Wednesday, October 2, 2019

68. इतना मैं गांधी को जानती हूँ

आज महात्मा गाँधी की 150वीं जयन्ती है आज फिर से वह गीत याद आ रहा है जिसे सुन-सुनकर मैं बड़ी हुई हूँ। ''सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी, वो बापू जो पूज्य है इतना जितना गंगा माँ का पानी...।'' मोहम्मद रफ़ी साहब द्वारा गाया और राजेन्द्र कृष्ण द्वारा लिखा हुआ यह गीत मेरे कानों में गूँजता रहता है। इस गाने के साथ मेरा बचपन जुड़ा हुआ हैमेरे पिता यह गाना रिकॉर्ड प्लेयर पर हमेशा बजाते थे। इतना ज़्यादा कि इसके बोल याद हो गए मुझे। अक्सर सोचती हूँ काश! मेरा जन्म आज़ादी के आन्दोलन से पहले हुआ होता, तो मैं अवश्य ही बापू के साथ जुड़ जाती। बापू मेरे हृदय में बसे हुए हैं, क्योंकि मेरे पिता गांधीवादी विचार के थे और उसी परिवेश में पली-बढ़ी होने के कारण ख़ुद को उनके बहुत क़रीब पाती हूँ। हालाँकि तमाम कोशिशों के बावजूद अपने पिता या बापू की जीवन शैली मैं अपना न सकी, इसका मुझे हमेशा अफ़सोस रहेगा। 
मेरे पिता
अक्सर सोचती हूँ कि बापू सच में कैसे दिखते होंगे? वे कैसे रहते होंगे? उनके सोच-विचार ऐसे कैसे हुए होंगे? जबकि वे भी तो आम भारतीय ही थे। काश! मैं सच में एक बार बापू को देख पाती। यों बचपन में प्रोजेक्टर पर गांधी जी को देखती थी। न जाने क्यों सदैव उनकी तरफ़ एक खिंचाव-सा महसूस होता रहा। शायद पिता के जीवन यापन का तरीक़ा मेरे सोच पर प्रभावी हुआ होगा। उम्र और ज़रूरत ने मेरी सोच को अपना न रहने दिया। बापू को अपने जीवन में उतार न सकी, इसका दुःख अक्सर सालता है। बापू को पूर्णतः अपनाने के लिए एक साहस चाहिए, जो मुझमें नहीं है। यह ज़रूर है कि मेरे मस्तिष्क में एक क्षीण काया का वह वृद्ध व्यक्ति अक्सर मेरे साथ होता है और मुझे क़दम-क़दम पर टोकता है, जिसने दिश को आज़ादी दिलाई।  
तारा जी और मैं
तारा गाँधी भट्टाचार्या और मैं

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
पिछले वर्ष मैं एक पुस्तक विमोचन में गई। वहाँ एक बुज़ुर्ग महिला आईं, जो शुद्ध खादी के वस्त्रों में थीं और सबसे अलग दिख रही थीं। जिज्ञासा हुई जानने की कि वे कौन हैं किसी परिचित से पता चला कि वे तारा गांधी भट्टाचार्या हैं, महात्मा गांधी के सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी की पुत्री। उनको देखकर मेरा मन इतना रोमांचित हुआ कि जाकर उनसे बात किए बिना रह न सकी। बहुत सरल हृदय की हैं वे। उन्होंने कहा कि जब चाहो घर पर आओ। सन 2014 में मैंने अपने पिता की पुस्तक 'सर्वोदया ऑफ़ गाँधी' (Sarvodaya of Gandhi) का पुनर्प्रकाशन करवाया था। उस पुस्तक के विमोचन में तारा जी के आने की बात हुई थी, परन्तु अस्वस्थ होने के कारण वे नहीं आ सकी थीं। मैंने यह बताया, तो सुनकर वे बहुत ख़ुश हुईं। उनसे मिलकर मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि लगा मानो बापू से न मिल सकी, परन्तु उनके अंश से तो मिल ली। बापू के बारे में सोचकर मन एक अजीब से रोमांच से भर जाता है।
   
मेरे पिता की पुस्तक
मेरे पिता की पुस्तक
महात्मा गाँधी की जीवन शैली और उनके द्वारा किए गए सत्य के प्रयोग के कारण उनकी काफ़ी आलोचना होती है। यों मैं गांधीवाद को जितना जान पाई हूँ अपने पिता के जीवन से जाना है। लेकिन इस बात को लेकर विश्वास रखती हूँ कि गांधीवाद न सिर्फ़ आज की ज़रूरत है; बल्कि समाज के सकारात्मक उत्थान के लिए आवश्यक है। आज समाज में भ्रष्टाचार, द्वेष, हिंसा, दुराचार, असहनशीलता, अकर्मण्यता, दुराभाव, बलात्कार, मॉब लिंचिंग इत्यादि बढ़ते जा रहे है। इस स्थिति में न सरकार प्रभावी हो पा रही है, न सामजिक संस्थाएँ कुछ कर पा रही हैं। ऐसे में सभी समस्याओं का समाधान गांधीवाद को केन्द्र में रखकर निकाला जा सकता है। यह ज़रूरी है कि न केवल आम जनता बल्कि सत्ता और नौकरशाही भी गांधी को जानें, समझें और आत्मसात करें। वैसे बचपन से सभी को स्कूल में अच्छी शिक्षा दी जाती है, लेकिन कुछ तो कमी है जिससे समाज ऐसा होता चला जा रहा है। जीवन शैली और शिक्षा पद्धति में बड़े बदलाव की सख़्त ज़रूरत  है।
   
