''नास्तिकता सहज है, स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। आस्तिकता हम सिखाते हैं, जन्मजात कोई भी आस्तिक नहीं होता।'' आज सुबह मैंने अपना मेल-बॉक्स खोला, तो एक मित्र द्वारा 'नास्तिकों का एक ब्लॉग' पर एक लेख में यह पढ़ने को मिला। पसन्द का विषय देख सारा काम छोड़ मैं पूरा लेख पढ़ गई, फिर लोगों की प्रतिक्रिया, उत्तर-प्रत्युत्तर भी पढ़ गई। मुझे लगा इस बात पर विचार ज़रूर करना चाहिए कि कहीं हमारी आस्तिकता हमें ज़िन्दगी को पुरज़ोर तरीक़े से जीने में बाधा तो नहीं बन रही है।
मेरी परवरिश ऐसे माहौल में हुई, जिससे मेरी अपनी सोच विकसित हो सकी और मुझ पर कभी कोई विचार प्रभावी न हो सका। मेरे विचार या सोच सही हैं या ग़लत यह मैं नहीं जानती, लेकिन मेरे लिए ये उपयुक्त हैं और यह मेरी अपनी समझ से विकसित हुई है। ऐसा नहीं कि मैं अपनी सोच के प्रति कट्टर हूँ, लेकिन किसी को आहत किए बिना अपनी सोच पर क़ायम रहती हूँ। धर्म से जुड़े विषय पर सभी को पढ़ती और समझने का प्रयत्न करती हूँ, जहाँ जो विचार मेरे तर्क की कसौटी पर खरे लगे ख़ुद के जीवन में अपना लेती हूँ। हालाँकि इसे लेकर अक्सर मेरी आलोचना होती है तथा मुझे अपरिपक्व, अधार्मिक और ग़ैर-सामाजिक होने का ख़िताब भी मिलता है। आलोचना हो या प्रशंसा मैं इस पर ज़्यादा नहीं सोचती, लेकिन यह उम्मीद ज़रूर रहती है कि कोई तर्क से मुझे समझाए कि मैं क्यों ग़लत हूँ। सदैव लोगों के पास तर्क नहीं होते, महज़ परम्पराओं, प्रथाओं और तथाकथित आदर्श में गूँथे नियम-क़ानून होते हैं, जो कभी मुझे स्वीकार्य नहीं हुए।
मेरे बचपन की कुछ बातें हैं जो आज यह सब लिखते-लिखते याद आ गईं, जो शायद इस सन्दर्भ में लिखना उचित भी हो; क्योंकि मेरी सोच को परिष्कृत करने में ये सहायक रहे हैं। मेरे बचपन की बातें जो बहुत हल्की-सी याद है और कुछ बातें बाद में मेरी माँ से मुझे पता चली। विजयवाड़ा के एक बहुत बड़े नास्तिक थे 'प्रोफ़ेसर गोरा' (गोपाराजू रामचन्द्र राव) जिनका पूरा नाम तब नहीं जानती थी, जिनकी एक पत्रिका निकलती थी 'atheist', मेरे पिता के वे बहुत घनिष्ट मित्र थे; यों वे उम्र में काफ़ी बड़े थे, पर सोच की समानता उनके घनिष्टता की वज़ह थी। मैं एक वर्ष की थी, तब अपने माता-पिता के साथ विजयवाड़ा उनके घर 15 दिन रही थी। मैं लगभग 2-3 साल की, तब वे भागलपुर (बिहार) मेरे घर आए थे। मेरे पिता की मृत्यु 1978 में हो गई, फिर सभी से धीरे-धीरे सम्पर्क टूटता चला गया और एल्बम में सँजोए प्रोफ़ेसर गोरा और उनके परिवार की तस्वीरों से ही मैंने यह सब जाना और समझा।
मुझे याद है बचपन में विजयवाड़ा नाम मुझे अटपटा-सा लगता था। मेरे भाई और मैंने जाने कहाँ से कहना सीख लिया था ''अट्टा-पट्टा विजय-वाड़ा'', और अक्सर हम यह कहते रहते और हाथ पटक-पटककर खेलते थे। बाद में पापा ये कहकर चिढ़ाया भी करते थे।
अट्टा-पट्टा विजय-वाड़ा के साथ गोरा जी कब हमारे खेल से मेरे ज़ेहन में उतर गए, मुझे भी नहीं पता चला। पिता के विचार और जीवन जीने का तरीक़ा आम लोगों से अलग था। जब कुछ समझने लायक हुई, तो न पिता रहे न गोरा जी और न उनसे सम्बन्धित कोई सम्पर्क ही रह गया। लेकिन नास्तिकता-आस्तिकता की बात ज़रूर सोचने और समझने लगी।
