Friday, August 5, 2016

55. सिमटता बचपन

 
वैश्विक बदलाव और तकनीकी उन्नति ने जहाँ एक तरफ़ जीवन को सरल और सुविधापूर्ण बनाया है, वहीं समाज में कुछ ऐसे बदलाव भी हुए हैं, जिनके कारण जीवन की सहजता खो गई है। जैसे-जैसे समय बीत रहा है दुनिया एक-एक क़दम आगे नहीं बढ़ रही, बल्कि लम्बी-लम्बी छलाँग लगा रही है। यह परिवर्तन बेहद गहरा और तीव्र है जिसके कारण जीवन मूल्य तो खो ही रहा है, मानवीय मूल्यों में भी गिरावट आ रही है। हर तरफ़ दिख रहे सांस्कृतिक और सामाजिक क्षय के मूल में भी यही कारण है।  

आधुनिक समय में जहाँ एक तरफ़ प्रगति हो रही है और हम दुनिया को सम्पूर्णता में देख रहे हैं, वहीं कहीं-न-कहीं हमारा जीवन एकाकी और संकुचित होता जा रहा है। सामाजिक बदलाव के कारण कई परिस्थितियाँ ऐसी हो गई हैं कि बच्चे असमय बड़ों के गुण सीख रहे हैं और उनकी तरह व्यवहार कर रहे हैं। सीधे कहें तो इस दौर में बचपन कहीं खो गया है। हालाँकि आज के बच्चों को यह सब न तो अनुचित लगता है, न ही अभिभावक उम्र से पहले बच्चों के बचपन के खो जाने को ग़लत मानते हैं। वे इसे सामान्य स्थिति समझते हैं।
नए ज़माने के माता-पिता समाज और परिस्थिति के अनुरूप अपनी अतृप्त आकांक्षाओं को अपने बच्चे में पूरा होते हुए देखना चाहते हैं। फलतः उन पर मानसिक दबाव बढ़ जाता है। माता-पिता की महत्वाकांक्षा बच्चे को कम उम्र में ही बड़ा बना देती है। प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता की भावना बचपन से बच्चों के मन में भर दी जाती है। अतः कम उम्र में बच्चा स्वयं को प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार कर लेता है। छोटी कक्षा के बच्चे भी परीक्षाओं में एक-एक नंबर के लिए दबाव में रहते हैं। स्कूल के बाद ट्यूशन करना आज नितान्त आवश्यक हो गया है, अन्यथा बच्चे कक्षा में पिछड़ जाएँगे। स्वयं को प्रतियोगिता के लिए तैयार कर अपने लक्ष्य को हासिल करना ही एकमात्र उनका ध्येय होता है।
प्रतियोगिता या स्पर्धा सिर्फ़ शिक्षा के क्षेत्र तक सीमित नहीं रह गई है; बल्कि खेल, गायन, नाट्य, नृत्य, कला, चित्रकारी, आदि हर क्षेत्र में है। खेलने की उम्र में बच्चे बड़ी-बड़ी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेते हैं। माता-पिता अपनी समस्त अधूरी कामनाओं को बच्चों में पूरा करने के लिए जी-जान लगा देते हैं। हर बच्चा अपने आप में विशेष होता है, लेकिन हर बच्चा हर क्षेत्र में निपुण हो यह आवश्यक नहीं। उनमें निपुणता लाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया जाता है। एक तरफ़ पढ़ाई में अव्वल आना है, तो दूसरी तरफ़ प्रतियोगिताओं में भी सफल होना है। इन सबसे बच्चे इतने अधिक मानसिक दबाव में होते हैं कि कभी-कभी यह दबाव उनके अवसाद का कारण बन जाता है।
 
आकांक्षाओं के बोझ तले सिमटते-सिमटते बच्चे समाज से इस तरह कट जाते हैं कि सामूहिकता के महत्व को भूल जाते हैं। सामूहिक खेल जो हमारे बच्चों के शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे, अब मैदानों से ग़ायब हो गए हैं। आज के ज़माने के बच्चों को अगर पढ़ने-लिखने से थोड़ा भी समय बचा, तो वे आधुनिक तकनीकी उपकरण जैसे कम्प्यूटर, मोबाइल, आई पैड आदि में व्यस्त हो जाते हैं। अतः धीरे-धीरे वे एकाकी होने लगते हैं। बच्चों के पास अब न खेलने का समय है, न नातेदारों से मिलने-जुलने का। उन्हें पिछड़ जाने का भय सताता रहता है। बच्चे बालक-बालिका न होकर जैसे वक़्त की कठपुतली बन गए हैं। इनका हर एक मिनट बँधा रहता है।   

अपने और घरवालों की आकांक्षाओं की पूर्ती हेतु बच्चे का भविष्य दाँव पर लग जाता है। बच्चे जानते हैं हर हाल में उन्हें अपने लक्ष्य को हासिल करना है। इस दौड़ में जो सफल हो गए, वे अगली दौड़ के लिए जुट जाते हैं। जो बच्चे इसमें पिछड़ जाते हैं, वे अवसादग्रस्त हो जाते हैं। कई बच्चों को जब प्रतियोगिता में पिछड़ने का अनुमान होता है, तो वे आत्महत्या तक कर लेते हैं। झूठ, चोरी, जालसाज़ी आदि ग़लत रास्ता भी इख़्तियार कर लेते हैं।

महत्वाकांक्षाएँ होना आवश्यक है जीवन के लिए, वर्ना जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा नहीं मिलती है। लेकिन आकांक्षाएँ ऐसी भी न हों कि बच्चों का बचपना ही खो जाए और वे उम्र से पहले इतने समझदार हो जाएँ कि ज़िन्दगी उलझ जाए और जीवन को सहजता से न जी सकें। आकांक्षा बच्चे के मन, समझ, बुद्धि, विवेक के अनुसार रखनी चाहिए ताकि बच्चों का बचपना बना रहे और जीवन की प्रतियोगिताओं में मानसिक बोझ से दबकर नहीं अपितु आनन्द से सहभागी बनें।

- जेन्नी शबनम (4.8.2016)
__________________