Monday, December 1, 2014

50. यह हत्या नहीं स्त्रियों का सामूहिक नरसंहार है

छत्तीसगढ़ में नसबंदी के दौरान 14 स्त्रियों की मौत ने एक बार फिर सोचने के लिए विवश किया कि हमारे देश में आम स्त्रियों की क़ीमत क्या है। न उनके जीवन का कोई मोल, न उनकी मृत्यु का कोई अर्थ! हम ज़बरदस्त ग़ैरबराबरी से जूझ रहे ऐसे संवेदनहीन और असभ्य समाज का हिस्सा बनते  जा रहे हैं, जो वर्चस्व, सत्ता और प्रतिस्पर्धा को एकमात्र जीने का मूल मंत्र बना चुका है। अजीब ये है कि इन सबमें उसके सामने केवल स्त्री खड़ी है। 

छत्तीसगढ़ के इस हादसे के परिपेक्ष में यह सोचना होगा कि स्वास्थ्य शिविर में जाकर चिकित्सा कराने वाला तबक़ा कौन है। यह समाज का वह वर्ग है जिसे सरकारी खानापूर्ति की भरपाई के लिए लक्ष्य-पूर्ति का साधन बना दिया जाता है। असुरक्षित और अस्वस्थ माहौल में सीमित संसाधनों के द्वारा चिकित्सा करना या शल्य-क्रिया को अंजाम देना निश्चय ही अमानवीय अपराध है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह अपराध वैधानिक तरीक़े से हो रहा है; क्योंकि शिविरों के हालात का अनुमान जनसाधारण को है। निर्धन जनता या ऐसे क्षेत्र के निवासी जहाँ स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है, इन स्वास्थ्य केन्द्रों और शिविरों पर निर्भर होते हैं और अपनी जान ख़तरे में डालने को मज़बूर होते हैं। 
  
समाज कल्याण से जुड़ी सरकारी योजनाओं के तहत लगने वाले नसबंदी शिविरों का सच किसी से छिपा नहीं है। इन शिविरों में एक-एक दिन में सौ-सौ ऑपरेशन किए जाते हैं। एक वरिष्ठ चिकित्सक होता है, जिसके अंतर्गत कई प्रशिक्षु होते हैं जो यह काम निबटाते हैं। यह शिविर जहाँ भी लगता है वहाँ न आधुनिक ऑपरेशन थियेटर होता है, न आपातकालीन चिकित्सा के लिए कोई यंत्र, न स्वच्छ वातावरण। यह हमारे भारत का सच है कि इन शिविरों में सिर्फ़ वही स्त्रियाँ या पुरुष जाते हैं, जो आर्थिक रूप से अत्यंत कमज़ोर होते हैं। जिनकी आर्थिक स्थिति ज़रा भी ठीक है, भले वे दिहाड़ी मज़दूर ही क्यों न हों, निजी अस्पताल में ही जाकर इलाज कराते हैं। इस सच से न हमारे देश की जनता इंकार कर सकती है, न सरकार।

यह सोचने का विषय है कि स्त्रियाँ ही आबादी बढ़ाने और रोकने का दण्ड क्यों भुगतती हैं? स्त्रियों की ही नसबंदी क्यों, पुरुष की क्यों नहीं? क्या यह नसबंदी पुरुषों के लिए ज़्यादा सुरक्षित और कारगार नहीं? स्त्रियों की नसबंदी का ऑपरेशन पुरुषों की तुलना में जटिल और मुश्किल होता है।जबकि पुरुष की नसबंदी स्त्रियों की तुलना में बहुत सरल है, जिसमें न तो कोई जटिल प्रक्रिया है न किसी तरह का कोई ख़तरा, न ऑपरेशन के बाद लम्बी अवधि तक विश्राम की आवश्यकता।      

स्त्रियों पर ही संतानोत्पत्ति और नसबंदी का सारा कारोबार आधारित क्यों है? क्या बिना पुरुष के स्त्रियाँ बच्चा पैदा करती हैं? जब पुरुष के बिना संतानोत्पत्ति संभव नहीं, फिर नसबंदी पुरुष क्यों नहीं कराते? न सिर्फ़ अशिक्षित बल्कि शिक्षित पुरुषों का भी मानना है कि नसबंदी कराने से पौरुष ताक़त में कमी आ जाती है। जबकि वैज्ञानिक रूप से साबित हो चुका है कि यह सच नहीं सिर्फ़ अज्ञानता है। पुरुष नसबंदी के कई फ़ायदों में एक अहम् फ़ायदा यह भी है कि किसी कारण से यदि फिर से संतान चाहें तो संतान संभव है। लेकिन स्त्री के मामले में ऐसा संभव नहीं है।