मेरे पिता नास्तिक थे, तो घर में कोई भी धार्मिक क्रिया-कलाप नहीं होता था। शायद मेरे ज़ेहन में भी नास्तिकता उन्हें देखकर बैठ गई हो। पिता काफ़ी पहले चल बसे, तो मन में होता था कि कहीं वे नास्तिक थे इसलिए तो नहीं ऐसा हुआ? जिन लोगों को हर वक़्त ईश्वर में लिप्त देखी, वे भी असामयिक मौत मरे, बहुत पीड़ा से गुज़रे, विपदाओं में घिरे। जब मेरी अपनी समझ बढ़ी, तब भी ईश्वर के प्रति न मेरी आस्था जागी न कोई रुझान।
अपने बचपन से अपनी दादी द्वारा धार्मिक ग्रंथों की कहानियाँ सुनती रही हूँ। मेरी दादी नास्तिक नहीं थीं। वे धार्मिक पुस्तकें बहुत पढ़ती थीं, ईश्वर में आस्था भी थी उनकी, लेकिन धार्मिक क्रिया-कलाप में उन्होंने कभी हिस्सा नहीं लिया। दादी की मृत्यु 102 वर्ष की अवस्था में 2 साल पहले हुई।
मैं नहीं जानती कि कोई ईश्वर कहीं है या था; अगर कभी हुआ भी हो, तो अब तक तो ज़िन्दा न होगा। सम्भव है कि कुछ पुराने वृक्ष की तरह सैकड़ों साल जिया हो, या मुमकिन है कि ऐसा कुछ न हुआ हो। प्रकृति की हर बात में या जीवन के हर कार्य में जब हम तर्क ढूँढते हैं, तो ईश्वर के सम्बन्ध में तर्क ढूँढना भी जायज़ है।
अगर ईश्वर ने सब बनाया फिर उसे किसने बनाया? अगर ईश्वर ने ख़ुद को बना लिया फिर इस दुनिया की रचना की, तो इस दुनिया की रचना का औचित्य क्या? अगर कोई औचित्य हो जो ईश्वर ही जानता हो, तो दुनिया विनाश की तरफ क्यों बढ़ रही है? अगर सब ईश्वर की इच्छा से होता है तो दुनिया में इतना वर्ग-भेद, वर्ग-संघर्ष, क्लेश-अशांति क्यों? बहुत प्रश्न हैं, और बहुत प्रश्न ऐसे भी हैं जो किसी के मन में न आए, पर कभी न कभी आएँगे ज़रूर।
मैं नास्तिक हूँ, लेकिन परिवार के साथ धार्मिक स्थल जाती हूँ। वहाँ आस्था के माहौल में उपजी शान्ति देखती हूँ, लोगों का अंधविश्वास देखती हूँ, धर्म के नाम पर लोगों का पागलपन देखती हूँ, आस्था के नाम पर डर देखती हूँ। लोग अपने सुख-समृधि के लिए अपनी हैसियत से ज़्यादा चढ़ावा चढ़ाते यानी कि ईश्वर को घूस देते हैं। मन्नत माँगने कहाँ-कहाँ की ख़ाक नहीं छानते। कभी भूखे रहकर तो कभी व्रत-अनुष्ठान करके अपना कोई फ़ायदा (सुख) माँगते। कोई मुराद पूरी हो तो उसके लिए चादर चढ़ाते, फिर कोई नई कामना या मनौती तैयार हो जाती ईश्वर से माँगने के लिए।
आख़िर ये ग़रीब और कट्टर धार्मिक क्यों नहीं अपनी दशा सुधार पाते है; जबकि वे सारा समय ईश्वर का नाम और माला जपते रहते हैं। हालाँकि इसका भी जवाब उनके पास है कि यह पिछले जन्म का फल है जो इस जन्म में भुगत रहे हैं। हर मनुष्य किसी-न-किसी धर्म (सम्प्रदाय) में विश्वास रखता है, फिर क्या वज़ह है कि 21वीं सदी तक भी पाप चल रहा है। क्यों नहीं गरीबी दूर होती, क्यों समाज में आज भी जाति और वर्ग भेद है?
आज सम्पूर्ण विश्व आतंकवाद के अलग-अलग संगठन से तबाह है, जो किसी ख़ास धर्म या सम्प्रदाय के नुमाइंदे हैं। देश के भीतर सांप्रदायिक दंगा या फिर कोई भी क्रूरतम अपराध आख़िर क्यों है? क्यों नहीं इन आस्तिकों को ख़ौफ़ होता है?
