Sunday, December 11, 2011

32. दिल्ली के 100 साल

गूगल से साभार
दिल्ली के 100 साल! नहीं-नहीं! दिल्ली तो तब से है जब से पृथ्वी है जाने कितने युग-काल की साक्षी यहाँ की ज़मीन और आबो-हवा का अपना वजूद रहा है; भले ही पहले यहाँ जंगल, पहाड़, खेत-खलिहान या कोई अनजान बेनाम बस्ती रही हो नदी के किनारे आबादी बसती है, तो निःसन्देह यहाँ यमुना के किनारे आबादी रही होगी कितनी संस्कृति बदली और नाम बदले गए महाभारत काल का इन्द्रप्रस्थ धीरे-धीरे बदलते-बदलते अंत में देहली और फिर दिल्ली में परिणत हुआ दिल्ली ने न जाने कितने बदलाव और बिखराव को देखा है धीरे-धीरे बसी दिल्ली ने हम सभी को ख़ुद में समाहित कर लिया; भले ही हम किसी भी प्रदेश या भाषा के हों, दिल्ली ने सभी का स्वागत किया और अपनाया है
 
पुरानी दिल्ली तो सदियों से वही है बाज़ार, मकान, इमारत, मन्दिर, मस्जिद, पीढ़ियों को हस्तांतरित नाम और पहचान के साथ बदलती हुई सुदृढ़ पुरानी दिल्ली किसी एक या किसी ख़ास की नहीं रही है दिल्ली, विशेषकर नई दिल्ली वक़्त-वक़्त पर कितने नाम बदले होंगे इसके, कितने राजघराने, कितने राजशाही और सत्ताधारी को देखा इसने घने जंगल कटे होंगे, कच्ची सड़कें पक्की हुई होंगी, राजमार्ग बने होंगे, यातायात के साधन बढ़े होंगे, ऐतिहासिक धरोहरें विकसित हुई होंगी लोग बदलते गए और बढ़ते गए दिल्ली भी अपनी निशानियों के साथ बदलती रही और बढ़ती रही दिल्ली की मिट्टी जो अब ईंट-कंक्रीट में पूरी तरह बदल चुकी है, आज भी सभी के दिलों पर राज करती है और सभी को पनाह देती है आज भी दिल्ली में सुकून देने वाले उद्यान हैं, हरियाली है, प्रकृति की समस्त ऊर्जा हैI
 
 
दिल्ली दिलवालों का शहर है, दिल्ली सभी को अपना लेती है, अमीर हो या ग़रीब दिल्ली सभी की है, दिल्ली किसी की अपनी नहीं, दिल्ली की बेरुख़ी के चर्चे, लोगों की संगदिली के चर्चे, दिल्ली के ठग भी मशहूर हुए, दिल्ली की चकाचौंध, दिल्ली की रातें, दिल्ली की गर्मी, दिल्ली की ठण्ड आदि कितनी शोहरत और बदनामी का दाग़ लिए दिल्ली अपनी जगह क़ायम है जितने लोग सभी का अपना नज़रिया कभी कोई यहाँ से हारकर गया, तो किसी ने दुनिया जीत ली अब ये दिल्ली की क़िस्मत नहीं, दिल्लीवालों की तक़दीर है कि किसको क्या मिला 
 
मेरे लिए दिल्ली आज भी उतनी ही प्रिय है, जितनी बचपन में थी 21 वर्ष से दिल्ली में हूँ; लेकिन आज भी मन में दिल्ली के लिए एक अनोखा एहसास रहता है ऐसा लगता है मानो दिल्ली कोई सुदूर देश का स्थान हो, जहाँ की दुनिया हमसे बहुत अलग और निराली है वह जगह जहाँ आज़ादी के बाद स्वतंत्र भारत का तिरंगा फहराया गया होगा, वह जगह जहाँ देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति रहते हैं, वह जगह जहाँ नागरिकों द्वारा चुने गए देश को चलाने वाले प्रतिनिधि रहते हैं, वह जगह जहाँ देश की राजधानी है, वह जगह जहाँ...।
 
