Wednesday, May 1, 2013

45. मज़दूर महिलाएँ : मूल्यहीन श्रम

मैंने जब से होश सँभाला तब से फैज़ की यह नज़्म सुनती और गुनगुनाती रही हूँ-
''हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे 
इक खेत नहीं इक देश नहीं हम सारी दुनिया माँगेंगे...''
 
बचपन में सोचती थी कि आख़िर मेहनत तो सभी करते हैं, फिर कौन किससे हिस्सा माँग रहा है? ये दुनिया आख़िर है किसकी? दुनिया है किसके पास? कोई एक जब पूरी दुनिया ले लेगा तो बाक़ी लोग कहाँ जाएँगे? अजीब-अजीब-से सवाल मन में इकट्ठे होते रहे। बड़े होने पर समझ आया कि कौन मेहनतकश है और कौन सरमायादार

मई दिवस पर होने वाली हर बैठक में अपने माता-पिता के साथ मैं जाती थी। गोष्ठियाँ और बड़ी-बड़ी रैली होती, जिसमें शहर एवं गाँव के किसान व श्रमिक शामिल होते थे। झंडे, पोस्टर, बैनर आदि होते थे। पुरज़ोर नारे लगाए जाते थे- ''दुनिया के मज़दूरों एक हों'', ''ज़ोर ज़ुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है'', ''इन्क़िलाब ज़िन्दाबाद, पूँजीवाद मुर्दाबाद'' आदि। उन दिनों मई दिवस मेरे लिए जश्न का दिन होता था। 

समय के साथ जब ज़िन्दगी की परिभाषा समझ में आई, तब ढेरों सवाल उगने लगे, जिनके जवाब अक्सर मुझे स्वयं ही समझ में आने लगे। जब ये दुनिया बनी होगी, तब स्त्री और पुरुष सिर्फ़ दो जाति रही होगी। श्रम के आधार पर पुरुषों की दो जातियाँ स्वतः बन गईं। एक जो श्रम करते हैं और एक जो श्रम करवाते हैं। जो श्रम नहीं करते, वे जीवन यापन के लिए बल प्रयोग द्वारा ज़र, जोरू और ज़मीन हथियाने लगे। बाद में इनके हिस्से में शिक्षा, सुविधा और सहूलियत आई। ये कुलीन वर्ग कहलाए। पुरुषों ने स्त्री को अपने अधीन कर लिया; क्योंकि स्त्री शारीरिक रूप से पुरुषों से कमज़ोर होती है। धीरे-धीरे स्त्री ने पुरुष की अधीनता स्वीकार कर ली; क्योंकि इसमें जोख़िम कम था और सुरक्षा ज़्यादा। कितना वक़्त लगा, कितने अफ़साने बने, कितनी ज़िन्दगी इन सबमें मिट गईं, कितनी जानें गईं, कितनों ने ख़ुद को मिटा दिया और अंततः सारी शक्तियाँ कुछ ख़ास के पास चली गईं। स्त्रियाँ और कामगार श्रमिक कमज़ोर होते गए और सताए जाने लगे। वे बँधुआ बन गए, उत्पादन करके भी वंचित रहे। वह वर्ग जिसके बल पर दुनिया के सभी कार्य होते हैं, सर्वहारा बन गए। इस व्यवस्था परिवर्तन ने सर्वहारा वर्ग को भीतर से तोड़ दिया। धीरे-धीरे हक़ के लिए आवाज़ें उठने लगीं, सर्वहारा के अधिकारों के लिए क्रान्ति होने लगी। मज़दूर-किसान और स्त्रियों के अधिकार के लिए हुई क्रान्तियों ने कानूनी अधिकार दे दिए, पर सामाजिक ढाँचे में ख़ास बदलाव नहीं आया। आज भी मनुष्य को मापने के दोहरे मापदण्ड हैं।  
पुरुषों के दो वर्ग हैं शासक और शोषित, पर स्त्रियों का सिर्फ़ एक वर्ग है - शोषित। दुनिया की तमाम स्त्रियाँ आज भी अपने अधिकार से वंचित हैं; कुछ देश ने बराबरी का अधिकार दिया है। हर स्त्री उत्पादन का कार्य करती है। चाहे खेत में अनाज उपजाए या पेट में बच्चा। शिक्षित हो या अशिक्षित, घरलू कार्य की ज़िम्मेदारी स्त्री की ही होती है। फिर भी स्त्री को कामगार या श्रमिक नहीं माना जाता है। खेत, दिहाड़ी, चौका-बर्तन, या अन्य जगह काम करने वाली स्त्रियों को पारिश्रमिक मिलता है, पर समान कार्य के लिए पुरुषों से कम मिलता है। एक आम घरेलू स्त्री सारा दिन घर का काम करती है, संतति के साथ आर्थिक उपार्जन में मदद करती है; परन्तु उसके काम को न सिर्फ़ नज़रअंदाज़  किया जाता है बल्कि एक सिरे से यह कहकर ख़ारिज किया जाता है कि ''घर पर सारा दिन आराम करती है, खाना पका दिया तो कौन-सा बड़ा काम किया, बच्चे पालना तो उसकी प्रकृति है, यह भी कोई काम है।'' एक आम स्त्री के श्रम को कार्य की श्रेणी में रखा ही नहीं जाता है; जबकि सत्य है कि दुनिया की सभी स्त्री श्रमिक है, जिसे उसके श्रम के लिए कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता है।

