आज अंतरराष्ट्रीय श्रमिक/मज़दूर दिवस है। हर साल यह दिन आता है और ऐसे चला जाता है, जैसे रोज़ सुबह का उगता सूरज अपने नियत समय पर शाम को ढल जाता है। कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं, कहीं कोई शोर नहीं, बदलाव के लिए पूरज़ोर आवाज़ नहीं। मज़दूरों-किसानों के लिए कहीं कोई इन्तिज़ाम नहीं, उनके जीने के लिए कोई सहूलियत नहीं। यों सत्ता पर आसीन हर सरकार किसानों, मज़दूरों, श्रमिकों के लिए बड़ी-बड़ी बातें, बड़ी-बड़ी योजनाएँ, बड़ी-बड़ी घोषणाएँ करती है; लेकिन धरातल पर कहीं कुछ नहीं होता। साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा की पार्टियाँ किसानों-मज़दूरों के हक़ के लिए शुरू से प्रतिबद्ध हैं और समय-समय पर इनके लिए सरकार से लड़ती रही हैं। लेकिन वह नारों से इतर मज़दूरों की स्थिति बदलने में नाकाम रही। आज किसानों-मज़दूरों के हित के लिए जो भी सहूलियत है, भले बहुत कम सही, पर इनके ही बदौलत है।
बचपन से फैज़ अहमद फैज़ का मशहूर गीत, जिसे सुन-सुनकर हम बड़े हुए हैं, बरबस आज के दिन मुझे याद आ जाता है -
हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया माँगेंगे
वो सेठ व्यापारी रजवाड़े दस लाख, तो हम हैं दस करोड़
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा माँगेंगे
आज के दिवस पर 5 साल पुरानी एक घटना याद आ रही है। हमलोग घूमने के लिए लन्दन गए और वहाँ एक होटल में ठहरे। बाथरूम का फ्लश ख़राब हो गया, तो मैंने रिसेप्शन पर ठीक करवाने के लिए कह दिया। कुछ मिनट बीते होंगे कि दरवाज़े की घंटी बजी, मैंने दरवाज़ा खोला। सामने एक लंबा-सा नौजवान खड़ा था, जिसने शर्ट, पैंट, कोट, चमचमाता जूता और हाथ में दस्ताना पहन रखा था। उसने पूछा कि मैंने रिसेप्शन पर कॉल किया था। मैं कहा कि हाँ, बाथरूम का फ्लश ख़राब हो गया है, कृपया किसी को ठीक करने भेज दीजिए। वह बोला ठीक है, एक मिनट में आया। फिर वह एक बैग लेकर आया और बाथरूम ठीक करने लगा। मैं हतप्रभ हो गई। मैं तो उसे होटल का मैनेजर समझ रही थी। उसे देखकर मैं सोचने लगी कि हमारे देश में अगर होता तो उसका वस्त्र कैसा होता। शर्ट-पैंट तो ठीक है परन्तु चमचमाता जूता और हाथ में दस्ताना, यह तो मैंने आज तक नहीं देखा। मैं सोचने लगी हमारे देश में गंदे नाले की सफ़ाई में हर साल कितने लोगों की मृत्यु हो जाती है। हमारे यहाँ सफ़ाईकर्मियों को सबसे निम्न दर्जा प्राप्त है। हमारी सरकार को इनकी सुरक्षा और सम्मान के लिए कड़े नियम बनाने होंगे। अगर ये न हों, तो हमारे लिए जीवन नामुमकिन हो जाएगा।निश्चित ही सफ़ाईकर्मियों का महत्व हम सभी को इस कोरोनाकाल में अच्छी तरह समझ आ गया है। शायद अब इनके हालात में थोड़ा ही सही, पर सुधार हो।
