एक बार फिर महिला दिवस गुज़र गया। अलग-अलग तरह के आयोजनों से लोगों ने महिलाओं को बताया कि यह ख़ास दिन आपके लिए है। ये सच है कि सम्पूर्ण विश्व की महिलाओं के लिए यह एक ख़ास दिन उनके अस्तित्व, अस्मिता, आज़ादी, अधिकार और आसमान के लिए संघर्ष का प्रतीक बन सकता था; पर ऐसा वास्तविक धरातल पर नहीं हुआ। कहने को महिलाओं के हक़ की बात सभी करते हैं, लेकिन आज 100 साल होने पर भी महिला की दास्तान औए दासता वैसी ही है। जो स्त्रियाँ अपनी ख़ास पहचान बना सकी हैं, उनके लिए इतना सरल और सहज नहीं रहा होगा; उन्होंने बहुत कुछ खोया होगा, जिसका हम सिर्फ़ काल्पनिक अंदाज़ा लगा सकते हैं, वास्तविक वस्तुस्थिति नहीं जान सकते।
किसी भी युग की बात करें; विदुषी स्त्रियाँ भी रही हैं, धनोपार्जन करने वाली हाथ भी बनी हैं और संपत्ति की तरह उपभोग में लाई जाने वाली वस्तु भी बनी हैं। अपनी स्थिति के प्रति असंतुष्टि की भावना स्त्रियों में समय और सभ्यता परिवर्तन के साथ ही बढ़ी। समाज और परिवार की अवधारणा जब विकसित हुई स्त्रियों की स्वतंत्रता और अधिकार पर पाबन्दी भी बढ़ती गई।धीरे-धीरे परिवार तक सिमटी स्त्री पुरुष की भोग्या बनी, जो वंश चलाती है। वे धार्मिक कार्यकलाप में आवश्यक बना दीं गई, ताकि चेतन-स्वरूप में उन्हें अपनी उपस्थिति, उपयोगिता और उपभोगिता की निम्नता का भान न हो। यह सब ऐसी मनोवैज्ञानिक और धार्मिक साज़िश थी कि स्त्रियाँ तो क्या शिक्षित पुरुष भी इसके शिकार से वंचित न रह सके।
समय परिवर्तन के साथ भारतीय स्त्रियों की स्थिति भी बदली है।मुग़लकालीन अवधि में स्त्रियों की स्थिति बेहद निम्न थी; क्योंकि इस काल में सभ्य समाज में भी बहु विवाह, पर्दा प्रथा, बाल विवाह इत्यादि शुरू हो गया था, भले ही इसके मूल में वजह स्त्रियों की सुरक्षा भावना रही हो। अँगरेज़ी शासन काल में थोड़ा सुधार तो हुआ, लेकिन सांस्कृतिक ह्रास भी शुरू हो गया, जिसका परिणाम आज हम देख रहे हैं।
यह सच है कि हमारे संविधान द्वारा महिलाओं को शिक्षा, संपत्ति और रोज़गार में समान अवसर तथा समानता का अधिकार दिया गया। उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए कई और भी अधिनियम और क़ानून बने, 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए बीच-बीच में पूरज़ोर आवाज़ उठते रहे। लेकिन इन सभी कानूनी और संवैधानिक अधिकार के मिलने के बाद भी आख़िर क्या वजह है कि औरतें आज भी दूसरे दर्जे और हाशिये पर रह गईं। कुछ अपवाद को छोड़ दें, तो कम-ज़्यादा सभी औरतों की स्थिति आज भी एक-सी है। चाहे वह शहरी समाज हो या ग्रामीण, भारतीय हो या विदेशी।सामजिक और सांस्कृतिक भिन्नता के अनुसार स्थिति में भिन्नता है, लेकिन आधारीय स्थिति एक-सी दिखती है।
स्त्रियोंकी स्थिति के सुधार के लिए न सिर्फ़ कुछ महिलाएँ बल्कि पुरुष भी प्रतिबद्ध हुए, परिणामस्वरुप स्थिति में बहुत सुधार हुआ। लेकिन सुधार की जो स्थिति है आज भी सही मायने में शोचनीय है। शहरी क्षेत्र में तो फिर भी शिक्षा, रोज़गार और समानता के अधिकार मिले हैं; लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में स्त्रियों की स्थिति यथावत् है। शिक्षा और सामाजिक चेतना से उन्हें महरूम रखा जाता है, यहाँ तक कि उन्हें संविधान से मिले अधिकार का भी पता नहीं।
गाँवों में आज भी बाल विवाह प्रचलित है। लड़कियों की उच्च शिक्षा के लिए कोई प्रयास नहीं और न संसाधन उपलब्ध कराए जाते हैं। सरकारी विद्यालय और अन्य योजनाएँ काग़ज़ पर गतिमान है। अधिकांश ग्रामीण महिलाएँ और बालिका कुपोषण की शिकार हैं। शिशु-जन्म के लिए प्रशिक्षित दाई का अभाव है, जिससे उपचार के अभाव में जच्चा-बच्चा दोनों मर जाते हैं।
