Sunday, December 11, 2011

32. दिल्ली के 100 साल

गूगल से साभार

दिल्ली के 100 साल! नहीं-नहीं दिल्ली तो तब से है जब से पृथ्वी हैI जाने कितने युग-काल की साक्षी यहाँ की ज़मीन और आबो-हवा का अपना वजूद रहा हैI भले ही पहले यहाँ जंगल, पहाड़, खेत-खलिहान रहा हो या कोई अनजान बेनाम बस्ती रही होI नदी के किनारे आबादी बसती है, तो निःसंदेह यहाँ यमुना के किनारे आबादी रही होगीI कितनी संस्कृति बदली और नाम बदलाI महाभारत काल का इन्द्रप्रस्थ धीरे-धीरे बदलते-बदलते अंत में देहली और फिर दिल्ली में परिणत हुआI न जाने कितने बदलाव और बिखराव को देखा है दिल्ली नेI धीरे-धीरे बसी दिल्ली ने हम सभी को ख़ुद में समाहित कर लिया हैI भले ही हम किसी भी प्रदेश या भाषा के हों, सभी का स्वागत किया है दिल्ली नेI 
 
पुरानी दिल्ली तो सदियों से वही हैI बाज़ार, मकान, इमारत, मन्दिर, मस्जिद, पीढ़ियों को हस्तांतरित नाम और पहचान के साथ बदलती हुई सुदृढ पुरानी दिल्लीI किसी एक या किसी ख़ास की नहीं रही है दिल्ली, विशेषकर नई दिल्लीI वक़्त-वक़्त पर कितने नाम बदले होंगे इसके, कितने राजघराने, कितने राजशाही और सत्ताधारी को देखा इसनेI घने जंगल कटे होंगे, कच्ची सड़कें पक्की हुई होंगी, राजमार्ग बने होंगे, यातायात के साधन बढ़े होंगे, ऐतिहासिक धरोहरें विकसित हुई होंगीI लोग बदलते गए और बढ़ते गएI दिल्ली भी अपनी निशानियों के साथ बदलती रही बढ़ती रहीI पर दिल्ली की मिट्टी जो अब ईंट-कंक्रीट में पूरी तरह बदल चुकी है, आज भी सभी के दिलों पर राज करती है और सभी को पनाह देती हैI आज भी दिल्ली में सुकून देने वाले उद्यान हैं, हरियाली है, प्रकृति की समस्त ऊर्जा हैI
 
दिल्ली दिलवालों का शहर है, दिल्ली सभी को अपना लेती है, अमीर हो या ग़रीब दिल्ली सभी की है, दिल्ली किसी की अपनी नहीं, दिल्ली की बेरुख़ी के चर्चे, लोगों की संगदिली के चर्चे, दिल्ली के ठग भी मशहूर हुए, दिल्ली की चकाचौंध, दिल्ली की रातें, दिल्ली की गर्मी, दिल्ली की ठण्ड आदि कितनी शोहरत और बदनामी का दाग़ लिए दिल्ली अपनी जगह क़ायम हैI जितने लोग सभी का अपना नज़रियाI कभी कोई यहाँ से हारकर गया, तो किसी ने दुनिया जीत लीI अब ये दिल्ली की क़िस्मत नहीं, दिल्लीवालों की तक़दीर है कि किसको क्या मिलाI  
 
मेरे लिए दिल्ली आज भी उतनी ही प्रिय है जितनी बचपन में थीI 21 वर्ष से दिल्ली में हूँ, लेकिन आज भी मन में दिल्ली के लिए एक अनोखा एहसास रहता हैI ऐसा लगता है मानो दिल्ली कोई सुदूर देश का स्थान हो, जहाँ की दुनिया हमसे बहुत अलग और निराली हैI वह जगह जहाँ आज़ादी के बाद स्वतंत्र भारत का तिरंगा फहराया गया होगा, वह जगह जहाँ देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति रहते हैं, वह जगह जहाँ नागरिकों द्वारा चुने गए देश को चलाने वाले प्रतिनिधि रहते हैं, वह जगह जहाँ देश की राजधानी है, वह जगह जहाँ...I
 
मैं जब छोटी थी, तो दिल्ली के बारे में जाने क्या-क्या नहीं सोचती थीI मेरे पिता को घूमने और तस्वीर लेने का बहुत शौक़ थाI जब हम दोनों भाई-बहन छोटे थे, तो हमें दादी के पास छोड़ मेरी माँ को साथ लेकर वे देश के अधिकतर शहर घूम आएI जहाँ भी जाते ढेर सारी तस्वीरें लेतेI मेरे पिता को तस्वीर लेने के साथ उसे साफ़ करने का भी शौक़ थाI जब भी घूमकर आते तो अपनी ली गई तस्वीरों को साफ़ करतेI हम दोनों भाई-बहन बैठकर कौतूहल से रील को निगेटिव और फिर पॉजेटिव बनते हुए देखतेI सारी तस्वीरों पर वे जगह का नाम और तिथि लिखते थेI हमलोग दिल्ली का लाल किला, क़ुतुबमीनार, जंतर-मंतर, इंडिया गेट, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, गांधी समाधि इत्यादि की तस्वीर देखते और तरह-तरह के सवाल पूछतेI दिल्ली गेट, दरियागंज, गोलचा सिनेमा हॉल का नाम ख़ूब सुना थाI
 
मेरे पुत्र द्वारा ली गई तस्वीर
 
पहली बार दिल्ली कब आई, यह याद नहींI वर्ष 1986 में पहली बार अपने होश में अपनी माँ के साथ मैं एन.ऍफ़.आई.डब्लू (NFIW) के राष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में दिल्ली आई, जिसमें कई महान हस्तियों के साथ अमृता प्रीतम को भी देखीI मैं अमृता जी की फैन, पर उनके साथ तस्वीर खिंचवाने में भी हिचकती रही और वे अपना भाषण देकर चली गईंI भले मारग्रेट अल्वा के साथ फोटो खिंचवा ली; क्योंकि लड़कियाँ उनके साथ तस्वीर लेने में दिलचस्पी ले रही थीI कालान्तर में अमृता प्रीतम से मिली, तो उनकी अवस्था ऐसी अशक्त थी कि तस्वीर और बात करना तो दूर उनको देखकर ही आँखें भर आईंI दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कॉन्फ्रेंस था और उसके बाद हमलोग कुछ ख़ास जगह घूमने गएI ऐसा लगा जैसे किसी अनोखे शहर में आ गए होंI भाषा वही हिन्दी, परन्तु उच्चारण अलग, पहनावा वही जैसा हमलोग पहनते थे, खान-पान भी वहीI मैं इस अलग दुनिया को जीभरकर देख रही थी कि क्या-क्या है यहाँ, जो मेरी सोच से अलग हैI  
 
1987 में हम लोग पुनः दिल्ली आएI मेरा भाई छात्रवृत्ति पढ़ाई करने अमेरिका जा रहा थाI मेरे पिता के मित्र श्री रामाचार्य गांधी समाधि के इंचार्ज थेI उनके घर पर हमलोग रुकेI पापा-मम्मी जब भी दिल्ली आते तो उनके घर पर रुकते थेI भाई को विदा करने के बाद दूसरे दिन हम लोग एन.ई.एक्सप्रेस जो सुबह 6 बजे चलती थी, से पटना के लिए चलेI दिल्ली स्टेशन पर गाड़ी खड़ी थी और हमारे दो सूटकेस चोरी हो गएI हमारा सारा सामान जिसमें मेरी माँ और मेरे कपड़े थे, चोरी चले गएI ट्रेन छोड़नी पड़ीI घंटो बाद रेल थाना में एफ.आई.आर. दर्ज हो पायाI फिर रामाचार्य चाचा ने कनाट प्लेस के खादी भण्डार से कपडे ख़रीदे, क्योंकि पहनने को भी कपड़े नहीं थेI दूसरे दिन हम लौट आए, पूरी ज़िन्दगी के लिए एक टीस साथ लिएI चोरी गए सामानों में मेरे पसन्दीदा कैसेट, सभी अच्छे कपड़े, कुछ किताबें तथा अन्य ज़रूरी सामान थेI पैसे की तंगी थी, तो दोबारा ये सब ख़रीदना मुमकिन न थाI उसके बाद से जब भी पहाडगंज जाती, तो ढूँढती कि शायद हमारा वह दोनों टूरिस्टर सूटकेस मिल जाएI  
 