हमारी परम्पराओं का हमारे जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। अपनी पढ़ाई के दौरान मुझे परिवार नियोजन विषय पर कुछ महिलाओं से बातचीत करने का मौक़ा मिला, जिसमें एक स्तब्ध करने वाला सच सामने आया। एक स्त्री ने बताया कि उसके पति के नसबंदी कराने के बाद भी उसे बच्चा हुआ।डॉक्टर ने कहा कि सामान्यतः ऐसा नहीं होता है, लेकिन कभी-कभी कुछ अपवाद हो जाते हैं। डॉक्टर के कहने के बाद भी उसका पति उसके चरित्र पर शक करता रहता है। एक दूसरी स्त्री जो काफ़ी पढ़ी-लिखी थी उसका कहना था कि अगर किसी कारण उसके पति का नसबंदी ऑपरेशन असफल हुआ और वह गर्भवती हो गई, तो आजीवन उसे शक से देखा जाएगा, इससे बेहतर है कि स्त्री स्वयं ही ऑपरेशन करा ले। एक छोटा-सा तो ऑपरेशन है, आजीवन एक डर और इल्जाम से तो बचा जा सकता है।एक अविवाहित आधुनिक स्त्री का कहना था कि दो बच्चे के बाद ऑपरेशन करा लो, क्या पता पति का ऑपरेशन सफल न हुआ तो एक और बच्चे का बोझ सहो, या फिर गर्भपात काराओ, इतने झमेले से तो अच्छा है कि स्त्री ही ऑपरेशन कराके हमेशा के लिए झंझट से मुक्त हो जाए और पति के शक से भी छुटकारा रहेगा। यों सभी स्त्रियों की राय यही थी कि स्त्री को ही ऑपरेशन करा लेना चाहिए अन्यथा फिर से गर्भवती होना या गर्भपात कराना पड़ सकता है 

इन सभी पहलुओं पर विचार करें तो कहीं-न-कहीं हमारा समाज, हमारी सोच, हमारी मान्यताएँ और परम्पराएँ इन सबके लिए दोषी हैं। हमारा पुरुष समाज जो स्त्री का चरित्र उसके बदन में खोजता है और उसके बदन पर ही अपना चरित्र गँवाता है, फिर भी उस स्त्री के लिए ज़रा-सी ज़हमत उठाना नहीं चाहता है जबकि पुरुष नसबंदी में न पीड़ा होती है, न वक़्त लगता है; ऑपरेशन के एक घंटे के बाद पुरुष काम पर वापस जा सकता है। सरकारी प्रचार-प्रसार के बाद भी पुरुष इस बात को समझ नहीं पाते कि नसबंदी के बाद भी उसकी यौन-शक्ति वैसी ही रहेगी। कोई भी पुरुष सहजता से ऑपरेशन नहीं कराता है। यह सिर्फ़ अशिक्षित समाज का चेहरा नहीं, बल्कि शिक्षित और प्रगतिशील बिरादरी का भी चेहरा है।

हमारे समाज की संकीर्ण मानसिकता का परिणाम है कि न सिर्फ़ वे 14 स्त्री मारी गईं, बल्कि 14 परिवार बिखर गया और उनके बच्चे माँ के प्यार-दुलार से वंचित हो गए। इस घटना को दुर्घटना या लापरवाही कहकर आरोपी चिकित्सकों को कटघरे में खड़ा किया जाए, कानूनी सज़ा दी जाए या मृत स्त्रियों के परिवार को मुआवज़ा दिया जाए; पर क्या इन सबसे उन मृत स्त्रियों को वापस लाया जा सकता है? क्या स्त्रियों के साथ हो रहे इन अपराधों और अमानवीय अत्याचारों का खात्मा कभी सम्भव है? क्या यों ही शोषित वर्ग की शोषित स्त्रियाँ बली चढ़ती रहेंगी? 

- जेन्नी शबनम (1.12.2014)
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