आरक्षण के मुद्दे पर देश के हर प्रांत में उबाल है। आरक्षण के समर्थन और विरोध दोनों पर चर्चा नए विवादों को जन्म देती है। सभी को आरक्षण चाहिए। इससे मतलब नहीं कि वास्तविक रूप से कोई ख़ास जाति आरक्षण की हक़दार है। मतलब बस इतना है कि सभी जातियाँ ख़ुद को आरक्षण की श्रेणी में लाकर वांछित फ़ायदा उठाना चाहती हैं।
समय आ गया है कि अब इस मुद्दे पर एक नई बहस छेड़ी जाए। हमें निष्पक्ष रूप से इसपर अपना विचार बनाना होगा। ये आरक्षण किसके लिए और किसके विरूद्ध है? क्या जातिगत आधार पर आरक्षण उचित है? कितनी जातियों को इसमें शामिल किया जाए? क्या वास्तविक रूप से उन्हें फ़ायदा हो रहा है, जो ज़रूरतमंद हैं? आरक्षण का आधार सामजिक क्यों? आरक्षण का एकमात्र आधार आर्थिक क्यों नहीं? आरक्षण सहूलियत नहीं बल्कि दया है, जिसे किसी ख़ास जाति को दी जा रही है। किसी ख़ास जाति में जन्म लेने पर क्या दया की जानी चाहिए?
यह न तो उचित है और न तर्कपूर्ण कि किसी ख़ास जाति या धर्म को मानने वाले को आरक्षण मिलना चाहिए; चाहे शिक्षा, किसी पद के लिए या किसी स्पर्धा वाली शिक्षा या नौकरी में। आश्चर्य है कि ख़ुद को पिछड़ा साबित करने की होड़ लग गई है। निश्चित ही आरक्षण के नाम पर हमारे युवाओं को बहकाया जा रहा है और उनको ग़लत दिशा देकर राजनितिक पार्टियाँ अपना-अपना लाभ पोषित कर रही हैं।
आरक्षण ने क़ाबिलियत को परे धकेलकर जातिगत दुर्भावना को बढ़ाया है।आरक्षण का दंश देश का हर नागरिक झेल रहा है। आरक्षण से कोई फ़ायदा अब तक न दिखा है और न दिखेगा। आरक्षण का लालच दिखा युवाओं का मतिभ्रम कर आवश्यक मुद्दे पर से ध्यान को भटकाया जा रहा है। युवाओं को धर्म और जाति का अफ़ीम खिला-खिलाकर देश के बिगड़ते हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दशाओं से विमुख किया जा रहा है। देश कई तरह के बाह्य और आन्तरिक संकट से गुज़र रहा है, ऐसे में आरक्षण देकर कुछ ख़ास जातियों को फ़ायदा पहुँचाने के एवज़ में संकट को और भी बढ़ावा दिया जा रहा है। लड़ता और मरता तो आम युवा है और हानि हमारे ही देश की होती है।
आरक्षण जाति-भेद की दुर्भावना पैदा करने का बहुत बड़ा कारण है। किसी ख़ास जाति को आरक्षण मिलने के कारण वह जगह मिल जाता है, जो कोई दूसरा ज़्यादा उपुयक्त होकर भी गँवा देता है। आरक्षण प्राप्त लोगों का आरक्षण मिलने के बाद कहीं से भी बौधिक बढ़ोतरी के प्रमाण मुझे देखने को नहीं मिले हैं। उसी तरह आरक्षण से मुक्त जो भी जातियाँ हैं, वे जन्म के कारण विशिष्ट गुणोंवाली हों या वे सभी धनाढ्य हों, यह भी नहीं देखा है। धर्म और जाति का बौद्धिकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता, और न आरक्षण देकर किसी में बौद्धिकता और क़ाबिलियत पैदा की जा सकती है। कहीं-न-कहीं मन का विभाजन आरक्षण के बाद शुरू हुआ।
जिस तरह से अधिकांश जातियाँ आरक्षण पाने के लिए लालायित हैं, ऐसा लगता है कि आने वाले समय में गिनती की दो-चार जातियाँ ही बचेंगी जो आरक्षण से बाहर सामान्य श्रेणी में रह जाएँगी। आरक्षण श्रेणी की बहुत सी जातियाँ ऐसी हैं जो धनवान हैं। ऐसी बहुत सी जातियाँ हैं जो कहने को तो उच्च कूल की हैं, लेकिन खाने-खाने को मोहताज़ हैं। ऐसे में विचारणीय है कि किसे आरक्षण की आवश्यकता है?
