Sunday, March 8, 2020

71. एक बार फिर बीत गया महिलाओं का एक दिन

महिला दिवस के उपलक्ष्य में रंगारंग कार्यक्रम अपने चरम पर था तय समय से ज़्यादा वक़्त हो गया, पर कार्यक्रम पूरा नहीं हो सका शाम के सात बज गए सभी महिलाएँ जाने को बेताब हो रही थीं; इसलिए कार्यक्रम को शीघ्र ख़त्म करने का बार-बार आग्रह कर रही थीं आयोजक मंडली भी जल्दी-जल्दी सभी कार्यक्रम निपटा रही थी और हर वक़्ता को संक्षिप्त में बोलने का आग्रह कर रही थी कुछ प्रतियोगिताएँ भी हुई थीं, जिसे शीघ्र निष्कर्ष पर पहुँचाया जा रहा था, ताकि परिणाम घोषित हो सकेसभी तबक़े की महिलाएँ यहाँ आमंत्रित थीं 
 
कार्यक्रम पूर्ण होने से पहले ही तक़रीबन आधी महिलाएँ जा चुकी थीं जो मुख्य अतिथि और वक्ता थीं, वे बार-बार मोबाइल पर वक़्त देख रही थीं एक महिला से यह पूछने पर कि अभी तो सिर्फ़ सात ही बजे हैं, इतनी जल्दी क्या है उन्होंने कहा, ''वे जब तक घर जाकर चाय नहीं बनाएँगी, उनके पति चाय नहीं पिएँगे, भले ही कितनी देर हो जाए यों वे कुछ कहेंगे नहीं कि देर क्यों हुई; लेकिन हमारी परवरिश ऐसी हुई है कि शाम के बाद घर से बाहर रहने की आदत नहीं है कोई कुछ न कहे फिर भी मन में एक अपराधबोध-सा होने लगता है'' किसी महिला को रात के खाने की चिन्ता हो रही है, किसी को उसके बच्चे की चल रही परीक्षा की, किसी को बाज़ार से होली के सामान ख़रीदने हैं, किसी को यह डर कि घर में सास-ससुर नाराज़ होंगेकिसी महिला का पति लेने पहुँच चुका है, तो उस महिला को मानसिक रूप से दबाव लग रहा कि उसका पति उसके कारण इन्तिज़ार में खड़ा हैमुश्किल से 10 महिलाएँ होंगी जो देर होने के बावजूद बेफ़िक्र होकर कार्यक्रम में सक्रिय योगदान कर रही थीं।   

समय की पाबन्दी निःसन्देह आज की ज़रूरत है; लेकिन यह सिर्फ़ महिलाओं के लिए क्यों? यों ढेरों पुरुष हैं जो घर के कार्यों में योगदान करते हैं और एक समय सीमा के भीतर घर आ जाते हैं घर, बच्चे और पत्नी की जवाबदेही बख़ूबी निभाते हैं अगर कभी देर हो, तो वे घर पर बता देते हैं, ऐसे में घर लौटने के बाद पत्नी या बच्चे प्रश्नसूचक दृष्टि से नहीं देखते उनके देर हो जाने से कोई कार्य नहीं रुकता, न देर से आने से पुरुष को कोई ग्लानि होती है पर इसके उलट स्त्रियों के लिए वह सब होता है, जो पुरुष के लिए नहीं होता वह अगर देर तक बाहर है तो कहाँ होगी, कौन-कौन वहाँ होंगे, कैसे जाएगी, कैसे लौटेगी, कितने बजे लौटेगी इत्यादि प्रश्नों के बीच घिर जाती है हाँ, सुरक्षा के दृष्टिकोण से यह सब जानना लाज़िमी है; परन्तु ये सभी प्रश्न पुरुषों के लिए भी उतने ही ज़रूरी हैं पुरुष भी उतने ही असुरक्षित हैं जितनी स्त्रियाँ इन सबके बावजूद स्त्री-पुरुष के लिए नियमों के अलग-अलग पैमाने तय हो चुके हैं, जो सर्वमान्य हैं।   

शिक्षा, स्वास्थ्य, पहनावा, रहन-सहन इत्यादि हर पहलू पर ध्यान दें, तो पता चलता है कि हमारा समाज स्त्री और पुरुष दोनों के लिए अलग-अलग मापदण्ड रखता है और दोहरी नीति अपनाता है। स्त्रियों को उसके विरासत में स्त्री होना सिखाया जाता है, जिसमें तय नियमों पर खरा उतरने की उससे अपेक्षा की जाती है वहीं पुरुषों के लिए बिल्कुल अलग दृष्टिकोण हैशिक्षित समाज में पुरुष से बस इतनी अपेक्षा की जाती है कि वह शिक्षा प्राप्त कर एक अच्छी नौकरी पा ले। अशिक्षित समाज में परिवार के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी उठाना पुरुष के लिए वांछित होता है, बाक़ी कुछ भी आवश्यक नहीं है। परन्तु स्त्रियों के लिए चाहे वह शिक्षित समाज हो या अशिक्षित, स्त्रियोचित गुण के साथ उन सारी ज़िम्मेदारियों का पालन करना आवश्यक है, जिसे समाज ने उनके लिए निर्धारित किए हैं। अजीब बात यह है कि कोई भी व्यक्ति इस बात की पुष्टि नहीं करता कि ऐसे नियम समाज में स्थापित हैंस्त्रियों की यह कसौटी पत्नी और माँ, बहु और बेटी में अंतर कर देती है जो क़ायदे किसी की पत्नी के लिए मानने आवश्यक हैं, वे उस पुरुष की माँ, बहन, बेटी के लिए ज़रूरी नहीं होते रिश्तों के साथ सारे समीकरण बदल जाते हैं ऐसे में स्त्री गहन पीड़ा और अकुलाहट से भर जाती है कि ऐसा क्यों है जो बातें किसी स्त्री के लिए वाजिब हैं, पुरुष के लिए ज़रूरी क्यों नहीं? समाज या कानून में ऐसे कोई नियम या क़ायदे नहीं बनाए गए हैं, किन्तु व्यावाहारिक रूप से यही मान्य है और सत्य भी।   