किसानों की ज़मीन लेकर बड़े उद्योगपतियों को उद्योग लगाने के लिए दी गई। किसानों की खेती की ज़मीन सस्ते में लेकर उस पर मॉल बनाए जा रहे हैं, बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ बनाई जा रही हैं। यह तो तय है कि इन सबका निर्माण मज़दूर करता है, और उन्हीं के पास अपना सिर छिपाने के लिए छत नहीं है। जिनकी खेती की ज़मीन ले ली गई, उनके भरण-पोषण के लिए कोई निदान नहीं किया गया। वे या तो पलायन करते हैं या फिर किसी तरह उम्र काटने के लिए आसमान की तरफ़ हाथ उठाए दुआओं में ज़िन्दगी खपाते हैं। किसान का ऋण उनके जीवन का ऋण होता है, जिसे चुकाने में वे अपनी जान की बाज़ी लगा देते हैं। परन्तु मौसम की मार, सरकार की बेरुखी और निरंकुशता किसानों को तोड़ देती है और वे कभी उससे बाहर नहीं आ पाते हैं।
इंसान की पाँच बुनियादी ज़रूरतें- भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य हैं, जिनके बिना एक सुसंस्कृत और विकसित देश की कल्पना सम्भव नहीं है। परन्तु आज भी हमारे देश में इन विषयों पर सरकार का ध्यान नहीं जाता है। सरकारी योजनाओं का फ़ायदा उच्च वर्ग और पूँजीपतियों को ही मिलता है। आम लोग जिनमें निम्न वर्ग, आदिवासी, दलित, किसान, मज़दूर, असंगठित कामगार इत्यादि को इसका कोई लाभ नहीं मिलता है।
छोटे शहरों और गाँवों में आज भी अस्पताल नहीं है। वहाँ आज भी ऐसे स्वास्थ्यकर्मी नहीं हैं, जो लोगों को स्वस्थ्य के प्रति जागरूक कर सकें। यहाँ के निवासी बीमार हों, तो छोटा ही सही कोई अस्पताल तो हो, ताकि बिना इलाज वह मरे नहीं। अगर किसी को कोई बड़ी बीमारी हो गई, तो बड़े शहर जाकर इलाज कराना बहुत कठिन होता है। इसलिए उन पिछड़े इलाक़ों में इलाज के अभाव में मृत्यु बहुत ज़्यादा होती है। अस्पताल और प्रशिक्षित दाई न होने के कारण गाँव में आज भी अधिकांश बच्चों का जन्म घर में होता है, जिसे गाँव की अप्रशिक्षित दाई करवाती है। जच्चा-बच्चा राम भरोसे।
गाँव हो या शहर (दिल्ली को छोड़कर) जहाँ भी सरकारी स्कूल है, वहाँ के शिक्षा का स्तर तो सभी को मालूम ही है। सरकार से अनुदान मिलने पर भी भ्रष्टाचार का दीमक सब चट कर जाता है। देश में दो तरह की शिक्षा पद्धति जब तक रहेगी, समाज के दोनों वर्गों की खाई कभी नहीं भरेगी। पूरे देश में सिर्फ़ एक माध्यम से पढ़ाई होनी चाहिए, अमीर हों या ग़रीब सभी की शिक्षा निःशुल्क तथा एक साथ होनी चाहिए। हमारे देश में जब हिन्दू-हिन्दू करने वाली सरकार बनी, तो मुझे सिर्फ़ एक बात की उम्मीद थी कि यह पार्टी जो ख़ुद को भारतीय संस्कृति की अकेली पैरोकार मानती है, भारतीय परिधान और हिन्दी पर ज़ोर देती है, निश्चित ही हिन्दी को हमारे देश की राष्ट्रभाषा बनाएगी। पर ऐसा कुछ न हुआ, आज भी हम अँगरेज़ी की ग़ुलामी कर रहे हैं।