प्रतिस्पर्धा के युग में आरक्षण हर जाति के लिए रोग बन गया है। योग्यता का मूल्यांकन आरक्षण से होना स्वाभाविक-सा लगता है। आज अल्पज्ञान और अल्पबुद्धि का बोलबाला होता जा रहा है। ज्ञान और बुद्धि पर आरक्षण भारी पड़ रहा है और इसका ख़म्याज़ा आरक्षित श्रेणियों की जातियों को भी उठाना पड़ रहा है। अगर किसी का उसकी अपनी योग्यता से स्पर्धा में चयन होता है, फिर भी लोगों कि निगाह में वह तिरस्कार पाता है और यही माना जाता है कि आरक्षण के कारण वह उतीर्ण हुआ है। उसकी अपनी योग्यता आरक्षण की बलि चढ़ जाती है।
आज जब हम किसी डॉक्टर के पास इलाज के लिए जाते हैं, तो मन में यह आशंका रहती है कि कहीं यह आरक्षण से आया हुआ तो नहीं है। ऐसे में उस डॉक्टर की योग्यता पर अपनी ज़िन्दगी दाँव पर लगी दिखती है।मुमकिन है कि आरक्षित श्रेणी का वह डॉक्टर सचमुच प्रतिभाशाली हो, मगर आरक्षण की सुविधा से अनुपयुक्त का चयन उपयुक्त को भी कटघरे में खड़ा कर दे रहा है। इस आरक्षण ने मन में सन्देह पैदा कर दिया है और हम एक दूसरे को शक और असम्मान से देखने लगे हैं।
अगर आरक्षण देना ही है, तो आर्थिक आधार पर दिया जाए; चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या सम्प्रदाय का क्यों न हो, और वह भी सिर्फ़ विद्यालय स्तर की शिक्षा तक। ताकि स्पष्टतः प्रतिभा की पहचान हो सके और उपयुक्त पात्र ही उपयुक्त स्थान ग्रहण करे। समान अवसर, सुविधा और वातवरण मिलने पर ही हर नागरिक समान हो पाएगा। देश के हर नागरिक के लिए समान कानून, समान न्याय, समान शिक्षा, समान सुविधा और समान अधिकार, और कर्त्तव्य का होना आवश्यक है। एकमात्र आर्थिक आधार ही आरक्षण का उचित व उत्तम आधार है और यही होना चाहिए।
- जेन्नी शबनम (7.10.2015)
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39 comments:
बहुत सटीक विचार आरक्षण पर इस लेख में प्रस्तुत किये गए हैं। आरक्षण ने योग्यता को दरकिनार कर कुंठित किया है और अनेकानेक समस्याओं को जन्म दिया है। आरक्षण की बजाय आर्थिक सहायता इसका विकल्प हो सकता है। पर आरक्षण किसी भी दृष्टि से देश के लिए हितकर नहीं है।जेन्नी शबनम जी मैं आपके विचारों से सहमत हूँ।
शानदार और सामयिक लेख! आपके दृष्टिकोण और सभी तर्कों से मैं पूर्णतयाः सहमत हूँ, और जातिगत / अल्पसंख्यक आरक्षण का सैद्धांतिक विरोध करता हूँ!
आरक्षण होना ही नहीं चाहिए देश की आधी से ज्यादा प्रगति तो इसी आरक्षण से रुकी है ----
आरक्षण पर लिखा सार्थक और तथ्यपरक आलेख
बधाई
सादर
आरक्षण देश का कोढ़ बन का रह गया है इस पूरे मसौदे पर पुनर्विचार की आवश्यकता है पर चिता पर रोटी सकने वाले हमारे देश के नेताओ को प्रजा से कोई सरोकार नहीं उनकी अपनी दाल तो गल रही इसी आंच पर । जब तक पुरे देश की जनता एकजुट हो इसके खिलाफ कदम नही उठाएगी कोई बड़ा अन्दोलन नही होगा कुछ नही होने वाला ।बस ये युवा युही गुमराह होते रहेंगे। आपके विचारो से शतप्रतिशत सहमत हूँ ।
Aapki baat se sahmat hun. lekin votetantra mein sahi ko sahi kahna hi sabse bada gunaag hai....akhir paapi pet ka saval hai jo sach bolega vo satta se bahar jayega...accha likha hai aapne.
शबनम जी आपका लिखा लेख पढ़ा मैंने सराहनीय है ...आपने एक दम दुरुस्त फरमाया है..जाती के आधार पर ये सब नहीं होना चाहिये | इसी वजह से हमारा देश तरक्की की दिशा में बहुत ही धीरे कदम बढ़ा रहा है.....धकियानूसी बातें हमारे संविधान से खारिज हो जानी चाहिए इसी की राजनीति हमें हर दिशा में पीछे की ओर धकेल रही है |आर्थिक द्रिध्ती से भी जिन्हें ज़रुरत है उन्हें ही मिलना चाहिए....!!
साभार
हर्ष महाजन
aapka blog bahut achha laga
rajkumar soni
मैं आरक्षण के विरूद्ध हूँ। हो भी तो आर्थिक आधार पर। जाति धर्मगत आधारित नहीं। इससे न समाज का भला है न ही देश के विकास के हित में। सीमित शब्दों में आपने सुंदर विचार रखें हैं। बधाई।
शैशव सदैव निश्छल,निष्पाप एवं निस्वार्थ होता है तदर्थ मूल रचनायें भी उसी रूप में होती है तथा कालांतर की स्वार्थी छाया उसमें ग्रहण लगा देती हैं।
तदर्थ वेदों की मूल रचना निःसंदेह वन्दनीय है लेकिन??