1988 में फिर दिल्ली आईI मेरे भाई ने मुझे ओहियो, अमेरिका पढ़ने के लिए बुलाया थाI लेकिन वीजा रिजेक्ट हो गया, क्योंकि मैं बालिग थी और मेरे नाम अपने देश में कोई संपत्ति नहीं थीI फिर 1989 में मेरी शादी तय हो गई उसके बाद अक्सर दिल्ली आना-जाना लगा रहाI जब-जब दिल्ली आती ख़ूब घूमतीI  
 
1991 में शादी के बाद दिल्ली के बेर सराय में हम रहे, फिर मुनिरका, फिर सावित्री नगर (मालवीय नगर) के मकान नंबर 1 में किराए पर रहने लगेI शुरु में मकान-मालकिन को यक़ीन नहीं था कि हम शादीशुदा हैं, उनका कहना था कि हमलोग विद्यार्थी की तरह बहुत छोटे दिखते हैंI 1992 में मेरी नौकरी यूनिटेक लिमिटेड में हो गई, जिसका कार्यालय साकेत में थाI बस से आना जाना करती थी; क्योंकि ऑटो के लिए पैसे नहीं होते थेI बस में इतनी भीड़ कि खड़ा होना भी आफ़तI काम से तीस हज़ारी कोर्ट जाना होता थाI ऑफ़िस के चपरासी से मैं बस नंबर और रूट पूछकर बस से जाती थीI वह अक्सर कहता कि जब आपको ऑटो का किराया मिलता है, तो बस से क्यों जाती हैं? एक घटना के बाद ऑटो से अकेले जाने में मुझे डर लगता थाI  
 
एक बार मैं अपने पति के साथ परिक्रमा होटल में रात का खाना खाने गईI वापसी में काफ़ी रात हो गईI बस मिली नहीं, एक ऑटो मिलाI जैसे मैं बैठी कि उसने ऑटो चला दिया, मैं चिल्लाने लगी रोकने के लिए और मेरे पति एक हाथ से ऑटो पकड़कर दौड़ने लगेI कुछ दूर जाकर उसने रोका, जहाँ करीब 20-25 की संख्या में ऑटो चालाक खड़े थेI वे सभी हमारे ऑटो के पास आ गएI संयोग से सामने से एक पुलिस वैन आ रही थी, जो भीड़ देखकर रुक गईI फिर हम पुलिस की गाड़ी से उस ऑटोवाले को लेकर पार्लियामेंट स्ट्रीट थाना गएI बाद में पुलिसवालों ने दूसरा ऑटो किया और रात को एक बजे हम घर पहुँचेI उस दिन से ऑटो पर जाने से डर लगने लगाI कहीं जाना हो बस में चली जाती, लेकिन ऑटो में नहींI
 
मेरे पुत्र द्वरा ली गई तस्वीर
 
जिन दिनों मेट्रो और फ़्लाइओवर के लिए सड़कें खोदी जा रही थीं, लोग कहते कि सरकार दिल्ली में हर तरफ़ गड्ढे करवा रही है, दिल्ली की सड़कें गड्ढे में तब्दील हो रही हैI जब मेट्रो और फ़्लाइओवर बन गए, तब मैं उनसे कहती कि अब किसे फ़ायदा हो रहा है? क्या सरकार के मंत्री आ रहे इस मेट्रो में? या फिर फ़्लाइओवर पर सिर्फ नेता-मंत्री चलेंगे? आम जनता को बहुत सुविधा हुई है मेट्रो सेI कहीं भी जाना अब आसान लगता हैI मेट्रो, फ़्लाइओवर, सुन्दर बसें, मॉल, सिनेमा हॉल देखकर अच्छा लगता हैI सड़कें साफ़-सुथरी हैंI मॉल में सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक़ हैI अब तो ढेर सारे मॉल बन गए हैंI सिनेमा देखने लक्ष्मी नगर और गुड़गाँव तक चली जाती हूँI क्या करूँ दिल है कि मानता नहींI घर में ऊब जाओ तो अकेले भी मॉल में जाकर सिनेमा देखकर कुछ वक़्त बिताकर लौटने पर मन को अच्छा लगता हैI सरोजनी नगर, मालवीय नगर, ग्रीन पार्क आज भी मेरा पसन्दीदा बाज़ार हैI गौतम नगर और सावित्री नगर का वीर बाज़ार, साकेत का सोम बाज़ार अब भी लगता है; वहाँ से तरकारी व सामन अब भी मँगाती हूँI आदत है कि जाती नहींI   
मेरे पुत्र द्वरा ली गई तस्वीर
 
दिल्ली की भीड़ देखकर अब मन घबराता हैI दिन-ब-दिन भीड़ बढ़ती जा रही हैI आए दिन ट्रैफ़िक जामI कहीं जाना हो, तो जाम के लिए अलग से समय लेकर जाना होता हैI कभी-कभी लगता है कि यहाँ किसी को दूसरे की फ़िक्र नहीं हैI अगर अकेले हैं, तो यहाँ कोई नहीं पूछता कि अकेले क्यों हैं? अगर उदास हैं, तो कोई नहीं पूछता कि उदास क्यों हैं? कोई दुर्घटना हो जाए, तो भी शायद कोई नहीं देखे कि क्या हुआI सभी अपने-आप में व्यस्त, ख़ुद के लिए समय नहीं, दूसरे की परवाह कौन करेI कभी-कभी यह भी अच्छा लगता है जैसे चाहो रहो, कोई टोकता नहींI हर पहलू का अपना रंग, अपना मज़ाI
 
 
अब तो 21 साल हो गए दिल्ली को देखते-जानते-समझतेI कई बार दिल्ली अपनी-सी लगती है तो कई बार बेगानीI दिल्ली ने बहुत कुछ दिया है मुझेI सपने देखना भी सिखाया दिल्ली ने और टूटे सपनों के साथ जीना भीI आधी से ज़्यादा ज़िन्दगी यहीं बीत गईI हर सुख-दुःख की मेरी साथी रही है दिल्लीI उन दिनों भी दिल्ली ने हमारा साथ दिया, जब एक वक़्त का खाना भी मुश्किल था, और अब जब सब कुछ हैI सब कुछ दिल्ली का ही दिया हुआ हैI अब मुझे सबसे ज़्यादा मन यहीं लगता हैI दिल्ली दिल्ली है, सच है दिल्ली देश का दिल है और मेरा भीI

- जेन्नी शबनम (11.12.2011)
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Wednesday, November 16, 2011

31. कल सुनना मुझे

ज़िन्दगी जाने किन-किन राहों से गुज़री, कितने चौक-चौराहों पर ठिठकी, कभी पगडण्डी कभी कच्ची तो कभी सख़्त राहों से गुज़रीI ज़ेहन में न जाने कितनी यादें हैं, जो समय-समय पर हँसाती हैं, रुलाती हैं, तो कभी-कभी गुदगुदाती भी हैंI उम्र के हर पड़ाव पर जब भी पीछे मुड़कर देखती हूँ, तो ज़िन्दगी बहुत दूर नज़र आती हैI यों लगता है जैसे वह लड़की मैं नहीं हूँ, जिसके अतीत से मेरी यादें और मैं जुड़ी हूँI  
 
बिहार के भागलपुर के नया बाज़ार मोहल्ले में हमलोग किराए के जिस मकान में रहते थे, वह एक ज़मींदार का बहुत बड़ी कोठी है जो यमुना कोठी के नाम से प्रसिद्ध हैI उस मकान का पूरा प्रथम तल हमलोगों ने किराए पर लिया थाI ख़ूब बड़ा-बड़ा 4 छत, 6 कमरे, ख़ूब बड़ा बरामदाI बरामदे में लोहे के कई पाया (Pillar), जिसे पकड़कर गोल-गोल घूमना मेरा हर दिन का खेल थाI उस मकान के नीचे के हिस्से में अलग-अलग कई किराएदार थेI सभी से हमारे बहुत आत्मीय सम्बन्ध रहेI 
 
