3x6 के बिस्तर पर लेटी धीमी गति से चलते पंखे को देख निशा सोच रही है कि ऐसे ही चक्कर काटती रही वह तमाम उम्र, कभी बच्चों के पीछे कभी ज़िम्मेदारियों के पीछे। पर अब क्या करे? इस उम्र में कहाँ जाए? सारी डिग्रियाँ धरी रह गईं। वह कुछ न कर सकी। अब कौन देगा नौकरी? रोज़ अख़बार में विज्ञापन देखती है, पर इस उम्र की स्त्री के लिए तो सारे रास्ते बंद हो चुके हैं।
यों घर में कोई कमी नहीं, परन्तु अपना भी तो कुछ नहीं है निशा का। निर्भरता का चुनाव उसने ख़ुद ही तो किया था। बच्चे या नौकरी? और हर बार वह बच्चों को ही अहमियत देती आई थी। प्रेमल ने कभी कहा नहीं कि वह नौकरी न करे, परन्तु कभी सहयोग भी तो न दिया। चाहे बच्चों के स्कूल जाना हो या बच्चों की बीमारी। घर में एक बल्ब बदलना हो चाहे घर के लिए कोई ख़रीददारी। एक-एककर सारी जवाबदेही निशा ने अपने हिस्से में ले ली और पहन ली चुप रहने की कोई तावीज़। हमेशा चहकने वाली निशा अब चुप रहती है। धीरे-धीरे उसका अवसाद बढ़ता गया और अवसाद से उबरने के लिए नींद की गोलियों की ख़ुराक भी बढ़ती गई।
न जाने प्रेमल कभी ख़ुश क्यों नहीं होता? क्या चाहता है वह? वह हर रोज़ निशा को ताने देता है कि वह हर क्षेत्र में असफल है, संस्कारहीनता के कारण न घर ठीक से सँभाल सकी, न बच्चों को संस्कार दिया, और न ही कभी उसके मनोकूल बन पाई है। वह हमेशा कहता है कि अधूरे परिवार की लड़की से कभी विवाह नहीं करनी चाहिए। ऐसी लड़की परिवार की अहमियत नहीं समझती है। पर निशा क्या करे? जानता तो था प्रेमल कि निशा के पापा बचपन में ही गुज़र चुके हैं।
निशा समझ ही नहीं पाती कि घर और बच्चों को सँवारने में उससे कहाँ कमी रह गई? बच्चे अपने पसन्द का जीवन चाहते हैं। बच्चों को पिता का आज्ञाकारी नहीं बना पाई। बच्चे अपनी-अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त हैं, उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उनकी माँ की मनोदशा क्या है; जिसने अपनी पूरी ज़िन्दगी उनपर ख़र्च कर दी। घर, समाज, ज़िन्दगी सभी में निशा असफल हो गई है। वह धीरे-धीरे ख़ुद को ज़िम्मेदार मानने लगी है और अपराधबोध से घिर गई है। 7x9 के कमरे में 3x6 का बिस्तर एकमात्र निशा का घर है, जहाँ वह अपने साथ अकेली ज़िन्दगी जीती है। कभी वह सपने सजाती है, तो कभी पलायन के रास्ते ढूँढती है।
कहीं कोई उपाय नहीं दिखता। क्या करे? जिस मकान को घर बनाने में निशा ने अपने जीवन की परवाह न की, वह घर उसका अपना कभी था ही नहीं। न जाने कितनी बार बेदख़ल की गई, पर हर बार बेशर्मी से वह वहीं टिकी रहती है। चुप की तावीज़ अब भी निशा ने पहन रखी है। किससे कहे अपनी बात? अब कहाँ जाए इस उम्र में?
एक ही राह बची है जिससे मुक्ति सम्भव है, यह पंखा। हाँ-हाँ! यही उत्तम है। यों भी उसके होने न होने से किसे फ़र्क़ पड़ने वाला है। पर? ओह! बच्चों को लोग ताना देंगे कि उनकी माँ ने ख़ुदकुशी कर ली, जाने क्या कारण था, कहीं चरित्रहीन... शायद इसीलिए पति अक्सर उसे घर से निकालने की धमकी देता था। जिन बच्चों के लिए जीती आई, उनके लिए अपमानों का अम्बार कैसे छोड़ सकती है। नहीं! नहीं! यह ग़लत होगा! कर्त्तव्यों से बँधी वह आज फिर नींद की गोलियों की ज़्यादा ख़ुराक लेकर सो गई। कल सुबह का स्वागत मुस्कुराते हुए जो करना है।
- जेन्नी शबनम (8.3.2019)
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37 comments:
एक औरत की जिम्मेदारी और सहनशीलता की पराकाष्टा ...
