Monday, November 16, 2020

82. अधूरे सपनों की कसक - मेरा सपना

वर्ष 2019, जून की बात है मेरी ब्लॉगर मित्र श्रीमती रेखा श्रीवास्तव जी का सन्देश प्राप्त हुआ कि वे कुछ ब्लॉगारों के 'अधूरे सपनों की कसक' शीर्षक से अपने सम्पादन में एक पुस्तक-प्रकाशन की योजना बना रही हैं; अतः मैं अपने अधूरे सपनों की कसक लिखकर भेजूँ। अपने कुछ अधूरे सपनों को याद करने लगी, जो अक्सर मुझे टीस देते हैंयों सपने तो हज़ारों देखे, मगर कुछ ऐसी तक़दीर रही मानो नींद में सपना देखा और जागते ही सब टूट गयाकुछ सपने ऐसे भी देखे, जिनको पूरा करने की दिशा में न कोई कोशिश की, न एक क़दम भी आगे बढ़ाया। कुछ सपने जिनके लिए कोशिश की, वे अधूरे रह गए। मेरे कुछ अधूरे सपने 'अधूरे सपनों की कसक' पुस्तक में शामिल है, जिसे यहाँ प्रेषित कर रही हूँ, इस विश्वास के साथ कि कोई मुझे पढ़े, तो वे अपने सपनों को पूरा करने में अवश्य लग जाए, अन्यथा उम्र भर टीस रह जाएगी। अगर सपने पूर्ण न हो सकें, तो कम-से-कम यह संतोष तो रहेगा कि हमने कोशिश तो की। अन्यथा आत्मविश्वास ख़त्म होने लगता है और जीवन की दुरूह राहों से समय से पहले भाग जाने को मन व्यग्र रहता है
 
मेरा सपना
 
***

अपने छूटे   
सब सपने टूटे,   
जीवन बचा   

सपने देखने की उम्र कब आई कब गुज़र गई, समझ न सकी। 1978 में जब मैं 12 वर्ष की थी, पिता गुज़र गए तब अचानक यूँ बड़ी हो गई, जिसमें सपनों के लिए कोई जगह नहीं बची पिता के गुज़र जाने के बाद एक-एक कर मैंने शिक्षा की उच्च डिग्रियाँ हासिल की, और तब भविष्य के लिए कुछ सपने भी सँजोने लगी।   

कैसी पहेली   
ज़िन्दगी हुई अवाक्   
अनसुलझी।   

मेरे पिता यूनिवर्सिटी प्रोफ़ेसर थे बचपन में उनकी ज़िन्दगी को देखकर उनकी तरह ही बनने का सपना देखने लगी, जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी1993 में बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन में राजकीय महिला पॉलिटेकनिक में व्याख्याता के पद के लिए आवेदन किया था। मेरा स्थायी पता तब भी भागलपुर ही था और उसी पते पर पत्राचार होता था उन दिनों मैं गुवाहाटी में अपने ससुराल में रह रही थी मुझे अपने प्रमाण पत्रों के साथ निश्चित तिथि को बुलाया गया था गुवाहाटी में होने के कारण मैं वक़्त पर पटना न जा सकी; क्योंकि मेरा बेटा उस समय कुछ माह का ही था कुछ महीने के बाद दोबारा कॉल लेटर आया कि मैं अपने प्रमाण पत्रों के साथ उपस्थित होऊँ मैं जब तक पटना आई, तब तक वह तिथि भी बीत गईफिर भी मैंने निवेदन किया कि चूँकि मैं भागलपुर में नहीं थी अतः उपरोक्त तिथि पर उपस्थित न हो सकी, इसलिए एक बार पुनः विचार किया जाए संयोग से मेरे आवेदन पर विचार हुआ और मुझे सभी प्रमाण पत्र जमा करने और कॉल लेटर की प्रतीक्षा करने को कहा गया ऐसा दुर्भाग्य रहा कि मुझे उसी दौरान दिल्ली लौट जाना पड़ा और मिली हुई नौकरी मेरे हाथ से निकल गईअब तक इस बात का पछतावा है कि मैं उस समय पटना से बाहर क्यों गईमेरे स्थान पर किसी और को नौकरी मिल गई होगी, इस बात की ख़ुशी है, पर अपने सपने के अधूरे रह जाने का मलाल भी बहुत है   

ताकती रही   
जी गया कोई और   
ज़िन्दगी मेरी। 
 
1995 में 'बिहार एलिजिबिलिटी टेस्ट फॉर लेक्चरशिप' (बी.इ.टी. / B.E.T.) की लिखित परीक्षा मैंने पास की इंटरव्यू से पहले पता चला कि बिना पैसे दिए इंटरव्यू में सफल नहीं हो सकते हैं मैंने अपने विचार के विरुद्ध और वक़्त के अनुसार पचास हज़ार रुपये का प्रबंध किया चूँकि उन दिनों हमारी आर्थिक स्थिति बहुत ही ख़राब थी, इसलिए यह नौकरी मुझे हर हाल में चाहिए थी तथा मेरे पसंद का कार्य भी था लेकिन ऐसा कोई व्यक्ति मुझे न मिल सका, जो पैसे लेकर नौकरी दिला पाने की गारंटी देता मुझे यह डर भी था कि यदि पैसे भी चले गए और नौकरी भी न मिली, तो उधार के पैसे कैसे वापस लौटाऊँगी यूँ मेरी माँ और भाई से लिए पैसे मुझे नहीं लौटाने थे लेकिन ससुराल पक्ष के एक रिश्तेदार से लिए पैसे मुझे लौटाने ही होते। अंततः घूस के लिए मैंने पैसे नहीं दिए इंटरव्यू दिया और मैं सफल रहीकुल 15 सीट के लिए वैकेन्सी थी और मुझे 12वाँ स्थान मिला था मैं बहुत ख़ुश थी कि बिना घूस दिए मेरा चयन हो गया और मैं अपने सपने को पूरा कर पाई बाद में पता चला कि सिर्फ़ 11 लोगों को ही लिया गया और शेष 4 सीट को वैकेंट छोड़ दिया गया मुमकिन है पैसे नहीं देने के कारण हुआ हो या फिर राजनितिक हस्तक्षेप के कारण मेरे सपने टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर गए जब-जब 'बी.इ.टी.' का प्रमाणपत्र और पॉलिटेक्निक का कॉल लेटर देखती हूँ, तो मन के किसी कोने में ऐसा कुछ दरकता है, जिसकी आवाज़ कोई नहीं सुनता; लेकिन वह कसक मुझे चैन से सोने नहीं देती है।   

ओ मेरे बाबा!   
तुम हो गए स्वप्न   
छोड़ जो गए 

यूँ तो मेरी ज़िन्दगी में बहुत सारी कमियाँ रह गईं, जिनकी टीस मन से कभी गई नहीं पिता की मृत्यु के बाद उनके मृत शरीर का अन्तिम दर्शन, उनका अन्तिम स्पर्श नहीं कर पाई, यह कसक आजीवन रहेगी जीवन में एक बहुत बड़ा पछतावा यह भी है कि समय-समय पर मैंने ठोस क़दम क्यों न उठाया वक़्त के साथ कुछ सपने ऐसे थे, जिसे मैं पाना चाहती थी; परन्तु उम्र बढ़ने के साथ-साथ मेरे जीवन में हार और ख़ुद को खोने का सिलसिला शुरू हो गया। आज जब पाती हूँ कि जीवन में सब तरफ़ से हार चुकी हूँ और असफलता से घिर चुकी हूँ, तो अपनी हर मात और कसक मुझे चैन से सोने नहीं देती है पिता नास्तिक थे मैं भी हूँ, पर अब क़िस्मत जैसी चीज़ में खुद को खोने और खोजने लगी हूँ। नदी के प्रवाह में कभी बह न सकी, अपनी पीड़ा किसी से कह न सकी।

रिसता लहू   
चाक-चाक ज़िन्दगी   
चुपचाप मैं।

- जेन्नी शबनम (29.6.2019)
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Thursday, November 5, 2020

81. राम चन्द्र वर्मा 'साहिल' जी द्वारा 'लम्हों का सफ़र' की समीक्षा


 साहिल जी और मैं 
आदरणीय श्री राम चन्द्र वर्मा 'साहिल', विख्यात कवि, ग़ज़लकार तथा महानगर टेलीफ़ोन निगम लिमिटेड से अवकाश प्राप्त अधिकारी, ने मेरी पुस्तक 'लम्हों का सफ़र' की बहुत सुन्दर और सार्थक समीक्षा की है। उन्होंने एक नहीं दो बार मेरी पुस्तक को पढ़ा है, इसका कारण वे ख़ुद बता रहे हैं। मैं हृदय तल से कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने मेरी रचनाओं को तथा मुझे इतना मान दिया है। साहिल जी का स्नेह और आशीष सदा मुझे मिलता रहे यही कामना है। साहिल जी को आभार के साथ, उनके द्वारा की गई समीक्षा प्रस्तुत कर रही हूँ।  
 