यह भी सत्य है कि राजनैतिक अवसरवाद ने आरक्षण की मूल भावना का तिरस्कार कर उसमें कलुषित भावों एवं कर्मों का समिश्रण कर उसे क्षति पहुंचाई है और समाधान हेतु ही मैंने गहन चिंतन के बाद ही मैंने 100% आरक्षण की पोस्ट भी नीचे भेज रहा हूँ।
वर्तमान परिस्थितियां सीमा लाँघ चुकी और आरक्षण के विषय को समझदारी से ना निपटाया गया तो निःसंदेह गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा हो सकती है और जाति दुराभाव और ही बढ़ेगा।
जहां तक मोहन भागवत जी का प्रश्न है-आरएसएस किसी भी विषय को विधिवत उठाने से पहले अपने प्रायोजित नेटवर्क से इसे सोशल साइट्स पर निरन्तर प्रचारित करवाती है और यदि गम्भीर विरोध ना हो तो मुखिया जी उसी भाषा का प्रयोग कर लेते हैं लेकिन अब यह चतुराई चलेगी नहीं जिसके दो ज्वलन्त प्रमाण हैं घर वापसी कार्यक्रम की असफलता और अब आरक्षण का विषय।
एक समान आचार संहिता का जोर शोर से प्रचार करने वाले उसपर चुप क्यों?
क्यों कि वास्तव में वे समानता चाहते ही नहीं।
इस सभ्य संसार की मूलतः दो ही जाति होती है-
1.अमीर 2.गरीब
तदर्थ भारत में भी दो ही जातियाँ हैं तो इनमें असमानता ठीक नहीं।
माना सदियों की शोषित जातियों के जीवनस्तर को उठाने हेतु एक आरक्षण विधि संविधान के जरिये जारी की गयी लेकिन संविधान ने यह तो नहीं कहा ना कि अन्य गरीब तबके की अवहेलना होती रहे।
अतः आरक्षण का क्षेत्र बढ़ाकर आर्थिक आधार पर सभी जातियों की गरीबी के अनुपात में 100% के हिसाब से ही लागू होना चाहिये एवं सभी जातियों को उनकी गरीबी की संख्या के आधार पर राजनैतिक,प्रशासनिक एवं शैक्षणिक अधिकार मिलना ही चाहिये जिससे लोगों में भाईचारा और समानता बढ़े एवं सर्व जाति में समभाव स्थापित हो सके।
बहुत सुन्दर आलेख है।
जेन्नी शबनम जी आपने एकदम सही कहा कि "अगर आरक्षण देना ही है तो उसे आर्थिक आधार पर दिया जाए चाहे वो किसी भी जाति धर्म या सम्प्रदाय का क्यों न हो, और वह भी सिर्फ विद्यालय स्तर की शिक्षा तक।"
मेरी भी निजी राय यही है कि आरक्षण जीवन स्तर के आधार पर होना चाहिए न कि किसी जाति विशेष के आधार पर। जो सुविधाओं एवं अवसरों से वंचित हैं उन्हें सिर्फ अवसर दिया जाना चाहिए अपनी प्रतिभा को पहचान कर उसको निखारने और दिखाने का न कि आरक्षण के नाम पर उनको बिना समुचित परिश्रम किये फल दे दिया जाना चाहिए। काश कि हमारे देश के राजनीतिज्ञ अपनी वोटों की राजनीति से ऊपर उठ कर देश और जनता के हित में सोच पाएं
आरक्षण के कदमों तले कितनी प्रतिभाएं अपने उचित स्थान से वंचित रह जाती हैं. आवश्यकता है इस पर पुनर्विचार की, लेकिन ऐसा करने की इच्छा शक्ति राजनीतिक दलों में कहाँ है. बहुत सारगर्भित आलेख..
डॉ जेन्नी शबनम जी आपने "आरक्षण की आग" बहुत ही सुंदरा ढंग से इस लेख को लिखा है |असे पढ़कर मेरे मस्तिष्क के द्वार खुले और कुछ प्रतिक्रया हुई जो मैं आपको लिख रही हूँ |
आरक्षण सच में ग़ैर- बराबरी को बढ़ावा दे रहा है |यदि मान लिया जाए कि कुछ जातियों को आरक्षण की आवश्यकता है तो इसका निर्णय कैसे किया जाए कि कौन कौन सी जातियों को आरक्षण की श्रेणी में रखा जाए ? क्या वास्तव में उन जातियों को आरक्षण से कुछ फायदा होगा ?यदि हाँ तो उसकी भी कुछ प्रतिशत दर होनी चाहिए|ऐसा न हो कि जाति के नाम पर सभी उसका फायदा उठायें |जाति में भी यदि किसी की आर्थिक स्थति अच्छी है तो उसे आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं है |यदि किसी नागरिक में आगे बढ़ने की क्षमता है और उसकी आर्थिक स्थति अच्छी नही है चाहे वह निम्न जाति का न भी हो तब उसे भी अवश्य ही आरक्षण की सुविधा होनी चाहिए |
यहाँ मैं पारसी लोगों का उदाहरण अवश्य देना चाहूंगी यह जाति भारत की जनसंख्या का केवल .१ प्रतिशत ही हिस्सा है किन्तु कभी भी इन्होंने आरक्षण की मांग नहीं की है, न ही कभी देश में कोई दंगा फसाद कर कोई बवाल खडा किया है |मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि "आरक्षण ने काबलियत को परे धकेल कर जातिगत दुर्भावना को बढाया है आरक्षण का दंश देश का हर एक नागरिक झेल रहा है "
अंत में यही कहना चाहूंगी कि इस मुद्दे को बहुत सही तरीके से सुलझाने की आवश्यकता है ऐसा न हो कि डाक्टरों और इंजीनीयरों से हम सब का विशवास ही उठ जाए क्यों कि वे अपनी क्षमता से नहीं अपितु आरक्षण से डिग्री प्राप्त कर समाज में खड़े हैं |एक डॉ के पास मरीज़ इलाज के लिए जाता है उस पर पूरी तरह भरोसा करता है कहीं उस डॉ का अल्प ज्ञान मरीजों को आरक्षण की आग में झुलसने के लिए मजबूर न कर दे |
डॉ जेन्नी जी आपको दिल से मुबारकबाद देती हूँ इस विषय को इतने प्रभाव शाली अंदाज़ में हम सबके समक्ष रखने के लिए |आशा करती हूँ कि जो भी फैसला हो उसका अंजाम अच्छा ही हो |धन्यवाद |
aapne man ki baat kah dee...bahut sundar!..aise lekh sammaj mein aaj bahut zaroori hain ..tabhi jaagrukta aayegi..sundar v sateek sandesh dene ke liye aapka hridy se abhaar jenny ji !