मुझे याद है जब मैं दो साल की थी एक किराएदार की शादी हुईI न जाने कैसे उस उम्र में हुई यह शादी मुझे अच्छी तरह याद है; जबकि सभी कहते हैं कि इस उम्र की बातें याद नहीं रहती हैंI जिनकी शादी हुई उनको मैं चाचा कहती थी और उनकी पत्नी मुझे इतनी अच्छी लगीं कि मैं उन्हें मम्मी कहने लगीI जब थोड़ी और बड़ी हुई तब उन्हें चाची जी कहने लगीI सरोज चाचा से बड़े वाले भाई को ताऊ जी और उनकी बड़ी बहन को बुआ जी कहती थीI बचपन में मुझे समझ नहीं था कि ये लोग मेरे सगे चाचा-चाची या ताऊ-बुआ नहीं हैंI स्कूल से आते ही पहले उनके घर जाती फिर अपने घरI छुट्टी के दिनों में उनके साथ ख़ूब खेलती थीI मिट्टी का छोटा चूल्हा, खाना बनाने के छोटे-छोटे बर्तन, छोलनी-कलछुल, चकला-बेलना, तावा, चिमटा, छोटा सूप (चावल साफ़ करने के लिए), छोटी बाल्टी आदि सभी कुछ मेरे पास थाI उन दिनों कोयला और गोइठा (गाय-भैंस के गोबर से बना उपला) को चूल्हा में जलाकर खाना बनाया जाता थाI मेरे छोटे चूल्हे में बिन्दु चाची ताव (चूल्हा जलाना) देती थींI फिर छोटे-छोटे पतीले में भात (चावल), दाल, तरकारी (सब्ज़ी) या कभी खिचड़ी बनाती थींI बड़ा मज़े का दिन होता थाI मेरे पिता रोज़ 12 बजे यूनिवर्सिटी जाते थे, मेरी माँ अक्सर सामाजिक कार्य से बाहर रहती थीं और मैं बिन्दु चाची के साथ ख़ूब खेलती थीI सभी बच्चे उनसे हिले-मिले थेI  
 
इस जन्मदिन के मौक़े पर बचपन का एक जन्मदिन याद आ रहा हैI यह तो याद नहीं कि उस समय मेरी उम्र क्या थी, शायद 5-6 वर्ष की रही होऊँगीI मेरे घर में जन्मदिन पर केक काटने का रिवाज नहीं था और न ही आज की तरह कोई पार्टी होती थीI चाहे मेरा जन्मदिन हो या मेरे भाई का, घर में बहुत बड़ा भोज होता था, जिसमें पिता के भागलपुर विश्वविद्यालय में कार्यरत सहकर्मी शिक्षक, कर्मचारी, विभागाध्यक्ष, मेरे माता-पिता के मित्र और स्थानीय रिश्तेदार आमंत्रित होते थेI पुलाव, दाल, तरकारी, खीर, दल-पूरी (दाल भरी हुई पूरी) बनती थीI दो फीट चौड़ी ख़ूब लम्बी-लम्बी चटाई ज़मीन पर बिछाई जाती थी, जिसे पटिया कहते हैंI उस पर पंक्तिबद्ध बैठकर सभी लोग खाना खाते थेI उपहार लाने की सभी को मनाही होती थी, फिर भी कुछ लोग उपहार ले ही आते थेI मुझे याद है ताऊ जी (किराएदार) ने एक खिलौना दिया, जो गोल लोहे का था और तार बाँधकर उसपर उसे चलाते थेI वह मुझे बड़ा प्रिय थाI मेरे भाई के जन्मदिन पर किसी ने घर बनाने का प्लास्टिक का अलग-अलग रंग और आकार का ईंट (Blocks) दिया था, जिससे घर बनाना बड़ा अच्छा लगता थाI अक्सर मैं अपने भाई के साथ घर बनाने का खेल खेलती थीI  
 
पिता के देहान्त के बाद भी जन्मदिन मनाती रही; लेकिन वह जश्न, धूमधाम और भोज का आयोजन बंद हो गयाI मेरे हर जन्मदिन पर मेरी दादी मेरे पापा को यादकर रोती थी, क्योंकि पिता की मृत्यु के बाद उतने पैसे नहीं थे और पापा के समय के सभी अपने भी बेगाने हो गए थेI दादी कहती थीं ''बउआ रहते तो कितना धूमधाम से जन्मदिन मनातेI'' मेरी दादी मेरे पापा को बउआ और मम्मी को दुल्हिन बुलाती थीI स्कूल और कॉलेज के दिनों में मेरी किसी से बहुत मित्रता नहीं थी, अतः कोई मित्र नहीं आती थीI स्कूल के दिनों में बहुत ख़ास कोई सिनेमा दिखाने पापा ले जाते थेI जब कॉलेज गई तो हमारे मकान मालिक की बहन के साथ ख़ूब सिनेमा देखती थी और बाद में सिनेमा देखना मेरा शौक़ बन गयाI अपने जन्मदिन पर मम्मी के साथ सिनेमा देखना जैसे मेरा नियम-सा बन गयाI दिन में सिनेमा देखती और रात के खाना पर मम्मी के स्कूल के कुछ सहकर्मी और मित्र आ जाते थेI और बस जन्मदिन ख़त्म!  
 
एक जन्मदिन (1986) पर मेरी एक ज़िद मुझे अब तक याद हैI हमारे पारिवारिक मित्र डॉ.पवन कुमार अग्रवाल, भागलपुर मेडिकल कॉलेज में प्रोफ़ेसर और सर्जन तथा मेरे पिता तुल्य थे, एक जन्मदिन पर उन्होंने एक कैसेट उपहारस्वरूप दियाI उन्होंने कहा कि जो भी गाना चाहिए वे रिकॉर्ड करवा देंगेI ''कितने पास कितने दूर'' फ़िल्म का एक गाना ''मेरे महबूब शायद आज कुछ नाराज़ हैं मुझसे'' मेरा प्रिय गाना था; लेकिन यह नहीं मालूम था कि यह किस फ़िल्म का गाना हैI कुछ गाना के साथ यह गाना भी मैंने उनसे कहा कि रिकॉर्ड करवा देंI चूकि फ़िल्म का नाम मालूम नहीं था, तो गाना ढूँढ पाना कठिन था, और मेरी ज़िद कि वह गाना चाहिए ही चाहिएI मैं शुरू की ज़िद्दी! अपने पिता के बाद एक मात्र वही थे जिनसे मैं बहुत सारी ज़िद करती और वे पूरी करते थे; क्योंकि अपनी बेटी की तरह मानते थे मुझेI ख़ैर वह गाना कई दिन के मशक्क़त के बाद उन्हें मिल पाया और मेरी ख़्वाहिश पूरी हुईI  
 
अब भी सिनेमा देखना मेरा सबसे प्रिय शौक़ हैI कई जन्मदिन ऐसा आया जब मेरे पति शहर से बाहर रहेI बच्चों के स्कूल जाने के बाद मैं अकेली सिनेमा देखने चली जाती थीI अपने लिए अपने पसन्द का उपहार ख़ुद ख़रीदना और ख़ुद को देना अब भी मुझे पसन्द हैI  
 
बचपन में मुझे हर जन्मदिन में और बड़े होने का उत्साह होता था, जैसे अब मेरे बच्चों को होता हैI लेकिन अब न उत्साह बचा न उमंगI ज़िन्दगी का सफ़र जारी है, जन्मदिन आता है चला जाता हैI कभी मैं अकेली अपना जन्मदिन मनाती हूँ, तो कभी पार्टी होती हैI 
 
आज भागलपुर में हूँI रात की पार्टी की तैयारी चल रही हैI संगीत की धुन सुनाई पड़ रही हैI काफ़ी सारे लोग आने वाले हैंI मेरी बेटी ख़ुशी ने सुबह से धमाल मचाया हुआ हैI बेटा सिद्धांत दिल्ली में है, कॉलेज खुले हैं, वह आ नहीं सकताI पति ने ख़ूब सारी तैयारी करा रखी हैI काफ़ी सारे लोगों ने फ़ोन पर बधाई दियाI मेरे भाई-भाभी जो इन दिनों हिन्दुस्तान से बाहर हैं, का फ़ोन आयाI मेरी माँ का फ़ोन आया, बोलते-बोलते रोने लगीं; क्योंकि वे भागलपुर में नहीं हैंI इन सबके बावजूद न जाने क्यों मन भारी-सा हैI जानती हूँ पार्टी है, हँसना-चहकना हैI यों पार्टी ख़ूब एन्जॉय भी करती हूँI लेकिन न जाने क्यों बचपन मेरा पीछा नहीं छोड़ता हैI क्यों बार-बार मन वहीं भागता है जहाँ की वापसी का रास्ता बंद हो जाता हैI बचपन की खीर-पूरी और भोज याद आ रहा हैI अब तो जन्मदिन मनाना औपचारिकता-सा लगता हैI कुछ फ़ोन, कुछ सन्देश बधाई के, और जवाब शुक्रिया...!