जीवन का समीकरण आख़िर कैसे तय किया जाए? किन नियमों के तहत जीवन को ढाला जाए ताकि समय के साथ क़दमताल मिलाया जा सके? हम स्त्री व पुरुष की बराबरी की बात करते हैं, लेकिन यह तब तक सम्भव नहीं है, जब तक स्त्री व पुरुष को बुनियादी रूप से बराबर न माना जाएसामजिक संरचना, सामाजिक दृष्टिकोण, प्रथाएँ, परम्पराएँ आदि हमारी सोच को इस तरह प्रभावित करती हैं कि कब हम इन नियमों को मानने लग जाते हैं, पता ही नहीं चलता। यों वह सारे नियम जो एक स्त्री के लिए मान्य है, यदि पुरुष भी पालन करने लग जाएँ, तो निःसन्देह समाज में समानता आ जाएगी जो ग़लत नियम या परम्पराएँ स्थापित हो चुकी हैं, उन्हें स्त्री-पुरुष को मिलकर ध्वस्त करना चाहिए जो तरीक़े या नियम पुरुष के लिए ग़ैरज़रूरी हैं, वह स्त्री के लिए भी ग़ैरवाजिब होने चाहिए। 

बहरहाल जीवन प्रवाहमान है असंतुलन बना हुआ है स्त्री-विमर्श की चर्चा हर जगह होती ही रहती है कहीं स्त्री, तो कहीं पुरुष प्रताड़ित होते रहते हैं स्त्रियों की समस्याएँ विकराल और वीभत्स रूप से सामने आ रही हैं इन सभी विषयों पर पूरे समाज को जागरूक होकर सोचने और निर्णय पर पहुँचने की ज़रूरत हैयह तभी मुमकिन है जब समाज में स्त्री-पुरुष बराबर हों और एक दूसरे का सम्मान करें।   

-जेन्नी शबनम (8.3.2020)
(अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस)
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Friday, February 21, 2020

70. फाँसी की फाँस


वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह का बयान कि जैसे सोनिया गांधी ने राजीव गांधी के हत्यारे को माफ़ किया है, वैसे ही निर्भया की माँ निर्भया के बलात्कारियों को माफ़ कर दें एक स्त्री होकर वकील साहिबा ऐसा कैसे सोच सकीं? राजीव गांधी की हत्या और निर्भया के बलात्कार का अपराध एक श्रेणी में कैसे माना जा सकता है? मानवीय दृष्टि से किसी की मौत के पक्ष में होना सही नहीं है। परन्तु बलात्कार ऐसा अमानवीय अपराध है, जिसमें पीड़ित स्त्री के जीवन और जीने के अधिकार का हनन हुआ है, ऐसे में बलात्कारी के लिए मानवीय दृष्टिकोण हो ही नहीं सकता है इस अपराध के लिए सज़ा के तौर पर शीघ्र मृत्यु-दण्ड से कम कुछ भी जायज़ नहीं है। 
  
निर्भया के मामले में डेथ वारंट जारी होने के बाद फाँसी में देरी कानूनी प्रावधानों का ही परिणाम है किसी-न-किसी नियम और प्रावधान के तहत फाँसी का दिन बढ़ता जा रहा है अभी चारों अपराधी जेल में हैं, ढेरों सुरक्षाकर्मी उनके निगरानी के लिए नियुक्त हैं, उनकी मानसिक स्थिति ठीक रहे इसके लिए काउन्सिलिंग की जा रही है, शरीर स्वस्थ्य रहे इसके लिए डॉक्टर प्रयासरत हैं, उनके घरवालों से हमेशा मिलवाया जा रहा है आख़िर यह सब क्यों? जेल मैनुअल के हिसाब से दोषी का फाँसी से पहले शारीरिक और मानसिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ होना ज़रूरी है यह कैसे सम्भव है कि फाँसी की सज़ा पाया हुआ मुजरिम बिल्कुल स्वस्थ हो? भले ही जघन्यतम अपराध किया हो; परन्तु फाँसी की सज़ा सुनकर कोई सामान्य कैसे रह सकता है? बलात्कारी की शारीरिक अवस्था और मानसिक अवस्था कैसी भी हो, फाँसी की सज़ा में कोई परवर्तन या तिथि को आगे बढ़ाना अनुचित है निर्भया के बलात्कारियों को अविलम्ब फाँसी पर लटका देना चाहिए    

ऐसा नहीं है कि बलात्कार की घटनाएँ पहले नहीं होती थी। परन्तु विगत कुछ वर्षों से ऐसी घटनाओं में जिस तरह बेतहाशा वृद्धि हुई है, बेहद अफ़सोसनाक और चिन्ताजनक स्थिति है। कानून बने और सामजिक विरोध भी बढ़े; परन्तु स्थिति बदतर होती जा रही है कुछ लोगों का विचार है कि आज की लड़कियाँ फैशनपरस्त हैं, कम कपड़े पहनती हैं, शाम को अँधेरा होने पर भी घर से बाहर रहती हैं, लड़कों से बराबरी करती हैं आदि-आदि; इसलिए छेड़खानी और बलात्कार जैसे अपराध होते हैं इनलोगों की सोच पर हैरानी नहीं होती है; बल्कि इनकी मानसिक स्थिति और सोच पर आक्रोश होता है अगर यही सब वज़ह है बलात्कार के, तो दूधमुँही बच्ची या बुज़ुर्ग स्त्री के साथ ऐसा कुकर्म क्यों होता है?   

