Thursday, September 14, 2017

58. हिन्दी बिटिया को अँगरेज़ी की गुलामी से बचाओ

सुबह का व्यस्ततम समय, एक अनजाने नंबर से मोबाइल पर फ़ोन ''मे आई टॉक टू ...।'' मैंने कहा ''हाँ, बोलिए''! उसने कहा ''आई वांट टू डिस्कस ऐन इन्वेस्टमेंट प्लान विथ यू।'' मैंने कहा माफ़ कीजिएगा मुझे नहीं चाहिए। उसकी ज़िद कि मैं न लूँ पर सुन तो लूँ। बहुत तहज़ीब से उसने कहा '''इफ यू फ्री देन आई विल एक्सप्लेन रिगार्डिंग सम इन्वेस्टमेंट।'' मैंने कहा ''बहुत धन्यवाद, ज़रूरत होगी तो मैं आपसे सम्पर्क करूँगी'', फिर उसका अधूरा वाक्य ''थैंक्स मैड s...।'' एक दिन घर के नंबर पर फ़ोन आया ''मे आई टॉक टू ...।'' मैंने कहा ''वह घर में नहीं है'', कोई आवश्यक काम हो तो बताएँ।" उसने कहा ''आई ओनली टॉक टू हिम बिकॉज़ दिस कॉल इज़ रिगार्डिंग हिज़ क्रेडिट कार्ड्स।'' मैंने दोबारा कॉल करने का वक़्त बता दिया।  

बीते हिन्दी-पखवारे में ऐसे ही असमय मेरे लिए फ़ोन आया, सधा हुआ अँगरेज़ी लहजा ''में आई टॉक टू...'' उस दिन किसी कारण से मेरा मन खिन्न था और किसी से बात करने की इच्छा नहीं थी मैंने कहा ''...मैडम घर में नहीं हैं, आप शाम को 6 बजे फ़ोन कीजिए।'' उसने अँगरेज़ी में पूछा कि मैं कौन बोल रही हूँ। मैंने कहा ''साहब हम आपकी अँगरेज़ी नहीं समझते हैं, हम यहाँ काम करते हैं चौका-बर्तन, आपको ज़रूरी है तो मैडम के मोबाइल पर बात कर लीजिए, नहीं तो शाम को फ़ोन कीजिए।'' उसने कहा ''सॉरी, आई डिस्टर्ब यू।'' मुझे बेहद हँसी आई कि ये कैसे अँगरेज़ पैदा हुए हैं देश में जो एक शब्द हिन्दी नहीं बोल सकते उनके सॉरी को कामवाली समझ रही होगी, उसे कैसे पता। कहना ही था तो ''क्षमा कीजिए'' या फिर ''ठीक है'' इतना तो बोल ही सकता था। अँगरेज़ी न समझने वाली के बताने पर भी वह अँगरेज़ी में ''सॉरी'' बोल रहा है।  
 
अँगरेज़ी जैसे हर भारतीयों की भाषा बन गई हो। फ़ोन करने वाला कैसे यह उम्मीद कर सकता है कि फ़ोन उठाने वाले को अँगरज़ी समझ आएगी ही? कम-से-कम दिल्ली और अन्य हिन्दी भाषी प्रदेश में रहने वाला हर कोई हिन्दी बोलना जानता है। मुमकिन है प्राइवेट और कॉरपोरेट सेक्टर में तहज़ीब का मतलब अँगरेज़ी बन चुका हो। फिर भी यहाँ अब भी ऐसे भारतीय हैं, जो कम-से-कम घर में तो हिन्दी बोलते हैं। आज की शिक्षा पद्धति अँगरेज़ी हो गई है; परन्तु हिन्दी को जड़ से कभी भी उखाड़ा नहीं जा सकता है।  

