दिल्ली के 100 साल! नहीं-नहीं दिल्ली तो तब से है जब से पृथ्वी हैI जाने कितने युग-काल की साक्षी यहाँ की ज़मीन और आबो-हवा का अपना वजूद रहा हैI भले ही पहले यहाँ जंगल, पहाड़, खेत-खलिहान रहा हो या कोई अनजान बेनाम बस्ती रही होI नदी के किनारे आबादी बसती है, तो निःसंदेह यहाँ यमुना के किनारे आबादी रही होगीI कितनी संस्कृति बदली और नाम बदलाI महाभारत काल का इन्द्रप्रस्थ धीरे-धीरे बदलते-बदलते अंत में देहली और फिर दिल्ली में परिणत हुआI न जाने कितने बदलाव और बिखराव को देखा है दिल्ली नेI धीरे-धीरे बसी दिल्ली ने हम सभी को ख़ुद में समाहित कर लिया हैI भले ही हम किसी भी प्रदेश या भाषा के हों, सभी का स्वागत किया है दिल्ली नेI
पुरानी दिल्ली तो सदियों से वही हैI बाज़ार, मकान, इमारत, मन्दिर, मस्जिद, पीढ़ियों को हस्तांतरित नाम और पहचान के साथ बदलती हुई सुदृढ पुरानी दिल्लीI किसी एक या किसी ख़ास की नहीं रही है दिल्ली, विशेषकर नई दिल्लीI वक़्त-वक़्त पर कितने नाम बदले होंगे इसके, कितने राजघराने, कितने राजशाही और सत्ताधारी को देखा इसनेI घने जंगल कटे होंगे, कच्ची सड़कें पक्की हुई होंगी, राजमार्ग बने होंगे, यातायात के साधन बढ़े होंगे, ऐतिहासिक धरोहरें विकसित हुई होंगीI लोग बदलते गए और बढ़ते गएI दिल्ली भी अपनी निशानियों के साथ बदलती रही बढ़ती रहीI पर दिल्ली की मिट्टी जो अब ईंट-कंक्रीट में पूरी तरह बदल चुकी है, आज भी सभी के दिलों पर राज करती है और सभी को पनाह देती हैI आज भी दिल्ली में सुकून देने वाले उद्यान हैं, हरियाली है, प्रकृति की समस्त ऊर्जा हैI
दिल्ली दिलवालों का शहर है, दिल्ली सभी को अपना लेती है, अमीर हो या ग़रीब दिल्ली सभी की है, दिल्ली किसी की अपनी नहीं, दिल्ली की बेरुख़ी के चर्चे, लोगों की संगदिली के चर्चे, दिल्ली के ठग भी मशहूर हुए, दिल्ली की चकाचौंध, दिल्ली की रातें, दिल्ली की गर्मी, दिल्ली की ठण्ड आदि कितनी शोहरत और बदनामी का दाग़ लिए दिल्ली अपनी जगह क़ायम हैI जितने लोग सभी का अपना नज़रियाI कभी कोई यहाँ से हारकर गया, तो किसी ने दुनिया जीत लीI अब ये दिल्ली की क़िस्मत नहीं, दिल्लीवालों की तक़दीर है कि किसको क्या मिलाI
मेरे लिए दिल्ली आज भी उतनी ही प्रिय है जितनी बचपन में थीI 21 वर्ष से दिल्ली में हूँ, लेकिन आज भी मन में दिल्ली के लिए एक अनोखा एहसास रहता हैI ऐसा लगता है मानो दिल्ली कोई सुदूर देश का स्थान हो, जहाँ की दुनिया हमसे बहुत अलग और निराली हैI वह जगह जहाँ आज़ादी के बाद स्वतंत्र भारत का तिरंगा फहराया गया होगा, वह जगह जहाँ देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति रहते हैं, वह जगह जहाँ नागरिकों द्वारा चुने गए देश को चलाने वाले प्रतिनिधि रहते हैं, वह जगह जहाँ देश की राजधानी है, वह जगह जहाँ...I
मैं जब छोटी थी, तो दिल्ली के बारे में जाने क्या-क्या नहीं सोचती थीI मेरे पिता को घूमने और तस्वीर लेने का बहुत शौक़ थाI जब हम दोनों भाई-बहन छोटे थे, तो हमें दादी के पास छोड़ मेरी माँ को साथ लेकर वे देश के अधिकतर शहर घूम आएI जहाँ भी जाते ढेर सारी तस्वीरें लेतेI मेरे पिता को तस्वीर लेने के साथ उसे साफ़ करने का भी शौक़ थाI जब भी घूमकर आते तो अपनी ली गई तस्वीरों को साफ़ करतेI हम दोनों भाई-बहन बैठकर कौतूहल से रील को निगेटिव और फिर पॉजेटिव बनते हुए देखतेI सारी तस्वीरों पर वे जगह का नाम और तिथि लिखते थेI हमलोग दिल्ली का लाल किला, क़ुतुबमीनार, जंतर-मंतर, इंडिया गेट, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, गांधी समाधि इत्यादि की तस्वीर देखते और तरह-तरह के सवाल पूछतेI दिल्ली गेट, दरियागंज, गोलचा सिनेमा हॉल का नाम ख़ूब सुना थाI