बहूत दिनो बाद आज मेल खोली ...आपकी पोस्ट सामने आ गयी ..
ब्लॉग पर आना नहीं चाह रहा था ..लेकिन रोक नहीं पाया ...
महिलाओं के एकाकीपन और आर्थिक निर्भरता का मार्मिक पर संतुलित चित्रण....
कड़वी सच्चाई बयाँ करती कहानी।
जिन बच्चों के लिए जीती आई उनके लिए अपमानों का अम्बार कैसे छोड़ सकती है। नहीं-नहीं ....जबरदस्त लेखन!! वाह!! जिओ
वाह जेनी शबनम जी, कमाल का जादू है आपकी लेखनी में एक सांस में सारी लघुकथा पढ़ गया। इसे लम्बी कहानी की शक्ल भी दे सकती हैं आप। लम्बी कहानियाँ लेखक को अलग पहचान और व्यापक फ़लक देती है। वैसे इसमें एक गृहणी की पूरी व्यथा और अनुभव है। बधाई।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-03-2019) को "पैसेंजर रेल गाड़ी" (चर्चा अंक-3269) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Very well written and depicted
बहुत संवेदनशील मुद्दे पर लेख अच्छा लगा।
अच्छी लघुकथा है ! कई बरस पहले लिखी और संडे मेल में छपी मुझे अपनी लघुकथा 'मरना-जीना' याद हो आई !-सुभाष नीरव
मार्मिक। मेरा भी हमेशा से मानना रहा है कि स्त्रियों को आर्थिक रूप से हमेशा ही आत्मनिर्भर होना चाहिए। यह बहुत जरूरी है। कब कैसा वक्त आ जाये कोई नहीं जानता। कौन कब बदल जाये, कोई नहीं जानता। ज्यादातर रिश्तों में स्त्रियाँ शोषण यही सोचकर सहती रहती हैं कि यहाँ का त्याग कर वो आखिर आगे कहाँ जाएँगी। वो अपना सब कुछ होम कर देती हैं और अंत में अपना कुछ कहने के लिए उनके पास नहीं बचता है। कईयों स्त्रियों के जीवन और उनके मन के अंदर रोज चलते द्वंद को दर्शाती लघु कथा। आभार।
स्त्री जीवन की विडंबनाओं को खूबसूरती से साझा किया है आपने।
जेनी जी ,
आपका ब्लाग पढ़ा और आपकी कहानी पढकर तो बस उसमें खो सा गया | बहुत ही हृदय स्पर्शी है आपकी कलम | आपकी छोटे-छोटे कालम बहुत ही मार्मिक और सत्य हैं कि इन्हें पढकर जीवन के कतु सत्य का अनुभव होता है | श्याम त्रिपाठी -हिन्दी चेतना कैनेडा
बहुत सुंदर पोस्ट। नारी शक्ति को प्रणाम करता हूँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
iwillrocknow.com
मार्मिक प्रस्तुति
आज भी हमारे आसपास बहुत सारी स्त्रियों की यही कहानी है...| अंत तक आते आते दिल बैठ गया कि कहीं बहुत सारी अवसादग्रस्त महिलाओं की तरह निशा भी ज़िन्दगी से पलायन का रास्ता न अख्तियार कर ले | पर आखिरकार अंत सुखद देख के अच्छा लगा |
एक ह्रदयस्पर्शी रचना के लिए बधाई...|
अधिक सहनशीलता सहज जीवन के लिये ,और सारे परिवार के लिये भी,खतरनाक हो सकती है.
आज के समय का कटु यथार्थ...दूसरों की खुशियों में अपनी ख़ुशी ढूँढते हम कितने अकेले रह जाते हैं...बहुत मर्मस्पर्शी कहानी...
Sajan awara said...
एक औरत की जिम्मेदारी और सहनशीलता की पराकाष्टा ...
बहूत दिनो बाद आज मेल खोली ...आपकी पोस्ट सामने आ गयी ..
ब्लॉग पर आना नहीं चाह रहा था ..लेकिन रोक नहीं पाया ...
March 9, 2019 at 12:06 AM Delete
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यह तो मेरे लिए प्रसन्नता की बात है कि न चाहते हुए भी आप न सिर्फ मेरे ब्लॉग पर आए बल्कि सुन्दर-सी प्रतिक्रया भी दिए. धन्यवाद आपका.
Blogger डॉ. जेन्नी शबनम said...
Blogger Unknown said...
महिलाओं के एकाकीपन और आर्थिक निर्भरता का मार्मिक पर संतुलित चित्रण....
March 9, 2019 at 8:41 AM Delete
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सराहनीय प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद.
Blogger सुशील कुमार जोशी said...
