ऋषि कपूर का जाना मन को बेचैन कर गया है। कल से इरफ़ान खान की मृत्यु के शोक में हम सभी डूबे हुए हैं, ऐसे में आज ऋषि कपूर का चला जाना; हम सभी स्तब्ध हो गए हैं।
यह बहुत दुःख भरा समय है। कोई शब्द नहीं सूझ रहा कि ऐसे वक़्त में क्या कहा जाए। एक कलाकार के चले जाने से उसके देह का अंत भले हो जाता है, मगर उसका काम सदा हमारे साथ जीवित रहता है। ऋषि कपूर फ़िल्मी जगत के उस प्रतिष्ठित परिवार से हैं, जहाँ से फ़िल्मी कलाकारों की कई पुश्तें आई हैं।
पृथ्वी राज कपूर और राज कपूर की विरासत को बहुत कुशलता और संजीदगी से सँभालने और आगे बढ़ाने में ऋषि कपूर की भूमिका स्मरणीय और सराहनीय है। वे जितने कुशल अभिनेता थे उतने ही संजीदा और ज़िन्दादिल इंसान थे। कपूर ख़ानदान का प्यारा और सिने जगत का खिलखिलाता हुआ सितारा चिंटू आज सभी को अलविदा कह गया।
ऋषि कपूर सही मायने में मेरे ज़माने के हीरो थे। जब फ़िल्म देखने और समझने की मेरी उम्र हुई, उस दौर में वे अभिनेता के साथ हीरो बन चुके थे।
लेकिन उस उम्र में हमें फ़िल्में नहीं दिखाई जाती थीं।
हाँ, हमारे स्कूल में कुछ फ़िल्में ज़रूर दिखाई गईं, जो देश प्रेम की होती या किसी ऐसे चरित्र पर जिसने समाज को प्रेरित किया हो।
मुझे याद है स्कूल में संत ज्ञानेश्वर कई बार दिखाई गई थी।
कॉलेज के समय में मैंने ख़ूब फ़िल्में देखीं। सन 1973 में ऋषि कपूर की फिल्म 'बॉबी', जिसमें डिम्पल कापड़िया अभिनेत्री थी, बहुत हिट हुई। इसका गाना 'झूठ बोले कौआ काटे, काले कौए से डरियो'', हम बच्चों का पसन्दीदा गाना था, जिसे अन्ताक्षरी में ख़ास जगह मिलती थी।
हालाँकि इस गाना के अर्थ पर हमारा कभी ध्यान नहीं गया, हमें तो बस झूठ बोले कौआ काटे से ही मतलब था।
4 सितम्बर 1952 को मुंबई में जन्मे ऋषि कपूर को एक रोमांटिक अभिनेता के रूप में शोहरत और पहचान मिली।
ऋषि कपूर की अमर अकबर एंथोनी, प्रेम रोग, सरगम, लैला मजनू, चाँदनी, कभी-कभी, सागर, दामिनी, क़र्ज़, हम किसी से कम नहीं आदि ढेरों फ़िल्में आईं और लगभग सभी सराही गईं।
ऋषि कपूर की काफ़ी फ़िल्मों ने बॉक्स ऑफ़िस पर ख़ूब नाम कमाया है।
कुछ फ़िल्में फ्लॉप भी हुईं, पर उनमें भी बहुत कमाल का अभिनय किया है। 'कपूर एंड संस' तथा '102 नॉट आउट' मुझे बेहद पसन्द है। ऋषि कपूर ने '102 नॉट आउट' में 102 वर्षीय पिता जो अमिताभ बच्चन हैं, के 75 वर्षीय बुज़ुर्ग बेटे का किरदार निभाया है।
इस फ़िल्म को देखकर लगा ही नहीं कि वे इसमें अभिनय कर रहे हैं।
बहुत ही सहज, सरल और जीवन्त अभिनय किया है।
जैसे-जैसे ऋषि कपूर की उम्र बढ़ी उनके अभिनय ने एक अलग ही मक़ाम हासिल किया। बहुत शुरू की उनकी फ़िल्में मुझे बहुत पसन्द नहीं थी, लेकिन प्रौढ़ होने के बाद की उनकी सभी फ़िल्में मुझे पसन्द आईं, चाहे वह जिस भी किरदार में हों।
ऋषि कपूर एक ऐसे वरिष्ठ और दिग्गज अभिनेता हैं, जिन्होंने 3 साल की उम्र में राज कपूर की फ़िल्म 'श्री 420' में काम करना शुरू किया। 'मेरा नाम जोकर' में वे बाल कलाकार के रूप में ख़ूब चर्चित हुए और इस फ़िल्म के लिए उन्हें वर्ष 1970 में नेशनल फ़िल्म अवार्ड मिला। वर्ष 1973 में आई फिल्म 'बॉबी' ने बहुत धूम मचाया और इसके लिए वर्ष 1974 में उन्हें फ़िल्मफेयर का बेस्ट एक्टर अवार्ड मिला। वर्ष 2008 में उन्हें फ़िल्मफेयर लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवार्ड मिला। वर्ष 2009 में रशियन सरकार द्वारा सिनेमा में योगदान के लिए सम्मानित किया गया।
