Thursday, April 30, 2020

74. ऋषि नॉट आउट

ऋषि कपूर का जाना मन को बेचैन कर गया है कल से इरफ़ान खान की मृत्यु के शोक में हम सभी डूबे हुए हैं, ऐसे में आज ऋषि कपूर का चला जाना; हम सभी स्तब्ध हो गए हैं। यह बहुत दुःख भरा समय है। कोई शब्द नहीं सूझ रहा कि ऐसे वक़्त में क्या कहा जाए एक कलाकार के चले जाने से उसके देह का अंत भले हो जाता है, मगर उसका काम सदा हमारे साथ जीवित रहता है ऋषि कपूर फ़िल्मी जगत के उस प्रतिष्ठित परिवार से हैं, जहाँ से फ़िल्मी कलाकारों की कई पुश्तें आई हैं। पृथ्वी राज कपूर और राज कपूर की विरासत को बहुत कुशलता और संजीदगी से सँभालने और आगे बढ़ाने में ऋषि कपूर की भूमिका स्मरणीय और सराहनीय है। वे जितने कुशल अभिनेता थे उतने ही संजीदा और ज़िन्दादिल इंसान थे कपूर ख़ानदान का प्यारा और सिने जगत का खिलखिलाता हुआ सितारा चिंटू आज सभी को अलविदा कह गया।   
ऋषि कपूर सही मायने में मेरे ज़माने के हीरो थे जब फ़िल्म देखने और समझने की मेरी उम्र हुई, उस दौर में वे अभिनेता के साथ हीरो बन चुके थे। लेकिन उस उम्र में हमें फ़िल्में नहीं दिखाई जाती थीं। हाँ, हमारे स्कूल में कुछ फ़िल्में ज़रूर दिखाई गईं, जो देश प्रेम की होती या किसी ऐसे चरित्र पर जिसने समाज को प्रेरित किया हो। मुझे याद है स्कूल में संत ज्ञानेश्वर कई बार दिखाई गई थी। कॉलेज के समय में मैंने ख़ूब फ़िल्में देखीं। सन 1973 में ऋषि कपूर की फिल्म 'बॉबी', जिसमें डिम्पल कापड़िया अभिनेत्री थी, बहुत हिट हुई। इसका गाना 'झूठ बोले कौआ काटे, काले कौए से डरियो'', हम बच्चों का पसन्दीदा गाना था, जिसे अन्ताक्षरी में ख़ास जगह मिलती थी। हालाँकि इस गाना के अर्थ पर हमारा कभी ध्यान नहीं गया, हमें तो बस झूठ बोले कौआ काटे से ही मतलब था।   
4 सितम्बर 1952 को मुंबई में जन्मे ऋषि कपूर को एक रोमांटिक अभिनेता के रूप में शोहरत और पहचान मिली। ऋषि कपूर की अमर अकबर एंथोनी, प्रेम रोग, सरगम, लैला मजनू, चाँदनी, कभी-कभी, सागर, दामिनी, क़र्ज़, हम किसी से कम नहीं आदि ढेरों फ़िल्में आईं और लगभग सभी सराही गईं। ऋषि कपूर की काफ़ी फ़िल्मों ने बॉक्स ऑफ़िस पर ख़ूब नाम कमाया है। कुछ फ़िल्में फ्लॉप भी हुईं, पर उनमें भी बहुत कमाल का अभिनय किया है। 'कपूर एंड संस' तथा '102 नॉट आउट' मुझे बेहद पसन्द है। ऋषि कपूर ने '102 नॉट आउट' में 102 वर्षीय पिता जो अमिताभ बच्चन हैं, के 75 वर्षीय बुज़ुर्ग बेटे का किरदार निभाया है। इस फ़िल्म को देखकर लगा ही नहीं कि वे इसमें अभिनय कर रहे हैं। बहुत ही सहज, सरल और जीवन्त अभिनय किया है। जैसे-जैसे ऋषि कपूर की उम्र बढ़ी उनके अभिनय ने एक अलग ही मक़ाम हासिल किया। बहुत शुरू की उनकी फ़िल्में मुझे बहुत पसन्द नहीं थी, लेकिन प्रौढ़ होने के बाद की उनकी सभी फ़िल्में मुझे पसन्द आईं, चाहे वह जिस भी किरदार में हों।   
ऋषि कपूर एक ऐसे वरिष्ठ और दिग्गज अभिनेता हैं, जिन्होंने 3 साल की उम्र में राज कपूर की फ़िल्म 'श्री 420' में काम करना शुरू किया। 'मेरा नाम जोकर' में वे बाल कलाकार के रूप में ख़ूब चर्चित हुए और इस फ़िल्म के लिए उन्हें वर्ष 1970 में नेशनल फ़िल्म अवार्ड मिला। वर्ष 1973 में आई फिल्म 'बॉबी' ने बहुत धूम मचाया और इसके लिए वर्ष 1974 में उन्हें फ़िल्मफेयर का बेस्ट एक्टर अवार्ड मिला। वर्ष 2008 में उन्हें फ़िल्मफेयर लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवार्ड मिला। वर्ष 2009 में रशियन सरकार द्वारा सिनेमा में योगदान के लिए सम्मानित किया गया। वर्ष 2017 में 'कपूर एंड संस' के लिए कई सारे अवार्ड मिले। लगातार अलग-अलग जगहों से उन्हें ढेरों सम्मान और पुरस्कार मिलते रहे, जैसे ज़ी सिने अवार्ड, स्क्रीन अवार्ड, टाइम्स ऑफ़ इंडिया फ़िल्म अवार्ड आदि।   
ऋषि कपूर की आत्मकथा 'खुल्लम खुल्ला : ऋषि कपूर अनसेंसर्ड' का लोकार्पण 15 जनवरी 2017 को हुआ, जिसे ऋषि कपूर ने मीना अय्यर के साथ लिखा है और जिसे हार्पर कॉलिन्स ने प्रकाशित किया है। निःसन्देह ऋषि के चाहने वालों के लिए यह पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें ऋषि के जीवन के वह पहलू भी मिलेंगे, जिन्हें हमलोग नहीं जानते हैं या कैमरा के सामने आने या सार्वजनिक होने से बच गया है।   
ऋषि कपूर किसी भी मुद्दे पर अपनी निष्पक्ष और बेबाक राय रखने के लिए मशहूर रहे हैं। वे काफ़ी चर्चित हुए, जब उन्होंने सोशल मीडिया पर कहा था कि उन्होंने गाय का मांस खाया है। इसके विरोध में बजरंग दल वालों ने काफ़ी हंगामा किया और उनसे माफ़ी माँगने को कहा था। कश्मीर के मुद्दे पर फारूक़ अब्दुल्ला के एक ट्वीट पर ऋषि कपूर ने रीट्वीट किया, जिसके विरोध में उनपर एफ.आई.आर. भी दर्ज हुआ। ऋषि कपूर अपने बयानों से काफ़ी विवादित रहे हैं। वे अपने बयानों पर सदैव अडिग रहे हैं, यह उनकी बहुत बड़ी विशेषता है। इसका अर्थ है कि वे काफ़ी सोच-समझकर ही कुछ भी बयान दिया करते थे।   
ऋषि कपूर को वर्ष 2018 में बोनमैरो कैंसर हुआ, जिसका इलाज न्यूयॉर्क में चलता रहा। अमेरिका से इलाज कराने के बावजूद वे स्वस्थ न हो सके और आज उनकी मृत्यु ने हम सभी को झकझोर दिया है। ऐसे समय में जब देश में कोरोना के कारण लॉकडाउन है, उनकी मृत्यु पर उनके सभी परिवार वाले, उनके सभी मित्र, फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग, उनके प्रशंसक उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल न हो सके। बहुत कम लोग उपस्थित हो सके, जिन्हें सरकार से इजाज़त मिली।   
ज़िन्दगी की क्षणभंगुरता से हम सभी इंकार नहीं कर सकते। चार दिन की ज़िन्दगी में कब चौथा दिन आ जाता है, पता ही नहीं चलता। इरफ़ान और ऋषि कपूर की मृत्यु का कारण कैंसर था। वर्ष 2018 में इन दोनों को अपनी बीमारी का पता चला। इलाज कराने इरफ़ान लन्दन गए और ऋषि न्यूयॉर्क। दोनों स्वस्थ होकर लौटे; लेकिन कैंसर को हरा नहीं सके और एक दिन के अंतर में दोनों अलविदा कह गए। 
 