अगर स्त्री को सिर्फ़ देखकर कामोत्तेजना पैदा हो जाती है, तो हर बलात्कारी को अपनी माँ, बहन, बेटी में रिश्ता नहीं, उनका स्त्री होना नज़र आता और वे उनके साथ भी कुकर्म करते; परन्तु ऐसा नहीं है कोई बलात्कारी अपनी माँ, बहन, बेटी के साथ बलात्कार होते हुए सहन नहीं कर सकता हैहालाँकि ऐसी कई घटनाएँ हुई हैं, जब रक्त सम्बन्ध को भी कुछ पुरुषों ने नहीं छोड़ा है वैज्ञानिकों के लिए यह खोज का विषय होना चाहिए कि दुष्कर्मी में आख़िर ऐसा कौन-सा रसायन उत्पन्न हो जाता है, जो स्त्री को देखकर उसे वहशी बना देता है ताकि अपराधी मनोवृति पर शुरुआत में ही अंकुश लगाया जा सके    

हमारी न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति और इसके ढेरों प्रावधान के कारण अपराधियों में न सिर्फ़ भय ख़त्म हुआ है; बल्कि मनोबल भी बढ़ता जा रहा है यह सही है कि कानून हर अपराधी को अधिकार देता है कि वह अपने आप को निरपराध साबित करने के लिए अपना पक्ष रखे तथा अपनी सज़ा के ख़िलाफ़ याचिका दायर करे समस्त कानूनी प्रक्रियाओं के बाद जब सज़ा तय हो जाए, और सज़ा फाँसी की हो, तब ऐसे में दया याचिका का प्रावधान ही ग़लत है दया याचिका राष्ट्रपति तक जाए ही क्यों? ऐसा अपराधी दया का पात्र हो ही नहीं सकता है सरकार का समय और पैसा इन अपराधियों के पीछे बर्बाद करने का कोई औचित्य नहीं है सज़ा मिलते ही 10 दिन के अंदर फाँसी दे देनी चाहिए कानूनविदों को इस पर विचार-विमर्श एवं शोध करने चाहिए, ताकि न्यायिक प्रक्रिया के प्रावधानों की आड़ में कोई अपराधी बच न पाए मानवीय दृष्टिकोण से सभी वकीलों को बलात्कारी का केस न लेने का संकल्प लेना चाहिएअव्यावाहारिक और लचीले कानून में बदलाव एवं संशोधन की सख़्त ज़रूरत है, ताकि कानून का भय बना रहे, न्याय में विलम्ब न हो तथा कोई भी जघन्यतम अपराधी बच न पाए।   

-जेन्नी शबनम (20.2.2020)
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Tuesday, January 14, 2020

69. मेरी पुस्तक 'लम्हों का सफ़र' का लोकार्पण



'लम्हों का सफ़र' पुस्तक देखते ही मन ख़ुशी से झूम उठा। पुस्तक को हाथ में लेते ही एक अजीब-सा रोमांच और उत्साह महसूस हुआ। मेरी क्षमता, योग्यता और सृजन को जैसे मैंने हाथों में पकड़ रखा हो। यों मेरी 25 से ज़्यादा साझा संकलन प्रकाशित हो चुकी हैं; परन्तु यह मेरा एकल कविता-संग्रह है इसलिए मुझे एक अलग-सा एहसास हुआ। वर्षों से यह मेरी बहुप्रतीक्षित पुस्तक है, जिसका इन्तिज़ार मुझे तो था ही, मेरे कुछ मित्रों को मुझसे भी ज़्यादा था   

मेरी पुस्तक 'लम्हों का सफ़र' मेरा प्रथम एकल कविता-संग्रह है, जिसका लोकार्पण 7.1.2020 को विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में हुआ। डॉ. राजीव रंजन गिरि, जो राजधानी कॉलेज में हिन्दी के प्रोफ़ेसर हैं, के हाथों पुस्तक लोकार्पित हुई। 'लम्हों का सफ़र' हिन्द युग्म प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। लोकार्पण से पूर्व हिन्द युग्म के स्टूडियो में सौरभ जी के साथ पुस्तक से सम्बन्धित बातचीत हुई, जिसे फेसबुक पर लाइव प्रसारित किया गया। लोकार्पण के बाद मैंने पुस्तक से कविता-पाठ किया।
   
प्रोफ़ेसर डॉ. राजीव रंजन गिरि, शायर श्री अनिल पाराशर 'मासूम' एवं श्रीमती शानू पाराशर, लेखिका श्रीमती नीलिमा शर्मा, लेखक श्री नीलोत्पल मृणाल, हास्य कलाकार श्री विभोर चौधरी, लेखिका श्रीमती पारुल सिंह, लेखिका श्रीमती सपना बंसल 'अहसास', हिन्द युग्म के प्रकाशक श्री शैलेश भारतवासी, हिन्द युग्म की सम्पादक सुश्री ज्योति दुबे, हिन्द युग्म से जुड़े एवं कार्यरत सहयोगी, मेरी पुत्री परान्तिका दीक्षा व उसके मित्रों तथा उन सभी मित्रों का आभार जिनके कारण यह आयोजन सफल हुआ।