मज़दूर दिवस आते ही मज़दूरों, श्रमिकों या कामगारों की जो छवि आँखों में तैरती है उनमें खेतों में काम करने वाले, दिहाड़ी पर काम करने वाले, रिक्शा-ऑटो चालाक, कुली, सरकारी गैर सरकारी संस्था में कार्यरत चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी आदि होते हैं। हर वह व्यक्ति श्रमिक है, जो दूसरे के लिए श्रमदान करता है और बदले में पारिश्रमिक का हक़दार होता है। परन्तु आम स्त्री को श्रमिक अब तक नहीं माना गया है और न श्रमिक कहने से घर में घरेलू काम-काज करती, बच्चे पालती स्त्री की छवि आँखों में उभरती है। 

मई दिवस आज भी वैसे ही मनाया जाएगा जैसे बचपन से देखती आई हूँ। कई सारे औपचारिक कार्यक्रम होंगे, बड़े-बड़े भाषण होंगे, उद्घोषणाएँ की जाएँगी, आश्वासन दिए जाएँगे, बड़े-बड़े सपने दिखाए जाएँगे। कल अख़बार नहीं आएगा; श्रमिक को साल में एक दिन काम से आराम। इन सबके बीच श्रमिक स्त्री हमेशा की तरह आज भी गूँगी-बहरी बनी रहेगी, क्योंकि माना जाता है कि यही उसकी प्रकृति और नियति है ।
समय आ गया है कि स्त्रियों के श्रम को मान्यता मिले और इसके लिए संगठित प्रयास आवश्यक है। इसमें हर उस इंसान की भागीदारी आवश्यक है, जो स्त्रियों को इंसान समझते हैं, चाहे वे किसी धर्म, भाषा, प्रांत के हों। स्त्रियों के द्वारा किए गए कार्य का पारिश्रमिक देना तो मुमकिन नहीं और न उचित है; इससे स्त्री अपने घर में श्रमिक और उसका पिता या पति मालिक बन जाएगा। अतः स्त्री के कार्य को श्रम की श्रेणी में रखा जाए और उसके कार्य की अवधि की समय सीमा तय की जाए। स्त्री को उसके श्रम के हिसाब से सुविधा मिले और आराम का समय सुनिश्चित किया जाए। स्त्री को उसके अपने लिए अपना वक़्त मिले, ताकि अपनी मर्ज़ी से जी सके और अपने समय का अपने मनमाफ़िक उपयोग सिर्फ़ अपने लिए कर सके। शायद तब हर स्त्री को उसके श्रमिक होने पर गर्व होगा और कह पाएगी ''मज़दूर दिवस मुबारक हो!''

- जेन्नी शबनम (1.5.2013)
(मज़दूर दिवस)
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Sunday, April 21, 2013

44. स्त्रियों के हिस्से में

सोचते-सोचते दिमाग़ जैसे शून्य हो जाता है। मन ही नहीं आत्मा भी सदमे में है। मन में मानो सन्नाटा गूँज रहा है। कमज़ोर और असहाय होने की अनुभूति हर वक़्त डराती है और नाकाम होने का क्षोभ टीस देता है। हताशा के कारण जीवन जीने की शक्ति ख़त्म हो रही है। आत्मबल तो मिट ही चुका है, आत्मारक्षा की कोई गुंजाइश भी नहीं बची है। सारे सपने तितर-बितर होकर किसी अनहोनी की आहाट को सोच घबराए फिरते हैं। मन में आता है चीख-चीखकर कहूँ- ''ऐसी खौफ़नाक दुनिया में पल-पल मरकर जीने से बेहतर है, ऐ आधी दुनिया, एक साथ ख़ुदकुशी कर लो।'' 

हर दिन बलात्कार की वीभत्स घटनाओं को सुनकर 13 वर्षीय बच्ची अपनी माँ से कहती है- ''माँ, चलो किसी और देश में रहने चले जाते हैं। वहाँ कम-से-कम इतना तो नहीं होगा।'' माँ ख़ामोश है। कोई जवाब नहीं ढाढस और हौसला बढ़ाने के लिए शब्द नहीं बेटी को बेफ़िक्र हो जाने के लिए झूठी तसल्ली के कोई बोल नहीं। माँ की आँखें भींग जाती हैं। एक सम्पूर्ण स्त्री बन चुकी वह माँ जानती है कि वह ख़ुद सुरक्षित नहीं, तो बेटी को क्या कहे उसके डर को कैसे दूर करे, किस देश ले जाए जहाँ उसकी बेटी पूर्णतः सुरक्षित हो कम-से-कम इस दुनिया में तो ऐसी कोई जगह नहीं है। बेटी से माँ कहती है- ''ख़ुद ही सँभलकर रहो, बदन को अच्छे से ढँककर रहो, शाम के बाद घर से बाहर नहीं जाना, दिन में भी अकेले नहीं जाना, कुछ थोड़ा-बहुत ग़लत हो जाए तो चुप हो जाना वर्ना उससे भी बड़ा ख़म्याज़ा भुगतना पड़ेगा, किसी भी पुरुष पर विश्वास नहीं करना चाहे कितना भी अपना हो।'' लड़की बड़ी हो चुकी है। सवाल उगते हैं- आख़िर 80 साल की स्त्री के साथ बलात्कार क्यों? जन्मजात लड़की के साथ क्यों? 5 साल की लड़की के साथ क्यों? 6 साल, 7 साल, किसी भी उम्र की स्त्री के साथ...क्यों?... क्यों? ...क्यों?

