Tuesday, July 20, 2010

9. वे जो मेरे पिता थे

पापा
पापा और आचार्य विनोबा भावे
 
 
आज पापा के लिए मन बहुत उदास है उनको गुज़रे हुए आज 32 साल साल हो गएफिर भी यादों में, बातों में, जीवन के हर क्षण में उनकी कमी और ज़रूरत महसूस होती है जानती हूँ, मेरी उम्र और वक़्त का वह सभी पल बीत चुका है, जब उनकी निहायत ज़रूरत थी; क्योंकि अब हम सभी को उनके बिना जीने की आदत पड़ चुकी है और ज़िन्दगी का बहुत लम्बा सफ़र हम उनके बिना तय कर चुके हैं यों तो शाश्वत नियम है जन्म लेना और मृत्यु को प्राप्त करना, लेकिन असमय मृत्यु असह्य होती है।  
 
मेरे पिता प्रोफ़ेसर डा. कृष्ण मोहन प्रसाद का लम्बी बीमारी के बाद असामयिक निधन हुआ था आज के दिन 17.7.1978 की काली रात कहें या 18.7.1978 का भोर, 1 बजकर 45 मिनट पर पापा हम सभी से बहुत दूर चले गए भागलपुर विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में शिक्षक मेरे पिता गांधी के सिद्धांतों और विचारों से काफ़ी गहराई से जुड़े रहे इस विषय पर उनके व्याख्यान इतने सहज ग्राह्य होते थे कि उनके छात्र लगातार घंटों उनको सुनना चाहते थे गांधीवाद और मार्क्सवाद पर व्याख्यान देने के लिए उन्हें कई संस्थाओं द्वारा बुलाया जाता था  
 
मुझे याद है मृत्यु से पूर्व एक सप्ताह तक अस्पताल में वे अचेत रहे पहले जॉन्डिस (पीलिया) बाद में उन्हें लीवर सिरोसिस हो गया एक साल तक वे बीमार रहे, लेकिन जिस दिन अचेत हुए उस दिन तक वे साइकिल से विश्वविद्यालय जाते रहे; जबकि डाक्टर ने उन्हें पूर्ण आराम (बेड रेस्ट) करने को कहा था विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर डा. हरिद्वार राय ने कहा कि कुछ दिनों की छुट्टी ले लें, परन्तु उन्हें ख़ुद से ज़्यादा अपने छात्रों की चिन्ता थी उन्हें शायद यह मालूम हो गया था कि उनकी ज़िन्दगी अब ख़त्म होने वाली है, अतः उनके अधीन जो छात्र शोध-कार्य कर रहे थे उनको सारी रात बिठाकर वे पढ़ाते और उनके कार्य में संशोधन करते थे  
 
अपने छात्रों के बीच वे बहुत लोकप्रिय थे, क्योंकि वे जो पढ़ाते या कहते थे, वैसे ही जीते थे विचार और व्यवाहार में समानता के कारण एक आदर्श शिक्षक और व्यक्ति के रूप में उन्हें प्रतिष्ठा मिलती थी मुझे याद है जब वे अचेत होकर अस्पताल में भर्ती हुए, उनके छात्रों ने दो-दो घन्टे के अन्तराल पर अपना-अपना समय तय कर वहाँ रहना निश्चित किया था; क्योंकि अचेतावस्था में जिस हाथ में पानी (स्लाइन) चढ़ रहा था वे खींच लेते थे, तो उस हाथ को पकड़े रहना होता था दिन और रात उनके कोई-न-कोई छात्र वहाँ होते थे शुरू के दो दिन मेरी मम्मी, रिश्ते के एक चाचा और वे छात्र वहाँ थे; दो दिन के बाद मेरी दादी और मेरा भाई भी आ गया, जो गाँव में दादी के पास रहता था बाद में मेरे मामा और ननिहाल के कुछ रिश्तेदार भी आ गए हम दोनों भाई-बहन छोटे थे, हमें समझ नहीं आया कि पापा ठीक नहीं होंगे या नहीं लौटेंगे  
 
