Monday, August 25, 2025

127. वृद्धावस्था : अनुभव का पिटारा


मानव तथा मौसम का स्वभाव एक-सा होता है। कब, क्या, कैसे, कौन, कहाँ, क्यों परिवर्तित हो जाए, पता ही नहीं चलता। यों मानव-जीवन तथा मौसम प्रकृति के हिस्से हैं, जिनका परिवर्तन निश्चित व नियत समय पर होता है; परन्तु कई बार ऐसे अप्रत्याशित रूपांतरण होते हैं, जो न निर्धारित हैं न अपेक्षित। मौसम का पूर्वानुमान और ज्योतिष की भविष्यवाणी असत्य सिद्ध हो जाती है; परन्तु सभी की कामना होती है कि जीवन तथा मौसम सदैव उचित व अनुकूल रहे, जिससे जीवन कष्टपूर्ण एवं दुःखमय न बने।  


मानव-जीवन जन्म से मृत्यु तक की यात्रा है, जिसमें कई पड़ाव आते हैं। हर पड़ाव पर व्यक्ति से अपेक्षित कुशल-व्यवहार की आशा रहती है। जैसे बच्चों के लिए खाना, खेलना, पढ़ना, अनुशासन में रहना इत्यादि अपेक्षित हैं, वैसे ही वयस्क तथा वृद्ध के लिए कुछ आचरण व कार्य निश्चित होते हैं। वयस्क एवं प्रौढ़ धनोपार्जन-कार्य में लगे रहते हैं तथा वृद्ध अवकाश ग्रहण करने के बाद अपने घर व बच्चों के साथ समय व्यतीत करते हैं। वृद्ध व्यक्ति का जीवन अनुभवों से भरा होता है, अतः उन्हें उचित आदर-सम्मान देना चाहिए।  

संयुक्त राष्ट्र (यूनाइटेड नेशन) ने वृद्धजनों के सम्मान के लिए 14 दिसम्बर 1990 में वृद्ध दिवस मनाने की घोषणा की थी। 1 अक्टूबर 1991 के दिन पहली बार वृद्ध दिवस मनाया गया। अब हर वर्ष अक्टूबर की पहली तिथि को विश्व भर में 'अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस' मनाया जाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1 जुलाई 2022 तक बुज़ुर्गों की आबादी 14.9 करोड़ थी। वर्ष 2036 तक बुज़ुर्गों की संख्या 22.7 करोड़ होने का अनुमान है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व भर में पुरुषों का औसत जीवनकाल 70-75 वर्ष और स्त्रियों का 75-80 वर्ष है।  

सामान्यतः व्यक्ति जब प्रौढ़ रहता है तब जीवन के सभी आवश्यक कार्यों को पूर्ण करने की योजना बनाता है। बच्चों की शिक्षा व विवाह, उत्तम आवास, समुचित स्वास्थ्य-सुविधा, परिवार के जीवन स्तर को उन्नत करना, भविष्य के लिए कुछ धन एकत्रित करना इत्यादि के लिए हर व्यक्ति प्रयासरत रहता है। अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते-करते जब व्यक्ति उम्र के अन्तिम पड़ाव पर पहुँचता है, तब समझ आता है कि उसने अपने जीवन को यूँ ही समाप्त कर दिया, कभी स्वयं के लिए जिया ही नहीं। यदि आर्थिक स्थिति सुदृढ़ है, तो वृद्धावस्था थोड़ी सरल व सहज होती है; परन्तु आर्थिक स्थिति अच्छी न हो तो वृद्धावस्था अत्यन्त दयनीय व कष्टप्रद हो जाती है, विशेषकर अस्वस्थ होने की अवस्था में।  