अब यह बात मुझे समझ आ गई है कि इंगलैंड हो या अमेरिका, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कहीं भी चले जाओ जीवन के कुछ जंग में हमें हारना ही होता है। शोहरत या दौलत कुछ भी काम नहीं आती है। मृत्यु अन्तिम सच है, इससे कोई बच नहीं सकता। मन बहुत विचलित है। जीवन-मृत्यु के अटल सत्य को समझते हुए भी स्वीकारने का मन नहीं होता है। ऋषि अब हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु उनकी फ़िल्में, उनके ट्वीट, उनके विचार हमारे बीच हैं। उन्होंने ज़िन्दगी की अपनी पारी बिना नॉट आउट हुए बहुत अच्छी खेली है। ऋषि कपूर के लिए हम कह सकते हैं कि इस संसार से वे भले ही चले गए, पर वे नॉट आउट हैं और नॉट आउट ही रहेंगे।   

- जेन्नी शबनम (30.4.2020)
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Wednesday, April 29, 2020

73. अलविदा मक़बूल

सिनेमा हॉल का दरवाज़ा बंद था। खुलने के निर्धारित समय से ज़्यादा वक़्त हो चला था। तभी एक गेटकीपर बाहर आया, उससे मैंने पूछा कि बहुत ज़्यादा देर हो रही है, मूवी शुरू होने में देर क्यों है? उसने बताया कि थोड़ी देर हो जाएगी, क्योंकि फ़िल्म के प्रोमोशन के लिए इस फ़िल्म के लोग आए हैं। सुनते ही वहाँ उपस्थित सभी लोग मेरे साथ उस गेट के बाहर एकत्रित हो गए। मन में बहुत उत्सुकता थी कि एक झलक कलाकारों को देख लूँ। मैं सिनेमा की बेहद शौक़ीन रही हूँ और फर्स्ट डे और कभी-कभी तो फर्स्ट डे फर्स्ट शो भी देखती हूँ। साथ देखने वाला कोई न भी हो परवाह नहीं, अकेले जाकर देखती हूँ। 
 
