Monday, January 27, 2025

120. इमरोज़ की चाय

इमरोज़ जी का जन्मदिन 26 जनवरी को होता है। उनके जन्मदिन पर एक संस्मरण लिखी हूँ, जो 2024 के अभिनव इमरोज़ पत्रिका के चाय विशेषांक में प्रकाशित हुई। यों इमरोज़ जी के साथ मेरे ढेरों संस्मरण हैं; परन्तु चाय वाला संस्मरण मुझे रोमांचित करता है। 

इमरोज़ की चाय 

अमृता जी के देहावसान के बाद भी मैं उनके घर जाती और इमरोज़ जी से मिलती रही। जाने क्यों जब भी इमरोज़ जी से मिलती तो यूँ लगता मानो अमृता जी से मिल रही हूँ। कई सवाल जो मुझे अमृता जी से पूछने थे, इमरोज़ जी से पूछती थी। सोचती कि अमृता जी होतीं तो क्या जवाब देतीं, मुमकिन है वे मेरे सवाल का जवाब किसी कविता के रूप में देतीं या मेरे सवाल के जवाब में मुझसे ही सवाल करतीं। जब भी वहाँ जाती मेरे इर्द-गिर्द इमरोज़, इमरोज़ द्वारा बनाई अमृता की पेंटिंग्स, अमृता की बातें तथा चाय की चुस्कियाँ होतीं। 

मैं जब परेशान या उदास होती तो अक्सर इमरोज़ जी से मिलने उनके घर पहुँच जाती थी। जब भी जाती तो दरवाज़ा वही खोलते और मुझे पहली मंजिल पर ले जाते थे। जाड़े के दिनों में छत पर फूल व धूप के साथ हम बैठते, बातें करते व चाय पीते। कभी हम डाइनिंग रूम बैठते तो कभी उनके कमरे में। उन्हें मेरी समस्याओं की जानकारी थी, इसलिए वे जीवन जीने के लिए ढेरों बातें बताते थे। ऐसा नहीं कि वे सिर्फ़ मुझसे ऐसी बातें करते थे, वे सभी के प्रिय थे व सबसे प्रेम करते थे और सबसे खुलकर बात करते थे, चाहे उनके और अमृता के आपसी रिश्ते की बात हो या दुनियादारी की।   

एक दिन मन बहुत उदास था। हर बार की तरह इमरोज़ जी से मिलने मैं वक़्त पर पहुँच गई। वे घर पर अकेले थे। उस दिन हमलोग डाइनिंग रूम में बैठे। फिर इमरोज़ जी ने कहा ''तुम बैठो मैं चाय बनाकर लाता हूँ।'' मैंने कहा ''चाय मैं बनाती हूँ, आप बैठिए और अमृता जी की बातें करते रहिए।'' वे बोले ''तुम भी चलो किचन में, देखो मैं कैसे चाय बनाता हूँ।'' एक बर्तन में चाय का पानी डाला उन्होंने फिर मुझसे कहा ''वहाँ कप है ले आओ।'' मैं कप लेकर आई। चाय बनाते हुए बताते रहे कि अमृता और वे साथ मिलकर कैसे रसोई में काम करते हैं या अन्य कोई काम करते हैं। अमृता जी के लिए वे कभी भी थी नहीं बोलते थे। उन्होंने बताया कि अमृता के लिए वे रात में चाय बनाते हैं और चुपचाप उनके कमरे में रख आते हैं, जब अमृता कुछ लिखती होतीं हैं। अमृता के जाने के बाद भी वे दो कप चाय बनाते हैं अमृता और ख़ुद के लिए। इमरोज़ जी बोले ''अमृता तो नहीं हैं, आज तुम चाय पी लो।'' चाय बन रही थी। इमरोज़ जी मुझे रसोईघर दिखाते रहे और बताते रहे कि रसोईघर को किस तरह उन दोनों ने आकर्षक बनाया।

इमरोज़ जी द्वारा बनाई हुई चाय मैं पीने वाली हूँ, यह सोचकर मैं रोमांचित हो रही थी और यह सभी क्षण मैं अपने कैमरे में क़ैद करती रही। चाय बन गई तो मैं दोनों कप उठाकर डायनिंग टेबल पर ले आई। हम चाय पीते रहे और इमरोज़ जी से मैं जीवन को समझती रही। उन्होंने कुछ कविताएँ सुनाईं। कुछ अनछपी कविताएँ जो पन्नों पर टाइप की हुई थीं, मुझे दी। उनकी कविताओं और पेंटिंग से बनाया हुआ एक कैलेंडर भी उन्होंने दिया।