कहाँ जाए कोई भागकर? किस-किस से ख़ुद को बचाए? ख़ुद को क़ैदखाने में बंद भी कर ले, तो क़ैदखाने के पहरेदारों से कैसे बचे? हर कोई इन सभी से थक चुका है, चाहे स्त्री हो या कोई नैतिक पुरुष। सभी पुरुषों की माँ-बहन-बेटी है; सभी सशंकित और डरे-सहमे रहते हैं। दुनिया का ऐसा एक भी कोना नहीं जहाँ स्त्रियाँ पूर्णतः सुरक्षित हों और बेशर्त सम्मान और प्यार पाएँ। हम सभी हर सुबह किसी दर्दनाक घटना के साक्षी बनते हैं और हर शाम ख़ुद को साबूत पाकर ईश्वर का शुक्रिया अदा करते हैं। हर कोई स्वयं के बच जाने पर पलभर को राहत महसूस करता है, लेकिन दूसरे ही पल फिर से सहम जाता है कि कहीं अब उसकी बारी तो नहीं। ख़ौफ़ के साए में ज़िन्दगी जी नहीं जाती, किसी तरह बसर होती है; चाहे वह किसी की भी ज़िन्दगी हो।  

सारे सवाल बेमानी। जवाब बेमानी। सांत्वना के शब्द बेमानी। हर रिश्ते बेमानी। शिक्षा, धर्म, गुरु, कानून, पुलिस, परिवार सभी नाकाम। जैसे शाश्वत सत्य है कि स्त्री का बदन उसका अभिशाप है; वैसे ही शाश्वत सत्य है कि पुरुष की मानसिकता बदल नहीं सकती। कामुक प्रवृति न रिश्ता देखती है, न उम्र, न जात-पात, न धर्म, न शिक्षा, न प्रांत। स्त्री देह और उस देह के साथ अपनी क्षमता भर हिंसक क्रूरता; ऐसे दरिन्दों की यही आत्मिक राक्षसी भूख है। ऐसे पुरुष को पशु कहना भी अपमान है; क्योंकि कोई भी पशु सिर्फ़ शारीरिक भूख मिटाने या वासना के वशीभूत ऐसा नहीं करता है। पशुओं के लिए यह जैविक क्रिया है, जो ख़ास समय में होता है। पुरुषों की तरह कामुकता उनका स्वभाव नहीं और न ही अपनी जाति से अलग वे ऐसा करते हैं। पुरुष के वहशीपना को रोग की संज्ञा देकर उसका इलाज करना उचित नहीं; क्योंकि ऐसे लोग कभी सुधरते नहीं हैं, अतः वे क्षमा व दया के पात्र नहीं हो सकते। कानून और पुलिस ऐसे लोगों के लिए मज़ाक की तरह है। अपराधी अगर पहुँच वाला है तो फ़िक्र ही क्या, और अगर निर्धन है तो जेल की रोटी खाने में बुराई ही क्या।  

निश्चित ही मीडिया की चौकसी ने इन दिनों बलात्कार की घटनाओं को दब जाने से रोका है; परन्तु कई बार मीडिया के कारण ऐसे हादसे दबा दिए जाते हैं और बड़े-बड़े अपराधी खुले-आम घूमते हैं। सरकार, सरकारी तंत्र, मीडिया और कानून के पास ऐसी शक्ति है कि चाहे तो एक दिन के अंदर सभी अपराधों पर क़ाबू पा लें। लेकिन सभी के अपने-अपने हिसाब अपने-अपने उसूल। जनता असंतुष्ट और डरी रहे, तभी तो उन पर शासन भी सम्भव है। बलात्कार जैसे घृणित अपराध का भी राजनीतिकरण हो जाता है। सभी विपक्षी राजनैतिक पार्टियों को जैसे सरकार को कटघरे में लाने का एक और मौक़ा मिल जाता है। सत्ता परिवर्त्तन, तात्कालीन प्रधानमंत्री या गृहमंत्री के इस्तीफ़ा से क्या ऐसे अपराध और अपराधियों पर अंकुश सम्भव है? हम किसी ख़ास पार्टी पर आरोप लगाकर अपने अपराधों से मुक्त नहीं हो सकते।   