भीड़ काफ़ी बढ़ गई मैं खड़े-खड़े थक गई, तो सोचा कि जाकर थोड़ी देर बैठूँ। तभी हॉल का गेट खुला और ढेर सारे लोग बाहर निकलने लगे। देखा कि भीड़ के साथ अर्जुन रामपाल और उनके साथ इरफ़ान खान आ रहे हैं। बाक़ी और कौन-कौन थे साथ में, किसी पर मेरी नज़र नहीं ठहरी, क्योंकि ये दोनों मेरे पसन्दीदा कलाकार हैं। जैसे ही मैंने इरफ़ान को देखा, तो बेटी को ज़रा ज़ोर से बोली कि देखो मक़बूल आ रहा है। कुछ लोग मेरी बातों पर हँस दिए। मैं मक़बूल को देखती रही और वे सामने से मुस्कुराते हुए गुज़र गए। अर्जुन तो हैण्डसम हैं ही लेकिन इरफ़ान की ख़ूबसूरती देखकर मैं दंग रह गई। कत्थई रंग का सूट पहने हुए, घुंघराला सुनहरा बाल, बड़ी-बड़ी आँखें और मुस्कुराता चेहरा, लंबा छरहरा बदन। रील के चेहरे से ज़्यादा ख़ूबसूरत रियल चेहरा। यह बात है 2013 की, फ़िल्म का नाम 'डी-डे', दिल्ली के साकेत स्थित सेलेक्ट सिटी मॉल का पी.वी.आर. सिनेमा हॉल।   
वर्ष 2004 में एक फ़िल्म आई थी 'मक़बूल', जिसमें मक़बूल का किरदार इरफ़ान खान ने निभाया था। बड़ी अच्छी लगी थी फ़िल्म। यों अब फ़िल्म की कहानी याद नहीं, इतना याद है कि क्राइम पर आधारित फ़िल्म थी और इरफ़ान के साथ तब्बू के कुछ अच्छे सीन थे। मुझे उनका असली नाम कभी याद नहीं रहताजब भी इरफ़ान की कोई फ़िल्म देखने जाना हो और कोई पूछे कि फ़िल्म में कौन एक्टर है, तो मैं मक़बूल बोलती हूँ। इरफ़ान की लगभग सभी फ़िल्में देखी है मैंने और अब भी मक़बूल ही बोलती हूँ, जाने क्यों।   
7 जनवरी 1967 को जयपुर, राजस्थान में जन्मे इरफ़ान खान हिन्दी और अँगरेज़ी सिनेमा तथा टेलीविजन के बहुत कुशल अभिनेता थे। बॉलीवुड तथा हॉलीवुड में इरफ़ान एक जाना पहचाना नाम हैं। इरफ़ान को 'हासिल' फ़िल्म के लिए वर्ष 2004 के फ़िल्मफेयर में सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार मिला है। वर्ष 2008 में बेस्ट ऐक्टर इन सपोर्टिंग रोल का फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला है। अभिनय के लिए सन 2011 में इरफ़ान पद्मश्री से सम्मानित हो चुके हैं। राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार 2012 में फिल्म 'पान सिंह तोमर' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला। वर्ष 2017 के फ़िल्मफेयर में फ़िल्म 'हिन्दी मीडियम' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला है। 
वर्ष 2018 में जब इरफ़ान को न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर हुआ, तब इरफ़ान ने अपने प्रशंसकों के लिए एक बेहद भावुक नोट लिखा था-
''जीवन में अनपेक्षित बदलाव आपको आगे बढ़ना सिखाते हैं। मेरे बीते कुछ दिनों का लब्बोलुआब यही है। पता चला है कि मुझे न्यूरोएंडोक्राइन ट्यूमर हो गया हैइसे स्वीकार कर पाना मुश्किल है; लेकिन आस-पास जो लोग हैं, उनका प्यार और उनकी दुआओं ने मुझे शक्ति दी है कुछ उम्मीद भी बँधी है। फ़िलहाल बीमारी के इलाज के लिए मुझे देश से दूर जाना पड़ रहा है। लेकिन मैं चाहूँगा कि आप सन्देश भेजते रहें।'' ''न्यूरो सुनकर लोगों को लगता है कि ये समस्या ज़रूर सिर से जुड़ी बीमारी होगी लेकिन ऐसा नहीं है इसके बारे में अधिक जानने के लिए आप गूगल कर सकते हैं। जिन लोगों ने मेरे शब्दों की प्रतीक्षा की, इन्तिज़ार किया कि मैं अपनी बीमारी के बारे में कुछ कहूँ, उनके लिए मैं कई और कहानियों के साथ ज़रूर लौटूँगा।''