शहरी क्षेत्र में आज सबसे बड़ी समस्या है बालक-बालिका का विषम अनुपात। एक तरफ़ जनसंख्या बेतहाशा बढ़ रही है, तो दूसरी तरफ़ तुलना में लड़कियाँ कम हो रही हैं। कन्या भ्रूण-हत्या और दहेज उत्पीड़न बढ़ता जा रहा है। यह सब शिक्षित और शहरी समाज में ज़्यादा हो रहा है।
मैं अक्सर सोचती हूँ कि आख़िर वजह क्या है जो स्त्रियों को कमतर आँका जाता है, जबकि स्त्री के बिना दुनिया ख़त्म हो जाएगी। वे जब इतनी महत्वपूर्ण हैं, तो क्या वज़ह है जो औरतें अमानवीय जीवन जीने को विवश होती हैं। यों इस विषय पर मेरा ये सब सोचना नया नहीं है, न तो इसका आधार नया है। स्त्रियों की शारीरिक क्षमता और आकृति पुरुष की तुलना में बिल्कुल अलग है, जो प्रकृति प्रदत्त है। स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं ताकि संसार चलता रहे। फिर भी स्त्रियों की ऐसी स्थिति सचमुच दुःखद है।
प्रकृति ने स्त्री की शारीरिक संरचना ऐसी बनाई है, जिससे संतति का काम सिर्फ़ स्त्री कर सकती है। शायद यही सबसे अहम् कारण है जिससे स्त्रियाँ प्रताड़ित होती हैं, चाहे वह शारीरिक उत्पीड़न हो या मानसिक या सामजिक। यही वजह है कि किसी भी क्षेत्र में कमतर न होते हुए भी स्त्री कमज़ोर हो जाती है। जन्मजात कन्या हो या 80 साल की वृद्ध महिला, कहीं भी सुरक्षित नहीं, न अपने घर में न समाज में, न अपनों के बीच न परायों के बीच। कब किसका बलात्कार हो जाए, कब किसकी इज़्ज़त लूट ली जाए, कब धोखे से देह व्यापार में धकेल दी जाए, प्रेम का झाँसा देकर कोई न सिर्फ़ शारीर बल्कि मन से खेल जाए। विक्षिप्त मानसिकता वाले पुरुष न उम्र देखते न रिश्ता, उनके लिए मात्र एक देह बन जाती है स्त्री। एक बार जब कोई बलात्कार की शिकार हो गई, तो न सिर्फ़ घर-समाज की नफ़रत झेलती है, बल्कि उसे ख़ुद से नफ़रत हो जाती है। जब ख़ुद से नफ़रत हो, तो जीवन की सभी संभावनाएँ ख़त्म हो जाती हैं। कानून बने, मुज़रिम पकड़ा जाए, सज़ा दी जाए; लेकिन जो इस दंश को झेलती हैं उनकी मानसिक दशा परिवर्तन के लिए कोई कानून नहीं बन सकता, न उस पीड़ा से उनको आजीवन नज़ात मिलती है।
एक आम धारणा और एकपक्षीय आरोप स्त्री पर लगाया जाता है कि जो स्त्री हक़ के लिए आवाज़ उठाती है या नारी के उत्थान के लिए कृतसंकल्प है, वह नारीवादी है और पुरुष समाज से नफ़रत करती है। जो स्त्री समाज के तय नियम से कुछ अलग सोचती या करती है, उसके लिए ये सब करना बहुत मुश्किल होता है। ऐसी स्त्री को या तो चरित्रहीन की संज्ञा दे दी जाती है या उन्हें संदेह की नज़रों से देखा जाता है।
स्त्रियों की दशा में परिवर्तन तब तक नहीं हो सकता जब तक स्त्री और पुरुष को समाज में एक बराबर की इकाई न माना जाए। न सिर्फ़ शिक्षित समाज बल्कि चेतनशील और चिन्तनशील समाज का होना भी ज़रूरी है।प्रगतिवादी सोच की महिला हो या पुरुष, कभी भी एक दूसरे को हीन नहीं समझते हैं। न तो उनमें वैमनस्व की भावना होती है और न प्रतिस्पर्धा की।सोच और समझ का नज़रिया बदलना बेहद आवश्यक है। पुरुष और स्त्री को एक दूसरे का सहयोगी और पूरक माना जाए न कि प्रतिद्वंदी।
जबतक स्त्री और पुरुष को हर क्षेत्र में बराबर अधिकार और सम्मान नहीं मिलेगा, कितने भी कानून बने, सरकारी योजना बने, महिला दिवस मनाया जाए, कहीं कोई समूल सार्थक परिवर्तन नहीं होगा। चोखेरबालियों की तलाश जारी रहेगी।
महिला दिवस के 100 वर्ष पूरे होने पर स्त्रियों और पुरुषों की सजगता के आह्वान के साथ शुभकामनाएँ!