- जेन्नी शबनम (16.11.2011)
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Friday, November 11, 2011

30. तारीख़ों का तसव्वुर (11.11.11)

11.11.11 तारीख़ का पूरी दुनिया में हो रहा बेसब्री से इन्तिज़ार अब ख़त्म हुआI इस तरह की कोई तारीख़ आती है, तो जीवन में एक अलग-सा उत्साह नज़र आता हैI ऐसी ख़ास तिथियों को पढ़ना, बोलना और याद करना सहज लगता हैI दिन, महीना और साल के अंक तो वही रहते हैं 1-30/31, 1-12 और 1-100 सिर्फ़ सन् (ईस्वी) बदलता हैI हर एक पल एक बार गुज़रने के बाद जैसे वापस नहीं आता, वैसे ही एक बार आई हुई तिथि दोबारा नहीं आतीI पर इस तरह की तिथि जब आती है कुछ ख़ास होने का एहसास होता हैI साल में एक बार ही ऐसा दिन आता है जब दिन, महीना और साल का अंक एक ही होI पर ये भी सिर्फ़ 12 तक ही होना हैI पूरी एक सदी के बाद फिर से ऐसी तिथि दोहराई जाएगी, लेकिन सदी का अंक बदल जाएगाI मुझे याद है बचपन में जब ऐसी कोई तिथि आती थी, तो मन में एक अजीब-सा उमंग आ जाता थाI मन में सोचती थी कि ये तिथि दोबारा नहीं आएगी; यों कोई भी गुज़रा क्षण वापस नहीं आता

कोई ख़ास तिथि या कोई ख़ास दिन को हम अपने-अपने हिसाब से महत्वपूर्ण बना लेते हैंI नाम के लकी नंबर के हिसाब से बहुत से महत्वपूर्ण कार्य किए जाते हैं, जैसा कि ज्योतिषियों का परामर्श होता है कुछ ख़ास दिन निर्धारित किए जाते हैं जब कोई शुभ कार्य किया जाता है या नहीं किया जाता हैI कुछ ख़ास रंगों का प्रयोग वर्जित कर दिया जाता है, तो कुछ ख़ास रंग का प्रयोग दिन के हिसाब से तय किये जाते हैंI परन्तु यह सभी व्यक्तिगत सोच और आस्था के साथ चलती हैI इसे सिर्फ़ अंधविश्वास नहीं कह सकते, बल्कि कार्य की सफलता की उत्तम संभावना के लिए किया गया एक प्रयास भी कह सकते हैंI ऐसा होता है कि मान्यताएँ और विश्वास हममें आत्मविश्वास पैदा करती हैं, भले कार्य फलीभूत न हो, फिर भी एक संतुष्टि रहती है कि हर संभव प्रयास किया गयाI तिथियों का महत्व इसलिए और भी ज़्यादा है कि हर एक पल हमारा अपना इतिहास बन जाता हैI इस लिए ख़ास तिथि को किया गया ख़ास कार्य हमारे जीवन में यादगार बन जाए, बस इतनी सी बात हैI
मुझे याद है ऐसी ही एक ख़ास तिथि 1.1.2000 और उससे पहले का वक़्तI मेरे लिए यह मिलेनियम साल ख़ास महत्व रखता थाI उस साल मिलेनियम बेबी की चाह ने देश के सभी अस्पतालों में जैसे सैलाब-सा ला दिया थाI सभी अस्पताल, नर्सिंग होम और डॉक्टर पहले से बुक हो चुके थेI जिन बच्चों का जन्म 1.1.2000 से 10 दिन आगे पीछे होना था सभी माता-पिता चाहते थे कि उनके बच्चे का जन्म एक जनवरी को होI मैंने अपनी डॉक्टर से कहा कि मैं 1 जनवरी को अपने बच्चे को जन्म देना चाहती हूँ, जबकि उसका जन्म का दिन 6 या 7 तारीख निर्धारित थाI डॉक्टर ने कहा कि कई सारे कॉम्प्लीकेशंस मेरे साथ हैं, अतः ये रिस्क होगाI यों भी कोई एक ही बच्चा मिलेनियम बेबी कहलाएगा जो रात ठीक 12 बजे जन्म लेगा

31 दिसम्बर 1999 की रात एक ख़ास यादगार रात थी; क्योंकि हम दूसरी सदी में प्रवेश करने वाले थेI एक अनोखा उत्साह पूरी दुनिया में व्याप्त थाI मुझे दो सदी में अपनी उपस्थिति का एहसास बड़ा अच्छा लग रहा थाI वसन्त विहार का एक होटल, जो उन दिनों वसन्त कॉन्टिनेंटल कहलाता था, में बहुत बड़ा आयोजन हुआI मैं अपने परिवार के साथ वहाँ गईI भीड़ इतनी कि ख़ुद को सँभालना मुश्किल था और मेरे गर्भ का अन्तिम सप्ताह चल रहा थाI कई लोगों ने मना किया था कि वहाँ मैं न जाऊँI मैंने कहा कि जो होगा देखूँगी, कुछ हुआ तो हॉस्पिटल चल दूँगीI भीड़ में सभी एक दूसरे से अलग हो गए, मेरे साथ सिर्फ़ मेरी माँ रह गईंI उन दिनों मेरे पास फ़ोन नहीं था और न ही मैं पैसा लेकर चली थीI किसी तरह भीड़ में घुसकर रात का खाना खाया; क्योंकि मधुमेह के कारण खाना अतिआवश्यक थाI एक भी कार्यक्रम नहीं देख सकी; क्योंकि वहाँ तक भीड़ में पहुँचना किसी दुर्घटना का शिकार होना थाI अंत में किसी सज्जन से फ़ोन माँगकर अपने पति को फ़ोन किया और फिर हम घर वापस आ गएI थकावट के कारण 1.1.2000 को मुझे अस्पताल जाना पड़ाI डॉक्टर ने कहा कि अगर इतनी इच्छा है तो आज भी डेलिवरी की जा सकती है, लेकिन अगर 7 को हो तो बेहतर हैI सब कुछ ठीक-ठाक था, अतः मिलेनियम साल के पहले दिन की इच्छा को त्यागकर निर्धारित 7 जनवरी को बेटी का जन्म हुआI

आज का दिन 11.11.11 यों तो अब 100 साल के बाद आएगा, पर आज का दिन बाज़ार के लिए बहुत अच्छा साबित हो रहा हैI ज्योतिषियों ने कहा है कि आज के दिन गाड़ी-ज़मीन-मकान का क्रय, बच्चे का जन्म, कोई महत्वपूर्ण कार्य आदि शुभ हैI सुना है कि अदाकारा ऐश्वर्या रॉय के बच्चे का जन्म आज होगाI आज क्या-क्या ख़ास होता है, पता चल जाएगाI अक्सर सोचती हूँ कि प्रकृति का नियम है सब कुछ अपने तय वक़्त पर होनाI सभी तारीख़ और दिन अपने तय वक़्त पर आएगा और यह भी मानना चाहिए कि जब जो होता है अच्छे के लिए होता हैI आज की तिथि 11.11.11 के लिए सभी को शुभकामनाएँ, सभी के लिए आज का दिन ख़ास हो!