लोकार्पण के इस सुखद अवसर पर मित्रों, लेखकों, पुस्तक प्रेमियों, दर्शकों तथा मेरी पुत्री और उसके मित्रों ने उपस्थित होकर मुझमें ऊर्जा का संचार किया। लोकार्पण के इस सुखद समय में मेरे साथ रहकर जिन लोगों ने मुझमें उमंग भरा है, मैं उन सभी की दिल से आभारी हूँ। मुझे सम्मान व प्रेम देने तथा मुझमें विश्वास रखने के लिए सभी का दिल से धन्यवाद व आभार। 
 
 

 
 











 
-जेन्नी शबनम (14.1.2020)
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Wednesday, October 2, 2019

68. इतना मैं गांधी को जानती हूँ

आज महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती है आज फिर से वह गीत याद आ रहा है, जिसे सुन-सुनकर मैं बड़ी हुई हूँ- ''सुनो-सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी, वो बापू जो पूज है इतना जितना गंगा माँ का पानी...।'' मोहम्मद रफ़ी साहब द्वारा गाया और राजेन्द्र कृष्ण द्वारा लिखा यह गीत मेरे कानों में गूँजता रहता है। इस गाने के साथ मेरा बचपन जुड़ा हुआ हैमेरे पिता यह गाना रिकॉर्ड प्लेयर पर हमेशा बजाते थे। इतना ज़्यादा कि इसके बोल याद हो गए मुझे। अक्सर सोचती हूँ काश! मेरा जन्म आज़ादी से पहले हुआ होता, तो मैं अवश्य बापू के साथ जुड़ जाती। बापू मेरे हृदय में बसे हुए हैं; क्योंकि मेरे पिता गांधीवादी विचार के थे और उस परिवेश में पलने-बढ़ने के कारण ख़ुद को उनके क़रीब पाती हूँ। परन्तु तमाम कोशिशों के बावजूद अपने पिता या बापू की जीवन शैली मैं अपना न सकी। 
मेरे पिता
अक्सर सोचती हूँ कि बापू सच में कैसे दिखते होंगे? वे कैसे रहते होंगे? उनके सोच-विचार ऐसे कैसे हुए होंगे? जबकि वे भी तो आम भारतीय ही थे। काश! मैं सच में एक बार बापू को देख पाती। यों बचपन में प्रोजेक्टर पर गांधी जी को देखती थी। न जाने क्यों सदैव उनकी तरफ़ एक खिंचाव-सा महसूस होता रहा। शायद पिता के जीवन यापन का तरीक़ा मेरे सोच पर प्रभावी हुआ होगा। उम्र और ज़रूरत ने मेरी सोच को अपना न रहने दिया। बापू को अपने जीवन में उतार न सकी, इसका दुःख अक्सर सालता है। बापू को पूर्णतः अपनाने के लिए एक साहस चाहिए, जो मुझमें नहीं है। यह ज़रूर है कि मेरे मस्तिष्क में एक क्षीण काया का वह वृद्ध व्यक्ति अक्सर मेरे साथ होता है और मुझे क़दम-क़दम पर टोकता है, जिसने दिश को आज़ादी दिलाई।  
तारा जी और मैं
तारा गाँधी भट्टाचार्या और मैं

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
पिछले वर्ष मैं एक पुस्तक विमोचन में गई। वहाँ एक बुज़ुर्ग महिला आईं, जो शुद्ध खादी के वस्त्रों में थीं और सबसे अलग दिख रही थीं। जिज्ञासा हुई जानने की कि वे कौन हैं किसी परिचित से पता चला कि वे तारा गांधी भट्टाचार्या हैं, महात्मा गांधी के सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी की पुत्री। उनको देखकर मेरा मन इतना रोमांचित हुआ कि जाकर उनसे बात किए बिना रह न सकी। बहुत सरल हृदय की हैं वे। उन्होंने कहा कि जब चाहो घर पर आओ। सन 2014 में मैंने अपने पिता की पुस्तक 'सर्वोदया ऑफ़ गाँधी' (Sarvodaya of Gandhi) का पुनर्प्रकाशन करवाया था। उस पुस्तक के विमोचन में तारा जी के आने की बात हुई थी; परन्तु अस्वस्थ होने के कारण वे नहीं आ सकीं। मैंने यह बताया, तो सुनकर वे बहुत ख़ुश हुईं। उनसे मिलकर मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि लगा मानो बापू से न मिल सकी, परन्तु उनके अंश से तो मिल ली। बापू के बारे में सोचकर मन एक अजीब से रोमांच से भर जाता है।
   
मेरे पिता की पुस्तक
मेरे पिता की पुस्तक
महात्मा गांधी की जीवन शैली और उनके द्वारा किए गए सत्य के प्रयोग के कारण उनकी काफ़ी आलोचना होती है। यों मैं गांधीवाद को जितना जान पाई हूँ अपने पिता के जीवन से जाना है। मैं इस बात को लेकर विश्वास रखती हूँ कि गांधीवाद न सिर्फ़ आज की ज़रूरत है, बल्कि समाज के सकारात्मक उत्थान के लिए आवश्यक है। आज समाज में भ्रष्टाचार, द्वेष, हिंसा, दुराचार, असहनशीलता, अकर्मण्यता, दुराभाव, बलात्कार, मॉब लिंचिंग इत्यादि बढ़ते जा रहे है। इस स्थिति में न सरकार प्रभावी हो पा रही है, न सामजिक संस्थाएँ कुछ कर पा रही हैं। ऐसे में सभी समस्याओं का समाधान गांधीवाद को केन्द्र में रखकर निकाला जा सकता है। यह ज़रूरी है कि न केवल आम जनता बल्कि सत्ता और नौकरशाही भी गांधी को जानें, समझें और आत्मसात करें। वैसे बचपन से सभी को स्कूल में अच्छी शिक्षा दी जाती है; लेकिन कुछ तो कमी है, जिससे समाज ऐसा होता चला जा रहा है। जीवन शैली और शिक्षा पद्धति में बड़े बदलाव की सख़्त ज़रूरत  है।
   
