इमरोज़ चले गए। आज वे अपनी अमृता से मिलेंगे। निश्चित ही जाते वक़्त वे बहुत ख़ुश रहे होंगे कि वे अपनी माझा के पास जा रहे हैं। यों वे दूर हुए ही कब थे! इमा के लिए उनकी माझा सदा साथ रही, जो अपने कमरे में बैठी नज़्म लिखती रहती है और उनके द्वारा बनाई चाय पीती रहती है।
इमरोज़ जी से कुछ कुछ सालों से मिलना नहीं हुआ। इधर वे लगातार अस्वस्थ रह रहे थे। एक दो बार फ़ोन पर बात हुई, लेकिन पहले की तरह बात नहीं कर पा रहे थे। एक दो मित्र ने मुझसे कहा था कि जब भी इमरोज़ जी से मिलने जाऊँ तो उन्हें भी साथ ले चलूँ। मैंने कह दिया था कि अब शायद उनसे कभी मिल नहीं पाऊँगी। जाने क्यों मुझे लगने लगा था कि मैं उनसे नहीं मिल पाऊँगी। आज अतीत की कितनी यादें एक साथ मेरी आँखों के सामने से गुज़र रही हैं।
अमृता जी को जब से मैंने पढ़ना शुरू किया, तब से वे मेरी प्रिय लेखिका रही हैं। उनकी लगभग सारी किताबें मैंने पढ़ी। अधिकतर किताबें मैं आज भी सहेज कर रखी हूँ। मुझे पता चला कि मेरे घर के नज़दीक उनका घर है। संयोग से 1998 में मुझे अमृता जी का फ़ोन नंबर मिला। मैंने फ़ोन किया तो इमरोज़ जी ने उठाया। मैंने मिलने की इच्छा जताई, तो उन्होंने कहा कि अमृता जी अभी बीमार हैं, कुछ दिन बाद मैं आऊँ। मैं अपने घर में व्यस्त हो गई। 2005 में एक दिन फिर मिलने की इच्छा जागी। मैंने फ़ोन किया तो इमरोज़ जी ने आने को कहा। मैं अपने बच्चों के साथ मिलने गई। गेट के भीतर ठीक सामने एक कमरा था, जो शायद गैरेज होगा, जिसमें अमृता प्रीतम की किताबें, चित्र व इमरोज़ जी की पेंटिंग थी। मैं अपलक निहारती रही, मानो ख़ज़ाना मेरे हाथ लगा हो। मैं बहुत रोमांचित महसूस कर रही थी।
इमरोज़ जी और मैं |
इमरोज़ जी ने दरवाज़ा खोला और मुझे गले से लगा लिया। हमें लेकर वे पहली मंजिल पर गए। मेरे बच्चों को दुलार किया। हम चाय पी रहे थे तभी आवाज़ आई- इमा-इमा। इमरोज़ जी तेज़ी से एक कमरे की तरफ़ गए। फिर लौटे और कहा कि अमृता को खिलाना है, अभी आता हूँ। उनकी बहु ने कटोरे में कुछ दिया, जिसे लेकर वे खिलाने गए। वापस आकर उन्होंने कहा कि अमृता बहुत बीमार है। फिर मुझे लेकर सामने वाले कमरे में गए, जहाँ अशक्त अमृता लेटी हुईं थीं। अमृता जी को देखा तो मेरी आँखें भर आईं।
1986 में अमृता प्रीतम को पहली बार मैंने देखा था, जब नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमेन के कॉन्फ़्रेंस में वे आई थीं। जितना ख़ूबसूरत व्यक्तित्व, उतना ही शानदार वक्तव्य। मैं अपलक उनको देखती-सुनती रह गई। उनके साथ फ़ोटो खिंचवाना भी याद न रहा। वही ओजस्वी अमृता आज सिकुड़ी-सिमटी हुई असमर्थ बिस्तर पर लेटी हैं। ख़ुद से करवट भी बदल नहीं पा रही थीं। इमरोज़ जी ने उनके सिर पर हाथ फेरा, जैसे किसी बच्चे को पुचकारते हैं।
इमरोज़ जी ने पूरा घर घुमाया, फोटो व पेंटिंग दिखाई, कुछ फोटो से जुड़ी कहानी सुनाई। अमृता से उनकी मुलाक़ात और साथ बीती ज़िन्दगी की कहानी सुनाई। मेरे बताने पर कि मैं कविता लिखती हूँ, वे बहुत ख़ुश हुए और कहा कि जब भी दोबारा आऊँ तो अपनी कविताएँ लेकर आऊँ।