जब से राम मन्दिर प्रकरण शुरू हुआ है, देश का साम्प्रदायिक सौहार्द इस तरह बिगड़ गया है कि लोगों में आपसी प्रेम पनपना नामुमकिन है। हर घटना को हिन्दू-मुस्लिम के चश्मे से देखा जाता है। यह हिन्दू-मुस्लिम करवाने वाली तो राजनीतिक पार्टियाँ हैं, लेकिन करने वाले वे बेरोज़गार और अशिक्षित हैं जिनके पास कोई काम नहीं है। यों कहें कि इन्हें ऐसा करने के लिए पोषित किया जाता है और हर पार्टी में ऐसे लोगों का संगठित हुजूम है जो हर वक़्त हिन्दू-मुसलमान करता है। जिनके पास पेट भरने के लिए नहीं, वे लोग सहज ही इस अपराध में शामिल हो जाते हैं। दंगा हो या आतंकवाद, इसके जड़ में अशिक्षा और बेरोज़गारी ही है। जाति और साम्प्रदायिक आधार पर किसानों-मजदूरों को बाँटने का काम करके वोट बैंक तैयार होता है और उनके द्वारा जन-विरोधी कार्य करवाए जाते हैं।
हमारी सभी आशाएँ मिट चुकी हैं। अँधेरा गहराता जा रहा है। फिर भी उम्मीद की एक किरण है, जो कभी-कभी दिख जाती है। महीनों से कोरोना संकट से जूझ रहे प्रवासी कामगारों, श्रमिकों, मज़दूरों, छात्रों और वे सब जो अपने-अपने घरों से दूर हैं; उनमें से कुछ के लिए सरकार द्वारा घर वापसी का प्रबन्ध किया गया है। आज एक ट्रेन रवाना हुई है, जिसमें काफ़ी लोग जो घर पहुँच पाने की उम्मीद छोड़ चुके थे, अपने-अपने घरों को जा रहे हैं; कोरोना से बचाव के लिए उनके कुछ और जाँच किए जाएँगे।
काफ़ी देर से सही, पर सरकार ने सही क़दम उठाया है। इस देरी के कारण न जाने कितने लोगों की जान चली गई है। जिनके पास घर नहीं, पैसा नहीं, खाना नहीं वे कैसे गुज़ारा करते? कैसे व्यक्तिगत दूरी का पालन करते हुए ख़ुद को कोरोना से बचाते? भय और आशंका के कारण कामगारों ने जान जोखिम में डालकर, एक झोले में अपना पूरा घर समेटकर, कितने-कितने किलोमीटर नंगे पाँव चल दिए। पर उनमें से बहुत कम ही अपने प्रांत या घर पहुँच पाए। किसी-किसी का भूख से दम निकला, तो किसी-किसी का शरीर इतनी लम्बी दूरी चलना सह नहीं पाया और काल-कवलित हो गया। अधिकांश तो लॉकडाउन तोड़ने के जुर्म में पुलिस से मार भी खाए और शेल्टर होम की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ ठहराए भी गए। कई मेहनतकश ने तो मुफ़्त का रहना स्वीकार न किया और अपने हुनर का इस्तेमाल कर उस स्थान को रंग रोगन कर सुन्दर बनाकर एक अच्छा उदाहरण पेश किया। आज के दिन बस यही कामना है कि जितने भी लोग घर से दूर अपने घर जाने की बाट जोह रहे हैं, सरकार उन्हें सुरक्षित तरीक़े से उनके घर पहुँचा दे।
मज़दूर दिवस की शुभकामनाएँ!
- जेन्नी शबनम (1.5.2020)
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29 comments:
मजदूरों की बात होते-होते अचानक से राम मंदिर उछल आया? उसके पहले सामाजिक सद्भाव सही था? उसके पहले मजदूरों की स्थिति सही थी?
हिन्दू-मुस्लिम तो आज़ादी के पहले से आरम्भ हो गया था, शायद जानकारी होगी आपको?
बहरहाल, एक अच्छे बिंदु से आरम्भ हुआ लेख का.. फिर लन्दन वाले मजदूर की स्थिति के बाद लगा कि शायद देश की किसी स्थिति में परिवर्तन करने जैसी कोई बात हो मगर.....
फिलहाल....
मजदूर दिवस को सार्थक करती सुन्दर प्रस्तुति।
मैंने भी लिखा है कि कुल लाभ को जवाबदेह सभी कारकों, पूंजी, भूमि, व्यवस्था, श्रमिक और साहस के मध्य सामान बँटवारा हो ! पूंजीवाद में ही समाजवाद आ जायेगा !