बापू के जीवन के सिद्धांत या नियम इतने सहज, सरल और मानवीय हैं कि अगर कोई मन से चाहे तो अवश्य अपना सकता है। एक सुसभ्य, सम्मानित और आत्मनिर्भर व्यक्ति तथा समाज के निर्माण के लिए बापू की जीवन शैली अपनाना ही एकमात्र तरीक़ा है। हमारा राष्ट्र अगर बापू के विचार का कुछ अंश भी हमारे क़ायदे-कानून में शामिल कर दे, तो निःसंदेह एक सुन्दर समाज की कल्पना साकार हो सकती है। बापू के विचार समाज में समूल परिवर्तन कर एक आदर्श स्थिति को लाने में बेहद कारगार हो सकते हैं, जैसे कि आज़ादी की लड़ाई में गांधी जी ने किया था।   

आज गांधी जी की जयन्ती पर सरकार और समाज से यही उम्मीद है कि गांधी को पढ़ें, समझें, फिर अपनाएँ! बापू को सादर प्रणाम!   

महात्मा गांधी एवं लाल बहादुर शास्त्री जी को उनकी जयन्ती पर हार्दिक नमन!   

-जेन्नी शबनम (2.10.2019)   
(महात्मा गाँधी की 150वीं जयन्ती पर)
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Saturday, August 31, 2019

67. 100वाँ जन्मदिन मुबारक हो माझा

जन्मदिन मुबारक हो माझा! सौ साल की हो गई तुम, मेरी माझा। गर्म चाय की दो प्याली लिए हुए इमा अपनी माझा को जन्मदिन की बधाई दे रहे हैं माझा कुछ नहीं कहती, बस मुस्कुरा देती है इमा-माझा का प्यार शब्दों का मोहताज कभी रहा ही नहीं चाय धीरे-धीरे ठण्डी हो रही है माझा अपने कमरे में नज़्म लिख रही है और इमा अपने कमरे में रंगों से स्त्री का चित्र बना रहे हैं; स्त्री के चेहरे से सूरज का तेज पिघल रहा है। बहुत धीमी आवाज़ आती है- इमा-इमा इमा दौड़े आते हैं और पूछते हैं- तुमने चाय क्यों नहीं पी माझा? अच्छा अब उठो और चाय पीयो, देखो ठण्डी हो गई है तुम्हें रोज़ रात को चाय पीने की तलब होती है, मुझे मालूम है, तभी तो रोज़ रात को एक बजे तुम्हारे लिए चाय बना लाता हूँ इमा धीरे-धीरे दोनों प्याली पी जाते हैं, मानों एक प्याली माझा ने पी ली फिर माझा को प्यार से सुलाकर अपने कमरे में चले जाते हैं, रंगों की दुनिया में जीवन बिखेरने। 
हाँ! इमा वही इमरोज़ हैं जिनके प्रेम में पड़ी अमृता की नज़्मों को पढ़-पढ़कर एक पीढ़ी बूढ़ी होने को आई है माझा वह नाम है जिसे बड़े प्यार से उन्होंने अमृता को दिया है अमृता-इमरोज़ ने समाज के नियम व क़ायदे के ख़िलाफ़ जाकर सुकून की दुनिया बसाई। वे एक मकान में आजीवन साथ रहे, लेकिन कभी एक कमरे में न रहे। दोनों अपने-अपने काम मे मशगूल, कभी किसी की राह में अड़चन पैदा न की आपसी समझदारी की मिसाल रही यह जोड़ी; हालाँकि प्यार में समझदारी की बात लोग नहीं मानते हैंदोनों ने कभी प्यार का इज़हार न किया, लेकिन दोनों एक दूसरे के प्यार में इतने डूबे रहे कि कभी एक दूसरे को अलग माना ही नहीं अब भी इमरोज़ के लिया अमृता जीवित हैं और कमरे में बैठी नज़्में लिखती हैं अब भी वे रोज़ दो कप चाय बनाते हैं और अमृता के लिए रखते हैं चाय के प्यालों में आज भी मचलता है अमृता-इमरोज़ का प्यार।   
इमरोज़ अमृता से शिकायत करते हैं- ''अब तुम अपना ध्यान नहीं रखती हो माझा मैं तो हूँ नहीं वहाँ, जो तुम्हारा ख़याल रखूँगा'' माझा मुस्कुरा देती है, कहती है- एक आख़िरी नज़्म सुन लो इमा, मेरी आख़िरी नज़्म जो सिर्फ़ तुम्हारे लिए-   

मैं तुम्हें फिर मिलूँगी 
कहाँ कैसे पता नहीं  
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे कैनवस पर उतरूँगी
या तेरे कैनवस पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बनकर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठकर
तेरे कैनवस पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रुर मिलूँगी...   