साहिल जी और मैं
'लम्हों का सफ़र' की समीक्षा 
- राम चन्द्र वर्मा 'साहिल' 

देर-आयद, दुरुस्त-आयद - इस लोकोक्ति का अर्थ प्रायः यह लिया जाता है कि देर से तो आए, चलो आए तो सही। परन्तु मैं मज़ाक के तौर पर इसका अर्थ ऐसे करता हूँ कि जो भी देर से आया या जो कार्य देर से किया गया, वही दुरुस्त है। ऐसा इसलिए भी कह रहा हूँ कि जिस कविता-संग्रह (लम्हों का सफ़र) का मैं यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ, डॉ. जेन्नी शबनम का यह संग्रह मुझे बहुत समय पहले मिला था। पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इसके विषय में मुझे जो भी लिखना था शायद मैं लिखकर शबनम जी के पास भेज चुका हूँ। परन्तु यह मेरी चूक थी, ऐसा हुआ नहीं था; यह बहुत बाद में मुझे आभास हुआ। इस चूक के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ।
 
इस संग्रह की प्रायः सभी रचनाएँ मैं पढ़ चुका था। अब क्योंकि समय बहुत बीत गया, रचनाएँ फिर से पढ़ीं। हर रचना के अवलोकन पर ऐसा लगा जैसे किसी अलग ही दुनिया में पहुँच गया हूँ। हर रचना अपने आप में अनूठी तथा अपने अन्दर बहुत कुछ समेटे हुए लगी। कुछ रचनाओं का उल्लेख बहुत ही आवश्यक लग रहा है, जैसे- 
 
पहली कविता 'जा तुझे इश्क़ हो', इसका शीर्षक ही ऐसा दिया गया है जो कुछ सोचने पर विवश कर देता है। जैसे यह प्यार में बहुत गहरी चोट खाए किसी प्रेमी के दिल से निकली आह हो। और जो कुछ उसने भुगता है वह चाहता है कि सामने वाला भी इसे भुगते। इसकी ये पंक्तियाँ देखिए- 
''तुम्हें आँसू नहीं पसंद / चाहे मेरी आँखों के हों / या किसी और के / चाहते हो हँसती ही रहूँ / भले ही वेदना से मन भरा हो / ... कैसे इतने सहज होते हो / फ़िक्रमंद भी हो और / बिंदास हँसते भी रहते हो।''

'पगडंडी और आकाश', इसके भी अंश देखिएगा-
''पगडंडी पर तुम चल न सकोगे / उस पर पाँव-पाँव चलना होता है / और तुमने सिर्फ़ उड़ना जाना है।...
हथेली पर आसमान को उतारना / तुम अपनी माटी को जान लेना / और मैं उस माटी से बसा लूँगी एक नयी दुनिया / जहाँ पगडंडी और आकाश / कहीं दूर जाकर मिल जाते हों।''

'बाबा आओ देखो! तुम्हारी बिटिया रोती है', इस रचना में बिटिया की अंतर्वेदना को स्वयं महसूस कीजिए- 
''क्यों चले गए, तुम छोड़ के बाबा / देखो बाप बिन बेटी, कैसे जीती है / बूँद आँसू न बहे, तुमने इतने जतन से पाले थे / देखो आज अपनी बिटिया को, अपने आँसू पीती है।''

'वो अमरूद का पेड़', जहाँ लेखिका कदाचित स्वयं को खोज रही है-
''वो लड़की, खो गई है कहीं / बचपन भी गुम हो गया था कभी / उम्र से बहुत पहले, वक़्त ने उसे / बड़ा बना दिया था कभी / कहीं कोई निशानी नहीं उसकी / अब कहाँ ढूँढूँ उस नन्ही लड़की को?''

'इकन्नी-दुअन्नी और मैं चलन में नहीं', इस रचना में समय का बदलता रूप और उससे उपजी मानव-विवशताओं को शबनम जी ने किस प्रकार उकेरा है-
''वो गुल्लक फोड़ दी / जिसमें एक पैसे दो पैसे, मैं भरती थी / तीन पैसे और पाँच पैसे भी थे, थोड़े उसमें / सोचती थी ख़ूब सारे सपने खरीदूँगी इससे / इत्ते ढेर सारे पैसों में, तो ढेरों सपने मिल जाएँगे /...
अब क्या करूँ इन पैसों का?''

'उठो अभिमन्यु', इस कविता में कवयित्री ने अभिमन्यु के वीर-गति  प्राप्त हो जाने पर गर्भवती अभिमन्यु-पत्नी 'उत्तरा' गर्भ में पल रहे शिशु को कैसी उत्साहवर्द्धक प्रेरणा दे रही है, इसका मार्मिक वर्णन इस पद्यांश में देखिए- 
''क्यों चाहते हो, सम्पूर्ण ज्ञान गर्भ में पा जाओ / क्या देखा नहीं, अर्जुन-सुभद्रा के अभिमन्यु का हश्र / छः द्वार तो भेद लिए, लेकिन अंतिम सातवाँ / वही मृत्यु का कारण बना / या फिर सुभद्रा की लापरवाह नींद / नहीं-नहीं, मैं कोई ज्ञान नहीं दूँगी / न किसी से सुनकर, तुम्हें बताऊँगी / तुम चक्रव्यूह रचना सीखो / स्वयं ही भेदना और निकलना सीख जाओगे।''

'नन्ही भिखारिन' में शबनम जी का संवेदनशील हृदय नन्ही भिखारिन से बात करते कैसे पीड़ा से रिसता है, देखिए- 
यह उसका दर्द है / पर मेरे बदन में क्यों रिसता है? / या ख़ुदा! नन्ही-सी जान, कौन सा गुनाह था उसका? / शब्दों में ख़ामोशी, आँखों में याचना, पर शर्म नहीं / हर एक के सामने, हाथ पसारती।''

'हँसी, ख़ुशी और ज़िन्दगी बेकार है पड़ी', ज़िन्दगी का क्या चित्रण किया गया है इस रचना में; कुछ पंक्तियाँ देखते चलें- 
हँसी बेकार पड़ी है, यूँ ही एक कोने में कहीं / ख़ुशी ग़मगीन रखी है, ज़ीने में कहीं / ज़िन्दगी गुमसुम खड़ी है, अँगने में कहीं / अपने इस्तेमाल की आस लगाए / ठिठके सहमे से हैं सभी।'' 

इसी प्रकार कई चुनिन्दा कविताएँ हैं जिन्होंने मुझे उद्वेलित किया है। मैं चाहता तो हूँ सभी का थोड़ा-थोड़ा उल्लेख करना, परन्तु डर है कि कहीं ऐसा किया तो मेरी बात बहुत ही लम्बी हो जाएगी जो कि उचित नहीं होगी। हक़ तो शबनम जी का बनता है कि मैं ऐसा करूँ, परन्तु नहीं। मुझे लगता है, विद्वान लेखकों ने भी, जिन्होंने इस पुस्तक की भूमिका लिखी है; इसी तरह न चाहते हुए भी आगे लिखने से अपने हाथ खींच लिए होंगे और उन्हें भी ऐसे ही अफ़सोस हुआ होगा जैसा मुझे हो रहा है। 

अंत में डॉ. शबनम जी की दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हुए अपनी बात को, न चाहते हुए भी, यहीं समेटता हूँ।

राम चन्द्र वर्मा 'साहिल'
131- न्यू सूर्य किरण अपार्टमेंट्स
दिल्ली-110092
मोबाइल- 9968414848 
तिथि- 2.11.2020
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Saturday, October 10, 2020

80. सुश्री संगीता गुप्ता एवं श्री अनिल पाराशर 'मासूम' की भावनाएँ - मुझे और मेरे 'लम्हों का सफ़र' को

                    

मेरी पुस्तक 'लम्हों का सफ़र' का प्रकाशन वर्ष 2020, जनवरी माह में हुआसुश्री संगीता गुप्ता, आयकर विभाग में पूर्व मुख्य आयुक्त, प्रतिष्ठित कवयित्री और चित्रकार, ने मुझे सदैव छोटी बहन-सा स्नेह व सम्बल दिया है उनकी चित्रकारी मेरी पुस्तक का आवरण चित्र है। उन्होंने भावपूर्ण शुभकामना सन्देश दिया, जो पुस्तक में प्रेषित है। इस शुभकामना सन्देश को मैं यहाँ प्रेषित कर रही हूँ।  


