Monday, November 16, 2015

54. यमुना कोठी की जेन्नी (पहला भाग)


मेरी माँ, मैं, मेरा भाई
यादों के बक्से में रेत-से सपने हैं, जो उड़-उड़कर अदृश्य हो जाते हैं और फिर भस्म होता है मेरा मैं, जो भाप की तरह शनै-शनै मुझे पिघलाता रहा है। न जाने खोने-पाने का यह कैसा सिलसिला है, जो साँसों की तरह अनवरत मेरे साथ चलता है। टुकड़ों में मिला प्रेम और ख़ुद के ख़िलाफ़ मेरी अपनी शिकायतों की गठरी मेरे पास रहती है, जो मुझे सम्बल देती रही है। रिश्तों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त है मेरे पास, जिसमें अपने-पराये का भेद मेरे समझ से परे है। ज़ेहन में अनकहे क़िस्सों का एक पिटारा है, जो किसी के सुने जाने की प्रतीक्षा में रह-रहकर मन के दरवाज़े पर आ खड़ा होता है।

सोचती हूँ कैसे तय किया मैंने ज़िन्दगी का इतना लम्बा सफ़र, एक-एक पल गिनते-गिनते जीते-जीते पूरे पचास साल। कभी-कभी यों महसूस होता है मानो 50 वर्ष नहीं, 50 युग जी आई हूँ। जब कभी अतीत की ओर देखती हूँ, तो लगता है जैसे मैंने जिस बचपन को जिया वह सच नहीं, बल्कि एक फ़िल्म की कहानी है, जिसमें मैंने अभिनय किया था।

जन्म के बाद 2-3 साल तक की ज़िन्दगी ऐसी होती है जिसके क़िस्से हम ख़ूब मनोयोग से दूसरों से सुनते हैं। इसके बाद शुरू होता है एक-एक दिन का अलग-अलग क़िस्सा, जो मष्तिष्क के किसी हिस्से में दबा-छुपा रहता है। अब जब फ़ुर्सत के पल आए हैं, तो बात-बात पर अतीत के पन्नों को खोलकर मैं उस दुनिया में पहुँचना चाहती हूँ, जहाँ से ज़िन्दगी की शुरुआत हुई थी।

उम्र के बारह साल ज़िन्दगी से कब निकल गए पता ही न चला। पढ़ना, खेलना, खाना, गाना सुनना, घूमना इत्यादि आम बच्चों-सा ही था। पर थोड़ी अलग तरह से हम लोगों की परवरिश हुई। चूँकि मेरे पिता गांधीवादी और नास्तिक थे, तो घर का माहौल भी वैसा ही रहा। ऐसे में गांधी जी के विचारों को मैं आत्मसात करती चली गई। हमलोग बिहार के भागलपुर के नया बाज़ार मोहल्ला में 'यमुना कोठी' नामक मकान में रहते थे। उन दिनों इस कोठी का अहाता बहुत बड़ा था। हमारे अलावा कई सारे किराएदार यहाँ रहते थे। मोहल्ले के ढेरों बच्चे एकत्रित होकर इसी अहाते में खेलने आते थे। सबसे ज़्यादा पसन्द का एक खेल था, जिसमें हम दीवार पर पेंसिल से लकीर खींचकर खेलते थे। एक्खट-दुक्खट, नुक्का-चोरी (लुका छिपी), कोना-कोनी कौन कोना, ओक्का-बोक्का, घुघुआ-रानी कितना पानी, आलकी-पालकी जय कन्हैया लाल की आदि खेलते थे। टेनी क्वेट, पिट्टो, कैरम, बैडमिंटन, ब्लॉक गेम, लूडो भी खेलते थे।

बचपन में भैया और मेरे बीच में मम्मी सोती थी और हम दोनों मम्मी से कहते कि वे मेरी तरफ़ देखें। ऐसे में मम्मी क्या करती भला? वे बिल्कुल सीधे सोती थी, ताकि किसी एक की तरफ़ न देखें। मैं हर वक़्त मम्मी से चिपकी रहती थी। स्कूल जाने में बहुत रोती, हर रोज़ मम्मी को साथ जाना होता था। मम्मी के साथ खाना, मम्मी के साथ सोना, मम्मी के बिना फोटो तक नहीं खिंचवाती थी। हम दोनों भाई-बहन हाथ पकड़कर स्कूल जाते और लौटने में भी हाथ पकड़कर ही आते थे। भाई एक साल बड़ा है और ख़ूब चंचल था, पर मैं बहुत शांत थी। धीमे-धीमे चलना, धीरे से बोलना, गम्भीरता से रहना। खेल में भी झगड़ा पसन्द नहीं। अगर कोई बात पसन्द नहीं, तो बोलना बंद कर देती थी। 

अहाते में एक झा परिवार था। उनके तीन बेटा अरविन्द, रविन्द और गोविन्द तथा एक बेटी विभा थी, जो शायद मेरी पहली दोस्त रही होगी। एक बार खेलने में मैंने एक ईंट फेंका जो जाकर उसके सिर पर लग गया। मैं बहुत डर गई, लेकिन मुझे किसी ने नहीं डाँटा। हम दोनों साथ में झाडू की सींक पर स्वेटर बुनना सीखे। बाद में उसके पिता की बदली हो गई और वे लोग चले गए। फिर आज तक नहीं पता कि वह कहाँ है, उसे कुछ याद भी है या नहीं। अहाते में एक अग्रवाल परिवार था, जिनके यहाँ ब्याहकर नई बहु आई जिन्हें शुरू में मैं मम्मी बोलती थी। बाद में बिन्दु चाचीजी कहने लगी वे मुझे बहुत अच्छी लगती थीं। उनके साथ हम कुछ बच्चे छोटे चूल्हे पर छोटे-छोटे बर्तन में खाना बनाते, गुड्डा-गुड़िया बनाते और खेलते थे।