आरक्षण बुद्धिमान नेताओं द्वारा बनायी गयी एक अराष्ट्रीय नीति है जिसका उद्देश्य भारतीय समाज में वर्गभेद बढाकर सामाजिक विषमता उत्पन्न करना है । आरक्षित वर्ग के लोग बौद्धिक अपंगता की ओर बढ़ने के लिये स्वतंत्र कर दिये गये हैं । अनारक्षित वर्ग को अपनी दक्षता-कुशलता के बाद भी अवसरों से वंचित रखने का कुटिल षड्यंत्र किया जा रहा है । सारी उठापटक का उद्देश्य समाज का उत्थान नहीं बल्कि मात्र नेताजाति का उत्थान करना है ।
भारतीय समाज आरक्षण की बौद्धिक शिथिलता के पक्ष में होड़ लगा रहा है, नेताओं को अच्छा हथियार मिल गया है । यानी आरक्षण के पक्ष में दो सुदृढ़ स्तम्भ खड़े हैं ... इन स्तम्भों को गिराना इतनी ज़ल्दी सम्भव नहीं लगता।
आरक्षण की प्रासंगिकता समय के साथ साथ बदल चुकी है अब उस आधार को बदल देना चाहिए इसके लिए हम सरकार पर निर्भर नहीं कर सकते हैं। सभी दलों ने इसको अपने लिए चुनाव का एक हथियार बना लिया है और जिन्हें मुफ्त में फायदा मिल रहा हो वे क्यों छोड़ना चाहेंगे। पीढ़ी दर पीढ़ी जिन्हें लाभ मिलते हुए दशकों गुजर चुके हैं। उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति आसमान तक पहुँचने वाला हो चूका है और गरीब है वे और गर्त में चले जा रहे हैं।
मेधा पलायन और शिक्षित अपराधियों संख्या में वृद्धि का कारण यही जाति आधारित आरक्षण ही है और बीच में नफ़रत की दीवार भी खड़ी हो रही है। अगर आरक्षण लेने वाले नैतिक , सामाजिक और न्यायिक पृष्ठभूमि पर विचार करें तो पाएंगे कि इसका आधार आर्थिक हो जाना चाहिए। सामाजिक स्तर पर बढ़ रही विसंगतियों का अंत करने के लिए हम ऐसे एक आंदोलन के लिए समर्थन करते हैं।
सहीं कहाँ ... आपने,,,,, आरक्षण का आधार आर्थिक ही होना चाहिए
जेन्नी जी मैंने आपके द्वारा लिखा आलेख-"गैर- बराबरी बढ़ाता आरक्षण" पढ़ा | मैं आपके विचारों से पूर्णत: सहमत हूँ,
इस विषय पर मैंने भी थोड़ा- बहुत लिखा था| कवि या लेखक समाज व देश की विचारधारा में परिवर्तन लाने के लिए
अपनी लेखनी रुपी तलवार का सदा से ही इस्तेमाल करता रहा है, प्रश्न तो उसका हल मिल जाना है और वह सही हल ही इस कलंक को धोने में सफल होगा | लेखनी में तो बहुत ताकत होती है | आशा है आपके विचार इस दिशा में रोशनी अवश्य डालेंगे |
पुष्पा मेहरा
जेन्नी जी मैंने आपके द्वारा लिखा आलेख-"गैर- बराबरी बढ़ाता आरक्षण" पढ़ा | मैं आपके विचारों से पूर्णत: सहमत हूँ। आरक्षण वास्तव में केवल स्कूल के स्तर पर ही होना चाहिए। हाल ही मैंने देखा कि एक मित्र की बेटी ने स्कूल के स्तर पर
आरक्षण प्राप्त किया ।उसके तुरन्त पश्चात वो अमेरिका पढ़ने चली गई । जहाँं उसने डाक्टरेट की डिग्री प्राप्त की है। वहाँ तो कोई आरक्षण नहीं बच्चे के हुनर मेहनत और सार्मथ्य ने उसे सब दिया। यहाँ आरक्षण की आग में हम सभी बच्चों के
भविष्य को जलाने और सुलगाने का काम कर रहे हैं। हम सभी समाज को आपस में बाँटने वाली नराकात्मक शक्तियों को पहचानें और उन्हे पनपने ना दें।
anita manda said...
बहुत सटीक विचार आरक्षण पर इस लेख में प्रस्तुत किये गए हैं। आरक्षण ने योग्यता को दरकिनार कर कुंठित किया है और अनेकानेक समस्याओं को जन्म दिया है। आरक्षण की बजाय आर्थिक सहायता इसका विकल्प हो सकता है। पर आरक्षण किसी भी दृष्टि से देश के लिए हितकर नहीं है।जेन्नी शबनम जी मैं आपके विचारों से सहमत हूँ।
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अनिता जी, मेरे विचारों से सहमति के लिए हृदय से आभार.