कड़वी सच्चाई बयाँ करती कहानी।
March 9, 2019 at 8:57 AM Delete
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सराहना के लिए दिल से शुक्रिया.
Blogger Udan Tashtari said...
जिन बच्चों के लिए जीती आई उनके लिए अपमानों का अम्बार कैसे छोड़ सकती है। नहीं-नहीं ....जबरदस्त लेखन!! वाह!! जिओ
March 9, 2019 at 9:10 AM Delete
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सार्थक टिप्पणी के लिए शुक्रिया समीर जी.
Blogger Mahavir Uttranchali said...
वाह जेनी शबनम जी, कमाल का जादू है आपकी लेखनी में एक सांस में सारी लघुकथा पढ़ गया। इसे लम्बी कहानी की शक्ल भी दे सकती हैं आप। लम्बी कहानियाँ लेखक को अलग पहचान और व्यापक फ़लक देती है। वैसे इसमें एक गृहणी की पूरी व्यथा और अनुभव है। बधाई।
March 9, 2019 at 9:53 AM Delete
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महावीर जी, बहुत खुशी हुई कि आपको यह कहानी पसंद आई. हाँ, लम्बी कहानी लिखी जा सकती थी, पर यह कहानी इतने में ही ख़त्म हो गई. आपका स्नेह एवं आशीष यूँ ही मिलता रहे तो कोशिश करुँगी कि कोई लम्बी कहानी लिखूँ. हृदय से आभार आपका.
Blogger रूपचन्द्र शास्त्री मयंक said...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-03-2019) को "पैसेंजर रेल गाड़ी" (चर्चा अंक-3269) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
March 9, 2019 at 10:17 AM Delete
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चर्चा में मेरे लेखन को स्थान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद रूपचन्द्र जी.
Blogger anupam said...
Very well written and depicted
March 9, 2019 at 11:17 AM Delete
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हार्दिक धन्यवाद आपका.
Blogger manju rani singh said...
बहुत संवेदनशील मुद्दे पर लेख अच्छा लगा।
March 9, 2019 at 11:50 AM Delete
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आपका हार्दिक धन्यवाद.
Blogger सुभाष नीरव said...
अच्छी लघुकथा है ! कई बरस पहले लिखी और संडे मेल में छपी मुझे अपनी लघुकथा 'मरना-जीना' याद हो आई !-सुभाष नीरव
March 9, 2019 at 11:53 AM Delete
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दोनों पात्रों की त्रासदी एक जैसी होगी इसीलिए दोनों की मनःस्थिति भी एक है और कहानी भी एक ही तरह लिखी गई होगी. आपका धन्यवाद सुभाष जी.
Blogger विकास नैनवाल said...
मार्मिक। मेरा भी हमेशा से मानना रहा है कि स्त्रियों को आर्थिक रूप से हमेशा ही आत्मनिर्भर होना चाहिए। यह बहुत जरूरी है। कब कैसा वक्त आ जाये कोई नहीं जानता। कौन कब बदल जाये, कोई नहीं जानता। ज्यादातर रिश्तों में स्त्रियाँ शोषण यही सोचकर सहती रहती हैं कि यहाँ का त्याग कर वो आखिर आगे कहाँ जाएँगी। वो अपना सब कुछ होम कर देती हैं और अंत में अपना कुछ कहने के लिए उनके पास नहीं बचता है। कईयों स्त्रियों के जीवन और उनके मन के अंदर रोज चलते द्वंद को दर्शाती लघु कथा। आभार।
March 9, 2019 at 6:10 PM Delete
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बिल्कुल सही कहा, आर्थिक निर्भरता स्त्रियों की पीड़ा का एक बहुत बड़ा कारण है. और इसी कारण स्त्रियों का मनोबल इतना गिर जाता है कि वे सदा के लिए खुद को दफ़न कर देती हैं, ज़िंदा हैं मगर ज़िन्दगी जी नहीं पाती हैं. एक वक़्त के बाद सारे रास्ते बंद हो जाते हैं. अधिकांश स्त्रियों का यही हाल होता है.
आपने स्त्रियों की दशा को बहुत अच्छी तरह समझा है, यह बहुत सुखद है. हृदय से धन्यवाद आपका.
Blogger तिलक राज कपूर said...
स्त्री जीवन की विडंबनाओं को खूबसूरती से साझा किया है आपने।
March 9, 2019 at 8:57 PM Delete
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समझने और सराहने के लिए हृदय से आभार तिलक राज जी.
Blogger Shiam said...
