विगत वर्ष 2020 के फरवरी माह में इस कोरोना विषाणु के संक्रमण से महामारी की चेतावनी आई थी; परन्तु इसकी भयावहता से हम लोग अनभिज्ञ थे, अतः लापरवाही हुई। कोरोना योद्धाओं का मनोबल बढ़ाने के लिए ताली-थाली-घंटी बजाने तथा दीप या मोमबत्ती जलाने का आह्वान हुआ। लोगों ने इसे भी काफ़ी मनोरंजक बनाया और पटाखे भी फोड़े; लेकिन कोरोना इतना भी कमज़ोर नहीं है। वह और ज़ोर से मृत्यु का तांडव करने लगा। किसके साथ क्या हो रहा है, इससे हम सभी अनभिज्ञ रहे और अपने-अपने घरों में सिमटकर रह गए। न जाने कब तक ऐसा चलता रहेगा। मन में ढेरों सवाल हैं, जिनका जवाब किसी के पास नहीं। हाँ, यह ख़ुशी की बात है कि इतनी जल्दी कोरोना का टीका आ गया और करोड़ों लोगों ने लगवा भी लिया; यद्यपि लोग लगातार संक्रमित हो रहे हैं। इस ख़बर के इन्तिज़ार में हम सभी हैं- जब यह सूचना आए कि हमारे जीवन से कोरोना सदा के लिए विदा हो गया और हम निर्भीक होकर अपने पुराने समय की तरह जी सकते हैं।
कोरोना काल में यों तो ढेरों समस्या, असुविधा, दुःख हमारे जीवन का हिस्सा बने, परन्तु इन प्रतिकूल और भयावह परिस्थितियों में भी हम खुशियाँ बटोरना सीख गए। कोरोना काल में अंतर्जाल ने पूरे समय हम सभी का साथ दिया और मन बहलाए रखा। ख़ूब सारे सृजन कार्य हुए, चाहे वह लेखन हो या अन्य माध्यम। फेसबुक लाइव, इंस्टाग्राम लाइव, यूट्यूब लाइव, ज़ूम मीटिंग इत्यादि होता रहा। ख़ूब सारी लाइव कवि-गोष्ठी हुई। मेरे एक मित्र ने प्रतिदिन इंस्टाग्राम पर लाइव कार्यक्रम किया, जिसमें देश के बड़े-बड़े हस्ताक्षर जिनमें लेखक, कवि, संगीतज्ञ, नर्तक, लो
कोरोना शुरू होने के बाद स्कूल-कॉलेज जो बंद हुए तो अब तक लगभग बंद हैं। यूँ ऑनलाइन पढ़ाई चल रही है। अब तो बिना परीक्षा दिए ही बोर्ड का रिजल्ट भी निकालना पड़ा। बच्चों के लिए यह सब बहुत सुखद है। सुबह-सुबह स्कूल जाने से छुट्टी मिली। मनचाहा खाना खाने को मिला। पढ़ने के लिए कोई पूर्व निर्धारित समय नहीं। बस मस्ती-ही-मस्ती। कुछ बच्चों ने खाना पकाना सीखा, किसी ने बागवानी, कोई चित्रकारी कर रहा है, तो कोई अपने किसी अधूरी चाहत को पूरी कर रहा है। घर के काम में बच्चे भी हिस्सा ले रहे हैं; क्योंकि बाहर से कार्य करने कोई नहीं आ सकता है। घर में सभी लोग आपस में गप्पे लड़ा रहे हैं या कोई खेल खेल रहे हैं। सभी साथ बैठकर सामयिक घटनाओं पर चर्चा, परिचर्चा और विचारों का आदान- प्रदान कर रहे हैं। अब बच्चे-बड़े सभी ने इस न्यू नार्मल को आत्मसात् कर जीवन को एक नई दिशा देकर जीने की कोशिश शुरु कर दी है।
कोरोना के इस गम्भीर और अतार्किक समय में उचित और सटीक क्या हो, यह कोई नहीं बता सकता है। अनुमान, आकलन, अफ़वाह, असत्य, असंवेदनशी
कोरोना के कारण लॉकडाउन होने से पर्यावरण पर बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। आसमान इतना साफ़ और सुन्दर हो गया है कि सहज ही नज़रें आसमान को ताकने लगती हैं। आम दिनों में प्रदूषण के कारण साँस लेना मुश्किल होता जा रहा है। पशुओं का विचरना, पक्षियों का कलरव सभी कुछ ओझल-सा होता जा रहा है। शहरीकरण के कारण पशु-पक्षी जो पालतू नहीं हैं, उनका जीवन ख़तरे में रहता है; क्योंकि उनके लिए कोई समुचित स्थान नहीं है, जहाँ वे रह सकें। कचरे