बापू के जीवन के सिद्धांत या नियम इतने सहज, सरल और मानवीय हैं कि अगर कोई मन से चाहे तो अवश्य अपना सकता है। एक सुसभ्य, सम्मानित और आत्मनिर्भर व्यक्ति तथा समाज के निर्माण के लिए बापू की जीवन शैली अपनाना ही एकमात्र तरीक़ा है। हमारा राष्ट्र अगर बापू के विचार का कुछ अंश भी हमारे क़ायदे-कानून में शामिल कर दे, तो निःसन्देह एक सुन्दर समाज की कल्पना साकार हो सकती है। बापू के विचार समाज में समूल परिवर्तन कर एक आदर्श स्थिति को लाने में बेहद कारगर हो सकते हैं, जैसे कि आज़ादी की लड़ाई में गांधी जी ने किया था।   

आज गांधी जयन्ती पर सरकार और समाज से यही उम्मीद है कि गांधी को पढ़ें, समझें, फिर अपनाएँ बापू को सादर प्रणाम!   

महात्मा गांधी एवं लाल बहादुर शास्त्री जी को उनकी जयन्ती पर हार्दिक नमन!   

-जेन्नी शबनम (2.10.2019)   
(महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती पर)
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Saturday, August 31, 2019

67. 100वाँ जन्मदिन मुबारक हो माझा

जन्मदिन मुबारक हो माझा! 100 साल की हो गई तुम, मेरी माझा। गर्म चाय की दो प्याली लिए हुए इमा अपनी माझा को जन्मदिन की बधाई दे रहे हैं माझा कुछ नहीं कहती, बस मुस्कुरा देती है इमा-माझा का प्यार शब्दों का मोहताज कभी रहा ही नहीं चाय धीरे-धीरे ठण्डी हो रही है माझा अपने कमरे में नज़्म लिख रही है और इमा अपने कमरे में रंगों से स्त्री का चित्र बना रहे हैं; स्त्री के चेहरे से सूरज का तेज पिघल रहा है। बहुत धीमी आवाज़ आती है- इमा-इमा इमा दौड़े आते हैं और पूछते हैं- तुमने चाय क्यों नहीं पी माझा? अच्छा अब उठो और चाय पीयो, देखो ठण्डी हो गई है तुम्हें रोज़ रात को चाय पीने की तलब होती है, मुझे मालूम है, तभी तो रोज़ रात को एक बजे तुम्हारे लिए चाय बना लाता हूँ इमा धीरे-धीरे दोनों प्याली पी जाते हैं, मानों एक प्याली माझा ने पी ली फिर माझा को प्यार से सुलाकर अपने कमरे में चले जाते हैं, रंगों की दुनिया में जीवन बिखेरने। 
हाँ! इमा वही इमरोज़ हैं जिनके प्रेम में पड़ी अमृता की नज़्मों को पढ़-पढ़कर एक पीढ़ी बूढ़ी होने को आई है माझा वह नाम है जिसे बड़े प्यार से उन्होंने अमृता को दिया है अमृता-इमरोज़ ने समाज के नियम व क़ायदे के ख़िलाफ़ जाकर सुकून की दुनिया बसाई। वे एक मकान में आजीवन साथ रहे, पर कभी एक कमरे में न रहे। दोनों अपने-अपने काम मे मशगूल, कभी किसी की राह में अड़चन पैदा न की आपसी समझदारी की मिसाल रही यह जोड़ी; हालाँकि प्यार में समझदारी की बात लोग नहीं मानते हैं दोनों ने कभी प्यार का इज़हार नहीं किया; लेकिन दोनों एक दूसरे के प्यार में इतने डूबे रहे कि कभी एक दूसरे को अलग माना ही नहीं अब भी इमरोज़ के लिया अमृता जीवित हैं और कमरे में बैठी नज़्में लिखती हैं अब भी वे रोज़ दो कप चाय बनाते हैं और अमृता के लिए रखते हैं चाय के प्यालों में आज भी मचलता है अमृता-इमरोज़ का प्यार।   
इमरोज़ अमृता से शिकायत करते हैं- ''अब तुम अपना ध्यान नहीं रखती हो माझा मैं तो हूँ नहीं वहाँ, जो तुम्हारा ख़याल रखूँगा'' माझा मुस्कुरा देती हैं, कहती हैं- एक आख़िरी नज़्म सुन लो इमा, मेरी आख़िरी नज़्म जो सिर्फ़ तुम्हारे लिए-   

मैं तुम्हें फिर मिलूँगी 
कहाँ कैसे पता नहीं  
शायद तेरे कल्पनाओं
की प्रेरणा बन
तेरे कैनवस पर उतरूँगी
या तेरे कैनवस पर
एक रहस्यमयी लकीर बन
ख़ामोश तुझे देखती रहूँगी
मैं तुझे फिर मिलूँगी
कहाँ कैसे पता नहीं
या सूरज की लौ बनकर
तेरे रंगो में घुलती रहूँगी
या रंगो की बाँहों में बैठकर
तेरे कैनवस पर बिछ जाऊँगी
पता नहीं कहाँ किस तरह
पर तुझे ज़रूर मिलूँगी...   