इरफ़ान अपनी बीमारी के इलाज के लिए लन्दन गए थे। जब वहाँ से लौटे और 'अंग्रेज़ी मीडियम' फ़िल्म किया, तो मुझे लगा कि वे पूर्णतः स्वस्थ हो चुके हैं; क्योंकि मेरा अनुमान था कि कुछ कैंसर ठीक हो जाता है और चिकित्सा के लिए लन्दन के अस्पताल अच्छे माने जाते हैं। 'अंग्रेज़ी मीडियम' उनकी आख़िरी फ़िल्म हो गई। लॉकडाउन के कारण यह फ़िल्म सिनेमा हॉल तक न जा सकी और ऑनलाइन रिलीज हुई। 'हिन्दी मीडियम' की ही तरह 'अंग्रेज़ी मीडियम' हिन्दी और अँगरेज़ी भाषा की विषमताओं पर आधारित बहुत ही संवेदनशील फ़िल्म है। इरफ़ान अपनी इस फ़िल्म की सफलता जो सिनेमा हॉल में मिलती, न देख सके। इरफ़ान की आख़िरी ट्वीट 12 अप्रैल को, जिसे उन्होंने अपनी अन्तिम फ़िल्म 'अंग्रेज़ी मीडियम' के ऑन लाइन रिलीज होने पर किया था- ''मिस्टर चम्पक की मनःस्थिति : अंदर से प्यार, कोशिश करूँगा कि बाहर से दिखा सकूँ।' (''Mr. Champak's state of mind : Love from the inside, making sure to show it outside.'')   
इरफ़ान एक कलाकार के रूप में गज़ब का अभिनय करते हैं। आँखों से भाव को अभिव्यक्त करने में उन्हें महारत हासिल है। जिस भी किरदार में होते हैं जीवन्त कर देते हैं, चाहे वह पान सिंह हो या मक़बूल। उनकी सभी फ़िल्में और उनका अभिनय बेहतरीन है। हिन्दी फ़िल्मों में मक़बूल, रोग, पान सिंह तोमर, लंच बॉक्स, हिन्दी मीडियम, अंग्रेज़ी मीडियम आदि बहुत सफल है और मुझे बेहद पसन्द है। टी.वी. पर चाणक्य, भारत एक खोज आदि धारावाहिक में वे काम कर चुके हैं। हिन्दी फ़िल्म, अँगरेज़ी फ़िल्म और टी.वी. धारावाहिक सभी में उनका अभिनय बहुत उत्कृष्ट रहा है और हर जगह अपनी छाप छोड़ी है।   
आज इरफ़ान की मृत्यु की ख़बर पढ़कर स्तब्ध हूँ। अभी 4 दिन पहले 25 तारीख़ को उनकी माँ गुज़र गईं, परन्तु कोरोना के कारण देशव्यापी लॉकडाउन की वज़ह से इरफ़ान अपनी माँ की अन्तिम यात्रा में शामिल न हो सके थे। कल उनकी तबीयत बिगड़ने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया आज ज़िन्दगी से बिना जंग किए, मौत के साथ वे इस दुनिया से चले गए। सिर्फ़ फ़िल्मी दुनिया या उनके अपनों के लिए नहीं, बल्कि उनके चाहनेवालों और प्रशंसकों के लिए भी बहुत बड़ा सदमा है। ऐसा सदमा जो हमें इरफ़ान को कभी भूलने नहीं देगा। उनकी फ़िल्में, उनके किरदार, उनका अभिनय, उनकी आँखें, उनकी आँखों की भाषा, उनकी हँसी, उनकी अदाकारी सब कुछ यहाँ हमारे लिए वे छोड़ गए हैं। जब चाहे इन फ़िल्मों या धारावाहिक में उन्हें अभिनय करते हुए हम देख सकते हैं, पर इस बात का दुःख हमेशा रहेगा कि अब उनकी कोई नई फ़िल्म नहीं आएगी और कोई उन्हें कभी नहीं देख पाएगा। 