बीच में ही टोक देते हैं इमरोज़ आह! मैं जानता हूँ मेरी माझा, तुम अपनी नज़्मों में मुझे जीवित रखोगी और मैं अपने जीवन के पल-पल में तुम्हें सँभाले रखूँगा तुम गई ही कहाँ हो; जो मुझसे मिलोगी तुम मेरे साथ हो हाँ, अब हौज़ ख़ास का वह मकान न रहा जहाँ हमारी सभी निशानियाँ थीं, वक़्त ने वह छीन लिया मुझसे तुम भी तो नहीं थी उस वक़्त, जो ऐसा होने से रोकती पर यह मकान भी अच्छा है तुम्हारे पसन्द का सफ़ेद रंग यहाँ भी है परदे का रंग देखो, कैसे बदलता है, जैसा तुम्हारा मन चाहे उस रंग में परदे का रंग बदल दो इस मकान में मैं तुम्हें ले आया हूँ और अपनी हर निशानी को भी अपने दिल में बसा लिया हूँ जानता हूँ तुम्हारी परवाह किसी को नहीं, अन्यथा आज हम अपने उसी घर में रहते, जिसे हमने प्यार से सजाया था हर एक कोने में सिर्फ़ तुम थी माझा, फिर भी किसी ने मेरा दर्द नहीं समझा हमारा घर हमसे छिन गया माझा अब तो ग्रेटर कैलाश के घर में भी कम ही रहता हूँ, जहाँ बच्चे कहें, वहाँ ही रहता हूँ पर तुम तो मेरे साथ हो मेरी माझा अमृता हँसते हुए कहती है- इमा, मेरे पूरी नज़्म पढ़ लेना 
मैं और इमरोज़ जी
बहुत अफ़सोस होता है, इतनी कोशिशों के बाद भी अमृता-इमरोज़ के प्रेम की निशानी का वह घर बच न सका हर एक ईंट के गिराए जाने के साथ-साथ टुकड़े-टुकड़े होकर अमृता-इमरोज़ का दिल भी टूटा होगा किसी ने परवाह न की काश! आज वह घर होता तो वहाँ अमृता का 100वाँ जन्मदिन मनाने वालों की भीड़ होती छत पर पक्षियों की टोली जिसे हर दिन शाम को इमरोज़ दाना-पानी देते हैं, की चहकन होती और अमृता के लिए मीठी धुन में जन्मदिन का गीत गाती घंटी बजने पर सफ़ेद कुर्ता-पायजामा में इमरोज़ आते और मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोलते और गले लगकर हालचाल लेते फिर ख़ुद चाय बनाते और हमें पिलाते अमृता की ढेर सारी बातें करते अमृता का कमरा जहाँ वह अब भी नज़्में लिखती हैं, दिखाते इमरोज़ को घड़ी पसन्द नहीं, इसलिए वक़्त को वे अपने हिसाब से देखते हैं हाँ, वक़्त ने नाइंसाफी की और अमृता को ले गया काश! आज अमृता होतीं तो उनकी 100वीं वर्षगाँठ पर इमरोज़ की लिखी नज़्म अमृता से सुनती बहुत-बहुत मुबारक हो जन्मदिन अमृता-इमरोज़!  
मैं और इमरोज़ जी
- जेन्नी शबनम (31.8.2019)
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Thursday, August 1, 2019

66. जीवन का आनन्द

आनन्द
रविवार का दिन! अलसाया सा मन! मौसम बहुत सुहावना है। रात ख़ूब बारिश हुई थी और अभी भी हल्की-हल्की फुहारें पड़ रही हैं। हम सुस्ती से उठकर चाय पी ही रहे थे कि अचानक ख़याल आया- क्यों न इस मौसम का आनन्द लेने हम लॉन्ग-ड्राइव पर चलें। लाल रंग की मारुति 800 से निकल पड़े हम, बिना पूर्व कार्यक्रम की रूपरेखा बनाए। कहाँ जाना है नहीं मालूम, पर बतकही करते हुए चले जा रहे हैं। हल्की भूख लगी तो झालमुढ़ी ख़रीदकर काग़ज़ के ठोंगे से निकाल-निकालकर खा लिया। प्यास लगी तो सड़क किनारे किसी चापाकल पर अँजुरी से ठण्डा-ठण्डा पानी पी लिया। चाय की तलब लगी तो किसी चाय की टपरी पर कुल्हड़ में सुड़क-सुड़ककर इलायची वाली चाय पी ली। स्टीरियो पर कोई मधुर गीत बज रहा है और साथ में हम गुनगुना रहे हैं कभी कोई मज़ाक या कोई मज़ेदार चुटकुला। ज़ोर की भूख लगी तो किसी सस्ते से ढाबे पर रोटी, तरकारी, दही खा लिया। कोई फ़िक्र नहीं कि लोग क्या सोचेंगे, जो मन को भाया वह कर रहे हैं। क्या मस्त दिन और ज़िन्दगी का मज़ा! कितना सुन्दर और सुखद है न! और इसपर बारिश तेज़ हो जाए। अहा! सोने में सुगन्ध! 
बरसात