बीच में ही टोक देते हैं इमरोज़ आह! मैं जानता हूँ मेरी माझा, तुम अपनी नज़्मों में मुझे जीवित रखोगी और मैं अपने जीवन के पल-पल में तुम्हें सँभाले रखूँगा तुम गई ही कहाँ हो, जो मुझसे मिलोगी तुम मेरे साथ हो हाँ, अब हौज़ ख़ास का वह मकान न रहा, जहाँ हमारी सभी निशानियाँ थीं, वक़्त ने वह छीन लिया मुझसे तुम भी तो नहीं थी उस वक़्त, जो ऐसा होने से रोकती पर यह मकान भी अच्छा है तुम्हारे पसन्द का सफ़ेद रंग यहाँ भी है परदे का रंग देखो, कैसे बदलता है, जैसा तुम्हारा मन चाहे उस रंग में परदे का रंग बदल दो इस मकान में मैं तुम्हें ले आया हूँ और अपनी हर निशानी को भी अपने दिल में बसा लिया हूँ जानता हूँ तुम्हारी परवाह किसी को नहीं, अन्यथा आज हम अपने उसी घर में रहते, जिसे हमने प्यार से सजाया था हर एक कोने में सिर्फ़ तुम थी माझा, फिर भी किसी ने मेरा दर्द नहीं समझा हमारा घर हमसे छिन गया माझा अब तो ग्रेटर कैलाश के घर में भी कम ही रहता हूँ, जहाँ बच्चे कहें, वहाँ ही रहता हूँ पर तुम तो मेरे साथ हो मेरी माझा अमृता हँसते हुए कहती हैं- इमा, मेरे पूरी नज़्म पढ़ लेना 
मैं और इमरोज़ जी
बहुत अफ़सोस होता है, इतनी कोशिशों के बाद भी अमृता-इमरोज़ के प्रेम की निशानी का वह घर बच न सका हर एक ईंट के गिराए जाने के साथ-साथ टुकड़े-टुकड़े होकर अमृता-इमरोज़ का दिल भी टूटा होगा किसी ने परवाह न की काश! आज वह घर होता तो वहाँ अमृता का 100वाँ जन्मदिन मनाने वालों की भीड़ होती छत पर पक्षियों की टोली जिसे हर दिन शाम को इमरोज़ दाना-पानी देते थे, की चहकन होती और अमृता के लिए मीठी धुन में जन्मदिन का गीत गाती घंटी बजने पर सफ़ेद कुर्ता-पायजामा में इमरोज़ आते और मुस्कुराते हुए दरवाज़ा खोलते और गले लगकर हालचाल लेते फिर ख़ुद चाय बनाते और मुझे पिलाते अमृता की ढेर सारी बातें करते अमृता का कमरा, जहाँ वह अब भी नज़्में लिखती हैं, दिखाते इमरोज़ को घड़ी पसन्द नहीं, इसलिए वक़्त को वे अपने हिसाब से देखते हैं हाँ, वक़्त ने नाइंसाफी की और अमृता को ले गया काश! आज अमृता होतीं तो उनकी 100वीं वर्षगाँठ पर इमरोज़ की लिखी नज़्म अमृता से सुनती बहुत-बहुत मुबारक हो जन्मदिन अमृता-इमरोज़!  
मैं और इमरोज़ जी
-जेन्नी शबनम (31.8.2019)
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Thursday, August 1, 2019

66. जीवन का आनन्द

आनन्द
रविवार का दिन! अलसाया- सा मन! मौसम बहुत सुहावना है। रात ख़ूब बारिश हुई थी और अभी भी हल्की-हल्की फुहारें पड़ रही हैं। हम सुस्ती से उठकर चाय पी ही रहे थे कि अचानक ख़याल आया- क्यों न इस मौसम का आनन्द लेने हम लॉन्ग-ड्राइव पर चलें। लाल रंग की मारुति 800 से निकल पड़े हम, बिना पूर्व कार्यक्रम की रूपरेखा बनाए। कहाँ जाना है नहीं मालूम, पर बतकही करते हुए चले जा रहे हैं। हल्की भूख लगी तो झालमुढ़ी ख़रीदकर काग़ज़ के ठोंगे से निकाल-निकालकर खा लिया। प्यास लगी तो सड़क किनारे किसी चापाकल पर अँजुरी से ठण्डा-ठण्डा पानी पी लिया। चाय की तलब लगी तो किसी चाय की टपरी पर कुल्हड़ में सुड़क-सुड़ककर इलायची वाली चाय पी ली। स्टीरियो पर कोई मधुर गीत बज रहा है और साथ में हम गुनगुना रहे हैं कभी कोई मज़ाक या कोई मज़ेदार चुटकुला। ज़ोर की भूख लगी तो किसी सस्ते से ढाबे पर रोटी, तरकारी, दही खा लिया। कोई फ़िक्र नहीं कि लोग क्या सोचेंगे, जो मन को भाया वह कर रहे हैं। क्या मस्त दिन और ज़िन्दगी का मज़ा! कितना सुन्दर और सुखद है न! और इसपर बारिश तेज़ हो जाए। अहा! सोने में सुगन्ध! 
बरसात