अलविदा मक़बूल!  

- जेन्नी शबनम (29.4.2020)
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Monday, April 6, 2020

72. क़ातिल कोरोना का क़हर

भारत तथा विश्व की वर्तमान परिस्थिति पर ध्यान दें, तो ऐसा लग रहा है मानो प्रकृति हमें चेतावनी दे रही है कि बहुत हुआ, अब तो चेत जाओ, वापस लौट जाओ अपनी-अपनी जड़ों की तरफ़, जिससे प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर एक सुन्दर दुनिया निर्मित हो सके सिर्फ़ भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व आधुनिकता की दौड़ में इस तरह उलझ चुका है कि थोड़ी देर रुककर चिन्तन, मनन, आत्मविश्लेषण करने को तैयार नहीं। अगर ज़रा देर रुके तो शेष दुनिया न जाने कितनी आगे निकल जाएगी, कितना कुछ छूट जाएगा, जाने कितना नुक़सान हो जाएगा। पैसा, पद, प्रतिष्ठा, पहचान, पहुँच आदि सफलता के नए मानदण्ड बन गए हैं। सफल होना तभी सम्भव है, जब प्रतिस्पर्धा की दौड़ में ख़ुद को सबसे आगे रखा जाए। प्रतिस्पर्धा में जीतना ही आज के समय में दुनिया जीतने का मंत्र है।  