हम सब जितनी चिंता इन मेहनत कश लोगों की कर लेते हैं कर पाते हैं पता नहीं सरकार और प्रशासन आखिर क्यूँ नहीं कर पाता . श्रमिक वर्ग में सबसे बुरी स्थिति महिलाओं और बच्चों की है | सार्थक चिंतन करती पोस्ट
मजदूर दिवस की शुभकामनाएँ!
बहुत बढ़िया लेख। आपने मजदूरों के बहाने सामाजिक आर्थिक परिदृश्य की विवेचना कर डाली। शुभकामनाए आपको।
बहुत अच्छा विश्लेषणात्मक लेख। सहमत हूँ। बधाई।
आज मज़दूरों की क्या स्थिति है सभी जानते है।
ंसरकार कोई भी हो उनके सुधार की कोई गुंजाइश नहीं दिखती।एक महाक्रति की आवश्यकता है। जागरूक होने की और नज़रिया बदलने की।
अच्छा आलेख।
मजदूरों के संदर्भ में लिखा बहुत अच्छा आलेख
बधाई
हम जब तक मज़दूरों को उनके आसपास रोज़गार न दे पाए तब तक उनसे संबंधित अनेक बातें बेमानी होंगी
I am really happy to say it’s an interesting post to read APJ Abdul Kalam Quotes in Hindi this is a really awesome and i hope in future you will share information like this with us
Blogger राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर = RAJA Kumarendra Singh Sengar said...
मजदूरों की बात होते-होते अचानक से राम मंदिर उछल आया? उसके पहले सामाजिक सद्भाव सही था? उसके पहले मजदूरों की स्थिति सही थी?
हिन्दू-मुस्लिम तो आज़ादी के पहले से आरम्भ हो गया था, शायद जानकारी होगी आपको?
बहरहाल, एक अच्छे बिंदु से आरम्भ हुआ लेख का.. फिर लन्दन वाले मजदूर की स्थिति के बाद लगा कि शायद देश की किसी स्थिति में परिवर्तन करने जैसी कोई बात हो मगर.....
फिलहाल....
May 2, 2020 at 12:43 AM Delete
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कुमारेन्द्र जी,
देश की किसी स्थिति में परिवर्तन कर सकें, इतनी योग्यता तो मुझमें नहीं. पर किसान मजदूर की स्थिति देखकर मन द्रवित ज़रूर हो जाता है. हिन्दू मुस्लिम तो आज़ादी के बहुत पहले से ही यहाँ हो रहा है, तभी तो अंग्रजी शासन यहाँ हुआ. राम मंदिर के मुद्दे से भागलपुर में 1989 में दंगा हुआ, और ये दंगाई हमारे आसपास के अशिक्षित युवा कामगार थे. पहले भी कामगारों की स्थिति अच्छी नहीं थी, परन्तु राम मंदिर से मजदूरों की स्थिति अच्छी तो न हो जायेगी. सामाजिक सद्भाव जहाँ है वहाँ पहले भी था अब भी है, परन्तु दंगा ने बहुत कुछ बदल दिया. जिससे भागलपुर आजतक उबर नहीं पाया है.
बहरहाल आपने बहुत अच्छी प्रतिक्रिया दी, इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद.
Blogger डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...
मजदूर दिवस को सार्थक करती सुन्दर प्रस्तुति।
May 2, 2020 at 9:06 AM Delete
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आपका बहुत धन्यवाद शास्त्री जी.
Blogger संगीता पुरी said...
मैंने भी लिखा है कि कुल लाभ को जवाबदेह सभी कारकों, पूंजी, भूमि, व्यवस्था, श्रमिक और साहस के मध्य सामान बँटवारा हो ! पूंजीवाद में ही समाजवाद आ जायेगा !
May 3, 2020 at 12:14 AM Delete
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बिल्कुल सही कहा आपने, तभी समाजवाद आएगा. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए बहुत धन्यवाद.