चाय ख़त्म हो चुकी थी, वे कप उठाने लगे। झट से मैं कप उठाकर किचन के सिंक में ले गई और कप धोने लगी। वे बोले ''कप मुझे दो मैं धोऊँगा, चाय पीता हूँ तो कप भी धो देता हूँ।'' मैंने कहा ''चाय आप बनाए हैं तो मुझे कप धोने दीजिए।'' अंततः मैंने दोनों कप धोया और उन्होंने सॉसपैन।  डाइनिंग रूम में हम घंटों बैठे रहे; इमरोज़ और इमरोज़ की अमृता की बातों के साथ मैं।

सोचती हूँ कुछ यादें मन को कितना आनन्दित करती हैं। यूँ चाय पर कई संस्मरण है, पर इमरोज़ जी द्वारा मेरे लिए चाय बनाना और मेरा उन पलों को जीना, मेरे लिए बहुत सुखद क्षण था।

(30.8.2024)
-0- 

-जेन्नी शबनम (26.1.2025)
___________________

Thursday, January 16, 2025

119. ख़त, जो मन के उस दराज़ में रखे थे -रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

आदरणीय रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी द्वारा लिखी भूमिका:
काव्य में कल्पना के पुष्प खिलते हैंभावों की कलिकाएँ मुस्कुराती हैं, सुरभित हवाएँ आँचल लहराते हुए अम्बर की सीमाएँ नाप लेती हैं। जीवन इन्द्रधनुषी रंगों से रँग जाता है। चिट्ठियों की मधुर सरगोशियाँ नींद छीन लेती हैं। क्या वास्तविक जीवन ऐसा ही हैकदापि नहीं। भावों की कलिकाओं को जैसे ही गर्म लू के थपेड़े पड़ते हैंतो यथार्थ जीवन के दर्शन होते हैं। जीवन की पगडण्डी बहुत पथरीली हैजिस पर नंगे पाँव चलना हैतपती दोपहर में। आसपास कोई छतनार गाछ नहीं हैजिसके नीचे बैठकर पसीना सुखा लिया जाए। चारों तरफ़ सन्नाटा है। कोई बतियाने वालाराह बताने वाला नहीं है। उस समय पता चलता है कि जो हम कहना चाहते थेवह कभी उचित समय पर कहा नहीं। जो सहना चाहते थेवह सहा नहीं। जिसे अपना बनाकर रखना चाहते थेवह कभी अपना था ही नहीं। जब इस जगत्-सत्य का पता चलता हैतब पता चला कि मुट्ठी से रेत की मानिन्द समय निकल गया। चारों तरफ़ बचा केवल सन्नाटा। जीवन के कटु क्षणों के वे ख़तजो कभी लिखे ही नहीं गए। जो लिखे भी गएकभी भेजे ही नहीं गए। ज़ुहूर नज़र के शब्दों में-

              वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देखकर

              मैंने उसको आख़िरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं।


डॉ. जेन्नी शबनम के कुछ इसी प्रकार के 105 ‘सन्नाटे के ख़त’ हैंजो समय-समय पर चुप्पी के द्वारा लिखे गए हैं। वास्तविकता तो यह है कि हम जिससे प्रेम करते हैंउसे सही समय पर अभिव्यक्त नहीं करते। जिसे घृणा करते हैंसामाजिक दबाव में उसको कभी होंठों पर नहीं लाते। परिणाम होता हैजीवन को भार की तरह ढोते हुए चलते जाना।


ये ख़त मन के उस दराज़ में रखे थेजिसे कभी खोलने का अवसर ही नहीं मिला। अब जी कड़ा करके पढ़ने का प्रयास कियाक्योंकि ये वे ख़त हैंजो कभी भेजे ही नहीं गए। किसको भेजने थेस्वयं को ही भेजने थे। अब तक जो अव्यक्त थाउसे ही तो कहना था। पूरा जीवन तो जन्म-मृत्युप्रेम घृणास्वप्न और यथार्थ के बीच अनुबन्ध करने और निभाने में ही चला गया-

