Sunday, February 14, 2010

5. प्यार-मोहब्बत वग़ैरह-वग़ैरह

'वेलेंटाइन डे' का नाम सुनते ही इसके विरोधियों के मन में अश्लीलता और प्रेमी-प्रेमिका की असहज छवि मन में उभरती है प्रेम में अश्लीलता कब, कैसे और कहाँ से आ गई, इस पर कभी कोई नहीं सोचता प्रेम जीवन की शाश्वत्ता है, हर युग में इसे स्थान और सम्मान मिला है हम किसी भी धर्म या मज़हब की बात करें, सभी प्रेम की बात करते हैं प्रेम के बिना न जीवन सम्भव है न सभ्य समाज; फिर भी प्रेम को लेकर जाने कितनी बहस छिड़ गई है  
 
प्रेम किसी भी रिश्ते से हो सकता है, किसी से भी हो सकता है, कभी भी हो सकता है, शरीरी और अशरीरी हो सकता है, आध्यात्मिक हो सकता है, इंसान का ईश्वर से हो सकता है क्यों हम किसी दायरे में रखकर सोचते हैं? शायद प्रेम को किसी रिश्ते से जोड़ने का परिणाम है कि प्रेम की परिभाषा ही नहीं बल्कि भाषा भी बदल गई है आज प्रेम का रिश्ता अश्लील और ग़ैरसामाजिक माना जाने लगा है दो इंसान के बीच अगर प्रेम है तो उसे आश्चर्यजनक ढंग से चारित्रिक पतन कहा जाता है, या प्रेम की परिभाषा को शरीर के इर्द-गिर्द ही सीमित कर दिया जाता है  
 
वेलेंटाइन डे हो या पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित कोई परम्परा, हम सभी पाश्चात्य संस्कृति को दोष दे देते हैं, अपनी ग़लती नहीं समझते पाश्चात्य संस्कृति से बहुत कुछ हम सीखते हैं, लेकिन उसका रूप बिगाड़ देते हैं और फिर जब स्थिति अपने हाथ से बाहर हो जाती है तब हम उस संस्कृति पर दोष मढ़ देते हैं 
    
पाश्चात्य संस्कृति में तो प्रेम के लिए मात्र एक दिन माना गया है, जबकि हमारी संस्कृति में सावन का पूरा महीना प्रेम को समर्पित है किसी भी युग की बात करें, प्रेम जीवन का अहम् हिस्सा रहा है शिव को पाने के लिए पार्वती और सती ने कठोर तपस्या की राधा-कृष्ण का प्रेम अमर हैप्रेम की पराकाष्ठा की जब बात होती है, तब कृष्ण और मीरा का नाम लिया जाता है  
फाल्गुन महीने में आने वाले त्योहार होली को रंग के साथ हँसी-ठिठोली का त्योहार भी माना जाता है यह सिर्फ़ परम्परा ही नहीं; बल्कि हमारी संस्कृति और हमारे ग्रन्थ में है कृष्ण और गोपियों की हँसी-ठिठोली व रास-लीला उस युग में जायज़ था आज भी होली के अवसर पर अपनी प्रेमिका या पत्नी को रंग लगाना मन की सबसे बड़ी मुराद होती है  
 
किसी भी बात की अति हो या उस पर पाबंदी या बंदिश, तो हमेशा विकृति आ जाती है वेलेंटाइन डे 25 साल पहले भी मनाया जाता रहा होगा; लेकिन मुझे नहीं याद कि मध्यम वर्ग तक इसकी बहुत ज़्यादा पहुँच थी। मुमकिन है बड़े घरानों में या कुछ ख़ास तबक़ों के बीच इसकी पैठ रही होगी जैसे-जैसे बाज़ारीकरण और वैश्वीकरण बढ़ता गया, घर-घर में यह पहुँच गया  
 
आज वेलेंटाइन डे पर न सिर्फ़ विवाद छिड़ गया है, बल्कि दो गुट बन गए हैं एक पक्ष प्रेम को जीवित रखने के लिए उस संत की याद में इस एक दिन को जीता है, तो दूसरा पक्ष अतार्किक बहस छेड़ इस दिन को जश्न के रूप में मनाने वालो का न सिर्फ़ उत्पीड़न करता है, बल्कि तोड़-फोड़कर अपने ही देश की संपत्ति नष्ट करता है  
 
प्रेम के लिए अब न समय है किसी के पास न सोच का इतना विस्तृत दायरावक़्त के साथ इंसानी मन भी संकुचित हो गया है अब न फागुन महीने का वह फगुनाहट छाता है, न सावन महीने में प्रिय से मिलन की व्याकुलता जीवन का हर आयाम सिमटकर किसी तरह जीवन यापन भर रह गया है  
 
ऐसे में अगर एक दिन प्रेम को समर्पित कर दिया जाए, तो जीवन में उमंग का एक दिन तो ज़रूर मिलता है मेरा मानना है कि जीवन का होना और मिटना, महज़ क्षणभर की बात है तो क्यों न जितने समय हम जीवन में हैं, प्रेम से और प्रेममय जिया जाए तथा एक दिन ही क्यों हर दिन वेलेंटाइन डे मनाया जाए वेलेंटाइन संत विदेशी थे, तो उनकी परम्परा न मानकर अपनी संस्कृति और परम्परा को मानकर निभाते हुए पूरा साल प्रेम को समर्पित कर दें!  
 
वेलेंटाइन डे पर प्रेम के सभी संतों और प्रेम-पीपासुओं को बधाई!

-जेन्नी शबनम (14.2.2010)
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