 
मैं जब छोटी थी,, तो दिल्ली के बारे में जाने क्या-क्या नहीं सोचती थी मेरे पिता को घूमने और तस्वीर लेने का बहुत शौक़ था जब हम दोनों भाई-बहन छोटे थे, तो हमें दादी के पास छोड़ मेरी माँ को साथ लेकर वे देश के अधिकतर शहर घूम आए जहाँ भी जाते ढेर सारी तस्वीरें लेते मेरे पिता को तस्वीर लेने और उसे साफ़ करने का भी शौक़ था जब भी घूमकर आते तो अपनी ली गई तस्वीरों को साफ़ करते हम दोनों भाई-बहन बैठकर कौतूहल से रील को निगेटिव और फिर पॉजेटिव बनते हुए देखते सारी तस्वीरों पर वे जगह का नाम और तिथि लिखते थे हमलोग दिल्ली का लाल किला, क़ुतुबमीनार, जंतर-मंतर, इंडिया गेट, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, गांधी समाधि इत्यादि की तस्वीरें देखते और तरह-तरह के सवाल पूछते पाप-मम्मी से राष्ट्रपति भवन, संसद, गांधी समाधि, दिल्ली गेट, दरियागंज, गोलचा सिनेमा हॉल का नाम ख़ूब सुना था
 
मेरे पुत्र अभिज्ञान द्वारा ली गई तस्वीर
 
मैं पहली बार दिल्ली कब आई, यह याद नहीं वर्ष 1986 में पहली बार अपने होश में अपनी माँ के साथ मैं एन.ऍफ़.आई.डब्लू (NFIW) के राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में दिल्ली आई, जिसमें कई महान हस्तियों के साथ अमृता प्रीतम को भी देखा मैं अमृता जी की फैन, पर उनके साथ तस्वीर खिंचवाने में भी हिचकती रही और वे अपना भाषण देकर चली गईं भले मारग्रेट अल्वा के साथ फोटो खिंचवा ली; क्योंकि लड़कियाँ उनके साथ तस्वीर लेने में दिलचस्पी ले रही थीं कालान्तर में अमृता प्रीतम से मिली, तो उनकी अवस्था ऐसी अशक्त थी कि तस्वीर और बात करना तो दूर उनको देखकर ही आँखें भर आईं दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कॉन्फ्रेंस था और उसके बाद हमलोग कुछ ख़ास जगह घूमने गए थे ऐसा लगा जैसे किसी अनोखे शहर में आ गए हों भाषा वही हिन्दी, परन्तु उच्चारण अलग, पहनावा वही जैसा हमलोग पहनते थे, खान-पान भी वही मैं इस अलग दुनिया को जीभरकर देख रही थी कि क्या-क्या है यहाँ, जो मेरी सोच से अलग है 
 
वर्ष 1987 में हम लोग पुनः दिल्ली आए मेरा भाई छात्रवृत्ति प्राप्त कर आगे की पढ़ाई करने अमेरिका जा रहा था मेरे पिता के मित्र श्री रामाचार्य गांधी समाधि, राजघाट के इंचार्ज थे उनके घर पर हमलोग रुके पापा-मम्मी जब भी दिल्ली आते, तो उनके घर पर ही रुकते थे भाई को विदा करने के बाद दूसरे दिन हम लोग एन.ई.एक्सप्रेस जो सुबह छह बजे चलती थी, से पटना के लिए चले दिल्ली स्टेशन पर गाड़ी खड़ी थी और हमारे दो सूटकेस चोरी हो गएI हमारा सारा सामान जिसमें मेरी माँ और मेरे कपड़े थे, चोरी चले गएI ट्रेन छोड़नी पड़ीI घंटो बाद रेल थाना में एफ.आई.आर. दर्ज हो पायाI फिर रामाचार्य चाचा ने कनाट प्लेस के खादी भण्डार से कपड़े ख़रीदे; क्योंकि हमारे पास पहनने को कपड़े नहीं थेI दूसरे दिन हम लौट आए, पूरी ज़िन्दगी के लिए एक टीस साथ लिएI चोरी गए सामानों में मेरे पसन्दीदा कैसेट, सभी अच्छे कपड़े, कुछ किताबें तथा अन्य ज़रूरी सामान थेI पैसे की तंगी थी, तो दोबारा ये सब ख़रीदना मुमकिन न थाI उसके बाद से जब भी पहाडगंज जाती, तो ढूँढती कि शायद हमारा वह दोनों टूरिस्टर सूटकेस मिल जाएI  
 