Amit Agarwal said...
शानदार और सामयिक लेख! आपके दृष्टिकोण और सभी तर्कों से मैं पूर्णतयाः सहमत हूँ, और जातिगत / अल्पसंख्यक आरक्षण का सैद्धांतिक विरोध करता हूँ!
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अमित जी, मेरे दृष्टिकोण और तर्कों से आप सहमत हैं इसके लिए धन्यवाद.
jyoti khare said...
आरक्षण होना ही नहीं चाहिए देश की आधी से ज्यादा प्रगति तो इसी आरक्षण से रुकी है ----
आरक्षण पर लिखा सार्थक और तथ्यपरक आलेख
बधाई
सादर
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ज्योति खरे जी, सच है आरक्षण प्रगति में बाधा है. मेरे विचारों से आपकी सहमति के लिए सादर धन्यवाद.
sunita agarwal said...
आरक्षण देश का कोढ़ बन का रह गया है इस पूरे मसौदे पर पुनर्विचार की आवश्यकता है पर चिता पर रोटी सकने वाले हमारे देश के नेताओ को प्रजा से कोई सरोकार नहीं उनकी अपनी दाल तो गल रही इसी आंच पर । जब तक पुरे देश की जनता एकजुट हो इसके खिलाफ कदम नही उठाएगी कोई बड़ा अन्दोलन नही होगा कुछ नही होने वाला ।बस ये युवा युही गुमराह होते रहेंगे। आपके विचारो से शतप्रतिशत सहमत हूँ ।
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सुनिता जी, सही कहा जब तक देश की पूरी जनता एकजुट नहीं होगी कुछ नहीं होने वाला. एकजुट न होने का ही परिणाम है जो देश का यह हाल है. धन्यवाद.
उपयुक्त पात्र ही उपयुक्त स्थान ग्रहण करे। समान अवसर, सुविधा और वातवरण मिलने पर ही हर नागरिक समान हो पाएगा। देश के हर नागरिक के लिए समान क़ानून, समान न्याय, समान शिक्षा, समान सुविधा और समान कर्त्तव्य का होना आवश्यक है। एक मात्र आर्थिक आधार ही आरक्षण का उचित आधार है और होना चाहिए।
bahut hi vicharniy vishya hai
sundar avm gambheer prastuti
aabhaar
Neerpal singh said...
Aapki baat se sahmat hun. lekin votetantra mein sahi ko sahi kahna hi sabse bada gunaag hai....akhir paapi pet ka saval hai jo sach bolega vo satta se bahar jayega...accha likha hai aapne.
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नीरपाल सिंह जी, पापी पेट का नहीं पापी सत्ता की भूख का सब खेल है. आपको लेख पसंद आया, धन्यवाद.
Harash Mahajan said...
शबनम जी आपका लिखा लेख पढ़ा मैंने सराहनीय है ...आपने एक दम दुरुस्त फरमाया है..जाती के आधार पर ये सब नहीं होना चाहिये | इसी वजह से हमारा देश तरक्की की दिशा में बहुत ही धीरे कदम बढ़ा रहा है.....धकियानूसी बातें हमारे संविधान से खारिज हो जानी चाहिए इसी की राजनीति हमें हर दिशा में पीछे की ओर धकेल रही है |आर्थिक द्रिध्ती से भी जिन्हें ज़रुरत है उन्हें ही मिलना चाहिए....!!
साभार
हर्ष महाजन
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हर्ष महाजन जी,
बिलकुल सही कहा आपने, ग़ैरवाजिब बातें संविधान से ख़ारिज होनी ही चाहिए. अन्यथा देश कभी आगे बढेगा नहीं. मेरे विचार आपको सही लगे, आभारी हूँ.
Blogger panditraj said...
aapka blog bahut achha laga
rajkumar soni
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आपका बहुत बहुत धन्यवाद राजकुमार सोनी जी.
Blogger Sudershan Ratnakar said...
मैं आरक्षण के विरूद्ध हूँ। हो भी तो आर्थिक आधार पर। जाति धर्मगत आधारित नहीं। इससे न समाज का भला है न ही देश के विकास के हित में। सीमित शब्दों में आपने सुंदर विचार रखें हैं। बधाई।
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आदरणीया सुदर्शन रत्नाकर जी, मेरे विचार को सहमति मिली, बहुत आभारी हूँ.
Blogger Duli Chand Karel said...
शैशव सदैव निश्छल,निष्पाप एवं निस्वार्थ होता है तदर्थ मूल रचनायें भी उसी रूप में होती है तथा कालांतर की स्वार्थी छाया उसमें ग्रहण लगा देती हैं।
तदर्थ वेदों की मूल रचना निःसंदेह वन्दनीय है लेकिन??
