अनुपमा जी,
जन्मदिन पर शुभकामना देने केलिए दिल से आभार!
सुनीता,
मेरे ब्लॉग पर आने और प्रतिक्रिया देने के लिए शुक्रिया.
राकेश जी,
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए ह्रदय से धन्यवाद.
मनोज जी,
ये सभी खान पान बिहार का है, और मैं हूँ पक्की बिहारिन, तो ये सब खाना हमेशा पसंद आता है. और अब भी जब बच्चों का जन्मदिन हो तो घर में यही बनता है. मेरे संस्मरण से आपका मन भी खीर पूरी खाने का हुआ ये ख़ुशी ही बात है. शुभकामना देने के लिए आभार.
शिखा जी,
अपने लिए ख़ुद गिफ्ट खरीदना और ख़ुद को देना बड़ा अच्छा लगता है. छोटी सी चीज़ भी महीनों ये सोच कर नहीं लेती कि जन्मदिन में ख़ुद के लिए लुंगी. इस बार तो ख़ुद को मोबाइल दिया. भागलपुर में थी तो उस दिन सिनेमा नहीं जा सकी क्योंकि पतिदेव ने बड़ी पार्टी का आयोजन किया था तथा अनाथालय और पास के गाँव के लोगों का भोज भी था. भागलपुर का सिनेमा हॉल ऐसा है कि अकेले जा नहीं सकती. पर दूसरे दिन जाकर सिनेमा देखी. अब आदत है छूटेगी कहाँ. आप आइये तो पक्का सिनेमा देखेंगे वहाँ. शुभकामना देने केलिए शुक्रिया.
निर्झर नीर जी,
बचपन के दिन हो या बीते सुखद पल याद बहुत आते हैं क्योंकि वो वक़्त दोबारा जीने को मन करता है. या ये भी मुमकिन है कि अगर दोबारा ऐसा वक़्त आता तो शायद ये सब इतना अच्छा न लगता. नियति और प्रकृति का नियम इसी लिए ऐसा है. सिनेमा देखने का शौक जब मेरा नहीं गया अब तक तो आपका इतनी जल्दी कैसे? अपना शौक पूरा करते रहें. मैं तो खूब देखती हूँ हॉल में सिनेमा. धन्यवाद.
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