सन 2008 में ऑरकुट पर अनिल जी से परिचय, फिर मुलाक़ात हुई। अनिल पाराशर जी बिड़ला कम्पनी में कार्यरत थे और 'मासूम' शायर के नाम से प्रसिद्ध हैं उनके लेखन में गज़ब का भाव होता है, चाहे वे किसी पुरुष की मनोदशा लिखें या स्त्री की उन्होंने मेरी पुस्तक की परिचर्चा में एक संक्षिप्त समीक्षात्मक विचार दिए हैं, जिसे मैं यहाँ प्रेषित कर रही हूँ। 
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मैं और संगीता दी
जीवन के विविध रंग 
- संगीता गुप्ता  

'लम्हों का सफ़र' जेन्नी शबनम का पहला कविता-संग्रह है, पर संकलित कविताएँ एक लम्बे जिए जीवन का बयान हैस्त्री बोध में कभी अपने पिता को याद करती नन्ही बिटिया है, कभी अमरूद के पेड़ पर चढ़ती नटखट लड़की है, जो पेड़ को ही याद नहीं करती; बल्कि उस अल्हड़ बचपन को खोने का दंश भी महसूसती है। असमय गुज़रे पिता की कमी सिर्फ़ उसकी ही नहीं, उसकी माँ की भी क्षति है। माँ हारती नहीं, अकेले ही सब करती है; पर हँसना भूल जाती है। जेन्नी की कविताएँ एक संवेदनशील स्त्री की त्रासदी से उपजी टीस है। प्रेम करती स्त्री की अपेक्षाएँ, सपने क़दम-क़दम पर टूटते ही हैं, यह शाश्वत सत्य है; पर उनको शब्दों में पिरोने का हुनर जेन्नी को सहज उपलब्ध है। उनकी कविताएँ भोगे हुए यथार्थ से जन्मी है। 
 
जीवन एक यात्रा है, जिस पर सब चलते हैं, कभी उमगकर, कभी हताश होकर, कभी ज़िद में भरकर, कभी यादों के सहारे, कभी किसी का फ़लसफ़ा पढ़कर। चलना तो सतत है और स्त्री चलती है, कभी पिता की उँगली पकड़कर, कभी प्रेम की बाँह थामकर और कभी बच्चा उसकी उँगली पकड़कर चलना सीखता है और कभी वह इस सच से डरकर भी जीती है कि समय आने पर बेटा उसकी उँगली पकड़कर चलेगा या नही।  

एक छोटे क़स्बे से आई लड़की की जीवन से ठनती है और अपनी जंग जीतने का हौसला पैदा करने वाली स्त्री अपने एकांत में उन्हें शब्दों में पिरोकर बरस-दर-बरस सँभालकर रखती है। ऐसे में तय होता है- 'लम्हों का सफ़र'। जेन्नी ने अपने आपको इन कविताओं में जिया, बचाया है। 

जीवन के सारे रंग इस संग्रह के कैनवस पर बिखरे हैं, एक अच्छा पाठक उन्हें अवश्य अपने अनुभव जगत् में पाएगा और सहेजेगा। मेरी अनंत शुभकामनाएँ। जेन्नी सृजन-पथ पर अग्रसर रहे, इस शुभेक्षा के साथ-

संगीता गुप्ता 
15.10.2019 
(सफ़दरजंग एन्क्लेव, नई दिल्ली) 
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अनिल जी, शानू जी और मैं
सफ़र लम्हों का है 
- अनिल पाराशर 'मासूम'  

कैसा अजीब है, सफ़र लम्हों का है, उँगली क़ज़ा की थामे है और ज़िन्दगी भर को जारी है। आज हम जेन्नी जी की पुस्तक पर उनकी कविता पर बात करने आए हैं मैं एक बात से बात शुरू करता हूँ कि जेन्नी जी की कविताओं की नायिका जिस जीवन को जी रही है या सह रही है, वही इनके लम्हों का सफ़र है। इन्होंने ख़ुद एक जगह लिखा है ''कविता लिखना एक कला है, जैसे कि ज़िन्दगी जीना'' ये इनके काव्य की परिभाषा है। इनकी एक कविता में इनकी नायिका एक श्राप को जी रही है, और वो श्राप है इश्क़ और खीज; वो नायक को श्राप देती है- ''जा तुझे इश्क़ हो!''

इनके इश्क़ में बहुत सादगी है, भौतिक कुछ नहीं चाहिए नायिका को; वह इश्क़ के शुरू के दिनों में पलाश के गहनों से ही सज जाती थी। अब फिर वहीं जाना चाहती है, अपने मीत से वादा करके कि अब न गहने लेगी न पलाश के पत्ते लाएगी। दरअसल भौतिक जीवन और इश्क़ के बीच रस्साकशी है कविता की आत्मा। नायिका को पता है नायक की मज़बूरी और कविता में कहा भी है ''पगडंडी पर तुम चल न सकोगे, उस पर पाँव-पाँव चलना होता है'', पर नायक उड़ता है, चलता नहीं है। थकी नायिका अंत में ऐसी दुनिया की कल्पना भी कर लेती है, जहाँ पगडंडी और आकाश मिलते हैं। ये नायिका के लिए ही नहीं पूरे समाज के लिए एक आशा है।  

जेन्नी जी की कविताओं का एक पहलू इमरोज़-अमृता से प्रभावित होता है। इनका मानना यह है कि हर प्रेम अमृता-इमरोज़ की तरह शुरू होता है, पर समय के साथ स्त्री वही स्त्री रहती है मगर हर इमरोज़ पुरुष बन जाता है; और वह स्त्री पर अधिकार चाहता है बस। इनकी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं-
''मर्द ने कहा-
ऐ औरत!
ख़ामोश होकर मेरी बात सुन...।'' 

स्त्री को परिभाषित करती एक कविता में बहुत अद्भुत बात कहती हैं जेन्नी जी- ''मैं स्त्री हूँ, मुझे ज़िंदा रखना उतना ही सहज है, जितना सहज मुझे गर्भ में मार दिया जाना।'' स्त्री का पूरा चित्र हमारे सामने ये पंक्तियाँ रख देती हैं।  
जीवन के मूल्यों का बदलना भी बहुत मार्मिक तरीक़े से पुस्तक में कहा गया है कि नायिका बहुत यत्न से जीवन की गुल्लक में लम्हें इकट्ठे कर रही थी। जब उसने गुल्लक तोड़ी तो उसमें इकन्नी-दुअन्नी-चवन्नी निकले जिनका चलन ही नहीं रहा, वैसे ही नायिका का चलन भी अब नहीं रहा।  

कल्पना की पराकाष्ठा दिखती है जब अपने पुत्र के 18वें जन्मदिन पर लिखी कविता में जेन्नी जी कहती हैं कि ''मैंने अपनी आँखों पे नहीं / अपनी संवेदनाओं पर पट्टी बाँध रखी है / इसलिए नहीं, कि तुम्हारा शरीर वज्र का कर दूँ / इसलिए कि अपनी तमाम संवेदनाएँ तुममें भर दूँ।'' इसी तरह पुत्री के लिए भी बहुत मार्मिक कविताएँ रची हैं इन्होंने।

अपने पिता और उनके कम्युनिस्ट-विचार से जेन्नी जी बहुत प्रभावित रही हैं। यही कारण है कि प्रेम में भी ये केवल पलाश के बीजों के गहने माँगती हैं। बचपन में गुज़र चुके अपने पिता के लिए प्रेम, ये बिना किसी बनावट के लिखती हैं- ''बाबा आओ देखो! तुम्हारी बिटिया रोती है।''

जेन्नी जी की कविता के शब्द शहर में बड़े हुए हैं, मगर जन्म गाँव के खेत खलिहानों में लिया है। जैसे कि वे लिखती हैं- बिरवा, बकरी का पगहा, रास्ता अगोरा तुमने आदि।

ऐसी अमूल्य रचनाओं को हम तक पहुँचाने के लिए जेन्नी जी को मैं धन्यवाद करता हूँ। और अंत में एक आशा भी है इन्हीं के शब्दों में- 
''अब तो यम से ही मानूँगी / विद्रोह का बिगुल / बज उठा है।''

हमारी दुआ है, आप किसी से न हारें, यम से भी नहीं और आपके श्राप का आशीर्वाद हम आपकी रचनाओं को देते हैं। जो इन्हें पढ़ें, उनको इनकी संवेदनाओं से इश्क़ हो!