मेरी एक मौसी भागलपुर शहर में रहती थी। उनके तीन बच्चे हैं। अक्सर उनके घर हमलोग जाते और ख़ूब खेलते थे। मौसा उच्च सरकारी पद पर थे, तो हर सिनेमा हॉल में उन्हें पास मिलता था। उन दिनों पिक्चर पैलेस एक सिनेमा हॉल था जिसके बॉक्स में कुछ कुर्सी और बिस्तर लगा हुआ था। कुछ फ़िल्में देखने हमें भी ले जाया जाता और हम बच्चे बिस्तर पर बैठकर सिनेमा देखते थे। 

मेरे पिता के एक मित्र थे प्रोफ़ेसर करुणाकर झा। उनको दो बेटे और चार बेटियाँ हैं। तीसरे नंबर वाली नीलू मेरी दोस्त है। वे लोग उन दिनों बूढ़ानाथ में रहते थे। हमलोग अक्सर एक दूसरे के घर गंगा के किनारे बने रास्ते से होकर जाते। घाट किनारे लोहे का रेलिंग बना था, जिसपर हमलोग अवश्य झुला झूलते फिर आगे बढ़ते थे। 

आदमपुर में छोटी सी.एम.एस. स्कूल से भैया और मैंने पढ़ाई की। फिर मैं छह माह मोक्षदा स्कूल में पढ़ी। छुट्टियों में हम अपने गाँव कोठियाँ गए, तो बाढ़ में फँस गए। कोठियाँ उन दिनों मुज्ज़फ़रपुर ज़िला में पड़ता था, बाद में सीतामढी ज़िला बना, फिर शिवहर ज़िला बनापापा ने हमलोगों को गाँव में दादी के पास छोड़ दिया। मेरे घर के सामने कभी पापा द्वारा ही खुलवाया हुआ प्राइमरी स्कूल था, उसमें मैं पढ़ने जाने लगी वहाँ सभी बच्चे चट्टी (बोरा) पर बैठकर पढ़ते थे और बेंच पर शिक्षक बैठते थे। मुझे ख़ास सुविधा मिली, और मास्टर साहब ने मुझे बेंच के दूसरी तरफ़ बिठाया। वहाँ सिर्फ़ दो शिक्षक थे, नाम अब याद नहीं, लेकिन एक शिक्षक को सभी बकुलवा मास्टर कहते थे; क्योंकि उनकी गर्दन लम्बी थी बगुला जैसी। यहाँ कुछ दिन पढ़ाई की उसके बाद मेरे पिता के बड़े भाई जिन्हें हम बड़का बाबूजी कहते हैं, पास के गाँव सुन्दरपुर में प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे, उनके साथ उनके स्कूल जाने लगी। वहाँ से परीक्षा पास कर 7वीं में शिवहर मिडिल स्कूल में पढ़ने लगी। 
 
7 वीं में मेरे क्लास में मुझे लेकर सिर्फ़ तीन लड़की थी- कालिन्दी, शोभा  और मैं छठी कक्षा में सिर्फ़ दो लड़की पढ़ती थी। दोनों क्लास में किसी का भी गेम पीरियड होता, तो हम पाँचों को छुट्टी मिल जाती थी ताकि हम सभी एक साथ खेल सकें। हमलोग सबसे ज़्यादा कैरम खेलते थे। मेरे क्लास में एक लड़का था उमेश मंडल जो एक गाना बहुत अच्छा गाता था- ''कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों।'' मेरा भाई श्री नवाब हाई स्कूल, महुअरिया, शिवहर में पढ़ता था, जहाँ मेरी 7वीं की परीक्षा का सेंटर पड़ा था। इसके बाद पापा मुझे भागलपुर ले आए, लेकिन भाई को गाँव में ही पढ़ने को छोड़ दिए।  

गाँव का जीवन बड़ा ही सरल था। न भय न फ़िक्र। गुल्ली डंडा, पिट्टो, बैडमिन्टन, कबड्डी, लूडो, साँप-सीढ़ी आदि ख़ूब खेलते थे। यहाँ लड़का-लड़की का कोई भेद नहीं था। बड़का बाबूजी के दोनों बेटे अवधेश भैया और मिथिलेश, हम क़रीब-क़रीब साथ ही रहते; यों हमारा घर अलग-अलग था। मेरी सबसे बड़ी फुआ का एक बेटा कृष्ण बिहारी भैया जिसे मैंने नाम दिया था अमिया भैया, हमारे साथ रहता था। मेरी सबसे छोटी फुआ अक्सर गाँव आती, तो महीनों रहती थीं। उनके तीन बेटी और दो बेटे थे। उनकी बीच वाली बेटी बेबी दीदी से उन दिनों मैं सबसे नज़दीक थी, दोस्त की तरह। भैया के हमउम्र दोस्त भी हमारे घर पढ़ने के लिए आते; क्योंकि हमारे घर में बिजली थी। हम सभी मिलकर साथ पढ़ते और खेलते थे। 

