Saturday, August 31, 2019

67. 100वाँ जन्मदिन मुबारक हो माझा

जन्मदिन मुबारक हो माझा! सौ साल की हो गई तुम, मेरी माझा। गर्म चाय की दो प्याली लिए हुए इमा अपनी माझा को जन्मदिन की बधाई दे रहे हैं माझा कुछ नहीं कहती, बस मुस्कुरा देती है इमा-माझा का प्यार शब्दों का मोहताज कभी रहा ही नहीं चाय धीरे-धीरे ठण्डी हो रही है माझा अपने कमरे में नज़्म लिख रही है और इमा अपने कमरे में रंगों से स्त्री का चित्र बना रहे हैं; स्त्री के चेहरे से सूरज का तेज पिघल रहा है। बहुत धीमी आवाज़ आती है- इमा-इमा इमा दौड़े आते हैं और पूछते हैं- तुमने चाय क्यों नहीं पी माझा? अच्छा अब उठो और चाय पीयो, देखो ठण्डी हो गई है तुम्हें रोज़ रात को चाय पीने की तलब होती है, मुझे मालूम है, तभी तो रोज़ रात को एक बजे तुम्हारे लिए चाय बना लाता हूँ इमा धीरे-धीरे दोनों प्याली पी जाते हैं, मानों एक प्याली माझा ने पी ली फिर माझा को प्यार से सुलाकर अपने कमरे में चले जाते हैं, रंगों की दुनिया में जीवन बिखेरने। 
हाँ! इमा वही इमरोज़ हैं जिनके प्रेम में पड़ी अमृता की नज़्मों को पढ़-पढ़कर एक पीढ़ी बूढ़ी होने को आई है माझा वह नाम है जिसे बड़े प्यार से उन्होंने अमृता को दिया है अमृता-इमरोज़ ने समाज के नियम व क़ायदे के ख़िलाफ़ जाकर सुकून की दुनिया बसाई। वे एक मकान में आजीवन साथ रहे, लेकिन कभी एक कमरे में न रहे। दोनों अपने-अपने काम मे मशगूल, कभी किसी की राह में अड़चन पैदा न की आपसी समझदारी की मिसाल रही यह जोड़ी; हालाँकि प्यार में समझदारी की बात लोग नहीं मानते हैंदोनों ने कभी प्यार का इज़हार न किया, लेकिन दोनों एक दूसरे के प्यार में इतने डूबे रहे कि कभी एक दूसरे को अलग माना ही नहीं अब भी इमरोज़ के लिया अमृता जीवित हैं और कमरे में बैठी नज़्में लिखती हैं अब भी वे रोज़ दो कप चाय बनाते हैं और अमृता के लिए रखते हैं चाय के प्यालों में आज भी मचलता है अमृता-इमरोज़ का प्यार।   
इमरोज़ अमृता से शिकायत करते हैं- ''अब तुम अपना ध्यान नहीं रखती हो माझा मैं तो हूँ नहीं वहाँ, जो तुम्हारा ख़याल रखूँगा'' माझा मुस्कुरा देती है, कहती है- एक आख़िरी नज़्म सुन लो इमा, मेरी आख़िरी नज़्म जो सिर्फ़ तुम्हारे लिए-   

मैं तुम्हें फिर मिलूँगी 
कहाँ कैसे पता नहीं  
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे कैनवस पर उतरूँगी
या तेरे कैनवस पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बनकर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठकर
तेरे कैनवस पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी...   