1988 में फिर दिल्ली आईI मेरे भाई ने मुझे ओहियो, अमेरिका में पढ़ने के लिए बुलाया थाI लेकिन वीजा रिजेक्ट हो गया, क्योंकि मैं बालिग थी और मेरे नाम अपने देश में कोई संपत्ति नहीं थीI फिर 1989 में मेरी शादी तय हो गई उसके बाद अक्सर दिल्ली आना-जाना लगा रहाI जब-जब दिल्ली आती ख़ूब घूमतीI  
 
1991 में शादी के बाद दिल्ली के बेर सराय में हम रहे, फिर मुनिरका, फिर सावित्री नगर (मालवीय नगर) के मकान नंबर-1 में किराए पर रहने लगेI शुरु में मकान-मालकिन को यक़ीन नहीं था कि हम शादीशुदा हैं, उनका कहना था कि हमलोग विद्यार्थी की तरह बहुत छोटे दिखते हैंI 1992 में मेरी नौकरी यूनिटेक लिमिटेड में हो गई, जिसका कार्यालय साकेत में थाI बस से आना जाना करती थी; क्योंकि ऑटो के लिए पैसे नहीं होते थेI बस में इतनी भीड़ कि खड़ा होना भी आफ़तI काम से तीस हज़ारी कोर्ट जाना होता थाI ऑफ़िस के चपरासी से मैं बस नंबर और रूट पूछकर बस से जाती थीI वह अक्सर कहता कि जब आपको ऑटो का किराया मिलता है, तो बस से क्यों जाती हैं? एक घटना के बाद ऑटो से अकेले जाने में मुझे डर लगता थाI  
 
एक बार मैं अपने पति के साथ परिक्रमा होटल में रात का खाना खाने गईI वापसी में काफ़ी रात हो गईI बस मिली नहीं, एक ऑटो मिलाI जैसे मैं बैठी कि उसने ऑटो चला दिया, मैं चिल्लाने लगी रोकने के लिए और मेरे पति एक हाथ से ऑटो पकड़कर दौड़ने लगेI कुछ दूर जाकर उसने रोका, जहाँ करीब 20-25 की संख्या में ऑटो चालाक खड़े थेI वे सभी हमारे ऑटो के पास आ गएI संयोग से सामने से एक पुलिस वैन आ रही थी, जो भीड़ देखकर रुक गईI फिर हम पुलिस की गाड़ी से उस ऑटोवाले को लेकर पार्लियामेंट स्ट्रीट थाना गएI बाद में पुलिसवालों ने दूसरा ऑटो किया और रात को एक बजे हम घर पहुँचेI उस दिन से ऑटो पर जाने से डर लगने लगाI कहीं जाना हो बस में चली जाती, लेकिन ऑटो में नहींI
 
मेरे पुत्र अभिज्ञान सिद्धांत द्वारा ली गई दिल्ली की एक  तस्वीर
 
जिन दिनों मेट्रो और फ़्लाइओवर के लिए सड़कें खोदी जा रही थीं, लोग कहते कि सरकार दिल्ली में हर तरफ़ गड्ढे करवा रही है, दिल्ली की सड़कें गड्ढे में तब्दील हो रही हैI जब मेट्रो और फ़्लाइओवर बन गए, तब मैं उनसे कहती कि अब किसे फ़ायदा हो रहा है? क्या सरकार के मंत्री आ रहे इस मेट्रो में? या फिर फ़्लाइओवर पर सिर्फ नेता-मंत्री चलेंगे? आम जनता को बहुत सुविधा हुई है मेट्रो सेI कहीं भी जाना अब आसान लगता हैI मेट्रो, फ़्लाइओवर, सुन्दर बसें, मॉल, सिनेमा हॉल देखकर अच्छा लगता हैI सड़कें साफ़-सुथरी हैंI मॉल में सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक़ हैI अब तो ढेर सारे मॉल बन गए हैंI सिनेमा देखने लक्ष्मी नगर और गुड़गाँव तक चली जाती हूँI क्या करूँ दिल है कि मानता नहींI घर में ऊब जाओ तो अकेले भी मॉल में जाकर सिनेमा देखकर कुछ वक़्त बिताकर लौटने पर मन को अच्छा लगता हैI सरोजनी नगर, मालवीय नगर, ग्रीन पार्क आज भी मेरा पसन्दीदा बाज़ार हैI गौतम नगर और सावित्री नगर का वीर बाज़ार, साकेत का सोम बाज़ार अब भी लगता है; वहाँ से तरकारी व सामान अब भी मँगाती हूँI आदत है कि जाती नहींI 
  