धर्म में पाप-पुण्य और स्वर्ग-नरक का डर एक ऐसा मूल-मंत्र है जो हर लोगों को डरा देता है। साथ ही इससे पार पाने के उपाय भी किए गए हैं, ताकि लोग पाप करें और पुण्य के लिए हमारे पंडित, पादरी, मुल्ला बैठे हैं जो उनके पाप को पुण्य में बदलने के लिए ईश्वर तक पहुँच रखते हैं; जैसे कि दलाली या बिचौलिया का धंधा होता है। सभी धार्मिक स्थल के बाहर भिखारियों की बड़ी जमात होती है जो भीख माँगते हैं और ईश्वर-ईश्वर का जाप करते हैं। लेकिन न जाने क्यों ईश्वर की कृपा-दृष्टि उनकी तरफ़ होती ही नहीं, न तो खाना-कपड़ा ही मुहैया होता है, घर और नौकरी तो दूर की बात है। शायद इसलिए भी कि अगर ग़रीब न हो तो फिर पुण्य पाने के लिए दान किसे किया जाएगा। ईश्वर के नाम पर बिना मेहनत गुज़ारा हो जाता है, तो यह धंधा भी अच्छा है।
नास्तिकों के पास पाप करके पुण्य में बदलने का उपाय या विकल्प नहीं होता है, इसलिए वे इस एक जीवन को अपनी सोच और समझ से जीते हैं। न पाप करते हैं न पुण्य के लिए दर-दर की ख़ाक छानते हैं। इंसानियत ही एक जाति और धर्म होता है, यही इनकी पहचान होती है। अपवाद एक अलग बात है।
मैं न आस्तिकता को उचित मानती हूँ न नास्तिकता को; क्योंकि 'कुछ है' तभी तो हम उसके पक्ष या विपक्ष में हैं या ख़ुद को नास्तिक या आस्तिक मान रहे हैं। मेरा स्वभाव है कि मैं किसी भी लकीर पर नहीं चल सकती।बिना अपने अनुभव किसी के कहे को सत्य नहीं मानती हूँ।
नास्तिकता को एक नई परिभाषा की ज़रूरत है, जिसमें आस्तिकता के विपरीत न बहस हो न सोच हो। बल्कि एक ऐसी वैज्ञानिक तथ्यपूर्ण अकाट्य सोच हो जिसमें किसी से तुलना या सार्थकता पर बहस न होकर सिर्फ़ इंसानियत की बात हो, प्रकृति की बात हो, उत्थान की बात हो, जीवन की बात हो, प्रेम की बात हो, और यही नास्तिकता की नई परिभाषा हो।
- जेन्नी शबनम (8.5.2010)
- जेन्नी शबनम (8.5.2010)
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34 comments:
जैन्नी जी, क्या आप बता सकती हैं कि नास्तिकता की क्या परिभाषा है? भारत के सन्दर्भ में नास्तिक कौन है? अपनी परम्परा में नास्तिक शब्द का क्या अर्थ है? (क्योंकि नास्तिक शब्द अपना/भारतीय ही है)
जेन्नी जी ,
वास्तव में आस्तिकता प्रकृति के प्रति होती है और होनी चाहिए परन्तु धर्म के इन बाजारों ने इसे कहीं और पंहुचा दिया है ! ये खोखले विधि विधान और धार्मिक क्रियाकलाप करते लोग पता नही क्यों तर्क नही दे पाते | यह प्रकृति जिसमे हमारा जीवन है बस उसके प्रति हमारी आस्था हो |
यह नास्तिकता की परिभाषा एक दिन हम सबो समझ आएगी पर पता नही इतनी देर क्यों !
manav mastisk me uthne wale in bahut sadharan aur bahut he maulik prasno ka (tarkik)jawab aaj tak iswar ya uske kisi manne wale ke paas nahi hai
aise bhi jis ishwar ke karan itna rakt baha hai aur dange hue hain achha hota ki koi use na he manta
(ye tippdi kisi aastik ko chot pahuchane ke uddesya se nahi ki gayi hai kripya anyatha na lein)
jenni didi
aastik aur nastik hona dono hi gourav ke vishay nahi hai. jivan bhar isi pr vichar karte rahna bhi nadani hogi. jivan to pal pal utsav ya romanchkari khel hai. bal man se kuchh pujapath dhyan aadi ki galiyo se gujar kr b dekhne me koi burai nhi ho sakti.
