पहला भाग-
सुनसान राहों पर चलते हुए कोई चीख कानों में पड़े, तो जैसे आशंका से मन डर जाता है, ठीक वैसे ही उम्र के इस मोड़ पर सुनसान यादों में कोई चीख-चीखकर मुझे झकझोर रहा है। अब क्या? अब क्या शेष बचा? अब क्या करना है? अब? कितना विकराल-सा लग रहा है यह प्रश्न- ''अब क्या?''
सोचती हूँ 56 वर्ष कितने अधिक होते हैं, लेकिन इतनी जल्दी मानो पलक झपकते ही ख़र्च हो गए और अब जीवन के हिस्से में साँसों का कर्ज़ बढ़ रहा है। ख़ुश हूँ या निरुद्देश्य जीवन पर नाराज़ हूँ, यह सवाल अक्सर मुझे परेशान करता है। उम्र के इस मोड़ पर पहुँचकर प्रौढ़ होने का गर्व है, तो कहीं-न-कहीं बेहिसाब सपनों के अपूर्ण रह जाने का मलाल भी है। अफ़सोस अब वक़्त ही न बचा। या यों कि मुमकिन है वक़्त बचा हो, मगर मन न बचा। जीते-जीते इतनी ऊबन हो गई है कि जी करता है कि अगर मुझमें साहस होता तो हिमालय पर चली जाती; तपस्या तो न कर सकूँगी, हाँ ख़ुद के साथ नितान्त अकेले जीवन ख़त्म करती या विलीन हो जाती।
पीछे मुड़कर देखती हूँ तो लगता है मेरी ज़िन्दगी कई अध्यायों में बँटी है और मैंने क़िस्त-दर-क़िस्त हर उम्र का मूल्य चुकाया है। मेरे जीवन के पहले अध्याय में सुहाना बचपन है जिसमें मम्मी-पापा, दादी, नाना-नानी, मामा-मामी, चाचा-चाची, फुआ-फूफा, मौसा-मौसी, भाई, ढेरों चचेरे, ममेरे, फुफेरे, मौसेरे भाई-बहन, रिश्ते-नाते, मेरा कोठियाँ, मेरा यमुना कोठी, मेरा स्कूल, पापा की मृत्यु से पहले का स्वछंद सरल जीवन है। फिर पापा की लम्बी बीमारी और अंततः मृत्यु जैसी स्तब्ध कर देने वाली पीड़ा है। दूसरे अध्याय में 25 वर्ष तक पढ़ाई के साथ दुनिया का दस्तूर समझना और पूरी दुनियादारी सीखना है। भागलपुर दंगा और दंगा के बाद का जीवन और समाज का परिवर्तन तथा अमानवीय मानसिकता व सम्बन्ध है। तीसरे अध्याय में 25 वर्ष की उम्र में मेरा हठात् प्रौढ़ हो जाना, जब न बचपना जीने की छूट न जवानों-सी अल्हड़ता है; वह है विवाह और विवाहोपरान्त कुछ साल है। जिसमें जीवन से समझौते और जीवन को निबाहने की जद्दोजहद है। दुःख के अम्बारों में सुख के कुछ पल भी हैं, जो अब बस यादों तक ही सीमित रह गए हैं। दुःख की काली छाया में सुख के सुर्ख़ बूटों को तराशने और तलाशने की नाकाम कोशिश है। चौथे अध्याय में मेरे बच्चों के वयस्क होने तक का मेरा जीवन है, जिसे शायद मैं कभी किसी से कह न सकूँ, या कह पाने की हिम्मत न जुटा सकूँ। यों कहूँ की प्रौढ़ जीवन से वृद्धावस्था में प्रवेश की कहानी है, जो मेरी आँखों के परदे पर वृत्तचित्र-सा चल रहा है, जिसमें पात्र भी मैं और दर्शक भी मैं। जाने कौन जी गया मेरा जीवन, अब भी समझ नहीं आता। अगर कभी हिम्मत जुटा सकी तो अपने जीवन के सभी अध्यायों को भी लिख डालूँगी।
ज़िन्दगी तेज़ रफ़्तार आँधी-सी गुज़र गई और उन अन-जिए पलों के ग़ुबार में ढेरों फ़रियाद लिए मैं हाथ मलते हुए अपनी भावनाओं को काग़ज़ पर उकेरती रही; कोई समझे या न समझे। ऐसा लगता है जैसे मेरी उम्र साल-दर-साल नहीं बढ़ती है; बल्कि हर जन्मतिथि पर 10 साल बड़ी हो जाती हूँ। मेरा जीवन जीने के लिए नहीं, अपितु तमाम उम्र अभिनय करते जाने के लिए बना है। कितने पात्रों का अभिनय किया, पर किसी भी पात्र का चयन मेरे मन के अनुसार नहीं है। जाने कौन है जो पटकथा लिखता है और मुझे वह चरित्र जीने के लिए मज़बूर करता है। मेरा वास्तविक जीवन कहाँ है? क्या हूँ मैं? संत-महात्मा ठीक ही कहते हैं कि जीवन भ्रम है और मृत्यु एकमात्र सत्य। जिस दिन सत्य का दर्शन हुआ; अभिनय से मुक्ति होगी। मेरा अनुभव है कि जिसकी तक़दीर ख़राब होती है बचपन से ही होती है और कभी ठीक नहीं होती; भले बीच-बीच में छोटी-छोटी खुशियाँ, मानों साँसों को रोके रखने के लिए आती हैं।