-जेन्नी शबनम (8.3.2010)
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के 100 साल)
-जेन्नी शबनम (8.3.2010)
(अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के 100 साल)
______________________________
12 comments:
नारी की शक्ति , समय का सुखद बदलाव.....शुभकामनायें
so saal aur mahila divas tak hi,is se saaf hai ki
aaj bhi mahilaon ke bare men so saal poorani hi soch hai.warna mahilaon ke adhikar ka bharat ki rajnetik partyiyan virodh kiun kar rahi hain?mansha saaf hai jab aurat kadam se kadam milaygi to purush ka kad kam hoga uski sahkti ko bhi takkar milegi,uske atyaachar par bhi ankush lagega.aaj bhi metro city ko chodh den to har traf mahilaon ki halat bad se badttar hai.
abhi manzil nahin aai hai
abhi haq ki ladai hai
woh subha kab aaygi
jab teri mashaal
tera parcham hoga.
प्रकृति ने स्त्री की शारीरिक संरचना ऐसी बनाई है जिससे संतति का काम सिर्फ स्त्री हीं कर सकती है, और शायद यही सबसे अहम् कारण है जिससे स्त्रियाँ प्रताड़ित होती हें, चाहे वो शारीरिक उत्पीड़न हो या मानसिक या सामजिक|
aur bhi aese hii mahtvpurn binduo ka is lekh me samavesh hain
prabhavit karata hain lekh ...
bahut khubh ..jenny
aapko shubh kamnaaye
जेन्नी जी बिलकुल सच कहा है आपने...भले ही स्त्रियों के सुधार के लिए हजारों कार्यक्रम चलाये जा रहे हों या कितने ही अभियान ..देखा जाये तो इन १०० सालों में कुछ नहीं बदला है..आज भी लीक से हट कर चलने वाली महिलाओं को कड़े इम्तिहान से गुजरना पड़ता है जिसमें सामाजिक और मानसिक दोनों ही शामिल हैं...आज भी एक प्रगति शील महिला को हमारा समाज टेडी निगाह से देखता है,,,आज भी कन्या भ्रूण ह्त्या जैसे अपराध होते हैं .आज भी दहेज़ के लिए जलाया जाता है...हाँ कुछ उपलब्धिया हम देख सकते हैं पर उन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है ...और उन्हें वहां तक पहुँचने के लिए जय त्याग करने पड़े वह भी विचारणीय है.
सार्थक लेख जेन्नी जी..
नारी की शक्ति , समय का सुखद बदलाव.....शुभकामनायें
बहुत ही सशक्त लेख...हरेक पंक्ति सच का बयान है..
रश्मि प्रभा... said...
नारी की शक्ति , समय का सुखद बदलाव.....शुभकामनायें
________________________
rashmi ji,
naari-sashaktikaran ki baat to hoti par badlaaw kabtak, dekhte hain. shukriya aap yahan tak aain.