अनिल पाराशर 'मासूम'
19.1.2020 
(आई.पी.एक्सटेंशन, दिल्ली)
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Monday, September 14, 2020

79. मेरी हिन्दी, प्यारी हिन्दी

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था ''अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता है, जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता-समझता है, हिन्दी इस दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ है'' ''हृदय की कोई भाषा नहीं है, हृदय-हृदय से बातचीत करता है और हिन्दी हृदय की भाषा है''  

भारत की आज़ादी और गांधी जी के इंतकाल के कई दशक बीत गए, लेकिन आज भी हिन्दी को न सम्मान मिल सका, न बापू की बात को महत्व दिया गया हिन्दी, हिन्दी भाषियों तथा देश पर जैसे एक मेहरबानी की गई और हिन्दी को राजभाषा बना दिया गया बापू ने कहा था ''राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है'' सचमुच हमारा राष्ट्र गूँगा हो गया है, कहीं से पुर-ज़ोर आवाज़ नहीं आती कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाई जाए दुनिया के सभी देशों की अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा है; लेकिन भारत ही ऐसा देश है जिसके पास अनेकों भाषाएँ हैं लेकिन राष्ट्रभाषा नहीं है जबकि भारत में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा हिन्दी है  

काफ़ी साल पहले की बात  हिन्दी है, मैं अपनी पाँच वर्षीया बेटी के साथ ट्रेन से भागलपुर जा रही थी ट्रेन में एक युवा दंपती अपने तीन-साढ़े तीन साल के बेटे के साथ सामने की बर्थ पर बैठे थे, जिनका पहनावा काफ़ी आधुनिक था वे अपने घर पटना जा रहे थे बच्चा मेरी बेटी के साथ ख़ूब खेल रहा थादोनों बच्चे बिस्किट खाना चाहते थे मेरी बेटी ने मुझसे कहा ''माँ हाथ धुला दो, बिस्किट खाएँगे'' मैंने कहा ''ठीक है चप्पल पहन लो, चलो'' सामने वाली स्त्री बेटे से बोली ''फर्स्ट वाश योर हैंड्स, देन आई विल गिव यू बिस्किट्स।'' वह बच्चा अपना दोनों हाथ दिखाकर बोला ''मम्मा, माई हैंड्स नो डर्टी।'' उस स्त्री ने अपने पति से अँगरेज़ी में कहा कि वह बेटे का हाथ धुला दे। दोनों बच्चे बिस्किट खा रहे थे। हाथ का बिस्किट ख़त्म होने पर उस बच्चे ने अपनी माँ से और भी बिस्किट माँगा, कहा कि ''मम्मा गिव बिस्किट'' माँ ने अँगरेज़ी में बच्चे से कहा कि पहले प्रॉपर्ली बोलो ''गिव मी सम मोर बिस्किट्स'' बच्चा किसी तरह बोल पाया फिर उसे बिस्किट मिला 

मैं यह सब देख रही थी मुझे बड़ा अजीब लगा कि इतने छोटे बच्चे को प्रॉपर्ली अँगरेज़ी बोलने के लिए अभी से दबाव दिया जा रहा है। मैंने कहा कि अभी यह इतना छोटा है, कैसे इतनी जल्दी सही-सही बोल पाएगा? उस स्त्री ने कहा कि अभी से अगर नहीं बोलेगा तो दिल्ली के प्रतिष्ठित स्कूल में एडमिशन के लिए इंटरव्यू में कैसे बोलेगा, इसलिए वे लोग हर वक़्त अँगरेज़ी में बात करते हैं। बातचीत से जब उन्हें पता चला कि मैं दिल्ली में रहती हूँ और मैंने पी-एच.डी. किया हुआ है, तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि मैं अपनी बेटी से हिन्दी में बात करती हूँ और बेटी भी अच्छी हिन्दी बोलती है। मैं सोचने लगी कि क्या उस माता-पिता का दोष है, जो बच्चे के एडमिशन के लिए अभी से बच्चे पर अँगरेज़ी बोलने का दबाव डाल रहे हैं, या दोष हमारी शिक्षा व्यवस्था का है; जिस कारण अभिभावक प्रतिष्ठित अँगरेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़ाने के लिए बच्चे के जन्म के समय से ही मानसिक तनाव झेलते हैं। 

निःसन्देह हमारे देश का ताना-बाना और सामजिक व्यवस्था का स्वरूप ऐसा बन चुका है, जिससे अँगरेज़ी के बिना काम नहीं चल पाता है। अगर जीवन में सफलता यानि उच्च पद और प्रतिष्ठा चाहिए तो अँगरेज़ियत ज़रूरी है। हिन्दी के पैरोकार कहते हैं कि हिन्दी बोलने से ऐसा नहीं है कि आदमी सफल नहीं हो सकता। मैं भी ऐसा मानती हूँ। लेकिन विगत 30-35 सालों में जिस तरह से सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव हुए हैं, हिन्दी माध्यम से कोई सफलता प्राप्त कर भी ले, पर समाज में उसे वह सम्मान नहीं मिलता जो अँगरेज़ी बोलने वाले को मिलता है। यों अपवाद हर जगह है। अब तो गाँव-कस्बों में भी अँगरेज़ी माध्यम के स्कूल खुलते जा रहे हैं; क्योंकि सफलता का मापदंड अँगरेज़ी भाषा बोलना हो गया है। आम जीवन में अक्सर मैंने यह महसूस किया है। किसी दूकान, रेस्त्राँ, सिनेमा हॉल, मॉल, किसी समारोह इत्यादि जगह में ''एक्सक्यूज मी'' बोल दो, तो सामने वाला पूरे सम्मान के साथ आपकी बात पहले सुनेगा और ध्यान देगा। हिन्दी में भइया-भइया कहते रह जाएँ, वे उसके बाद ही आपकी बात सुनेंगे। अमूमन हिन्दी बोलने वाला अगर सामान्य कपड़ों में है, तब तो उसे जाहिल या गँवार समझ लिया जाता है।   

शिक्षा पद्धति ऐसी है कि बच्चे हिन्दी बोल तो लेते हैं परन्तु समझते अँगरेज़ी में हैं। हिन्दी में अगर कोई स्क्रिप्ट लिखना हो तो रोमन लिपि में लिखते हैं। पर इसमें दोष उनका नहीं है, दोष शिक्षा पद्धति का है; क्योंकि हिन्दी की उपेक्षा होती रही है। सभी विषयों की पढ़ाई अँगरेज़ी में होती है, तो स्वाभाविक है कि बच्चे अँगरेज़ी पढ़ना, लिखना और बोलना सीखेंगे। हिन्दी एक विषय है, जिसे किसी तरह पास कर लेना है; क्योंकि आगे काम तो उसे आना नहीं है चाहे आगे की पढ़ाई हो या नौकरी या सामान्य जीवन।   

वर्ष 1986 में नई शिक्षा नीति लागू की गई थी, जिसमें 1992 में कुछ संशोधन किये गए थे। अब दशकों बाद 2020 में नई शिक्षा नीति लागू की गई है, जिसमें मातृभाषा पर ज़ोर दिया गया है। इसमें पाँचवीं कक्षा तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई का माध्यम रखने की बात की गई है। यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा। अब इस नीति से हिन्दी को कितना बढ़ावा मिलेगा, यह कहना कठिन है। हिन्दी प्रदेशों के सरकारी विद्यालयों में हिन्दी माध्यम से पढ़ाई होती है। लेकिन पूरे देश के सभी निजी विद्यालयों में अँगरेज़ी माध्यम से ही पढ़ाई होती है। इस नई शिक्षा नीति के तहत ग़ैर-हिन्दी प्रदेश और निजी विद्यालय किस तरह हिन्दी को अपनाते हैं यह समय के साथ पता चलेगा।   

अँगरेज़ी की ज़ंजीरों  में जकड़े हुए हम भारतीयों को न जाने कब और कैसे इससे आज़ादी मिलेगी। बहुत अफ़सोस होता है जब अपने ही देश में हिन्दी और हिन्दी-भाषियों का अपमान होते देखती हूँ। आख़िर हिन्दी को उचित सम्मान व स्थान कब मिलेगा? कब हिन्दी हमारे देश की राष्ट्रभाषा बनेगी? क्या हम यों ही हर साल एक पखवारा हिन्दी दिवस के नाम करके अँगरेज़ी का गीत गाते रहेंगे? जिस तरह हमारे देश में अँगरेज़ों ने हमपर अँगरेज़ी थोप दिया और पूरा देश अँगरेज़ी का गुणगान करने लगा, क्या उसी तरह हमारी सरकार नीतिगत रूप से हिन्दी को पूरे देश के लिए अनिवार्य नहीं कर सकती? लोग अपनी-अपनी मातृभाषा बोलें; साथ ही हमारी राष्ट्रभाषा को जानें, सीखें, समझें और बोलें।  

हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ!