              एक अनुबन्ध है जन्म और मृत्यु के बीच

              कभी साथ-साथ घटित न होना

              एक अनुबन्ध है प्रेम और घृणा के बीच

              कभी साथ-साथ फलित न होना

              एक अनुबन्ध है स्वप्न और यथार्थ के बीच

              कभी सम्पूर्ण सत्य न होना


जीवनभर कण्टकाकीर्ण मार्ग पर ही चलना पड़ता है; क्योंकि जिसे हमने अपना समझ लिया हैउसका अनुगमन करना था। मन की दुविधा व्यक्ति को अनिर्णय की स्थिति में लाकर खड़ा कर देती हैजिसके कारण सही मार्ग का चयन नहीं हो पाताजबकि-

              उस रास्ते पर दोबारा क्यों जाना

              जहाँ पाँव में छाले पड़ेंसीने में शूल चुभें

              बोझिल साँसें जाने कब रुकें।


निराश होकर हम आगे बढ़ने का मार्ग ही खो बैठते हैं। आधे-अधूरे सपने ही तो सब कुछ नहीं। सपनों से परे भी तो कुछ है। कवयित्री ने जीवन में एक अबुझ प्यास को जिया है। मन की यह प्यास किसी सागरनदी या झील से नहीं बुझ सकती।


घर बनाने में और उसको सँभालने में ही हमारा सारा पुरुषार्थ चुक जाता है। इसी भ्रम में जीवन के सारे मधुर पल बीत जाते हैं-

              शून्य को ईंट-गारे से घेरघर बनाना

              एक भ्रम ही तो है

              बेजान दीवारों से घर नहींमहज़ आशियाना बनता है

              घरों को मकान बनते अक्सर देखा है

              मकान का घर बनना, ख़्वाबों-सा लगता है।


इन 105 ख़तों में मन का सारा अन्तर्द्वन्द्वअपने विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त हुआ है। आशा है पाठक इन ख़तों को पढ़कर अन्तर्मन में महसूस करेंगे।


दीपावली: 31.10.2024                                                     -रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

_________________________________________________________


- जेन्नी शबनम (16.1.2025)

____________________

Friday, January 10, 2025

118. 'सन्नाटे के ख़त' का लोकार्पण











जनवरी माह की सात तारीख़ मेरे लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण और यादगार है। वर्ष 2000 में आज के दिन मेरी बेटी का जन्म हुआ। मेरी पहली पुस्तक 'लम्हों का सफ़र' का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में जनवरी 7, 2020 को हुआ। मेरी दूसरी पुस्तक 'प्रवासी मन' जनवरी 7, 2021 को मुझे प्राप्त हुई, जिसका अनौपचारिक विमोचन मेरी बेटी और मैंने किया। जनवरी 10, 2021 को विश्व हिन्दी दिवस के अवसर पर 'हिन्दी हाइकु' एवं 'शब्द सृष्टि' के संयुक्त तत्वाधान में गूगल मीट और फेसबुक पर आयोजित पहला ऑनलाइन अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मलेन हुआ, जिसमें मेरी पुस्तक 'प्रवासी मन' का औपचारिक लोकार्पण हुआ।

  
आज मेरे दिल्ली आवास पर मेरी बेटी के वर्षगाँठ के अवसर पर मेरी छठी पुस्तक 'सन्नाटे के ख़त' का लोकार्पण हुआ। अत्यन्त अनौपचारिक माहौल में पुस्तक का औपचारिक लोकार्पण हुआ। लोकार्पण के अवसर पर श्री बी. के. वर्मा 'शैदी', डॉ. पुष्पा सत्यशील, श्री आर. सी. वर्मा 'साहिल', श्रीमती नरेश बाला वर्मा, श्री अनिल पाराशर 'मासूम', श्रीमती शानू पाराशर, श्रीमती अनुपमा त्रिपाठी, डॉ. राजीव रंजन गिरि, श्री आवेश तिवारी, सुश्री संगीता मल्लिक, सुश्री शिल्पा पाटिल, श्री विभोर चौधरी, श्रीमती सोमवती शर्मा, श्रीमती दिशा शर्मा, श्री राजेश पाण्डेय, श्री राजेश कुमार श्रीवास्तव, श्री अभिज्ञान सिद्धांत, सुश्री परान्तिका दीक्षा सम्मिलित हुए।
सबसे पहले बेटी ने केक काटकर आयोजन का शुभारम्भ किया। शैदी जी व साहिल जी ने बेटी के जन्मदिन पर अपनी लिखी विशेष रचना द्वारा बेटी को आशीर्वाद दिया। मेरी रचना, जिसे मैंने बेटी के जन्मदिन पर लिखी, अनिल जी ने पढ़कर सुनाया। शैदी जी, साहिल जी एवं मासूम जी ने अपनी-अपनी रचनाएँ पढ़ीं। अनुपमा त्रिपाठी जी एवं राजेश श्रीवास्तव जी ने गीत गाए। आवेश जी ने अपनी रचना सुनाई। विभोर चौधरी जी ने हास्य व व्यंग्य द्वारा मनोरंजन किया। राजेश पाण्डेय जी ने हमारी छवियाँ अपने कैमरे में उतारीं ताकि यह दिन कभी विस्मृत न हो।  