प्रशासन, पुलिस, कानून हमारी सुरक्षा के लिए है; लेकिन अपराधी भी तो हममें से ही कोई है, इस बात से हम इंकार नहीं कर सकते। अपराध भी हम करते हैं और उससे बचने के लिए भ्रष्टाचार को बढ़ावा भी हम ही देते हैं। हम ही सरकार बनाते हैं और हम ही सरकार पर आरोप लगाते हैं। हम ही कानून बनाते हैं और हम ही कानून तोड़ते हैं। हम में से ही कोई किसी की माँ-बहन-बेटी के साथ बलात्कार करता है और अपनी माँ-बहन-बेटी की हिफाज़त में जान भी गँवा देता है। आख़िर कौन हैं ये अपराधी? जिनकी न जाति है न धर्म। इनके पास इस अपराध को करने का कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं होता है और निश्चित ही इनके घरवाले ऐसे अपराध करने पर शाबासी नहीं देते होंगे। कानून और पुलिस की धीमी गति और निष्क्रियता, कानून का डर न होना और सज़ा का कम होना ऐसे अहम् कारण हैं जो ऐसे अपराध को रोक नहीं पाते हैं।     

कुछ अपराध ऐसे होते हैं जिनकी सज़ा मृत्यु से कम हो ही नहीं सकती तथा 'जैसे को तैसा' का दंड नहीं दिया जा सकता; बलात्कार ऐसा ही अपराध है। इस जुर्म की सरल सज़ा और मृत्यु से कम सज़ा देना अपने-आप में गुनाह है। ऐसे अपराधी किसी भी तबक़े के हों, आरोप साबित होते ही बीच चौराहे पर फाँसी दे दी जानी चाहिए। ताकि ऐसी मनोवृति वाला दूसरा अपराधी डर के कारण ऐसा न करे। न्यायप्रणाली और पुलिस को संवेदनशील, निष्पक्ष और जागरूक होना होगा। अन्यथा ऐसे अपराध कभी न रुकेंगे। 

- जेन्नी शबनम (21.4.2013)
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Friday, March 8, 2013

43. हद से बेहद तक

अक्सर सोचती हूँ कि स्त्रियों के पास इतना हौसला कैसे होता है, कहाँ से आती है इतनी ताक़त कि हार-हारकर भी उठ जाती हैं फिर से दुनिया का सामना करने के लिए। अजीब विडम्बना है स्त्री-जीवन; न जीवन जीते बनता है न जीवन से भागते। स्त्री जानती है कि उसकी जीत उसके अपने भी बर्दाश्त नहीं करते और उसे अपने अधीन करने के सभी निरर्थक और क्रूर उपाय करते हैं; शायद इस कारण स्त्रियाँ जान-बूझकर हारती हैं। एक नहीं कई उदाहरण हैं जब किसी सक्षम स्त्री ने अक्षम पुरुष के साथ रहना स्वीकार किया, महज़ इसलिए कि उसके पास कोई विकल्प नहीं था। पुरुष के बिना स्त्री को हमारा समाज सहज स्वीकार नहीं करता है। किसी कारण विवाह न हो पाए, तो लड़की में हज़ारों कमियाँ बता दी जाती हैं, जिनके कारण किसी पुरुष ने उसे नहीं अपनाया। दहेज और सुन्दरता विवाह के रास्ते की रुकावट भले हो, लेकिन ख़ामी सदैव लड़की में ढूँढी जाती है। पति की मृत्यु हो जाए, तो कहा जाता है कि स्त्री के पिछले जन्म के कर्मों की सज़ा है। तलाक़शुदा या परित्यक्ता हो, तो मान लिया जाता है कि दोष स्त्री का रहा होगा।  
 
भ्रूण हत्या, बलात्कार, एसिड हमला, जबरन विवाह, दहेज के लिए अत्याचार, आत्महत्या के लिए विवश करना, कार्यस्थल पर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न, घर के भीतर शारीरिक और मानसिक शोषण, सामाजिक विसंगतियाँ आदि स्त्री-जीवन का सच है। स्त्री जाए तो कहाँ जाए, इन सबसे बचकर या भागकर। न जन्म लेने का पूर्ण अधिकार, न जीवन जीने में सहूलियत और न इच्छा-मृत्यु के लिए प्रावधान क्या करे स्त्री? जन्म, जीवन और मृत्यु स्त्री के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिए गए हैं। 

शिक्षित समाज हो या अशिक्षित, निम्न आर्थिक वर्ग हो या उच्च, स्त्रियों की स्थिति अमूमन एक जैसी है। अशिक्षित निम्न समाज में फिर भी स्त्री जन्म से उपयोगी मानी जाती है, अतः भ्रूण-हत्या की सम्भावना कम है। 3-4 साल की बच्ची अपने छोटे भाई-बहनों की देख-रेख में माँ की मदद करती है तथा घर के छोटे-मोटे काम करना शुरू कर देती है। अतः उसके जन्म पर ज़्यादा आपत्ति नहीं है, बस इतना है कि कम-से-कम एक पुत्र ज़रूर हो। 