जो हमारे खेती का काम करता था, उसमें एक का नाम था छकौड़ी महरा। उसकी पत्नी कहती कि पति का नाम नहीं लेना चाहिए। हमलोग ज़िद करते कि नाम बोलो, तो वह कहती कि छौ गो कौड़ी, और हम लोग ठहाके लगाते। एक और था लक्षण महतो। वह कभी-कभी किसी-किसी शब्द को बोलने में हकलाता था। एक दिन मेरी दादी से कहा- स स स सतुआ बा (सत्तू है)? तब से हमलोग उसे बार-बार ऐसा कहने के लिए कहते थे। हमारे एक पड़ोसी थे सियाराम महतो, जिनको हमलोग सियाराम चाचा कहते थे। वे थोड़ा पढ़े लिखे थे। उनको अँगरेज़ी भाषा और ग्रामर की समझ थी। वे कुछ शब्द बोलते और उसका स्पेलिंग पूछते। एक शब्द था लेफ्टिनेंट जिसका स्पेलिंग अलग होता है और हिज्जा अलग। वे अक्सर सभी से यह शब्द ज़रूर पूछते। गाँव में एक थे परीक्षण गिरि। हम लोग उन्हें महन जी (महंत जी) कहते थे। वे जब भी दिखते हमलोग कहते ''गोड़ लागी ले महन जी'', तो वे कहते ''खूब खुस रह बऊआ, जुग-जुग जीअ''। एक थे बनारस पांड़े, जो हमारे यहाँ अक्सर आते और मेरी दादी उन्हें दान-दक्षिणा देती थीं। यों मेरे पापा पूजा-पाठ के ख़िलाफ़ थे; परन्तु उन्हें कुछ देने से दादी को कभी नहीं रोका। गाँव में एक वृद्ध स्त्री थी जिसका पति-पुत्र कोई नहीं था, वह नितान्त अकेली थी। उसे सभी लोग सनमुखिया कहते थे, मुमकिन है सही नाम सूर्यमुखी हो वह मेरे घर का काम करती थी। वह साइकिल को बाइसिकिल कहती। हम कहते कि साइकिल बोलो तो कहती ''साइकिल बोलने नहीं आता है, बाइसिकिल बोलने आता है।'' हमलोग ख़ूब हँसते, क्योंकि वह साइकिल बोलती भी थी। मैंने उसे देखकर सिलबट्टे पर हल्दी पीसना सीखा। गाँव में एक ख़ूब तेज़ और होशियार स्त्री थी जिसे उसके बेटे के नाम के कारण सभी लोग 'बिसनथवा मतारी' (विश्वनाथ की माँ) बुलाते थे। वह रोज़ मेरे घर आती और कभी क़िस्सा तो कभी गाना सुनाती। कई ऐसे लोग हैं जो ज़ेहन में आज भी हैं, भले मिलना नहीं होता है। 
     
मैं गाँव में जब तक रही या जब भी गाँव जाती, तो पापा के साथ दिनभर मज़दूरों के बीच रहती थी। उनके पनपियाई (खाना) के लिए मेरे यहाँ से जो भी खाना आता हम भी वही खाते। पेड़ से अमरूद तोड़ना, खेत से साग तोड़ना, तरकारी तोड़ना, फल तोड़ना आदि दादी के साथ करती थी। मुझे मड़ुआ (रागी) की रोटी बहुत पसन्द थी; अक्सर सियाराम चाची मेरे लिए बनाकर ले आती थीं। हमारे घर से काफ़ी दूर गाँव के अंत में मेरे छोटे चाचा का घर है। वहीं हमारा पुराना घरारी था। यहाँ मेरे पापा के अन्य चचेरे भाई रहते हैं और सभी के घर हमलोग अक्सर आना-जाना करते हैं।

वर्ष 1977 में मैं भागलपुर आ गई। मेरे लिए दुनिया काफ़ी बदली हुई थी। फिर से नए स्कूल में जाना। मेरा नामांकन घंटाघर स्थित मिशन स्कूल (क्राइस्ट चर्च गर्ल्स हाई स्कूल) में हुआ। इस साल से नई शिक्षा नीति लागू हुई। इस कारण मुझे पुनः 7वीं में नामांकन लेना पड़ा, जिसे उस समय 7th new कहा जाता था। मेरे स्कूल की प्राचार्या मिस सरकार थीं, जिनसे हम छात्रा क्या शिक्षकगण भी ससम्मान डरते थे। 7वीं में मेरी क्लास टीचर शीला किस्कु रपाज थीं, जो मुझे बहुत अच्छी लगती थीं; बाद में वे आई.ए.एस. बन गईं तो स्कूल छोड़ दीं गाँव से लौटने के बाद मैं पहले से और ज़्यादा शांत हो गई थी। उन्हीं दिनों मेरे पिता की बीमारी की शुरुआत हो रही थी। 

प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा इलाज के लिए हाजीपुर में कम्युनिष्ट पार्टी के श्री किशोरी प्रसन्न सिन्हा, जिन्हें सभी किशोरी भाई कहते हैं, काफ़ी वृद्ध और पार्टी के सम्मानीय सदस्य थे, के घर हमलोग एक महीना रहे। फिर पापा ने आयुर्वेद के द्वारा अपनी बीमारी का इलाज करवाया; लेकिन बीमारी बढ़ती गई। सभी के बहुत मना करने पर भी वे विश्वविद्यालय जाना नहीं छोड़ रहे थे। अंततः 1978 में उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु क्या है मुझे तबतक नहीं पता था। पापा के श्राद्ध में यों लग रहा था मानो कोई पार्टी चल रही हो। पूजा-पाठ, भोज, और लोगों की बातें। यह सब जब ख़त्म हुआ तब लगा कि अरे पापा तो नहीं हैं, अब क्या होगा। पर हम सभी धीरे-धीरे उनके बिना जीने के आदी हो गए।

यमुना कोठी के जिस हिस्से में हमलोग रहते थे, उसका आधा हिस्सा अब बिक चुका है। चूँकि इसके मकान मालिक रतन सहाय हमारे दूर के रिश्तेदार हैं, अतः इनके परिवार से सारे सम्पर्क यथावत् हैं। अपनी यादों को दोहराने के लिए मैं अक्सर वहाँ जाती रहती हूँ। मकान के अन्दर आने के लिए लोहे का एक बड़ा-सा गेट था, जिसपर अक्सर हमलोग झुला झूलते थे। मकान का कुछ और हिस्सा बिक जाने से वह गेट भी अब न रहा। मकान में बाहर की तरफ़ एक बरामदा है, जिसपर शतरंज के डिजाईन का फ्लोर बना था। इसपर हमलोग ''कोना-कोनी कौन कोना'' खेलते थे।    