वर्ष 2017 में 'कपूर एंड संस' के लिए कई सारे अवार्ड मिले।
लगातार अलग-अलग जगहों से उन्हें ढेरों सम्मान और पुरस्कार मिलते रहे, जैसे ज़ी सिने अवार्ड, स्क्रीन अवार्ड, टाइम्स ऑफ़ इंडिया फ़िल्म अवार्ड आदि।
ऋषि कपूर की आत्मकथा 'खुल्लम खुल्ला : ऋषि कपूर अनसेंसर्ड' का लोकार्पण 15 जनवरी 2017 को हुआ, जिसे ऋषि कपूर ने मीना अय्यर के साथ लिखा है और जिसे हार्पर कॉलिन्स ने प्रकाशित किया है। निःसन्देह ऋषि के चाहने वालों के लिए यह पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण है।
इसमें ऋषि के जीवन के वह पहलू भी मिलेंगे, जिन्हें हमलोग नहीं जानते हैं या कैमरा के सामने आने या सार्वजनिक होने से बच गया है।
ऋषि कपूर किसी भी मुद्दे पर अपनी निष्पक्ष और बेबाक राय रखने के लिए मशहूर रहे हैं।
वे काफ़ी चर्चित हुए, जब उन्होंने सोशल मीडिया पर कहा था कि उन्होंने गाय का मांस खाया है।
इसके विरोध में बजरंग दल वालों ने काफ़ी हंगामा किया और उनसे माफ़ी माँगने को कहा था।
कश्मीर के मुद्दे पर फारूक़ अब्दुल्ला के एक ट्वीट पर ऋषि कपूर ने रीट्वीट किया, जिसके विरोध में उनपर एफ.आई.आर. भी दर्ज हुआ।
ऋषि कपूर अपने बयानों से काफ़ी विवादित रहे हैं। वे अपने बयानों पर सदैव अडिग रहे हैं, यह उनकी बहुत बड़ी विशेषता है।
इसका अर्थ है कि वे काफ़ी सोच-समझकर ही कुछ भी बयान दिया करते थे।
ऋषि कपूर को वर्ष 2018 में बोनमैरो कैंसर हुआ, जिसका इलाज न्यूयॉर्क में चलता रहा।
अमेरिका से इलाज कराने के बावजूद वे स्वस्थ न हो सके और आज उनकी मृत्यु ने हम सभी को झकझोर दिया है।
ऐसे समय में जब देश में कोरोना के कारण लॉकडाउन है, उनकी मृत्यु पर उनके सभी परिवार वाले, उनके सभी मित्र, फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग, उनके प्रशंसक उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल न हो सके।
बहुत कम लोग उपस्थित हो सके, जिन्हें सरकार से इजाज़त मिली।
ज़िन्दगी की क्षणभंगुरता से हम सभी इंकार नहीं कर सकते।
चार दिन की ज़िन्दगी में कब चौथा दिन आ जाता है, पता ही नहीं चलता।
इरफ़ान और ऋषि कपूर की मृत्यु का कारण कैंसर था। वर्ष 2018 में इन दोनों को अपनी बीमारी का पता चला।
इलाज कराने इरफ़ान लन्दन गए और ऋषि न्यूयॉर्क।
दोनों स्वस्थ होकर लौटे; लेकिन कैंसर को हरा नहीं सके और एक दिन के अंतर में दोनों अलविदा कह गए।
अब यह बात मुझे समझ आ गई है कि इंगलैंड हो या अमेरिका, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कहीं भी चले जाओ जीवन के कुछ जंग में हमें हारना ही होता है।
शोहरत या दौलत कुछ भी काम नहीं आती है। मृत्यु अन्तिम सच है, इससे कोई बच नहीं सकता। मन बहुत विचलित है। जीवन-मृत्यु के अटल सत्य को समझते हुए भी स्वीकारने का मन नहीं होता है। ऋषि अब हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु उनकी फ़िल्में, उनके ट्वीट, उनके विचार हमारे बीच हैं।
उन्होंने ज़िन्दगी की अपनी पारी बिना नॉट आउट हुए बहुत अच्छी खेली है। ऋषि कपूर के लिए हम कह सकते हैं कि इस संसार से वे भले ही चले गए, पर वे नॉट आउट हैं और नॉट आउट ही रहेंगे।
- जेन्नी शबनम (30.4.2020)
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