जिस रात पापा की मृत्यु हुई, उस रात उनके सभी छात्र मेरी मम्मी के साथ वहाँ मौजूद थे सुबह जब अपनी मौसी और भैया के साथ मैं अस्पताल गई, तो गेट पर किसी ने मौसी को बता दिया कि पापा नहीं रहे, पर हम भाई-बहन को किसी ने नहीं बताया पापा के मित्र, जो कभी पापा के छात्र और मम्मी के सहपाठी थे, प्रोफ़ेसर जवाहर पाण्डेय वहीं से मुझे और भैया को अपने घर ले गए, नाश्ता कराया, और ख़ुद अस्पताल चले गए बाद में हमें अस्पताल लाया गया रात में जैसे ही पापा की मृत्यु हुई सभी छात्र एकत्रित हो गए और दाह-संस्कार का सारा इंतिज़ाम कर लिया बड़े से ट्रक में पापा को रखा जा चुका था और उनके सभी छात्र ट्रक में खड़े थे मुझे तब भी समझ नहीं आया कि पापा की मृत्यु हो चुकी है और उन्हें उस ट्रक में जलाने ले जाया जाएगा, जबकि मैंने उस ट्रक को देखा और तैयारी करते छात्रों को भी; परन्तु किसी ने मुझे पापा को नहीं दिखाया अस्पताल से मौसी अपनी गाड़ी से मुझे, मम्मी और दादी को लेकर घर आ गईं भैया को लेकर वे लोग गंगा के बरारी घाट पर गए, जहाँ दाह-संस्कार व क्रिया-कर्म किया गया पापा के विचारों के ख़िलाफ़ उनको अग्नि से जलाया गया, जबकि विद्युत से जलाए जाने को वे सदैव उचित कहते थे; मृत्यु के बाद उनकी बात कौन सुनता या मानता  
 
पापा अपने छात्र जीवन से ही राजनीति से जुड़ गए थे पापा का जन्म ग्रामीण परिवेष में हुआ, जहाँ धार्मिक मान्यताओं और प्रथा-परम्परा को बहुत महत्व दिया जाता है बचपन से वे रूढ़िवादी परम्पराओं के विरोधी थे तथा शिक्षा को बहुत महत्व देते थे अपनी पढ़ाई के लिए उन्हें काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा, क्योंकि वे संयुक्त परिवार से थे पापा का अपने पिता से बहुत ज़्यादा वैचारिक मतभेद रहा; क्योंकि उनकी सोच, उनकी कार्य-शैली व जीवन-शैली सभी से अलग थी तीक्ष्ण बुद्धि और अपने प्रखर सोच के कारण वे अपनी पढ़ाई पूरी कर सके उन्होंने इतिहास और राजनीति शास्त्र में एम.ए., बी.एल., गाँधी-विचार में पी-एच.डी. किया उनके पी-एच.डी. की मौखिक परीक्षा (viva) में एक बाह्य परीक्षक (external) आचार्य कृपलानी भी थे जब कृपलानी जी ने गांधी जी के प्रति उनके विचारों को सुना तो अवाक् रह गए और उन्होंने बहुत प्रशंसा की; हालाँकि उनके थीसिस के कुछ विचारों से उन्हें आपत्ति थी और दोबारा लिखने को कहा था  
 
पापा का राजनीतिक जीवन कम उम्र से शुरू हो गया था वर्ष 1942 के आन्दोलन में वे सक्रिय रहे। अपने एक बड़े भाई के साथ रेल की पटरी उखाड़ने में कामयाब रहे और पकड़े न गए उनकी विचारधारा उसी समय से सोशलिस्ट पार्टी की तरफ़ बढ़ गई थी बाद में उनका रुझान वामपंथ की ओर हो गया और वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय कार्यकर्ता हो गए एक आम भारतीय परम्परावादी परिवार में जन्म लेने के बाद भी वे नास्तिक थे; उनकी ये नास्तिकता उनके अपने सोच से थी, न कि किसी को देखकर विचार बने या बदले थे वे हर उस अंधविश्वास और ग़लत रूढ़ियों के ख़िलाफ़ थे जिससे प्रगति में बाधा हो जाति-प्रथा, पर्दा-प्रथा, या किसी भी धार्मिक क्रिया-कलाप के विरोधी थे यहाँ तक की अपनी शादी में खादी का धोती-कुर्ता पहनकर गए और एक रुपया भी लेने से इंकार कर दिया वे इसी शर्त पर शादी करने को राज़ी हुए थे कि मम्मी अपनी पढ़ाई जारी रखेंगी  
 