यह भी सत्य है कि राजनैतिक अवसरवाद ने आरक्षण की मूल भावना का तिरस्कार कर उसमें कलुषित भावों एवं कर्मों का समिश्रण कर उसे क्षति पहुंचाई है और समाधान हेतु ही मैंने गहन चिंतन के बाद ही मैंने 100% आरक्षण की पोस्ट भी नीचे भेज रहा हूँ।
वर्तमान परिस्थितियां सीमा लाँघ चुकी और आरक्षण के विषय को समझदारी से ना निपटाया गया तो निःसंदेह गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा हो सकती है और जाति दुराभाव और ही बढ़ेगा।
जहां तक मोहन भागवत जी का प्रश्न है-आरएसएस किसी भी विषय को विधिवत उठाने से पहले अपने प्रायोजित नेटवर्क से इसे सोशल साइट्स पर निरन्तर प्रचारित करवाती है और यदि गम्भीर विरोध ना हो तो मुखिया जी उसी भाषा का प्रयोग कर लेते हैं लेकिन अब यह चतुराई चलेगी नहीं जिसके दो ज्वलन्त प्रमाण हैं घर वापसी कार्यक्रम की असफलता और अब आरक्षण का विषय।
एक समान आचार संहिता का जोर शोर से प्रचार करने वाले उसपर चुप क्यों?
क्यों कि वास्तव में वे समानता चाहते ही नहीं।
इस सभ्य संसार की मूलतः दो ही जाति होती है-
1.अमीर 2.गरीब
तदर्थ भारत में भी दो ही जातियाँ हैं तो इनमें असमानता ठीक नहीं।
माना सदियों की शोषित जातियों के जीवनस्तर को उठाने हेतु एक आरक्षण विधि संविधान के जरिये जारी की गयी लेकिन संविधान ने यह तो नहीं कहा ना कि अन्य गरीब तबके की अवहेलना होती रहे।
अतः आरक्षण का क्षेत्र बढ़ाकर आर्थिक आधार पर सभी जातियों की गरीबी के अनुपात में 100% के हिसाब से ही लागू होना चाहिये एवं सभी जातियों को उनकी गरीबी की संख्या के आधार पर राजनैतिक,प्रशासनिक एवं शैक्षणिक अधिकार मिलना ही चाहिये जिससे लोगों में भाईचारा और समानता बढ़े एवं सर्व जाति में समभाव स्थापित हो सके।
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दुली चंद जी,
आपके विचार जानकार बहुत अच्छा लगा. सटीक और विचारणीय सवाल आपने उठाए हैं. यह बहुत आवश्यक है कि समानता लाने के लिए एक समान आचार संहिता लागू की जाए. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो रहा. अमीर और गरीब इन दोनों जातियों में असमानता बढ़ती जा रही है. आपके सार्थक विचारों के लिए आभार.
Anonymous Manju Mishra said...
बहुत सुन्दर आलेख है।
जेन्नी शबनम जी आपने एकदम सही कहा कि "अगर आरक्षण देना ही है तो उसे आर्थिक आधार पर दिया जाए चाहे वो किसी भी जाति धर्म या सम्प्रदाय का क्यों न हो, और वह भी सिर्फ विद्यालय स्तर की शिक्षा तक।"
मेरी भी निजी राय यही है कि आरक्षण जीवन स्तर के आधार पर होना चाहिए न कि किसी जाति विशेष के आधार पर। जो सुविधाओं एवं अवसरों से वंचित हैं उन्हें सिर्फ अवसर दिया जाना चाहिए अपनी प्रतिभा को पहचान कर उसको निखारने और दिखाने का न कि आरक्षण के नाम पर उनको बिना समुचित परिश्रम किये फल दे दिया जाना चाहिए। काश कि हमारे देश के राजनीतिज्ञ अपनी वोटों की राजनीति से ऊपर उठ कर देश और जनता के हित में सोच पाएं
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आदरणीया मंजु जी,
मेरे विचार को आपका समर्थन मिला, बहुत आभार. आरक्षण जैसे मुद्दे से देश को कितनी क्षति हो रही है यह राजनितिक पार्टियाँ सोचती ही नहीं है. वोट की राजनीति के आगे कोई कुछ नहीं सोचता.
सादर
Blogger Kailash Sharma said...
आरक्षण के कदमों तले कितनी प्रतिभाएं अपने उचित स्थान से वंचित रह जाती हैं. आवश्यकता है इस पर पुनर्विचार की, लेकिन ऐसा करने की इच्छा शक्ति राजनीतिक दलों में कहाँ है. बहुत सारगर्भित आलेख..
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आदरणीय कैलाश शर्मा जी,
बिलकुल सही कहा आपने कि आरक्षण जैसे मुद्दों पर पुनर्विचार करने की इच्छा शक्ति राजनितिक पार्टियों में नहीं है. अन्यथा अब तक आरक्षण ख़त्म हो गया होता या फिर आर्थिक आधार पर होता.
सादर
Blogger Savita Aggarwal said...