भारत में नास्तिक का आरंभिक अर्थ वेदों को न मानने वाला था। कपिल को उस के दर्शन सांख्य के आधार पर नास्तिक कहा गया। लेकिन साथ ही यह तर्क भी दिया गया कि वैदिक साहित्य में कपिल का उल्लेख है इस लिए सांख्य को वैदिक मानना चाहिए। इस पर शंकर ने तर्क दिया कि बहुत कपिल हुए हैं। यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि जिस कपिल का उल्लेख वेदों में है वही सांख्य का प्रवर्तक भी है।
आज कल नास्तिक का प्रचलित अर्थ है इस दुनिया का निर्माता और संचालक कोई है जिसे लोग ईश्वर, खुदा या गॉड कहते हैं। उसे मानने वाले स्वयं को आस्तिक और न मानने वालों को नास्तिक कहते हैं। इस आधार पर जैन और बौद्ध धर्म नास्तिक होते हुए भी धर्म की संज्ञा प्राप्त कर चुके हैं।
जेन्नी जी, बहुत सहज ढंग से आपने अपने मन की बात कह डाली है। पता नहीं मैं सही हूं या ग़लत, मुझे लगता है कि जिन विषयों पर आमजन की भाषा में बात होनी चाहिए थी उन्हीं पर गूढ़/कठिन भाषा में बात हुई और ज़रुरी और तार्किक विचार अपने-आप में सिमट कर रह गए और इनका यथासंभव प्रचार-प्रसार नहीं हुआ। ख़ुशी की बात है कि हिंदी ब्लागिंग की दुनिया इस दिशा में प्रयासरत है। इस प्रश्नाकुलता को आगे बढ़ाने के लिए यकीनन आप भी धन्यवाद की पात्र हैं। ज़्यादा कुछ न कहकर मैं आपके कुछ सवालों और सुझावों को रेखांकित करना चाहूंगा। इन्हें जो कोई भी पढ़ेगा, एक बार ठहरकर सोचना ज़रुर चाहेगा:-
“आलोचना हो या प्रशंसा मैं इसपर ज्यादा नहीं सोचती, लेकिन ये उम्मीद ज़रूर रहती है कि कोई तर्क से मुझे समझाए कि मैं क्यों गलत हूँ| लेकिन सदैव लोगों के पास तर्क नहीं होता, महज़ परम्पराओं, प्रथाओं और तथाकथित आदर्श में गुंथे नियम क़ानून होते हैं, जो कभी मुझे स्वीकार्य नहीं हुए|”
“पिता काफी पहले चल बसे तो मन में होता था कि कहीं वो नास्तिक थे इसलिए तो नहीं ऐसा हुआ? जिन लोगों को हर वक़्त ईश्वर में लिप्त देखी वो भी असामयिक मौत मरे, बहुत पीड़ा से गुजरे, विपदाओं में घिरे|”
“अगर सब ईश्वर की इच्छा से होता तो दुनिया में इतना वर्ग-विभेद क्यों, इतनी अशांति क्यों,?”
“हर मनुष्य किसी न किसी धर्म ( सम्प्रदाय) में विश्वास रखता, फिर क्या वज़ह है कि २१ वीं सदी तक भी पाप चल रहा है| क्यों नहीं गरीबी दूर होती, क्यों समाज में आज भी जाति और वर्ग भेद है?”
“सभी धार्मिक स्थल के बाहर भिखारियों की बड़ी जमात होती जो भीख भी मांगते और ईश्वर ईश्वर का जाप भी करते| लेकिन न जाने क्यों ईश्वर की कृपा दृष्टि उनकी तरफ होती हीं नहीं, न तो खाना-कपड़ा हीं मुहैया होता, घर और नौकरी तो दूर की बात है| शायद इसलिए भी कि अगर ग़रीब न हो तो फिर पुण्य पाने केलिए दान किसे किया जायेगा| ईश्वर के नाम पर बिना मेहनत गुजारा भी हो जाता, तो ये धंधा भी अच्छा है|”
“नास्तिकों के पास पाप कर पुण्य में बदलने का उपाय या विकल्प नहीं होता, इसलिए वो इस एक जीवन को अपनी सोच और समझ से जीते हैं, न पाप करते न पुण्य केलिए दर दर की ख़ाक छानते हैं|”
AASTIKTA, NASTIKTA apni jagah hai, sabse achhi baat hai ki aap apne vichaaron se chalti hain
बहुत खुबसूरत लेख
धार्मिक दलबंदी को हम लोकतंत्र की राजनैतिक दलबंदी से तुलना करके तो मुझे लगता है की समस्या हल हो जाती हैं! कल्याण की बात किया जाना अधिक से अधिक भीड़ बटोरने का उपाय भर है! आपको खुदा से डरना है आपने ऐसा किया या वैसा किया तो वो सजा देगा आपको धर्म के अनुसार चलना है! और तथाकथित नेतृत्वकारी के आदेशों का पालन भर करना है (इन सबका उद्देश्य राजनैतिक सत्ता प्राप्त करना ही तो है, धर्म के नाम पर हुए तमाम दंगों विस्फोटो आतंकी कार्वायिओं का उद्देश्य क्या दीखता है)
रही बात नास्तिकता की तो नास्तिक किसी के विरुद्ध नहीं होते बस अतार्किक लोगों से चिढ़ भर जाते हैं आप देख सकती हैं की नास्तिक विचारों के प्रसार के लिए कोई संगठन किसी भी प्रकार काम नहीं करता यहाँ तक की स्वय को नास्तिक कहने वाले दो लोगों में अक्सर वैचारिक समानता नहीं होती! होगी भी नहीं क्योकि नास्तिकता कोई विचार नहीं व्यक्तिकता हैं स्वछंदता है आज़ादी किसी बंधन में नहीं बांधती (ऐसा मैं समझता हूँ और मुझसे असहमत होने के लिए आपके पास कई कारण हैं)
डॉ. जय प्रकाश गुप्त जी नास्तिक शब्द भारतीय है या नहीं ये बाद की बात है पहली बात तो ये हैं
है की नास्तिक शब्द हिंदी का है! और हिंदी में लिखते हुए हम नास्तिक शब्द का उपयोग करते हैं
अंग्रेजी में atheist फ़ारसी और अरबी में كافر (काफ़िर), Greek ἄθεος (atheos), Latin atheos., French athéisme
अर्थात तमाम सभ्यताओं में नास्तिकता आस्तिकता के समानांतर रही है और नास्तिकों की पहचान सदैव ही कठिन है आप http://nastikonblog.blogspot.com/ पर जाएँ वहां कुछ भारतीय नास्तिक आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं
लाजवाब... अब तो आपके ब्लॉग पर आते रहेंगे...