1986 में अमृता प्रीतम को पहली बार मैंने देखा था, जब नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वुमेन के कॉन्फ़्रेंस में वे आई थीं। जितना ख़ूबसूरत व्यक्तित्व, उतना ही शानदार वक्तव्य। मैं अपलक उनको देखती-सुनती रह गई। उनके साथ फ़ोटो खिंचवाना भी याद न रहा। वही ओजस्वी अमृता आज सिकुड़ी-सिमटी हुई असमर्थ बिस्तर पर लेटी हैं। ख़ुद से करवट भी बदल नहीं पा रही थीं। इमरोज़ जी ने उनके सिर पर हाथ फेरा, जैसे किसी बच्चे को पुचकारते हैं।
इमरोज़ जी ने पूरा घर घुमाया, फोटो व पेंटिंग दिखाई, कुछ फोटो से जुड़ी कहानी सुनाई। अमृता से उनकी मुलाक़ात और साथ बीती ज़िन्दगी की कहानी सुनाई। मेरे बताने पर कि मैं कविता लिखती हूँ, वे बहुत ख़ुश हुए और कहा कि जब भी दोबारा आऊँ तो अपनी कविताएँ लेकर आऊँ।
दुबारा उनसे मिलने गई तब अमृता जी का देहान्त हो चुका था। वे मुझे उसी तरह गले मिले और ऊपर ले गए। जाड़े का दिन था, तो हम छत पर बैठे। फिर चाय पीते हुए बातचीत होती रही। बीच में वे ऊपर की छत पर कबूतर को दाना डालने भी गए। मुझसे मेरी कविताएँ सुनी। मेरी किताब के बारे में पूछा। मैंने कहा- “मैं कविता लिखती हूँ यह किसी को नहीं पता है। मुझे झिझक होती है बताने में कि मैं लिखती हूँ। पता नहीं कैसा लिखती हूँ।” वे मुस्कुराए और कहने लगे- ''तुम जो भी लिखती हो जैसा भी लिखती हो मानो कि अच्छा लिखती हो। कोई क्या सोचेगा, यह मत सोचो। अपनी किताब छपवाओ।” यह सुनकर मुझमें जैसे साहस आया। उसके बाद अपनी कविताओं को मैं बेहिचक सार्वजनिक करने लगी।
मैं अक्सर इमरोज़ जी से मिलने जाती थी। कभी फ़ोन पर बात हो जाती। जब भी जाती 2-3 घंटे बैठती और इमरोज़ जी चाय बनाकर पिलाते। वे अपनी नज़्में सुनाते। उनमें गज़ब की ऊर्जा, स्फूर्ति, तेज़ और शालीनता थी। उन्होंने अपनी किताब, कैलेण्डर और कुछ अनछपी कविताएँ भी दीं। मैं कोई-न-कोई उनके क़िस्से उनसे पूछती रहती। वे सहज रूप से सारे क़िस्से सुनाते। किसी भी सवाल पर वे बुरा नहीं मानते थे, भले कितना ही निजी सवाल पूछूँ। कुछ कवयित्री उन्हें हिन्दी में लिखी हुई रचनाएँ भेजती थीं, वे मुझसे कहते कि पढ़ दो। वे पंजाबी और उर्दू लिखना पढ़ना जानते थे, हिन्दी नहीं।
जब तक वे हौज़ ख़ास वाले घर में रहे, मैं अक्सर चली जाती थी। एक सुकून-सा मिलता था उनसे बातें करके। जब वे ग्रेटर कैलाश के मकान में चले गए, तब भी गई। नया घर भी बहुत क़रीने से था, जहाँ अमृता उनके साथ जी रही थीं।
इमरोज़ जी के लिए मेरे जैसी हज़ारों प्रशंसक है; परन्तु मेरे लिए इमरोज़ जी जैसा कोई नहीं। मुझमें साहस व हिम्मत उनके कारण आया, जिससे मैं अपनी लेखनी को सार्वजनिक कर सकी। इमरोज़ जी के साथ मेरी ढेरों यादें हैं। विगत 2 साल से मैं मिलने का प्रयास कर रही थी, लेकिन उनके अस्वस्थ होने के कारण मिल न सकी। इस वर्ष भी उनके जन्मदिन 26 जनवरी को फ़ोन पर बात न हो सकी। अब न कभी मुलाक़ात होगी न बात होगी।
मैं अक्सर इमरोज़ जी से मिलने जाती थी। कभी फ़ोन पर बात हो जाती। जब भी जाती 2-3 घंटे बैठती और इमरोज़ जी चाय बनाकर पिलाते। वे अपनी नज़्में सुनाते। उनमें गज़ब की ऊर्जा, स्फूर्ति, तेज़ और शालीनता थी। उन्होंने अपनी किताब, कैलेण्डर और कुछ अनछपी कविताएँ भी दीं। मैं कोई-न-कोई उनके क़िस्से उनसे पूछती रहती। वे सहज रूप से सारे क़िस्से सुनाते। किसी भी सवाल पर वे बुरा नहीं मानते थे, भले कितना ही निजी सवाल पूछूँ। कुछ कवयित्री उन्हें हिन्दी में लिखी हुई रचनाएँ भेजती थीं, वे मुझसे कहते कि पढ़ दो। वे पंजाबी और उर्दू लिखना पढ़ना जानते थे, हिन्दी नहीं।