मेरे पुत्र द्वारा ली गई दिल्ली की एक तस्वीर
 
दिल्ली की भीड़ देखकर अब मन घबराता हैI दिन-ब-दिन भीड़ बढ़ती जा रही हैI आए दिन ट्रैफ़िक जामI कहीं जाना हो, तो जाम के लिए अलग से समय लेकर जाना होता हैI कभी-कभी लगता है कि यहाँ किसी को दूसरे की फ़िक्र नहीं हैI अगर अकेले हैं, तो यहाँ कोई नहीं पूछता कि अकेले क्यों हैं? अगर उदास हैं, तो कोई नहीं पूछता कि उदास क्यों हैं? कोई दुर्घटना हो जाए, तो भी शायद कोई नहीं देखे कि क्या हुआI सभी अपने-आप में व्यस्त, ख़ुद के लिए समय नहीं, दूसरे की परवाह कौन करेI कभी-कभी यह भी अच्छा लगता है जैसे चाहो रहो, कोई टोकता नहींI हर पहलू का अपना रंग, अपना मज़ाI
 
 
अब तो 21 साल हो गए दिल्ली को देखते-जानते-समझतेI कई बार दिल्ली अपनी-सी लगती है, तो कई बार बेगानीI दिल्ली ने बहुत कुछ दिया है मुझेI सपने देखना भी सिखाया दिल्ली ने और टूटे सपनों के साथ जीना भीI आधी से ज़्यादा ज़िन्दगी यहीं बीत गईI हर सुख-दुःख की मेरी साथी रही है दिल्लीI उन दिनों भी दिल्ली ने हमारा साथ दिया, जब एक वक़्त का खाना भी मुश्किल था, और अब जब सब कुछ हैI सब कुछ दिल्ली का ही दिया हुआ हैI अब मुझे सबसे ज़्यादा मन यहीं लगता हैI दिल्ली दिल्ली है, सच है दिल्ली देश का दिल है और मेरा भीI

-जेन्नी शबनम (11.12.2011)
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Wednesday, November 16, 2011

31. कल सुनना मुझे

मैं
ज़िन्दगी जाने किन-किन राहों से गुज़री, कितने चौक-चौराहों पर ठिठकी, कभी पगडण्डी कभी कच्ची तो कभी सख़्त राहों से गुज़री ज़ेहन में न जाने कितनी यादें हैं, जो समय-समय पर हँसाती हैं, रुलाती हैं, तो कभी-कभी गुदगुदाती भी हैं उम्र के हर पड़ाव पर जब भी पीछे मुड़कर देखती हूँ, तो ज़िन्दगी बहुत दूर नज़र आती है यों लगता है जैसे वह लड़की मैं नहीं हूँ, जिसके अतीत से मेरी यादें और मैं जुड़ी हूँ 
 
बिहार के भागलपुर के नया बाज़ार मोहल्ले में हमलोग किराए के जिस मकान में रहते थे, वह एक ज़मींदार की बहुत बड़ी कोठी है, जो यमुना कोठी के नाम से प्रसिद्ध है इस कोठी में बहुत सारे किरायेदार रहते थे उस मकान का पूरा प्रथम तल हमलोगों ने किराए पर लिया था ख़ूब बड़ा-बड़ा चार छत, छह कमरे, ख़ूब बड़ा बरामदा बरामदे में लोहे के कई पाया (Pillar), जिसे पकड़कर गोल-गोल घूमना मेरा हर दिन का खेल था उस मकान के नीचे के हिस्से में अलग-अलग कई किराएदार थे सभी से हमारे बहुत आत्मीय सम्बन्ध रहे
 