नया बाज़ार के ठीक चौराहे पर बंगाली बाबू का दूकान होता था, जहाँ से हम कॉपी-पेन्सिल और टॉफ़ी ख़रीदते थे, विशेषकर पॉपिंस मुझे बहुत पसन्द था। नया बाज़ार चौक पर नाई का वह दूकान बंद हो चुका है, जहाँ मेरे पापा बाल कटवाते थे। चौराहे पर मिठाई की एक दूकान थी, जहाँ से हम ख़ूब छाली वाली दही और पेड़ा ख़रीदते थे, अब उसकी जगह बदल गई है। यहीं पर एक मिल था, जहाँ हम आटा पिसवाने आते थे। यहीं पर पंसारी का दूकान है, जहाँ से सामान ख़रीदते थे। चौक पर ही निज़ाम टेलर है जिसके यहाँ अब भी मैं कपड़ा सिलवाती हूँ। निज़ाम टेलर मास्टर तो अब नहीं रहे उनके बेटे अब सिलाई का काम करते हैं। चौक और मेरे घर के सामने का मस्जिद अब भी है, जहाँ सुबह-शाम अजान हुआ करता था। शारदा टाकिज एक बहुत भव्य सिनेमा हॉल खुला था, जो अब बंद हो चुका है। इसके मालिक महादेव सिंह, जो निःसंतान थे, की मृत्यु के बाद यह विवाद में चला गया। यहाँ हमलोग ख़ूब सिनेमा देखते थे। पिक्चर पैलेस भी बंद हो चुका है। एक अजन्ता टाकिज और दीपप्रभा है जहाँ हाल-फिलहाल तक सिनेमा देखा मैंने। नाथनगर में जवाहर टाकीज था, जहाँ अपने पापा के साथ मैं अन्तिम फ़िल्म 'मेरे गरीब नवाज़' देखी थी

वेराइटी चौक पर बीच में एक मन्दिर है जिससे वहाँ चौराहा बनता है। यहाँ पर आदर्श जलपान है, जहाँ गुलाब जामुन खाने मैं अक्सर जाती थी। नज़दीक ही आनन्द जलपान था जहाँ का डोसा बहुत पसन्द था मुझे, पर अब वह बंद हो चुका है। वेराइटी चौक पर लस्सी वाला और कुल्फी वाला है, जब भी हम बाज़ार जाते तो, लस्सी या कुल्फी खाते थे। ख़लीफ़ाबाग चौक पर चित्रशाला स्टूडियो है, जो अब आधुनिक हो गया है। यहाँ हमलोग फोटो साफ़ करवाते थे। यहीं पर भारती भवन, किशोर पुस्तक भण्डार आदि है जहाँ से किताबें ख़रीदते थे। यहाँ पर मैं झालमुढ़ी, भूँजा, मूँगफली, गुपचुप (गोलगप्पे) आदि ठेले वाले से ख़रीदकर खाती थी और अब भी कभी-कभी खाती हूँ।    

नया बाज़ार चौक पर हमारे पारिवारिक मित्र डॉ. पवन कुमार अग्रवाल का क्लिनिक 'गरीब नवाज़' है जो अब छोटा-सा अस्पताल का रूप ले चुका है। डॉ. अग्रवाल शुरू से मुझे बेटी की तरह मानते थे। वर्ष 1986 में जब मेरे अपेंडिक्स का ऑपरेशन उन्होंने किया था ऑपरेशन से पहले मेरी बहुत सारी ज़िद थी, जिसे उन्होंने पूरा किया फिर मैं ऑपरेशन के लिए राज़ी हुई। वे जब तक रहे, अपनी सभी समस्याएँ मैं उनके साथ साझा करती थी। वर्ष 2008 में उनका देहान्त हो गया। उनके दोनों पुत्र डॉक्टर हैं और बहुत अच्छी तरह क्लिनिक सँभालते हैं। मेरी माँ के सहकर्मी मुस्तफा अयूब और इनकी पत्नी राशिदा आंटी रामसर में रहते हैं; वे मुझे शुरू से बहुत मानते रहे। हर सुख-दुःख में इनलोगों का बहुत सहयोग मिला। मम्मी की एक मित्र उषा मौसी हैं, जो गाना गाती थी ''ज़रा नज़रों से कह दो जी, निशाना चूक न जाए'', जिसे तब भी मैं उनसे सुनती थी, अब भी सुनती हूँ। 
 
मेरे मौसा जो उन दिनों भागलपुर में रहते थे, के मित्र जिन्हें हमलोग बिरजा चाचा कहते हैं, हमलोग की बहुत मदद करते थे। मेरे लिए किताबें ख़रीद कर लाते मेरा भाई पटना में पढ़ता था उसके बाद आई.आई.टी. कानपूर और फिर अमेरिका चला गया। जब तक वह भारत में रहा, उससे मिलने हम बिरजा चाचा के साथ जाते थे। वे स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्हें रेल का पास मिलता था, जिसमें उनके साथ कोई एक आदमी साथ जा सकता है। मैं पटना, शन्तिनिकेतन और दिल्ली उनके साथ जाती थी वे भी अब नहीं रहे  
स्कूल के बाद सुन्दरवती महिला महाविद्यालय से मैंने ऑनर्स किया। रोज़ जोगसर, शंकर टाकीज चौक, मानिक सरकार चौक, आदमपुर आदि से होते हुए खंजरपुर स्थित सुन्दरवती कॉलेज जाती थी। ऑनर्स में कुछ माह हॉस्टल में रही थी; लेकिन एक भी रूम मेट से दोबारा मिलना न हुआटी.एन.बी.लॉ कॉलेज जो तिलकामाँझी में है, वहाँ लॉ क्लास के लिए जाती थी कॉलेज के बाद एम.ए. के लिए सराय होते हुए यूनिवर्सिटी जाती थी। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी अक्सर पैदल ही जाया करती थी। तब न ज़्यादा गर्मी लगती थी, न जाड़ा। बी.ए. तक मैं बहुत अंतर्मुखी थी। बस काम से काम, न गप्पे लड़ाना पसन्द, न बेवज़ह घूमना। स्कूल की सहपाठियों में नीलिमा, मृदुला, बिन्दु आदि से मिलना हुआ। कॉलेज की दोस्तों में पूनम और रेणुका से मिलती रही हूँ। यूनिवर्सिटी की किसी भी दोस्त से अब सम्पर्क नहीं रहा।           

ढेरों यादें और क़िस्सें हैं, जिन्हें मन कभी भूलता नहीं। इतना ज़रूर है कि भागलपुर कभी छूटा नहीं। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी जाने का रास्ता जैसे अब भी अपना-सा लगता है। यह सब छूटकर भी नहीं छूटता है मुझसे। शहर जाना भले न होता हो, पर ज़िन्दगी जहाँ से शुरू हुई वहीं पर अटक गई है। 