Blogger अजय कुमार झा said...
हम सब जितनी चिंता इन मेहनत कश लोगों की कर लेते हैं कर पाते हैं पता नहीं सरकार और प्रशासन आखिर क्यूँ नहीं कर पाता . श्रमिक वर्ग में सबसे बुरी स्थिति महिलाओं और बच्चों की है | सार्थक चिंतन करती पोस्ट
May 3, 2020 at 7:20 PM Delete
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सही कह रहे हैं आप. पता नहीं क्यों सरकार और प्रशासन को यह सब क्यों नहीं दिखता, जबकि कुछ मीडिया बेहतरीन काम कर रही है. सार्थक टिप्पणी के लिए बहुत धन्यवाद अजय जी.
Blogger Udan Tashtari said...
मजदूर दिवस की शुभकामनाएँ!
May 3, 2020 at 7:46 PM Delete
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आपको भी बहुत शुभकामनाएँ समीर जी. आभार.
Blogger अरुण चन्द्र रॉय said...
बहुत बढ़िया लेख। आपने मजदूरों के बहाने सामाजिक आर्थिक परिदृश्य की विवेचना कर डाली। शुभकामनाए आपको।
May 3, 2020 at 11:10 PM Delete
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सार्थक प्रतिक्रिया के लिए बहुत धन्यवाद अरुण जी.
Blogger Divik Ramesh said...
बहुत अच्छा विश्लेषणात्मक लेख। सहमत हूँ। बधाई।
May 4, 2020 at 7:36 AM Delete
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मेरे विचार को आपकी सहमति मिली, दिल से धन्यवाद दिविक रमेश जी.
Blogger Sudershan Ratnakar said...
आज मज़दूरों की क्या स्थिति है सभी जानते है।
ंसरकार कोई भी हो उनके सुधार की कोई गुंजाइश नहीं दिखती।एक महाक्रति की आवश्यकता है। जागरूक होने की और नज़रिया बदलने की।
अच्छा आलेख।
May 4, 2020 at 11:02 AM Delete
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बिल्कुल सही कहा आपने, एक महाक्रान्ति की ज़रुरत है. शायद तभी स्थिति बदलेगी. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार रत्नाकर जी.
Blogger Jyoti khare said...
मजदूरों के संदर्भ में लिखा बहुत अच्छा आलेख
बधाई
May 9, 2020 at 4:36 PM Delete
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आपका बहुत आभार ज्योति खरे जी.
Blogger Kishor se milen said...
हम जब तक मज़दूरों को उनके आसपास रोज़गार न दे पाए तब तक उनसे संबंधित अनेक बातें बेमानी होंगी
May 9, 2020 at 10:16 PM Delete
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बिल्कुल सही कहा आपने किशोर जी. मजदूरों को उनके आसपास ही रोज़गार मिल जाता तो पलायन की स्थिति नहीं आती. आज जिस तरह मजदूरों को घर वापसी के कारण संघर्ष करना पड़ रहा है, वह भी न होता. सार्थक टिप्पणी के लिए धन्यवाद.
Anonymous YOUR HINDI QUOTES said...
I am really happy to say it’s an interesting post to read APJ Abdul Kalam Quotes in Hindi this is a really awesome and i hope in future you will share information like this with us
May 18, 2020 at 10:48 AM Delete
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आपका धन्यवाद.
आपके ब्लॉग पर जाकर रचना पढ़ तो लेती हूं ,टिप्पणी करने की जगह नही नजर आती है ,ऐसा क्यों है ?
विचार करने लायक है ,बढ़िया आलेख ,
Blogger Jyoti Singh said...
आपके ब्लॉग पर जाकर रचना पढ़ तो लेती हूं ,टिप्पणी करने की जगह नही नजर आती है ,ऐसा क्यों है ?
May 25, 2020 at 4:35 PM Delete
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Blogger Jyoti Singh said...
विचार करने लायक है ,बढ़िया आलेख ,
May 25, 2020 at 4:41 PM Delete
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प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद ज्योति जी.
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