मध्यम आर्थिक वर्ग के घरों में स्त्रियों की स्थिति सबसे ज़्यादा नाज़ुक है। वंश परम्परा हो या दहेज के लिए रक़म की कमी; दोष स्त्री का और सज़ा स्त्री को। कई बार यों लगता है जैसे पति के घर में स्त्री की स्थिति बँधुआ मज़दूर की है तमाम ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए भी स्त्री फ़ुज़ूल समझी जाती है, अप्रत्यक्ष आर्थिक उपार्जन करते हुए भी बेकार मानी जाती है। न वह अपने अधिकार की माँग कर सकती है, न उसके पास पलायन का कोई विकल्प है। सुहागन स्वर्ग जाना और जिस घर में डोली आई है अर्थी भी वहीं से उठनी है; इसी सोच से जीवन यापन और यही है स्त्री-जीवन का अन्तिम लक्ष्य।  

उच्च आर्थिक वर्ग में स्त्रियों की स्थिति ऐसी है जिसका सहज आकलन करना बेहद कठिन है। सामाजिक मानदण्डों के कारण जब तक असह्य न हो, गम्भीर परिस्थितियों में भी स्त्रियाँ मुस्कुराती हुई मिलेंगी और अपनी तक़लीफ़ छुपाने के लिए हर मुमकिन प्रयास करेंगी। समाज में सम्मान बनाए रखना सबसे बड़ा सवाल होता है। अतः अपने अधिकार के लिए सचेत होते हुए भी स्त्रियाँ अक्सर ख़ामोशी ओढ़कर रहती हैं अत्यन्त गम्भीर परिस्थिति हो, तो स्वयं को इससे निकाल भी लेती हैं। यहाँ दहेज अत्याचार और भ्रूण-हत्या की समस्या नहीं होती, लेकिन अन्य समस्याएँ सभी स्त्रियों के समान हैं। इन घरों में स्त्रियों को आर्थिक व शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक तक़लीफ़ ज़्यादा रहती है। अगर स्त्री स्वावलंबी हो तो सबसे बड़ा मुद्दा अहंकार और भरोसा होता है। स्त्री को अपने बराबर देखकर पुरुष के अहम् को चोट लगती है, जिससे आपसी सम्बन्ध में ईर्ष्या-द्वेष समा जाता है एक दूसरे को सन्देह व विरोधी के रूप में देखने लगते हैं। इस रंजिश से भरोसा टूटता है और रिश्ता महज़ औपचारिक बनकर रह जाता है। फलतः मानसिक तनाव और अलगाव की स्थिति आती है। कई बार इसका अंत आत्महत्या पर भी होता है।  

स्त्रियाँ अपनी परिस्थितियों के लिए सदैव दूसरों को दोष देती हैं; यह सच भी है, परन्तु इससे समस्या से नजात नहीं मिलती। कई बार स्त्री ख़ुद अपनी परिस्थितियों के लिए ज़िम्मेदार होती है। स्त्रियों की कमज़ोरी उनके घर और बच्चे होते हैं, जो उनके जीने की वज़ह हैं और त्रासदी का कारण भी। स्त्री की ग़ुलामी का बड़ा कारण स्त्री की अपनी कमज़ोरी है। पुरुष को पता है कि कहाँ-कहाँ कोई स्त्री कमज़ोर पड़ सकती है और कैसे-कैसे उसे कमज़ोर किया जा सकता है। सम्पत्ति, चरित्र, मायका, गहना-ज़ेवर आदि ऐसे औज़ार हैं जिसका समय-समय पर प्रयोग अपने हित के लिए पुरुष करता है। पुरुष के इस शातिरपना से स्त्रियाँ अनभिज्ञ नहीं हैं, पर अनभिज्ञ होने का स्वाँग करती हैं, ताकि उनका जीवन सुचारू रूप से चले व घर बचा रहे। 

एक अनकही उद्घोषणा है कि पुरुष के पीछे-पीछे चलना स्त्री का स्त्रैण गुण और दायित्व है, जबकि पुरुष का अपने दम्भ के साथ जीना पुरुषोचित गुण और अधिकार। स्त्रियों को सदैव सन्देह के घेरे में खड़ा रखा जाता है और चरित्र पर बेबुनियाद आरोप लगाए जाते हैं, ताकि स्त्री का मनोबल गिरा रहे और पुरुष इसका लाभ लेते हुए अपनी मनमानी कर सके। स्त्री अपने को साबित करते-करते आत्मग्लानि की शिकार हो जाती है। हमारे अपने हमसे खो न जाएँ स्त्री इससे डरती है, जबकि पुरुष यह सोचते हैं कि स्त्रियाँ उनसे डरती हैं। स्त्री का यह डर पुरुष का हथियार है जिससे वह जब-न-तब वार करता रहता है।

निःसंदेह स्त्रियाँ शिक्षित हों, तो आत्विश्वास स्वतः आ जाता है और हर परिस्थिति का सामना करने का हौसला भी। वे स्वावलंबी होकर जीवन को प्रवाहमय बना सकती हैं। जीवन के प्रति उनकी सोच आशावादी होती है, जो हर परिस्थिति में संयमित बनाता है। वे विवेकशील होकर निर्णय कर सकती हैं। विस्फोटक स्थिति का सामना सहजता से कर अपने लिए अलग राह भी चुन सकती हैं। वे अपने अधिकार और कर्तव्य के बारे में जागरूक होती हैं। वे अकेली माँ की भूमिका भी बख़ूबी निभाती हैं। समाज का कटाक्ष दुःख भले पहुँचाता है पर तोड़ता नहीं, अतः वह सारे विकल्पों पर विचार कर स्वयं के लिऐ सही चुनाव कर सकती हैं।