ईश्वर शिव है , सत्य है , सुन्दर है , शान्ति और आनन्द का स्रोत है । ईश्वर सभी उत्कृष्ट गुणों से युक्त हैं । सभी उत्तम गुण उसमें अपनी पूर्णता के साथ मौजूद हैं । सभी गुणों में सन्तुलन भी है ।
प्रकृति की सुन्दरता और सन्तुलन यह साबित करता है कि उसके सृष्टा और संचालक में ये गुण हैं । प्राकृतिक तत्वों का जीवों के लिए लाभदायक होना बताता है कि इन तत्वों का रचनाकार सबका उपकार करता है ।
http://vedquran.blogspot.com/2010/03/universe-is-sign-of-lord-shiva.html
BAHUT KHOOBSURAT LEKH.
आदरणीय जैन्नी जी व Shafiqur Rahman khan yusufzai जी,
माननीय दिनेशराय जी ने आस्तिक व नास्तिक शब्दों को परिभाषित किया है, इन शब्दों को इसी परिप्रेक्ष्य में देख कर विवेचना करना उचित होगा। क़ाफ़िर, Atheist आदि शब्दों को आस्तिक के समतुल्य मानने से शब्द व विचार के साथ अन्याय होगा। यदि इस दृष्टिकोण को अपना लिया तो आपके आस्तिक अथवा नास्तिक होने से हुछ विशेष अन्तर नहीं पड़ेगा।
डॉ. जय प्रकाश गुप्त said...
जैन्नी जी, क्या आप बता सकती हैं कि नास्तिकता की क्या परिभाषा है? भारत के सन्दर्भ में नास्तिक कौन है? अपनी परम्परा में नास्तिक शब्द का क्या अर्थ है? (क्योंकि नास्तिक शब्द अपना/भारतीय ही है)
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चिकित्सक जय प्रकाश जी,
मेरे विचार से मतभेद तो सदा आपको रहा है, और ये स्वतः स्वाभाविक भी है| जहाँ तक नास्तिक शब्द की बात है तो अपने भारतीय भाषा में हीं हिंदी में उनके लिए प्रयोग किया जाता जो किसी भी ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखते, स्वयं पर विश्वास रखते हैं| ये मेरी परिभाषा नहीं है बल्कि आम प्रचलित परिभाषा है| वेद पुराण कुरान मैं नहीं पढ़ी हूँ, इसलिए मुझे इन सब की ज्यादा समझ नहीं| इसलिए आपसे शास्त्रार्थ करने में असमर्थ हूँ| मुझे किसी का अनुकरण करना पसंद नहीं, स्व अनुभव से जो पसंद आये वो उचित मानती हूँ|
आपसे प्रार्थना है कि इस सन्दर्भ में अगर आप हमारा ज्ञान बढाएं तो आपकी बहुत कृपा होगी|
मेरे ब्लॉग पर आने और कुछ प्रश्न करने केलिए धन्यवाद, आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी| |
निपुण पाण्डेय said...
जेन्नी जी ,
वास्तव में आस्तिकता प्रकृति के प्रति होती है और होनी चाहिए परन्तु धर्म के इन बाजारों ने इसे कहीं और पंहुचा दिया है ! ये खोखले विधि विधान और धार्मिक क्रियाकलाप करते लोग पता नही क्यों तर्क नही दे पाते | यह प्रकृति जिसमे हमारा जीवन है बस उसके प्रति हमारी आस्था हो |
यह नास्तिकता की परिभाषा एक दिन हम सबो समझ आएगी पर पता नही इतनी देर क्यों !