आदरणीय शैदी जी द्वारा अँग्रेज़ी में माहिया और शुभकामना सन्देश-

कुछ तो है बात, बनाती हैं जो विशेष इसे
साल-भर जिसका कि इस दिल को इंतज़ार रहे।
आज के दिन ही तो उठती हैं उमंगें दिल में,
जनवरी सात का दिन क्यों न यादगार रहे??


माहिये-

Today is January seven
It's really Special Day 
for some special one.

We are enjoying completely
You have invited all of us 
we are grateful Jenny Ji.

Year two thousand twenty five
Will surely be better 
we shall better survive.
-0-

आदरणीय साहिल जी द्वारा काव्य-गीत द्वारा शुभकामनाएँ-

प्रिय बेटी 'ख़ुशी' के जन्मदिन के पावन अवसर पर आशीर्वाद और शुभकामनाओं के कुछ उद्गार: 07/01/2025 

-साहिल 

बधाई जन्मदिन की कर लो तुम स्वीकार ऐ बेटी
हमेशा दूँ तुम्हें आशीष और अपना प्यार ऐ बेटी
यह दिन लाता रहे हर वर्ष इक रंगत नई तुम पर
बने जीवन तुम्हारा फूलों से गुलज़ार ऐ बेटी। 

ग़मों से, आफ़तों से खेलने का नाम है जीवन
इन्हीं से ज़िन्दगी है और इन्हीं का नाम है जीवन
ख़ुशी दो दिन की है, इसको हमेशा न समझ अपना
जो जीवन में मुसीबत है, उसी का नाम है जीवन। 

ग़मों से गर उबर जाओ, इन्हीं के बाद खुशियाँ हैं
मुसीबतें झेल लो पहले, इन्हीं के बाद खुशियाँ हैं
डरो न इनसे बेटी, ये बनाएँगी तुम्हें पुख़्ता
यक़ीं मानो इन्हीं के बाद तो खुशियाँ ही खुशियाँ हैं। 

यह दिन आता रहे जीवन में तेरे हर ख़ुशी लेकर
महक लेकर चमक लेकर हँसी और ताज़गी लेकर
रहे तू स्वस्थ हरपल, चाँदनी उतरे तेरे आँगन 
तेरे जीवन में आए हर नया दिन ज़िन्दगी लेकर। 

मनाओ जन्मदिन अपना ख़ुशी से झूमकर गाओ
ये ग़म तो आने-जाने हैं ग़मों को भूलकर गाओ
जो अपने पास है अपना है, जो खोया गया समझो
न इन बातों में उलझो, आज के दिन झूमकर गाओ। 

मनाती तू रहे हर साल अपना जन्मदिन यूँ ही
मनाएँ हम भी तेरे साथ तेरा जन्मदिन यूँ ही
रहे बढ़ता सभी का प्यार जीवन में तेरे हरपल
रहे लाता नई आशा तेरा हर आज और हर कल। 
-0-

पुस्तक लोकार्पण के बाद गीत-ग़ज़ल के साथ दिन का भोजन हुआ। सभी उपस्थित विद्वजनों का स्नेह और आशीर्वाद मेरी पुस्तक और मेरी बेटी को मिला, यह मेरा सौभाग्य है। सभी का हार्दिक धन्यवाद व आभार! 