जीव-जन्तु तो सदैव अपनी प्रकृति के साथ जीवन जीते हैं, भले आज के समय में उन्हें हम मनुष्यों ने प्रकृति से दूर कर दिया है। परन्तु मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध प्रकृति को हथियार बनाकर विजयी होना चाहता है। इस कारण एक तरफ़ प्रकृति का दोहन हो रहा है, तो दूसरी तरफ़ हम प्रकृति से दूर होते चले जा रहे हैं। हम भूल गए हैं कि मनुष्य हो या कोई भी जीव-जन्तु, सभी प्रकृति के अंग हैं और प्रकृति पर निर्भर हैं। प्राकृतिक संसाधन हमें प्रचुर मात्रा में मिला है; लेकिन हमारी प्रवृत्ति ने हमें आज विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है। हमारी जीवन शैली ऐसी हो चुकी है कि हम सिर्फ़ एक दिन भी प्रकृति के साथ नहीं गुज़ार सकते हैं। अप्राकृतिक जीवनचर्या के कारण हमारी शारीरिक क्षमताएँ धीरे-धीरे कम हो रही हैं। हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली प्रभावित हो गई है, जिससे रोग प्रतिरोधक शक्ति भी कम हो गई है।  

सभी जानते हैं कि हानिकारक जीवाणु (बैक्टीरिया) हो या कोई भी विषाणु (वायरस) इसका प्रसार संक्रमण के माध्यम से होता है। कोरोना वायरस के संक्रमण से आज पूरी दुनिया संकट में है और असहाय महसूस कर रही है। अज्ञानता, मूढ़ता, भय, लापरवाही, अतार्किकता, असंवेदनशीलता आदि के कारण जिस तरह कोरोना का संक्रमण बढ़ता जा रहा है, निःसन्देह यह न सिर्फ़ चिन्ता का विषय है, बल्कि हमारी विफलता भी है। कोरोना से मौत का आँकड़ा प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। टी.वी. और अख़बार के समाचार के मुताबिक़ सिर्फ़ चीन, जहाँ से कोरोना के संक्रमण की शुरुआत हुई थी, वहाँ स्थिति नियंत्रण में है। शेष अन्य देशों की स्थिति गम्भीर होती जा रही है।  

आम जनता को कोरोना की भयावहता का अनुमान शुरू में नहीं हुआ था।मार्च 22 को जब एक दिन का जनता कर्फ़्यू लगा और ताली, थाली, घंटी आदि बजाने का आह्वान प्रधानमंत्री ने किया, तब इसका भय लोगों में बढ़ा काफ़ी सारे लोगों के लिए ताली-थाली-घंटी बजाना मनोरंजन का अवसर रहा वे अपने-अपने घरों से निकलकर मानो उत्सव मनाने लगे; यों जैसे ताली-थाली-घंटी पीटने से कोरोना की मृत्यु हो रही हो, या यह कोई जादू-टोना या टोटका हो, जिससे कोरोना समाप्त हो जाएगा। अप्रैल 5 को जब प्रधानमंत्री ने रात के 9 बजे घर की बत्ती बुझाकर दीया जलाने को कहा, तो लोगों ने इसे दीपोत्सव बना दिया। दीये जलाए गए, आतिशबाज़ी भी ख़ूब हुई, मोदी जी के लिए ख़ूब नारे लगे। यों लग रहा था मानो यह कोई त्योहार हो। अगर प्रधानमंत्री एक दीया जलाकर दो मिनट मौन रखने को कहते, जो लोग इस महामारी में मारे गए हैं, तो शायद लोग इसे गम्भीरता से लेते और भीड़ इकट्ठी कर न पटाखे फोड़ते न दीवाली मनाते। हम भारतीय इतने असंवेदनशील कैसे होते जा रहे हैं? कोरोना कोई एक राक्षस नहीं है जिसे भीड़ इकट्ठी कर अग्नि से डराकर ललकारा जाए और वह मनुष्यों की एकजुटता और उद्घोष से डर कर भाग जाए।  

प्रधानमंत्री द्वारा लॉकडाउन की घोषणा किए जाने के बाद जिस तरह अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हुआ, उससे कोरोना का संक्रमण और फैल गया। अधिकतर लोग बाज़ार से महीनों का सामान घर में भरने लगे। जिससे बाज़ार में ज़रूरी सामानों की क़िल्लत हो गई और दुकानों में भीड़ इकट्ठी होने लगी। चारों तरफ़ अफ़रा-तफ़री का माहौल हो गया। क्वारंटीन, आइसोलेशन, सोशल डिसटेनसिंग, घर से बाहर न निकलना आदि को लेकर ढेरों भ्रांतियाँ फैलने लगीं। लोग भय और आशंका से पलायन करने लगे; जिससे ट्रेन, बस इत्यादि में संक्रमण और फैलने लगा।  