हर व्यक्ति चाहता है कि उसके बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण करें। यह देखा गया है कि माता-पिता कठिन परिश्रम कर बच्चों को विदेश भेजने के लिए इच्छुक व तत्पर रहते हैं। जो बच्चे पढ़ने या नौकरी के लिए विदेश चले गए, उनके माता-पिता गौरवान्वित होते हैं; क्योंकि बच्चों की सफलता पर माता-पिता को स्वयं के सफल होने की अनुभूति होती है। ऐसे माता-पिता को समाज से भी सम्मान मिलता है। पर जब उनकी वृद्धावस्था आती है तब वे अकेलेपन का अनुभव करते हैं। जो बच्चे विदेश चले गए, उनमें से अधिकतर वापस नहीं लौटते हैं। कई बार देखा गया है कि वृद्ध माता-पिता की बीमारी या मृत्यु पर भी वे नहीं आ पाते। यह अत्यन्त दुःखद स्थिति है; परन्तु इसमें दोष किसी का नहीं। कई बार विदेश में कार्यरत बच्चे चाहकर भी नहीं आ पाते हैं; क्योंकि उनका कार्य या छुट्टी इसमें बाधा बनती है। कुछ बच्चे अपने माता-पिता को पैसे भेजकर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री मान लेते हैं। कुछ बच्चे अपने माता-पिता से मानसिक-जुड़ाव नहीं रखते, अतः वे चिन्ता भी नहीं करते कि माता-पिता को उनकी कितनी आवश्यकता है। कई घटनाएँ ऐसी देखी गईं हैं कि माता-पिता की मृत्यु पर बच्चे वीडियो कॉल द्वारा दाह-संस्कार का हिस्सा बने हैं। 

एक दुःखद घटना समाचारपत्र में छपी कि एक वृद्धा माँ सोफ़े पर बैठी द्वार की ओर देखती हुई छह माह से मृत पड़ी कंकाल बन गई थी। उस माँ के बच्चे विदेश में थे। निःसन्देह वे अपनी माँ के सम्पर्क में नहीं रहते होंगे, इसलिए उन्हें पता नहीं था कि उनकी माँ छह माह पहले मर चुकी है। सच! कुछ बच्चे कितने असंवेदनशील होते हैं! समाचारपत्र में आए दिन पढ़ने को मिलता है कि बच्चों ने वृद्ध माता-पिता को पीटा, खाने-खाने को तड़पाया, एक-एक पैसे के लिए तरसाया, अस्वस्थ होने पर देखभाल नहीं की, अत्यधिक अस्वस्थ होने पर महँगा उपचार नहीं करवाया। भाइयों के बीच कलह है कि माता-पिता को कौन रखे। बच्चों ने माता-पिता की सम्पत्ति अपने नाम करके उन्हें घर से निकाल दिया और उनसे कोई सम्पर्क न रखा। समाज में जगहँसाई के डर से माता-पिता को घर में रखा, पर इतनी मानसिक यंत्रणा दी कि वे साथ रहने के बदले मर जाना चाहते हैं। बच्चों ने वृद्ध माता-पिता से उकताकर सारे सम्बन्ध तोड़ लिए। बिना बताए रेलवे स्टेशन या मन्दिर या वृद्धाश्रम में वृद्ध माता-पिता को छोड़ दिया। वृद्ध को भूलने की बीमारी होने पर यदि वे घर से चले गए, तो उनके बच्चों ने कोई खोज-ख़बर नहीं ली। जीवन से तंग आकर किसी वृद्ध ने आत्महत्या कर ली आदि।

इसी समाज में कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जिन्होंने बिना दिखावा, बिना अपेक्षा, बिना सम्पत्ति के लालच अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा की, बहुत आदर-सत्कार किया और उनका मानसिक सम्बल बने रहे। कई घरों में आज भी बच्चे अपने माता-पिता से सलाह लेकर कोई कार्य करते हैं, चाहे उम्र कितनी भी हो। हालाँकि ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है; परन्तु यह भी सच है।  

हर माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चों की शिक्षा उत्तम एवं विवाह समृद्ध घर में हो तथा वे सदैव सुखी रहें। इसके लिए वे जीवन भर की पूँजी लगा देते हैं, चाहे आर्थिक स्थिति कितनी भी निम्न क्यों न हो। अपनी वृद्धावस्था की चिन्ता न कर बच्चों के सुख-सुविधा के लिए जीना भारतीय परम्परा है, जिसे हर व्यक्ति अपने सामर्थ्य से अधिक निभाता है। संतान अगर सुपात्र हो, तो वृद्धावस्था सुखद व्यतीत होता है। शारीरिक कष्ट कम या अधिक तो सभी को भोगना पड़ता है। लेकिन संतान स्वार्थी, अहंकारी, कृतघ्न, दुष्ट, निकम्मी, असभ्य, उदण्ड हो, तो वृद्धावस्था अत्यन्त कष्टकारी होता है। ऐसी संतान शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से कष्ट देती है और वृद्ध माता-पिता लाचार होकर सब सहने को विवश होते हैं।  