-जेन्नी शबनम (7.1.2025)
__________________

Wednesday, January 1, 2025

117. नव वर्ष 2025

चित्र गूगल से साभार

नव वर्ष की प्रतीक्षा पूरे वर्ष रहती है। नव वर्ष एक उत्सव वाला दिन है। हालाँकि समय कितनी तीव्रता से बीत रहा है, यह भी याद दिलाता है। यों लगता है मानो अभी-अभी तो नया साल आया था, इतनी जल्दी बीत गया। 31 दिसम्बर की रात जैसे ही घड़ी की सुई 12 पर पहुँचती है, हम सभी पूरे उल्लास के साथ एक दूसरे को नव वर्ष की शुभकामनाएँ देते हैं। जैसे ही क्रिसमस आता है, नव वर्ष के आगमन का जोश भर जाता है। नव वर्ष के पहले दिन क्या-क्या करना है इसकी योजना बनती है व तैयारी होने लगती है।   

समय के साथ नव वर्ष मनाने का चलन और शुभकामनाएँ देने का प्रचलन दोनों में बहुत तेजी से बदलाव हुआ है। मेरे बचपन में 31 दिसम्बर की रात का कोई महत्व न था। तब न टेलीविज़न था, न मोबाइल, न हर घर में टेलीफ़ोन। 31 दिसम्बर की रात में आजकल के जैसा जश्न नहीं होता था। 1 जनवरी की भोर से नव वर्ष की शुरुआत होती थी। इस दिन कोई सपरिवार पिकनिक पर जाता, तो कोई घर पर मित्रों और परिवार के साथ सुस्वादु भोजन का आनन्द लेता था। अपनी-अपनी इच्छा और क्षमता के अनुसार हर कोई इस दिन को मनाता था। जब से टी.वी. आया तब से नव वर्ष की पूर्व संध्या पर कोई-न-कोई कार्यक्रम अवश्य होता है। अगर कोई योजना न बन सकी तो टी.वी. देखकर मनोरंजन करना भी आदत में शुमार होता गया।    

भारतीय पद्धति में हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नव वर्ष की शुरुआत होती है। नव वर्ष 30 मार्च को तथा वर्ष विक्रम सम्वत 2082 है। हिन्दू और मुस्लिम कैलेण्डर चन्द्रमा के चक्र पर आधारित होता है। ग्रेगोरियन कैलेण्डर सूर्य वर्ष पर आधारित होता है। ग्रेगोरियन कैलेण्डर की शुरुआत वर्ष 1582 में हुई। भारत में अँग्रेज़ी हुकूमत द्वारा वर्ष 1752 में इसे लागू किया गया। भारत के हिन्दू पर्व-त्योहार हिन्दी पञ्चाङ्ग द्वारा निर्देशित होते हैं। मुस्लिम पर्व-त्योहार हिजरी कैलेण्डर द्वारा निर्देशित होते हैं तथा मुहर्रम को वर्ष का पहला दिन माना जाता है। चूँकि भारत में ग्रेगोरियन कैलेण्डर है, इसलिए हम सभी 1 जनवरी को वर्ष का प्रथम दिन मानते और मनाते हैं।   
 
संचार माध्यमों के प्रसार, बाज़ारीकरण और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण पर्व, त्योहार और उत्सव मनाने का रूप बदल गया है। पर्व, त्योहार, उत्सव इत्यादि में धूमधाम शोभनीय है; परन्तु अशिष्टता अशोभनीय है। इन दिनों पूजा, पर्व, त्योहार, अनुष्ठान, व्रत, उत्सव इत्यादि में फूहड़पन देखने को मिलता है। चाहे विवाह समारोह हो या कोई आयोजन या मूर्ति विसर्जन, लाउडस्पीकर या डीजे पर अश्लील गाना-नाचना फ़ैशन बन गया है। धार्मिक आयोजन हो, तो समाज के नियम को न मानना और कानून को तोड़ना अधिकार बन गया है। भले इसमें लोगों की जान चली जाए। जश्न मनाने में उत्साह और उमंग होता ही है; परन्तु दूसरे के अधिकार का हनन कर उत्सव मनाना अनुचित है। 