जेनी जी ,
आपका ब्लाग पढ़ा और आपकी कहानी पढकर तो बस उसमें खो सा गया | बहुत ही हृदय स्पर्शी है आपकी कलम | आपकी छोटे-छोटे कालम बहुत ही मार्मिक और सत्य हैं कि इन्हें पढकर जीवन के कतु सत्य का अनुभव होता है | श्याम त्रिपाठी -हिन्दी चेतना कैनेडा
March 9, 2019 at 9:14 PM Delete
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आदरणीय श्याम त्रिपाठी जी, आपने मेरी लेखनी की प्रशंसा कर मेरा मान बढ़ाया है, इसके लिए मैं आभार प्रकट करती हूँ. आपका स्नेहाशीष यूँ ही मिलता रहे, यही आशा है.
Blogger Nitish Tiwary said...
बहुत सुंदर पोस्ट। नारी शक्ति को प्रणाम करता हूँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
iwillrocknow.com
March 9, 2019 at 10:33 PM Delete
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बहुत बहुत शुक्रिया आपका. आपको भी प्रणाम.
Blogger Onkar said...
मार्मिक प्रस्तुति
March 10, 2019 at 6:05 AM Delete
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बहुत धन्यवाद ओंकार जी.
Blogger प्रियंका गुप्ता said...
आज भी हमारे आसपास बहुत सारी स्त्रियों की यही कहानी है...| अंत तक आते आते दिल बैठ गया कि कहीं बहुत सारी अवसादग्रस्त महिलाओं की तरह निशा भी ज़िन्दगी से पलायन का रास्ता न अख्तियार कर ले | पर आखिरकार अंत सुखद देख के अच्छा लगा |
एक ह्रदयस्पर्शी रचना के लिए बधाई...|
March 10, 2019 at 1:26 PM Delete
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हाँ प्रियंका जी, अधिकांश स्त्रियों को इसी अवसाद में जीते हुए देखा है. कुछ तो पलायन कर जाती हैं और ज्यादातर ऐसे ही सुखद अंत के साथ जीती हैं जैसे निशा जी रही है. कहानी का अंत सुखद दिख रहा है लेकिन निशा का जीवन सुखद नहीं. पर वह भी क्या करे?
आपकी प्रतिक्रिया से मन खुश हो गया. धन्यवाद.
Blogger प्रतिभा सक्सेना said...
अधिक सहनशीलता सहज जीवन के लिये ,और सारे परिवार के लिये भी,खतरनाक हो सकती है.
March 11, 2019 at 7:44 PM Delete
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हाँ प्रतिभा जी, अधिक सहनशीलता उस स्त्री के लिए खतरनाक है क्योंकि किस दिन वह हार जाए और पलायन कर ही जाए नहीं मालूम. अब इस उम्र में परिवार को भी उसकी परवाह नहीं, दुखद तो यह है. आभार.
Blogger Kailash Sharma said...
आज के समय का कटु यथार्थ...दूसरों की खुशियों में अपनी ख़ुशी ढूँढते हम कितने अकेले रह जाते हैं...बहुत मर्मस्पर्शी कहानी...
March 12, 2019 at 10:52 PM Delete
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सच है, दूसरों की ख़ुशी में अपनी खुशी ढूँढते-ढूँढते हम बेहद अकेले हो जाते हैं. अपने कथा के मर्म को समझा, धन्यवाद कैलाश जी.
दिल को छू गई। कई महिलाओं की यही कहानी हो जाती है।
औरत दूसरों के लिए जीते जीते जीना ही भूल जाती है।
ऐसे में जरूरी है कि भले ही बाहर जाकर स्त्री कार्य न करे लेकिन कुछ समय घर में अपने लिए अवश्य रखे जिसमें रुचिकर कार्य करे ताकि मन की होती रहे।
अच्छी कहानी है जेन्नी जी।
शुभकामनाएं
प्रीति
Blogger prritiy----sneh said...
दिल को छू गई। कई महिलाओं की यही कहानी हो जाती है।
औरत दूसरों के लिए जीते जीते जीना ही भूल जाती है।
ऐसे में जरूरी है कि भले ही बाहर जाकर स्त्री कार्य न करे लेकिन कुछ समय घर में अपने लिए अवश्य रखे जिसमें रुचिकर कार्य करे ताकि मन की होती रहे।
अच्छी कहानी है जेन्नी जी।
शुभकामनाएं
प्रीति
March 18, 2019 at 4:11 PM Delete
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अधिकांश महिलाओं की यही कहानी है, चाहकर भी अपने मन का जीवन जीना मुमकिन नहीं होता है. कोशिश तो अवश्य करनी चाहिए कि थोड़ा अपने लिए भी जीया जाए. आपको कहानी पसंद आई दिल से शुक्रिया प्रीती.
आज के कटु सत्य को कहती मार्मिक प्रस्तुति ..
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