- जेन्नी शबनम (14.9.2020)
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Wednesday, July 1, 2020

78. श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' द्वारा 'लम्हों का सफ़र' की समीक्षात्मक भूमिका


मेरी पुस्तक 'लम्हों का सफ़र', मेरा प्रथम एकल कविता-संग्रह है, जिसका लोकार्पण 7.1.2020 को विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में संपन्न हुआ। श्री रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु', केन्द्रीय विद्यालय से अवकाशप्राप्त प्राचार्य और साहित्यकार हैं, पुस्तक के लोकार्पण में शामिल न हो सके, इसका मुझे अफ़सोस है; परन्तु उनकी शुभकामनाएँ सदैव मेरे साथ हैं। मेरी पुस्तक में उन्होंने अपनी बात और इसकी भूमिका लिखी हैउनके द्वारा लिखी गई समीक्षात्मक भूमिका प्रस्तुत है    
मैं और रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
 
 
अभिभूत करने वाली कविताएँ
 
जीवन एक यज्ञ हैजिसमें न जाने कितने भावों की आहुति दी जाती है। मन के अभावों को दूर करने के लिए न जाने कितने प्रयासों की समिधा जीवन के यज्ञ-कुण्ड में होम की जाती है। जीवन-ज्योति को उद्भासित करने के लिए हृदय का कोमल और अनुभूतिपरक होना बहुत टीस पहुँचाता है। पता नहीं कबकौन-सी बात फाँस बनकर चुभ जाए और करकने लगे। पुनीत प्रेम से भरा मानव छलकता हृदय लिए दूसरों से वैसा ही प्रेम पाने की लालसा में  पूरा जीवन होम कर देता है। बदले में मिलता है- अपमानसन्तापपश्चात्ताप का म घोटने वाला धूम। डॉ. जेन्नी शबनम की कविताओं में जीवन की जद्दोजहद के साथ सन्तप्त मन लिये आगे बढ़ने का संघर्ष हैदो पल की गहन विश्रान्ति की तलाश है। मन के बीहड़ वन में इतना कुछ भरा हुआ है कि उससे निकलकर आगे क़दम बढ़ाना दुसाध्य ही है।
इनके काव्य की गहराई ने मुझे सदा अभिभूत किया है। सच तो यह है कि इनकी प्रभावशाली एवं व्यापक अर्थगर्भी कविताओं के कारण ही इनसे जुड़ा। इनका गद्य जितना सधा हुआ हैकाव्य  भी उतना ही मन की गहराइयों में उतरने वाला है। परिवेश और विषम परिस्थितियों के संघर्ष ने इनको ख़ूब तपाया है। भागलपुर में शिक्षाविश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर पिता का कम उम्र में संसार से चले जाना, भागलपुर के दंगों का साक्षी होनाव्यथित मन को लिये शान्तिनिकेतन में कुछ समय के लिए रहना और विवाहोपरान्त दिल्ली में निवासप्रसिद्ध कवयित्री अमृता प्रीतम से आत्मीयताइमरोज़ जी का प्रोत्साहन। सभी कुछ जीवन में जुड़ते चले गए। जीवन की कठोरताएँ और उससे उत्पन्न भावों का आकाशीय विस्तार इनकी कविताओं की भावभूमि बना। कुछ कविताओं का अवगाहन किया जाएतो रचनाकर्म की परिपक्वता सामने आती है।
 
लम्हों का सफ़र इन सात लम्हों में विभाजित है- 1. जा तुझे इश्क़ हो, 2. अपनी कहूँ, 3. रिश्तों का कैनवास, 4.आधा आसमान5. साझे सरोकार, 6. ज़िन्दगी से कहा सुनी  और  7. चिन्तन।
 
जा तुझे इश्क़ हो इश्क़ की यह दुआ देना या सांसारिक परिप्रेक्ष्य में शाप देना ही है। इस कविता की अभिशप्त स्थिति की यह अनुभूति देखिए-
ग़ैरों के दर्द को महसूस करना और बात है / दर्द को ख़ुद जीना और बात, / एक बार तुम भी जी लोमेरी ज़िन्दगी जी चाहता है / तुम्हे शाप दे ही दूँ-  ''जा तुझे इश्क़ हो!'' 
       
       तुम शामिल हो कविता में प्रेम की अनेकानेक छवियाँ उभरती हैं। कभी बयार, कभी ठण्ड की गुनगुनी धूप बनकर, कभी फूलों की ख़ुशबू, कभी जलकभी अग्निकभी साँसकभी आकाशकभी धराकभी सपना तो कभी भय बनकर अनेक रूपों में प्रेम की अनुभूतियों की एक-एक गाँठ खुलती है। कविता वेगवती उद्दाम नदी की तरह आगे बढ़ती जाती है। जीवन और भावों के कई-कई मोड़ पार करती हुईयथार्थ की चट्टानों से टकराती हुई। कुछ पंक्तियाँ-
कभी फूलों की ख़ुशबू बनकर जो उस राततुम्हारे आलिंगन से मुझमें समा गई और रहेगीउम्र भर!
तुम शामिल हो मेरे सफ़र के हर लम्हों में / मेरे हमसफ़र बनकर कभी मुझमें मैं बनकर / कभी मेरी कविता बनकर!
 
       ‘तय था कविता की मार्मिकता हृदय के एक-एक कोश को पार करते हुए प्राणों में उतरती जाती है। प्रेम की व्याख्या का दर्शन अव्यक्त और अनिर्णीत रह जाता हैक्योंकि सब कुछ तय होने पर भी ऐसा कुछ न कुछ रह जाता हैजिसका हमारे पास कोई विकल्प नहीं होता। प्रेम में वैसे भी कोई विकल्प नहीं होता। जो कुछ हैसब अवश कर देने वाला-
- तय यह भी तो थाबिछड़ गए गर तोएक दूजे की यादों को सहेजकर / अर्घ्य देंगे हम!
और वह स्थिति कभी सोची ही नहीं थी कि बिखरने के बाद (जिसकी सम्भावना सदा बनी रहती है) क्या करना होगा-
बस यह तय न कर पाए थे कि तय किये सभीसपने बिखर जाएँ / फिर क्या करेंगे हम?
           
       ‘अपनी कहूँ’ की कविताओं में स्वत्व की तलाश है। इस खण्ड में एक ऐसी ही कविता है- ‘मैं भी इंसान हूँ,’ इस कविता का सम्प्रेष्य यही है कि आदमी न जाने कितने चेहरे लगाकर जीवन व्यतीत करता हैफिर भी दर्द तो जीवन का शाश्वत सत्य हैजो सभी को व्यथित करता है-
दर्द में आँसू निकलते हैंकाटो तो रक्त बहता हैठोकर लगे तो पीड़ा होती हैदगा मिले तो दिल तड़पता है।
 
       वहीं कवयित्री अतीत में लौटती है जाने कहाँ गई वो लड़की को खोजने के लिए। अतीत की किताब पन्ना-दर-पन्ना खुलती जाती है। खोज में बीते पलों को फिर से जीने की ललक मार्मिकता से अभिव्यक्त कर दी है-
उछलती-कूदतीजाने कहाँ गई वो लड़की वह शहर क्या गई गाँव की सारी ख़ुशबू भी लेती गई। जीवन की कठोरता इस पंक्ति में उतार दी गई-
- जाने कहाँ गईवो मानिनी मतवालीशायद शहर के पत्थरों में चुन दी गई
   
       कवयित्री ने जीवन के महत्त्वपूर्ण पड़ाव पर पिताजी को खोया हैजिससे पूरा परिवार अस्त-व्यस्त हुआ। इसकी अनुगूँज - ‘बाबा आओ देखो! तुम्हारी बिटिया रोती है में हूक की तरह सुनाई पड़ती है-
बूँद आँसू न बहेतुमने इतने जतन से पाले थे
जाना ही थातो साथ अपनेमुझे और अम्मा को भी ले जाते मेरे आधे आँसूअम्मा की आँखों से भी बहते हैं
जानती हूँआसमान सेन कोई परी आएगी, न तुम आओगे फिर भीमन में अब भीएक नन्ही बच्ची पलती है
  इन पंक्तियों में पीड़ा गलकर बह उठती है-
सपनों में तुम आते होजैसे कभी कहीं तुम गए नहीं
बाबा! जब भी आँसू बहते हैंमन छोटी बच्ची बन जाता है
 