पानी
 
 
अब भी याद है बचपन की वह झमाझम बारिश। ख़ूब जीभरकर बारिश में नहाना और पेड़-पौधों को दुलराना। घर के सभी बर्तनों में बारिश का पानी भरकर रखना। छत को ख़ूब रगड़-रगड़कर धोना। छत की नाली को बंदकर एक छोटा तरणताल का रूप देकर उसमें छप-छप कूदना और काग़ज़ की नाव बनाकर उसे तैराना। अँजुरी से पानी उलीच-उलीचकर घर के सभी लोगों को भिगो देना। घंटो कैसे निकल जाते, पता ही नहीं चलता था। सड़क पर लोगों का बारिश से बचने के लिए क्या-क्या जतन करते हुए देखना मन को बहुत भाता था। रिक्शावाला ख़ुद भीगकर सवारी को प्लास्टिक में छुपाए हुए है; लेकिन बारिश है कि अपने बौछारों से प्लास्टिक को उड़ा दे रही है। साइकिल-सवार तेज़ी से भाग रहा है और बग़ल से गुज़रने वाली गाड़ी के छींटे से कीचड़ में सन गया है। छोटे-छोटे बच्चे बारिश में उछल-कूद कर रहे हैं और उनकी माताएँ ग़ुस्सा हो रही हैं कि ज़्यादा भीगने से वे बीमार होंगे। चिड़िया बारिश से छुपने के लिए ओसारे में छुप गई है और चीं-चीं कर अपने साथियों को छिपने के लिए बुला रही है। सब कुछ बहुत सुहावना होता था।  
मज़ा
मस्ती


 
 
ऐसा दिन भी होता था कभी, जब हम बेफ़िक्र होते थे। न कोई डर, न किसी से रंजिश। जीवन बस जीवन - चहकना, महकना और खिलखिलाना। धीरे-धीरे समय को तेज़ी का रोग लग गया। अब वह ठहरता ही नहीं; न अपने लिए, न किसी अपनों के लिए। समय के पीछे हम सभी बेतहाशा भाग रहे हैं। यह सब बेसबब नहीं; लेकिन वक़्त की कसौटी ने ऐसे ही परखने का मन बना लिया है। हम भाग रहे हैं, बस भाग रहे हैं। न समय ठहरता है, न मन, न मानव। ठहर गए, तो हार गए। भले इसके लिए सुकून को तिलांजली दे दी गई। बस एक ही धुन कि सबसे आगे हम। आख़िर कब तक? जब समझ आया कि जीवनभर हम भागते रहे, ख़ुद को ख़र्च करते रहे और हाथ आया तो बस मलाल तब सोचते, काश! थोड़ा थमकर थोड़ा जीकर जीवन का लुत्फ़ उठाए होते
पड़ाव

सफ़र
ज़िन्दगी

उत्सव
अक्सर सोचती हूँ कितना छोटा और सीमित होता है जीवन। सभी को काल कवलित होना ही है। फिर क्यों है इतना त्राहिमाम्? जन्म के बाद से ही ख़ुद को साबित करने के लिए भेड़चाल में घुसना पड़ता है। कैसे सबसे आगे आया जाए। कितनी सुख-सुविधा जुटाई जाए। राह चलें, तो दस लोग बोले कि देखो वह कोई ख़ास जा रहा है। अमीरी दिखाने के लिए बड़ी और महँगी गाड़ियाँ, विशाल कोठी, ब्रांडेड कम्पनी के वस्त्र, ज़बरदस्ती का रुआब। विशिष्ठ वर्ग का दिखने और उस जीवन-स्तर को बनाए रखने में आदमी सामान्य जीवन जी नहीं पाता है। धीरे-धीरे मनुष्य इतना दम्भी होता जा रहा है कि जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियों का आनन्द नहीं ले पाता है। आदमी ने ख़ुशी और आनन्द को तवज्जोह न देकर शोहरत-दौलत को दिया। ख़ूब कमाया और शान से लुटाया। पर अंत समय में सब कुछ हाथ से फिसल जाता है। परहेज़ी-खाना, नियमित रूटीन, दवा, डॉक्टर और घरवालों पर बोझ। जिनके लिए जीवनभर कमाया और जीवन गँवाया, वे भी अब दूर भागते हैं। यही जीवन का वर्तमान परिदृश्य और यही जीवन का सत्य!  