नव वर्ष हो या कोई ख़ास दिन उत्सव मनाना ही चाहिए। मेरी इच्छा होती है कि साल का हर दिन किसी-न-किसी विशेष दिन को समर्पित कर देना चाहिए, ताकि सालों भर हम सभी अपने कार्य के साथ उत्सव भी मनाते रहें। 31 दिसम्बर की रात में पुराने साल को अलविदा कहते हैं और नए वर्ष का स्वागत करते हैं। नव वर्ष के आगमन के उपलक्ष्य में हर जगह कुछ-न-कुछ विशेष आयोजन होता है। बच्चों और युवाओं में तो ख़ास उत्साह रहता है। ठण्ड का मौसम, सजे बाज़ार, जगमग रोशनी, विशेष पकवान से सुगन्धित रेस्तराँ, छुट्टी की धूम, बच्चे-जवान-बूढ़े प्रसन्नचित। उपहार के लेने-देने के चलन के कारण सामान पर विशेष छूट। भीड़-भाड़, शोरगुल, मदिरापान, स्वादिष्ट भोजन, नाच-गान, मस्ती भरा माहौल... घड़ी की सुई 12 पर, ज़ोल से हल्ला, पटाखे की गूँज, तालियों की गड़गड़ाहट। कितनी सुन्दर रात और सुहानी भोर। आनन्दित मन से एक दूसरे के गले मिलकर शुभकामना देते लोग। हर फ़ोन की घण्टी बजती और लोग अपनों से बात करते। इस तकनीक ने जीवन में खुशियाँ भर दी हैं। वीडियो कॉल पर अपनों को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है; दूरी नहीं खलती। पूरी रात मस्ती भरी और भोर में सुखकर नींद। 

मेरे बच्चे जब तक छोटे रहे क्रिसमस, नव वर्ष, वैलेंटाइन डे, बर्थडे, दीवाली इत्यादि ख़ूब मनाया। मेरे पति के संस्थान में नव वर्ष की पूर्व संध्या पर बहुत बड़ी पार्टी होती थी। सारी रात खाना-पीना, गाना-बजाना, नाचना, पटाखे फोड़ना इत्यादि होता था। घर में मैं और मेरी बेटी शुद्ध शाकाहारी हैं। दीवाली मेरा प्रिय त्योहार है; क्योंकि इस दिन दीपों की जगमग और हर घर में शाकाहारी पकवान बनता है। बाहर से शाकाहारी रेस्तराँ से खाना आए तो ही मन से खाती हूँ, केक भी एगलेस खाती हूँ। शुद्ध शाकाहारी भोजन, कर्णप्रिय संगीत, मनचाहे तरीक़े से नाचना-गाना, हँसी-मज़ाक, ठहाके, खेलना, अलाव तापना इत्यादि किसी ख़ास दिन के आयोजन में करना मेरा पसन्दीदा कार्य है, जिसे मैं प्रसन्न मन से करती हूँ। 

मुझे अपने बचपन से बड़े होने तक का अधिकतर नया साल मनाना याद है। मेरी पढ़ाई भागलपुर के क्रिश्चन स्कूल से हुई है। प्राइमरी स्कूल में क्राफ़्ट के क्लास में अन्य चीज़ों के अलावा कागज़ का क्रिसमस ट्री बनाना सीखा। हाई स्कूल में मेरा स्कूल 19 दिसम्बर को क्रिसमस की छुट्टी, जो बड़ा दिन की छुट्टी कहलाता है, के लिए बन्द होता था। क्रिसमस से नव वर्ष के पहले दिन तक छुट्टी वाला माहौल। मुझे साल के पहले दिन का इन्तिज़ार सबसे अधिक इस कारण रहता था कि आज से कॉपी पर नया साल लिखना है। लिखने की आदत बचपन से रही है। पूरे घर को साफ़ करना, पुराना कैलेण्डर फाड़ना और नया टाँगना। जाने कितना आनन्द आता था इन छोटे-छोटे कामों में। हम बच्चों को पता चला था कि साल का पहला दिन जैसा बीतता है वैसा ही पूरा साल बीतेगा। सुबह-सुबह उठकर नहाना, घर साफ़ करना, कुछ अच्छा खाना बनाना, सिनेमा देखना, पढ़ना-लिखना इत्यादि ताकि सालभर ऐसा ही दिन बीते। बच्चा मन कितना सच्चा होता है, बिना तर्क कुछ भी मान लेता है।  