नन्हा बचपन रूठा बैठा है   

*** 

अलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा बचपन छुपा बैठा है  
मुझसे डरकर मुझसे ही रूठा बैठा है
  
पहली कॉपी पर पहली लकीर  
पहली कक्षा की पहली तस्वीर  
छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर  
सब हैं लिपटे साथ यों दुबके  
ज्यों डिब्बे में बंद ख़ज़ाना  
लूट न ले कोई पहचाना
  
जैसे कोई सपना टूटा बिखरा है  
मेरा बचपन मुझसे हारा बैठा है 
अलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।     

ख़ुद को जान सकी न अबतक
ख़ुद को पहचान सकी न अबतक  
जब भी देखा ग़ैरों की नज़रों से
सब कुछ देखा और परखा भी
अपना आप कब गुम हुआ  
इसका न कभी गुमान हुआ
  
ख़ुद को खोकर ख़ुद को भूलकर   
पल-पल मिटने का आभास हुआ  
पर मन के अन्दर मेरा बचपन  
मेरी राह अगोरे बैठा है 
अलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।   

देकर शुभकामनाएँ मुझको  
मेरा बचपन कहता है आज  
अरमानों के पंख लगा  
वह चाहे उड़ जाए आज  
जो-जो छूटा मुझसे अब तक  
जो-जो बिछुड़ा देकर ग़म  
सब बिसराकर, हर दर्द को धकेलकर  
जा पहुँचूँ उम्र के उस पल पर  
जब रह गया था वह नितान्त अकेला
  
सबसे डरकर सबसे छुपकर  
अलमारी के ख़ाने में मेरा बचपन  
मुझसे आस लगाए बैठा है 
आलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।  

बोला बचपन चुप-चुप मुझसे  
अब तो कर दो आज़ाद मुझको  
गुमसुम-गुमसुम जीवन बीता  
ठिठक-ठिठक बचपन गुज़रा  
शेष बचा है अब कुछ भी क्या  
सोच-विचार अब करना क्या  
अन्त से पहले बचपन जी लो  
अब तो ज़रा मनमानी कर लो  
मेरा बचपन ज़िद किए बैठा है 
आलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।   

आज़ादी की चाह भले है  
फिर से जीने की माँग भले है  
पर कैसे मुमकिन आज़ादी मेरी  
जब तुझपर है इतनी पहरेदारी  
तू ही तेरे बीते दिन है  
तू ही तो अलमारी है  
जिसके निचले ख़ाने में  
सदियों से मैं छुपा बैठा हूँ
  
तुझसे दबकर तेरे ही अन्दर  
कैसे-कैसे टूटा हूँ, कैसे-कैसे बिखरा हूँ  
मैं ही तेरा बचपन हूँ और मैं ही तुझसे रूठा हूँ  
हर पल तेरे संग जिया 
पर मैं ही तुझसे छूटा हूँ 
अलमारी के निचले ख़ाने में  
मेरा नन्हा बचपन रूठा बैठा है।  

- जेन्नी शबनम (16.11.2015)  
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Wednesday, October 7, 2015

53. ग़ैर-बराबरी बढ़ाता आरक्षण


                     

आरक्षण के मुद्दे पर देश के हर प्रांत में उबाल है। आरक्षण के समर्थन और विरोध दोनों पर चर्चा नए विवादों को जन्म देती है सभी को आरक्षण चाहिए। इससे मतलब नहीं कि वास्तविक रूप से कोई ख़ास जाति आरक्षण की हक़दार हैमतलब बस इतना है कि सभी जातियाँ ख़ुद को आरक्षण की श्रेणी में लाकर वांछित फ़ायदा उठाना चाहती हैं 
 
समय आ गया है कि अब इस मुद्दे पर एक नई बहस छेड़ी जाए हमें निष्पक्ष रूप से इसपर अपना विचार बनाना होगा ये आरक्षण किसके लिए और किसके विरूद्ध है? क्या जातिगत आधार पर आरक्षण उचित है? कितनी जातियों को इसमें शामिल किया जाए? क्या वास्तविक रूप से उन्हें फ़ायदा हो रहा है, जो ज़रूरतमंद हैं? आरक्षण का आधार सामजिक क्यों? आरक्षण का एकमात्र आधार आर्थिक क्यों नहीं? आरक्षण सहूलियत नहीं बल्कि दया है, जिसे किसी ख़ास जाति को दी जा रही है। किसी ख़ास जाति में जन्म लेने पर क्या दया की जानी चाहिए? 

यह न तो उचित है और न तर्कपूर्ण कि किसी ख़ास जाति या धर्म को मानने वाले को आरक्षण मिलना चाहिए; चाहे शिक्षा, किसी पद के लिए या किसी स्पर्धा वाली शिक्षा या नौकरी में आश्चर्य है कि ख़ुद को पिछड़ा साबित करने की होड़ लग गई है निश्चित ही आरक्षण के नाम पर हमारे युवाओं को बहकाया जा रहा है और उनको ग़लत दिशा देकर राजनितिक पार्टियाँ अपना-अपना लाभ पोषित कर रही हैं

आरक्षण ने क़ाबिलियत को परे धकेलकर जातिगत दुर्भावना को बढ़ाया है।आरक्षण का दंश देश का हर नागरिक झेल रहा हैआरक्षण से कोई फ़ायदा अब तक न दिखा है और न दिखेगा। आरक्षण का लालच दिखा युवाओं का मतिभ्रम कर आवश्यक मुद्दे पर से ध्यान को भटकाया जा रहा है। युवाओं को धर्म और जाति का अफ़ीम खिला-खिलाकर देश के बिगड़ते हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दशाओं से विमुख किया जा रहा है देश कई तरह के बाह्य और आन्तरिक संकट से गुज़र रहा है, ऐसे में आरक्षण देकर कुछ ख़ास जातियों को फ़ायदा पहुँचाने के एवज़ में संकट को और भी बढ़ावा दिया जा रहा है लड़ता और मरता तो आम युवा है और हानि हमारे ही देश की होती है     