पानी
 
 
अब भी याद है बचपन की वह झमाझम बारिश। ख़ूब जीभरकर बारिश में नहाना और पेड़-पौधों को दुलराना। घर के सभी बर्तनों में बारिश का पानी भरकर रखना। छत को ख़ूब रगड़-रगड़कर धोना। छत की नाली को बंदकर एक छोटा तरणताल का रूप देकर उसमें छप-छप कूदना और काग़ज़ की नाव बनाकर तैराना। अँजुरी से पानी उलीच-उलीचकर घर के सभी लोगों को भिगो देना। घंटो कैसे निकल जाते, पता ही नहीं चलता था। सड़क पर लोगों का बारिश से बचने के लिए क्या-क्या जतन करते हुए देखना मन को बहुत भाता था। रिक्शावाला ख़ुद भीगकर सवारी को प्लास्टिक में छुपाए हुए है; लेकिन बारिश है कि अपने बौछारों से प्लास्टिक को उड़ा दे रही है। साइकिल-सवार तेज़ी से भाग रहा है और बग़ल से गुज़रने वाली गाड़ी के छींटे से कीचड़ में सन गया है। छोटे-छोटे बच्चे बारिश में उछल-कूद कर रहे हैं और उनकी माताएँ ग़ुस्सा हो रही हैं कि ज़्यादा भीगने से वे बीमार होंगे। चिड़िया बारिश से छुपने के लिए ओसारे में छुप गई है और चीं-चीं कर अपने साथियों को छिपने के लिए बुला रही है। सब कुछ बहुत सुहावना होता था।  
मज़ा
मस्ती


 
 
ऐसा दिन भी होता था कभी, जब हम बेफ़िक्र होते थे। न कोई डर, न किसी से रंजिश। जीवन बस जीवन - चहकना, महकना और खिलखिलाना। धीरे-धीरे समय को तेज़ी का रोग लग गया। अब वह ठहरता ही नहीं; न अपने लिए, न किसी अपनों के लिए। समय के पीछे हम सभी बेतहाशा भाग रहे हैं। यह सब बेसबब नहीं; लेकिन वक़्त की कसौटी ने ऐसे ही परखने का मन बना लिया है। हम भाग रहे हैं, बस भाग रहे हैं। न समय ठहरता है, न मन, न मानव। ठहर गए, तो हार गए। भले इसके लिए सुकून को तिलांजली दे दी गई। बस एक ही धुन कि सबसे आगे हम। आख़िर कब तक? जब समझ आया कि जीवनभर हम भागते रहे, ख़ुद को ख़र्च करते रहे और हाथ आया तो बस मलाल तब सोचते, काश! थोड़ा थमकर थोड़ा जीकर जीवन का लुत्फ़ उठाए होते
पड़ाव

सफ़र
ज़िन्दगी

उत्सव
अक्सर सोचती हूँ कितना छोटा और सीमित होता है जीवन। सभी को काल कवलित होना ही है। फिर क्यों है इतना त्राहिमाम्? जन्म के बाद से ही ख़ुद को साबित करने के लिए भेड़चाल में घुसना पड़ता है। कैसे सबसे आगे आया जाए। कितनी सुख-सुविधा जुटाई जाए। राह चलें, तो दस लोग बोलें कि देखो वह कोई ख़ास जा रहा है। अमीरी दिखाने के लिए बड़ी और महँगी गाड़ियाँ, विशाल कोठी, ब्रांडेड कम्पनी के वस्त्र, ज़बरदस्ती का रुआब। विशिष्ठ वर्ग का दिखने और उस जीवन-स्तर को बनाए रखने में आदमी सामान्य जीवन जी नहीं पाता है। धीरे-धीरे मनुष्य इतना दम्भी होता जा रहा है कि जीवन की छोटी-छोटी ख़ुशियों का आनन्द नहीं ले पाता है। आदमी ने ख़ुशी और आनन्द को तवज्जोह न देकर शोहरत-दौलत को दिया। ख़ूब कमाया और शान से लुटाया। पर अंत समय में सब कुछ हाथ से फिसल जाता है। परहेज़ी-खाना, नियमित रूटीन, दवा, डॉक्टर और घरवालों पर बोझ। जिनके लिए जीवनभर कमाया और जीवन गँवाया, वे भी अब दूर भागते हैं। यही जीवन का वर्तमान परिदृश्य और यही जीवन का सत्य!  

जीवन की अन्तिम यात्रा - बनारस
आज चारों तरफ़ कोहराम मचा है। आपाधापी के इस माहौल में हर आदमी दूसरे को गिराकर ख़ुद ऊपर उठना चाहता है। ईर्ष्या-द्वेष ने हर आदमी के मन में घर बसा लिया है। सभी एक दूसरे को सन्देह से देखते हैं। ज़रा-ज़रा-सी बात पर आपा खो देते हैं। दूसरों के विचारों को सम्मान देना तो अब ऐसा लगता है जैसे यह हमारी परम्परा का हिस्सा ही नहीं रह गया है। स्त्री और बच्चे बहुत ज़्यादा असुरक्षित हो चुके हैं। आज हर लोग डरे हुए हैं कि कब हमारे साथ क्या हो जाए। छोटी-छोटी बातों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं। ऐसी-ऐसी हिंसक घटनाएँ हो रही हैं कि मन विचलित हो जाता है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हम सभी ख़ुद को बेबस महसूस करते हैं। कैसे इन सबसे नजात पाया जाए? 
दुःख व आँसू (हमारा सीज़र)
जहाँ तक मैं सोचती हूँ कि मनुष्य की मनोवृत्ति को सुधारा जाएगा, तभी उसकी प्रवृत्ति सुधरेगी और समाज में समुचित बदलाव हो सकता है। इस बदलाव की शुरुआत निःसन्देह घर और स्कूल से ही सम्भव है। हालाँकि इस दिशा में स्वयंसेवी संस्थाएँ एवं समाज-सुधारक प्रयासरत हैं। फिर भी हम असफल हो रहे हैं और समाज में नफ़रत का वातवरण बढ़ता जा रहा है। हर माता-पिता और स्कूल अपने बच्चों को प्रेम व सम्मान देने का बीजारोपण बचपन से करें, तो मुमकिन है कि बदलाव को एक नई दिशा मिलेगी। हर माता-पिता निःसंकोच मनोविश्लेषक से मिलकर बच्चे की मनोवृत्ति का पता करें और उनके निर्देशों का पालन करें। हर सरकारी अस्पतालों में मनोविश्लेषण का विभाग होना चाहिए; जैसे बच्चों का टीकाकरण अनिवार्य होता है, वैसे ही यह भी अनिवार्य होना चाहिए।  
 