मेरे जन्म के बाद के कुछ साल बहुत सुखद बीते। पापा-मम्मी-दादी के साथ पलते बढ़ते हुए हम दोनों भाई-बहन बड़े हो रहे थे। कुछ साल गाँव में दादी के पास रहकर पढ़ाई की। इससे यह अच्छा हुआ कि मैं ग्रामीण परिवेश को बहुत अच्छी तरह समझ सकी। मैं उस समाज का हिस्सा बन सकी, जहाँ बच्चे गाँव के वातावरण में रहकर पढ़ते भी है और मस्ती भी करते हैं। जहाँ लड़का-लड़की में कोई भेद नहीं होता है; हाँ स्वभावतः उनके कार्य का बँटवारा हो जाता है और कोई किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है। ज़िन्दगी बहुत सहज, सरल और उत्पादक होती है।
2 साल गाँव में रहकर मैं भागलपुर मम्मी-पापा के पास आ गई। परन्तु भाई गाँव में रहकर ही मैट्रिक पास किया। मेरा भाई पढ़ने में बहुत अच्छा था, तो आई.आई.टी. कानपुर और उसके बाद स्कॉलरशिप पर अमेरिका चला गया। वर्ष 1984 में महिला समाज की तरफ़ से मुझे मेडिकल की पढ़ाई के लिए रूस जाना था। सब कुछ हो गया, लेकिन बाद में पता चला कि मैंने आर्ट्स से आई.ए. किया है तो नामांकन न हो सकेगा। फिर 1988 मेरा भाई मुझे पढ़ने के लिए अमेरिका ले जाना चाहा, लेकिन मुझे वीजा नहीं मिला; क्योंकि मैं वयस्क हो गई थी और लॉ की पढ़ाई पूरी कर चुकी थी। क़िस्मत ने मुझे फिर से मात दी।
जुलाई 1978 में मेरे पापा का देहान्त हो गया। पापा की मृत्यु के पश्चात जीवन जैसे अचानक बदला और 12 वर्ष की उम्र में मैं वयस्क हो गई। मम्मी की सभी समस्याएँ बहुत अच्छी तरह समझने लगी। यहाँ तक कि गाँव के हमारे कुछ रिश्तेदार चाहते थे कि मेरी माँ को मेरी दादी घर से निकाल दे और हम भाई-बहन को अपने पास गाँव में रख ले। पर मेरी दादी बहुत अच्छी थीं, जिसने ऐसा कहा था उसे बहुत सटीक जवाब दिया उन्होंने। मम्मी को दादी ने बहुत प्यार दिया, मम्मी ने भी उन्हें माँ की तरह माना। मेरी मम्मी अपना सुख-दुःख दादी से साझा करती थीं। दादी का सम्बल मम्मी के लिए बहुत बड़ा सहारा था। 6 मई, 2008 को 102 साल की उम्र में दादी का देहान्त हुआ, मम्मी उसके बाद बहुत अकेली हो गईं।
मेरे स्कूल में तब 9वीं और 10वीं का स्कूल-ड्रेस नीले पाड़ की साड़ी और सफ़ेद ब्लाउज था। ब्लाउज की लम्बाई इतनी हो कि ज़रा-सा भी पेट दिखना नहीं चाहिए। साड़ी पहनकर अपने घर नया बाज़ार से अपने स्कूल घंटाघर चौक तक पैदल जाना बाद में सहज हो गया। साड़ी पहनने से मन में बड़े होने का एहसास भी होने लगा। हाँ यह अलग बात कि कॉलेज जाते ही टी-शर्ट पैंट, सलवार कुर्ता पहनने लगी, साड़ी सिर्फ़ सरस्वती पूजा में। मेरे समय में 11वीं-12वीं की पढ़ाई कॉलेज में होती थी, जिसे आई.ए. यानी इंटरमीडियट ऑफ़ आर्ट्स कहते हैं। मैंने बी.ए. ऑनर्स सुन्दरवती कॉलेज से तथा टी.एन.बी. लॉ कॉलेज से एलएल.बी. किया। भागलपुर विश्वविद्यालय से गृह विज्ञान में एम.ए. किया। वर्ष 2005 में भागलपुर विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. किया।