       ‘आधा आसमान’ खण्ड के अन्तर्गत ‘मैं स्त्री हूँ’ कविता आज में घने असुरक्षा के वातावरण की कड़वाहट को बहुत गहनता और पीड़ा के साथ उजागर करती है। लगता है औरत का जन्म इस धरती पर दुःख झेलने के लिए ही हुआ है। वह दु:ख अनेक रूपों में एक टीस छोड़ जाता है कि सामाजिक पतन की कोई सीमा नहीं है। सड़े-गले कृत्य समाज को भी बदबूदार बनाने में पीछे नहीं-
मैं स्त्री हूँ जब चाहे भोगी जा सकती हूँमेरा शिकारहर वो पुरुष करता है /
जो मेरा सगा भी हो सकता हैऔर पराया भी / जिसे मेरी उम्र से कोई सरोकार नहीं /
चाहे मैंने अभी-अभी जन्म लिया हो या संसार से विदा होने की उम्र हो क्योंकि पौरुष की परिभाषा बदल चुकी है।  
 
       ‘भागलपुर दंगा (24.10.1989)' की पीड़ा भूलते नहीं बनती। आहत और हृदय को तार-तार करने वाली क्रूरता की इस इबारत को डॉ. जेन्नी शबनम जी ने काग़ज़ पर उतारते समय बहुत से सवाल भी छोड़ दिए हैंजो आज भी अनुत्तरित हैं-
बेटा-भैया-चाचा सारे रिश्तेजो बनते पीढ़ियों से पड़ोसीअपनों से कैसा डरथे बेख़ौफ़, और क़त्ल हो गई ज़िन्दगी।
- तीन दिन तीन युग-सा बीतापर न आयामसीहा कोई औरत बच्चे जवान बूढ़ेचढ़ गए सबधर्म के आगे बली।
 
       यद्यपि डॉ. जेन्नी शबनम की अधिक संख्य कविताएँ आत्मपरक हैंलेकिन सामाजिक सरोकार की उपेक्षा नहीं की गई है। जीवन की जटिलताओं और मन की तरंगों को आपने चित्रित किया है। कवयित्री की भाषा सधी हुई और प्रवाहमयी है। हर पंक्ति में एक-एक लम्हे की संवेदना की द्रवित करने वाली लय अंकुरित होती है। मैं आशा करता हूँ कि जेन्नी जी का यह काव्य-संग्रह सहृदय पाठकों के बीच अपना अपनत्व-भरा स्थान बनाएगा।
                                                                          
- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’  
दिसम्बर, 2019 (ब्रम्प्टन, कनाडा)
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Sunday, June 14, 2020

77. सुशांत अब सदा के लिए शांत हो गया है

जीवन के यथार्थ से जुड़ा एक भावपूर्ण गाना है - ''आईने के सौ टुकड़े करके हमने देखे हैं, एक में भी तन्हा थे सौ में भी अकेले हैं'' इस गाना के बोल आज बार-बार दोहरा रही हूँ सचमुच हम कितने अकेले होते हैं, हज़ारों की भीड़ में भी अकेले हैं; यह सिर्फ़ हमारा मन जानता है कि हम कितने अकेले हैं कोई नहीं जानता कि किसी चेहरे की मुस्कराहट के पीछे कितनी वेदना छुपी होती है कोई ऐसा दर्द होता है जिसे वह दबाए होता है; क्योंकि वह किसी से कह नहीं पाता जब सहन की सीमा ख़त्म हो जाती है फिर वह सदा के लिए ख़ामोश हो जाता है निःसंदेह किसी की मुस्कराहट से उसकी सफलता और सुख का आकलन नहीं कर सकते और न ही भौतिक सुविधा से किसी को सुखी कह सकते हैं।  

सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की ख़बर मन को बहुत बेचैन कर रही है कई सवाल हैं जो मन को परेशान कर रहे हैं एक सफल इंसान जिसे भौतिक सुख-सुविधाओं की कोई कमी नहीं, आख़िर मन से इतना अकेला क्यों हुआ, जो उसे जीवन को ख़त्म करना जीने से ज़्यादा सहज मालूम हुआ। नाम, शोहरत, पैसा और सम्मान के होते हुए ऐसी कौन-सी चीज़ की कमी थी उसे? पर कुछ तो ज़रूर है जिसे कोई दूसरा न समझ सकता है, न जान सकता है कितना कठिन रहा होगा वह वक़्त, जब उसने फाँसी के फंदे को गले में डाला होगा मन से कितना टूटा रहा होगा वह मृत्यु से पूर्व निश्चित ही वह चाहता होगा कि कोई हो जिसे वह कुछ कह सके लेकिन चारों तरफ़ इतना अपना कोई न दिखा होगा, जो उसके मन तक पहुँच सके, उसे समझ सके, उसकी मदद कर सके कोई उसके इतने क़रीब होता, तो यों न जाता सुशांत।  

युवा सुशांत एक बहुत उम्दा कलाकार था बिहार का सुशांत बॉलीवुड में एक मक़ाम हासिल कर चुका था। उसने काई पो चे, शुद्ध देसी रोमांस, एम एस धोनी : द अनटोल्ड स्टोरी, पी के, केदारनाथ, छिछोरे आदि कई हिट फ़िल्में की हैं पिछले साल छिछोरे आई थी, जो एक भावनात्मक और सभी उम्र के लोगों के लिए प्रेरक फ़िल्म थी कई सारे धारावाहिकों में वह काम कर चुका है उसे बॉलीवुड में बहुत प्यार मिला कई सारे पुरस्कार और अवार्ड मिले निजी जीवन का तो नहीं पता, लेकिन फ़िल्मी जीवन में एक सफल अभिनेता था सुशांत।  

अक्सर सोचती हूँ कि जीवन का कौन-सा पल कब किस मोड़ पर मुड़ जाए, किस दिशा में ले जाए, किस दशा में पहुँचा दे, कोई नहीं जानता। ज़िन्दगी को जितना समझने, जानने, पकड़ने का प्रयत्न करो उतना ही समझ और पकड़ से दूर चली जाती है ज़िन्दगी के साथ ताल-मेल बिठाकर चलने के लिए साहस की ज़रूरत होती है कितना ही कठिन वक़्त हो अगर एक भी कोई अपना हो, तो हर बाधाओं को पार करने की हिम्मत इंसान जुटा लेता है परन्तु जाने क्यों अब इतना अपना कोई नहीं होता संवेदनाएँ धीरे-धीरे सिमटते-सिमटते मरती जा रही हैं हमारे जीवन से अपनापन ख़त्म हो रहा है हमारे रिश्तों में महज़ औपचारिक-से सम्बन्ध रह गए हैं, जहाँ कोई किसी का हाल पूछ भी ले तो, यों मानो एहसान किया हो अब ऐसे में अकेला पड़ गया आदमी क्या करे? शायद इसीलिए कहते हैं कि ज़िन्दगी से ज़्यादा आराम मौत में है जीवन के बाद का सफ़र कौन जाने कैसा होता होगालेकिन जैसा भी होता हो, जीवन की समस्याएँ जब इख़्तियार से बाहर हो जाती होंगी, तभी कोई इस सुन्दर संसार को अलविदा कहता होगा।  

वर्तमान समय में संवादहीनता और संवेदनहीनता एक बहुत बड़ा कारण है जिससे आदमी अकेला महसूस करता है। अपने अकेलेपन से पार जाने के लिए हमें ही सोचना होगा रिश्ते-नाते या दोस्तों में किसी को तो अपना बनना होगा, जहाँ हम खुलकर सम्वाद स्थापित कर सकें अपनी तक़लीफ़ बताएँ और तक़लीफ़ से उबरने का उपाय कर सकें कोई क्या सोचेगा, यह सोचकर हम बड़े-से-बड़े संकट या परेशानी में ख़ामोश ही नहीं रह जाते, बल्कि अपनी दशा और मनोस्थिति सबसे छुपाते रहते हैं कई बार यही चुप्पी काल बन जाती है संकोच की परिधि से बाहर आकर खुलकर ख़ुद को बताना और जीवन को चुनना होगा। हम जैसे अपनों की परवाह करते हैं वैसे ही हमें अपनी परवाह भी करनी होगी वरना अहंकार, असंवेदनशीलता और भौतिकता के इस दौर में हर कोई अकेले पड़ता जाएगा और न जाने कितने लोग जीवन से इसी तरह पलायन करते रहेंगे।  

बिहार का सुशांत अब सदा के लिए शांत हो गया है। शांति के लिए तुमने जिस पथ को चुना, भले वहाँ पूर्ण शान्ति हो; फिर भी वह उचित नहीं था सुशांत। चाहती हूँ कि तुम जहाँ भी हो, अब ख़ुश रहना। अलविदा सुशांत

- जेन्नी शबनम (14.6.2020) 
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Friday, June 5, 2020