जीवन की अन्तिम यात्रा - बनारस
आज चारों तरफ़ कोहराम मचा है। आपाधापी के इस माहौल में हर आदमी दूसरे को गिराकर ख़ुद ऊपर उठना चाहता है। ईर्ष्या-द्वेष ने हर आदमी के मन में घर बसा लिया है। सभी एक दूसरे को सन्देह से देखते हैं। ज़रा-ज़रा-सी बात पर आपा खो देते हैं। दूसरों के विचारों को सम्मान देना तो अब ऐसा लगता है जैसे यह हमारी परम्परा का हिस्सा ही नहीं रह गया है। स्त्री और बच्चे बहुत ज़्यादा असुरक्षित हो चुके हैं। आज हर लोग डरे हुए हैं कि कब हमारे साथ क्या हो जाए। छोटी-छोटी बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं। ऐसी-ऐसी हिंसक घटनाएँ हो रही हैं कि मन विचलित हो जाता है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हम सभी ख़ुद को बेबस महसूस करते हैं। कैसे इन सबसे नजात पाया जाए? 
दुःख व आँसू
जहाँ तक मैं सोचती हूँ कि मनुष्य की मनोवृत्ति को सुधारा जाएगा, तभी उसकी प्रवृत्ति सुधरेगी और समाज में समुचित बदलाव हो सकता है। इस बदलाव की शुरुआत निःसन्देह घर और स्कूल से ही सम्भव है। हालाँकि इस दिशा में स्वयंसेवी संस्थाएँ एवं समाज-सुधारक प्रयासरत हैं। फिर भी हम असफल हो रहे हैं और समाज में नफ़रत का वातवरण बढ़ता जा रहा है। हर माता-पिता और स्कूल अपने बच्चों को प्रेम व सम्मान देने का बीजारोपण बचपन से करें, तो मुमकिन है कि बदलाव को एक नई दिशा मिलेगी। हर माता-पिता निःसंकोच मनोविश्लेषक से मिलकर बच्चे की मनोवृत्ति का पता करें और उनके निर्देशों का पालन करें। हर सरकारी अस्पतालों में मनोविश्लेषण का विभाग होना चाहिए; जैसे बच्चों का टीकाकरण अनिवार्य होता है, वैसे ही यह भी अनिवार्य होना चाहिए।  
 
उमंग

उत्साह
प्रकृति द्वारा प्रदत्त और हमारे द्वारा सृजित समस्त वस्तुएँ प्रकृति की अक्षुण्ण सम्पदा हैं। सूर्य, हवा, पानी, जंगल, ज़मीन, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और भी बहुत कुछ हमें प्रकृति ने दिया है। प्रकृति ने जीभरकर हमें दिया है; लेकिन हम हैं कि प्रकृति और जीवन का अपमान करते हैं। जबकि जीवन कितना ख़ूबसूरत है। अलौकिक है। खुश रहना, आनन्दित रहना, दूसरों को सुख देना हमारी आन्तरिक सम्पत्ति है यह ऐसी सम्पदा है, जिसे हम छू नही सकते, बल्कि एहसास कर सकते हैं। सबसे बड़ी ख़ूबी जो हम मानव को प्रकृति ने दी है, वह है हमारा मस्तिष्क एवं सोचने, समझने और महसूस करने की शक्ति। तो क्यों नहीं हम प्रकृति के इस तोहफ़े का आनन्द उठाएँ? जब जागो तभी सवेरा। उठो और निकल पड़ो प्रेम पाने और प्रेम लुटाने, ख़ुशियाँ बटोरने और ख़ुशियाँ पसारने। इंसानी जीवन बहुत नेमत से मिलता है, इसे बहुत सोच-समझकर आनन्द के साथ ख़र्च करना चाहिए; ताकि अंत समय में हम ख़ाली हाथ न रहें, बल्कि प्रेम और आनन्द की पुड़िया हमारी मुट्ठी में बंद हो, जब हमारी आँखें बंद हों।  
प्रफुल्लित

- जेन्नी शबनम (1.8.2019)
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Tuesday, April 2, 2019

65. जेनरेशन गैप

"रोज़-रोज़ क्या बात करनी है, हर दिन वही बात- खाना खाया, क्या खाया, दूध पी लिया करो, फल खा लिया करो, टाइम से वापस आ जाया करो।" आवाज़ में झुंझलाहट थी और फ़ोन कट गया। 

वह हतप्रभ रह गई। इसमें ग़ुस्सा होने की क्या बात थी। आख़िर माँ हूँ, फ़िक्र तो होती है न! हो सकता है पढ़ाई का बोझ ज़्यादा होगा। मन-ही-मन में बोलकर ख़ुद को सांत्वना देती हुई रंजू रजाई में सिर घुसाकर अपने आँसुओं को छुपाने लगी। यों उससे पूछता भी कौन कि आँखें भरी हुई क्यों हैं, किसने कब क्यों मन को दुखाया है। सब अपनी-अपनी ज़िन्दगी में मस्त हैं। 

दूसरे दिन फ़ोन न आया। मन में बेचैनी हो रही थी। दो बार तो फ़ोन पर नम्बर डायल भी किया, फिर कल वाली बात याद आ गई और रंजू ने फ़ोन रख दिया। सारा दिन मन में अजीब-अजीब-से ख़याल आते रहे। दो दिन बाद फ़ोन की घंटी बजी। पहली ही घंटी पर फ़ोन उठा लिया। उधर से आवाज़ आई "माँ, तुमको खाना के अलावा कोई बात नहीं रहता है करने को। हमेशा खाना की बात क्यों करती हो? तुम्हारे कहने से तो फल-दूध नहीं खा लेंगे। जब जो मन करेगा वही खाएँगे। जब काम हो जाएगा लौटेंगे। तुम बेवज़ह परेशान रहती हो। सच में तुम बूढ़ी हो गई हो। बेवज़ह दख़ल देती हो। ख़ाली रहती हो, जाओ दोस्तों से मिलो, घर से बाहर निकलो। सिनेमा देखो बाज़ार जाओ।"

रंजू को कुछ भी कहते न बन रहा था। फिर भी कहा- "अच्छा चलो, खाना नहीं पूछेंगे। पढ़ाई कैसी चल रही है? तबीयत ठीक है न?"
"ओह माँ! हम पढ़ने ही तो आए हैं। हमको पता है कि पढ़ना है और जब तबीयत ख़राब होगी, हम बता देंगे न।"