मुझे याद है जब मैं दो साल की थी, एक किराएदार की शादी हुई न जाने कैसे उस उम्र में हुई यह शादी मुझे अच्छी तरह याद है; जबकि सभी कहते हैं कि इस उम्र की बातें याद नहीं रहती हैं जिनकी शादी हुई उन्हें मैं चाचा कहती थी और उनकी पत्नी मुझे इतनी अच्छी लगीं कि मैं उन्हें मम्मी कहने लगी जब थोड़ी और बड़ी हुई तब उन्हें चाची जी कहने लगी सरोज चाचा से बड़े वाले भाई को ताऊ जी और उनकी बड़ी बहन को बुआ जी कहती थी बचपन में मुझे समझ नहीं था कि ये लोग मेरे सगे चाचा-चाची या ताऊ-बुआ नहीं हैं स्कूल से आते ही पहले उनके घर जाती फिर अपने घर छुट्टी के दिनों में उनके साथ ख़ूब खेलती थी मिट्टी का छोटा चूल्हा, खाना बनाने के छोटे-छोटे बर्तन, छोलनी-कलछुल, चकला-बेलना, तावा, चिमटा, छोटा सूप (चावल साफ़ करने के लिए), छोटी बाल्टी आदि सभी कुछ मेरे पास था उन दिनों कोयला और गोइठा (गाय-भैंस के गोबर से बना उपला) को चूल्हा में जलाकर खाना बनाया जाता था मेरे छोटे चूल्हे में बिन्दु चाची ताव (चूल्हा जलाना) देती थीं फिर छोटे-छोटे पतीले में भात (चावल), दाल, तरकारी (सब्ज़ी) या कभी खिचड़ी बनाती थीं बड़ा मज़े का दिन होता था मेरे पिता रोज़ 12 बजे यूनिवर्सिटी जाते थे, मेरी माँ अक्सर सामाजिक कार्य से बाहर रहती थीं और मैं बिन्दु चाची के साथ ख़ूब खेलती थी सभी किरायेदार के बच्चे उनसे हिले-मिले थे 
 
आज के इस जन्मदिन के मौक़े पर बचपन का एक जन्मदिन याद आ रहा है यह तो याद नहीं कि उस समय मेरी उम्र क्या थी, शायद पाँच-छह वर्ष की रही होऊँगी मेरे घर में जन्मदिन पर केक काटने का रिवाज नहीं था और न ही आज की तरह कोई पार्टी होती थी चाहे मेरा जन्मदिन हो या मेरे भाई का, घर में बहुत बड़ा भोज होता था भोज में पिता के भागलपुर विश्वविद्यालय में कार्यरत सहकर्मी शिक्षक, कर्मचारी, विभागाध्यक्ष, मेरे माता-पिता के मित्र और स्थानीय रिश्तेदार आमंत्रित होते थे पुलाव, दाल, तरकारी, खीर, दल-पूरी (दाल भरी हुई पूरी) पापड़, चटनी आदि बनती थी दो फीट चौड़ी ख़ूब लम्बी-लम्बी चटाई ज़मीन पर बिछाई जाती थी, जिसे पटिया कहते हैं उस पर पंक्तिबद्ध बैठकर सभी लोग खाना खाते थे उपहार लाने की सभी को मनाही होती थी, फिर भी एक-दो लोग उपहार ले ही आते थे मुझे याद है ताऊ जी (किराएदार) ने एक खिलौना दिया, जो गोल लोहे का था और तार बाँधकर उसपर उसे चलाते थे वह मुझे बड़ा प्रिय था मेरे भाई के जन्मदिन पर किसी ने घर बनाने का प्लास्टिक का अलग-अलग रंग और आकार का ईंट (Blocks) दिया था, जिससे घर बनाना बड़ा अच्छा लगता था अक्सर मैं अपने भाई के साथ घर बनाने का खेल खेलती थी 
 
पिता के देहान्त के बाद भी जन्मदिन मनाती रही; लेकिन वह जश्न, धूमधाम और भोज का आयोजन बंद हो गया मेरे हर जन्मदिन पर मेरी दादी मेरे पापा को यादकर रोती थी, क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद उतने पैसे नहीं थे और पापा के समय के सभी अपने भी बेगाने हो गए थे दादी कहती थीं ''बउआ रहते तो कितना धूमधाम से जन्मदिन मनाते पर अब न ऊ देवी है न कड़ाह'' मेरी दादी मेरे पापा को बउआ और मम्मी को दुल्हिन बुलाती थीं स्कूल और कॉलेज के दिनों में मेरी किसी से बहुत मित्रता नहीं थी, अतः कोई मित्र नहीं आती थी स्कूल के दिनों में बहुत ख़ास कोई सिनेमा दिखाने पापा ले जाते थे जब कॉलेज गई तो हमारे मकान मालिक की बहन के साथ ख़ूब सिनेमा देखती थी और बाद में सिनेमा देखना मेरा शौक़ बन गया अपने जन्मदिन पर मम्मी के साथ सिनेमा देखना जैसे मेरा नियम-सा बन गया दिन में सिनेमा देखती और रात के खाना पर मम्मी के स्कूल के कुछ सहकर्मी और मित्र आ जाते थे, और बस जन्मदिन ख़त्म!  
 