76. बेज़ुबानों की हत्या

महात्मा गांधी ने कहा था कि व्यक्ति अगर हिंसक है, तो वह पशु के समान है मुझे ऐसा लगता है जैसे मानव पशु बन चुका है और पशु मानव से ज़्यादा सभ्य हैं अगर पशुओं को नुक़सान न पहुँचाया जाए, तो वे कुछ नहीं करते हैं पशुओं में न लोभ है, न द्वेष, न ईर्ष्या, न प्रतिकार का भाव, न मान-सम्मान-अपमान की भावना प्रकृति के साथ प्रकृति के बीच सहज जीवन ही पशु की मूल प्रवृत्ति है परन्तु मनुष्य अपनी प्रकृति के बिल्कुल विपरीत हो चुका है मनुष्य की मनुष्यता ख़त्म हो गई है मनुष्य में क्रूरता, पाश्विकता, अधर्म, क्रोध, आक्रोश, निर्दयता का गुण भरता जा रहा है वह पतित, दुराग्रही, पाखंडी, असहिष्णु, पाषाण-हृदयी हो गया है। वह हिंसक ही नहीं कठोर हिंसक व बर्बर बन चुका है।  

आए दिन कोई-न-कोई घटना ऐसी हो जाती है कि मन व्याकुल हो उठता हैकेरल में गर्भवती हथिनी को अनानास में विस्फोटक रखकर खिला दिया गया, जिससे उसकी मौत हो गई अर्थात उसकी हत्या कर दी गई लोगों का कहना है कि खेतों को जंगली सूअर से बचाव के लिए इस तरह मारने की विधि अपनाई जाती है क्या जंगली सूअर जीवित प्राणी नहीं हैं, जिन्हें इतने दर्दनाक तरीक़े से मारा जाता है? अगर हथिनी आबादी वाले क्षेत्र में आ गई थी, तो वन विभाग को पता कैसे न चला? वन विभाग की लापरवाही और आदमी की हिंसक प्रवृत्ति के कारण हथिनी को ऐसी मौत मिलीआख़िर आदमी इतना क्रूर और आतातयी क्यों हो जाता है बेज़ुबानों के साथ? चाहे वह निरीह पशु हो या कमज़ोर जोर इंसान।  

सिर्फ़ इस हथिनी की बात नहीं है ऐसे हज़ारों मामले हैं जब बेज़ुबान पशु पक्षियों के साथ क्रूरता हुई है और लगातार होती रहती है हाथी-दाँत के कारोबारी बड़ी संख्या में हाथियों के साथ क्रूरता करते हैं चमड़ा का व्यवसाय करने वाले उससे सम्बन्धित पशुओं को तड़पा-तड़पाकर मारते हैंगाय, बैल, भैंस को मारकर खाया जाता है और निर्यात भी किया जाता हैसूअर की हत्या बेहद क्रूरता से की जाती है बकरी और मुर्गा की तो गिनती ही नहीं कि हर रोज़ कितने मारे जाते हैं कहीं झटका देकर काटते हैं तो कहीं ज़बह करते हैं
 
महज़ अपने स्वाद के लिए इन पशुओं की हत्या की जाती है कुछ मन्दिरों में बलि के नाम पर पशुओं की हत्या होती है, तो बक़रीद पर बकरियों को क्रूरता से मारा जाता है होली में बकरी का माँस खाना जैसे परम्परा बन चुकी है। मछली को पानी से निकालकर पटक-पटककर मारते हैं या ज़िन्दा ही उसका पकवान बनाते हैं। मछली की हत्या कर उसे खाना कैसे शुभ हो सकता है? यह सब प्रथा और परम्परा के नाम पर होता है और सदियों से हो रहा है। किसी जानवर को मारकर कैसे कोई स्वाद ले सकता है? कैसे किसी जीव की हत्या कर जश्न या त्योहार मनाया जा सकता है?
 
अक्सर मैं सोचती हूँ कि जिन लोगों ने कुत्ता, बिल्ली, गाय, तोता या कोई भी पशु-पक्षी को पालतू बनाया है और उसे ख़ूब प्यार-दुलार देते हैं, वे अन्य जानवरों को कैसे मारकर खाते हैं? किसी जानवर को मारकर उसका मांस अपने पालतू जानवर को खिलाना क्या संवेदनहीनता नहीं? अन्य दूसरे जानवरों की पीड़ा उन्हें महसूस क्यों नहीं होती? अपने पसन्द और स्वाद के अनुसार जानवरों को पालना और मारना, यह कैसी सोच है, कैसी मानसिकता और परम्परा है? 

गर्भिणी हथिनी को लेकर ख़ूब राजनीति हो रही है। निःसन्देह यह मामला बेहद दर्दनाक और अफ़सोसनाक है। परन्तु जैसे हथिनी को लेकर लोगों का आक्रोश है अन्य जानवरों के लिए क्यों नहीं? पशुओं के अधिकार को लेकर आवाज़ उठाने वाले संस्थान, सभी पशुओं के लिए क्यों नहीं आवाज़ उठाते हैं? सभी पशुओं-पक्षियों को मनुष्य की तरह ही जीने का अधिकार है। जंगली जानवर हों या पालतू, सभी को उनकी प्रकृति के अनुरूप जीवन और सुरक्षा मिलनी चाहिए। सभी जंगलों के चारों तरफ़ काफ़ी ऊँचा बाड़ बना दिया जाए, तो इन जंगली जानवरों से आघात की सम्भावना ही न हो। ये बेख़ौफ़ और आज़ाद अपने जंगल में अपनी प्रकृति के साथ रहेंगे। न जानवरों से किसी को भय न जानवरों को मनुष्य का ख़ौफ़।  

अपने से कमज़ोर और ग़ैरों के प्रति दया और करुणा जबतक मनुष्य में नहीं जागेगी, तब तक ऐसे ही निरपराध जानवरों और मनुष्यों की हत्या होती रहेगी। चाहे वह मॉब लिंचिंग में किसी आदमी की हत्या हो या किसी स्त्री को उसके स्त्री होने के कारण हत्या हो। चाहे वह गर्भिणी हथिनी की हत्या हो या बकरी या मुर्गे की हत्या हो। ऐसे हर हत्या को गुनाह मानना होगा और हर गुनाहगार को दण्डित करना होगा।   

- जेन्नी शबनम (5.6.2020)
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Friday, May 1, 2020

75. हम मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा माँगेंगे

आज अंतरराष्ट्रीय श्रमिक/मज़दूर दिवस है हर साल यह दिन आता है और ऐसे चला जाता है, जैसे रोज़ सुबह का उगता सूरज अपने नियत समय पर शाम को ढल जाता है कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं, कहीं कोई शोर नहीं, बदलाव के लिए पूरज़ोर आवाज़ नहीं मज़दूरों-किसानों के लिए कहीं कोई इन्तिज़ाम नहीं, उनके जीने के लिए कोई सहूलियत नहीं यों सत्ता पर आसीन हर सरकार किसानों, मज़दूरों, श्रमिकों के लिए बड़ी-बड़ी बातें, बड़ी-बड़ी योजनाएँ, बड़ी-बड़ी घोषणाएँ करती है; लेकिन धरातल पर कहीं कुछ नहीं होता साम्यवादी और समाजवादी विचारधारा की पार्टियाँ किसानों-मज़दूरों के हक़ के लिए शुरू से प्रतिबद्ध हैं और समय-समय पर इनके लिए सरकार से लड़ती रही हैं। लेकिन वह नारों से इतर मज़दूरों की स्थिति बदलने में नाकाम रही आज किसानों-मज़दूरों के हित के लिए जो भी सहूलियत है, भले बहुत कम सही, पर इनके ही बदौलत है।   

बचपन से फैज़ अहमद फैज़ का मशहूर गीत, जिसे सुन-सुनकर हम बड़े हुए हैं, बरबस आज के दिन मुझे याद आ जाता है -
 
हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे  
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया माँगेंगे 
वो सेठ व्यापारी रजवाड़े दस लाख, तो हम हैं दस करोड़ 
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा माँगेंगे  