आरक्षण जाति-भेद की दुर्भावना पैदा करने का बहुत बड़ा कारण है। किसी ख़ास जाति को आरक्षण मिलने के कारण वह जगह मिल जाता है, जो कोई दूसरा ज़्यादा उपुयक्त होकर भी गँवा देता हैआरक्षण प्राप्त लोगों का आरक्षण मिलने के बाद कहीं से भी बौधिक बढ़ोतरी के प्रमाण मुझे देखने को नहीं मिले हैं। उसी तरह आरक्षण से मुक्त जो भी जातियाँ हैं, वे जन्म के कारण विशिष्ट गुणोंवाली हों या वे सभी धनाढ्य हों, यह भी नहीं देखा है। धर्म और जाति का बौद्धिकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता, और न आरक्षण देकर किसी में बौद्धिकता और क़ाबिलियत पैदा की जा सकती है। कहीं-न-कहीं मन का विभाजन आरक्षण के बाद शुरू हुआ

जिस तरह से अधिकांश जातियाँ आरक्षण पाने के लिए लालायित हैं, ऐसा लगता है कि आने वाले समय में गिनती की दो-चार जातियाँ ही बचेंगी जो आरक्षण से बाहर सामान्य श्रेणी में रह जाएँगी आरक्षण श्रेणी की बहुत सी जातियाँ ऐसी हैं जो धनवान हैं ऐसी बहुत सी जातियाँ हैं जो कहने को तो उच्च कूल की हैं, लेकिन खाने-खाने को मोहताज़ हैं ऐसे में विचारणीय है कि किसे आरक्षण की आवश्यकता है?

प्रतिस्पर्धा के युग में आरक्षण हर जाति के लिए रोग बन गया है। योग्यता का मूल्यांकन आरक्षण से होना स्वाभाविक-सा लगता है। आज अल्पज्ञान और अल्पबुद्धि का बोलबाला होता जा रहा है ज्ञान और बुद्धि पर आरक्षण भारी पड़ रहा है और इसका ख़म्याज़ा आरक्षित श्रेणियों की जातियों को भी उठाना पड़ रहा है अगर किसी का उसकी अपनी योग्यता से स्पर्धा में चयन होता है, फिर भी लोगों कि निगाह में वह तिरस्कार पाता है और यही माना जाता है कि आरक्षण के कारण वह उतीर्ण हुआ है उसकी अपनी योग्यता आरक्षण की बलि चढ़ जाती है 
 
आज जब हम किसी डॉक्टर के पास इलाज के लिए जाते हैं, तो मन में यह आशंका रहती है कि कहीं यह आरक्षण से आया हुआ तो नहीं है ऐसे में उस डॉक्टर की योग्यता पर अपनी ज़िन्दगी दाँव पर लगी दिखती हैमुमकिन है कि आरक्षित श्रेणी का वह डॉक्टर सचमुच प्रतिभाशाली हो, मगर आरक्षण की सुविधा से अनुपयुक्त का चयन उपयुक्त को भी कटघरे में खड़ा कर दे रहा है इस आरक्षण ने मन में सन्देह पैदा कर दिया है और हम एक दूसरे को शक और असम्मान से देखने लगे हैं

अगर आरक्षण देना ही है, तो आर्थिक आधार पर दिया जाए; चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या सम्प्रदाय का क्यों न हो, और वह भी सिर्फ़ विद्यालय स्तर की शिक्षा तक। ताकि स्पष्टतः प्रतिभा की पहचान हो सके और उपयुक्त पात्र ही उपयुक्त स्थान ग्रहण करे समान अवसर, सुविधा और वातवरण मिलने पर ही हर नागरिक समान हो पाएगा देश के हर नागरिक के लिए समान कानून, समान न्याय, समान शिक्षा, समान सुविधा और समान अधिकार, और कर्त्तव्य का होना आवश्यक है एकमात्र आर्थिक आधार ही आरक्षण का उचित व उत्तम आधार है और यही होना चाहिए

- जेन्नी शबनम (7.10.2015)
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Thursday, August 20, 2015

52. सावन में बरसाती टोटके


बरसात का मौसम, सावन-भादो का महीना और ऐसे में बारिश। चारों तरफ़ हरियाली, बाग़ों में बहार, मन में उमंग, जाने क्या है इस मौसम में। रिमझिम बरसात! अहा! मन भींगने को करता है। बरसात के मौसम में उत्तर भारत में कजरी गाने की परम्परा रही है। 

सावन ऐ सखी सगरो सुहावन 
रिमझिम बरसेला मेघ रे 
सबके बलमउआ त आबेला घरवा 
हमरो बलम परदेस रे  

सावन के महीने में कई-कई दिन लगातार बारिश हो, सूर्य कई दिनों तक नहीं दिखे तो इसे कहते हैं झपसी (लगातार मूसलाधार वर्षा) लगना।शहरी जीवन में ऐसे मौसम में लोग चाय के साथ पकौड़ी खाना, लिट्टी चोखा खाना, लॉन्ग ड्राइव पर जाना, पसन्दीदा पुस्तक पढ़ना या गीत सुनना आदि पसन्द करते हैं। ग्रामीण परिवेश में यह सब बदल जाता है। यों अब पहले की तरह गाँव नहीं रहे, अतः काफ़ी कुछ शहरों का देखा-देखी होने लगा है।पहले चूल्हा में लकड़ी ईंधन के रूप में प्रयुक्त होता था, अतः बरसात में मेघौनी लगते ही जरना (लकड़ी) एकत्रित कर लिया जाता है। बूँदा-बाँदी में भी खेती के सारे काम होते हैं; क्योंकि इसमें नियत समय पर सब कुछ करना है। पशु-पक्षी की देखभाल, उनके चारा का इंतिज़ाम आदि सब पहले से कर लेना होता है। बाज़ार-हाट का काम और खेती का काम भींगते हुए करना होता है। गाँव में कभी भी कोई असुविधा महसूस नहीं होती है। जब जो है उसमें ही जीवन को भरपूर जिया जाता है।  