एक बार किसी बड़े रेस्तराँ में बच्चों के साथ खाना खाने गई, वेटर अँगरेज़ी में बोल रहा था। अमूमन हर रेस्तराँ में वेटर को अँगरेज़ी में बोलना होता है।मैं उससे हिन्दी में मेनू पूछ रही थी और वह अँगरेज़ी में जवाब दे रहा था।बेवज़ह कोई अँगरेज़ी बोलता है, तो मुझे बड़ा ग़ुस्सा आता है। मैंने उससे कहा क्या आप भरत से हैं या कहीं और से आए हैं? उसने अँगरेज़ी में कहा कि वह उत्तर प्रदेश से है। मैंने कहा कि फिर हिन्दी में जवाब क्यों नहीं दे रहे? उसने कहा ''सॉरी मैडम'' फिर आधी हिन्दी और आधी अँगरेज़ी में मुझे बताने लगा। मुझे उस पर नहीं ख़ुद पर ग़ुस्सा आया कि भारत जो अँगरेज़ी का ग़ुलाम  बन चुका है, मैं हिन्दी बोले जाने की उम्मीद क्यों रखती हूँ।  

एक बड़े प्रकाशक के पुस्तक विमोचन समारोह में गई, जहाँ बहुत सारी पुस्तकों का विमोचन होना था। इनमें एक कवयित्री जो पेशे से डॉक्टर थीं, के हिन्दी काव्य-संग्रह का विमोचन हुआ। पुस्तक के अनावरण के बाद उनसे कुछ कहने के लिए कहा गया। वे हिन्दी में कविता लिखती हैं, लेकिन अपना सारा वक्तव्य अँगरेज़ी में दिया। मुझे बेहद आश्चर्य व क्षोभ हुआ। बार-बार मेरे मन में आ रहा था कि उनसे इस बारे में कहूँ, पर मैंने कुछ कहा नहीं; परन्तु बेहद बुरा महसूस हुआ।  

हिन्दी को लेकर एक और मेरा निजी अनुभव है, जो मुझे अपने हिन्दी भाषी होने के कारण पीछे कर गया। विवाहोपरान्त मैं दिल्ली आई तो सोचा कि मैं पी-एच.डी. कर लूँ। शान्तिनिकेतन में श्यामली खस्तगीर एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं, जिनके मैं बहुत नज़दीक थी। उन्होंने लेडी इरविन कॉलेज में किसी से (शायद प्रिंसिपल) मिलने के लिए कहा और पत्र भी दिया। मैं जब मिली तो वे बहुत ख़ुश हुईं उन्होंने कहा कि यहाँ सारी पढ़ाई अँगरेज़ी माध्यम से होती है और शोध कार्य पूरी तरह अँगरेज़ी में करना होगा चूँकि मेरी समस्त शिक्षा हिन्दी माध्यम से हुई है, अतः बहुत मुश्किल हो सकता है। मैंने कहा कि शोध-कार्य तो अँगरेज़ी में लिख लूँगी लेकिन मौखिक परीक्षा (Viva) अँगरेज़ी में नहीं दे सकूँगी; क्योंकि मैं धारा प्रवाह अँगरेज़ी नहीं बोल सकती। अंततः मैंने भागलपुर विश्वविद्यालय से शोध-कार्य किया जहाँ मौखिक परीक्षा हिन्दी में हुई।  

अक्सर दिमाग में आता है कि आख़िर अँगरेज़ी की ग़ुलामी कब तक? क्या अब भी वक़्त नहीं आया कि अन्य देशों की भाँति हमारे देश की अपनी एक भाषा हो। अँगरेज़ी को महज़ अन्य विदेशी भाषा की तरह पढ़ाया जाए।निःसंदेह ऐसा होना बेहद कठिन होगा; लेकिन असम्भव नहीं। भारत सरकार निम्न 3 क़दम सख़्ती से उठाए, तो मुमकिन है हमारी हिन्दी देश की राज्य भाषा से राष्ट्र भाषा बन जाएगी और जन-जन तक लोकप्रिय हो जाएगी।  

1.  
देश के हर विद्यालय में हिन्दी भाषा को अनिवार्य कर दिया जाए सभी राज्य की अपनी भाषा को द्वितीय भाषा कर दिया जाए। अँगरेज़ी कोई पढ़ना चाहे तो एक विषय की तरह पढ़ सकता है।  

2.  
जब नर्सरी की पढ़ाई शुरू होती है, तब से यह नियम लागू किया जाए, ताकि पहले से जो बच्चे अँगरेज़ी पढ़ रहे हैं, वे अपनी पढ़ाई पुराने तरीक़े से ही पूरी करें। नए बच्चे जब शुरुआत ऐसे करेंगे, तो कहीं से कोई दिक्कत नहीं आएगी।  