में पड़े हानिकारक प्लास्टिक में बचा भोजन गाय-भैंस खाते हैं, और वही दूध घरों में इस्तेमाल होता है। कोरोना में जानवरों के खाने का भी प्रबंध किया गया, जो अपने आप में बहुत उचित और सराहनीय क़दम है। पक्षी पेड़ों पर बेहिचक ऊधम मचाये हुए है, क्योंकि उन्हें मानव का डर जो नहीं रहा। पेड़-पौधे जो प्रकृति की धरोहर हैं, ख़ूब चहक रहे हैं; क्योंकि न तो उन्हें कोई काट रहा है न फूलों को तोड़ रहा है। बाग़-बगीचे अपनी हरियाली के साथ लहलहा रहे हैं। चारों तरफ़ इतनी सुन्दर और स्वच्छ हवा है कि मन खिल गया है, जब तक कोरोना का भय याद न रहे। जंगल, ज़मीन, आसमान, नदी, खेत, बा
सूरज-चाँद ख़ूब खिल रहे हैं। यूँ वे पहले भी दमकते रहे हैं, परन्तु अब साफ़ आसमान होने के कारण यों महसूस होता है, मानों वे बहुत नज़दीक हमारी मुट्ठी की पकड़ में आ गए हैं। हवा में ख़ूब ताज़गी है। बारिश में बहुत मस्ती है। नदियाँ इतनी साफ़ हो गईं हैं कि आसमान का नीलापन पानी में घुल गया सा प्रतीत हो रहा है। भोर में चिड़ियों की चहचहाहट, जो खोती चली जा रही थी, अब गूँजने लगी है। न बाहर गाड़ियों का शोर है, न आदमी की भीड़ में अफरा-तफरी। न भागमभाग है, न चिल्ल-पों। बच्चे अब शिशु घर में नहीं जा रहे, अपने माता-पिता, भाई-बहन के साथ घर में हैं और घर के कामों को करना सीख रहे हैं। अपने-अपने स्तर पर सभी एक दूसरे की मदद कर रहे हैं और नया कुछ सीख रहे हैं। बुज़ुर्ग अब सोशल मीडिया का प्रयोग करने लगे हैं। अभी के इस कोरोना काल में एक तरफ़ जीवन आशंकाओं से त्रस्त है, तो दूसरी तरफ़ समय और जीवन के प्रति सोच का नज़रिया बदल गया है। जीवन को सकारात्मक होकर लोग देख रहे हैं। सच ही है, ''हर घड़ी बदल रही है रूप ज़िन्दगी, हर पल यहाँ जीभर जियो, जो है समाँ कल हो न हो।''
एक मज़ेदार बात यह है कि लॉकडाउन खुलने के बाद लोग बाहर किसी बहुत परिचित को देखकर भी नहीं पहचान पाते हैं; क्योंकि मास्क है। अब आज का न्यू नार्मल यही है कि हम अपनी और दूसरों की सुरक्षा के लिए मास्क पहने रहें। मास्क की उपलब्धता के लिए इसका व्यवसाय बहुत तेज़ी से फ़ैल रहा है। एक-से-एक ख़ूबसूरत मास्क, रंग बिरंगे मास्क, परिधान से मैचिंग मास्क, चित्रकारी और फूलकारी किये हुए मास्क, रबड़ व फीते वाले मास्क, अलग-अलग आकार और आकृति वाले मास्क। आजकल परिधान से ज़्यादा नज़र मास्क पर ही है। बच्चे भी बिना ना-नुकुर किये मास्क पहन रहे हैं। बहुत से लोग सुरक्षा के ख़याल से मास्क के ऊपर से फेस शील्ड भी लगाते हैं। शुरू में तो यह सब बड़ा अटपटा लग रहा था; परन्तु अब इसकी आदत हो गई है, देखने की भी और लगाने की भी। परन्तु मास्क के अन्दर होंठों पर हँसी टिकी रहनी चाहिए। हमें ख़ुश रहना है कि हम ज़िन्दा हैं।
हवाई यात्रा में बीच की सीट पर जिन्हें सीट मिलती है उन्हें मास्क, फेस शील्ड के अलावे पी.पी.इ. किट पहनना होता है। यों लगता है जैसे अंतरिक्ष की उड़ान के लिए वे तैयार हुए हैं। लेकिन हवाई-यात्रा में जब भोजन का समय होता है, तो मास्क और फेस शील्ड हटाकर भोजन करते हैं और फिर वापस पहन लिए जातें हैं। मैं सोचती हूँ कि जितनी देर यात्री भोजन करते हैं, क्या कोरोना बैठकर सोचता होगा कि भोजन करते समय संक्रमण नहीं फैलाना चाहिए, इसलिए वह रुक जाता होगा! अन्यथा कोरोना को आने में देर ही कितनी लगती है और दो गज़ की दूरी पर तो कोई भी नहीं रहता है।