न्यू ऑब्ज़र्वर पोस्ट said...
so saal aur mahila divas tak hi,is se saaf hai ki
aaj bhi mahilaon ke bare men so saal poorani hi soch hai.warna mahilaon ke adhikar ka bharat ki rajnetik partyiyan virodh kiun kar rahi hain?mansha saaf hai jab aurat kadam se kadam milaygi to purush ka kad kam hoga uski sahkti ko bhi takkar milegi,uske atyaachar par bhi ankush lagega.aaj bhi metro city ko chodh den to har traf mahilaon ki halat bad se badttar hai.
abhi manzil nahin aai hai
abhi haq ki ladai hai
woh subha kab aaygi
jab teri mashaal
tera parcham hoga.
___________________________
arif bhai,
sach kaha aapne. balki yun kahein ki yugon ki soch aur stree ki chhatpatahat ko 100 saal pahle ek naam ke tahat joda gaya. lekin duniya ka durbhaagya ki dunia ki aadhi aabadi aaj bhi usi yug ka dansh jhel rahi hai, balki puratan yug se bhi jyada kharab sthiti hai.
aaj aadhunikta ke naam par ek taraf to apekshaayen badh gai hain, to dusri taraf soch wahi puratan, faltah har haal mein bhugatna to stree ko hi pad raha. yun bhi 33% aarakshan dekar bhi kya, jabtak saman awsar na diya jaaye sab sirf kahne ki baat hi rah jayegi.
aapne yahan aakar mera maan badhaya, bahut shukriya aapka.
kishor kumar khorendra said...
प्रकृति ने स्त्री की शारीरिक संरचना ऐसी बनाई है जिससे संतति का काम सिर्फ स्त्री हीं कर सकती है, और शायद यही सबसे अहम् कारण है जिससे स्त्रियाँ प्रताड़ित होती हें, चाहे वो शारीरिक उत्पीड़न हो या मानसिक या सामजिक|
aur bhi aese hii mahtvpurn binduo ka is lekh me samavesh hain
prabhavit karata hain lekh ...
bahut khubh ..jenny
aapko shubh kamnaaye
__________________________
bhaisahab,
mere lekh par aapka aana aur meri baato se aapki sahmati mere liye samman ki baat hai aur hausla bhi milta hai. bahut bahut shukriya aapka.
shikha varshney said...
जेन्नी जी बिलकुल सच कहा है आपने...भले ही स्त्रियों के सुधार के लिए हजारों कार्यक्रम चलाये जा रहे हों या कितने ही अभियान ..देखा जाये तो इन १०० सालों में कुछ नहीं बदला है..आज भी लीक से हट कर चलने वाली महिलाओं को कड़े इम्तिहान से गुजरना पड़ता है जिसमें सामाजिक और मानसिक दोनों ही शामिल हैं...आज भी एक प्रगति शील महिला को हमारा समाज टेडी निगाह से देखता है,,,आज भी कन्या भ्रूण ह्त्या जैसे अपराध होते हैं .आज भी दहेज़ के लिए जलाया जाता है...हाँ कुछ उपलब्धिया हम देख सकते हैं पर उन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है ...और उन्हें वहां तक पहुँचने के लिए जय त्याग करने पड़े वह भी विचारणीय है.
सार्थक लेख जेन्नी जी..
________________________
shikha ji,
mujhe to lagta hai ki pahle ki mahilaayen fir bhi thodi surakshit thee, bhale hin prathaaon mein bandhi thee lekin aaj ek saath chautarfaa aaghat ka saamna karna padta hai. ek taraf aadhunikta ke naam par shiksha aur naukri bhi chaahiye to dusri taraf ghar bhi dekhna, aur rudhiyon ka bhi paalan karna. har purush aadhunikta ka dikhawa kar samaan adhikar dene ki baat karta hai lekin jab khud apni shadi ki baat aati hai to fir parampara ki guhaar lagane lagta. bahut vichitra aur dukhad sthiti hai, 100 saal kya hazar saal bhi beet jaye koi saarthak pariwartan ki gunjaaish nahi dikhti.
mere lekh par aapki pratikriya se behad khushi hui. bahut dhanyawaad aapka.
संजय भास्कर said...
नारी की शक्ति , समय का सुखद बदलाव.....शुभकामनायें
_____________________
sanjay ji,
mere lekh par aapka aana aur vichar dena sukhad laga, bahut bahut dhanyawaad.
pragya said...
बहुत ही सशक्त लेख...हरेक पंक्ति सच का बयान है..
__________________
pragya ji,
mere lekh tak aane aur sarahne keliye bahut shukriya aapka.
Post a Comment