पहली बार दिल्ली कब आई, यह याद नहींI वर्ष 1986 में पहली बार अपने होश में अपनी माँ के साथ मैं एन.ऍफ़.आई.डब्लू (NFIW) के राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में दिल्ली आई, जिसमें कई महान हस्तियों के साथ अमृता प्रीतम को भी देखीI मैं अमृता जी की फैन, पर उनके साथ तस्वीर खिंचवाने में भी हिचकती रही और वे अपना भाषण देकर चली गईंI भले मारग्रेट अल्वा के साथ फोटो खिंचवा ली; क्योंकि लड़कियाँ उनके साथ तस्वीर लेने में दिलचस्पी ले रही थीI कालान्तर में अमृता प्रीतम से मिली, तो उनकी अवस्था ऐसी अशक्त थी कि तस्वीर और बात करना तो दूर उनको देखकर ही आँखें भर आईंI दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कॉन्फ्रेंस था और उसके बाद हमलोग कुछ ख़ास जगह घूमने गएI ऐसा लगा जैसे किसी अनोखे शहर में आ गए होंI भाषा वही हिन्दी, परन्तु उच्चारण अलग, पहनावा वही जैसा हमलोग पहनते थे, खान-पान भी वहीI मैं इस अलग दुनिया को जीभरकर देख रही थी कि क्या-क्या है यहाँ, जो मेरी सोच से अलग हैI
1987 में हम लोग पुनः दिल्ली आएI मेरा भाई छात्रवृत्ति पढ़ाई करने अमेरिका जा रहा थाI मेरे पिता के मित्र श्री रामाचार्य गांधी समाधि के इंचार्ज थेI उनके घर पर हमलोग रुकेI पापा-मम्मी जब भी दिल्ली आते तो उनके घर पर रुकते थेI भाई को विदा करने के बाद दूसरे दिन हम लोग एन.ई.एक्सप्रेस जो सुबह 6 बजे चलती थी, से पटना के लिए चलेI दिल्ली स्टेशन पर गाड़ी खड़ी थी और हमारे दो सूटकेस चोरी हो गएI हमारा सारा सामान जिसमें मेरी माँ और मेरे कपड़े थे, चोरी चले गएI ट्रेन छोड़नी पड़ीI घंटो बाद रेल थाना में एफ.आई.आर. दर्ज हो पायाI फिर रामाचार्य चाचा ने कनाट प्लेस के खादी भण्डार से कपडे ख़रीदे, क्योंकि पहनने को भी कपड़े नहीं थेI दूसरे दिन हम लौट आए, पूरी ज़िन्दगी के लिए एक टीस साथ लिएI चोरी गए सामानों में मेरे पसन्दीदा कैसेट, सभी अच्छे कपड़े, कुछ किताबें तथा अन्य ज़रूरी सामान थेI पैसे की तंगी थी, तो दोबारा ये सब ख़रीदना मुमकिन न थाI उसके बाद से जब भी पहाडगंज जाती, तो ढूँढती कि शायद हमारा वह दोनों टूरिस्टर सूटकेस मिल जाएI
1988 में फिर दिल्ली आईI मेरे भाई ने मुझे ओहियो, अमेरिका पढ़ने के लिए बुलाया थाI लेकिन वीजा रिजेक्ट हो गया, क्योंकि मैं बालिग थी और मेरे नाम अपने देश में कोई संपत्ति नहीं थीI फिर 1989 में मेरी शादी तय हो गई उसके बाद अक्सर दिल्ली आना-जाना लगा रहाI जब-जब दिल्ली आती ख़ूब घूमतीI
1991 में शादी के बाद दिल्ली के बेर सराय में हम रहे, फिर मुनिरका, फिर सावित्री नगर (मालवीय नगर) के मकान नंबर 1 में किराए पर रहने लगेI शुरु में मकान-मालकिन को यक़ीन नहीं था कि हम शादीशुदा हैं, उनका कहना था कि हमलोग विद्यार्थी की तरह बहुत छोटे दिखते हैंI 1992 में मेरी नौकरी यूनिटेक लिमिटेड में हो गई, जिसका कार्यालय साकेत में थाI बस से आना जाना करती थी; क्योंकि ऑटो के लिए पैसे नहीं होते थेI बस में इतनी भीड़ कि खड़ा होना भी आफ़तI काम से तीस हज़ारी कोर्ट जाना होता थाI ऑफ़िस के चपरासी से मैं बस नंबर और रूट पूछकर बस से जाती थीI वह अक्सर कहता कि जब आपको ऑटो का किराया मिलता है, तो बस से क्यों जाती हैं? एक घटना के बाद ऑटो से अकेले जाने में मुझे डर लगता थाI