जब तक पापा जीवित रहे 1 जनवरी को घर में पापा-मम्मी के सहकर्मी और मित्र आते, भोज होता, नियत समय पर वे जाते और हम लोग अपने-अपने कार्य में मगन। हाँ! मेरे घर में सुबह से गाना ज़रूर बजता रहता था, चाहे रेडियो या रिकॉर्ड प्लेयर। पापा की मृत्यु के बाद हमारा कुछ वर्ष बिना किसी त्योहार और उत्सव के बीता। जब मैं कॉलेज में पढ़ने लगी और पापा के गुज़रे काफ़ी वर्ष हो गए थे, तब मुझे सिनेमा देखने का चस्का लग गया। हर 1 जनवरी को मम्मी को जबरन सिनेमा देखने के लिए ले जाती। छुट्टी की भीड़ के कारण हॉल में टिकट ख़रीदना जंग जीतने जैसा होता था; मैं जंग भी जीतती और सिनेमा भी देखती। 

मेरे जीवन का कुछ समय शान्तिनिकेतन में बीता है। वर्ष 1991 के 1 जनवरी को मैं अपनी एक मित्र के साथ घर से बाहर निकली नव वर्ष मनाने। कहीं कुछ नहीं, रोज़ की तरह सब कुछ शान्त। मैंने किसी से पूछा कि नव वर्ष के अवसर पर कहीं कुछ क्यों नहीं हो रहा है। तब पता चला कि बंगाल में अँग्रेज़ी तिथि से नहीं बल्कि हिन्दी तिथि से नव वर्ष मनाते हैं। सुबह खिचड़ी बना-खाकर निकली थी, रात को दही चूड़ा खाकर नव वर्ष मना लिया। 
 
वर्ष 2000 में मेरी बेटी का जन्म हुआ। मेरा मन था कि वह मिलेनियम बेबी हो। इस कारण डॉक्टर से 1 जनवरी तय करने को कहा; परन्तु सिजेरियन 7 तारीख़ से पहले सम्भव नहीं था। नव वर्ष के उपलक्ष्य में दिल्ली के वसंत विहार के एक होटल में दलेर मेंहदी का प्रोग्राम था, जिसका टिकट हमलोगों ने लिया। हालाँकि बच्चे के जन्म की सम्भावना किसी भी समय सम्भव थी, इसलिए भीड़ में जाना हितकर नहीं और उस पर ठण्ड बेशुमार। फिर भी मैं गई। मेरे पति के परिवार के लोग और मेरी माँ भी गईं। मैं और मेरी माँ भीड़ में बाक़ी सबसे अलग हो गए। मेरा बेटा अपने चाचा के साथ था, इसलिए मुझे चिन्ता नहीं थी। हमारे पास न फ़ोन, न पैसे। इतनी धक्का-मुक्की थी कि मैं अपने पेट को बचाने के कारण न घुस सकी, न खाना खा सकी, न कार्यक्रम देख सकी। किसी अनजान से मोबाइल माँगकर पति को फ़ोन किया। अंततः लौटी और 1 जनवरी अपोलो अस्पताल में बीता।  

लन्दन कई बार गई हूँ, पर वर्ष 2014 के क्रिसमस और नव वर्ष पर पहली बार गई थी। पूरा शहर ख़ूबसूरती से सजा हुआ। रंगीन लाइट, जगमग रास्ते, रोड के ऊपर रंगीन लाइट की झालरें। 31 दिसम्बर की रात थेम्स नदी के किनारे आतिशबाजी होती है और बिग बेन की घंटी बजती है। शो का टिकट पहले से लेना होता है, जिसका पता हमें नहीं था। मैं अपने दोनों बच्चों के साथ गई। वहाँ तक पहुँचने के सारे रास्ते बन्द थे। एक पुलिस वाले ने बताया कि सिर्फ़ टिकट वाले जा सकते हैं, जो अब ख़त्म हो चुका है। वहाँ के रास्ते ऐसे हैं कि दूर से भी कुछ नहीं दिख सकता। हमने एक पिज़्ज़ा वाले के दूकान पर खड़े होकर पिज़्ज़ा बनाना सीखा और पिज़्ज़ा खाकर लौट आए। हाँ! 12 बजते ही आतिशबाजी की आवाज़ें सुनाई पड़ीं और आसमान में थोड़ा-सा देख सकी। लन्दन शहर की जगमग ख़ूबसूरती का ख़ूब आनन्द लिया।  