स्त्रियों को पुरुषों से कोई द्वेष नहीं होता है। वे महज़ अपना अधिकार चाहती हैं, सदियों से ख़ुद पर किए गए अत्याचार का बदला नहीं। स्त्री के अस्तित्व के लिए पुरुष जितना ज़रूरी है, पुरुष के अस्तित्व के लिए उतनी ही ज़रूरी स्त्री है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं; यह बात अगर समझ ली जाए और मान ली जाए तो इस संसार से सुन्दर और कोई स्थान नहीं है।

आज़ादी चाहती हूँ बदला नहीं
 
***

तुम कहते हो-
''अपनी क़ैद से आज़ाद हो जाओ
।''
बँधे हाथ मेरे, सींखचे कैसे तोडूँ?
जानती हूँ 
उनके साथ मुझमें भी ज़ंग लग रहा है
पर अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद
एक हाथ भी आज़ाद नहीं करा पाती हूँ

कहते ही रहते हो तुम
अपनी हाथों से काट क्यों नहीं देते मेरी जंज़ीर?
शायद डरते हो
बेड़ियों ने मेरे हाथ मज़बूत न कर दिए हों
या फिर कहीं तुम्हारी अधीनता अस्वीकार न कर दूँ
या कहीं ऐसा न हो
मैं बचाव में अपने हाथ तुम्हारे ख़िलाफ़ उठा लूँ

मेरे साथी!
डरो नहीं तुम
मैं महज़ आज़ादी चाहती हूँ बदला नहीं
किस-किस से लूँगी बदला
सभी तो मेरे ही अंश हैं
मेरे ही द्वारा सृजित मेरे अपने अंग हैं
तुम बस मेरा एक हाथ खोल दो
दूसरा मैं ख़ुद छुड़ा लूँगी
अपनी बेड़ियों का बदला नहीं चाहती
मैं भी तुम्हारी तरह आज़ाद जीना चाहती हूँ

तुम मेरा एक हाथ भी छुड़ा नहीं सकते
तो फिर आज़ादी की बातें क्यों करते हो?
कोई आश्वासन न दो, न सहानुभूति दिखाओ
आज़ादी की बात दोहराकर
प्रगतिशील होने का ढोंग करते हो
अपनी खोखली बातों के साथ
मुझसे सिर्फ़ छल करते हो
इस भ्रम में न रहो कि मैं तुम्हें नहीं जानती हूँ
तुम्हारा मुखौटा मैं भी पहचानती हूँ

मैं इन्तिज़ार करूँगी उस हाथ का 
जो मेरा एक हाथ आज़ाद करा दे 
इन्तिज़ार करूँगी उस मन का 
जो मुझे मेरी विवशता बताए बिना साथ चले 
इन्तिज़ार करूँगी उस वक़्त का
जब जंज़ीर कमज़ोर पड़े और मैं अकेली उसे तोड़ दूँ

जानती हूँ, कई युग और लगेंगे
थकी हूँ, पर हारी नहीं
तुम जैसों के आगे विनती करने से अच्छा है
मैं वक़्त और उस हाथ का इन्तिज़ार करूँ
-0-

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर तमाम महिलाओं और पुरुषों को बधाई!

- जेन्नी शबनम (8.3.2013)
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Monday, January 21, 2013

42. दामिनियों के दर्द से कराहता देश

वह मुक्त हो गई। इस समाज, देश, संसार से उसका चला जाना ही उचित था। मगर दुःखद पहलू यह है कि उसे प्रतिघात का न मौक़ा मिला, न पलटवार करने के लिए जीवन। उसे अलविदा होना ही पड़ा। अब एक ऐसी अनजान दुनिया में वह चली गई, जहाँ उसे न कोई छू सकेगा, न उसे दर्द दे सकेगा। न कोई ख़ौफ़, न कोई अनुभूति हार-जीत से परे, दुःख-दर्द की दुनिया से दूर जाने कहाँ गई? किस लोक? स्वर्ग, नरक या कोई और लोक जो मृतात्माओं का प्रतीक्षालय है; जहाँ मृतात्माएँ अपने पूर्व जन्म के अत्याचार का बदला लेने के लिए पुनर्जन्म को तत्पर रहती हैं। 

इस संवेदनशून्य दुनिया से उसने पलायन नहीं किया; बल्कि अपनी शक्ति से दमभर लड़ती रही। भले ही जंग हार गई, पर हौसला नहीं टूटा। वह बहादूर थी। वह चाहती थी कि जीवित रहे और उन वहशी दरिन्दों का अंत अपनी आँखों से देखे। वह अवश्य जानती रही होगी कि वह अकेली स्त्री नहीं है, जिसके साथ ऐसा घिनौना, क्रूरतम, पाशविक, अत्याचार हुआ है। देश के सभी हिस्सों में रोज़-रोज़ घटने वाली ऐसी घटनाओं की ख़बर हर दिन उसे भी विचलित किया करती थी। पर उसने यह कहाँ सोचा होगा कि देश की राजधानी के उस हिस्से में उसके साथ ऐसा होगा, जो बेहद व्यस्ततम और मुख्य मार्ग पर है और तब जबकि वह अकेले नहीं किसी पुरुष के साथ है। उसने कहाँ सोचा होगा कि यातायात के सबसे सुरक्षित साधन 'बस' में उसके साथ ऐसा होगा। 
 