आज के दिवस पर 5 साल पुरानी एक घटना याद आ रही है। हमलोग घूमने के लिए लन्दन गए और वहाँ एक होटल में ठहरे बाथरूम का फ्लश ख़राब हो गया, तो मैंने रिसेप्शन पर ठीक करवाने के लिए कह दियाकुछ मिनट बीते होंगे कि दरवाज़े की घंटी बजी, मैंने दरवाज़ा खोला सामने एक लंबा-सा नौजवान खड़ा था, जिसने शर्ट, पैंट, कोट, चमचमाता जूता और हाथ में दस्ताना पहन रखा था उसने पूछा कि मैंने रिसेप्शन पर कॉल किया था मैं कहा कि हाँ, बाथरूम का फ्लश ख़राब हो गया है, कृपया किसी को ठीक करने भेज दीजिए वह बोला ठीक है, एक मिनट में आया फिर वह एक बैग लेकर आया और बाथरूम ठीक करने लगा मैं हतप्रभ हो गई मैं तो उसे होटल का मैनेजर समझ रही थी उसे देखकर मैं सोचने लगी कि हमारे देश में अगर होता तो उसका वस्त्र कैसा होता शर्ट-पैंट तो ठीक है परन्तु चमचमाता जूता और हाथ में दस्ताना, यह तो मैंने आज तक नहीं देखा मैं सोचने लगी हमारे देश में गंदे नाले की सफ़ाई में हर साल कितने लोगों की मृत्यु हो जाती है हमारे यहाँ सफ़ाईकर्मियों को सबसे निम्न दर्जा प्राप्त है। हमारी सरकार को इनकी सुरक्षा और सम्मान के लिए कड़े नियम बनाने होंगे अगर ये न हों, तो हमारे लिए जीवन नामुमकिन हो जाएगानिश्चित ही सफ़ाईकर्मियों का महत्व हम सभी को इस कोरोनाकाल में अच्छी तरह समझ आ गया है शायद अब इनके हालात में थोड़ा ही सही, पर सुधार हो।   
किसानों की ज़मीन लेकर बड़े उद्योगपतियों को उद्योग लगाने के लिए दी गई किसानों की खेती की ज़मीन सस्ते में लेकर उस पर मॉल बनाए जा रहे हैं, बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ बनाई जा रही हैं यह तो तय है कि इन सबका निर्माण मज़दूर करता है, और उन्हीं के पास अपना सिर छिपाने के लिए छत नहीं है जिनकी खेती की ज़मीन ले ली गई, उनके भरण-पोषण के लिए कोई निदान नहीं किया गया वे या तो पलायन करते हैं या फिर किसी तरह उम्र काटने के लिए आसमान की तरफ़ हाथ उठाए दुआओं में ज़िन्दगी खपाते हैं किसान का ऋण उनके जीवन का ऋण होता है, जिसे चुकाने में वे अपनी जान की बाज़ी लगा देते हैं परन्तु मौसम की मार, सरकार की बेरुखी और निरंकुशता किसानों को तोड़ देती है और वे कभी उससे बाहर नहीं आ पाते हैं    

इंसान की पाँच बुनियादी ज़रूरतें- भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य हैं, जिनके बिना एक सुसंस्कृत और विकसित देश की कल्पना सम्भव नहीं है परन्तु आज भी हमारे देश में इन विषयों पर सरकार का ध्यान नहीं जाता है सरकारी योजनाओं का फ़ायदा उच्च वर्ग और पूँजीपतियों को ही मिलता है आम लोग जिनमें निम्न वर्ग, आदिवासी, दलित, किसान, मज़दूर, असंगठित कामगार इत्यादि को इसका कोई लाभ नहीं मिलता है    

छोटे शहरों और गाँवों में आज भी अस्पताल नहीं है वहाँ आज भी ऐसे स्वास्थ्यकर्मी नहीं हैं, जो लोगों को स्वस्थ्य के प्रति जागरूक कर सकें। यहाँ के निवासी बीमार हों, तो छोटा ही सही कोई अस्पताल तो हो, ताकि बिना इलाज वह मरे नहीं अगर किसी को कोई बड़ी बीमारी हो गई, तो बड़े शहर जाकर इलाज कराना बहुत कठिन होता है। इसलिए उन पिछड़े इलाक़ों में इलाज के अभाव में मृत्यु बहुत ज़्यादा होती है अस्पताल और प्रशिक्षित दाई न होने के कारण गाँव में आज भी अधिकांश बच्चों का जन्म घर में होता है, जिसे गाँव की अप्रशिक्षित दाई करवाती है जच्चा-बच्चा राम भरोसे।   

गाँव हो या शहर (दिल्ली को छोड़कर) जहाँ भी सरकारी स्कूल है, वहाँ के शिक्षा का स्तर तो सभी को मालूम ही है सरकार से अनुदान मिलने पर भी भ्रष्टाचार का दीमक सब चट कर जाता है देश में दो तरह की शिक्षा पद्धति जब तक रहेगी, समाज के दोनों वर्गों की खाई कभी नहीं भरेगी पूरे देश में सिर्फ़ एक माध्यम से पढ़ाई होनी चाहिए, अमीर हों या ग़रीब सभी की शिक्षा निःशुल्क तथा एक साथ होनी चाहिए हमारे देश में जब हिन्दू-हिन्दू करने वाली सरकार बनी, तो मुझे सिर्फ़ एक बात की उम्मीद थी कि यह पार्टी जो ख़ुद को भारतीय संस्कृति की अकेली पैरोकार मानती है, भारतीय परिधान और हिन्दी पर ज़ोर देती है, निश्चित ही हिन्दी को हमारे देश की राष्ट्रभाषा बनाएगी पर ऐसा कुछ न हुआ, आज भी हम अँगरेज़ी की ग़ुलामी कर रहे हैं।   

जब से राम मन्दिर प्रकरण शुरू हुआ है, देश का साम्प्रदायिक सौहार्द इस तरह बिगड़ गया है कि लोगों में आपसी प्रेम पनपना नामुमकिन है हर घटना को हिन्दू-मुस्लिम के चश्मे से देखा जाता है यह हिन्दू-मुस्लिम करवाने वाली तो राजनीतिक पार्टियाँ हैं, लेकिन करने वाले वे बेरोज़गार और अशिक्षित हैं जिनके पास कोई काम नहीं है। यों कहें कि इन्हें ऐसा करने के लिए पोषित किया जाता है और हर पार्टी में ऐसे लोगों का संगठित हुजूम है जो हर वक़्त हिन्दू-मुसलमान करता है जिनके पास पेट भरने के लिए नहीं, वे लोग सहज ही इस अपराध में शामिल हो जाते हैं दंगा हो या आतंकवाद, इसके जड़ में अशिक्षा और बेरोज़गारी ही है जाति और साम्प्रदायिक आधार पर किसानों-मजदूरों को बाँटने का काम करके वोट बैंक तैयार होता है और उनके द्वारा जन-विरोधी कार्य करवाए जाते हैं।   

हमारी सभी आशाएँ मिट चुकी हैं। अँधेरा गहराता जा रहा है। फिर भी उम्मीद की एक किरण है, जो कभी-कभी दिख जाती है। महीनों से कोरोना संकट से जूझ रहे प्रवासी कामगारों, श्रमिकों, मज़दूरों, छात्रों और वे सब जो अपने-अपने घरों से दूर हैं; उनमें से कुछ के लिए सरकार द्वारा घर वापसी का प्रबन्ध किया गया है। आज एक ट्रेन रवाना हुई है, जिसमें काफ़ी लोग जो घर पहुँच पाने की उम्मीद छोड़ चुके थे, अपने-अपने घरों को जा रहे हैं; कोरोना से बचाव के लिए उनके कुछ और जाँच किए जाएँगे। 
 
काफ़ी देर से सही, पर सरकार ने सही क़दम उठाया है। इस देरी के कारण न जाने कितने लोगों की जान चली गई है। जिनके पास घर नहीं, पैसा नहीं, खाना नहीं वे कैसे गुज़ारा करते? कैसे व्यक्तिगत दूरी का पालन करते हुए ख़ुद को कोरोना से बचाते? भय और आशंका के कारण कामगारों ने जान जोखिम में डालकर, एक झोले में अपना पूरा घर समेटकर, कितने-कितने किलोमीटर नंगे पाँव चल दिए। पर उनमें से बहुत कम ही अपने प्रांत या घर पहुँच पाए। किसी-किसी का भूख से दम निकला, तो किसी-किसी का शरीर इतनी लम्बी दूरी चलना सह नहीं पाया और काल-कवलित हो गया। अधिकांश तो लॉकडाउन तोड़ने के जुर्म में पुलिस से मार भी खाए और शेल्टर होम की शोभा बढ़ाने के लिए वहाँ ठहराए भी गए। कई मेहनतकश ने तो मुफ़्त का रहना स्वीकार न किया और अपने हुनर का इस्तेमाल कर उस स्थान को रंग रोगन कर सुन्दर बनाकर एक अच्छा उदाहरण पेश किया। आज के दिन बस यही कामना है कि जितने भी लोग घर से दूर अपने घर जाने की बाट जोह रहे हैं, सरकार उन्हें सुरक्षित तरीक़े से उनके घर पहुँचा दे।   

मज़दूर दिवस की शुभकामनाएँ!   

- जेन्नी शबनम (1.5.2020)
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