वर्ष 2021 के 31 दिसम्बर को मैं अकेली थी। मेरी माँ का इस वर्ष ही देहान्त हुआ था, तो मैं बहुत दुःखी रहती थी। मेरी एक मित्र की बेटी को पता चला कि मैं अकेली हूँ, तो वह आ गई। बाहर से खाना मँगाकर हमने पार्टी किया। 1 जनवरी की सुबह वह चली गई, उसका ऑफ़िस खुला था। मैं सिनेमा हॉल में जाकर सिनेमा देख आई। कई साल ऐसा हुआ है कि मैं अपने जन्मदिन पर अकेली होती हूँ। कई बार मेरी बेटी सिनेमा का टिकट ऑनलाइन बुक कर देती है। मैं ख़ुद को तोहफ़ा देती हूँ, सिनेमा देखती हूँ, कॉफ़ी पीकर आती हूँ। कभी मन किया तो किसी शाकाहारी रेस्तराँ में जाकर कुछ खा लेती हूँ। यह मेरा उत्सव मनाने का अपना तरीक़ा है। 

मेरे बच्चे जब स्कूल पास कर गए, तब से उनकी दुनिया बहुत विस्तृत हो गई। नव वर्ष हो या जन्मदिन, दोस्तों के साथ मनाना उन्हें पसन्द है। एक दिन घर वालों के साथ और एक दिन दोस्तों के साथ। नव वर्ष, जन्मदिन, पर्व-त्योहार बच्चों के साथ मनाना अच्छा लगता है; परन्तु समय के साथ बच्चों से दूरी और बदलाव को मन ने अब स्वीकार कर लिया है। सभी साथ हों तो हर दिन ख़ास हो जाता है। वे दूर रहें तो फ़ोन इस दूरी को मिटा देता है, पर कमी तो महसूस होती है। बेटा अपने परिवार में मस्त और बेटी अपने दोस्तों के साथ। अब 31 दिसम्बर की रात 12 बजे अपने दोनों बच्चों को शुभकामना देकर नए वर्ष का स्वागत करती हूँ। अब न कोई योजना बनाती हूँ, न मन में बहुत उत्साह रह गया है पूर्व की भाँति। धीरे-धीरे उम्र के साथ मन घट रहा है और मैं स्वयं में सिमट रही हूँ। सिनेमा देखने का सिलसिला अब भी जारी है; परन्तु परिवार के कारण अब इसमें अंतराल आ जाता है। शायद समय और उम्र जीवन से उत्साह को धीरे-धीरे मिटाता जाता है, ताकि वृद्ध होने के अकेलेपन की तैयारी शुरू हो जाए।      

हर नया वर्ष ढेरों यादों और उम्मीदों के साथ आता है। साल के पहले दिन मन उल्लास और उमंग से भर जाता है। भविष्य के लिए फिर से सपने सजने लगते हैं। अतीत के दुःख को भूलकर एक नई आशा के साथ नव वर्ष का स्वागत करते हैं। फिर धीरे-धीरे समय के प्रवाह में नव वर्ष का उत्साह खोने लगता है और जीवन सुख-दुःख के साथ बीतने लगता है; पुनः नए वर्ष की प्रतीक्षा में। परन्तु बीच-बीच में पर्व-त्योहार मन में उमंग जगाए रखता है। जीवन ऐसा ही है। सच है, यदि पर्व-त्योहार न हो तो इन्सान कर्त्तव्यों और कामों की भीड़ में राहत का अनुभव कैसे करे। 

नव वर्ष का प्रथम दिन समय और जीवन के बीतने और परिवर्तन को याद दिलाता है। एक नया दिन, नया साल और जीवन से एक और वर्ष सरक जाता है। जीवन पथ पर आनन्दमय सफ़र के लिए नई ऊर्जा के संचार के साथ ऊष्मा, जोश, जुनून, हौसला और जीवन्तता का होना आवश्यक है। नव वर्ष में जीवन्तता और मानवता से पूरा संसार सुन्दर और चहचहाता रहे, यही आशा है। 

नव वर्ष मंगलमय हो! 

-जेन्नी शबनम (1.1.2025)
__________________