रंजू समझ गई कि अब बात करने को कुछ नहीं बचा है। उसने कहा "ठीक है, फ़ोन रखती हूँ। अपना ख़याल रखना।" उधर से जवाब का इन्तिज़ार न कर फोन काट दिया रंजू ने। सच है, आज के समय के साथ वह चल न सकी थी। शायद यही आज के समय का जेनरेशन गैप है। यों जेनरेशन गैप तो हर जेनरेशन में होता है; परन्तु उसके ज़माने में जिसे फ़िक्र कहते थे आज के ज़माने में दख़लअंदाजी कहते हैं। फ़िक्र व जेनरेशन गैप भी समझ गई है अब वह। 

- जेन्नी शबनम (2.4.2019)
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Friday, March 8, 2019

64. तावीज़

3x6 के बिस्तर पर लेटी धीमी गति से चलते पंखे को देख निशा सोच रही है कि ऐसे ही चक्कर काटती रही वह तमाम उम्र, कभी बच्चों के पीछे कभी ज़िम्मेदारियों के पीछे। पर अब क्या करे? इस उम्र में कहाँ जाए? सारी डिग्रियाँ धरी रह गईं। वह कुछ न कर सकी। अब कौन देगा नौकरी? रोज़ अख़बार में विज्ञापन देखती है, पर इस उम्र की स्त्री के लिए तो सारे रास्ते बंद हो चुके हैं। 

यों घर में कोई कमी नहीं, परन्तु अपना भी तो कुछ नहीं है निशा का। निर्भरता का चुनाव उसने ख़ुद ही तो किया था। बच्चे या नौकरी? और हर बार वह बच्चों को ही अहमियत देती आई थी। प्रेमल ने कभी कहा नहीं कि वह नौकरी न करे, परन्तु कभी सहयोग भी तो न दिया। चाहे बच्चों के स्कूल जाना हो या बच्चों की बीमारी। घर में एक बल्ब बदलना हो चाहे घर के लिए कोई ख़रीददारी। एक-एककर सारी जवाबदेही निशा ने अपने हिस्से में ले ली और पहन ली चुप रहने की कोई तावीज़। हमेशा चहकने वाली निशा अब चुप रहती है। धीरे-धीरे उसका अवसाद बढ़ता गया और अवसाद से उबरने के लिए नींद की गोलियों की ख़ुराक भी बढ़ती गई। 

न जाने प्रेमल कभी ख़ुश क्यों नहीं होता? क्या चाहता है वह? वह हर रोज़ निशा को ताने देता है कि वह हर क्षेत्र में असफल है, संस्कारहीनता के कारण न घर ठीक से सँभाल सकी, न बच्चों को संस्कार दिया, और न ही कभी उसके मनोकूल बन पाई है। वह हमेशा कहता है कि अधूरे परिवार की लड़की से कभी विवाह नहीं करनी चाहिए। ऐसी लड़की परिवार की अहमियत नहीं समझती है। पर निशा क्या करे? जानता तो था प्रेमल कि निशा के पापा बचपन में ही गुज़र चुके हैं। 

निशा समझ ही नहीं पाती कि घर और बच्चों को सँवारने में उससे कहाँ कमी रह गई? बच्चे अपने पसन्द का जीवन चाहते हैं। बच्चों को पिता का आज्ञाकारी नहीं बना पाई। बच्चे अपनी-अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त हैं, उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उनकी माँ की मनोदशा क्या है; जिसने अपनी पूरी ज़िन्दगी उनपर ख़र्च कर दी। घर, समाज, ज़िन्दगी सभी में निशा असफल हो गई है। वह धीरे-धीरे ख़ुद को ज़िम्मेदार मानने लगी है और अपराधबोध से घिर गई है। 7x9 के कमरे में 3x6 का बिस्तर एकमात्र निशा का घर है, जहाँ वह अपने साथ अकेली ज़िन्दगी जीती है। कभी वह सपने सजाती है, तो कभी पलायन के रास्ते ढूँढती है।     

कहीं कोई उपाय नहीं दिखता क्या करे? जिस मकान को घर बनाने में निशा ने अपने जीवन की परवाह न की, वह घर उसका अपना कभी था ही नहीं। न जाने कितनी बार बेदख़ल की गई, पर हर बार बेशर्मी से वह वहीं टिकी रहती है। चुप की तावीज़ अब भी निशा ने पहन रखी है। किससे कहे अपनी बात? अब कहाँ जाए इस उम्र में? 