साम्यवादी, गांधीवादी, नास्तिक और शिक्षक होने के साथ वे प्राकृतिक चिकित्सा में विश्वास रखते थे और शुद्ध शाकाहारी थे अपने सभी सिद्धांत जो वे कहते थे या अपने भाषण में बोलते थे, पहले ख़ुद पर प्रयोग कर चुके होते थे मुझे याद है कि पापा के विचारों से प्रभावित होकर कई लोगों ने सिर्फ़ एक बच्चे में परिवार नियोजन करा लिया था गाँव में अपनी ज़मीन पर उन्होंने एक प्राथमिक विद्यालय खोला, जो बाद में सरकारी हो गया उस विद्यालय में पापा का नाम कहीं नहीं है; क्योंकि गाँव के महाजन ने पापा के द्वारा दान की गई विद्यालय की ज़मीन की अदला-बदली कर अपने नाम करा ली और विद्यालय को वहाँ से उठाकर अपने परिसर में ले गए, जहाँ मैं भी कुछ दिन पढ़ी हूँ पापा की मृत्यु के बाद वह विद्यालय पुनः उसी ज़मीन पर बना जिसे मेरे पापा ने दान किया था, लेकिन अब वह ज़मीन महाजन की चालाकी से महाजन के नाम है विद्यालय में जाने का रास्ता अब भी हमारे ज़मीन से होकर ही है पापा ने एक पुस्तकालय भी खोला, जो बाद में बंद हो गया  
 
मैं तब बहुत छोटी थी जब गाँव में बिजली नहीं आई थी मैं पापा के साथ सीतामढ़ी गई, जो उस समय मेरे गाँव का ज़िला हुआ करता था, वहाँ से बिजली विभाग में आवेदन देकर बहुत दौड़-धूप करके बिजली का पोल लेकर हम गाँव आए और फिर पूरे गाँव में बिजली आई  
 
अपने गाँव और आस-पास के इलाक़ों में वे 'कन्हैया जी' के नाम से मशहूर थे ख़ुद खादी पहनते और मम्मी को भी खादी पहनने को कहते थे ज़रूरत से ज़्यादा कोई सामान हमारे घर में नहीं था फोटो खींचने के वे बहुत शौक़ीन थे और ख़ुद फोटो साफ़ भी करते किसी से भी निर्धारित समय पर वे मिलते थे, जो छुट्टी का दिन छोड़कर हर दिन शाम को चार से छह का होता था; भले ही कोई रिश्तेदार हो या बहुत बड़े ओहदे वाला व्यक्ति। सिर्फ़ उनके अपने छात्रों के लिए वक़्त की कोई पाबन्दी न थी  
 
संभवतः उन्हें अपनी बीमारी के ठीक न होने का अनुमान था मृत्यु से पूर्व वे दिल्ली के एम्स में एक माह भर्ती रहे, तब डाक्टर ने बहुत आश्चर्य किया कि शाकाहारी व्यक्ति जो चाय भी न पीता हो उसे लीवर सिरोसिस कैसे हुआ; बीमारी उस समय अन्तिम स्थिति में थी हम सभी से अपनी बीमारी या बीमारी की गम्भीरता के बारे में वे कोई चर्चा नहीं करते थे अपनी मृत्यु से पूर्व एक माह के भीतर उन्होंने अपना सारा काम पूरा कर लिया; चाहे अध्यापन-विषय को पूर्ण करना हो या शोधार्थी छात्रों की थीसिस की अन्तिम जाँच हो परन्तु घर और परिवार का सारा कार्य वे अधूरा छोड़ गए उस समय मैं 8वीं की छात्रा थी और भैया 10वीं का एक महत्वपूर्ण काम उन्होंने हमारे लिए किया था, जो उनके बाद हमारे जीने में मददगार हुआ, वह था मेरी मम्मी का स्कूल में शिक्षिका होना तथा सामजिक कार्यों में आगे बढ़ानाजब पापा की शादी हुई मम्मी बी.ए. में पढ़ती थीं शादी के बाद मम्मी ने एम.ए., बी.एल., बी.एड. किया पापा की मृत्यु के काफ़ी सालों बाद मम्मी ने एम.एड. किया  
 