डॉ जेन्नी शबनम जी आपने "आरक्षण की आग" बहुत ही सुंदरा ढंग से इस लेख को लिखा है |असे पढ़कर मेरे मस्तिष्क के द्वार खुले और कुछ प्रतिक्रया हुई जो मैं आपको लिख रही हूँ |
आरक्षण सच में ग़ैर- बराबरी को बढ़ावा दे रहा है |यदि मान लिया जाए कि कुछ जातियों को आरक्षण की आवश्यकता है तो इसका निर्णय कैसे किया जाए कि कौन कौन सी जातियों को आरक्षण की श्रेणी में रखा जाए ? क्या वास्तव में उन जातियों को आरक्षण से कुछ फायदा होगा ?यदि हाँ तो उसकी भी कुछ प्रतिशत दर होनी चाहिए|ऐसा न हो कि जाति के नाम पर सभी उसका फायदा उठायें |जाति में भी यदि किसी की आर्थिक स्थति अच्छी है तो उसे आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं है |यदि किसी नागरिक में आगे बढ़ने की क्षमता है और उसकी आर्थिक स्थति अच्छी नही है चाहे वह निम्न जाति का न भी हो तब उसे भी अवश्य ही आरक्षण की सुविधा होनी चाहिए |
यहाँ मैं पारसी लोगों का उदाहरण अवश्य देना चाहूंगी यह जाति भारत की जनसंख्या का केवल .१ प्रतिशत ही हिस्सा है किन्तु कभी भी इन्होंने आरक्षण की मांग नहीं की है, न ही कभी देश में कोई दंगा फसाद कर कोई बवाल खडा किया है |मैं आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि "आरक्षण ने काबलियत को परे धकेल कर जातिगत दुर्भावना को बढाया है आरक्षण का दंश देश का हर एक नागरिक झेल रहा है "
अंत में यही कहना चाहूंगी कि इस मुद्दे को बहुत सही तरीके से सुलझाने की आवश्यकता है ऐसा न हो कि डाक्टरों और इंजीनीयरों से हम सब का विशवास ही उठ जाए क्यों कि वे अपनी क्षमता से नहीं अपितु आरक्षण से डिग्री प्राप्त कर समाज में खड़े हैं |एक डॉ के पास मरीज़ इलाज के लिए जाता है उस पर पूरी तरह भरोसा करता है कहीं उस डॉ का अल्प ज्ञान मरीजों को आरक्षण की आग में झुलसने के लिए मजबूर न कर दे |
डॉ जेन्नी जी आपको दिल से मुबारकबाद देती हूँ इस विषय को इतने प्रभाव शाली अंदाज़ में हम सबके समक्ष रखने के लिए |आशा करती हूँ कि जो भी फैसला हो उसका अंजाम अच्छा ही हो |धन्यवाद |
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सविता अग्रवाल जी,
आपकी प्रतिक्रिया से बहुत सारे विचारणीय सवाल उठे हैं जिसपर गहन विचार की आवश्यकता है. जातिगत आरक्षण से जातिवाद को बढ़ावा मिल रहा है, यह बात सभी को अच्छी तरह समझनी होगी. एक दुसरे पर विश्वास खो रहा है, कही न कहीं हमारी जडें कमजोर होती जा रही हैं. इन सभी पर पुनर्विचार की आवश्यकता है. एक मात्र आर्थिक आधार ही आरक्षण के लिए होना चाहिए और यह सर्वमान्य हो.
आपकी प्रतिक्रिया एवं विचार के लिए आभार.
Blogger jyotsana pardeep said...
aapne man ki baat kah dee...bahut sundar!..aise lekh sammaj mein aaj bahut zaroori hain ..tabhi jaagrukta aayegi..sundar v sateek sandesh dene ke liye aapka hridy se abhaar jenny ji !
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ज्योत्स्ना जी, टिप्पणी और मेरे विचारों से सहमति के लिए आपका बहुत धन्यवाद.
Blogger डॉ. कौशलेन्द्रम said...
आरक्षण बुद्धिमान नेताओं द्वारा बनायी गयी एक अराष्ट्रीय नीति है जिसका उद्देश्य भारतीय समाज में वर्गभेद बढाकर सामाजिक विषमता उत्पन्न करना है । आरक्षित वर्ग के लोग बौद्धिक अपंगता की ओर बढ़ने के लिये स्वतंत्र कर दिये गये हैं । अनारक्षित वर्ग को अपनी दक्षता-कुशलता के बाद भी अवसरों से वंचित रखने का कुटिल षड्यंत्र किया जा रहा है । सारी उठापटक का उद्देश्य समाज का उत्थान नहीं बल्कि मात्र नेताजाति का उत्थान करना है ।
भारतीय समाज आरक्षण की बौद्धिक शिथिलता के पक्ष में होड़ लगा रहा है, नेताओं को अच्छा हथियार मिल गया है । यानी आरक्षण के पक्ष में दो सुदृढ़ स्तम्भ खड़े हैं ... इन स्तम्भों को गिराना इतनी ज़ल्दी सम्भव नहीं लगता।
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आदरणीय कौशलेन्द्र जी,
इस बात से सहमत हूँ कि आरक्षण के कारण आरक्षित वर्ग के अधिकांश लोग बौद्धिक अपंग होते जा रहे हैं. निश्चित ही आरक्षण वर्गभेद को बढ़ा रहा है और एक ऐसे समाज को खड़ा कर रहा है जहाँ सभी आपस में ही लड़ते रहे और राजनितिक पार्टियाँ इन्हें हथियार की तरह इस्तेमाल करती रहे. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार.
Blogger रेखा श्रीवास्तव said...