उस वक़्त सिर्फ़ एक लड़की का बलात्कार नहीं हुआ; बल्कि समस्त स्त्री जाति के साथ बलात्कार हुआ। उस वक़्त सिर्फ़ उसका पुरुष साथी बेबस और घायल नहीं हुआ; बल्कि समस्त मानवता बेबस और घायल हुई। हर एक आह के साथ इंसानियत पर से भरोसा टूटता रहा। भीड़ का कोलाहल उनकी चीख को अपने दामन में समेटकर न सिर्फ़ अनजान बना रहा; बल्कि अपना हिस्सा बनाकर हैवानियत को अंजाम देता रहा। क्षत-विक्षत तन-मन जिसमें कराहने की ताक़त भी न बची, बेजान वस्तुओं की तरह फेंक दिए गए। एक और कलंक दिल्ली के नाम। आख़िर वक़्त शर्मिन्दा हुआ और उसका सामना न कर सका, उसे दूसरे वतन में जाकर मरना पड़ा। एक बार फिर किसी को स्त्री होने की सज़ा मिली और समस्त स्त्री जाति ख़ुद को अपने ही बदन में समेट लेने को विवश हुई। 

अगर उसका जीवन बच जाता, तो क्या वह सामान्य जीवन जी पाती? क्या सब भूल पाती? मुमकिन है शारीरिक पीड़ा समय के साथ कम हो जाए, लेकिन मानसिक पीड़ा से वह आजीवन तड़पती। क्या वह आत्मविश्वास वापस आ पाता, जिसे लेकर अपने गाँव से राजधानी पहुँची थी? उसने भी तो पढ़ा और सुना होगा कि ऐसी घटनाओं के बाद इसी समाज की न जाने कितनी लड़कियों ने आत्महत्या की है। क्या वह भी आत्महत्या कर लेती? क्या पता इतनी यातना सहने के बाद जीवन में और संघर्ष सहन करने की क्षमता न बचती। जीवन भर लोगों की दया की पात्र बनकर जीना होता। क्या मालूम उसकी मनःस्थिति कैसी होती? क्या वह इस दुनिया को कभी माफ़ कर पाती? क्या ईश्वर को कटघरे में खड़ा नहीं करती, जिसने ऐसे संसार की रचना की और ऐसे पुरुष बनाए।   

न सिर्फ़ दिल्ली बल्कि देश के सभी हिस्सों में स्त्री की स्थिति लगभग एक-सी है। सामाजिक हालात के कारण सभी स्त्रियाँ अँधेरे में अकेले चलने से डरती हैं; सम्भव हो तो किसी को साथ लेकर ही चलती हैं। सभी जानते हैं कि एक अकेला पुरुष भीड़ से नहीं लड़ सकता, फिर भी पुरुष के साथ होने पर अपराध की संभावना कम हो जाती है; भले साथ चलने वाला पुरुष छोटा बच्चा क्यों न हो। 
 
अक्सर किसी और के साथ होने वाली दुर्घटना के बाद हम सोचते हैं कि हम बच गए और आशंकित रहते हैं कि कहीं हमारे साथ या हमारे अपनों के साथ कोई दुःखद घटना न घट जाए। किसी भी परिस्थिति का आकलन कर उसे समझना और उस परिस्थिति में ख़ुद होना बिल्कुल अलग एहसास है। स्त्रियों के पास पाने के लिए कुछ हो, न हो, परन्तु खोने के लिए सब कुछ होता है। बिना ग़लती किए स्त्री गुनहगार होती है स्त्री का स्त्री होना सबसे बड़ा गुनाह है स्त्री उस गुनाह की सज़ा पाती है, जिसे वह अपनी मर्ज़ी से नहीं करती ।  

बलात्कार की इस घटना से एक तरफ़ पूरा देश स्तब्ध, आहत और आक्रोशित है, तो दूसरी तरफ़ इसी समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के लिए स्त्री को दोषी ठहराते हैं। कोई पाश्चात्य संस्कृति को ऐसे अपराध का कारण मानता है, तो कोई स्त्री को ज़रूरत से ज़्यादा आज़ादी देने का परिणाम कहता है। कुछ का कहना है कि पुरुषों के बराबर अधिकार मिलने के कारण स्त्रियाँ देर रात तक घर से बाहर रहती हैं, तो ये सब तो होगा ही। कुछ का कहना है कि स्त्रियाँ दुपट्टा नहीं ओढ़तीं और कम कपड़े पहनती हैं, जिसे देखकर पुरुष में काम वासना जागृत होती है। यह भी कहा जाता है कि स्त्रियाँ लक्ष्मण रेखा पार करेंगी, तो ऐसी घटनाएँ होना स्वाभाविक है। बलात्कार जैसे अपराध के लिए भी अंततः स्त्रियाँ ही दोषी सिद्ध की जाती हैं और ऐसे मुद्दे पर भी राजनीति होती है।  