3.
जिन विषयों की किताबें अँगरेज़ी में है, चाहे विज्ञान, मेडिकल, इंजिनीयरिंग, विधि या अन्य कोई भी विषय, सभी का हिन्दी अनुवाद करा दिया जाए। फिर रोज़गार में भी हिन्दी माध्यम वालों को कोई मुश्किल नहीं होगी।  

13 साल लगेंगे पूरी शिक्षा पद्धति को बदलने में; लेकिन इससे हमारे देश की अपनी भाषा होगी और अँगरेज़ी की ग़ुलामी से मुक्ति। हिन्दी भाषी लोगों को नौकरी में कितना अपमान सहना पड़ता है, यह मैंने कई बार देखा है। न सिर्फ़ नौकरी में बल्कि घर में भी सदैव अपमानित किया जाता है। हिन्दी और अँगरेज़ी के कारण देश दो वर्ग में बँट गया है। अमूमन हिन्दी माध्यम के स्कूल सरकारी स्कूल होते हैं, जहाँ ग़रीबों के बच्चे पढ़ते हैं और अँगरेज़ी माध्यम के स्कूल में अमीरों के बच्चे। आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी हमारे विचार, व्यवहार और संस्कार से अँगरेज़ी की ग़ुलामी ख़त्म नहीं हो रही है, यह बेहद अफ़सोसनाक है। हम भारतवासियों को अपनी हिन्दी पर गर्व होना चाहिए और हिन्दी के सम्मान के लिए हर सम्भव प्रयास करना चाहिए। आख़िर अँगरेज़ भाग गए तो अँगरेज़ी को क्यों नहीं भगा सकते।  

- जेन्नी शबनम (14.9.2017)  
(हिन्दी दिवस)
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Friday, July 21, 2017

57. ट्यूबलाइट फ्लॉप पर सलमान सुपरहिट


''मैं अपने यक़ीन से अपने भाई को भी वापस ले आऊँगा।'' वास्तविक जीवन में हमेशा जीतने वाला, कई विवादों में उलझा हुआ, बार-बार प्रेम में पड़ने वाला, लड़कियों का क्रश, लड़कों के लिए मसल्स मैन, फ़िल्म निर्माताओं के लिए पैसा कमाने की मशीन 'सलमान खान' ट्यूबलाइट में जब यह डाॅयलाग बोलता है, तब यक़ीन उसके चेहरे पर दिखाई देता है फ़िल्म फ्लॉप हुई है, मगर तेज़ी से बढ़ती उम्र के सलमान की यह फ़िल्म ग़ौर करने लायक़ है  

ट्यूबलाइट के रिलीज होने से पहले फ़िल्म प्रेमियों में हलचल थी।सलमान की लगभग सभी फ़िल्में हिट होती हैं, भले वे किसी भी भूमिका में हों। अमूमन उनका चरित्र संवेदनशील होता है और अगर मारधाड़ है, तो वह कहानी के अनुरूप आवश्यक होता है। उनकी सभी फ़िल्में दर्शकों के अनुकूल होती हैं और सपरिवार देखी जा सकती है। उनकी फ़िल्मों में न नंगापन होता है, न फूहड़पन। फ़िल्म में अगर आइटम सॉन्ग है, तो वह फूहड़ न लगकर मज़ेदार लगता है।  

ट्यूबलाइट के रिलीज होने के दिन फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने से ख़ुद को रोक न सकी। सुबह साढ़े नौ बजे का शो था; मुमकिन है इस कारण भीड़ बहुत नहीं थी, हॉल में कुछ सीटें ख़ाली थीं। सलमान के स्क्रीन पर आते ही हमेशा की तरह युवा दर्शकों ने ताली बजाये और ख़ुश होकर शोर भी किया। फ़िल्म आलोचक को पढ़ने से पता चला कि इस फ़िल्म को दर्शकों का उतना प्यार नहीं मिला, जितना सलमान खान के नाम से मिलता है। मैं कारण नहीं समझ पाई, इस फ़िल्म के पसन्द न किए जाने के पीछे की वज़ह क्या है। फ़िल्म का चित्रांकन, कहानी, पटकथा, लोकेशन, साज-सज्जा सभी बहुत आकर्षक और कहानी के अनुरूप है। कहानी बहुत छोटी है; लेकिन बेहद प्रभावशाली है। मैं सलमान के सभी फ़िल्मों में सबसे ऊपर का स्थान इस फ़िल्म को दूँगी; सलमान की भावनात्मक अदाकारी और मासूमियत के कारण।
 