यों तो परम्पराएँ गाँव हो या शहर दोनों जगह के लिए बनी हुई हैं, लेकिन कुछ परम्पराएँ गाँवों तक सिमट गई हैं। गाँवों में जब मूसलाधार बारिश हो और पानी बरसते हुए कई दिन निकल जाए, तो एक तरह का टोटका किया जाता है, जिससे बारिश बंद हो और उबेर (बारिश बंद होकर सूरज निकालना) हो जाए।   

बिहार के सीतामढ़ी ज़िले में झपसी लगने पर एक अनोखी परम्परा है। कपड़े का दो पुतला (गुड्डा-गुड़िया) बनाते हैं, एक भाहो (छोटे भाई की पत्नी) और एक भैंसुर (पति का बड़ा भाई)। दोनों को छप्पर (छत) पर एक साथ रख देते हैं। फिर अक्षत और फूल चढ़ाकर पूजा की जाती है। मान्यता है कि भाहो और भैंसुर का सम्बन्ध ऐसा है, जिसमें दूरी अनिवार्य है। इसलिए भाहो-भैंसुर का एक साथ होना और पानी में भींगना बहुत बड़ा पाप और अन्याय है। अतः भगवान इस अन्याय को देखें और पानी बरसाना बंद करें। इस गुड्डा-गुड़िया को बनाकर वही लड़की पूजा करती है, जिसको एक भाई होता है। 

इससे मिलती-जुलती ही बिहार के छपरा ज़िला की परम्परा है। इस टोटका में कपड़े से कनिया और दूल्हा (पति और पत्नी) बनाते हैं। फिर दूल्हा के कंधा पर एक गमछा (तौलिया) रख दिया जाता है, जिसके एक छोर में खिचड़ी का सामान बाँध दिया जाता है। एक छोटा ईंट रखकर उस पर एक दीया जला देते हैं और उससे सटाकर कनिया व दूल्हा को खड़ा कर दिया जाता है। कनिया और दूल्हा भगवान से कहते हैं कि हमें परदेस जाना है, दिन-रात पानी बरस रहा है, चारों तरफ़ अन्हरिया (अँधेरा) है, हे भगवान! उबेर कीजिए, जिससे हमलोग खाना बनाकर खाएँ और फिर परदेस जाएँ ताकि कमा सकें। मान्यता है कि जिस बच्ची का जन्म ननिहाल में होता है, वही यह गुड्डा-गुड़िया बनाती है और पूजा करती है। 

अब इन टोटकों से क्या होता है यह तो नहीं पता, लेकिन सुना है कि टोटका करने के बाद पानी बरसना बंद होकर उबेर हो जाता है; भले थोड़ी देर के लिए सही। टोटका कहें, मान्यता या मन बहलाव का साधन, गाँव के लोग हर परिस्थिति का सामना अपने-अपने तरीक़े से करते हैं। प्रकृति के हर नियम के साथ ताल-मेल मिलाकर जीते हैं। यह सब होता है या नहीं, यह तो मालूम नहीं; लेकिन है बड़ा अनूठा और दिलचस्प टोटका।  

-  जेन्नी शबनम (20.8.2015)
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Sunday, March 8, 2015

51. जीना है तो मरना सीखो

''काम किए बिना पेट नहीं भरता है मलकिनी। इस घर के सब आदमी का पेट नहीं कोठी है, कितना भी भरो भरता ही नहीं है। एगो अपना पेट त पलता नहीं है, उस पर से बुढ़वा-बुढ़िया अमर होके आया है, काम-काज त कौनो करता नहीं ऊपर से मेरे मरद को बोलके रोज़ महाभारत करवाता है।इतना भी नहीं होता कि बइठे-बइठे बचवो सबको देखे। एगो ऊ (पति) अभागा है, उसका त देह का आग ठण्डे नहीं होता है, हरामी रोज़ रात को पी के जाने कहाँ-कहाँ से मुँह मारके आता है और मेरा देह नोचता है। साले-साले 4 गो छौंड़ी (बेटी) हो गई, फेर दूगो छौंड़ा (बेटा)। सबसे छोटका को दुसरकी (दूसरे नंबर की बेटी) सँभालती है, बड़की (बड़ी बेटी) दू-चार घर में काम कर आती है त तनिका आराम मिल जाता है। न त सब मिल के हमहीं को नोच के खा जाएगा।'' 

''अभी दुइएगो त छौंड़ा (बेटा) है, उहो देबी माता से केतना माँगने पर। अभी फेर 7 वाँ महीना चढ़ गया है, गोसाईं से बोले कि दू गो और पूत दे दे, चार गो बेटा रहे त दोसरा कौनो से उधार कन्धा माँगना त नहीं पड़ेगा। एगो (एक) नहीं पूछेगा त दूसरा त पूछेगा। कुछो करके त अपन बाल-बच्चा के पोसिए लेगा और हम दोनों का बुढ़ापा भी पार लगिए जाएगा।'' 

''बाकी ई राँड़ सब का, का होगा नहीं मालूम। ई करमजली सब, केतनो उपाय किए मनता माँगे लेकिन करम में इहे लिखल था। आज का ज़माना त मालूमे है आपको मलकिनी, लड़की जात का कौन ठिकाना, कब उसका इज्जत उसका अपन बापे-भाई लूट ले कौन जानता है। कइसहूँ बच-बचाके बियाह कर दिए त कौन जाने बसेगी कि नहीं, उसका मरद छोड़के दोसर कर लेगा त फेर हमरे मत्थे पर। अभागिन सब जनम लेते मर काहे नहीं गई।''

''रोज सुनती हैं न मलकिनी, टीभीयो में देखबे करती हैं कि कैसे इज्जत लूट के संड़वा (साँड़) जैसा छुटल घूमता है कमीना सब। कहियो बेटा-बेटी बराबर नहीं हो सकता है। ऊ हरामी सब का भरोसा नहीं, अपने ही माँ-बहिन बेटी का शिकार करता होगा। तइयो आग नहीं बुझता होगा तब दोसर जनानी (स्त्री) पर हमला करता है। सरकार में दम होता त ई मादर...(गाली) सबको पकड़के उसका अंगे काट देता। जो बुरा नज़र से देखे उसका आँखे फोड़ देना चाहिए। पर ई सब का दम नहीं है कौनो में। औरत आ गरीब दोनों का एके हाल है मलकिनी। कहूँ कौनो सुनवाई नहीं, न इहाँ न भगवाने के ऊहाँ।''