एक बार मैं अपने पति के साथ परिक्रमा होटल में रात का खाना खाने गईI वापसी में काफ़ी रात हो गईI बस मिली नहीं, एक ऑटो मिलाI जैसे मैं बैठी कि उसने ऑटो चला दिया, मैं चिल्लाने लगी रोकने के लिए और मेरे पति एक हाथ से ऑटो पकड़कर दौड़ने लगेI कुछ दूर जाकर उसने रोका, जहाँ करीब 20-25 की संख्या में ऑटो चालाक खड़े थेI वे सभी हमारे ऑटो के पास आ गएI संयोग से सामने से एक पुलिस वैन आ रही थी, जो भीड़ देखकर रुक गईI फिर हम पुलिस की गाड़ी से उस ऑटोवाले को लेकर पार्लियामेंट स्ट्रीट थाना गएI बाद में पुलिसवालों ने दूसरा ऑटो किया और रात को एक बजे हम घर पहुँचेI उस दिन से ऑटो पर जाने से डर लगने लगाI कहीं जाना हो बस में चली जाती, लेकिन ऑटो में नहींI
जिन दिनों मेट्रो और फ़्लाइओवर के लिए सड़कें खोदी जा रही थीं, लोग कहते कि सरकार दिल्ली में हर तरफ़ गड्ढे करवा रही है, दिल्ली की सड़कें गड्ढे में तब्दील हो रही हैI जब मेट्रो और फ़्लाइओवर बन गए, तब मैं उनसे कहती कि अब किसे फ़ायदा हो रहा है? क्या सरकार के मंत्री आ रहे इस मेट्रो में? या फिर फ़्लाइओवर पर सिर्फ नेता-मंत्री चलेंगे? आम जनता को बहुत सुविधा हुई है मेट्रो सेI कहीं भी जाना अब आसान लगता हैI मेट्रो, फ़्लाइओवर, सुन्दर बसें, मॉल, सिनेमा हॉल देखकर अच्छा लगता हैI सड़कें साफ़-सुथरी हैंI मॉल में सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक़ हैI अब तो ढेर सारे मॉल बन गए हैंI सिनेमा देखने लक्ष्मी नगर और गुड़गाँव तक चली जाती हूँI क्या करूँ दिल है कि मानता नहींI घर में ऊब जाओ तो अकेले भी मॉल में जाकर सिनेमा देखकर कुछ वक़्त बिताकर लौटने पर मन को अच्छा लगता हैI सरोजनी नगर, मालवीय नगर, ग्रीन पार्क आज भी मेरा पसन्दीदा बाज़ार हैI गौतम नगर और सावित्री नगर का वीर बाज़ार, साकेत का सोम बाज़ार अब भी लगता है; वहाँ से तरकारी व सामन अब भी मँगाती हूँI आदत है कि जाती नहींI
दिल्ली की भीड़ देखकर अब मन घबराता हैI दिन-ब-दिन भीड़ बढ़ती जा रही हैI आए दिन ट्रैफ़िक जामI कहीं जाना हो, तो जाम के लिए अलग से समय लेकर जाना होता हैI कभी-कभी लगता है कि यहाँ किसी को दूसरे की फ़िक्र नहीं हैI अगर अकेले हैं, तो यहाँ कोई नहीं पूछता कि अकेले क्यों हैं? अगर उदास हैं, तो कोई नहीं पूछता कि उदास क्यों हैं? कोई दुर्घटना हो जाए, तो भी शायद कोई नहीं देखे कि क्या हुआI सभी अपने-आप में व्यस्त, ख़ुद के लिए समय नहीं, दूसरे की परवाह कौन करेI कभी-कभी यह भी अच्छा लगता है जैसे चाहो रहो, कोई टोकता नहींI हर पहलू का अपना रंग, अपना मज़ाI
अब तो 21 साल हो गए दिल्ली को देखते-जानते-समझतेI कई बार दिल्ली अपनी-सी लगती है तो कई बार बेगानीI दिल्ली ने बहुत कुछ दिया है मुझेI सपने देखना भी सिखाया दिल्ली ने और टूटे सपनों के साथ जीना भीI आधी से ज़्यादा ज़िन्दगी यहीं बीत गईI हर सुख-दुःख की मेरी साथी रही है दिल्लीI उन दिनों भी दिल्ली ने हमारा साथ दिया, जब एक वक़्त का खाना भी मुश्किल था, और अब जब सब कुछ हैI सब कुछ दिल्ली का ही दिया हुआ हैI अब मुझे सबसे ज़्यादा मन यहीं लगता हैI दिल्ली दिल्ली है, सच है दिल्ली देश का दिल है और मेरा भीI
- जेन्नी शबनम (11.12.2011)
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