- जेन्नी शबनम (11.11.11)
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Tuesday, November 1, 2011

29. 'बोल' के बोल

''मारना जुर्म है तो पैदा करना क्यों नहीं?'' ''नाजायज़ बच्चा पैदा करना गुनाह है, तो जायज़ बच्चों की लम्बी क़तार जिसकी परवरिश नहीं कर सकते, गुनाह क्यों नहीं है?'' ये सवाल ऐसे हैं जिससे दुनिया के किसी भी मुल्क़ का विवेकशील इंसान जो ज़रा भी इंसानियत से इत्तेफ़ाक़ रखता है, के ज़ेहन में कौंध सकता है अगर नहीं कौंधता, तो शर्मनाक है इंसानियत के लिए, इंसानी क़ौम के लिए और मुल्क़ के लिए पाकिस्तानी फ़िल्म 'बोल' की नायिका जिसे हत्या के आरोप में फाँसी की सज़ा होती है, की आख़िरी ख़्वाहिश के मुताबिक़ मीडियावालों के सामने फाँसी से पहले कुछ कहना चाहती है, जबकि उसने किसी भी न्यायालय में अपनी ज़ुबान नहीं खोली और अपना गुनाह क़ुबूल किया है वह ये सवाल सिर्फ़ अपने देश के राष्ट्रपति से नहीं कर रही, बल्कि आम अवाम से कर रही है आख़िर क्यों सम्मान के नाम पर बेटियों को अनपढ़ रखा जाए और जानवरों-सी ज़िन्दगी जीने के लिए विवश किया जाए? ''जब औरत के सामने मर्द लाजवाब (निरुत्तर) हो जाता है तो हाथ उठाता है'', ये सिर्फ़ 'बोल' की नायिका का कथन नहीं, बल्कि अधिकतर मर्द की आदत है अपनी शक्ति दिखाकर स्त्री को अधीन में रखना पूरी दुनिया की स्त्रियों की नियति है और पुरुष का व्यभिचार! आख़िर कब तक सहन करे स्त्री?  
 
पुत्र मोह में बेटियाँ ज़्यादा हों, तो उन्हें जानवरों-सी ज़िन्दगी जीने पर विवश होना पड़ता है पुत्र अगर मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग हो, तो भी उसे स्वीकार किया जाता है परन्तु पुत्र अगर पुरुष न होकर स्त्री का गुण लेकर जन्मे, तो न सिर्फ़ समाज बल्कि घर में भी तिरस्कृत होता है 'बोल' की नायिका का भाई जिसमें स्त्री-गुण हैं, पिता द्वारा सदैव तिरस्कृत रहता है। यहाँ तक कि पिता उसे देखना भी बर्दाश्त नहीं करता, अतः माँ और बहनों का वह लाडला पिता के सामने कभी नहीं आता है समाज का एक कुरूप चरित्र है कि 'वैसे पुरुष' को पुरुष से ही बचना होता है; क्योंकि मौक़ा पाकर उसे हवस का शिकार बना लिया जाता है 
 
फ़िल्म 'बोल' की नायिका के भाई का बलात्कार होता है फिर नायिका के सामने ही उसका पिता अपने पुत्र की हत्या कर देता है समाज में किन्नर या हिजड़ों को सम्मान नहीं मिलता, जबकि किसी का भी स्त्री, पुरुष या हिजड़ा होना प्रकृति द्वारा प्रदत्त गुण है नायिका प्रतिशोध में कुछ नहीं कर पाती; क्योंकि उसकी माँ का वह ख़ाविंद है, वह अपने पिता से सिर्फ़ नफ़रत कर पाती है
एक तरफ़ पिता इसलिए शादी कर रहा है, ताकि अपने बेटे के क़त्ल को छुपाने के लिए रिश्वत के पैसे का इन्तिज़ाम कर सके और दूसरी तरफ़ उसकी शादी वेश्या से सिर्फ़ इसलिए हो रही है, क्योंकि बेटियाँ पैदा करने में उसे महारत हासिल है। कोठे पर लड़की की ज़रूरत होती है, लड़के की नहींI जिस दिन सबसे छुपकर एक कोठेवाली (वेश्या) से बाप शादी करता है उसी दिन उसकी दूसरे नंबर की बेटी अपनी माँ और बहनों के सहयोग से अपने प्रेमी से शादी करती है, जो अलग जाति का है शाम को बाप घर आता है, तो बड़ी बेटी (नायिका) जो अपने पति के घर से निष्कासित होकर मायके में रहती है, बताती है कि उसने बहन का विवाह करा दिया; क्योंकि वह नहीं चाहती कि उसकी बहन की ज़िन्दगी भी उसके जैसी हो बाप जो ख़ुद गुनाहगार है और दूसरी शादी करके आता है, बड़ी बेटी और बीवी को मारता है कि उसने छोटी बेटी का विवाह दूसरी जाति में क्यों कराया। बड़ी बेटी से नफ़रत करता पिता अब छोटी बेटी से भी नफ़रत करता है यों वह अपनी बीवी एवं सभी बेटियों से नफ़रत करता है  
 
नायिका के पिता की दूसरी बीवी जो वेश्या है, एक बेटी की माँ बनती है वह छुपकर बच्ची को उसके पिता के घर (नायिका के घर) पहुँचा देती है; अन्यथा उसे भी वेश्या बना दिया जाएगा कोई भी माँ अपनी बच्ची को वेश्या के रूप में सहन नहीं कर सकती पहली बीवी और बेटियाँ अवाक् हैं बाप के इस घिनौनी हरकत पर परन्तु उस बच्ची का क्या दोष, सभी उसे अपना लेती हैं वेश्यालय चलाने वाला गुण्डा बच्ची के गुम होने पर बाप को ढूँढने आता है, उधर बाप उस बच्ची की हत्या करने जाता हैI वह हत्या कर देना पसन्द करेगा, लेकिन अपनी बेटी का वेश्या होना नहीं। बच्ची की हत्या होने से नायिका बचा लेती है, लेकिन बाप को मार देती है; अगर नहीं मारती तो उस मासूम बच्ची को उसका ख़ूनी और क्रूर बाप मार देता अचानक हुए ऐसे आघात से नायिका स्तब्ध है, और ख़ुद को गुनहगार मानकर समर्पण कर देती है
फाँसी से पहले नायिका अपने परिवार से मिलती है, तो कहती है ''उतार फेंको बुर्क़ा'' और बहनों के सिर से बुर्क़ा खींचकर फेंक देती है जिस वक़्त मीडिया के सामने नायिका अपने गुनाह और ज़िन्दगी की कहानी सुनाती है, सभी का मन द्रवित हो जाता है एक महिला पत्रकार नायिका को अपने बाप के क़त्ल के लिए गुनहगार नहीं मानती और हर सम्भव कोशिश करती है कि किसी तरह नायिका की सज़ा माफ़ हो जाए लेकिन सरकारी महकमे की चाटुकारिता और असंवेदनशीलता के कारण राष्ट्रपति तक बात नहीं पहुँच पाती और नायिका को फाँसी हो जाती है  
 
नायिका के सभी सवाल अपनी जगह तटस्थ हैं जवाब की अपेक्षा हर पुरुष से, समाज से, धर्म के नुमाइंदे और सत्ता वर्ग से हैये सवाल पाकिस्तान की उस नायिका के चरित्र से निकल दुनिया की सभी स्त्रियों के ज़ेहन और ज़िन्दगी में दाख़िल होता है कि आख़िर कब तक स्त्रियाँ यों ज़िन्दगी जिएँगी? पुरुष के दंभ और स्त्री को उसकी औक़ात बताने वाला पुरुष कब अपनी औक़ात समझेगा? आख़िर कब तक स्त्रियाँ ग़ुलाम रहेंगी? चाहे वह बुर्क़ा की ग़ुलामी हो या पुरुष की ग़ुलामी या धर्म के नाम पर किया जाने वाला ज़ुल्म हो बोल की नायिका का सवाल दुनिया की हर औरत का सवाल है

- जेन्नी शबनम (अक्टूबर 28.10.2011)
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Saturday, August 27, 2011

28. अन्ना-अनशन-आन्दोलन

अन्ना हजारे का आन्दोलन अंततः ख़त्म हो गयाI सरकार कितने वक़्त में जन लोकपाल को अमली-जामा पहनाएगी, यह अपने तय वक़्त पर हम सबके सामने आएगाI पर इतना तो निश्चित है कि इस आन्दोलन में जनता की भागीदारी ने ये साबित कर दिया कि आज पूरा देश जिस तरह भ्रष्टाचार से त्रस्त और आहत है, इससे नज़ात पाने के लिए हर मुमकिन रूप इख़्तियार किया जा सकता हैI अन्ना के समर्थन में तमाम विपक्षी पार्टियाँ, कई सामाजिक संगठन और देश की पूरी जनता हैI इस पर दो मत नहीं कि भ्रष्टाचार को किसी भी क़ीमत पर ख़त्म करना चाहिएI सरकार, आम जनता, ख़ास जनता या विपक्षी पार्टियाँ सभी चाहते हैं कि देश से भ्रष्टाचार दूर हो और हमने जिस आज़ाद प्रगतिशील भारत का सपना देखा है, वह पूरा होI  
 