आरक्षण की प्रासंगिकता समय के साथ साथ बदल चुकी है अब उस आधार को बदल देना चाहिए इसके लिए हम सरकार पर निर्भर नहीं कर सकते हैं। सभी दलों ने इसको अपने लिए चुनाव का एक हथियार बना लिया है और जिन्हें मुफ्त में फायदा मिल रहा हो वे क्यों छोड़ना चाहेंगे। पीढ़ी दर पीढ़ी जिन्हें लाभ मिलते हुए दशकों गुजर चुके हैं। उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति आसमान तक पहुँचने वाला हो चूका है और गरीब है वे और गर्त में चले जा रहे हैं।
मेधा पलायन और शिक्षित अपराधियों संख्या में वृद्धि का कारण यही जाति आधारित आरक्षण ही है और बीच में नफ़रत की दीवार भी खड़ी हो रही है। अगर आरक्षण लेने वाले नैतिक , सामाजिक और न्यायिक पृष्ठभूमि पर विचार करें तो पाएंगे कि इसका आधार आर्थिक हो जाना चाहिए। सामाजिक स्तर पर बढ़ रही विसंगतियों का अंत करने के लिए हम ऐसे एक आंदोलन के लिए समर्थन करते हैं।
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आदरणीया रेखा जी,
सच है आरक्षण के कारण जिन्हें मुफ़्त में फ़ायदा हो रहा है वो क्यों चाहेंगे कि आरक्षण नीति में बदलाव हो. बल्कि कई जातियाँ खुद को आरक्षण के दायरे में लिए जाने के लिए आन्दोलन कर रही है. आश्चर्य होता है कि कैसे कोई खुद के लिए आरक्षण की माँग करता है. एक मात्र आरक्षण का आधार आर्थिक हो ऐसे आन्दोलन की आवश्यकता है. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार.
Vijay Kumar Sappatti
Oct 13
jenny ji ,
namaskar
aapne bahut accha lekh likha hai , saarthak hai ,. aur aaj ke samay ki sahi baat kaha hai .
bahut badhayi
thanks
vijay
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आदरणीय विजय जी,
मेरे लेख पर प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार.
Blogger savan kumar said...
सहीं कहाँ ... आपने,,,,, आरक्षण का आधार आर्थिक ही होना चाहिए
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सावन कुमार जी, टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
Blogger Pushpa Mehra said...
जेन्नी जी मैंने आपके द्वारा लिखा आलेख-"गैर- बराबरी बढ़ाता आरक्षण" पढ़ा | मैं आपके विचारों से पूर्णत: सहमत हूँ,
इस विषय पर मैंने भी थोड़ा- बहुत लिखा था| कवि या लेखक समाज व देश की विचारधारा में परिवर्तन लाने के लिए
अपनी लेखनी रुपी तलवार का सदा से ही इस्तेमाल करता रहा है, प्रश्न तो उसका हल मिल जाना है और वह सही हल ही इस कलंक को धोने में सफल होगा | लेखनी में तो बहुत ताकत होती है | आशा है आपके विचार इस दिशा में रोशनी अवश्य डालेंगे |
पुष्पा मेहरा
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आदरणीया पुष्पा जी,
मेरे विचारों से आप सहमत हैं, जानकार ख़ुशी हुई. हमारे विचार हमारे लेखों के माध्यम से लोगों तक पहुँचते हैं, अतः इस दिशा में सदैव प्रयत्नरत रहना ही होगा ताकि लोग सोचें और एक आम सहमति मिल सके. आरक्षण जैसे मुद्दे पर हर एक को विचार करना होगा ताकि देश को सही दिशा में आगे बढ़ने में सहूलियत हो. आपकी प्रेरक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार.
Blogger सीमा स्मृति said...
जेन्नी जी मैंने आपके द्वारा लिखा आलेख-"गैर- बराबरी बढ़ाता आरक्षण" पढ़ा | मैं आपके विचारों से पूर्णत: सहमत हूँ। आरक्षण वास्तव में केवल स्कूल के स्तर पर ही होना चाहिए। हाल ही मैंने देखा कि एक मित्र की बेटी ने स्कूल के स्तर पर
आरक्षण प्राप्त किया ।उसके तुरन्त पश्चात वो अमेरिका पढ़ने चली गई । जहाँं उसने डाक्टरेट की डिग्री प्राप्त की है। वहाँ तो कोई आरक्षण नहीं बच्चे के हुनर मेहनत और सार्मथ्य ने उसे सब दिया। यहाँ आरक्षण की आग में हम सभी बच्चों के
भविष्य को जलाने और सुलगाने का काम कर रहे हैं। हम सभी समाज को आपस में बाँटने वाली नराकात्मक शक्तियों को पहचानें और उन्हे पनपने ना दें।
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सीमा जी,
बिल्कुल सही कहा कि आरक्षण स्कूल के स्तर तक ही होना चाहिए. उसके बाद जिसमें भी काबिलियत होगी वो खुद ही अपने मुकाम तक पहुँचेगा. आरक्षण की आग न सिर्फ बच्चों के भविष्य को जला रही है बल्कि हर लोगों के मन में नफ़रत सुलगा रही है.
आपकी प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद.
Rakesh Kumar said...
उपयुक्त पात्र ही उपयुक्त स्थान ग्रहण करे। समान अवसर, सुविधा और वातवरण मिलने पर ही हर नागरिक समान हो पाएगा। देश के हर नागरिक के लिए समान क़ानून, समान न्याय, समान शिक्षा, समान सुविधा और समान कर्त्तव्य का होना आवश्यक है। एक मात्र आर्थिक आधार ही आरक्षण का उचित आधार है और होना चाहिए।
bahut hi vicharniy vishya hai
sundar avm gambheer prastuti
aabhaar
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मेरे विचारों को आपका समर्थन मिला, आभारी हूँ राकेश जी.
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