एक ही राह बची है जिससे मुक्ति सम्भव है, यह पंखा। हाँ-हाँ! यही उत्तम है। यों भी उसके होने न होने से किसे फ़र्क़ पड़ने वाला है। पर? ओह! बच्चों को लोग ताना देंगे कि उनकी माँ ने ख़ुदकुशी कर ली, जाने क्या कारण था, कहीं चरित्रहीन... शायद इसीलिए पति अक्सर उसे घर से निकालने की धमकी देता था। जिन बच्चों के लिए जीती आई, उनके लिए अपमानों का अम्बार कैसे छोड़ सकती है। नहीं! नहीं! यह ग़लत होगा! कर्त्तव्यों से बँधी वह आज फिर नींद की गोलियों की ज़्यादा ख़ुराक लेकर सो गई। कल सुबह का स्वागत मुस्कुराते हुए जो करना है।   

- जेन्नी शबनम (8.3.2019)
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Tuesday, February 19, 2019

63. पटरियों पर दौड़ती सपनों की रेल


अमृतसर जाने की ख़्वाहिश मुझे बचपन से थी। मेरे माता-पिता और भाई वहाँ जा चुके थे, सिर्फ़ मैं न जा सकी थी स्वर्ण मन्दिर और जलियाँवाला बाग़ के बारे में बचपन से सुनती और तस्वीर देखती आ रही थी वाघा बॉर्डर पर सैनिकों का परेड देखने की भी मेरी दिली तमन्ना थी दिल्ली में रहते हुए 19 साल हो गए, लेकिन कभी जाना न हो सका मेरे पति के एक क़रीबी मित्र जो रेलवे में कार्यरत हैं और उन दिनों दिल्ली में पदस्थापित थे, उनसे मैंने अमृतसर जाने की इच्छा जतलाई वे रेलवे के कार्य से अमृतसर जाते रहते हैं, तो उन्होंने कहा कि जब भी वे जाएँगे तो हमलोगों को साथ ले चलेंगे
19 फ़रवरी 2010 की रात में हमलोग निज़ामुद्दीन स्टेशन पहुँचे, जहाँ से हमलोगों को सैलून में चढ़ना था और अमृतसर जाने वाली गाड़ी में उसे जोड़ दिया जाना था सैलून में एक छोटी रसोई और खाना बनाने के लिए रसोइया था, फिर भी हमलोगों ने हल्दीराम से खाना ले लिया पहली बार सैलून में चढ़ना था इसलिए बहुत उत्साह था; क्योंकि मेरी माँ काफ़ी पहले सैलून में सफ़र कर चुकी हैं, तो ख़ूब सुना है सैलून के बारे में एक मज़ेदार घटना यह हुई कि स्टेशन पर मेरा चप्पल टूट गया मित्र ने अपने किसी आदमी से भेजकर मेरा चप्पल ठीक कराया, लेकिन जैसे ही मैं ट्रेन में चढ़ी कि फिर टूट गया मैंने हल्दीराम के झोले जिसमें खाना आया था, की रस्सी खोलकर चप्पल को इस तरह बाँधा कि सुबह अमृतसर पहुँचकर दूकान तक जा सकूँ
सैलून में ए.सी. लगा हुआ दो सोने का कमरा, जिसके साथ लगे बाथरूम में गीज़र भी था। ड्राइंग रूम और उसमें ही डाइनिंग टेबल, सिटिंग रूम जहाँ ऑफ़िस का काम किया जा सके, रसोईघर, साथ चलने वाले कर्मचारियों के लिए अलग से सोने के लिए बेड तथा बाथरूम आधा घंटा तो हमलोग भीतर ही घूमते रहे और फोटो लेते रहे कि पता नहीं फिर कभी सैलून में चढ़ें या नहीं सुबह उठने पर ट्रेन में नहाने का लोभ संवरण नहीं हुआ मैंने जीभरकर नहाया ट्रेन में नहाने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी, पर यहाँ तो ट्रेन नहीं बल्कि हिलता-डुलता हुआ घर लग लग रहा था सैलून में सबसे पीछे कुर्सी-टेबल लगा था, जहाँ अधिकारी ऑफ़िस का काम करते हैंवहाँ सुबह-सुबह बैठकर चाय पीते हुए पीछे छूटती रेलवे लाइन को देखना और धूप का आनन्द लेना बड़ा अच्छा लगा सुबह का चाय-नाश्ता सैलून की रसोई में बना, साथ ही किसी स्टेशन से आलू का पराठा, दही और अचार भी नाश्ते के लिए आया 
अमृतसर में ट्रेन से सैलून को निकालकर साइड ट्रैक में खड़ा कर दिया गया हमारे मित्र अपने ऑफ़िस का काम निपटाने लगे और हमलोग आराम से तैयार होते रहे, क्योंकि सैलून की सवारी का यह पहला मौक़ा था और जितना ज़्यादा हो सके हम इसका आनन्द लेना चाहते थे सैलून के हर कोने की तस्वीर हमलोगों ने ली, साथ ही उसके इंजन पर चढ़कर भी फोटो लिया






 
 
 
हमारे मित्र ने वहाँ गाड़ी का इन्तिज़ाम किया था, जो सीधे प्लेटफार्म जहाँ सैलून को रखा गया था, तक आ गई हम लोग सबसे पहले बाटा के दूकान गए जहाँ से मैंने एक चप्पल लिया और टूटे हुए चप्पल को अमृतसर के उस दूकान के हवाले कर दिया, वहाँ की मिट्टी में मिल जाने के लिए; शायद उसका अन्तिम संस्कार वहीं होना था फिर हमलोग स्वर्ण-मन्दिर पहुँचे, जहाँ मित्र के परिचितों ने दर्शन कराने का सारा इन्तिज़ाम कर रखा था, ताकि लम्बी पंक्ति में न लगना पड़े सहज ही दर्शन हो गया प्रसाद के रूप में गेरुआ रंग का एक-एक कपड़ा सभी को मिला, बाद में हलवा भी मिलाफिर वहाँ के लंगर में पंक्तिबद्ध बैठकर हमने रोटी-दाल खाई वहाँ से हमलोग जलियाँवाला बाग़ देखने गए। 
 