वृद्ध होना जीवन-क्रम का नियम है। परन्तु वृद्धावस्था की कठिनाइयाँ ऐसी हैं, जिसे सोचकर हर प्रौढ़ चिन्तित रहता है। माना जाता है कि स्वभाव से बाल्यावस्था और वृद्धावस्था एक समान हैं। व्यक्ति वृद्धावस्था में बच्चों-सा आचरण करने लगता है; परन्तु बाल्यावस्था और वृद्धावस्था में एक बहुत बड़ा अंतर है। बच्चे अगर हठ करें या कोई अनुचित माँग रखें तो माता-पिता उसे मनाते हैं और हठ पूरी भी करते हैं, वहीं अगर कोई वृद्ध हठ करे या कोई उचित माँग भी करे तो उनके बच्चे अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं।  

वृद्ध का मनोविज्ञान वृद्ध के अलावा कोई नहीं समझता है। हर वृद्ध की इच्छा होती है कि उनके बच्चे उनके साथ थोड़ा समय व्यतीत करें, उनके स्वास्थ्य की देखभाल करें, बच्चों के जीवन में क्या हो रहा है जानें, अपना सुख-दुःख और अनुभव बच्चों से बाँटें, बच्चों के बच्चे का पालन-पोषण करें, बच्चों के महत्त्वपूर्ण निर्णय में उनकी सहभागिता हो या कम-से-कम इसकी सूचना मिले इत्यादि। कुछ वृद्धों की यह इच्छा पूरी होती है, पर अधिकतर वृद्धों की इच्छाएँ उनके मन में ही दम तोड़ देती हैं। जिन बच्चों को उँगली पकड़कर चलना सिखाया, अक्षर-अक्षर पढ़ना सिखाया, रात-रातभर जागकर पालन-पोषण किया, हर समय उनकी छत्रछाया बनकर रहे, वे ही बच्चे अब कहते हैं कि तुमने क्या किया, हर माँ-बाप का जो कर्त्तव्य है वह तुमने किया, तो इसमें विशेष क्या किया? पालन-पोषण में अगर थोड़ी भी चूक हो गई हो, तो बच्चे दोषारोपण करते हैं बिना यह सोचे कि उनके माता-पिता तब युवा थे और सब कुछ धीरे-धीरे सीख रहे थे, कुछ त्रुटि तो हुई ही होगी। कोई भी मनुष्य पर्फेक्ट नहीं होता, तो माता-पिता से यह उम्मीद क्यों?  

वृद्धावस्था ज्ञान और अनुभव का पिटारा होता है, जिसे व्यक्ति समय-समय पर खोलता है और चाहता है कि अगली पीढ़ी उनसे सीख लें, ताकि उनका जीवन सुगम, सरल व सफल हो। नई पीढ़ी को यह लगता है कि पुरानी पीढ़ी नासमझ है, समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है जिसे वे जानते-समझते नहीं हैं, उनके पुराने ज्ञान या अनुभव का क्या लाभ। नई पीढ़ी उनकी बातों को अनसुना करती है या ''निरर्थक बातें मत करो'' कहकर चुप करा देती है। यह सही है कि बदलते समय के अनुसार नए तकनीक का ज्ञान अधिकतर वृद्धों को नहीं है; परन्तु जीवन का अनुभव उनके पास ख़ूब होता है, जिससे नई पीढ़ी बहुत कुछ सीख सकती है।

नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी में दूरी व टकराव का कारण जेनेरशन गैप, शिक्षा का स्तर, आर्थिक स्थिति, परम्परा, परिवेश, व्यवसाय, निर्भरता, तकनीक, नई खोज, जीवन जीने की नई पद्धति, रहन-सहन, परिधान, दिखावा, दिनचर्या, लालच, बुद्धिमता, सोच-विचार, भावनात्मक दूरी, संवेदनशीलता, संवेदनहीनता, बीमारी, लम्बी बीमारी, शारीरिक अक्षमता, बच्चों-सा व्यवहार, संयुक्त परिवार, एकल परिवार, बहुमंज़िला फ्लैट, खान-पान, भोज और पार्टी, मद्यपान, धूमपान, अनुशासन इत्यादि है। इस दूरी को पाटकर और वृद्धों के अनुभव से सीख लेकर अगर नई पीढ़ी कार्य करती है, तो निःसन्देह उनका जीवन सरल-सुगम होगा।  