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निपुण जी,
मेरी बातों को आप समझ सके ये मेरे लिए बहुत ख़ुशी की बात है| आस्तिकता का अर्थ हीं होता कि किसी के अस्तित्व को मानना| इंसान का ख़ुद पर और प्रकृति के अलावा किसी और में विश्वास रखना मुझे सदा आतार्किक लगता है| बल्कि मेरा तो मानना है कि जिसे आस्तिक कहते उसे नास्तिक कहना चाहिए, क्यूंकि वो अपने हीं अस्तित्व को नकारते हैं| पर परंपरागत परिभाषा को मैं बदल तो नहीं सकती, मानने से इंकार ज़रुर करती हूँ|
शायद कोई दिन आये जब लोग अपनी सोच बदल कर ख़ुद में विश्वास जगाएं|
लेख पर आने और समझने केलिए बहुत धन्यवाद|
apurn said...
manav mastisk me uthne wale in bahut sadharan aur bahut he maulik prasno ka (tarkik)jawab aaj tak iswar ya uske kisi manne wale ke paas nahi hai
aise bhi jis ishwar ke karan itna rakt baha hai aur dange hue hain achha hota ki koi use na he manta
(ye tippdi kisi aastik ko chot pahuchane ke uddesya se nahi ki gayi hai kripya anyatha na lein)
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apurn ji,
ishwar hai ya nahin, ye to koi nahin janta, koi ishwar bhakt bhi nahin dekh saka ki bhagwan kaisa hota. darr ke liye dharm ki utpatti ki gai taaki samaj mein avyawasthaa na ho. baad mein apni suwidha keliye anuchit kaarya kar ishwar se kashama maangne keliye dhaarmik guru hue jo paap ko punay mein badalne ka upaay batane lage. aur fir kya thaa, anuchit kaarya ki jaise aazadi mil gai, aur mrityu baad swarg mein jane ka raasta khul gaya...ek gaay(cow) daan aur sidhe vaitarni paar...
ishwar aakhir itna kamjor kyun jo apne kattar bhakton ko samjha nahin sakta ki naastikon ki baat se unko thes na pahuche. nastikta to door ki baat dusre sampradaay ko ye log sahan nahin kar paate.
mere lekh par aapke vichar padhkar achha laga. bahut dhanyawaad.
sanjukranti said...
jenni didi
aastik aur nastik hona dono hi gourav ke vishay nahi hai. jivan bhar isi pr vichar karte rahna bhi nadani hogi. jivan to pal pal utsav ya romanchkari khel hai. bal man se kuchh pujapath dhyan aadi ki galiyo se gujar kr b dekhne me koi burai nhi ho sakti.
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sanjukranti ji,
aapne bahut sateek baat kahi hai.
us vishay par sochna hin kya jo arth-heen hai. aastik koi hai to ye uski apni soch ya andhwishwaas hai, chaahe wo parampara se ho ya dhrohar mein mila ho. par kamse kam kattar aastik thoda to insaaniyat barten. danga, aatankwaad, gareebi, ashiksha, bahut see kuritiyan, sab inka hin prakop hai.
dhyaan ka puja se koi sambandh nahin. dhyaan khud ko janne ki prakriya hai, aur ye is ek jiwan keliye bahut zaroori hai. jiwan ka ek hin niyam ho ki jab tak jiye khushi aur aanand se, insaaniyat ke sath. haan anubhaw keliye har raah se gujarna anuchit bhi nahin tabhi to soch bhi utkrisht hoti aur apni samajh viksit hoti.
bahut shukriya bhaai, aap mere lekh tak aaye aur bahut achhi baat kahi.
सच कहा है जेन्नी जी ! आस्तिकता हम सिखाते हैं.... वो शायद इसलिए क्योंकि इससे जीना आसान हो जाता है..कोई गलत काम करने से पहले हमें एक बार भगवान का डर हो....कुछ मन मुताबिक न मिले तो भगवान की मर्जी समझ संतोष कर लें ,कुछ दुखद हो जाये तो ईश्वर की इच्छा समझ दुःख कम कर लें ..यानि कि अगर हम एक सर्व शक्तिमान पर विश्वास करते हैं तो उससे हमारी जिन्दगी की कठनाइयां शायद कुछ कम महसूस करते हैं. .परन्तु आस्तिकता अन्धविश्वासी नहीं होनी चाहिए ये भी ठीक है ..आपकी तरह मैं भी वहीँ आस्था रखती हूँ जहाँ मुझे लोजिक समझ आता है :).
bahut he sachchai se aapne apne mann ki baat kahi hai...
amit~~
इस "आस्तिक-नास्तिक" के झमेले से दूर बस खुद से इमानदार बने रहना ही सबसे वांछनीय और सरल धर्म है...