जलियाँवाला बाग़ का नाम सुनते ही जैसे सिहरन-सी महसूस होती है इतने बड़े नरसंहार की कल्पना से रोंगटे खड़े हो जाते हैं गोलियों से बने सुराख़ के निशान दीवारों में दिख रहे थे वह कुआँ भी देखा, जिसमें जान बचाने के लिए लोग कूद गए थे जिस जगह के लिए अब तक सुना था, आँखों से देख रही थी, लेकिन स्मृतियों में उस समय के हालात थे, जिससे मन बहुत व्याकुल होने लगा।  

अब हम लोग वाघा बॉर्डर जा रहे थे मन में एक अजीब-सी हलचल थी, पकिस्तान को इतने नज़दीक से देखने की फ़िल्म 'वीर ज़ारा' के दृश्य आँखों में घूम रहे थे वाघा बॉर्डर से पहले किसी सैनिक कैंप में हमलोगों के लिए चाय-नाश्ते का प्रबन्ध था वहाँ से हमलोगों को वाघा बॉर्डर ले जाया गयादर्शक दीर्घा में बहुत अच्छी जगह बैठने का इन्तिज़ाम था, जिससे सामने होने वाले कार्यक्रम को ठीक से देखा जा सके बहुत ज़्यादा भीड़ थी पता चला कि दोनों तरफ़ हर रोज़ परेड देखने स्थानीय लोगों और पर्यटकों की ऐसी ही भीड़ होती है उस दिन के आयोजन में सम्मिलित होने भारत के तात्कालीन गृहमंत्री श्री पी. चिदंबरम आए थे अपने नियत समय पर कार्यक्रम शुरू हुआ।  
दोनों देशों के बीच के गेट को खोलने का एक अलग ही तरीक़ा है गेट खोलने के बाद दोनों देश के जवान परेड करते हैं जितना ऊँचा हो सके पाँव को उठाकर ज़ोर से पटकते हैं इतनी ज़ोर से मानो सामने दुश्मन है और उसे हुंकारकर युद्ध के लिए ललकार रहे हों कोई भी किसी से ज़रा भी कमतर नहीं। हाथ भी मिलाते हैं तो लगता है जैसे दो दुश्मन हाथ मिला रहे हों समाप्ति पर गेट बंद होता है; उस समय भी एक दूसरे को वैसे ही ललकारते हैं समाप्ति के बाद सभी ऐसे हँसते-बोलते हैं जैसे कि अब तक जो हुआ, वह एक तमाशा था 
 
जिस तरह वे हुंकार भर रहे थे, मेरे ज़ेहन में एक ही बात आई कि क्या ऐसा करना उचित है युद्ध तो नहीं छिड़ा है जो एक देश दूसरे को ललकार रहा है और दूसरा देश भी वैसे ही जवाब दे रहा है। परन्तु यह भी सत्य है कि पाकिस्तान द्वारा भारत की ज़मीन पर किए गए जबरन कब्ज़े के कारण समय-समय पर युद्ध एवं आतंकवादियों को संरक्षण दिए जाने के कारण पाकिस्तान से दोस्ताना सम्बन्ध कदापि सम्भव नहीं है और न कभी होगा एक अजीब-सी बात मुझे दिखी कि पकिस्तान में स्त्रियों और पुरुषों को अलग-अलग बिठाया गया था जबकि हमारे यहाँ ऐसा नहीं है निःसंदेह पाकिस्तान में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर आज भी नहीं समझा जाता है  

अब अँधेरा घिर रहा था, हमलोग अटारी स्टेशन गए जहाँ से भारत और पाकिस्तान के बीच ट्रेन चलती है। वीर ज़ारा का शाहरुख़ और प्रीती जिंटा मेरे सामने जीवन्त हो गए उनकी प्रेम कहानी को मैं भारत और पकिस्तान के बॉर्डर पर ढूँढती रही हाँ! ऐसा प्रेम तो काल्पनिक ही हो सकता है, यथार्थ में कहीं भी इसका एक अंश भी नहीं दिखता है अंततः हम लौट आए रेलवे का वह शानदार सैलून जो एक दिन के लिए हमारा पटरियों पर दौड़ता सपनों का घर बना था, हमारे इन्तिज़ार में पलकें बिछाए बैठा था 
अक्सर दिल में यह ख़याल आता है कि हमारा अतीत हमें उस दुनिया की सैर करा लाता है जहाँ हम दोबारा जा तो सकते हैं मगर एहसास वैसा नहीं होता जैसा पहली बार होता है अमृतसर, जलियाँवाला बाग़, वाघा बॉर्डर, अटारी स्टेशन तथा रेलवे के सैलून में मैं कभी फिर दोबारा जाऊँ कि न जाऊँ, लेकिन एक दिन का वह सफ़र ढेरों यादें दे गया।  

- जेन्नी शबनम (19.2.2019)
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