सभी स्त्रियों की शारीरिक संरचना एक-सी होती है चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, भाषा या देश की हो, हमारी आराध्य दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, काली, पार्वती, सीत हो या अहल्या, मेनका, द्रौपदी, सावित्री, शूपर्णखा हो या राजनीतिज्ञ, अभिनेत्री, व्यवसायी, वेश्या या आम स्त्री हो। अगर नग्नता के कारण कामुकता पैदा होती है, तो खजुराहो को मन्दिर कहने पर भी आपत्ति होनी चाहिए। कृष्ण और राधा के रिश्ते की भर्त्सना होनी चाहिए। कालीदास की शकुन्तला को वासना भरी नज़रों से देखना चाहिए। साड़ी पहनने पर स्त्री के शरीर का कुछ अंग और उभार अपने पूरे आकार के साथ नज़र आता है, तो निश्चित ही भारतीय परम्परा से साड़ी को हटा देना चाहिए। बलात्कारी की माँ, बहन, बेटी का बदन भी वैसा ही है जैसा बलात्कार पीड़ित किसी स्त्री का, तो मुमकिन है हर बलात्कारी अपनी माँ, बहन, बेटी को हवस का शिकार बना सकता है। जन्मजात कन्या को उसके बाप-भाई के सामने नहीं लाना चाहिए, क्योंकि उस कन्या के नंगे बदन को देख उसका बाप-भाई भी कामुक हो सकता है। किसी पुरुष को स्त्री रोग विशेषज्ञ भी नहीं होना चाहिए। 

धिक्कार सिर्फ़ बलात्कारियों को नहीं उन सभी को है, जिनकी नज़र में बलात्कार का कारण मानसिक विकृति नहीं बल्कि स्त्री है। बलात्कार एक ऐसा अपराध है जिसे सदैव पुरुष करता है और अपने से कमज़ोर शरीर वालों के साथ करता है, चाहे वह किसी भी उम्र की स्त्री हो या छोटा बालक। कमज़ोर पर अपनी ताक़त दिखाने का सबसे आसान तरीक़ा बलात्कार करना है। भले इसे हम मानसिक विकृति कहें या दिमाग़ी रोग, लेकिन ऐसे अपराधियों के लिए कारावास, जुर्माना या शारीरिक दण्ड निःसन्देह सज़ा के रूप में कम है। बलात्कार के अधिकतर मामले दबा दिए जाते हैं, जो सामने आए भी तो गवाह के अभाव में अपराधी छूट जाते हैं। बलात्कार का अपराध साबित हो जाने पर सज़ा का प्रावधान इतना कम है कि अपराधी को कानून का ख़ौफ़ नहीं होता। अगर बलात्कार पीड़िता की मृत्यु हो जाए, तो ही फाँसी का प्रावधान है। समाज और कानून की कमज़ोरी और संवेदनहीनता के कारण हर रोज़ न जाने कितनी स्त्रियाँ आत्महत्या कर लेती हैं या ज़िन्दा लाश बन जाती हैं।     

इस घटना से पहली बार एक साथ सामाजिक चेतना की लहर जागी है। देश के अधिकतर हिस्सों में आक्रोश और क्रोध दिख रहा है। गुनहगारों की सज़ा के लिए हर लोगों की अपनी-अपनी राय है, पर इस बात पर सभी एकमत हैं कि गुनाहगारों को फाँसी दी जाए। उन बलात्कारियों को सज़ा इसलिए मिल पाएगी, क्योंकि उन्होंने बलात्कार करने के बाद सबूत को पूरी तरह नहीं मिटाया और उसका पुरुष-साथी बच गया। दामिनी की मृत्यु के कारण अब फाँसी होना तय है; लेकिन अगर वह जीवित बच जाती तो निश्चित ही कानून में सार्थक बदलाव आता।  

बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के कानून में बदलाव और संशोधन के लिए मंत्रालयों, आयोगों, नेताओं, सामाजिक संस्थाओं, जनता सभी से राय माँगी गई है। उस लड़की की क़ुर्बानी विफल होगी, आम जनता की मुहीम राजनीति की भेंट चढ़ेगी, कानून में सार्थक संशोधन और बदलाव होगा यह आने वाला समय बताएगा। सख़्त कानून के साथ कानून के रखवालों का भी सख़्त, सतर्क और निष्पक्ष होना ज़रूरी है। किसी भी कानून की आड़ में कानून से खिलवाड़ करने वाले भी होते हैं, ऐसे में निष्पक्ष न्याय के लिए कड़े और प्रभावी क़दम उठाए जाने होंगे, ताकि हर इंसान बेख़ौफ़ जीवन जी सके और हर अपराधी मनोवृति वाला कठोर दण्ड के डर से अपराध न करे। 

- जेनी शबनम (18.1.2013)
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