ट्यूबलाइट युद्ध ड्रामा फ़िल्म है जिसे कबीर खान ने लिखा और निर्देशित किया है। इसमें एक भोले-भाले बच्चे लक्ष्मण सिंह बिष्ट (सलमान खान) की कहानी है, जो शारीरिक और भावनात्मक रूप से स्वस्थ है, लेकिन मंदबुद्धि है। कोई भी बात वह थोड़ी देर से समझता है और किसी भी चुनौती से घबरा जाता है, इसलिए सभी उसे ट्यूबलाइट कहते हैं। लक्ष्मण अपने भाई भरत (सुहेल खान) के साथ कुमाऊँ की एक शहरनुमा बस्ती जगतपुर में रहता है।वे अनाथ हैं अतः एक बुज़ुर्ग, जिन्हें वे बन्नी चाचा (ओम पुरी) कहते हैं, उनकी परवरिश करते हैं। कहानी में आज़ादी से पूर्व का भारत दिखाया गया है, जब गांधी जी लक्ष्मण के शहर आते हैं और लक्ष्मण उस समय स्कूल का विद्यार्थी है। गांधी जी द्वारा कही गई बात वह मन में बैठा लेता है कि ''यक़ीन रखने से सब कुछ होता है, ख़ुद पर यक़ीन हो तो चट्टान भी हिलाई जा सकती है और यह यक़ीन दिल में होता है।'' लक्ष्मण के यक़ीन को पहली बार बल तब मिलता है जब शहर में एक जादूगर (शाहरुख़ खान) आता है।जादू दिखाने के दौरान जादूगर लक्ष्मण से एक बोतल को दूर से हिलाने लिए कहता है। दर्शक इस बात पर ट्यूबलाइट कहकर लक्ष्मण का मज़ाक उड़ाते हैं। काफ़ी कोशिश के बाद बोतल हिल जाता है। यों यह जादूगर के हाथ की सफ़ाई है; लेकिन जादूगर कहता है कि उसने अपने यक़ीन की ताक़त से बोतल को हिलाया है। इसके बाद लक्ष्मण में आत्मविश्वास जागता है और कुछ भी कर सकने का यक़ीन उसमें प्रबल हो जाता है। उसकी आँखों में अपनी पहली सफलता पर विश्वास के आँसू आ जाते हैं और वह कहता है कि वह ट्यूबलाईट नहीं है। 

वर्ष 1962 में भारत-चीन के युद्ध की पृष्ठभूमि पर फ़िल्म की कहानी आगे बढ़ती है। भरत का चयन युद्ध में सैनिक के रूप में हो जाता है; परन्तु लक्ष्मण का नॉक-नी (knock knee) के कारण चयन नहीं हो पाता। लक्ष्मण का ख़ुद पर से यक़ीन न टूटे इसलिए भरत कहता है कि उसे जगतपुर का कप्तान बनाया गया है, जिसका काम है इलाक़े की हर ख़बर रखना और जानकारी देना। युद्ध छिड़ चुका है और भरत जंग में शामिल होने चला जाता है। एक चीनी बच्चा अपनी माँ के साथ जगतपुर में रहने के लिए आता है।लक्ष्मण सबको सचेत करने के लिए बताता है कि चीनी आ गए हैं। फिर उसे पता चलता है कि उस चीनी स्त्री के परदादा चीन से आकार भारत में बस गए थे, अतः वह भी सबकी तरह भारतीय है। पर बस्ती के लोग माँ-बेटे को परेशान करते हैं और लक्ष्मण उन्हें बचाता है; क्योंकि वह उस बच्चे से प्यार करने लगता है। गांधी जी की कही हुई बात पर उसे यक़ीन है कि ''अगर दिल में ज़रा भी नफ़रत रहेगी, तो तुम्हारे यक़ीन को खा जाएगी।''

