Sunday, June 14, 2020
77. सुशांत अब सदा के लिए शांत हो गया है
Friday, June 5, 2020
76. बेज़ुबानों की हत्या
महात्मा गांधी ने कहा था कि व्यक्ति अगर हिंसक है, तो वह पशु के समान है। यों लगता है जैसे मानव पशु बन चुका है और पशु मानव से अधिक सभ्य है। यदि पशुओं को चोट न पहुँचाया जाए, तो वे कुछ नहीं करते हैं। पशुओं में न लोभ है, न द्वेष, न ईर्ष्या, न प्रतिकार का भाव, न मान-सम्मान-अपमान की भावना। प्रकृति के साथ प्रकृति के बीच सहज जीवन ही पशु की मूल प्रवृत्ति है। परन्तु मनुष्य अपनी प्रकृति के बिल्कुल विपरीत हो चुका है। मनुष्य की मनुष्यता समाप्त हो चुकी है। मनुष्य में क्रूरता, पाश्विकता, अधर्म, क्रोध, आक्रोश, निर्दयता का गुण भरता जा रहा है। वह पतित, दुराग्रही, पाखण्डी, असहिष्णु, पाषाण-हृदयी हो गया है। वह हिंसक ही नहीं क्रूर हिंसक और बर्बर बन चुका है।
आए दिन कोई-न-कोई घटना ऐसी हो जाती है कि मन व्याकुल हो उठता है। केरल में गर्भवती हथिनी को अनानास में विस्फोटक रखकर खिला दिया गया, जिससे उसकी मौत हो गई। यानी कि उसकी हत्या कर दी गई। लोगों का कहना है कि खेतों को जंगली सूअर से बचाव के लिए इस तरह मारने की विधि अपनाई जाती है। क्या जंगली सूअर जीवित प्राणी नहीं हैं, जिन्हें इतने दर्दनाक तरीक़े से मारा जाता है? अगर हथिनी आबादी वाले क्षेत्र में आ गई थी, तो वन विभाग को पता कैसे न चला? वन विभाग की लापरवाही और आदमी की हिंसक प्रवृत्ति के कारण हथिनी को ऐसी मौत मिली। मनुष्य इतना क्रूर और आतातयी क्यों हो जाता है बेज़ुबानों के साथ? चाहे वह निरीह पशु हो या निर्बल इंसान।
केवल इस हथिनी की बात नहीं है। ऐसे हज़ारों मामले हैं जब बेज़ुबान जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों के साथ क्रूरता हुई है और लगातार होती रहती है। हाथी-दाँत के कारोबारी बड़ी संख्या में हाथियों के साथ क्रूरता करते हैं। चमड़ा का व्यवसाय करने वाले उससे सम्बन्धित पशुओं को तड़पा-तड़पाकर मारते हैं। गाय, बैल, भैंस को मारकर खाया जाता है और निर्यात भी किया जाता है। सूअर की हत्या बेहद क्रूरता से की जाती है। बकरी और मुर्गा की तो गिनती ही नहीं है कि हर दिन कितने मारे जाते हैं। कहीं झटका देकर काटते हैं, तो कहीं ज़बह करके मारते हैं।
मात्र अपने स्वाद के लिए इन पशुओं की हत्या की जाती है। कुछ मन्दिरों में बलि के नाम पर पशुओं की हत्या होती है, तो बक़रीद पर बकरियों को क्रूरता से मारा जाता है। होली में बकरी का मांस खाना जैसे परम्परा बन चुकी है। मछली को पानी से निकालकर पटक-पटककर मारते हैं या जीवित ही उसका पकवान बनाते हैं। मछली की हत्या कर उसे खाना कैसे शुभ हो सकता है? यह सब प्रथा और परम्परा के नाम पर होता है और सदियों से हो रहा है। किसी जानवर को मारकर कैसे कोई स्वाद ले सकता है? कैसे किसी जीव की हत्या कर जश्न या त्योहार मनाया जा सकता है? यह असंवेदनशीलता है और क्रूरता का चरमोत्कर्ष है।
अक्सर मैं सोचती हूँ कि जिन लोगों ने कुत्ता, बिल्ली, गाय, तोता या कोई भी पशु-पक्षी को पालतू बनाया है और उसे ख़ूब प्यार-दुलार देते हैं, वे अन्य जानवरों को कैसे मारकर खाते हैं? किसी जानवर को मारकर उसका मांस अपने पालतू जानवर को खिलाना क्या संवेदनहीनता नहीं है? अन्य दूसरे जानवरों की पीड़ा उन्हें महसूस क्यों नहीं होती है? अपने पसन्द और स्वाद के अनुसार जानवरों को पालना और मारना, यह कैसी सोच है, कैसी मानसिकता और परम्परा है?
गर्भिणी हथिनी को लेकर ख़ूब राजनीति हो रही है। निःसन्देह यह मामला बेहद दर्दनाक और अफ़सोसनाक है। परन्तु जैसे हथिनी को लेकर लोगों का आक्रोश है अन्य जानवरों के लिए क्यों नहीं? पशुओं के अधिकार को लेकर आवाज़ उठाने वाले संस्थान, सभी पशुओं के लिए क्यों नहीं आवाज़ उठाते हैं? सभी पशुओं-पक्षियों को मनुष्य की तरह ही जीने का अधिकार है। जंगली जानवर हों या पालतू, सभी को उनकी प्रकृति के अनुरूप जीवन और सुरक्षा मिलनी चाहिए। सभी जंगलों के चारों तरफ़ काफ़ी ऊँचा बाड़ बना दिया जाए, तो इन जंगली जानवरों से आघात की संभावना ही न हो। ये बेख़ौफ़ और आज़ाद अपने जंगल में अपनी प्रकृति के साथ रहेंगे। न जानवरों से किसी को भय न जानवरों को मनुष्य का ख़ौफ़।
अपने से कमज़ोर और ग़ैरों के प्रति दया और करुणा जबतक मनुष्य में नहीं जागेगी, तब तक ऐसे ही निरपराध जानवरों और मनुष्यों की हत्या होती रहेगी। चाहे वह मॉब लिंचिंग में किसी आदमी की हत्या हो या किसी स्त्री का उसके स्त्री होने के कारण हत्या हो। चाहे वह गर्भिणी हथिनी की हत्या हो या बकरी या मुर्गे की हत्या हो। ऐसे हर हत्या को गुनाह मानना होगा और हर गुनाहगार को दण्डित करना होगा।