जनवरी 2020 के अंत में जब भारत में पहला कोरोना का मामला आया तभी सरकार को ठोस क़दम उठाना चाहिए था। विदेशों से जितने भी लोग आ रहे थे, उसी समय उन्हें क्वारंटीन करना चाहिए था। देश में जितने भी समारोह, सम्मलेन, सभा का आयोजन जिसमें भीड़ इकट्ठी होनी थी, तुरन्त बंद कर देना चाहिए था। कोरोना का मामला आने के बाद भी ढेरों सरकारी कार्यक्रम हुए जिनमें देश-विदेश से लोगों ने शिरकत की कहीं भी किसी तरह की भीड़ इकत्रित होने पर पाबन्दी नहीं लगाई गई। लगभग दो महीने से थोड़े कम दिन में जब कोरोना के संक्रमण का फैलाव बहुत ज़्यादा हुआ और मौत का सिलसिला शुरू हुआ तब सरकार जाग्रत हुई। इतने विलम्ब से लॉकडाउन के निर्णय का कारण समझ से परे है; क्योंकि वास्तविक स्थिति का अंदाज़ा स्वास्थ्य मंत्रालय के पास रहा ही होगा। अगर स्वास्थ्य मंत्रालय इसकी भयावहता से अनभिज्ञ था, तो यह भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश के लिए शर्म की बात है।  

लॉकडाउन होने के बाद दिल्ली से पलायन करने के लिए हज़ारों की संख्या में लोग एकत्रित हो गए। इनमें दूसरे राज्यों से आए दिहाड़ी मज़दूरों की संख्या ज़्यादा थी। निःसन्देह अफ़वाहों और सरकार के प्रति अविश्वसनीयता के कारण वे सभी ऐसा करने के लिए विवश हुए। न काम है, न अनाज है, न पैसा है, न घर है; ऐसे में कोई क्या करे? सरकार खाना देगी यह गारंटी कौन किसे दे? गरीबों की सुविधा का ध्यान कभी किसी सरकार ने रखा ही कब? हालाँकि पहली बार यह हुआ है कि दिल्ली में सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की स्थिति आश्चर्यजनक रूप से बहुत अच्छी हुई है। रैनबसेरा, सस्ता खाना आदि का प्रबन्ध उत्तम हुआ है। फिर भी राजनीति, नेता और सरकार पर विश्वास शीघ्र नहीं होता है। ऐसे में उन्हें यही विकल्प सूझा होगा कि किसी तरह अपने-अपने घर चले जाएँ, ताकि कम-से-कम ज़िन्दा तो रह सकें। इनमें सभी जाति-धर्म के लोग शामिल थे। लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद सरकार अपने ख़र्च पर सुरक्षित तरीक़े से सभी को अपने-अपने गाँव या शहर पहुँचा देती, तो समस्याएँ इतनी विकराल रूप नहीं लेतीं। शेल्टर में रहकर कोई कितने दिन समय काट सकता है?  

निज़ामुद्दीन स्थित मरकज़ में तब्लीग़ी जमात के लोगों की गतिविधियाँ बेहद शर्मनाक हैं। लॉकडाउन के बावजूद वे सभी इतनी बड़ी संख्या में साथ रह रहे थे। उन्हें जब जबरन जाँच के लिए ले जाया जा रहा था तब और अस्पताल में जाने के बाद जिस तरह की घिनौनी हरकत वे कर रहे हैं, उन्हें कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए। सरकार द्वारा निवेदन और चेतावनी के बावजूद निज़ामुद्दीन के अलावा देश में कई स्थानों पर अब भी भीड़ इकट्ठी हो रही है। कई जगह स्वास्थ्यकर्मियों एवं पुलिस के साथ बदसलूकी की जा रही है।कई मामले ऐसे हो रहे हैं जब संक्रमित व्यक्तियों को आइसोलेशन में रखा गया, तो वे भाग गए या ख़ुद को ख़त्म कर लेने की धमकी दे रहे हैं। कुछ लोग कोई-न-कोई जुगाड़ लगाकर लॉकडाउन के बावजूद घर से बहार निकल रहे हैं। जबकि सभी को मालूम है कि जितना ज़्यादा सोशल डिसटेनसिंग रहेगा संक्रमण से बचाव होगा। ऐसे लोग जान-बूझकर जनता, सरकारी व्यवस्था और स्वास्थ्यकर्मियों के लिए परेशानी पैदा कर रहे हैं। लॉकडाउन से कोरोना के रफ़्तार में जो कमी आती, उसे इनलोगों ने न सिर्फ़ रोक दिया है बल्कि ख़तरा को बहुत ज़्यादा बढ़ा दिया है। समाज की भलाई किसी भी धर्म-संप्रदाय से बढ़कर है