युद्ध के दौरान भरत की मृत्यु की सूचना आती है; लेकिन लक्ष्मण को यक़ीन है कि युद्ध ख़त्म होगा और भाई लौटेगा। लक्ष्मण कहता है ''मैं अपने यक़ीन से अपने भाई को भी वापस ले आऊँगा।'' बन्नी चाचा से वह पूछता है कि और यक़ीन उसे कहाँ मिलेगा; क्योंकि भाई को लाने के लिए उसे बहुत यक़ीन चाहिए। बन्नी चाचा जानते हैं कि यक़ीन से कोई चमत्कार नहीं होता है। फिर भी मासूम लक्ष्मण का हौसला बढ़ाने के लिए कहते हैं ''गांधी जी के क़दमों पर चलो यक़ीन आएगा।'' गांधी जी के आदर्शों की फ़ेहरिस्त बनाकर बन्नी चाचा उसे देते हैं, ताकि उसका ख़ुद पर यक़ीन और बढ़ जाए। 
 
इसी बीच एक संयोग होता है। लक्ष्मण पूरे यक़ीन से एक चट्टान को खिसकाने की कोशिश करता है गांधी जी की बात को सच मानता है और उसे यक़ीन है कि वह चट्टान को खिसका देगा। उसके इस कोशिश के दौरान भूकम्प आ जाता है और ज़मीन-चट्टान सब काँपने लगते हैं। बस्ती वाले भी यक़ीन करने लगते हैं कि लक्ष्मण अपने यक़ीन से चट्टान को खिसका दिया है। किसी ग़लतफ़हमी के कारण भरत की मृत्यु की ग़लत सूचना आ गई थी।अब भरत वापस लौटता है। लक्ष्मण को पूर्ण विश्वास है कि उसके यक़ीन के कारण ही उसका भाई वापस लौटा है। 
 
आज जो परिस्थितियाँ हैं उसके सन्दर्भ में यह फिल्म प्रासंगिक है। भरत-चीन युद्ध के दौरान जिस तरह से सभी चीनी को सन्देह की दृष्टि से देखा जाता था, अब वही स्थिति पुनः बन गई है। कोई भी जो यहाँ जन्म लिया है वह भारतीय है, उस पर सन्देह नहीं करना चाहिए, चाहे वह किसी भी धर्म का हो; एक तरह से इस फ़िल्म का सन्देश यह भी है।  

हमारा समाज किसी फ़िल्म में क्या देखना चाहता है; इस विषय पर बहुत गम्भीर सोच और बहस की ज़रूरत है। फ़िल्म का हीरो कभी हार नहीं माने, दस-दस गुंडों से अकेले भीड़ जाए, तो दर्शक सीटी बजाते हैं। अगर वही हीरो विवश या असहाय दिखता है, तो आज का दर्शक उसे अस्वीकार कर देता है। भले हीरो के उस किरदार में भावुकता और संवेदनाएँ भरी हुई हों अथवा उस फ़िल्म की कहानी की माँग हो। आज के दर्शक हीरोइज्म में यक़ीन करते हैं और शारीरिक रूप से दबंग हीरो को देखने की चाह रखते हैं। मुमकिन है बजरंगी भाई जान की तरह इस फ़िल्म में सलमान चीन की सरहद पार कर जाते या चीनियों से युद्ध करके भाई को छुड़ाकर ले आते, तो शायद यह भी हिट फ़िल्मों में शुमार हो जाती।  

ट्यूबलाइट का फिल्मांकन बेजोड़ है, कलाकारों का अभिनय भी बहुत उम्दा है। सुहेल खान ने अपनी भूमिका बख़ूबी निभाई है। सलमान खान के चेहरे पर इतनी मासूमियत और सौम्यता है कि किसी का भी दिल जीत ले।भावुकता और भोलापन सलमान के अभिनय में कहीं से भी जबरन नहीं लगता, बल्कि सहज लगता है। सुहेल खान पहली बार इस फ़िल्म में मुझे अच्छे लगे हैं। सलमान और सुहेल असल ज़िन्दगी में भी भाई हैं, शायद इस कारण भाइयों के आपसी रिश्तों का दृश्य बहुत जानदार और भावुक बन गया है। शाहरुख खान ने अपनी छोटी-सी भूमिका में अच्छा प्रभाव छोड़ा है। ओमपुरी यों भी एक उम्दा अभिनेता हैं, चाहे जिस भी चरित्र में हों। चीनी माँ-बेटे का किरदार दोनों कलाकारों ने बहुत अच्छा निभाया है।
 