ईश्वर के "होने या ना होने" की बात से मानव-मात्र के जीवन में विभ्रम,पलायनवाद और कट्टरता के सिवा और कुछ नहीं पनपता..
Be honest to youself and treat others equal to you---so simple,yet made so difficult ...just because of our egoistic delusion of grandeur...
@ डॉ. जय प्रकाश गुप्त ji
नास्तिक होने के लिए पाठ विशेष की आवश्यकता नहीं है दिनेशराय जी का आदर करता हूँ इसके बावजूद उनका अनुसरण नहीं करता अगर आँख बंद करके उनका या किसी का अनुसरण किया मै आस्तिक कहा जाऊंगा क्योकि मेरी आस्था होगी! नास्तिकता एक समग्र विचार धारा है जहाँ कोई बंदिश नहीं लगायी जा सकती
और मैंने महज़ इतना ही कहा की नास्तिक शब्द है विचार नहीं और नास्तिक शब्द के लिए अलग अलग भाषाओँ में अलग अलग शब्द हैं, अर्थात नास्तिकता देशी दर्शन नहीं सांस्कृतिक दर्शन है तो तमाम सभ्यताओं में हर युग में पाया गया है
@ जेन्नी
आपने वेद पुराण कुरान नहीं पढ़ा ये अच्छी बात नहीं चीजों की आलोचना बिना उस दर्शन को समझे किया जाना अनुचित है! ये कोरी जिद्द होगी और ज़ाहिर है एक तार्किक मनुष्य जिद्दी नहीं हो सकता
Jennyji namste,
Apne bahut saral shabdo main aur bina hichkichaye aapne sahi vichar prakat kiye hai,Is liye appka abhinandan.Bhart main keval ASTIKTAKI hi parmpra nahi hai NASTIKTAKI bhi bahoot badi PARAMPARA hai, CHARVAK DARSHAN,SANHKYA DARSHAN,BUDH DARSHAN se yah parampra shur hoti hai.Aur yah ek(NASTKTA) achhi jivan shaili hai jo CHIKITSA,TARK AUR VIVEK par adharit hai.
Adhyatmik logone Nastikonko bahut badnam kiya hai,is karan Aaj bhi log nastikonko a-naitik(Immoral)aur bura-bhala kahte hai.lekin log yeh nahi samzate, duniya main lagbag 95% log ASTIK hai,MANDIR,MASJID,CHARCH har gaon main hai, fir bhi duniya main ASHANTI,BHUKH-MARI,AURTO PAR ATYACHAR(dharm main aurat ko DEVI kaha jata hai phir bhi uspar atyachar hote hai)ATANKWAD joronse bud rahi hai.
EK BAHOOT HI JAROORI VISHAY KI CHARCHA KARNE KE LIYE AAPKA SHUKRIYA.
ATUL WAGH
KOLHAPUR
आई,
आस्तिक और नास्तिक होना कम से कम हमें तो नहीं लगता कि ये कहीं से वाद विवाद का विषय है, जिसकी जैसी भावना उसका वैसा मन, बिलकुल सीधा सिद्धांत है, गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी श्री राम चरित मानस मैं स्पष्ट कहा है " जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तैसी". अब जिसे देखना ही सही नहीं लगता उसको भी साधुवाद.
आस्तिक और नास्तिक होने के सन्दर्भ मैं कई तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन हमें नहीं लगता कि उन तर्कों को निष्ठा और व्यक्तिगत सम्मान का प्रतीक बनाये जाने कि जरुरत है, जो जैसा है उसके वैसा होने सही जवाब समय खुद ही दे देता है,
हमारी तो बस यही कामना है, " सर्वे भवन्तु सुखिन, सर्वे सन्तु निर्मय, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, माँ कश्चिद दुःख भाग भवेत्, "
actualy man sould be recognised by his work, his quality and his nature not by the relision.... if something happened in favour, means god is present if not means no.The hole drama of god created by the those people who want to cash it. If god is present and i know, then first i should keep him in my heart ( like Hanuman ji__the most obedient character of indian mythology), not to make a showpiece.
jenny ji
bahut din baad blog par aana hua, vyarth nahi gaya..
Ek sateek lekh padha.. Badhai
koi nastik nahi hota.........sab soch ki baat hai , Jenny jee!!
aap hi batao, jab kuchh achchha ya bura hota hai to man hi man bhagwan ya allah ko yaad nahi karte........:)
Vichar achchhe hain aapke..:)
आपका विचार पढकर वास्तव में ऐसा लगा कि मेरी तरह सोचने वाले लोग भी इस जहाँ में हैं. वास्तव में लोग आस्तिकता कि आड़ में पाप और पाखंड फैला रहे हैं. यह स्थिति कथित धार्मिक लोगों में ही नहीं अपितु लेखक, कवियों तथा शायरों में भी है. नास्तिकता वस्तुत तर्क पर आधारित है. इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है कि सबसे पहले महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा था कि वेद पुराणों को मत मानों. रामायण और महाभारत को मत मानो. और जो मैं भी कहता हूँ उसे भी मत मानों. अपने बुद्धि विवेक से जो बात आपको अच्छी लगे. उसे मानो.