राजनीति और सियासत का खेल हर हाल में जारी रहता है, भले देश में आपातकाल की स्थिति हो। एक दिन अख़बार में फोटो के साथ ख़बर छपी कि दिल्ली सरकार एक लड्डू, ज़रा-सा अचार के साथ सूखी पूड़ी बाँट रही है। अब देश में महा-समारोह तो नहीं चल रहा कि पकवान बना-बनाकर सरकार परोसेगी। यहाँ अभी किसी तरह ज़िन्दा और सुरक्षित रहने का प्रश्न है। ऐसे हालात में दो वक़्त दो सूखी रोटी और नमक या खिचड़ी मिल जाए, तो भी काम चलाया जा सकता है। अगर अच्छा भोजन उपलब्ध हो सके, तो इससे बढ़कर ख़ुशी की क्या बात होगी। अफ़वाह यह भी फैला कि खाना मिल ही नहीं रहा है, भूख से लोग मर रहे हैं। जबकि दिल्ली सरकार, केन्द्र सरकार, ढेरों संस्थाएँ, सामाजिक कार्यकर्ता आदि इस काम में पूरी तन्मयता से लगे हुए हैं।  

देश और दुनिया के हालात से सबक लेकर हमें अपनी जीवन शैली में सुधार करना होगा। खान-पान हो या अन्य आदतें, प्रकृति के नज़दीक जाकर प्रकृति के द्वारा ख़ुद को सुधारना होगा। भले कोरोना चमगादड़ से फैला है, लेकिन कई सारे जानवरों से दूसरे प्रकार का संक्रमण फैलता है। अतः मांसाहार को त्यागकर शुद्ध शाकाहारी भोजन करना चाहिए। योग, व्यायाम तथा उचित दैनिक दिनचर्या का पालन करना चाहिए, ताकि हमारे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता बढ़े। संचार माध्यमों के इस्तेमाल के साथ आपसी रिश्ते को मज़बूती से थामे रखा जाए, ताकि कहीं कोई अवसाद में न जाए।  

कोरोना के क़हर से बचाव के लिए हम सभी को स्वयं का और सरकार का सहयोग देना होगा। सिर्फ़ सरकार पर दोषारोपण कहीं से जायज़ नहीं है। हम देशवासियों को अपना कर्त्तव्य समझना चाहिए। जिन्हें संक्रमण की थोड़ी भी आशंका हो, उन्हें स्वयं आइसोलेट हो जाना चाहिए या क्वारंटीन के लिए चला जाना चाहिए। इस राष्ट्रीय और वैश्विक आपदा की घड़ी में अपने-अपने घरों में रहकर हम आवश्यक और मनोवांछित कार्य कर सकते हैं।मनोरंजन के ढेरों साधन घर पर उपलब्ध हैं, ऐसे में बोरियत का सवाल ही नहीं। एकान्तवास से अच्छा और कोई अवकाश नहीं होता, जब हम चिन्तन-मनन कर सकते हैं और कार्य योजना बना सकते हैं। आत्मावलोकन, आत्मविश्लेषण और कुछ नया सीखने का यह बहुत अच्छा मौक़ा है। यों कोरोना के कारण मन अशांत और ख़ौफ़ में है; परन्तु इससे कोरोना का ख़तरा बढ़ेगा, कम नहीं होगा। बेहतर है स्वयं, परिवार, समाज, देश और विश्व के उत्थान के लिए हम इस समय का सदुपयोग करें।  

- जेन्नी शबनम (6.4.2020)
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