अन्ना हजारे के अनशन को सभी अपने-अपने तरीक़े से देख रहे हैंI मक़सद तो यही है कि भ्रष्टाचार दूर हो; लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या सिर्फ़ जन लोकपाल बिल से भ्रष्टाचार दूर हो जाएगा? अन्ना के अनशन के 10वें दिन मैं रामलीला मैदान गई यह देखने कि आम जनता पर इसका असर कैसा है और वे किस तरह इस आन्दोलन से ख़ुद को जोड़ते हैंI रामलीला मैदान में प्रवेश के लिए सामान्य जनता के लिए अलग पंक्तियाँ बनी थीI अपने पुत्र के साथ मैं एक पंक्ति में खड़ी हो गईI दूसरी पंक्ति जो साथ आगे बढ़ रही थी, कुछ लोग मेरी पंक्ति से निकलकर दौड़ते हुए दूसरी पंक्ति की क़तार में लग रहे थे; क्योंकि उन्हें लगा कि उसे पहले जाने दिया जाएगाI कुछ कार्यकर्ता उन लोगों को वहाँ से पकड़कर वापस उनकी पंक्ति में ला रहे थे, तब तक दूसरा दौड़ जा रहा थाI मज़ा आ रहा था देखकर; लेकिन मैं सोचने लगी कि जिस भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ यहाँ आन्दोलन हो रहा है, वहीं पहुँचने के लिए लोग अपना आचरण ग़लत कर रहे हैंI 'दिल्ली पुलिस' के नाम से प्रचलित ग़लत छवि को पुलिसवाले आज पूरी तरह साफ़ करने के मूड में दिख रहे थेI किसी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं, कोई झुँझलाहट नहीं, आवाज़ में तल्ख़ी नहीं, मुस्कुराते हुए वे सुरक्षा के लिए तैनात थेI स्कूल ड्रेस पहने स्कूली बच्चे, छात्र, युवा, दफ़्तर से काम के बाद लौटने वाले कर्मचारी या अधिकारी, हर तबक़े और उम्र के पुरुष और महिलाएँ, मज़दूर, रेड लाईट पर भीख माँगने वाले आदि भीड़ में शामिल दिखेI कहीं अफ़रा-तफ़री नहीं, पर लोगों में आक्रोश बहुत अधिक थाI  
 
मैदान में प्रवेश करते ही बदबू का भभका नाक में घुसाI बारिश के पानी से जहाँ-तहाँ पानी लगा थाI अन्ना-रसोई का मुफ़्त भोजन वितरण की अलग पंक्ति जो ख़त्म नहीं हो रही थीI मैदान में खाने की प्लेट, पानी का ग्लास, केले का छिलका बिखरा पड़ा थाI एक तरफ़ सफ़ाई कर्मचारी साफ़ करने में भिड़े थे, तो दूसरी तरफ़ लोग खा-पीकर जहाँ-तहाँ गंदगी फैला रहे थेI
 
अन्ना के मंच की तरफ़ बढ़ने पर 25-26 वर्षीय छोटे कद का एक नवयुवक दिखा, जिसने दोनों हाथों से एक बड़ा-सा काग़ज़ पकड़ा थाI मैं नज़दीक गई तो रुककर पढ़ने लगीI उसमें लिखे का अर्थ था कि सोनिया गाँधी जैसा चाहती हैं मनमोहन सिंह वैसा ही करते हैं भाषा बहुत ही अभद्र लिखी हुई थीI बहुत उत्साहित और जोश में वह पूछने लगा ''आंटी कैसा लगा? मैंने लिखा है, बहुत दिमाग़ लगाया फिर लिखा है, सही है न?'' मैंने उससे पूछा कि आप क्या करते हैं? उसने बताया कि वह गंगा राम अस्पताल में डॉक्टर हैI उसने फिर पूछा ''आंटी बताइए न ठीक लिखा है मैंने?'' मैंने पूछा कि ऐसा क्यों लिखा है? उसने कहा ''आंटी आपको एक चुटकुला सुनाऊँ?'' मैंने मुस्कुराकर हाँ में सिर हिलायाI उसने सुनाया कि एक हिन्दू एक मुस्लिम और एक सिख मरने के बाद स्वर्ग गएI वहाँ सबसे पूछा गया कि तुमने क्या-क्या किया, ज़िन्दगी कैसी कटी, आराम था न? हिन्दू ने बताया कि उसने पूजा-पाठ किया, तीर्थ यात्रा की और आनन्द से ज़िन्दगी जियाI मुस्लिम ने कहा कि उसने नमाज़ पढ़ा, रोज़ा रखा, मक्का गया, वह ख़ुश है उसने अपनी ज़िन्दगी बहुत आराम से जियाI सिख बोला ''कैसा आराम? आपने कैसी ज़िन्दगी दी मुझे? मुझे टॉफी बना दिया, नीचे से भी मरोड़ा जाता है ऊपर से भीI'' मैं समझ नहीं पाई कि इसमें चुटकुला क्या हैI मैंने उससे पूछा कि इसका अर्थ क्या हुआI उसने कहा कि मनमोहन सिंह है न! वह दोनों हाथ नचा-नचाकर बताने लगा कि जैसे टॉफी को दोनों तरफ़ से मरोड़कर बंद करते हैं वैसे ही (अर्थात सरदारों के बाल और दाढ़ी)I आश्चर्य हुआ एक डॉक्टर की भाषा और सोच पर; ये कैसा आन्दोलन कर रहे जिसमें प्रधानमंत्री के बारे में ऐसी भाषाI

आगे बढ़ने पर भीड़ बढ़ती जा रही थीI एक व्यक्ति चुपचाप एक चार्ट पेपर लेकर खड़ा था और जो भी सामने से गुज़रता उधर घूमकर उसे पढ़ाताI लिखा था- ''सावधान सावधान, अभी अभी हमें पता चला है कि पाकिस्तान के दो सूअर हमारे देश के किसी नाले में घूस गए हैं, बचकर रहना I उनके नाम हैं कपिल सिब्बल मनीष तिवारीI'' मैं अवाक् होकर उसे देखने लगीI पर उसके चेहरे पर कोई भाव नहींI बड़ा अजीब लगा कि ये कैसी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, व्यक्तिगत टिप्पणी वह भी इतना घटियाI
आगे बढ़ने पर रामदेव बाबा का बड़ा-सा बैनर दिखा, जिसपर उन्होंने कहा है कि काला धन वापस आएगा तो हमारे देश को क्या-क्या लाभ होगाI बाबा का आकलन और अनुमान देखकर आश्चर्य हुआI उस बैनर की तस्वीर हमने ले ली; जब काला धन वापस आ जाएगा, तो याद रहेगा कि बाबा के अनुमान के मुताबिक़ क्या-क्या हो पाया और क्या नहींI

धीरे-धीरे भीड़ में घुसते गए हमI बहुत बुरा हाल थाI मीडिया के मंच तक भी नहीं पहुँच पाए कि लगा कि अब बेदम हो जाएँगेI एक तरफ़ अन्ना के मंच पर बिहार के भोजपुरी फ़िल्म अभिनेता व गायक मनोज तिवारी का देश भक्ति गीत गूँज रहा था, तो दूसरी तरफ़ कुछ लोग नारा लगा रहे थे- ''सोनिया जिसकी मम्मी है, वह सरकार निकम्मी है'', ''मनमोहन जिसका ताऊ है, वह सरकार बिकाऊ हैI''