डा. महाराज सिंह परिहार
०९४११४०४४४०
ताजनगरी आगरा
जेन्नी जी बहुत दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आया और इतनी गंभीर चर्चा परिचर्चा देख अचंभित हो गया . बहुत पढ़े लिखे तो हम हैं नहीं . वेद उपनिषद गीता आदि का अध्यन नहीं किया है .. कुरान या बाइबल भी नहीं पढ़ा है ... इस लिए इस विषय पर चर्चा नहीं कर सकता ! जहाँ तक अपने थोड़े बहुत अध्यन से कह सकता हूँ कि.. पहली बार आस्तिक होना मनुष्य को प्रकृति के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करने से हुआ होगा... सूर्य की आराधना .. वृक्ष की आराधना ... नदी की अर्चना ... समंदर की पूजा से शुरू हुआ होगा मनुष्य का आस्तिक होना... फिर समाज में अनुशाशन लाने के लिए कुछ कर्मकांड विकसित हे होंगे... फिर ये सूर्य, वृक्ष आदि इश्वर में बदल गए और समाज को दिशा दिखने वाले नियम कठोर कर्मकांड में बदल गए होंगे ... गलती यही हो गयी होगी... जिसका perverted रूप हमे आज विभीन्न धर्मो में मिलते हैं ... आम आदमी आज भी अपने जीवन में आस्था से अनुशाषित ही होता है... उसे इसके गंभीर मुद्दों और बहस से कोई खास मतलब नहीं होता ... मंगल वार को हनुमान मंदिरों में ५ रूपये का प्रसाद चढ़ा कर किसी को यदि हफ्ते भर की शांति मिलती है तो कोई बुरा भी नहीं है... हाँ इसका बाजारीकरण होना बहुत बुरा है.... लेकिन ये तो सबका हो रहा है... यदि कोई मजदूर काम से पहले अपने इश्वर को याद कर लेता है इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है ... इस लिए नास्तिकता का प्रचार करने वालों की भी अपनी दुकान ही है... जैसे आस्तिकता का प्रचार करने वालो की... कुल मिला कर सार्थक चर्चा
विचारणीय लेख के लिए बधाई
bahut accha lekh,
आस्तिक और नास्तिक
अगर ईश्वर ने सब बनाया फिर उसे कौन बनाया?प्लीज़ माफ कीजियेगा इस वाक्य में यदि 'उसे किसने बनाया'लिखती तो ज्यादा अच्छा और भाषा की दृष्टि से वाक्य सही रहता. खेर भाषा पर आंचलिकता का असर आ जाता है कभी कभी किन्तु आप जैसी लेखिका को.....
हा हा हा
मारना मत मुझे.
बाबु!मैं भी आस्तिक हूं या नास्तिक आज तक नही समझ पाई किन्तु यदि किसी की एक कल्पना मात्र भी रहा हो ये ईश्वर और जिसकी उपस्थिति का अहसास मात्र भी हमे कुछ गलत करने से रोकता है,सुकून देता है.अकेले हो कर भी हम अकेले नही का अहसास देता है तो सोचो वो कल्पना वो अहसास भी क्या बुरा है? और मेरे कृष्ण को देखो किसी की कल्पना या काल्पनिक पात्र भी था या है तो भी कितना खूबसूरत है.और इस काल्पनिक पात्र को जब प्यार करने लगी तो सबमे वो दिखने लगा. सबको प्यार करने लगी.बदले में इतना प्यार मिला,इतने अच्छे लोग मिले.तुम जैसा प्यारा दोस्त भी उसी प्यार के कारण मिला ना? घाटे का सौदा नही करती इंदु पुरी.
बाबु! मैं विदुषी नही.ज्यादा दिमाग भी नही लगती दिल की सुनती और उसी के काहे अनुसार चलती इस दिल को 'ईश्वर' का नाम दे दूँ?
मेरे लिए प्यार भी इश्वर का दूसरा नाम है.अपने पति,अपने बच्चों,अपने दिल के करीब रहने वालों को प्यार करती हो ना?
क्या कहा?? 'हाँ'
फिर ...अब नास्तिक नही रही तुम.जो प्यार करते हैं,जज्बाती होते हैं उनके खूबसूरत अहसासों का नाम भी 'रब' है.
तुम जैसे लोग इश्क और उसकी गहराई को जीते हैं फिर भी 'ना' कहते हैं.
ढेर सारा प्यार नन्हे फ़रिश्ते!
बहुत सारगर्भित लेख
जेनी जी,नमस्ते
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