मैं 1986 में समाज कार्य और नेशनल फेडरेशन ऑफ़ इण्डियन वुमेन से जुड़ने के अलावा राजनीति से भी जुड़ गई। ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के भागलपुर इकाई की वाइस प्रेजिडेंट बनी। मीटिंग, धरना, प्रदर्शन ख़ूब किया। वर्ष 1989 के दंगा के बाद वह सब भी ख़त्म हो गया। हाँ, बिहार महिला समाज की सदस्य मम्मी के जीवित रहने तक रही। अब अपना वह जीवन सपना-सा लगता है। मैं पापा के चले हुए राह पर अंशतः चलती हूँ। उनकी तरह विचार से कम्युनिस्ट, मन से थोड़ी गांधीवादीवादी और पूर्णतः नास्तिक हूँ। पूजा-पाठ या ईश्वर की किसी भी सत्ता में मेरा विश्वास नहीं है। परन्तु त्योहार ख़ूब मज़े से मनाती हूँ। छठ में मोतिहारी अपने मामा-मामी और मम्मी के मामा-मामी के पास हर साल जाती रही। दीवाली, जगमग करता दीपों का त्योहार मेरे मन के संसार को उजियारा से भर देता है। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और नया साल मेरे लिए प्रफुल्लित करने वाला दिन होता है।
10वीं से लेकर एम.ए. और लॉ की पढ़ाई फिर पी-एच.डी. मैंने ऐसे की जैसे कोई नर्सरी से लेकर 10वीं तक पढ़ता है। नर्सरी के बाद पहली कक्षा फिर दूसरी कक्षा फिर तीसरी...। बिना यह सोचे कि आगे क्या करना है। बस पढ़ते जाओ, पास करते जाओ। अब यों महसूस होता है जैसे कितनी कम-अक़्ल थी मैं, भविष्य में क्या करना है, सोच ही नहीं पाई। लॉ करने के बाद बिहार बार काउन्सिल की सदस्यता ली, काम नहीं कर सकी। क्योंकि मेरी ज़िन्दगी में तूफ़ान आना बाक़ी था, तो रास्ता और मंज़िल दोनों मेरे हाथ की लकीरों से खिसक गया।
वर्ष 1989 के भागलपुर दंगा में मेरा घर प्रभावित हुआ और 22 लोगों की हत्या हुई। उस घर में रह पाना मुमकिन न था। एक तरह से यायावर की स्थिति में छह माह गुज़रे। दंगा के कारण एम.ए. की परीक्षा देर से हुई। दंगा के उस माहौल में और जिस घर में 22 लोग मारे गए हों, वहाँ रहना और पढ़ाई पर ध्यान लगाना बहुत कठिन हो रहा था। लेकिन समय को इन सभी से मतलब नहीं होता है, ज़िन्दगी को तो वक़्त के साथ चलना होता है। कुछ व्यक्तिगत समस्या के कारण भी मेरी मानसिक स्थिति ठीक न थी। फिर भी एम.ए. में यूनिवर्सिटी में दूसरा स्थान प्राप्त हुआ, टॉपर से 1 नम्बर कम आया। बाद में 1995 में BET (बिहार एलिजिबिलिटी टेस्ट फॉर लेक्चरशिप) भी किया लेकिन बिहार छोड़कर पुनः दिल्ली आ गई और एक बार फिर से मेरा मुट्ठी से धरती फिसल गई थी।
कोलकाता के आनन्द बाज़ार पत्रिका के विख्यात पत्रकार गौर किशोर घोष, जिन्हें पत्रकारिता के लिए मैग्सेसे अवार्ड मिला, वे प्रसिद्ध कहानीकार-उपन्यासकार थे और जिनकी कहानी पर 'सगीना महतो' फिल्म बनी है; मुझे मेरे हालात से बाहर निकालकर अपने साथ शान्तिनिकेतन ले गए। शान्तिनिकेतन की अद्धभुत दुनिया ने मुझे सर-आँखों पर बिठाया। शान्तिनिकेतन की स्मृतियों पर मैंने कई संस्मरण भी लिखे हैं। गौर दा ने मुझे बहुत प्यार दिया और मेरे लिए बहुत फ़िक्रमन्द रहे। शान्तिनिकेतन में बहुत से मित्र बने जिनसे आज भी जुड़ी हुई हूँ। हाँ, यह ज़रूर है कि शान्तिनिकेतन छोड़ने के बाद उसने मुझे मेरे हालात पर छोड़ दिया। मेरी तक़दीर को अभी बहुत खेल दिखाना जो था। शान्तिनिकेतन मुझसे छूट गया और फिर एक बार मैं मझधार में आ गई।
यों लगता है जैसे किसी ने मेरे लिए ही कहा था- ''तक़दीर बनाने वाले, तूने कमी न की, अब किसको क्या मिला, ये मुक़द्दर की बात है।'' यों तो तक़दीर से बहुत मिला, पर इस तरह जैसे यह सब मेरे हिस्से का नहीं किसी और के हिस्से का था, जो रात के अँधियारे में तक़दीर के राह भटक जाने से मुझ तक आ गया था। शेष फिर कभी...।
- जेन्नी शबनम (16.11.2022)
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