स्त्रियों से बात करती मैं
वहाँ से हम वापस हो गए, क्योंकि अन्ना के मंच तक पहुँचना असंभव थाI पंडाल में एक जगह कुछ ग्रामीण महिलाएँ बैठी दिखीं और साथ में गेरुआ वस्त्र पहने दाढ़ी वाले दो बाबाI वे जन लोकपाल बिल और इस आन्दोलन को कितना समझती हैं, ये जानने के लिए मैं उनसे बातें करने लगीI वे सभी 'भारतीय किसान यूनियन' सतना, मध्य प्रदेश से थेI एक गेरुआधारी का नाम लालमन कुशवाहा हैI मैं जिनसे बात कर रही थी, उनका नाम शान्ति कुशवाहा हैI शान्ति ने बताया कि किसान यूनियन के नेता ईश्वरचंद्र त्रिपाठी के साथ वे सभी आए हैंI मैंने पूछा कि यहाँ क्या हो रहा है, आप क्या करने आई हैं? शान्ति ने बताया कि हमलोग अन्ना का साथ देने के लिए आए हैं, भ्रष्टाचार दूर करने के लिएI मैंने पूछा कि आपके गाँव में भ्रष्टाचार है? तो दूसरी महिला जो शान्ति के बग़ल में बैठी थी, उत्तेजित होकर कहने लगी ''कहाँ नहीं है भ्रष्टाचार? सबको घूस देना पड़ता है तब कोई काम होता है, कहाँ से लाएँ हम पैसा?'' शान्ति से मैंने पूछा कि क्या आपको कभी घूस देना पड़ा है? उसने कहा ''नहीं हम तो नहीं दिए हैं लेकिन मुखिया और थाना में और अस्पताल में पैसा देना होता है तभी कोई काम होता हैI'' मैंने पूछा कि आपको यहाँ कोई दिक्क़त? कब से आए हैं आपलोग? उसने बताया कि ''आजे सुबह ही आए हैं, खाना भी मिला है और कोई दिक्क़त नहीं है, जब ईश्वरचंद्र जी कहेंगे तभी हमलोग यहाँ से जाएँगेI'' बग़लवाली महिला अपना बैज और कार्ड दिखाने लगी जिसपर मेंबर भारतीय किसान यूनियन लिखा थाI मैंने कहा कि जन लोकपाल बिल क्या है आपको मालूम है? वह बोली ''हम नहीं जानते नेता जी जानते हैं, वही हमलोग को लाए हैं, उनके साथ ही हम आए हैं अन्ना का साथ देनेI'' सच भी है ये ग्रामीण महिलाएँ लोकपाल बिल क्या जाने, बस इतना जानती हैं कि अन्ना का साथ देंगे तो देश से भ्रष्टाचार दूर होगाI अन्ना-आन्दोलन को सक्रिय सहयोग देने के लिए शुभकामना देकर हम पंडाल से बाहर आएI पंडाल में एक जगह ''यादव वंश का इतिहास'' नामक किताब की बिक्री हो रही थी, जिसकी मात्र 3 प्रति बच गई थीI बग़ल में बड़ा-बड़ा पोस्टर उसके इतिहास को बताने के लिए लगा थाI

सामने दो युवक मुस्कुराते हुए अपना बैनर लिए खड़े थेI मुझे देखकर वे नज़दीक आएI किसी के भी आने से वे नज़दीक जा रहे थे, ताकि बैनर पढ़ा जा सकेI मैं पढ़कर स्तब्ध रह गई ''HIV से ज्यादा खतरनाक है कपिल सिबल (सिब्बल)I'' मेरे बेटे ने फोटो लिया, तो उन दोनों ने पूरे जोश में आकर फोटो खिंचवायाI 

आन्दोलनकर्ता के साथ ही मुफ़्त खाना खाने वालों की भीड़ वैसी ही बनी हुई थीI केला लेने के लिए अलग एक लम्बी क़तार थी, कुछ लोग उनमें से एक बार लेने के बाद खाकर वहीं छिलका फेंक, दोबारा पंक्ति में लग जा रहे थेI सच है भूख हो, तो किसी का भी ईमान भ्रष्ट हो जाता है और कोई मौक़ा चूकने नहीं देता, भले वह भ्रष्टाचार के विरुद्ध बोलता हो या फिर भ्रष्टाचार से त्रस्त होI बाहर निकलने वाले गेट पर एक पोस्टर टँगा था जिसमें लिखा था ''संसद का घेराव करो, जल्दी चलो, जय भारत माता की'', ''अन्ना भूखा है, कुत्ते पार्टी करते हैंI''

अन्ना का अनशन भ्रष्टाचार के विरुद्ध है और हर बार वे हिंसा नहीं करने की गुज़ारिश करते हैंI इस आन्दोलन में शारीरिक हिंसा तो कहीं नहीं दिखी; परन्तु मानसिक और भाषाई हिंसा सभी जगह नज़र आ रही हैI सरकार की ग़लत नीतियाँ और उनके विरुद्ध आवाज़ उठाना हर नागरिक का अधिकार और कर्तव्य है; लेकिन व्यक्तिवादी गाली देना या अशिष्ट भाषा का प्रयोग करना कहीं से जायज़ नहींI निःसंदेह अन्ना के साथ पूरा देश है; क्योंकि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ पूरा देश हैI परन्तु अन्ना को क्या पता कि उनके समर्थक उन्हीं के आन्दोलन के पंडाल में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हुए ख़ुद अपना आचरण भ्रष्ट कर रहे हैंI गांधी और अन्ना को एक कहने वाले कभी गांधी को पढ़ लें, तो शायद अहिंसा, अनशन और आन्दोलन का अर्थ समझ जाएँगेI

- जेन्नी शबनम (27.8.2011)
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Saturday, August 20, 2011

27. कठपुतलियों वाली श्यामली दी

मैं और श्यामली दी (हमारी अन्तिम तस्वीर)

श्यामली दी हम सभी को छोड़कर चली गईं और इसके साथ ही गुरुदेव की सोच की एक और विरासत का अंत हुआ अभी एक महीने भी तो नहीं हुए, काग़ज़ों और रंगों से खेलती सबकी प्यारी श्यामली दी से मुझे मिले हुए समझ में नहीं आ रहा इस घटना को किस रूप में लूँ? मैं 20 सालों से दोबारा शान्तिनिकेतन जाने का सपना देख रही थी जब गई तो सभी से मिली और आने के दिन ही श्यामली दी को लकवा (paralysis) का अटैक आया अन्तिम दिनों में शायद मुझे उनसे मिलना था बस एक दिन पहले उनके साथ कॉफ़ी हाउस में बैठकर कॉफ़ी पी, उनके साथ दूकान गई जहाँ से उन्होंने मेरे लिए किताब लिए, और उनके साथ एक मित्र के घर बाउल का गाना सुनने और रात्रि भोजन के लिए गई, जहाँ उनकी बनाई ख़ास सब्ज़ी (चाचरी) भी थी  
 
अटैक से ठीक पहले वे मेरे और मेरे बेटे के लिए नाश्ते की तैयारी कर रही थीं आधा खाना बन चुका था, आधा वैसे ही कटा खुला रखा हुआ था मेरे पहुँचने तक सिर्फ़ उनके दाहिने हाथ और पैर पर असर हुआ था, चेहरा ठीक था और बोल पा रही थीं मेरे पहुँचने से पहले उन्होंने ख़ुद मनीषा को फ़ोन कर बताया कि उन्हें अटैक आया है और वह जल्दी आ जाए उन्होंने मंजु दी से जो संयोग से मेरे साथ उनसे मिलने आई थीं, अपना थैला मँगाकर उसमें रखे पैसे उन्हें दिए, जिसे मनीषा को देने के लिए कहा ताकि उनका इलाज़ उनके अपने पैसों से हो; किसी और की मदद लेना वे नहीं चाहती थीं जब हमलोग पहुँचे तो वे पूरे होश में थीं, उन्होंने बताया कि कैसे यह सब हुआ और बोलते-बोलते आवाज़ लड़खड़ाने लगी साँस लेने में उन्हें बहुत तकलीफ़ हो रही थी मंजु दी और मैंने बहुत कहा कि अस्पताल चलिए, लेकिन वे राज़ी नहीं थीं फिर उन्होंने कहा कि ठीक है डॉक्टर को बुला लोमंजु दी ने डॉक्टर को फ़ोन किया लेकिन डॉक्टर शान्तिनिकेतन में उपलब्ध नहीं थे तब तक मनीषा आ गई और फिर ज़िद कर हम सबने उन्हें गाड़ी से अस्पताल भेजा गाड़ी में बैठते हुए उनकी साँसे अटक रही थीं बहुत मुश्किल से उनको गाड़ी में बिठाया गया जाते-जाते भी मनीषा और मंजु दी से वे कहती रहीं कि मुझे ज़रूर से खाना खिला दे, जो कुछ भी वे बना पाई हैं इशारे से वे मुझे कह रही थीं कि घर जाकर खा लो बहुत कोशिश कर भी वे कुछ बोल नहीं पा रहीं थीं अस्पताल में प्राथमिक चिकित्सा किया गया और देखते-ही-देखते शरीर का समूचा दाहिना हिस्सा काम करना बंद कर दिया  