यह सब सुनकर किसी आम स्त्री की मानसिक दशा का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यह पीड़ा न सिर्फ़ हमारे समाज के ग़रीब, अशिक्षित और निम्न मध्यमवर्गीय स्त्री की पीड़ा है जिसे साल-दर-साल बच्चा जन्म देने की मशीन बनाया जाता है या जिसका उपयोग हर रात उस गोश्त की तरह किया जाता है जिसे रोज़ पकने के बाद भी ताज़ा रहना होता है यह हर उस औरत की पीड़ा है, जिसने इस पृथ्वी पर जन्म लिया है। जाति, धर्म, प्रांत या प्रदेश ने स्त्री की इस पीड़ा का अबतक बँटवारा नहीं किया है। स्त्री का स्त्री होना ही अभिशाप है और यही यंत्रणा का कारण भी।

इन उत्तरों ने कई सवालों को जन्म दिया, जो नए नहीं हैं; लेकिन हमारी चेतना को कुरेदते ज़रूर हैं। काम के बोझ तले दबी स्त्री उस पति का कैसे आदर कर सकती है, जो सिर्फ़ अपनी मर्ज़ी से उसका भक्षण करता है। उस स्त्री को अपनी बेमन औलादों (लड़की) से प्रेम नहीं, ऐसा नहीं है; लेकिन उनके भविष्य की दुश्चिंता ने अपनी संतानों के प्रति क्रूर बना दिया है। उसे पुत्र इसलिए प्रिय है, क्योंकि पुत्र न सिर्फ़ उसके बुढ़ापे का सहारा होगा; बल्कि मृत्यु के बाद पुत्र के काँधे पर अन्तिम यात्रा करना सौभाग्य सूचक है।लड़कों के साथ वैसी कोई अनहोनी नहीं होगी जो लड़कियों के साथ कभी भी हो सकती है। लड़की भले ही कंधे से कंधा मिलाकर काम करे फिर भी उसे वह सम्मान नहीं मिलता जो लड़का को मिलता है। 

यहाँ सबसे अहम् सवाल है कि उपार्जन में संलग्न होते हुए भी लड़की क्यों दुत्कारी जा रही है। जवाब भी यहीं पर है कि लड़की की ज़िन्दगी उसकी अपनी कभी नहीं होती है। सुरक्षा के तमाम उपाय के बावजूद जन्मजात कन्या तक का बलात्कार हो जाता है। इज्ज़त लुट जाने के बाद ब्याह की समस्या आती है, सुरक्षित ब्याह हो जाने के बाद पति पर निर्भरता और भविष्य की अनिश्चितता कि वह उसे रखेगा या निकाल देगा। दहेज, पर-स्त्री सम्बन्ध, बीमारी, बार-बार गर्भवती होना आदि ऐसी बातें हैं जिसका दोषी पुरुष है, लेकिन सज़ा स्त्री भुगतती है। अपमान, ठोकर, उपेक्षा, शारीरिक और मानसिक यंत्रणा स्त्री को जन्म के साथ, मानो उपहार में मिलते हैं।

शिक्षा की प्रगति से मनुष्य की सोच में कितना बदलाव आया है इस बात का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है जब तथाकथित शिक्षित उच्च पदस्थ लोग बलात्कार के लिए स्त्री को, उसके पहनावे, उसके चाल चलन या उसकी नियति को दोष देते हैं। हमारे प्रांत की तरफ़ बेटों की माएँ बड़े गर्व से कहती हैं ''हमारा घोड़ा (बेटा) छुटल दौड़ेगा, अपनी घोड़ी (लड़की) को सँभालो।'' 

पुरुष चंगुल से स्त्री की आज़ादी मुमकिन नहीं दिखती। जिधर निगाह जाती है उधर हर लड़की की माँ डरी-सहमी दिखती हैं। हर लड़की का पिता डरा-सहमा रहता है और क्रूर जेलर भी बना रहता है। कड़ी पाबन्दियों के बीच लड़कियाँ घुट-घुटकर जीने को विवश रहती हैं। यों बराबरी का दावा करने वाले माता-पिता भी लड़की को उतनी आज़ादी नहीं देते जितना लड़के को देते हैं। हालाँकि इसके लिए उनकी मानसिकता नहीं बल्कि समाज दोषी है। एक अनजाना-सा ख़ौफ़ हर वक़्त घेरे रहता है, कहीं अबकी बार कोई अनहोनी या आफ़त उनके घर न आ जाए। 

समाज में चारों तरफ़ नज़र दौड़ाने के बाद इन समस्याओं के समाधान का न कोई रास्ता नज़र आता है, न कोई विकल्प। कभी-कभी सोचती हूँ कुछ ऐसा किया जाए कि जन्म लेते ही सारी लड़कियों के दिमाग़ से सोचने-समझने और दर्द सहने की क्षमता ख़त्म हो जाए। फिर वह ज़िंन्दा लाश बन जाएँगी, उसे जितना भोगो, जितना तड़पाओ, जितना नोचो खसोटो उफ़ नहीं करेंगी।बच्चे पैदा करेंगी, जैसे कहा जाएगा वैसे सारा काम करेंगी। न हक़ की कोई बात होगी, न आज़ादी के लिए सुगबुगाहट, रोबोट बनकर पुरुष के उपयोग और उपभोग के लिए सदैव उपलब्ध रहेंगी। 

मनाव के दानव बन जाने का परिणाम है कि दुनिया से कई प्रजातियाँ मिट गईं हैं और अब शायद स्त्री की बारी है। सचमुच स्त्री मानव नहीं है, बल्कि एक अलग प्रजाति है जिसका नष्ट होना पुरुषों और परम्पराओं के कारण तय है। कभी-कभी मन चाहता है कि कुछ ऐसा हो, दुनिया से स्त्री नामक प्रजाति का नाम मिट जाए और विज्ञान के चमत्कार से पुरुष ही स्त्री का सभी काम करे।

- जेन्नी शबनम (8.3.2015)
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