'गांधी शान्ति प्रतिष्ठान केन्द्र' भागलपुर शाखा को पापा ने वर्ष 1967 में शुरू किया, जिसकी फाउंडर सेक्रेटरी (चीफ़ वर्कर) मेरी माँ श्रीमती प्रतिभा सिन्हा थीं बाद में मम्मी स्कूल में शिक्षिका बनी, साथ-साथ समाज सेवा में सक्रिय रहीं मम्मी 1974 में शिक्षिका बनी, 1988 में इन्टर स्कूल की प्राचार्य बनी और एक साल पूर्व अवकाश प्राप्त हुई हैं  
 
अपनी मृत्यु से कुछ पहले पापा ने अपने थीसिस को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने के लिए किसी प्रकाशक को दिया था। पुस्तक प्रकाशन से सम्बन्धित सारी बातें हो गईं, प्रूफ-रीडिंग कर चुके थे; परन्तु किताब छप न सकी, उनकी मृत्यु हो गई मेरे पापा के मित्र प्रोफ़ेसर डा. रामजी सिंह, जो सांसद भी रह चुके हैं, ने पापा की पुस्तक किसी दूसरे प्रकाशक से प्रकाशित करवाई उन्होंने किताब का शीर्षक बदलकर 'सर्वोदया ऑफ गांधी' कर दिया यों किताब तो छप गई, पर न आज तक रॉयल्टी मिली न किताब के और छपने की जानकारी  
 
पापा ने हम दोनों भाई-बहन को पढने के लिए गाँव भेज दिया था दो साल बाद मैं वापस भागलपुर आ गई, भैया वहीं रह गया पापा का मानना था कि गाँव में रहकर भी अच्छी शिक्षा ली जा सकती है पापा की मृत्यु के बाद भाई को मम्मी वापस भगलपुर ले आईं मेरा भाई पढ़ाई में काफी तेज़ था, तो गाँव से उसके शिक्षक आकर उसे वापस ले गए कि वह गाँव में पढ़ेगा; यह वही स्कूल है जिसमें मेरे पिता भी पढ़े थे मेरे पापा की सोच सही साबित हुई मेरा भाई गाँव से मैट्रिक करने के बाद पटना साइंस कॉलेज से आई.एस.सी. फिर आई.आई.टी. कानपुर से एम.एस.सी. और छात्रवृति पाकर आगे की पढ़ाई करने ओहिओ स्टेट यूनिवर्सिटी, अमेरिका चला गया  
पुरुष के बिना जीना समाज में कितना मुश्किल होता है, उस समय यह अनुमान न था जब पापा की मृत्यु हुई मेरी मम्मी मात्र 33 वर्ष की थीं सामजिक, मानसिक, आर्थिक और पारिवारिक परेशानी को झेलते हुए मम्मी को मैं देखती रही उस समय मुझे कुछ समझ नहीं आता था, शायद यह उस ज़माने का फ़र्क़ था जबकि आज के बच्चे 10-12 साल में ही बहुत समझदार हो जाते हैं  
 
यों मेरी दादी, मम्मी के सहकर्मी और मेरे ननिहाल के सभी लोग बहुत सहयोगी रहे हैं पापा के सभी मित्र, चाहे राजनीतिक जीवन से जुड़े हों या सामाजिक, सभी ने सदैव हमारा साथ दिया हर वह वक़्त जब मम्मी का सामाजिक बहिष्कार होता, किसी शुभ व धार्मिक आयोजन से मम्मी को दूर कर दिया जाता, या कोई बेचारी समझ हम पर तरस खाता, तो पापा की हर बार बहुत याद आती थी अब भी जब किसी बात से मन दुःखी होता है, पापा ही याद आते हैं हर बार पापा से सवाल करती हूँ ''क्यों गए तुम? जाना ही था, तो कम-से-कम थोड़ा रुककर हमारे होश आने तक ठहर जाते बहुत सी बातें हैं पापा, जो सिर्फ़ तुमसे ही कह सकती या सिर्फ़ तुम ही कर सकते, फिर... पापा, बताओ किससे कहें?'' 
 
32 साल बीत गए पर कभी-कभी लगता है जैसे अभी-अभी की तो बात है, तुम यूनिवर्सिटी से साइकिल से लौटोगे और साथ में अमरूद, गाजर और पेड़ा लाओगे और पुकारोगे- जेन्नी...!

-जेन्नी शबनम (18.7.2010)
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