इमरोज़ जी और मैं |
एक दिन मैं उनके घर जा रही थी, तो वे बोले कि अमुक जगह रुको मैं आ रहा हूँ। वे आए और बोले कि पास में बाज़ार है, वहाँ चलो कॉफ़ी पिएँगे। हम लोग पास ही एस.डी.ए. मार्केट में गए कॉफ़ी पीने। कॉफ़ी के साथ मेरी कविता और अमृता की बातें होती रहीं। अमृता जी की बेटी का घर पास में ही है, जहाँ वे बाद में चले गए।
जब भी मिली उन्हें कभी नाख़ुश नहीं देखा। हर परिस्थिति में वे मुस्कुराते रहते, जैसे मुस्कराहट का मौसम उनपर आकर ठहर गया हो। यहाँ तक कि जब ग्रीन पार्क का घर बिक गया, तो मैं बहुत दुःखी थी। मैंने उनसे पूछा कि आपने क्यों नहीं रोका मकान बेचने से, आपको बहुत दुःख हुआ होगा। वे मुस्कुराने लगे। मुझे लगा कि अपने मन की पीड़ा वे बताते नहीं हैं, अपनी मुस्कराहट में सब छुपा जाते हैं।
जब तक वे हौज़ ख़ास वाले घर में रहे, मैं अक्सर चली जाती थी। एक सुकून-सा मिलता था उनसे बातें करके। जब वे ग्रेटर कैलाश के मकान में चले गए, तब भी गई। नया घर भी बहुत क़रीने से था, जहाँ अमृता उनके साथ जी रही थीं।
आईने में हमारी छवि - इमरोज़ जी और मैं |
मेरी किताब अब तक छपी न थी। 2013 में एक दिन इमरोज़ जी का फ़ोन आया। उन्होंने एक नंबर देकर कहा कि यह प्रकाशक है, इससे बात करो और किताब छपवाओ। संयोग से प्रकाशक को मैं पहले से जानती थी। मैंने बताया कि मैं इन्हें जानती हूँ और इनसे ही मेरी पहली किताब छपेगी। किन्हीं कारणों से मेरी किताब छपने में बहुत देर हुई। मेरी इच्छा थी कि इमरोज़ जी की पेंटिंग मेरी किताब का आवरण चित्र हो। लेकिन जब किताब छपने का समय आया तो इमरोज़ जी दिल्ली से बाहर थे। बिना उनकी अनुमति के मैं चित्र का उपयोग नहीं कर सकती थी; हालाँकि मेरे पास उनकी पेंटिंग थी। किताब छपी, इमरोज़ जी को बताया। बहुत ख़ुश थे वे। परन्तु ऐसा संयोग रहा कि मैं अपनी किताब के साथ उनसे मिल न सकी।
इमरोज़ जी के लिए मेरे जैसी हज़ारों प्रशंसक है; परन्तु मेरे लिए इमरोज़ जी जैसा कोई नहीं। मुझमें साहस व हिम्मत उनके कारण आया, जिससे मैं अपनी लेखनी को सार्वजनिक कर सकी। इमरोज़ जी के साथ मेरी ढेरों यादें हैं। विगत 2 साल से मैं मिलने का प्रयास कर रही थी, लेकिन उनके अस्वस्थ होने के कारण मिल न सकी। इस वर्ष भी उनके जन्मदिन 26 जनवरी को फ़ोन पर बात न हो सकी। अब न कभी मुलाक़ात होगी न बात होगी।
इमरोज़ चले गए। पर वे अकेले नहीं गए, अमृता को साथ ले गए। जब तक इमरोज़ रहे, अमृता को जीवित रखा। कहते हैं कि शरीर मृत्यु के बाद पंचतत्व में मिल जाता है, लेकिन आत्मा नहीं मिटती। शायद अमृता-इमरोज़ की रूहें फिर से मिली होंगी। मुमकिन है कोई और दुनिया हो, जहाँ रूहें रहा करती हैं। उस संसार में अमृता-इमरोज़ अपनी-अपनी कलाओं में व्यस्त होंगे। इमा-माझा साथ-साथ चाय पिएँगे और अपने-अपने क़िस्से सुनाएँगे।
प्रेम के बारे में बहुत पढ़ा-सुना; लेकिन प्रेम क्या होता है, यह मैंने इमरोज़ जी से जाना, समझा और देखा। इमरोज़ का प्रेम ऐसा है, जिसमें न कोई कामना है, न कोई अपेक्षा। इमरोज़ का अस्तित्व ही प्रेम है। इमरोज़ प्रेम के पर्याय हैं। इमरोज़-सा न कोई हुआ है न होगा।
- जेन्नी शबनम (22.12.2023)
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