आजकल अच्छी और प्रेरक कहानियों पर फ़िल्में बन रही हैं और उसे दर्शकों से सराहना भी मिल रही है। साथ ही मारधाड़ की फ़िल्में भी ख़ूब नाम कमा रही हैं। इसलिए दर्शकों की नब्ज़ को पहचानना कई बार फ़िल्म निर्माता के लिए कठिन होता है। बहरहाल ट्यूबलाइट भले ही बॉक्स ऑफ़िस पर असफल कहलाए या सलमान के हिट फ़िल्मों में इसका नाम शामिल न हो, भले ही सफलता की दौड़ में सलमान खान एक बार हार गए हों, लेकिन सलमान के अभिनय के लिए निश्चित ही यह फ़िल्म याद रखी जाएगी। ट्यूबलाइट भले फ्लॉप हुई, पर सलमान सुपरहिट हैं    

- जेन्नी शबनम (17.7.2017)
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Saturday, July 1, 2017

56. बंदूक़-बंदूक़ का खेल

नक्सलवाद और मज़हबी आतंकवाद में बुनियादी फ़र्क उनकी मंशा और कार्यकलाप में है। हर आतंकवादी संगठन हिंसा के द्वारा आतंक फैलाकर सभी देशों की सरकार पर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता है इनकी माँग न तो सत्ता के लिए है, न बुनियादी ज़रूरतों के लिए नौजवानों को गुमराह कर विश्व में एक ही मज़हब का वर्चस्व स्थापित करना इनका उद्देश्य है मज़हबी आतंकवाद ने धीरे-धीरे पूरी दुनिया को अपने कब्ज़े में ले लिया है। 
 
नक्सलवाद इन आतंकी संगठनों से बिल्कुल विपरीत, बुनियादी माँगों के लिए अस्तित्व में आया लेकिन आज नक्सलवाद का रूप क्रूरता के सभी हदों को पार कर चुका है इनकी माँग निःसंदेह जायज़ है पर तरीक़ा अत्यन्त क्रूरतम साम्यवादी सोच का ज़रा भी अंश नहीं इनमें। लाल झंडा उठा लेने से या लाल सलाम और कॉमरेड कह देने से इन्हें साम्यवादी नहीं कह सकते

दाँव-पेंच हो या सत्ता की मज़बूरी, आज देश के हालात पर नियंत्रण सरकार के बूते से बाहर होती जा रही है। आम मध्यमवर्गीय जनता किसी तरह जीवन जी रही है। लेकिन ख़ास आदमी डरा रहता है, उसे सरकारी तंत्र के साथ भी चलना है और हिंसक गतिविधियों से भी बचाना है। निम्न वर्ग की जनता के पास कोई चारा नहीं है। मुख्य धारा से अलग कटे हुए आदिवासी प्रदेश के लोग अब इंसान नहीं रहे, एक ऐसे यांत्रिक मानव बन चुके हैं जिनके शरीर से चेतना निकालकर बंदूक़ जकड़ दी गई है, जिसका नियंत्रण नक्सलवादी सरगनाओं या नेताओं के हाथ में है; जब जहाँ चाहे इस्तेमाल में ले आते हैं। सच्चाई यह है कि ये बेज़ुबान पेट की भूख के लिए ज़िन्दगी दाँव पर लगा बैठे हैं।
बंदूक़ लेकर बंदूक़ से लड़ाई हो, तो बन्दूक़ नहीं ख़त्म होता, दोनों में से कोई एक ख़त्म होता है जो मरता है वह भी हमारा अपना है, चाहे वह सैनिक हो या नक्सलवादी। आज जब सैनिक मारे जाते हैं, तो पूरा देश सुरक्षा-तंत्र की ख़ामियाँ ढूँढता है। परन्तु हर दिन हज़ारों आदिवासी कभी भूख से मरते हैं, कभी नक्सली कहकर फ़र्जी मुठभेड़ में मार दिए जाते हैं, कभी संदिग्ध नक्सली कहकर निरपराध जेल में बंद कर दिए जाते हैं।