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उन्हें दुर्गापुर ले जाने का निर्णय लिया गया जब यह बात श्यामली दी को बताया गया, तो बहुत ज़ोर से चिल्लाने लगीं कि उन्हें शान्तिनिकेतन में ही रहना है कहीं बाहर नहीं जाना है; जबकि उनकी आवाज़ स्पष्ट नहीं थी, पर इशारे में भी वे यही कहती रहीं एक मित्र ने उनसे कहा कि आप फ़िक्र न करें सारा इंतिजाम हो जाएगा, तो और भी ग़ुस्सा हो गईं उन्हें शायद लगा कि अस्पताल में ख़र्च ज़्यादा होगा और किसी और का पैसा ख़र्च न हो, इसलिए इशारे में कहा कि मनीषा के पास पैसा है, किसी और से पैसा नहीं लेना मैंने और मंजु दी ने समझाया कि आपके ही पैसे से इलाज हो रहा है आप फ़िक्र न करें, तब वे शांत हुईं  
 
शान्तिनिकेतन प्रकृति, शिक्षा, कला, संस्कृति और विद्वता का केन्द्र है; परन्तु एक अच्छा अस्पताल नहीं है, जहाँ सामान्य बीमारी से अलग किसी गम्भीर बीमारी का इलाज किया जा सके एम्बुलेंस ऐसी स्थिति में नहीं कि उससे श्यामली दी को दुर्गापुर भेजा जा सके। वहाँ मेरी गाड़ी भी थी और मनीषा की भी; लेकिन आपातकालीन प्राथमिक चिकित्सा के बिना श्यामली दी को दुर्गापुर ले जाना सम्भव नहीं था। उन्हें साँस लेने में बहुत दिक्कत हो रही थी, लगातार ऑक्सीजन दिया जा रहा था दुर्गापुर से एम्बुलेंस चल चुका था इस बीच सत्य (श्यामली दी के एक मित्र) ने साथ जाने का फ़ैसला लिया, तो श्यामली दी के पैसे और झोला उन्हें दे दिया गया। इस बीच श्यामली दी के मित्र और शुभचिंतक जमा हो चुके थे और सभी बहुत दुःखी थे  

अभी एम्बुलेंस के आने में 2 घंटा और लगना था मनीषा ने कहा कि मैं श्यामली दी के घर जाकर खाना खा लूँ, तब तक वह भी सेमीनार में सम्मिलित होकर आ जाएगी खाना खाकर वापस आकर मैंने श्यामली दी को बता दिया कि उनके घर जाकर उनका बनाया खाना मैंने खा लिया है और अब आप चिन्ता न करें वे मुस्कुरा दीं और मुझे देखने लगीं उनकी आँखों में आँसू थे, शायद अपनी असमर्थता की पीड़ा पर बोलने की बहुत चेष्टा करती रहीं, लेकिन आवाज़ गले में अटक रही थी मैंने उन्हें दिलासा दिया कि आप शीघ्र स्वस्थ हो जाएँगी, आप दूसरे अस्पताल में चलिए कुछ नहीं बोली बस डबडबाई आँखों से देखती रहीं  

मनीषा से लगातार मैं संपर्क में थी, दुर्गापुर में उनके सिर का ऑपरेशन हुआ कोई सुधार तो नहीं, लेकिन स्थिर थीं और लगातार वेंटिलेटर पर रहींतब तक उनके पुत्र आनन्दा भी कनाडा से आ गए फिर उनको कोलकाता ले जाया गया; क्योंकि स्थिति दिन-ब-दिन बिगड़ रही थी। 18 जुलाई को अटैक आया था, तब से लगतार अस्पताल में उनका इलाज चलता रहा मनीषा कई बार जाकर उनको देख आई थी मनीषा के लिए श्यामली दी बहुत महत्व रखती हैं, उसके लिए जैसे सिर पर से साया उठ गया हो यों मनीषा के माता-पिता जीवित हैं; परन्तु मानसिक सम्बल सदैव श्यामली दी से मिलता था 15 अगस्त को श्यामली दी ने अन्तिम साँस ली 

श्यामली दी का पूरा नाम श्यामली खस्तगीर है वे एंटी न्यूक्लिअर एक्टिविस्ट के साथ-साथ लोक-कला-संस्कृति जिसमें पेपर क्राफ्ट, कठपुतली (पपेट), मूर्तिकला, चित्रकला आदि के प्रसार के लिए भी काम करती रहीं। वे समाज सेविका के साथ लेखिका, कलाकार, चित्रकार, शिल्पकार आदि कलाओं में निपुण एवं मर्मज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हैं अपने घर 'पलाश' जो शान्तिनिकेतन के पूर्वपल्ली में स्थित है, ग़रीब बच्चों को पढ़ाती थीं इस घर में सभी तरफ़ इनके पिता और इनकी कला के नमूने कुछ सहेजे कुछ बिखरे हुए देखे जा सकते हैं 
 
श्यामली दी के पिता श्री सुधीर खस्तगीर प्रसिद्ध शिल्पकार और चित्रकार थे, साथ ही गांधीवादी और समाजवादी विचारधारा के व्यक्ति थे शुरुआती दिनों में वे देहरादून के प्रसिद्ध दून स्कूल में 20 साल कला के शिक्षक रहेफिर लखनऊ के जी.सी.ए. कॉलेज में प्रिंसिपल रहे श्यामली दी की माँ बनारस के एक ब्राह्मण परिवार से थीं श्यामली दी के सिर से माँ का साया बचपन में उठ गया था उनका बचपन देहरादून में बीता बाद में शान्तिनिकेतन से उन्होंने कला की पढ़ाई की विश्वविद्यालय के चीना भवन के विभागाध्यक्ष के पुत्र 'तान ली', जो कनाडा के मशहूर आर्किटेक्ट हैं, से विवाह किया और कनाडा चली गईं वहाँ जाने के बाद वे भारत के साथ अमेरिका और कनाडा के शान्ति आन्दोलन से भी जुड़ गईं अमेरिका में इस आन्दोलन के कारण उनकी गिरफ़्तारी भी हुई कनाडा के वैभवशाली जीवन से जल्द ही ऊब गईं और अपने पति से अलग होकर वापस शान्तिनिकेतन आ गईं अपनी सोच और विचारधारा के कारण वे मेधा पटकर और बाबा आमटे जैसे सामाजिक कार्यकर्ता के सम्पर्क में आईं और साथ मिलकर काम करती रहीं 44 वर्षीय आनन्दा जो उनके एकमात्र पुत्र हैं, कनाडा में अपने परिवार के साथ रहते हैं  
शान्तिनिकेतन से 10 किलो मीटर दूर तिलुतिया गाँव में एक आश्रम को शयमाली दी ने अपनी मृत्यु के बाद दाह-संस्कार के लिए तय कर रखा हैउनके चाहने और जानने वाले देश-विदेश से आज यहाँ शान्तिनिकेतन में एकत्रित हो चुके हैं श्यामली दी का शरीर आज शान्तिनिकेतन में ज़मींदोज़ कर दिया गया और उसी जगह पर एक पेड़ लगाया गया, जैसा कि श्यामली दी की अन्तिम इच्छा थी  
शान्तिनिकेतन जैसे श्यामली दी के जिस्म का कोई हिस्सा हो, या वजूद का शान्तिनिकेतन से बाहर वे रहने का सोच भी नहीं सकती थीं अपनी पूरी ज़िन्दगी उन्होंने शान्तिनिकेतन को समर्पित कर दिया और आज ख़ामोशी से अपने चाहनेवालों को छोड़ सदा के लिए शान्तिनिकेतन में समाहित हो गईं 

- जेन्नी शबनम (16.8.2011)
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