बीच में ही टोक देते हैं इमरोज़ आह! मैं जानता हूँ मेरी माझा, तुम अपनी नज़्मों में मुझे जीवित रखोगी और मैं अपने जीवन के पल-पल में तुम्हें सँभाले रखूँगा तुम गई ही कहाँ हो; जो मुझसे मिलोगी तुम मेरे साथ हो हाँ, अब हौज़ ख़ास का वह मकान न रहा जहाँ हमारी सभी निशानियाँ थीं, वक़्त ने वह छीन लिया मुझसे तुम भी तो नहीं थी उस वक़्त, जो ऐसा होने से रोकती पर यह मकान भी अच्छा है तुम्हारे पसन्द का सफ़ेद रंग यहाँ भी है परदे का रंग देखो, कैसे बदलता है, जैसा तुम्हारा मन चाहे उस रंग में परदे का रंग बदल दो इस मकान में मैं तुम्हें ले आया हूँ और अपनी हर निशानी को भी अपने दिल में बसा लिया हूँ जानता हूँ तुम्हारी परवाह किसी को नहीं, अन्यथा आज हम अपने उसी घर में रहते, जिसे हमने प्यार से सजाया था हर एक कोने में सिर्फ़ तुम थी माझा, फिर भी किसी ने मेरा दर्द नहीं समझा हमारा घर हमसे छिन गया माझा अब तो ग्रेटर कैलाश के घर में भी कम ही रहता हूँ, जहाँ बच्चे कहें, वहाँ ही रहता हूँ पर तुम तो मेरे साथ हो मेरी माझा अमृता हँसते हुए कहती है- इमा, मेरे पूरी नज़्म पढ़ लेना 
मैं और इमरोज़ जी
बहुत अफ़सोस होता है, इतनी कोशिशों के बाद भी अमृता-इमरोज़ के प्रेम की निशानी का वह घर बच न सका हर एक ईंट के गिराए जाने के साथ-साथ टुकड़े-टुकड़े होकर अमृता-इमरोज़ का दिल भी टूटा होगा किसी ने परवाह न की काश! आज वह घर होता तो वहाँ अमृता का 100वाँ जन्मदिन मनाने वालों की भीड़ होती छत पर पक्षियों की टोली जिसे हर दिन शाम को इमरोज़ दाना-पानी देते हैं, की चहकन होती और अमृता के लिए मीठी धुन में जन्मदिन का गीत गाती घंटी बजने पर सफ़ेद कुर्ता-पायजामा में इमरोज़ आते और मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोलते और गले लगकर हालचाल लेते फिर ख़ुद चाय बनाते और हमें पिलाते अमृता की ढेर सारी बातें करते अमृता का कमरा जहाँ वह अब भी नज़्में लिखती हैं, दिखाते इमरोज़ को घड़ी पसन्द नहीं, इसलिए वक़्त को वे अपने हिसाब से देखते हैं हाँ, वक़्त ने नाइंसाफी की और अमृता को ले गया काश! आज अमृता होतीं तो उनकी 100वीं वर्षगाँठ पर इमरोज़ की लिखी नज़्म अमृता से सुनती बहुत-बहुत मुबारक हो जन्मदिन अमृता-इमरोज़!  
मैं और इमरोज़ जी
- जेन्नी शबनम (31.8.2019)
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14 comments:

Digvijay Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 31 अगस्त 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (01-09-2019) को " जी डी पी और पी पी पी में कितने पी बस गिने " (चर्चा अंक- 3445) पर भी होगी।


चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी

Udan Tashtari said...

१०० वें जन्म दिन पर खूबसूरती से याद किया आपने अमृता प्रीतम को..

नूपुरं noopuram said...

वाह ! और पढ़ने का मन हो गया ।

Sanjay Grover said...

आप निरंतर लिख रहीं हैं। अच्छा लगता है।
अमृता-इमरोज़ जैैसे विद्रोही लोगों के बारे में जानना भी हमेशा ही अच्छा लगता है।

रेखा श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर शब्दों में उकेरा है । कल से चर्चे चल रहे है , अमृता-इमरोज के रिश्ते पर आक्षेप चल रहे हैं मानो लोगों को अपनी जिंदगी से ज्यादा उनकी जिंदगी में झाँकने की फुर्सत हो ।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

बहुत ख़ूबसूरतीं से रखी हो अपनी बात 💐👍

Jyoti khare said...

स्मृतियों को बहुत खूबसूरत अंदाज़ में व्यक्त किया गया है
नमन

Sudershan Ratnakar said...

इतना सजीव वर्णन की अमृता-इमरोज आँखों के सामने घूमते रहे।परम्पराओं को तोड़ कर प्यार करने वाली इस अनोखी जोड़ी को लोग सदियों तक याद रखेंगे।बहुत अच्छा लिखा आपने।

जयकृष्ण राय तुषार said...

एक ही साँस में पढ़ गया |आभार एक बेहतरीन पोस्ट के लिए

संजय भास्‍कर said...

बहुत सुंदर प्रस्तुति
मन को छू गया आपका लेख

rameshwar kamboj said...

हृदयस्पर्शी रचना।

Saras said...

वाह ...बहुत ही खूबसूरत एहसास...!
सच यह आपके शब्दों का जादू है है, कि हर शब्द में उनकी साँस मौजूद थी, हर एहसास में उनकी रूह वाबसता ...!

प्रियंका गुप्ता said...

अमृता और इमरोज़...मानो किसी परीकथा के दो पात्र...| यकीन नहीं होता कभी कभी कि इस दुनिया में कोई किसी को ऐसे भी प्यार कर सकता है...|
बहुत प्यारी पोस्ट...|