अधिकतर वृद्ध वृद्धावस्था को शाप सममझते हैं; क्योंकि शारीरिक और आर्थिक निर्भरता उन्हें लाचार बना देती है, जिससे उन्हें आत्मग्लानि होती है। वृद्धजनों की समस्याएँ इतनी अधिक हैं कि उनके अपने उन्हें सम्मान देना तो दूर, नाता तक तोड़ लेते हैं। ऐसे में उपेक्षित वृद्ध अपना शेष जीवन कैसे व्यतीत करें, यह उनके जीवन का बहुत बड़ा प्रश्न बन जाता है। छोटे बच्चों का पालना-पोषण करना जितना ही आनन्ददायक होता है, वृद्ध की देखभाल करना उतना ही अधिक कष्टदायक होता है। बच्चों के नियत समय पर बड़े होने और निर्भरता समाप्त होने का पता होता है; लेकन वृद्ध की अस्वस्थता एवं शारीरिक निर्भरता के समाप्त होने का कोई नियत समय नहीं है। 

एक अवस्था के बाद पूर्णतः स्वस्थ रहना किसी भी वृद्ध के लिए सम्भव नहीं होता है। इसलिए कितनी भी अच्छी संतान हो, एक समय के बाद वह थक व ऊब जाती है। अक्सर वृद्ध अपनी असहाय अवस्था पर शोक मनाते हैं और अपने जीवन की समाप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। ऐसे में संतान को चाहिए कि थोड़ा समय ही सही अपने बुज़ुर्गों के साथ बिताएँ, ताकि उनका मनोबल गिरे नहीं, मानसिक सम्बल मिले और उन्हें यह अनुभूति हो कि उनके बच्चे साथ हैं।  

परन्तु ऐसा भी नहीं है कि वृद्धावस्था में आपसी कटुता का सारा दोष बच्चों का ही है। वृद्ध होने पर भी माता-पिता द्वारा घर में अपना वर्चस्व बनाए रखना, बच्चों पर अत्यधिक अनुशासन करना, बच्चों के जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेप करना, तनिक भी असुविधा होने पर बच्चों पर दोषारोपण करना, बच्चों की आर्थिक स्थिति से भिज्ञ रहकर भी अनावश्यक व्यय करना, बच्चों द्वारा कुछ अच्छा समझाने पर अपमान का अनुभव करना, बिना बात घर में कलह करना, बच्चों के बच्चों पर अपना अधिकार समझना, बच्चों के द्वारा अपनी कामनाओं की पूर्ति करना, बच्चों की असुविधा का ध्यान न रखना, वृद्धावस्था को स्वीकार न करना, नई पीढ़ी के साथ सामंजस्य न बिठाना इत्यादि कारण हैं, जिससे बच्चों के साथ सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं।  

अतः वृद्धावस्था में किसी भी रूप में अपनी संतान पर बोझ बनना सबसे बड़ा अपराध है, इसे हर व्यक्ति को समझकर व मानकर चलना चाहिए। भावनात्मक एवं मानसिक निर्भरता तो उचित है, परन्तु शारीरिक और आर्थिक रूप से निर्भर न बनना ही श्रेयस्कर है। हालाँकि यह सभी के लिए संभव नहीं है, परन्तु चेष्टा अवश्य करनी चाहिए। वृद्ध स्वयं को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक योग-अभ्यास, नियमित व संयमित दिनचर्या का पालन करें। अस्वस्थ होने पर तुरन्त चिकित्सा करवाएँ ताकि कोई भी बीमारी बढ़े नहीं। अनावश्यक रूप से बच्चों के मामले में हस्तक्षेप न करें। जितना सम्भव हो आत्मनिर्भर रहें। सभी बच्चों को समान रूप से प्यार करें तथा उनमें आपसी मनमुटाव या दुराव की भावना न भरें। स्वयं को हमेशा व्यस्त रखें और सदैव सकारात्मक सोचें।

-जेन्नी शबनम (30.8.2024)
___________________