एक बात जो मुझे शुरू से अचम्भित कर रही है कि कोरोना की पहली लहर में ग्रामीण क्षेत्र इससे प्रभावित नहीं हुआ। मुमकिन है उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक हो। इस बात पर सभी को विचार करना चाहिए कि पहली लहर में आख़िर इस संक्रमण से गाँव अछूता क्यों रहा? नगर और महानगर इससे ज़्यादा प्रभावित हुए। आश्चर्यजनक यह भी है कि एक ही घर में किसी को कोरोना हुआ, किसी को नहीं। अब यह कोरोना ऐसा क्यों कर रहा, यह भी सोचने का विषय है। सारे तर्क फेल हो रहे हैं। बस जो हो रहा है, उसे देखते जाना है, समय के साथ तालमेल बिठाकर चलना है। आँख बंद कर लेने से न समस्या दूर होती है, न मुट्ठी बंद कर लेने से समय हमारी पकड़ में ठहरा रहता है; इसलिए जितना ज़्यादा हो जीवन में संतुलन बनाकर जीभरकर जीना चाहिए। हमें जीवन में सार्थक बदलाव लाकर जितना ज़्यादा हो सके प्रकृति के साथ जीना चाहिए।
कोरोना महामारी भले ही लाखों लोगों को लील रहा है; लेकिन बहुत बड़ी सीख भी दे रही है। जीवन क्षणभंगुर है, जितना हो सके समय का सदुपयोग करें और खुश रहें। सच तो यही है कि जीवन जीना भूल गए हैं। समय के हाथ की कठपुतली बन उसके इशारे पर बस जीते चले जा रहे हैं। न ख़ुशी, न उमंग, न नयापन। बने बनाए ढर्रे पर ज़िन्दगी घिसट रही है। किसी के पास इतना भी समय नहीं है कि ज़रा-सा रुककर किसी का हाल पूछ लें, किसी से बेमक़सद दो मीठे बोल बोल लें, बेवजह हँसे-नाचें-गाएँ, कुछ पल सुकून से प्रकृति के सानिध्य में चुपचाप बैठ जाएँ, प्रकृति की चित्रकारी को जीभरकर देखें, उससे बातें करें, पशु-पक्षी को अपनी तरह प्राणी समझकर उसे जीने दें। कोरोना महामारी ने हमें ज़रूरत और फ़िज़ूल, प्राकृतिक और अप्राकृतिक, बुनियादी ज़रूरत और विलासिता, स्वाभाविक और कृत्रिम जीवन शैली, अपना-पराया, प्रेम-द्वेष,
अगर कोरोना हो गया तो समुचित इलाज करवाएँ। अगर कोरोना से बचे हुए है,ं तो स्वयं में रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने का पूर्ण प्रयास करें। जीवन को जितना ज़्यादा हो सके प्रकृति के क़रीब लाएँ, शुद्ध शाकाहारी भोजन एवं नियमित जीवनशैली अपनाएँ, साथ ही मन में सकारात्मक भाव रखें। अभी के इस त्रासद वक़्त में हम ज़िन्दा हैं और दो वक़्त का खाना नसीब है, तो समझना चाहिए कि हम क़िस्मतवाले हैं। भविष्य में क्या होगा कोई नहीं जानता, पर जो समय हमारी मुट्ठी में है, उसे ख़ूब खुश होकर अपनों के साथ हँसते हुए बाँटें। एक गीत जो अक्सर मैं सुनती हूँ ''जो मिले उसमें काट लेंगे हम / थोड़ी खुशियाँ थोड़े आँसू, बाँट लेंगे हम।'' सचमुच वक़्त यही है जब हम दूसरों का दुःख बाँटें, खुशियाँ बाँटें, हँसी बाँटें, समय बाँटें, जीवन बाँटें।
प्रकृति का रहस्य तो सदा समझ से परे है, परन्तु कोरोना काल में समय ने 'समय की क़ीमत' सबको समझा दी है। समय का सदुपयोग कर दुनिया कैसे सुन्दर बनाया और रखा जाए इस पर चिन्तन, मनन और क्रियाशीलता आवश्यक है। हम ख़ुश रहें कि हम ज़िन्दा हैं; साँसों से नहीं आत्मा से ज़िन्दा हैं।
-जेन्नी शबनम (4.8.21)
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