उमंग

उत्साह
प्रकृति द्वारा प्रदत्त और हमारे द्वारा सृजित समस्त वस्तुएँ प्रकृति की अक्षुण्ण सम्पदा हैं। सूर्य, हवा, पानी, जंगल, ज़मीन, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और भी बहुत कुछ हमें प्रकृति ने दिया है। प्रकृति ने जीभरकर हमें दिया है; लेकिन हम हैं कि प्रकृति और जीवन का अपमान करते हैं। जबकि जीवन कितना ख़ूबसूरत है। अलौकिक है। खुश रहना, आनन्दित रहना, दूसरों को सुख देना हमारी आन्तरिक सम्पत्ति है यह ऐसी सम्पदा है, जिसे हम छू नहीं सकते; बल्कि एहसास कर सकते हैं। सबसे बड़ी ख़ूबी जो हम मानव को प्रकृति ने दी है, वह है हमारा मस्तिष्क एवं सोचने, समझने और महसूस करने की शक्ति। तो क्यों नहीं हम प्रकृति के इस तोहफ़े का आनन्द उठाएँ? जब जागो तभी सवेरा। उठो और निकल पड़ो प्रेम पाने और प्रेम लुटाने, ख़ुशियाँ बटोरने और ख़ुशियाँ पसारने। इंसानी जीवन बहुत नेमत से मिलता है, इसे बहुत सोच-समझकर आनन्द के साथ ख़र्च करना चाहिए; ताकि अंत समय में हम ख़ाली हाथ न रहें, बल्कि प्रेम और आनन्द की पुड़िया हमारी मुट्ठी में बंद हो, जब हमारी आँखें बंद हों।  
प्रफुल्लित

-जेन्नी शबनम (1.8.2019)
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Tuesday, April 2, 2019

65. जेनरेशन गैप (लघुकथा)

"रोज़-रोज़ क्या बात करनी है, हर दिन वही बात- खाना खाया, क्या खाया, दूध पी लिया करो, फल खा लिया करो, टाइम से वापस आ जाया करो।" आवाज़ में झुंझलाहट थी और फ़ोन कट गया। 

वह हतप्रभ रह गई। इसमें ग़ुस्सा होने की क्या बात थी। आख़िर माँ हूँ, फ़िक्र तो होती है न! हो सकता है पढ़ाई का बोझ ज़्यादा होगा। मन-ही-मन में बोलकर ख़ुद को सान्त्वना देती हुई रंजू रजाई में सिर घुसाकर अपने आँसुओं को छुपाने लगी। यों उससे पूछता भी कौन कि आँखें भरी हुई क्यों हैं, किसने कब क्यों मन को दुखाया है। सब अपनी-अपनी ज़िन्दगी में मस्त हैं। 

दूसरे दिन फ़ोन न आया। मन में बेचैनी हो रही थी। दो बार तो फ़ोन पर नम्बर डायल भी किया, फिर कल वाली बात याद आ गई और रंजू ने फ़ोन रख दिया। सारा दिन मन में अजीब-अजीब-से ख़याल आते रहे। दो दिन बाद फ़ोन की घंटी बजी। पहली ही घंटी पर फ़ोन उठा लिया। उधर से आवाज़ आई "माँ, तुमको खाना के अलावा कोई बात नहीं रहता है करने को। हमेशा खाना की बात क्यों करती हो? तुम्हारे कहने से तो फल-दूध नहीं खा लेंगे। जब जो मन करेगा वही खाएँगे। जब काम हो जाएगा लौटेंगे। तुम बेवज़ह परेशान रहती हो। सच में तुम बूढ़ी हो गई हो। बेवज़ह दख़ल देती हो। ख़ाली रहती हो, जाओ दोस्तों से मिलो, घर से बाहर निकलो। सिनेमा देखो, बाज़ार जाओ।"

रंजू को कुछ भी कहते न बन रहा था। फिर भी कहा- "अच्छा चलो, खाना नहीं पूछेंगे। पढ़ाई कैसी चल रही है? तबीयत ठीक है न?"
"ओह माँ! हम पढ़ने ही तो आए हैं। हमको पता है कि पढ़ना है और जब तबीयत ख़राब होगी, हम बता देंगे न।"

रंजू समझ गई कि अब बात करने को कुछ नहीं बचा है। उसने कहा "ठीक है, फ़ोन रखती हूँ। अपना ख़याल रखना।" उधर से जवाब का इन्तिज़ार न कर फोन काट दिया रंजू ने। सच है, आज के समय के साथ वह चल न सकी थी। शायद यही आज के समय का जेनरेशन गैप है। यों जेनरेशन गैप तो हर जेनरेशन में होता है; परन्तु उसके ज़माने में जिसे फ़िक्र कहते थे आज के ज़माने में दख़लअंदाज़ी कहते हैं। फ़िक्र व जेनरेशन गैप भी समझ गई है अब वह। 

-जेन्नी शबनम (2.4.2019)
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