एक जन्मदिन (1986) पर मेरी एक ज़िद मुझे अब तक याद है हमारे पारिवारिक मित्र डॉ.पवन कुमार अग्रवाल, भागलपुर मेडिकल कॉलेज में प्रोफ़ेसर और सर्जन तथा मेरे पिता तुल्य थे, ने मेरे एक जन्मदिन पर एक कैसेट उपहारस्वरूप दिया उन्होंने कहा कि जो भी गाना चाहिए वे रिकॉर्ड करवा देंगे 'कितने पास कितने दूर' फ़िल्म का एक गाना ''मेरे महबूब शायद आज कुछ नाराज़ हैं मुझसे'' मेरा प्रिय गाना था; लेकिन यह नहीं मालूम था कि यह किस फ़िल्म का गाना है कुछ गाना के साथ यह गाना भी मैंने उनसे कहा कि रिकॉर्ड करवा दें चूँकि फ़िल्म का नाम मालूम नहीं था, तो गाना ढूँढ पाना कठिन था, और मेरी ज़िद कि वह गाना चाहिए ही चाहिए मैं शुरू की ज़िद्दी! अपने पिता के बाद एकमात्र वही थे जिनसे मैं बहुत सारी ज़िद करती और वे पूरी करते थे; क्योंकि अपनी बेटी की तरह मुझे मानते थे ख़ैर वह गाना कई दिन के मशक्क़त के बाद उन्हें मिल पाया और मेरी ख़्वाहिश पूरी हुई 
 
अब भी सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक़ है कई जन्मदिन ऐसा आया जब मेरे पति शहर से बाहर रहे बच्चों के स्कूल जाने के बाद मैं अकेली सिनेमा देखने चली जाती थी अपने लिए अपने पसन्द का उपहार ख़ुद ख़रीदना और ख़ुद को देना अब भी मुझे पसन्द है 
 
बचपन में मुझे हर जन्मदिन में और बड़े होने का उत्साह होता था, जैसे अब मेरे बच्चों को होता है पर अब न उत्साह बचा, न उमंग ज़िन्दगी का सफ़र जारी है, जन्मदिन आता है चला जाता है कभी मैं अकेली अपना जन्मदिन मनाती हूँ, तो कभी पार्टी होती है
 
आज भागलपुर में हूँ रात की पार्टी की तैयारी चल रही है संगीत की धुन सुनाई पड़ रही है काफ़ी सारे लोग आने वाले हैं मेरी बेटी ख़ुशी ने सुबह से धमाल मचाया हुआ है बेटा सिद्धांत दिल्ली में है, कॉलेज खुले हैं, वह आ नहीं सकता पति ने ख़ूब सारी तैयारी करा रखी है काफ़ी सारे लोगों ने फ़ोन पर बधाई दी मेरे भाई-भाभी जो इन दिनों हिन्दुस्तान से बाहर हैं, का फ़ोन आया मेरी माँ का फ़ोन आया, बोलते-बोलते रोने लगीं; क्योंकि वे भागलपुर में नहीं हैं इन सबके बावजूद न जाने क्यों मन भारी-सा है; जानती हूँ पार्टी है, हँसना-चहकना है यों पार्टी ख़ूब एन्जॉय करती हूँ; लेकिन न जाने क्यों बचपन मेरा पीछा नहीं छोड़ता है क्यों बार-बार मन वहीं भागता है जहाँ की वापसी का रास्ता बंद हो जाता है बचपन की खीर-पूरी और भोज याद आ रहा है अब तो जन्मदिन मनाना औपचारिकता-सा लगता है कुछ फ़ोन, बधाई के कुछ सन्देश, और जवाब शुक्रिया...!

-जेन्नी शबनम (16.11.2011)
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