हत्या करना, सरकारी संपत्ति नष्ट करना, आतंक फैलाना आदि ही मुद्दा रह गया है इन नक्सलियों का। आख़िर क्यों ये मुख्य मुद्दा से दूर होकर सिर्फ़ हिंसा पर उतर आए हैं? आदिवासी क्षेत्रों से फैलते हुए सभी राज्यों में नक्सली अपना विस्तार कर रहे हैं। सरकारी शस्त्र को लूटकर अपनी शक्ति मज़बूत कर रहे हैं। आख़िर ये जंग किसके ख़िलाफ़ है? देश भी अपना सैनिक भी अपने, नक्सली भी इसी देश के वासी हैं। क्या सरकार ग्रीन हंट के द्वारा नक्सली आन्दोलन ख़त्म कर पाएगी? सैनिकों को युद्ध का प्रशिक्षण दिया जाएगा, ताकि नक्सलियों से लड़ें। क्या आदिवासियों की बुनियादी ज़रूरत नक्सलियों की मृत्यु का पर्याय है?

नक्सलियों की क्रूरता और हिंसा को कोई भी देशवासी उचित नहीं कह रहा है। परन्तु सोच कई खेमों में बँट चुकी है। नक्सली के दिशा परिवर्तन या आदिवासी के उत्थान की बात जो कहता है, उसे लाल झंडे के अन्दर मान लिया जाता है। लाल झंडा क्रान्ति की बात कहता है, न कि ख़ूनी-क्रान्ति का पक्षधर है या रहा है।

नक्सलवाद कोई एक दिन की उपज नहीं है, वर्षों की असंतुष्टि का प्रतिफल है जो हिंसा का क्रूरतम और आत्मघाती रूप ले चुका है नक्सलबाड़ी में जब यह शुरू हुआ, उस समय हथियार और हिंसा की लड़ाई नहीं थी, बल्कि अधिकार की लड़ाई थी। धीरे-धीरे स्थिति और भी बदतर होती गई। किसी भी नक्सली क्षेत्र की बात करें, तो वहाँ बुनियादी ज़रूरत भी पूरी नहीं होती है। सहनशक्ति तब तक रहती है जब इंसान ख़ुद भूखा रह जाए, लेकिन उसका बच्चा कम-से-कम भर पेट खाना खा ले। जब बच्चा भूख से दम तोड़ता है, तो हथियार के अलावा उन्हें कुछ नहीं सूझता। क्रूरतम अपराध भले है, लेकिन दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ तो हो जाता है। अब भी वक़्त है, उनकी ज़रूरत पूरी की जाए और उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा जाए तथा हर तरह का विकास हो। फिर कोई क्यों किसी की जान लेगा या देगा।
चित्र गूगल द्वारा
आख़िर क्या वज़ह है कि नक्सलवाद आदिवासी इलाक़ों में ही पनपते और जड़ जमाते हैं? आज़ादी के इतने सालों बाद तथा राज्य के बँटवारे के बाद भी आख़िरकार छत्तीसगढ़, ओड़िसा और झारखंड में विकास क्यों नहीं हुआ? विकास गर हुआ भी तो आदिवासी इससे वंचित क्यों हैं? नक्सलवाद को जायज़ कोई नहीं कहता है जैसे अन्य अपराध हैं, वैसे ही यह भी अपराध है ग़रीब आदिवासियों के लिए नक्सली बनना भी एक मज़बूरी हैनक्सली न बनें तो नक्सली मार देंगे, बन गए तो पुलिस से मारे जाएँगेज़िन्दगी तो दोनों हाल में दाँव पर लगी हुई है। आम आदमी कभी सरकार को या कभी नक्सली को दोषी कहकर पल्ला झाड़ लेता है, क्योंकि इस हिंसक लड़ाई में न तो नेता मरता है न कोई ख़ास आदमी यह तय है कि नक्सलियों की बुनियादी ज़रूरत जब पूरी होगी, तब ही उनमें प्रजातंत्र में विश्वास जागेगा और तब इस ख़ूनी क्रान्ति का ख़ात्मा सम्भव है। 

- जेन्नी शबनम (1.7.2017)
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